Monday, 26 May 2014

मसाण लगी रे....

चमोली जनपद की एक सुनसान व उबड़-खाबड़ सड़क पर जिलाधिकारी का कार दौड़ रही थी। रात के करीब साढ़े 11 का वक्त था। दूरस्थ गांव में समस्याओं को लेकर ग्रामीणों के साथ बैठक कर डीएम वापस गोपेश्वर लौट रहे थे। लौटते वक्त कुछ ज्यादा देर हो गई। कहीं दूसरी जगह रात बिताने की बजाय वह अपने बंगले में ही पहुंचना चाहते थे। तभी हल्की बारिश शुरू होने पर चालक को वाहन चलाने में दिक्कत होने लगी। स्पीड हल्की कर  वह अंधेरे में आगे तक सड़क देखने का प्रयास कर रहा था। तभी सफेद कपड़ों में सुनसान राह में एक व्यक्ति उन्हें नजर आया। इस व्यक्ति ने हाथ में एक रस्सी पकड़ी थी। इससे एक बकरा बंधा था। व्यक्ति जबरन बकरे को खींच कर ले जा रहा था, जबकि रात को बकरा आगे बढ़ने से शायद इंकार कर रहा था। ऐसे में वह कई बार एक ईंच भी आगे नहीं सरक रहा था।
इस दृश्य को देख जिलाधिकारी चंद्रभान की उत्सुकता बढ़ गई। उन्होंने चालक से गाड़ी रोकने को कहा। चालक ने गाड़ी रोकी तो जिलाधिकारी नीचे उतरे और उक्त व्यक्ति के पास पहुंचे। उन्होंने पूछा- तुम कौन हो और इतनी रात को कहां जा रहे हो।
जवाब में वह व्यक्ति बोला- मैं पंडित हूं और शमशान घाट जा रहा हूं। मुसाण पूजन करना है।
पहाड़ में सिर्फ व्यक्ति दो ही चीज से डरता है। इनमें एक है गुलदार और दूसरा है भूत। दिन हो या रात, गुलदार किसी भी भरे पूरे परिवार के किसी भी सदस्य पर मौत का पंजा मार देता है। कई बार तो गांव के गाव बच्चों व बूढ़ों से खाली होने लगते हैं। साथ ही महिलाएं भी उसका शिकार बनती हैं। अक्सर गुलदार बीमार, बूढ़े, बच्चों, महिलाओं को आसानी से शिकार बना लेता है। किसी हैजा की तरह गुलदार का आतंक एक गांव में पसरता है तो यह बढ़कर आसपास के कई गांवों तक पहुंच जाता है। सांझ ढलते ही लोग घरों में दुबकने को मजबूर होने लगते हैं। बच्चों को हमेशा बड़ों की नजर में रखा जाता है, लेकिन किसी छलावे की तरह गुलदार कभी भी झपट्टा मारकर अपनी भूख मिटाने में कामयाब हो जाता है।
गुलदार के बाद पहाड़ों में लोग यदि डरते हैं तो वह है भूत। इस भूत के भी कई नाम होते हैं। जो स्थान व गांव बदलने के साथ ही बदल जाते हैं। कहीं उसे मसाण के नाम से जाना जाता है, तो कहीं खबेश कहते हैं। कहीं देवता का प्रकोप तो कहीं कुछ ओर। भूत या मसाण का आतंक भी गुलदार की तरह है। कभी किसी गांव में कोई बीमारी फैलती है तो इसका सारा दोष मसाण पर ही मढ़ दिया जाता है। फिर डॉक्टर के पास जाने की बजाय पंडित, बाकी या तांत्रिक के पास जाकर इलाज तलाशा जाता है। इलाज करने वाले भी पक्के जादूगर होते हैं। एक बकरे की बलि या फिर अन्य टोटके  अपनाते हैं। इसके बाद गांव को बीमारी से निजात दिलाने का दावा करते हैं।
पंडितजी को देखते ही डीएम चंद्रभान समझ गए कि यह भी किसी गांव की बीमारी को दूर करने के लिए मुसाण पूजन को जा रहा है। उन्होंने कार को सड़क किनारे पार्क करने को कहा और चालक, अपने साथ  बैठे गनर व अर्दली को साथ लेकर पंडितजी के पीछे हो गए। करीब आधा किलोमीटर पैदल मार्ग पर चलने के बाद वे एक शमशान घाट पर पहुंच गए। वहां पहले से ही कुछ ग्रामीण मौजूद थे। वह समझ गए कि अब बेजुवान की बलि दी जाएगी। इससे पहले ग्रामीण कुछ करते डीएम चंद्रभान ने अपना परिचय उन्हें दिया और पूछा कि आपकी दिक्कत क्या है। ग्रामीण बोले कि गांव में मसाण लगा हुआ है। लोग बीमार हो रहे हैं। बीमारी का इलाज नहीं हो रहा है। कई ग्रामीण मर चुके हैं। कई लोग गांव छोड़कर छानियों (गांव से दूर जंगल में मवेशियों के छप्पर) में शरण ले चुके हैं। अब मुसाण पूजन ही मुसीबत से बचने का एकमात्र उपाय है।
डीएम ने ग्रामीणों से कहा कि तु्म्हारा मसाण को मैं भगा दूंगा, लेकिन तुम भी मुझे कुछ दिन का वक्त दो। साथ ही इस जानवर की बलि आज न चढ़ाओ। मेरी बात को मानो सब कुछ ठीक हो जाएगा। पहले ग्रामीण ना नुकुर करते रहे, लेकिन डीएम की सख्ती के आगे उन्हें उस दिन बलि का आयोजन टालना पड़ा। अगली सुबह प्रभावित गांव में  खुद जिलाधिकारी पहुंचे। उनके साथ चिकित्सकों की टीम ने गांव में बीमार लोगों का परीक्षण शुरू किया। जल संस्थान व अन्य विभागों की टीम इस जांच में जुट गई कि गांव में बीमारी फैलने का क्या कारण है। टैस्टिंग में पानी के सेंपल फेल निकले। इस पर पता चल गया कि असली मसाण तो पानी में है। जिलाधिकारी की मुहीम रंग लाई और बीमार ग्रामीण एक सप्ताह के भीतर स्वस्थ हो गए। अधिकारियों की टीम भी गांव से शहर लौट गई। इस गांव में फिर मसाण पूजन तो नहीं हुआ, लेकिन काली पूजन किया गया। उस काली का, जिसके आशीर्वाद से गांव के लोग बीमारी से छुटकारा पा गए। काली पूजन पर एक समारोह आयोजित किया गया। इस आयोजन में उस बकरे की बलि दी गई, जिसे गले में छुरी चलने से डीएम ने पहले बचाया था।
भानु बंगवाल

Sunday, 11 May 2014

तेरे कष्ट चबा रहा हूं बेटा...

मोबाइल में मैसेज आने पर अंकित को पता चला कि बैंक में सेलरी आ गई है। मैसेज पढ़ने पर उसे इस बात का दुखः हुआ कि इस बार भी सेलरी में मामूली इजाफा हुआ है। उसे उम्मीद थी कि नए वेतनमान के मुताबिक सेलरी बढ़ेगी। इसे लेकर उसने आगामी खर्च का खाका भी मन में खींच लिया था। पर हुआ वही ढाक के तीन पात। महंगाई के इस दौर में वेतन में सिर्फ एक हाजर रुपये ही बढ़े। वह जानता था कि यह राशि उसके हिसाब से काफी कम है। क्योंकि एक चपरासी का भी इंक्रीमेंट एक हजार से ज्यादा लगता है। वह वह कर भी क्या सकता था। सिर्फ अपुनी किस्मत को कोसने के सिवाए। बैंक से सप्ताह के बजट के हिसाब से पैसे निकालने के बाद वह किसी काम से मोटरसाइकिल से देहरादून की चकराता रोड को रवाना हुआ। भरी दोपहरी में धूप कांटे की तरह चुभ रही थी। बल्लूपुर चौक से आगे सड़क कुछ सुनसान थी। तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी। उसने मोटर साइकिल सड़क किनारे खड़ी की और फोन रिसीव किया। काल उसके मित्र की थी। जो दूसरे संस्थान में कार्यरत था। मित्र खुश था कि उसके वेतन में उ्म्मीद के ज्यादा इजाफा हुआ। वह जानना चाह रहा था कि अंकित का कितना वेतन बढ़ा। निराश अंकित ने उसे यही बताया कि कुछ नहीं बढ़ा और फोन काट दिया। वह सोच रहा था कि ऐसा हर बार होता है। जब भी इंक्रीमेंट लगने का नंबर आता है, उससे पहले दफ्तर में कसरत शुरू हो जाती है। अधिकारी वर्ग यह जताता है कि वह नालायक है। उसके यह समझ नहीं आ रहा था कि सालभर लायक रहने के बावजूद वेतन बढ़ने के दौरान वह नायालक कैसे हो जाता है। तभी अंकित को एक आवाज सुनाई दी- बेटा यहां आओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।
अंकित ने देखा कि सड़क किनारे पेड़ की छांव में एक साधु बैठा है। वही उसे बुला रहा है। वह ऐेस बाबाओं से बचता रहता था। इस दिन वह निराश था और वह कुछ कदम आगे बढ़कर बाबा के पास खड़ा हो गया। तभी साधु ने कहा- बेटा तुम दुखी लगते हो। बाबा को दुख बताओ, सारे दुख दूर हो जाएंगे।
बाबा आप स्वयं अंतरयामी हो, आपको मेरे दुख पता होने चाहिए। इस जमाने में सुखी कौन है- अंकित बोला।
ऐसा करो बाबा को चाय पिला दो। बस भगवान तेरे दुख हर लेगा- साधु ने कहा
अंकित मोटर साइकिल में किक मारकर बाबा से पीछा छुड़ाने की सोच रहा था। जैसे ही वह मोटर साइकिल में बैठा तभी बाबा बोला- बच्चा जिद मत कर मेरी बात मान ले।
अंकित के मन में न जाने क्या ख्याल आया उसने पर्स निकाला और एक दस का नोट तलाशकर बाबा को थमा दिया। तिरछी नजर से उसके पर्स की तरफ देख रहे बाबा ने यह जान लिया कि पच्चीस साल के इस युवा के पर्स में अच्छी खासी रकम है। उसने दस रुपये लेते हुए कहा-बेटा यह बताओ कि तुम दुख चाहते हो या सुख।
अंकित ने कहा-बाबा दुख कौन चाहेगा। सभी सुख चाहते हैं और मै भी यही चाहता हूं।
बाबा बोला- बेटा तुम्हारी कमजोरी यह है कि मन की बात हर किसी को बता देते हो। जिसका भला करते हो वह तुम्हारी बुराई करता है। तुम्हारी किस्मत में सुख की जगह दुख ही ज्यादा आते हैं। ऐसा करो कि तुम्हारे पर्स में जो ब़ड़ा नोट है, वह मुझे दो मैं उस पर फूंक मारूंगा। उस नोट से तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी।
अंकित ने सोचा कि नोट पर फूंक मरवाने पर क्या हर्ज है। उसने पर्स से एक हजार का नोट निकाला और हाथ में कसकर पकड़कर बाबा के मुंह के आगे कर दिया। बाबा बोला- यह नोट मेरे हाथ में दो। अभी तुम्हारे कष्ट दूर करता हूं। बाबा की बातों का सच जाने को अंकित ने एक हजार का नोट बाबा के हाथों में थमा दिया। नोट को उलट-पलटकर देखने के बाद बाबा ने उसे कई तह में फोल्ड किया। फिर अचानक नोट को अपने मुंह में डाल दिया और चबाने का उपक्रम करने लगा।
अंकित ने देखा कि यह बाबा तो उसका इंक्रीमेंट चबा रहा है। वह मन ही मन भय से सिहर उठा कि कहीं वह इस इंक्रीमेंट से भी हाथ ना धो बैठे। वह बोला- बाबा क्या कर रहे हो।
निराश मत हो बच्चा, मैं तेरे दुखों को चबा रहा हूं- बाबा बोला। जो अंकित के नोट को निगलना चाहता था। अंकित ने यह देखकर कहा कि बाबा मेरा नोट वापस करो। तभी तपाक से बाबा बोला-यह धन ही दुखों का कारण है, इस दुख को मैं चबा डालूंगा।
अंकित को यह बाबा उस नेता के समान लग रहा था, जो यह कहता कि जनता की भलाई उसका धर्म है, लेकिन जनता का खून चूसता रहता। या फिर वह डाक्टर जो मरीज को बचाने के लिए उसकी पूरी जेब लूट लेता है। या फिर वह अधिकारी जो उससे कमर तोड़ काम कराता है, लेकिन वेतन बढा़ने में उसे नालायक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। सभी तो लुटेरे हैं, जहां जिसे जैसा मौका मिले वह लूट लेता है। वह कहां फंस गया इस बाबा के पास। घर का बजट बिगड़ता देख अंकित को अब गुस्सा आने लगा। उसने साहस बटोरा और बाबा का गला पकड़ लिया। दोनों हाथों से उसका टेंटुआ दबाया और बोला-मेरा नोट वापस निकाल। हड़बड़ाकर बाबा ने दो हिंचकी ली और नोट मुंह में दांतों तले ले आया। बोला-बेटा ये दुख खुद ही अपने हाथ से निकाल ले।
तब तक नोट काफी गीला हो चुका था। उसे देखकर अंकित घिना रहा था। उसने बाबा से कहा कि नोट को उसकी कमीज की जेब में डाल। साथ ही उसने बाबा के गले पर हाथों का दबाव और बढ़ा दिया। बाबा ने वैसा ही किया। नोट अंकित की जेब में डाल दिया। इस नोट को लेकर वह पेट्रोल पंप गया और पहले तह खोलकर सुखाया। फिर सौ रुपये का पेट्रोल मोटरसाइकिल में डलवाया और हजार का यह नोट चलाया। बाकी बचे पैसे जेब में डालकर वह पानी की टंकी के पास गया और अच्छी तरह से हाथ धोए। तब जाकर अपनी मंजिल को आगे बढ़ा। वह सोचने लगा कि वाकई इंसान के दुखों का कारण यह जर ही तो है। बजट में कम पड़े तो दुखी, ज्यादा हों तो दुखी, कोई ठग ले तो दुखी। इस दुख को वह बाबा के मुंह से छीनकर पेट्रोल पंप में दे आया था।
भानु बंगवाल

Tuesday, 6 May 2014

ड्रीम गर्ल ने तोड़ा ड्रीम...

ड्रीम गर्ल भले ही अब गर्ल न रह गई हो। वह दो बच्चों की अम्मा हो गई और उम्र के उस मुकाम पर पहुंच गई हो, जहां इस उम्र में बुढ़िया की संज्ञा दी जाती है। फिर भी भूतकाल की इस ड्रीम गर्ल ने खुद को इतना फिट किया हुआ है कि उसकी त्वजा से बुढ़ापा कतई नहीं झलकता है। जब वह गर्ल थी, तब शायद कुछ मोटी थी, लेकिन अब तो वह स्लिम हो चुकी है। आज भी वह वही नजर आती है,  जिसे देखकर शायद हर कोई यह गीत गुनगुनाने लगे--किसी शायर की गजल ड्रीम गर्ल।
फिल्मों के कलाकारों को देखने का क्रेज हर किसी को होता है। बच्चे तो फिल्म देखकर ही बड़े हो रहे हैं। छोटे में तो लड़़के हीरो व लड़कियां हिरोइन की तरह बनना चाहते हैं। क्योंकि फिल्मी दुनियां की चकाचौंथ बड़ों व बूढ़ों के साथ ही बच्चों को भी प्रभावित करती है। यदि किसी शहर में कोई फिल्म हस्ती आ जाए तो उसे देखने को जन सैलाब सा उमड़ने लगता है। पहले किसी शहर में यदि किसी फिल्म की शूटिंग होती थी, तो आमजन को इसका पता भी नहीं लग पाता था। यदि लगता भी तो फिल्मी हस्तियों की झलक देखने का मौका नहीं लग पाता था। अब ट्रेंड बदला और चुनावी मौसम में इन फिल्मी हस्तियों के रोड शो आयोजित होने लगे। ऐसे में लोगों की इन फिल्मी हस्तियों को देखने की मुराद भी पूरी होने लगी। इस बार के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने फिर से ड्रीम गर्ल यानी हेमा मालनी के रोड शोर कई शहरों में आयोजित किए और आमजन को उसके दीदार का मौका मिला।
वैसे बचपन में अन्य बच्चों की तरह मैं फिल्मी हस्तियों की चमक-दमक से काफी प्रभावित रहा। मैं खुद भी फिल्म अभिनेता बनना चाहता था। पर उम्र बढ़ने के साथ ही मेरा यह भ्रम भी दूर होता रहा। फिर भी ऐसी फिल्म हस्तियों का दीदार करने का जब भी मुझे मौका मिला तो अनुभव कुछ ज्यादा कड़ुवे ही साबित हुए। गर्मियों में मैं अक्सर चार-पांच दिनों के लिए मसूरी रहने को चला जाता था। वहां हमारे दूर के एक ताऊजी रहते थे। 80 के दशक में मई माह के दौरान मैं मसूरी था। वहां मुझे पता चला कि मसूरी की सबसे ऊंची चोटी लाल टिब्बा के पास बंगाली फिल्म-पूर्ति की शूटिंग चल रही है। फिल्म तारिका शबाना आजमी इसकी नायिका है। इसका पता चलते ही मैं भी शूटिंग देखने की चाहत मन में लिए लंढौर बाजार से पैदल ही शूटिंग स्थल की तरफ रवना हो गया। वर्ष मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि उस दिन 19 मई थी। इस दिन मेरा जन्मदिन था, लेकिन किसी को पता नहीं था। ऐसे में जन्मदिन भी नहीं मनाया और  मैं शूटिंग देखने को चल दिया। कड़ाके की गर्मी थी। दूरदर्शन टाबर के पास तक खड़ी चढ़ाई चढ़ते मैं हांफ रहा था। जिस ओर मैं जा रहा था, उस तरफ हर जाने वाले व्यक्ति को देख मैं यही सोचता कि वह भी शूटिंग देखने ही जा रहा है।
काफी चढ़ाई चढने के बाद एक संकरी पगडंडी वाले रास्ते पर ही मुझे चलना था। इस रास्ते से पहले सड़क किनारे खड़े एक बड़े वाहन पर एक जेनरेटर धड़धड़ा रहा था। यह जेनरेटर फिल्म शूटिंग स्थल के लिए बिजली बना रहा था। आगे मोटर का रास्ता नहीं था तो करीब डेढ़ किमी पहले ही इसे रखा गया था। मैं जेनरेटर से जुड़ी बिजली की केबल के सहारे आगे बढ़ता गया। क्योंकि जहां तक केबल पहुंचाई गई थी, वहीं मैरी मंजिल थी। तभी एक सुंदर सी युवती भी मेरे पीछे से तेजी से चलती हुई आगे को बढ़ी। मैने सोचा कि यह भी शूटिंग देखने जा रही है। तब मैं करीब 15 साल का था और युवती की उम्र का अंदाजा लगाना मेरे लिए मुश्किल था। फिर भी वह मुझे एक छोटी व सुंदर गुड़िया सी प्रतीत हो रही थी। मैं उसकी बराबरी में चलने लगा। तंग व सुनसान रास्ते पर वह कई बार लड़खड़ा जाती, लेकिन मैं उछल, कूद व फांद कर ऐसे रास्तों पर मतवाली चाल से चलता। कभी उससे आगे हो जाता, जब पता चलता कि वह काफी पीछे छूट गई तो जानबूझकर मैं अपनी चाल को धीरे कर देता। फिर वह जब बराबर तक पहुंचती तो मैं अपनी चाल बढ़ा देता। यहां हमारी रेस सी शुरू हो गई थी। ठीक उसी तरह जैसे सड़क चलते आपस में अनजान दो साइकिल सवार कई बार साइकिल की रैस लगाने लगते हैं।
पूरे सफर में मैं उस युवती से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। एक अनजान सा भय मेरे भीतर था। या फिर यूं कह सकते हैं कि किशोर अवस्था में मैं काफी झेंपू था। हां मन में यही तानाबाना बुनता रहा कि इस युवती से कैसे बात करने की शुरूआत की जाए। लड़कियों के मामले में दब्बू प्रवृति एक दिन में दूर हो नहीं सकती थी। फिर कैसे युवती से बात हो। मैने सोचा कि यही पूछ लिया जाए- क्या आप भी शूटिंग देखने को जा रही हो। यही विचार मन में पक्का किया। कुछ हिम्मत जुटाई। गला खंखारा  और कांपते हुए शरीर को सामान्य करने का प्रयास किया। तब तक हम उस कोठी तक पहुंच गए, जिसके गेट पर कई गार्ड खड़े थे और भीतर शूटिंग की तैयारी चल रही थी। गेट के बाहर शूटिंग देखने की चाहत रखने वाले करीब पच्चीस लोग खड़े थे, जिन्हें सुरक्षाकर्मी भीतर नहीं जाने दे रहे थे। हमारे करीब पहुंचते ही तमाशबीनों की नजरें हमारी तरफ हो गई। कई के कैमरों में फ्लैश चमकने लगी। बिजली की फुर्ती से युवती गेट के भीतर चली गई और मुझे सुरक्षाकर्मी ने रोक लिया। बाद में पता चला कि वही युवती शबाना आजमी थी।
इसी तरह का एक किस्सा और भी कष्टदायी रहा। एक समाचार पत्र के कार्यक्रम में फिल्म हीरो सुनील सेठी ने आना था। मेरे पास वीआइबी पास थे। साथ ही उस दिन मेरा अवकाश भी था। मैं परिवार समेत कार्यक्रम स्थल तक पहुंच गया। पास होने के बावजूद गेट से भीतर घुसना किसी जंग जीतने के समान था। तब मेरा छोटा बेटा करीब छह साल व बड़ा दस का था। देहरादून के रेंजर मैदान के गेट पर भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस कई बार लाठियां भी फटकार चुकी थी। इस भगदड़ में मेरा छोटा बेटा गेट के बाहर नाले में गिरते बचा। खैर किसी तरह भीतर गए। सबसे आगे की सीट मिली। पर जैसे ही सुनील सेठी आया भीड़ बेकाबू हो गई। पीछे से दबंग व ताकतवर लोग आगे बढ़ गए और हम धक्के खाते हुए इतने पीछे हो गए कि मंच नजर नहीं आ रहा था और सुनील सेठी को हमें स्क्रीन पर ही देखना पड़ा। 
इस बार ड्रीम गर्ल को देखने का मौका था। वो भी रोड शो में। सड़क तो इतनी लंबी होती है कि कहीं से भी देख लो। न भीड़ का धक्का और न ही किसी भगदड़ का डर। देहरादून में रविवार की शाम पांच बजे एस्लेहाल से यह रोड शो शुरू होनी था। मेरी ऑफिस की छुट्टी थी। पत्नी, बच्चे सभी हेमा मालनी को देखने को उत्साहित थे। अक्सर ऐसे कार्यक्रम देर से ही शुरू होते हैं, लेकिन ज्यादा भीड़ होने के कारण समय से पहले ही ऐसे कार्यक्रमों में पहुंचना समझदारी होती है। फिर भी मैं शाम साढ़े पांच बजे घर से रवाना हुआ। क्योंकि घंटाघर के पास मुझे जहां खड़ा होना था, घर से वहां पहुंचने में मुझे दस मिनट लगने थे। मोटर साइकिल पर मैं और छोटा बेटा व स्कूटी में पत्नी व बड़ा बेटा सवार हो गए। कुछ आगे जाने पर पुलिस ने रास्ता बंद किया हुआ था। ट्रैफिक डायवर्ट होने पर मुझे उस रास्ते से निकलना पड़ा जहां संडे को जाने से मेरा दम फूलने लगता है। क्योंकि वहां संडे बाजार सजता है और भीड़ का रैला हर वक्त रहता है। घर से दस मिनट की बजाय करीब पौन घंटे में किसी तरह भीड़ में रेंगते हुए हम घंटाघर के पास एक मित्र के कपड़ों के शो रूम में पहुंचे। वहां वाहनों को पार्क कर हम दुकान में चले गए। तब तक भी रोड शो शुरू नहीं हुआ था।
दुकान में घुसते ही छोटा बेटा कपड़ों को देखकर ललचाने लगा। महंगे व ब्रांडेड कपड़े उसे दिलाने का मतलब था कि पूरे दो माह का बजट बिगाड़ना। वह नहीं माना तो एक शर्ट दिला दी। जो शायद संडे बाजार में दो सौ रुपये में मिलती और यहां पूरे एक हजार रुपये में मिली। प्रोग्राम था कि यदि रोड शो लेट होगा तो किसी सस्ते होटल में खाना खाया जाएगा। खाने का बजट शर्ट में चला गया। सड़क किनारे भाजपाइयों की भीड़ बढ़ने लगी। स्वागत के लिए महिलाएं फूलों की पंखुड़ियों से भरी थाली लिए खड़ी थी। उस मालनी के स्वागत के लिए, जो ड्रीम गर्ल थी। उन फूलों से उस मालनी का स्वागत होना था, जिसे किसी माली ने बड़ी मेहनत से फूलवारी में उगाया था।
इंतजार खत्म हुआ। चुनावी गीत, ढोल-दमऊ, गाजे-बाजे, नारों के शोर के साथ जुलूस हमारे करीब आ रहा था। हम खुश थे कि सपना पूरा होने वाला था ड्रीम गर्ल को पास से देखने का। करीब पचास मीटर निकट जब जुलूस
आया तो उस दूरी से देखकर लगा कि वाकई वह आज भी ड्रीम गर्ल है। वह खुले वाहन में खड़ी थी। उसे और निकट से साफ देखने की चाहत में छोटा बेटा मोटर साइकिल की सीट पर खड़ा हो गया। जब वह हमारी सीध पर पहुंचने वाली थी तो उस पर फूल बरसाने वालों को मैं कोसने लगा। फूलों से परेशान होकर ड्रीम गर्ल ने सिर पर पल्लू डालने का प्रयास किया। पल्लू इतना लंबा हो गया कि वह घूंघट में बदल गया। तब तक वह हमारी सीध में पहुंच गई। उसने जैसे ही घूंघट हटाया तो वह हमारी सीध से काफी आगे निकल गई और दीदार करने को रह गया बस...........पिछवाड़ा। क्योंकि उसके पीछे टेडी बने दो कार्टून चल रहे थे, जो शायद हमें चिढ़ाने के लिए हमारे पास आकर हाथ हिला रहे थे।
भानु बंगवाल

Sunday, 4 May 2014

यह दबंग तो डरती भी है...

घंटाघर से होकर जैसे ही वो गुजरी है, मौके पर मौजूद पुलिस उसे देखकर सतर्क हो जाती है। जगह-जगह पर खड़े खुफिया विभाग के लोग भी उसे संदेह की निगाह से देखने लगते हैं। क्योंकि उसकी शक्ल, कदकाठी व शारीरिक बनावट ही कुछ ऐसी है कि जो भी उसे देखता है, बस एक बार देखता ही रह जाता है। कद करीब पांच फुट तीन ईंच। शरीर मोटा व ढोल की तरह। बाल बॉबकट व चेहरे का रंग काला। जींस के साथ ही ऊपर से मोटी जैकेट। जैकेट की सभी जेब ठसाठस भरी हुई। कमर में छोटा बैग। बैग में स्टील कैमरे। जींस की बेल्ट पर कैमरे की प्लैश फंसाई हुई। उस पर मतवाली चाल। सर्दी के मौसम में भी वह जब सड़क पर चल रही थी, तो ऐसा लगता था कि वह हांफ रही हो।
उस दिन देहरादून के गांधी पार्क में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की सभा थी। ऐसे में शहर की मुख्य सड़कों पर लोकल इंटेलिजेंस यूनिट, आइबी व अन्य खुफिया विभाग के लोग तैनात थे। उस युवती पर नजर पड़ते ही खुफिया विभाग के दो लोग उसके पीछे हो लिए। वे शायद यही समझे कि हो सकता है कि युवती एक मानव बम हो। शायद उसकी जैकिटों की जेब बमों से भरी हो। युवती का पीछा करते करीब सौ मीटर आगे तक जाने पर अचानक वह गायब हो गई। वहां पर एक कांप्लेक्स था। इस कांप्लेक्स के पास जब युवती गायब हुई तो खिफिया विभाग वालों ने उसकी पड़ताल की। काफी लोगों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि जैसा हुलिया उन्होंने बयां किया, वैसी ही एक युवती ने हाल ही में एक समाचार पत्र में ज्वाइनिंग ली है। वह प्रैस फोटोग्राफर है। तब जाकर खुफिया विभाग के लोगों ने राहत की सांस की।
वह मानव बम तो नहीं थी, लेकिन एक बम के समान जरूर थी। एक समाचार पत्र में उसने उन दिनों ज्वाइन किया था। इत्तेफाक से मैं भी तब उसी समाचार पत्र में था। सोनम नाम की इस युवती को बॉस ने मुझसे मिलवाया और कहा कि इसे कुछ दिन तक अपने साथ ही कार्यक्रमों में ले जाना। ताकि यह यहां के बारे में कुछ जान सके। उस भारीभरकम वजन वाली करीब 27 वर्षीय युवती को मैने अपने स्कूटर में जब पहली बार बैठाया तो पड़ाक की आवाज आई। मैने न तो स्कटर रोका और न ही यह देखा कि यह आवाज कहां से आई। पर मैं समझ गया था कि फुट रेस्ट टूटकर सड़क पर ही गिर गया है। उसका वजन की इतना था कि मैं पतली-दुबली कद काठी का व्यक्ति स्कूटर लहरा कर चला रहा था। साथ ही मन में सोचता कि इस मुसीबत से कैसे छुटकारा मिलेगा।
धीरे-धीरे सोनम ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया। वह जो भी फोटो लाती वह कमाल का होता। यही नहीं वह पर्यावरण प्रेमी, पशु व पक्षी प्रेमी भी थी। वह कई बार सांप का खेल दिखाने वाले सपेंरों से उनकी पिटारी छीनकार भाग चुकी थी। साथ ही आसपास के जंगल में इन सांपों को मुक्त भी करा चुकी थी। गुस्सा आने पर तो सभी उससे डरने लगते। एक बार एक काफी उम्र की महिला अपनी गलती से ही उसके स्कूटर से टकराने से बच गई। किसी तरह महिला को तो सोनम ने बचा लिया, लेकिन उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। वह स्कूटर खड़ा करके महिला के पास गई। गुस्से में उसे ऐसा डांटा कि महिला तो थरथर कांपने लगी। इस पर सोनम का कोमल हृदय जागा और उसने महिला को टटोला कि कहीं चोट तो नहीं लगी। 
तब समाचार पत्र के सिटी कार्यालय में अक्सर सोनम के किस्से ही चर्चित थे। वह जिस भी रिपोर्टर के साथ फोटो खींचने जाती बाद में वही रिपोर्टर उसका कोई न कोई किस्सा सुनाने लगता। कई तो कान पकड़ते कि इसे साथ लेकर नहीं जाएंगे। य़ह तो किसी से भी भिड़ जाती है। युवावस्था में नाट्य संस्था से जुड़ा होने के कारण मेरी आदत हर किसी की आवाज निकालने व नकल करने की थी। एक दिन मैं सोनम की आवाज निकालकर साथियों से चुहलबाजी कर रहा था। मेरी पीठ दरवाजे की तरफ थी। मेरी नकल का मजा लेने वाले सभी साथी अचानक चुप हो गए। मैं हैरान था कि इन्हें मेरी बात पर मजा क्यों नहीं आ रहा है। मैने पीछे पलटकर देखा तो मेरे पूरे शरीर की हालत ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं। पीछे सोनम खड़ी मुझे सुन रही थी। कुछ क्षण घबराने के बाद मैने खुद को संभाला और उससे कहा आओ मैं आज तुम्हारी नकल उतारने का प्रयास कर रहा हूं। तुम काफी भाग्यशाली हो, जो सामने न रहने भी याद की जाती हो। मेरी बातों से पता नहीं उस पर क्या प्रभाव पड़ा कि वो नाराज नहीं हुई। हां इसके बाद से मैने कभी उसकी नकल नहीं उतारी।
समय बीता और बदलता चला गया। सोनम ने भी देहरादून छोड़ दिया। मैं भी उस समाचार पत्र को छोड़कर दूसरे में चल गया। पता ही नहीं चला कि सोनम कहां है। हां जब भी कोई वीआइपी शहर में आता तो मुझे अक्समात ही उसकी याद आने लगती। एक दिन फेसबुक में एक फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। इसमें सोनम नाम तो था, लेकिन प्रोफाइल में फोटो नहीं थी। साथ ही प्रोफाइल में उसके बारे में कोई डिटेल भी शो नहीं हो रही थी।
ऐसे में मैने रिक्वेस्ट भेजने वाली युवती को मैसेज किया कि जिसकी फोटो नहीं होती वह फर्जी होते हैं। फर्जी आइडी वालों को मैं दोस्त नहीं बनाता। इस पर जवाब आया कि मुझे भूल गए क्या। मैने तो आपके साथ काम किया है। तब जाकर समझा कि यह तो वही दबंग है। जो इन दिनों शायद बिहार में है। उससे फेसबुक के जरिये मिलकर मुझे खुशी हुई। मैने उससे कहा कि आप दूसरों की फोटो खींचती हो, लेकिन अपनी फोटो क्यों नहीं डाली। इस पर जवाब आया कि फोटो डालने से मैं डरती हूं कि कहीं लोग उसे देखकर डर ना जाएं। तब जाकर मुझे पता चला कि यह दबंग सोनम डरती भी है। क्योंकि, लोग व्यक्ति व व्यक्तित्व देखकर नहीं, बल्कि फोटो देखकर ही फेसबुक में अपना कुनबा बढ़ाते हैं। 
भानु बंगवाल  

Thursday, 1 May 2014

एक दिन की भड़ास....

मई दिवस। यानी कि पहली मई। दुनियां के मजदूरों की एकता का दिवस। अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का दिन। सालभर सहने वाले  उत्पीड़न के खिलाफ एक दिन भड़ास निकालने का दिन। पूरे साल भर बुद्धू बनने के बाद इस दिन यह कहने का अवसर कि-नो उल्लू बनाईंग। क्या सचमुच इस दिन में एक जादू छिपा है, या फिर हम हर साल लकीर को पीटकर यही कहते हैं कि-दुनियां के मजदूरों एक हो। बचपन से मई दिवस को एक की अंदाज में मनाते हुए मैं देखता आ रहा हूं। तब और अब में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। हां पहले जो मजदूर सड़कों पर उतरता था, उसमें एक उत्साह, तरंग व उमंग जरूर रहती थी। अब तो यह दिन परंपराभर का रह गया है।
जब में छोटा था तब मुझे पहली मई का बेसब्री से इंतजार रहता था। कारण यह था कि पिताजी जिस सरकारी संस्थान में कार्य करते थे, वहां के कार्मिक भी मई दिवस से जुलूस में शामिल होते थे। सभी कार्मिकों में इस दिन के प्रति इतना उत्साह रहता था कि वे जुलूस में अपने बच्चों को लेकर भी जाते। तब बाजार तक जाने के ज्यादा मौके बच्चों को नहीं मिलते थे। ऐसे में मई दिवस के जुलूस के बहाने बच्चों का बाजार तक का चक्कर लग जाता था। साथ ही मजा यह कि मोहल्ले के सभी बच्चे एकसाथ रहते।
दोपहर तप्ती धूप में कर्मचारी जुलूस निकालते। देहरादून में घंटाघर से करीब चार किलोमीटर दूर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान से जब दोपहर बाद चार बजे कर्मचारी जुलूस निकालते तो उनके साथ नारे लगाने वालों में बच्चे कुछ ज्यादा ही उत्साह में दिखते। करीब आध घंटे में जुलूस एस्लेहाल तक पहुंच जाता। यहां पर अन्य संस्थानों के जुलूस में यह जलूस भी मर्ज हो जाता। फिर एक विशाल जुलूस शहर के मुख्य बाजारों से होकर गुजरता। यह सच ही था कि इस एक दिन कारंवा बढ़ता जाता और जुलूस में सभी रंग शामिल होते जाते। छोटा व बड़ा कर्मचारी सभी तो इसमें शामिल होता।
जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ता मेरा धैर्य जवाब देने लगा। पैर में छाले पड़ने लगते। चलने की हिम्मत जवाब देने लगी। इसकी चुगली मैं अपने पिताजी से करता। जो काफी गर्म मिजाज के थे। उन्हें कोई समस्या या दिक्कत बताओ तो पुचकार के बजाय थप्पड़ पड़ने का अंदेशा ज्यादा रहता था। पर इस दिन तो उनका गुस्सा भी नदारद रहता था। वह मेरा उत्साहवर्धन करते। फिर किसी ठेलीवाले से एक रुपये में एक दर्जन केले खरीदते और मुझे छह केले थमा देते और आधे वे खुद खाते। केले पेट में जाते ही मुझे और थकान महसूस होने लगी। मेरा पेट गुड़गुड़ करने लगा। तब सार्वजनिक शौचालय भी नहीं होते थे। ऐसे में मुझे नाली पर बैठकर ही हल्का होना पड़ता। साथ ही यह डांट भी लगती कि अगली बार मुझे जुलूस में नहीं लाया जाएगा।
विभिन्न स्थानों से गुजरने के बाद यह जुलूस एक सभा में बदल जाता। तब रोटी मांग रहे लोगों का पेट भाषण से भरा जाता। भाषण भी इतने उबाऊ होते कि सुनने वाला गश खाकर गिर पड़े। हां यह जरूर रहता कि इन भाषणों में मजदूरों को खुशहाल भविष्य के सपने दिखाए जाते। एक दिन सत्ता आपकी होगी। सामंतशाही का अंत होगा। हर आम को उसका हक मिलेगा। यही तो इन भाषणों में होता। वैसे तब इन दिन का ना तो मुझे अर्थ व महत्व ही समझ आता था और न ही आज भी समझ पाया। क्योंकि हम परंपराओं को निभाते आ रहे हैं। वहीं इसके उलट मजदूरों की आबाज को बुलंद करना महज नाटक साबित हो रहा है।
हर साल ऐसे जुलूस निकलते। मजदूर तो मजदूर ही रहता है। मजदूर नेता जरूर दोनों हाथों से संपत्ती बटोरता रहता है, लेकिन फिर वह भी मजदूरों का नेता कहलाता है। मजदूर व मजबूरों का तो उसी तरह हाजमा बिगड़ रहा है, जैसे बचपन में मेरा जुलूस के दिन बिगड़ता था। तभी तो दिनरात की मेहनत करन के बावजूद मजदूर की जीवन की गाड़ी पटरी में नहीं उतरती। हाजमा गड़बड़ाने की तरह उसका बजट भी गड़बड़ताता है। वहीं श्रमिक नेता मजदूरों की एकता के नाम पर चंदा डकार कर अपना हाजमा मजबूत कर रहे हैं। मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे फिजाओं में गूंजते रहते हैं। मजदूरों को उनकी ताकत का अहसास कराया जाता। उस ताकत का, जो आम आदमी को खास बना देती है। तभी तो इन आम लोगों की भीड़ से खास लोग जन्म ले रहे हैं। फिर भी वे खुद को आम कहलाना ही पसंद करते हैं। ऐसे आम आदमी के पास ऐसी कार होती हैं। एसी की हवा का आनंद लेते हुए वे होटलों में बैठकर मजदूरों व मजबूरों की चिंता करते हैं। फिर बाहर निकलकर वे गला साफ करते हैं कि-मजदूर एकता जिंदाबाद।  
आज से चाहे पचास साल पहले ही बात करें, तब भी मालिक व मजदूरों में एक टकराव की स्थिति रहती थी, जो आज भी है। मजदूरों के लिए श्रम कानून बने हैं, लेकिन उन पर अमल करने और अमल कराने वाले दोनों ही चुप हैं। मजदूरों की आवाज कहलाने वाला मीडिया भी उनके अधिकारों को लेकर चुप है। मीडिया को भी हाईटेक न्यूज चाहिए। ऐसे लोगों के समाचार, जो वाकई पाठक हों। तभी तो पिछले पंद्रह-बीस सालों से मजूदरों के श्रम व अधिकारों को लेकर समाचार अब गायब ही होने लगे हैं। पहले समाचार पत्रों में ऐसे समाचार पहले पेज से लेकर आखरी पेज में स्थान बनाते थे। अब मजदूरों को समाचारों में रंगकर क्या हासिल होगा, यह बात अब मीडिया भी जानता है। तभी तो वह भी सिर्फ एक दिन मई दिवस के दिन सक्रिय होकर कहता है- मजदूर एकता जिंदाबाद। वहीं आज के जुलूस में कार्मिक तो हैं, लेकिन बच्चे गायब हैं। क्योंकि कोई भी कर्मचारी नहीं चाहेगा कि उसका बेटा आम आदमी की कतार में रहे। ऐसे में कर्मचारी अकेले ही जुलूस में चिल्लाकर कहता है मजदूर एकता।
भानु बंगवाल