Saturday, 28 December 2013

जमाना बदलने से पहले खुद बदलो......

बाते साल को अलविदा और नए साल का स्वागत। पिछली दुख भरी बातों को भूलकर नई उमंग व तरंग के  साथ नए साल का हर दिन बिताने का संकल्प। कुछ नया करने,  कुछ नया जानने, कुछ नया दिखाने का प्रयास। कल की बात जो पुरानी हो चुकी है, उसे छोड़कर नई उमंग के संचार के साथ खून में नया बदलाव। कुछ ऐसा ही संकल्प  लेने के विचार मन में घर कर रहे हैं कि चलो इस बार भी कुछ नया किया जाए। इन नई बातों का संकल्प लेने के लिए क्या किसी तामझाम की जरूरत है। नए साल का स्वागत क्या दारू, मुर्गा की पार्टी के साथ हो, जैसा कि अधिकांश मित्र योजना बना रहे हैं। या फिर पूरे जनवरी माह में ही नए साल के उल्लास में डूबा जाए। या फिर घर में टेलीविजन देखकर बीते साल को अलविदा कहा जाए और नए साल का स्वागत किया जाए। इस दौरान बच्चों के साथ मूंगफली और रेवड़ी चबाने का आनंद लिया जाए।साथ ही नए साल में कुछ नया करने का संकल्प लिया जाए। या फिर अगले दिन फर्श में फैले मूंगफली के छिलकों को झाड़ू से समेटते हुए सारे संकल्प छिलकों की तरह डस्टबीन में डाल दिए जाएं। फिर यह लक्ष्य रखे जाएं कि इस बार नहीं तो क्या हु्आ अगली बार से ही कुछ नया किया जाएगा। फिर एक साल का इंतजार किया जाए।
हर साल हम कहते हैं कि इस साल कुछ ज्यादा ही हो रहा है। पिछली बातों से नई बातों की तुलना करते हैं। चाहे वह कोई भी गतिविधि हो, मौसम का मिजाज हो, या किसी व्यक्ति विशेष की आदत हो। पिछली बातों से नई की तुलना करना व्यक्ति की आदत है। हम यह देखते हैं कि नए साल का स्वागत जैसे हो रहा है, वैसे पहले कभी नहीं देखा गया। रात को दारू पीने के बाद सड़क पर हुड़दंग मचाते युवक व युवतियां। मोटे पेट वालों के घर में पार्टियां, जिसमें बाप-बेटा साथ-साथ बैठकर पैग चढ़ा रहे हैं। कुछ ऐसे ही अंदाज में नए साल का स्वागत किया जा रहा है। यदि मैं फ्लैशबैक में जाऊं तो पहले भी नए साल का स्वागत होता था। दारू पीने वाले शायद पीते होंगे, लेकिन उनका किसी को पता नहीं चलता था।
देहरादून की राजपुर रोड पर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में मेरा बचपन कटा था। वहां पिताजी नौकरी करते थे। सन 1973 में जब मैं करीब सात साल का था, तो उस बार भी 31 दिसंबर के कार्यक्रम का मुझे बेसब्री से इंतजार था। उस जमाने में कर्मचारी पचास पैसे या फिर एक रुपये चंदा एकत्र करते थे। जमा पैसों की रेबड़ी व मूंगफली मंगाई जाती थी। साथ ही चाय बनाने का इंतजाम किया जाता था। कुछ लकड़ी खरीदी जाती। एक छोटे से मैदान में शाम आठ बजे लकड़ी जमा कर आग जलाई जाती। उसके चारों तरफ दरी में लोग बैठते। एक किनारे खुले आसमान के नीचे छोटा सा स्टेज बनता। शायद अब जिसे ओपन स्टेज कहा जाता है। स्थानीय लोग संगीत, नृत्य का आयोजन करते। तबले की धुन, हारमोनियम के सुर के साथ ही मोहल्ले के उभरते कलाकार अपनी कला प्रदर्शित करते। कुछ युवक सलवार व साड़ी पहनकर लड़की बनकर नृत्य करते। तब सीधे लड़कियों का नृत्य काफी कम ही नजर आता था। लड़कियों को घर की देहरी में  ही कैद करके रखा जाता। वे स्कूल भी जाती, लेकिन शायद ही किसी को सार्वजनिक तौर पर नृत्य का मौका मिलता हो। शादी के मौके पर ही लड़कियां लेडीज संगीत पर ही डांस करती, वो भी महिलाओं के बीच में। फिर भी मुझे 31 दिसंबर का कार्यक्रम काफी अच्छा लगता। फिर समय में बदलाव आया और कुछ लोग इस दिन के कार्यक्रम में शराब की रंगत में नजर आने लगे। जो पीते नहीं थे, वे कार्यक्रम में जाने के साथ ही चंदा देने से कतराने लगे। उन्हें लगता कि उनके चंदे की रकम से ही पीने वाले दारू का खर्च उठा रहे हैं। पुराने साल के कार्यक्रम से नए की तुलना होने लगी। कुछ नया न दिखने पर लोग इससे विमुख होने लगे। धीरे-धीरे टेलीविजन ने देहरादून में भी पैंठ बनानी शुरू कर दी। 31 दिसंबर को दूरदर्शन पर फिर वही हंगामा नाम से कार्यक्रम आने लगा और स्थानीय कलाकारों के स्टेज गायब हो गए। घर में टेलीविजन था नहीं, ऐसे में मैं भी तब दो साल 31 दिसंबर की रात टेलीविजन देखने अपने पिताजी के एक मामाजी यानी मेरे बुडाजी के घर गया। उनका घर हमारे घर से दो किलोमीटर दूर था। सो रात को सोने का कार्यक्रम भी उनके (बुडाजी के) घर होता।
हर बार 31 दिसंबर की रात को हम नए साल का स्वागत तो अपने-अपने अंदाज से करते हैं, लेकिन हम ऐसा क्यों कर रहे ये हमें पता भी नहीं होता। होना यह चाहिए कि हम नए साल में अपनी एक कमजोरी को छोड़ने का संकल्प लें। तभी हमारे लिए नया साल नई उम्मीदों वाला होगा। इस बार नए साल से पहले पूरे देश में एक नई बातें देखने को मिली। आम लोगों के बीच से उपजे आंदोलन की परिणीति के रूप में दिल्ली में आम पार्टी की सरकार बनी। इससे लोगों को उम्मीद भी है्ं। पार्टी से जुड़ा हर व्यक्ति सिर पर टोपी लगाकर देश में भ्रष्टाचार उखाड़ने की बात कर रहा है। टोली पहनो या ना पहनों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि खादी पहनने से कोई महात्मा गांधी नहीं बन जाता। भ्रष्टाचार के लिए किसी दूसरे पर लगाम लगाने से पहले खुद में ही बदलाव लाना होगा, कि हम गलत रास्ते पर नहीं चलें। हमें सही व गलत का ज्ञान हो। हमें ही यह तय करना होगा कि क्या सही है या फिर क्या गलत।  यदि हम खुद को बदलने का संकल्प लेंगे तो निश्चित ही यह तानाबाना बदलेगा। फिर जमाना बदलने में भी देर नहीं लगेगी।
भानु बंगवाल

Saturday, 21 December 2013

कहीं शार्टकट न बन जाए लॉंगकट....

बुजुर्ग लोग सही फरमाते हैं कि जो रास्ता पहले से नहीं देखा, उस पर नहीं चलना चाहिए। कई बार शार्टकट के लिए अपनाए जाने वाले रास्ते ही मुसीबत बन जाते हैं। फिर सवाल यह उठता है कि जब तक नया रास्ता नहीं देखेंगे तो उसके बारे में हमें क्या पता चलेगा। वो व्यक्ति ही क्या जो प्रयोगवादी न हो। प्रयोग करने से ही सही व गलत का पता चलता है। प्रयोग जरूर करें, लेकिन समय व परिस्थिति के अनुरूप। साथ ही यह ध्यान भी रखना जरूरी है कि हमारा प्रयोग कितना व्यवहारवादी साबित होगा।
वैसे तो प्रयोग ही आविष्कार की जननी है। बचपन में मुझे अन्य बच्चों से हटकर कुछ नया करने का बड़ा शौक था। मैं हर उपकरण, खिलौने व मशीन को काफी बारीकी से देखता और यह जानने की कोशिश करता कि यह कैसे काम कर रहा है। तब मैं जूते की पॉलिश की खाली डब्बी, पुराने सेल (बेटरी), खराब टार्च समेत काफी कबाड़ एकत्रित करके रखता। एक बार मैने डालडे (घी) के दो डब्बों को तारकोल से ट्रेननुमा जोड़कर उसमें पॉलिस की डब्बी के पहिये बनाऐ। आगे वाले डब्बे को आधा पानी से भरा और पीछे वाले में कबाड़ डालकर आग जलाने की कोशिश। मेरी कल्पना थी कि जब अगले डिब्बे का पानी खोलेगा, तो भाप बनकर निकलेगा। इस भाप का करनेक्शन पहियों के पास किया गया। ताकि तेजी से निकली हवा से वे घुमेंगे। हाय रे बचपन का दिमाग। डब्बे गर्म होने पर सारे तारकोल के जोड़ खुल गए। मेरी कल्पना की ट्रेन कई टुकड़ों में बिखर गई। खराब सेल को दोबारा रिचार्ज करने के लिए एक दिन मैं सेल को पानी में उबाल रहा था। चूल्हे की आंच धीमी हुई तो मैं पांच लीटर के जेरीकन से चूल्हे में डीजल डालने लगा। तभी धमाका हु्आ और मेरे हाथ से जेरीकन छूट गया। मुझे लगा कि मेरा हाथ टूट गया। मुझे गर्मी का अहसास होने लगा। तभी नजर गई तो देखा कि मेरी पेंट दोनों जांच के पास से धूं-धूं कर जल रही है। मैं इधर-उधर भागा तो लपटें और तेज हो गई जो सिर तक पहुंच रही थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरी मौत सामने खड़ी थी। तभी मुझे पानी के नल के नीचे एक आधा भरा बड़ा ड्रम नजर आया। मैं किसी तरह उसमें घुसा तब जाकर आग बुझी। यहां यह बताना चाहूंगा कि जब जेरीकन धमाके से फटा तो उसका ऊपरी हिस्सा चिर गया। पकड़ हल्की होने के कारण यह मेरे हाथ से छिटका, लेकिन सीधा ही जमीन पर गिरा। कुछ डीजल जो मेरी पेंट में गिरा आग से वही जलने लगा था। जब तक आग तेज होती, मैंने उसे बुझा दिया, लेकिन यह खौफ मुझे कई साल तक कचौटता रहा। लड़कपन में भी मेरे प्रयोग बंद नहीं हुए। बारबर (नाई) की दुकान में हेयर ड्रायर आया तो मुझे भी बाल सेट करना का शौक चढ़ा। तब दो रुपये में बालों में ड्रायर लग जाता था। गर्म हवा को बालों के संपर्क में लाने पर बालों को कभी भी घुमाया जा सकता है। यह पता चलते ही मैने प्रेशर कूकर की भाप से बालों को सेट करने की विधि निकाली और दो रुपये बचाए। जब भी चावल पकते और सीटी आती तो मैं कंघी लेकर कूकर से सट जाता। भाप का संपर्क बालों से कर उन्हें सेट करने का प्रयास करता। एक दिन कूकर की सीटी  नहीं बजी। सेफ्टीवाल भी मजबूत निकला। नतीजन कूकर का ढक्कन ही उड़ गया। वह छत से टकराकर नीचे गिरा। छत पर चावल चिपक गए। क्रिया की प्रतिक्रया के स्वरूप जितनी तेजी से ढक्कन ऊपर गया उतना ही बल कूकर में नीचे की तरफ लगा। इससे गैस का चूल्हा पिचक गया। जिस टेबल में गैस का चूल्हा रखा था वह भी क्रेक हो गई। यहां मेरी किस्मत ने साथ दिया कि मुझे कुछ नहीं हुआ।
मुझे सहारनपुर में नौकरी के दौरान मेरठ बुलाया गया। वहां मुझे नया स्कूटर खरीद कर दिया गया। मैं मेरठ से सहारनपुर स्कूटर से आ रहा था। देववंद के पास मैने सहारनपुर के लिए एक ग्रामीण से रास्ता पूछा। वह भी शार्टकट रास्ता बता गया। रास्ते मे एक बरसाती नदी से होकर गुजरना था। नदी में पानी नहीं था, लेकिन रेत में फिसलन थी। बीच नदी में मेरा स्कूटर धंस गया। रात का समय था, ऐसे में उस बीराने में कोई मददगार तक नहीं मिला। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। किसी तरह पैदल उतरकर मैं पूरी ताकत से स्कूटर को आगे सरका रहा था। करीब आधे घंटे में मैं स्कूटर को किनारे पहुंचाने में कामयाब हुआ। इसके कुछ दिन बाद एक दिन रेलवे क्रासिंग पर गेट बंद था। मेरे साथी ने कहा कि बगल से शार्टकट है। आगे पटरियां हैं। वहां से रास्ता पार कर लेंगे। मैं भी शार्टकट अपनाते हुए चल दिया। पटरी एक नहीं करीब सात-आठ थी। उन्हें पार करने में दोनों को पापड़ बेलने पड़ गए। स्कूटर के पहियें पटरी पर फंस रहे थे। साथी ईंट लगाता तब हम पटरी पर चढा़कर आगे बढ़ते। गनीमत थी कि इस बीच कोई ट्रेन नहीं आई। मैने साथी को पहले ही कह दिया था कि यदि दूर से ट्रेन दिखी तो स्कूटर छो़ड़कर सुरक्षित स्थान पर खड़े हो जाएंगे।
वैसे शार्टकट के फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं। छोटे लालच में हम बड़ा नुकसान कर बैठते हैं। व्यक्ति के जीवन में शार्टकट के मौके अक्सर मिलते हैं। नौकरी पाने के लिए रिश्वत का शार्टकट, किसी लाइन में खड़े होने से पहले जान पहचान या रुतबे का फायदा उठाकर लिया गया शार्टकट, सड़क पार करने के लिए चौराहे तक पहुंचे बगैर डिवाइडर से निकलने का शार्टकट, पैसे कमाने के लिए अपनाया गया शार्टकट। ऐसे शार्टकट से फायदे की उम्मीद काफी कम होती है। शार्टकट से पैसे कमाने वाले अक्सर जेल की सलाखों में रहते हैं। एक मित्र का कहना था है उसी रास्ते से जाओ जहां से सभी जाते हैं और वह सुरक्षित हो। चाहे वह कुछ लंबा जरूर हो। प्रयोग जरूर करो, लेकिन पहले उसके हर पहलू पर विचार भी करो। तभी मंजिल आसान होगी।
भानु बंगवाल 

Monday, 16 December 2013

चिल्लर....

वैसे तो अब चिल्लर की जरूरत कभी-कभार ही पड़ती है। जब लोग मंदिर जाते हैं तो भगवान को चिल्लर चढ़ाने से नहीं चूकते। हालांकि भले ही जुए में लाखों रुपये दांव पर लगा दें। मंदिर में चढ़ाने के लिए ऐसे लोग खुले पैसे ही तलाशते हैं। क्योंकि भगवान कुछ नहीं बोलते, ऐसे में उन्हें चिल्लर चढ़ाने में हर्ज ही क्या है। वहीं उसके उलट भिखारी को यदि एक का सिक्का दे दो, तो पलटकर वह कुछ न कुछ ताना जरूर मार देता है। भिखारी भी पांच या दस का नोट ले रहे हैं। चिल्लर की उन्हें भी जरूरत नहीं। छोटे बच्चे तो चिल्लर की तरफ देखते ही नहीं। उन्हें भी करारा दस, पचास या सो का नोट चाहिए। मुझे अपना बचपन याद है। मोहल्ले में कई दृष्टिहीन रहते थे। मैं उनके छोटे-छोटे काम को हमेशा तत्पर रहता। वे दुकान से मुझसे समान मंगाते। दस या बीस पैसे बचते तो मुझे ही दे देते। मैं भी लालच में उनकी सेवा को हमेशा तत्पर रहता। कभी कभार साल में एक दो बार हमारे एक दूर के चाचा देहरादून आते तो हमारे यहां भी जरूर आते। उनका नाम सोमदत्त था और वह मुजफ्फरनगर रहते थे। जब भी वह वापस लौटते तो मुझे दो के नोट की गड्डी से एक करारा नोट निकालकर देते। वही नोट मुझे ऐसा लगता कि कई दिन मेरी मौज बन जाएगी। आज दो रुपये यदि मैं अपने बच्चों को दूं तो वे पलटकर यही जवाब देंगे कि इसका क्या आएगा। चिप्स का पैकेट भी दस रुपये से कम नहीं है।
मुझे चिल्लर की जरूरत सिर्फ बिलों की अदायगी के लिए पड़ती है। टेलीफोन, बिजली, पानी के बिल के साथ ही नगर निगम का जब भी हाऊस टैक्स देना होता है तो चिल्लर की जरूरत जरूर पड़ती है। इन सरकारी डिपार्टमेंट वालों को चिल्लर से ना जाने क्या मोह है। किसी भी बिल में ऐसी रकम नहीं होती कि सीधे दस, पचास या सौ के नोट से काम चल सके। पांच, सात, आठ रुपये खुले चाहिए होते हैं। क्योंकि यदि चिल्लर नहीं हुई तो काउंटर में बैठा व्यक्ति खुले नहीं है कहकर वापस रकम नहीं नहीं लोटाता। बिल के पीछे बचे दो, तीन रुपये लिख देता है। अब दो-तीन रुपये के लेने लिए दोबारा कौन जाएगा। यह भी गारंटी नहीं कि अगले दिन उसी व्यक्ति की काउंटर में ड्यूटी हो। मेरे जैसे हर व्यक्ति से वह दो-दो रुपये बचाकर अपनी चाय-पानी का खर्च जरूर निकाल लेता है। भिखारी भी जिस चिल्लर को नहीं लेता, वे उसे वापस नहीं करते और यही चाहते हैं कि पैसे जमा कराने वाला चिल्लर वापस न मांगे।
नगर निगम से हाउस टैक्स का बिल आया। बिल की आदायगी के लिए मुझे 88 रुपये खुले चाहिए थे। मैं खुले पैसे के लिए सुबह-सुबह मोहल्ले के लाला के पास गया। लाला की लंबाई कुछ कम है, ऐसे में सभी मोहल्ले वालों ने उसका नाम गट्टू लाला रखा है। मैं लाला के पास गया और संकोच करते हुए मैने पांच सौ रुपये के खुले मांगे। मैने कहा कि ऐसे नोट देना, जिससे मैं नगर निगम में खुले 88 रुपये जमा करा सकूं। लाला ने सौ के चार नोट दिए और दो पचास के। साथ ही बोला कि नगर निगम में आपको खुले पैसों की परेशानी नहीं होगी। वहां कैश काउंटर में बैठने वाला व्यक्ति काफी ईमानदार है। वह व्यक्ति का एक रुपये तक नहीं रखता। उसके पास हमेशा खुले पैसे होते हैं। मैने कहा यदि नहीं हुए तो उसे भी परेशानी होगी और मुझे भी। मैने घर में बच्चों की गुल्लक टटोली और उससे 38 रुपये का जुगाड़ किया। अब मेरे पास बिल के खुले पैसे थे, ऐसे में मुझे कोई टेंशन नहीं थी।
दस बजे निर्धारित समय पर मैं निगम पहुंच गया, लेकिन वहां कर्मचारी कुर्सी पर नहीं दिखे। सभी सुबह की ठंड को दूर करने के लिए धूप सेंकने में मशगूल थे। करीब पौन घंटे बाद कर्मचारी कुर्सी पर बैठे। मुझसे पहले दो-तीन लोगों का नंबर था। कैश काउंटर में बैठा व्यक्ति मुझे वैसा ही मिला, जैसा कि लाला ने बताया था। सुबह-सुबह उसके पास भी ज्यादा खुले नोट नहीं थे। लोग बड़े नोट लेकर आए थे। वह अपनी पैंट की जेब, पर्स, तिजोरी सभी को टटोलकर लोगों को चिल्लर लौटा रहा था। मेरा जब नंबर आया तो उसने कहा कि खुले पैसे हों तो अच्छा रहेगा। मैने उसे सौ के पांच नौट के साथ ही खुले 88 रुपये दिए। वह खुश हो गया। उसने कहा कि अब कुछ और लोगों को भी वह चिल्लर लौटा सकेगा।
भानु बंगवाल  

Monday, 9 December 2013

हमदर्द की परीक्षा....

उन दिनों गजेंद्र बुरे दौर से गुजर रहा था। वह जो भी काम करता उसमें उसे घाटा होता। कड़ी मेहनत के बावजूद भी असफलता मिलने को वह अपनी किस्मत को ही दोष दे रहा था। फिर भी वह निरंतर मेहनत कर आने वाले दिनों को बेहतर देखने के सपने बुन रहा था। गजेंद्र को यह पता है कि हर दिन हर व्यक्ति किसी न किसी परीक्षा के दौर से गुजरता है। वह इसमें सफल होने का प्रयास करता है। इस कार्य में मेहनत ही सबसे ज्यादा रंग लाती है। फिर भी कई बार किस्मत भी धोखा देती है। इससे उसे विचलित नहीं होना चाहिए।
वह यह भी जानता है कि अच्छे दिनों में उसकी मदद को सभी आगे आने को तत्पर रहते हैं, लेकिन यदि किसी को पता चल जाए कि वह संकट में है तो सभी मददगार भी पैर पीछे खींच लेते हैं। सचमुच कितनी स्वार्थी है ये दुनियां। ऐसे वक्त में तो अपने सगे भाई ने भी साथ नहीं दिया। फिर दूसरों से क्या उम्मीद वह कर सकता है। उस भाई ने जिसे पांव में खड़ा करने का बीड़ा गजेंद्र ने उठाया था। आज वह अच्छी आमदानी कर रहा है। वह बच्चों के साथ सुखी है, लेकिन गजेंद्र के सामने वह मदद की बजाय अपना दुखड़ा सुनाने लग जाता है।
करीब 17 साल हो गए जब गजेंद्र सहारनपुर के एक गांव से देहरादून में काम की तलाश में आया था। तब उसकी पत्नी, दो साल की बेटी व करीब छह माह का बेटा भी साथ थे। किराए का मकान लिया और सुबह-सुबह उठकर घर-घर जाकर दूध की सप्लाई करने लगा। दूध का काम में उसे फायदा मिला। काम बढ़ता गया और उसने एक छोटी सी डेयरी भी खोल दी। गजेंद्र की किस्मत साथ दे रही थी। उसने अपने छोटे भाई प्रमोद को भी अपने पास बुला लिया। प्रमोद तब 12 वीं कर चुका था। उसने कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज जाने से पहले वह भी गजेंद्र की तरह सुबह उठकर साइकिल से दूध बेचने जाता। कॉलेज से लौटने के बाद दुकान में भी नियमित रूप से बैठता। काम लगातार बढ़ रहा था। गजेंद्र ने अपने लिए मकान खरीद लिया। कारोबार को देखने के लिए परिवार व नातेदार के युवाओं को अपने पास गांव से बुला लिया। इन युवाओं को वह दूध के कारोबार से जोड़ता गया। साथ ही उन्हें कॉलेज भी भेजा। युवा पढ़ाई के साथ ही गजेंद्र का कारोबार बढ़ा रहे थे, साथ ही वे अपना जेब खर्च भी निकाल रहे थे। फिर गजेंद्र ने अपने भाई प्रमोद की शादी कराई और उसे एक नई दुकान खोलकर दे दी। प्रमोद ने भी एक पाश कालोनी में दूध व पनीर की डेयरी खोली, जो खूब चल पड़ी। गजेंद्र ने अपने भाई प्रमोद के बाद अपने चचेरे भाइयों, पत्नी के भाई (साले) को भी अलग-अलग दुकानें खोलकर दी। साथ ही सभी की शादी कराकर उनका परिवार भी बसा दिया। उसका अपना काम भी ठीकठाक चल रहा था। जो भी युवा उसके साथ बिजनेस में जुड़ता वह बाद में एक दुकान का मालिक हो जाता। हां इतना जरूर है कि गजेंद्र ने पहली दुकान अपनी बेटी रूपा के नाम से खोली थी। उसके साथ जुड़ने वाले हर युवा को जब भी वह दुकान खोलता, उसका नाम बेटी रूपा के नाम से रूपा डेयरी जरूर रखता।
गजेंद्र का भाई हर महीने में एक लाख से ज्यादा का मुनाफा कमा रहा है। भाई ने एक करोड़ से अधिक राशि खर्च कर आलीशान कोठी बनाई। नया मकान बनाने पर बिजेंद्र की जमा पूंजी खत्म हो गई। एक दिन उसे किसी काम के लिए दस हजार रुपये की जरूरत पड़ी तो भाई ने आर्थिक तंगी बताकर उससे पल्ला झाड़ दिया। यहीं गजेंद्र का दिल टूट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने तो अपने भाई के साथ ही दूसरों को भी अपने पांव में खड़ा होना सिखाया। जरूरत पड़ने पर उसके भाई ने मामूली रकम देने से उसे मना क्यों कर दिया। इस परीक्षा में उसका भाई तो फेल हो गया, लेकिन बिजेंद्र को लगा कि परीक्षा में वह स्वयं फेल हुआ है। वह अपने भाई को दूसरों की मदद का सिद्धांत व्यवहारिक रूप से नहीं सिखा सका। उसकी मदद को उसके पास पहले काम कर चुके युवा् आगे आए। पत्नी ने भी ही दुकान में बैठने का बीड़ा उठाया। युवा हो चुके बेटा भी पिता का कारोबार संभालने में जुट गया। गजेंद्र जानता है कि मुसीबत का यह दौर क्षणिक है। जल्द ही उसके दिन फिर से बहुरने वाले हैं। हां मुसीबत में उसे यह ज्ञान जरूर हो गया कि कौन उसका सच्चा हमदर्द है।
भानु बंगवाल  

Tuesday, 3 December 2013

प्यार बांटते चलो....

छुट्टी का दिन था। दोपहर को रोहित पड़ोस के घर में अपने दोस्त रजत के साथ खेलने  गया था। कुछ ही देर में वह वापस घर लौट आया। उसका मूड़ कुछ उखड़ा था। जैसे ही वह गेट खोलकर घर में पहुंचा प्रकाश ने पूछा बेटे क्या हुआ। तुम इतनी जल्दी कैसे वापस आ गए। इस पर रोहित फूट पड़ा और कहने लगा- पापा अब मैं दोबारा रजत के घर नहीं जाऊंगा। उनके घर में सब गंदे हैं। वे सब मुझे परेशान करते हैं। यही नहीं रजत के पापा ने मुझे थप्पड़ भी मारा। आप भी जाकर रजत को थप्पड़ मारो।
अपने पांच वर्षीय बेटे का रोना सुनकर कीचन से रीतू भी कमरे में आ गई और रोहित को छाती से लगाती हुई चिल्लाने लगी- कितना बेरहम है वो गंजा, जिसने मेरे फूल से बेटे को मारा। वह भुनभुनाते हुए पड़ोसी सुरेंद्र को सबक सिखाने के लिए घर से बाहर जाने को हुई, तभी प्रकाश ने टोका- क्यों जा रही है, कुछ फायदा नहीं। बच्चों के झगड़े में बड़े नहीं लड़ा करते।
यहां तो बड़े ने बच्चे को मारा है- रीतू बोली
कोई गलती की होगी, बगैर गलती के कोई नहीं मार सकता। तुम्हारा लाडला भी कम शैतान तो नहीं है।
-फिर तुम ही जाकर पूछो कि रोहित ने ऐसा क्या किया, जो उसे थप्पड़ मारा।
प्रकाश बोला- पूछ लेंगे पहले गुस्से पर तो काबू पाओ। मेरी बात साफ तौर पर सुन लो कि कोई झगड़ा करने नहीं जाएगा। फिर प्रकाश ने रोहित को डांटा- स्कूल का होमवर्क नहीं किया। पहले होमवर्क करो, तब जाकर खेलो। इस पर रोहित होमवर्क करने में जुट गया और प्रकाश की पत्नी रीतू कीचन में चली गई।
करीब आधे घंटे बाद पड़ोसी सुरेंद्र प्रकाश के घर आया। उसने आते ही कहा- शर्मा जी रोहित कहां है।
-क्या काम पड़ गया बच्चे से- प्रकाश बोला
-उसने शिकायत नहीं की क्या, मैं तो सोच रहा था कि आप लड़ने आओगे। आप तो आए नहीं- सुरेंद्र बोला
-लड़ लेंगे। लड़ने के लिए काफी वक्त है। मामला घुमाओ नहीं बताओ क्या हु्आ भाई।
-यार रोहित पहले मेरे कंधे में बैठ कर खेल रहा था। फिर सिर पर तबला बजाने लगा। मैने समझाया तो बोला कि गंजे के सिर का तबला ही बजाया जाता है। वह समझाने पर भी नहीं मान रहा था। मैने उसे हल्का थप्पड़ मारा तो वह धमकी देता हु्आ गया कि-पापा से तुम्हें पिटवाऊंगा। मेरे पापा जूडो-कराटे जानते हैं।
-यह सुनकर प्रकाश को हंसी आ गई। यार बच्चों की बात का बुरा मानकर यदि हम आपस में लड़ते रहेंगे तो एक दिन ऐसा आएगा कि हम दोनों में से एक को मकान छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा। यदि झगड़े की ऐसी ही आदत रही तो क्या गारंटी है कि दूसरी जगह जाने के बाद भी पड़ोसियों से विवाद की नौबत न आए। विवाद का कोई अंत नहीं है। अपनी ऊर्जा को नेक काम के लिए संभालकर रखना ही सभी के लिए बेहतर है।
सुरेंद्र बोला- खैर यार यदि तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं दोनों हाथ जोड़कर माफी मांगता हूं।
-इसमें माफी की क्या बात है। यदि मेरे साथ भी रोहित ऐसा व्यवहार करता तो मैं भी उसे सजा जरूर देता। वह होमवर्क कर रहा है। आपके घर जैसे पहले खेलने जाता था, वैसे ही आज भी जाएगा। बाकि आपकी मर्जी है। यह कहकर प्रकाश चुप हो गया।
सुरेंद्र ने समीप ही खड़े रोहित को गोद में उठा लिया और उसे पुचकारते हुए अपने साथ घर ले गया। सुरेंद्र के घर रोहित के मस्ती करने की आवाज प्रकाश को सुनाई दे रही थी। रजत व अन्य बच्चों के साथ वह खेल रहा था। मासूम यह भी भूल चुका था कि वह इसी घर से कुछ देर पहले रोते हुए गया था। सब कुछ सामान्य हो गया।
प्रकाश घर में बैठा-बैठा सोच रहा था कि उसने उत्तेजना में आकर कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिससे उसे बाद में पछताना पड़ता। वह अतीत की यादों में गोते लगाने लगा। एक घने मोहल्ले में उसका बचपन कटा था। वहां टीन की छत व भीतर से लकड़ी की सिलिंग के मकानों की लंबी लाइनें हु्आ करती थी। मकान के नाम पर एक परिवार के पास दो या एक कमरे होते थे। बरामदे की छत के नीचे बची जगह को लोगों ने खुद ही दीवार से कवर कर रसोई का रूप दिया था। सबके दरबाजे एक ही तरफ को खुलते थे। पीछे की तरफ खिड़की थी। रसोई की दीवार इतनी ऊंची थी कि उसके ऊपर से झांका जाए तो पड़ोसी की रसोई में होने वाली हर हलचल का पता चल जाए कि आज वहां क्या बन रहा है। कुछ ने दीवार व छत के बीच टाट लगाकर पर्दा डाल रखा था। एक लेन में करीब 15 कमरे थे। वहां प्रकाश के पिता के पास दो कमरे थे। बगल के कमरे में एक तरफ पड़ोसी आकाश, वहीं दूसरी बगल में एक दृष्टिहीन युवक सुमेर थापा रहता था।
प्रकाश का जन्म भी इसी घर में हु्आ था। पिता सरकारी कार्यालय में थे। पहले वे दूसरी जगह रहते थे। आफिस करीब होने के कारण वे देहरादून के इस मोहल्ले में किराए के मकान में शिफ्ट हो गए थे। तब बीस फुट लंबे व दस फुट चौड़े एक कमरे का किराया बामुश्किल सात रुपये था। प्रकाश से बड़ी चार बहने व एक भाई और थे। आकाश के दो बेटे थे। उनमे छोटा प्रकाश के बड़े भाई की हमउम्र का था। प्रकाश के घर में सबसे बड़ी दो बहने थी, फिर उसका भाई फिर दो बहन। इसके बाद सबसे छोटा प्रकाश था। प्रकाश के पिता को सभी शर्माजी कहते थे। जब से प्रकाश ने होश संभाला उसे यही बताया गया कि आकाश के घर कभी मत जाना। इस पर भी वह ना जाने क्यों बगल की दीवार फांदकर उनके घर जाने की चाह रखता था।
आकाश की पत्नी का नाम शांति था, पर वह अशांत थी। अलसुबह उठते ही नित्यकृम से निवृत्त होकर वह सार्वजनिक नल पर पहुंचती। वहां लोग पहले से पानी की बाल्टियां लेकर अपने नंबर का इंतजार कर रहे होते। नल टपकना शुरू होता, तो लोग नंबर से पानी भरते। शांति का जब नंबर आता तो वह पहले नल की टूंटी को रगड़कर धोती, तब पानी भरती।
बात-बात पर शांति और प्रकाश की मां का झगड़ा होता। कई बार तो आकाश व शर्मा जी भी औरतों के विवाद में कूद जाते। एक दूसरे को जब तक खूब न सुना लेते तब तक वे शांत नहीं होते। दोनों घरों में एक तरह से तलवारें खींची थी। जैसे-जैसे प्रकाश व उसके भाई बहन बड़े होते गए, उन्हें इस झगड़े से नफरत होने लगी। पता ही नहीं चला कि कब शांति के दूसरे बेटे राजा व प्रकाश के बड़े भाई राजेश के बीच दोस्ती हो गई। दोनों घर से ऐसे निकलते कि एक दूसरे की तरफ देखते ही नहीं। आगे जाकर दोनों साथ हो जाते और साथ-साथ स्कूल जाते। साथ-साथ खेलते, लेकिन अपनी माताओं के डर से घर में ऐसा व्यवहार करते कि जैसे वे आपस में कभी बात ही नहीं करते।
समय बीतता गया और दोनों परिवारों के बच्चे एक दूसरे के निकट आते गए, लेकिन महिलाओं का झगड़ा बंद नहीं हुआ। झगड़े की वजह अक्सर शांति तलाश लेती थी। दीपावली आई तो प्रकाश ने पटाखे फोडे। फटने के बाद एक बम का अंगारा शांति के घर के समीप गिरा, तो इस पर ही झगड़ा। होली में पिचकारी की धार शांति के घर के आगे गली पर गिरी तो झगड़ा। बरसात में नाली का पानी ओवरफ्लो होकर शांतिं के घर की तरफ गया तो झगड़ा। नाली प्रकाश के घर के सामने से होते हुए  शांति व आगे के घरों के लिए बनी थी। उसे ऐतराज था कि प्रकाश के घर से नाली का एक बूंद भी पानी न आए। बरसात में गली में ऊंचाई वाले स्थान से बहकर आने वाले  बरसाती पानी को भी बंधा लगाकर वह रोकने का प्रयास करती।
बच्चों ने जब किशोर व युवावस्था में कदम रखा तो उन्होंने आपस में लड़ना छोड़ दिया। वे शांति की गैरहाजिरी में एक दूसरे से खूब बातें करते। कई बार तो शांति के बेटों ने प्रकाश की मां को समझाने का प्रयास किया कि -मौसीजी हमारी मां कि बातों पर ध्यान न दिया करो। उसे झगड़े के सिवाय कुछ नहीं आता।
शांति ने बड़े बेटे की शादी की, लेकिन पड़ोस में शर्मा परिवार को न्योता नहीं दिया। बहू आई उसे भी पड़ोसियों से बात न करने की हिदायत दी। हां वह बहू से कभी भी नहीं झगड़ती थी, लेकिन बहू ने भी सास की हिदायत नहीं मानी। दोनों परिवारों के सदस्य शांति की अनुपस्थिति में आपस में बात करते। कई बार एक-दूसरे की मदद भी करते। छिपकर यह मिलना-जुलना तब तक रहा, जब तक शांति की मौत नहीं हो गई।
भानु बंगवाल


  

Thursday, 28 November 2013

घर जवांई...

राजपुर रोड स्थित एक होटल के लॉन में लगे पंडाल में डीजे बज रहा था। भीतर वैडिंग चेयर में बैठे दुल्हा व दुल्हन को लोग आशीर्वाद दे रहे थे। दूल्हे के रूप में विवेक ने शानदार सफेद सूट पहना हुआ था, वहीं दुल्हन मोनू पिंक लहंगे में किसी स्वर्ग की अप्सरा जैसी नजर र्आ रही थी। जो भी मेहमान आते वे इस जोड़े को देखकर सुमंतो मुखर्जी को बधाई देते और कहते कि- वाह भाई आपने लड़की के अनुरूप ही सुंदर लड़का तलाशा है। सुमंतो व उनकी पत्नी सोनम मेहमानों से खाना खाने को जरूर पूछते। कहते कि बगैर खाए मत जाना। डीजे के संगीत में कुछ बच्चे व युवा डांस भी कर रहे थे। सुमंतो मुखर्जी की यह तीसरी बेटी की शादी थी। दो बेटी पहली पत्नी से थी। पत्नी चल बसी तो उन्होंने दूसरी शादी की। दूसरी पत्नी सोनम सरकारी नौकरी में थी।जब दूसरी शादी कि तो एक बेटी दस साल की थी और दूसरी आठ की। सुमंतो खुद बिजनेस करते थे। मजे में कट रही थी। पैसों की कमी नहीं थी। सोनम ने सोतेली बेटियों को भी सगी मां की तरह प्यार दिया। दोनों बेटियों की शादी समय से कर दी गई। सोनम ने भी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम मोनू रखा गया। मोनू की शादी भी धूमधाम से होटल में की जा रही थी। मोनू ने अपने लिए खुद ही लड़का तलाशा था। वह उसके बचपन का साथी विवेक था। दोनों की दोस्ती इतनी बड़ी कि दोनों ने साथ साथ जीने की कसमें खाई। सुमंतो मुखर्जी व उनकी पत्नी ने भी विवेक को दामाद के रूप में स्वीकार कर लिया। क्योंकि वह मर्चेंट नेवी में अच्छी जोब में था।
विवाह सामारोह में मेहमान बढ़ते जा रहे थे। चारों तरफ चहल-पहल थी। इसी बीच करीब छह सात महिलाओं का एक जत्था विवाह स्थल पर पहुंच गया। उसे देखते ही सुमंतो मुखर्जी व उनकी पत्नी को मानो सांप सूंघ गया। दोनों एक कोने में खड़े हो गए। महिलाएं मंच के पास दुल्हा व दुल्हन के पास पहुंची। उनमें से एक पतली-दुबली व लंबी कद काठी की महिला विवेक के सामने खड़ी हो गई। शादी में पहुंची यह महिला घर के साधारण कपड़ों में ही थी। पूरे पंडाल में लोगों में सन्नाटा सा छा गया। हालांकि तब भी डीजे बज रहा था। महिला ने विवेक को कंधे से पकड़कर झंझोड़ा। उसके चेहरे पर थप्पड़ों की बरसात सी कर दी। सिर के बाल पकड़कर उसे मंच से नीचे घसीटा। जो लोग महिला को जानते नहीं थे, वे बीच-बचाव को आगे आने को हुए, लेकिन उन्हें दूसरे लोगों ने इशारा कर रोक दिया। विवेक चुपचाप किसी अपराधी की तरह मार खाता चला गया। जब महिला थक गई तो उसने जमीन से एक चुटकी मिट्टी उठाई और विवेक के ऊपर फेंकते हुए बोली-मेरे लिए आज से तू मर गया। यह कहते हुए वह अन्य महिलाओं के साथ रोती हुई वापस चली गई। विवाह समारोह में उत्पात मचाने वाली महिला को जो लोग नहीं जानते थे  , ऐसे एक व्यक्ति ने दूसरे से पूछा
-यह औरत कौन है और क्या माजरा है।
-यह दूल्हे की मां है, जो इस विवाह से खुश नहीं थी। उसकी मर्जी के खिलाफ ही चुपचाप से यह शादी हो रही थी। दूसरे ने जवाब दिया।
कमला का मन न तो खाने का कर रहा था और न ही उसे नींद ही आ रही थी। रात के नौ बज चुके थे और उसने चूल्हा तक नहीं जलाया। फिर उसे याद आया कि वह पति को क्यों सजा दे रही है। उसे तो खाना बना देना चाहिए। वह उठी और रसोई में चली गई। तभी पति गोविंद ने कमला से कहा- मुझे भूख नहीं है, मेरा खाना मत बनाना।
-क्यों आपकी भूख कहां उड़ गई, बेटा भी तो आपकी तरह ही अपनी मनमर्जी का है। पहले आपने मुझे कष्ट दिया अब बेटा दे रहा है।
-क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ती हो। पुरानी बातों को भूल जाओ-गोविंद बोला
-कैसे भूल सकती हूं, खैर हम क्यों भूखे रहें, बेटे ने तो दावत उड़ाई तो हम क्यों खाली पेट रहें। कब तक भूखे रहेंगे। मैं मेगी बनाती हूं। उसी से गुजारा कर लेंगे।
कमला ने मेगी बनाई, पति और अपने लिए भी कटोरी में डाली। पति ने तो खा ली, लेकिन वह दो चम्मच भी हलक से नीचे नहीं उतार सकी। फिर कुछ देर बाद बर्तन धोकर बिस्तर में लेट गई।
बिस्तर में लेटने के बाद नींद किसे थी। उसकी आंखों में पुरानी यादें ताजा हो रही थी। पुराने घाव दिल में हरे होने लगे। विवाह के बाद सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। पति गोविंद की प्राइवेट फर्म में नौकरी थी और वह सरकारी संस्थान के हॉस्टल में आया थी। बड़ी बेटी हुई, जिसका नाम बीना रखा। फिर बेटे ने जन्म लिया जिसका नाम विवेक रखा गया। जब बच्चों को मां-बाप के दुलार की जरूरत थी, तब कमला की किस्मत फूट गई। पति छोटे बच्चों को छोड़कर घर से भाग गया। वह किसी दूसरी महिला के मोहपाश में बंध गया। कमला ही दोनों बच्चों की परवरिश कर रही थी। अच्छे स्कूल में पढ़ाया। मुसीबत के वक्त कमला के देवर ने हर सुख-दुख में उसका साथ दिया। विवेक को लेकर कमला ने कई सपने बुने हुए थे। वह उसके बुढ़ापे का सहारा जो बनता। विवेक भी मां का लाडला था। मां को भी अपने बेटे पर गर्व था।
बच्चे युवा हुए फिर जवान। बीना की शादी एक बिल्डर से करा दी गई। वह ससुराल में खुश थी। विवेक की नौकरी एक शिप कंपनी में लग गई। वह छह माह या एक साल में घर आता। ढेरों गिफ्ट मां व बहन के लिए भी लाता। कमला ने देखा कि विवेक का झुकाव मोहल्ले में ही रहने वाले बंगाली परिवार की मोनू से हो रहा है। वह उसे सचेत करती और कहती कि उसके लिए नेपाली लड़की तलाश रही है। पर विवेक ने कुछ और ही ठान रखा था।
विवेक को यह पता था कि उसकी मां कभी भी उसे मर्जी से शादी करने नहीं देगी। वहीं मोनू के माता-पिता यही चाहते थे कि बुढापे में उनका सहारा मोनू व विवेक बनें। ऐसे में विवेक दो घरों की एकसाथ जिम्मेदारी कैसे उठा सकता है, यही बात उसे उलझाए रखती। वह ऐसी पक्की व्यवस्था करना चाहता था, जिससे उसकी मां अकेली न पड़े। जिस विवेक ने अपने पिता को अपनी याददाश्त में कभी नहीं देखा। जो पिता बेटे, बेटी व पत्नी की सुध लेने कभी नहीं आया। उसे एक दिन विवेक ने तलाश ही लिया। इस काम में विवेक की मदद उसके चाचा मेत्रू ने की। गोविंद जिस महिला के साथ रहता था, वह भी मर चुकी थी। ऐसे में घर वापसी में उसे कोई दिक्कत नहीं आई। फिर से कमला का परिवार भरा-पूरा हो गया।
कमला को अब यह रहस्य भी साफ-साफ समझ आ गया कि आखिरकार विवेक को 24 साल की उम्र में पिता प्रेम क्यों जागा। शायद इसलिए ही वह अपने पिता को तलाश कर घर वापस लाया कि वह खुद घर छोड़ना चाह रहा था। बेचारी कमला अभागी ही रही। पहले पति के व्योग में दिन काटे अब उसे बेटे के व्योग में दिन काटने की आदत डालनी थी। क्योंकि बेटा तो दूसरे घर में जाकर घर जवांई हो गया था।
भानु बंगवाल       

Saturday, 16 November 2013

वनवास या बदला....(कहानी)

त्रेता युग में राम को पिता ने 14 साल का वनवास दिया। जिसका उद्देश्य मानव जाति को राक्षसों के आतंक से मुक्त कराना था। राम ने पिता की आज्ञा को स्वीकार भी किया और धरती को राक्षसों से मुक्त भी कराया। वहीं कलयुग के इस पति ने अपनी पत्नी सावित्री को वनवास दे दिया। सावित्री को यह वनवास हर वक्त कचोटता रहा। सावित्री यही सोचती कि आखिर उसकी गलती क्या है। वह न तो कुलटा थी। पति का पूरा सम्मान करती थी। पति की हर आज्ञा का पालन करना उसका धर्म था। पर ऐसी आज्ञा भी क्या कि पति ही उसे मायके छोड़ दे और उसकी सुध तक न ले। फिर भी वह पति की आज्ञा का पालन करने को विवश थी और अपने भाग्य को निरंतर कोसती ऱहती।
रुद्रप्रयाग जनपद के एक गांव में सावित्री पैदा हुई थी और वहीं उसकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। गरीब परिवार से होने के कारण उसकी शिक्षा दीक्षा ज्यादा नहीं चल सकी। पांचवी पास हुई तो उसे घर व खेत के काम में जुटा दिया। उसका भविष्य यही बताया गया कि उसे दूसरे के घर जाना है और वहीं रहकर पति की सेवा करनी है। लड़की को ज्यादा पढ़ना लिखना नहीं चाहिए। पढ़ेगी भी कैसे, गांव में स्कूल हैं नहीं। अकेली लड़की को दूर शहर कैसे भेज सकते हैं। सावित्री जवान हुई तो उसका रिश्ता हरेंद्र से कर दिया गया। हरेंद्र देहरादून में अपने बड़े भाई जितेंद्र के साथ रहता था। जितेंद्र एक जाना माना मोटर साइकिल मैकेनिक था। उसका धंधा भी खूब चल पड़ा था। उसके पास हरेंद्र  के साथ ही करीब पांच-छह सहयोगी भी थे। जो हर वक्त मोटर साइकिल रिपेयरिंग के काम में व्यस्त रहते। विवाह के कुछ माह बाद हरेंद्र भी सावित्री को देहरादून अपने साथ ले आया। जितेंद्र का दो कमरों का छोटा का मकान था। उसमें दोनों भाइयों के परिवार रह रहे थे। आमदानी इतनी थी कि दोनों भाई आराम से गुजर-बसर कर रहे थे। सावित्री ही दोनों परिवार के सदस्यों का खाना तैयार करती। परिवार के कपड़े धोती व घर के वर्तन मांजती व सारा काम करती। वहीं, जितेंद्र की पत्नी रेनू घर में मालकिन की तरह रहती। रेनू ने एक कन्या को जन्म दिया। इसका नाम पूजा रखा गया।
कभी भी कोई परिवार एक जैसा नहीं रहता। उसमें सुख-दुख समय-समय पर आते रहते हैं। बार-बार समय का चक्र बदलता रहता है। बुरे वक्त में संघर्ष करना परिवार के सदस्यों की नियती बन जाती है। जितेंद्र के परिवार में भी जो आगे होना था, शायद उसका आभास किसी को भी नहीं था। एक रात जितेंद्र की तबीयत बिगड़ने लगी। तब पूजा करीब छह माह की थी। रेनू  व हरेंद्र ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने को कहा, तो जितेंद्र ने यही कहा कि हल्का बुखार है, ठीक हो जाएगा। अगले दिन ही डॉक्टर के पास जाऊंगा। बुखार की दवा खाई और बिस्तर पर लेट गया। फिर पेट दर्द उठा और एक दो उल्टियां भी हुई। अब तो डॉक्टर के पास जितेंद्र को ले जाने की तैयारी हो रही थी, लेकिन तब तक इसको प्राण-पखेरू उड़ गए।
जितेंद्र की मौत के बाद हरेंद्र के स्वभाव में बदलाव आने लगा। उसका झुकाव अपनी भाभी की तरफ होने लगा। पत्नी सावित्री उसे डायन सी नजर आने लगी। बात-बात पर वह पत्नी की कमियां निकालता और उसे पीटता रहता। सावित्री एक भारतीय नारी होने के कारण पिटाई को पति से मिलने वाला प्रसाद ग्रहण कर चुपचाप सब कुछ सहन करती रहती। अत्याचार बढ़े और सावित्री का पति संग रहना भी मुश्किल होने लगा। एक दिन हरेंद्र उसे रुद्रप्रयाग उसके मायके छोड़ गया। यही तर्क दिया गया कि आर्थिक स्थिति अभी ऐसी नहीं है कि सावित्री को वह साथ रखेगा। तब जितेंद्र की मौत के छह माह हो गए और बेटी पूजा एक साल की हो गई थी। सावित्री मायके में रहकर पति के अत्याचारों से मुक्त तो हो गई, लेकिन पति के बगैर उसे  जिंदगी अधूरी लग रही थी। वह तो मायके मे रहकर वनवास काट रही थी। यह वनवास कितने साल का होगा, यह भी उसे पता नहीं था।
भाई का सारा काम संभावने के बाद हरेंद्र का कारोबार और तेजी से बढ़ने लगा। घर में पैसों की मानो बरसात हो रही थी। एक दिन वह अपनी भाभी रेनू के साथ उसके मायके सहारनपुर गया। एक सप्ताह बाद जब दोनों वापस लौटे तो रेनू की मांग पर सिंदूर चमक रहा था। दोनों ने सहारनपुर में एक मंदिर में शादी कर ली थी। विधवा विवाह कोई बुरी बात नहीं, लेकिन एक पत्नी के होते दूसरी रखना शायद समाज में किसी को भी सही नहीं लगा। फिर भी किसी के परिवार में क्या चल रहा है, इस पर सभी मौन थे। वहीं, पति के पास वापस लौटने की सावित्री की उम्मीद भी धूमिल पड़ गई। रेनू व पूजा के साथ हरेंद्र का परिवार खुश था, वहीं सावित्री अपनी किस्मत को कोस रही थी। हरेंद्र तरक्की कर रहा था। धंधा चला तो उसने ब्याज पर पैसे देने शुरू कर दिए। यह धंधा भी खूब फलने लगा। दो कमरों का मकान चार कमरों में बदल गया। पूजा जब सात साल की हुई तो रेनू ने एक और कन्या को जन्म दिया। इसका नाम अनुराधा रखा गया। इन सात सालों में हरेंद्र ने एक बार भी अपनी उस पत्नी सावित्री की एक बार भी सुध नहीं ली, जिसके साथ सात फेरे लेते समय उसने जन्म-जन्मांतर के साथ की कसम खाई थी।
रेनू ने दोनों बेटियों को अच्छे स्कूल में डाला हुआ था। हरेंद्र व रेनू के बीच शायद ही कभी कोई झगड़ा हुआ हो। वे सभी खुश थे। तभी रेनू के गले में दर्द की शिकायत होने लगी। कभी एलर्जी तो कभी छाती में जलन। हर डॉक्टर परीक्षण करता और दवा देता, लेकिन फर्क कुछ नहीं हो रहा था। बीमारी की तलाश में पैसा पानी की तरह बह रहा था। बीमारी जब पकड़ में आई तो समय काफी आगे निकल चुका था। रेनू के गले की नली काफी सड़ चुकी थी। चीरफाड़कर डॉक्टरों ने खराब नली निकालकर कृत्रिम नली डाल दी। बीमारी की वजह से रेनू कमजोर पड़ने लगी। पेट में भी पानी भरने लगा। हरेंद्र ही हर तीसरे दिन मोटी सीरिंज से ही इस पानी को निकालता था। जैसा कि उसे डॉक्टर ने बताया था। इस बीच इलाज के लिए जब पैसों की कमी हुई तो हरेंद्र को मकान तक बेचना पड़ा। उसने एक छोटा दो कमरे का मकान लिया और बाकी पैसों को रेनू के इलाज में लगया। जब पूजा 14 साल और अनुराधा छह साल की हुई तो रेनू भी चल बसी। तब तक हरेंद्र का धंधा पूरी तरह से बिखर चुका था। उसके पास काम करने वाले मैकेनिकों ने दूसरी दुकानें पकड़ ली। कई ने अपनी ही दुकानें खोल ली। हरेंद्र को अब खुद नौकरी तलाशने की जरूरत पड़ने लगी। वह सहारनपुर में एक दुकान में काम करने लगा। बेटियों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। पड़ोस के लोगों की मदद से बेटियों को देखभाल हो रही थी। किसी ने उसे सलाह दी कि अपनी पहली पत्नी सावित्री को मनाकर वापस ले आए। वही अब उसका बिखरा घर संभाल सकती है।
सावित्री मानो हरेंद्र का ही इंतजार कर रही थी। उसे मायके रूपी वनवास में 14 साल पूरे हो गए थे। उसने दूसरा विवाह भी नहीं किया था। वह खुशी-खुशी हरेंद्र के साथ देहरादून आ गई। सावित्री के दो जुड़वां बच्चे हुए। इनमें एक लड़का व एक लड़की थे। फिर उसने एक और बेटी को जन्म दिया। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगे सौत के बच्चों से उसका प्यार कम होने लगा। वह बात-बात पर पूजा को ताने देने लगी। पूजा शांत स्वभाव की थी। जैसा नाम, वैसा स्वभाव। वह नियमित रूप से मंदिर जाती। हर त्योहार में व्रत रखती। जैसे-तैसे उसने पढ़ाई पूरी की। बहन अनुराधा का भी उसने पूरा ख्याल रखा। फिर जब सौतेली मां का अत्याचार लगातार बढ़ता चला गया तो उसने एक युवक से विवाह कर लिया। वह अपनी बहन अनुराधा को भी साथ ले गई। अब हरेंद्र के घर में सावित्री और उसके तीन बच्चे रह गए हैं। पहले सावित्री ने वनवास सहा और अब हरेंद्र की बेटी अनुराधा वनवास पर है। फिर भी वह वनवास पर अपनी बड़ी बहन के साथ है और इससे वह खुश है। साथ ही हरेंद्र के परिवार के लिए भी रोज-रोज की कलह से यह अच्छा है। सावित्री ने जहां 14 साल का वनवास रेनू के कारण झेला, वहीं उसने भी रेनू की छोटी बेटी को पिता से अलग कर उसे वनवास में भेजकर अपना बदला चुका लिया।
भानु बंगवाल      

Saturday, 9 November 2013

भगोड़ा....(कहानी)

प्रकाश तो बचपन से ही सुनहरे भविष्य के सपने देखता था, लेकिन सपने कब पूरे होंगे यह उसे पता नहीं था। वह तो बस भाग रहा था। कभी जमाने में कुछ पाने के लिए तो कभी अपना अस्तित्व बचाने के लिए। क्या था उसका अस्तित्व यह भी उसे नहीं पता था। हां इतना जरूर था कि वह दूसरे लड़कों से कुछ अलग था। संगी साथी जब स्कूल से घर आकर मैदान में खेलने जाते, तो वह घर के काम में अपनी माता का हाथ बंटाता था। मैदान में कभी कभार ही जाता। घर के काम के साथ ही वह पढ़ाई के लिए समय निकालता। पढ़ाई में वह सामान्य था और उसे यह भी नहीं पता था कि पढ़ाई के बाद वह क्या करेगा। क्योंकि उसे किसी से कोई दिशा निर्देशन तक नही मिला था। वह तो बस भाग रहा था। इसी आपाधापी में वह पढ़ाई के दौरान ही कभी छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर तो कभी केन की कुर्सी बनकर अपनी जेब खर्च लायक पैसा भी कमा लेता।
पढ़ाई पूरी करने के बाद भी प्रकाश को सरकारी नौकरी नहीं मिली। मिलती भी कैसे, नौकरी के लिए या तो तगड़ी सिफारिश चाहिए थी, या फिर उसे इतनी कुशाग्र बुद्धि का होना चाहिए था कि वह इंटरव्यू में सब को पछाड़कर नौकरी पा ले। यह दोनों ही खूबियां उसमें नहीं थी। वह तो बस सामान्य था। सामान्य के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। फिर भी प्रकाश खाली नहीं था। वह अपने व परिवार की मदद के लायक कोई न कोई रोजगार तलाश ही लेता था। जब उसके साथ के युवा मस्ती करते तो वह काम में खटता रहता। उसकी भी इच्छा होती कि वह अपने दोस्तों की तरह मस्ती करे। खूब पैसा कमाए। एक प्रेमिका हो, जिसके साथ कुछ साल तक प्रेम की पींगे बढ़ाए, फिर बाद में उसके साथ घर बसा ले। कभी वह सपना देखता कि एक राजकुमारी भीड़ में उसकी तरफ आकर्षित होती है, फिर उससे शादी का प्रस्ताव रखती है। सपना तो सपना है। फिर भी वह खूब पैसे कमाने का सपना देखता। इसे पूरा करने के लिए एक ठेकेदार के पास काम करने लगा। वह सपना देखता कि ठेकेदारी का काम सीखकर वह अपना काम शुरू करेगा, लेकिन इसके लिए पैसा कहां से आएगा, यह उसे पता नहीं था। ठेकेदार भी प्रकाश की मेहनत का कायल था। वह प्रकाश को यह जताता कि जैसे प्रकाश अपना ही काम कर रहा है। वह भी मालिक है, लेकिन जब वेतन देने का समय आता तो प्रकाश मात्र नौकर होता। वही घिसा पिटा डायलाग ठेकेदार मारता कि जब तेजी से काम बढ़ेगा, तब प्रकाश के ऊपर नोटों की बारिश होगी। यह बारिश कब होगी इसका उसे पता नहीं था, फिर भी वह दौड़ रहा था और सबसे तेज दौड़ना चाहता था।
प्रकाश के घर से सामने जो परिवार रहता था, वहां कुछ दिनों से खूब चहल-पहल हो रखी थी। कारण था कि पड़ोसी गजेंद्र की ससुराल से उसकी सास व साली आदि आए हुए थे। गजेंद्र की पत्नी व एक बेटी थी। सहारनपुर से ससुराल के लोगों के आने पर उनके घर से सुबह से ही हंसी के फव्वारे सुनाई देते थे। प्रकाश को इतनी भी फुर्सत नहीं थी कि उनके घर की तरफ झांक कर देखे कि कौन आए हैं। वह तो बस आवाज सुनकर ही अंदाजा लगाता। सुबह सात बजे काम को घर से निकल जाता और रात को जब घर पहुंचता तो आधा शहर सो रहा होता। फिर भी सुबह तड़के व देर रात तक पड़ोस से आवाजें आती, जो उसे उत्सुकता में डालती कि वहां जो आए हैं वे कैसे हैं।
सर्दी का मौसम था। मौसम बदलते ही प्रकाश भी वायरल की चपेट में आ गया। काम से छुट्टी ली। डॉक्टर से दवा ली और घर बैठ आराम करने लगा। कमरे में ठंड ज्यादा थी, तो वह छत पर धूप सेंकने चला गया। तभी उसे सामने वाली छत पर एक युवती नजर आई। युवती नहा कर छत में बाल सुखाने आई थी। उसकी उम्र करीब 18 या 19 रही होगी। रंग गोरा, कद-काठी सामान्य, यानी सुंदरता के लगभग सभी गुण उसमें प्रकाश को नजर आए। वह उसे देखता ही चला गया। युवती भी शायद ताड़ गई कि पड़ोस का युवक उसमें दिलचस्पी ले रहा है। यह युवती प्रकाश के पड़ोसी की साली थी। पड़ोसी की तीन सालियां था। बड़ी की शादी हो रखी थी। दो कुंवारी थी, उनमें यह युवती बीच की थी, जिसका घर का नाम गुल्लो था। कुछ देर इठलाकर, प्रकाश पर नजरें मारकर युवती छत से नीचे उतरकर कमरे में चली गई और प्रकाश छत से उतरना ही भूल गया। पूरी दोपहर से शाम तक छत पर ही रहा। कभी समय काटने को कहानी की किताब पड़ता और कनखियों से पड़ोसी की छत पर देखता कि शायद युवती दोबारा आए। वह युवती के साथ जीते-जागते ख्वाब देखने लगा। उसे लग रहा था कि शायद वही उसका प्यार है, जिसके लिए वह पैदा हुआ। युवती के दोबारा छत में न आने पर प्रकाश निराश हो गया था।
पड़ोसी की बेटी का जन्मदिन था। प्रकाश के घर भी भोजन का न्योता मिला। प्रकाश काफी खुश था कि जन्मदिन के बहाने युवती को दोबारा देखने का मौका मिलेगा। प्रकाश की मोहल्ले में छवि अच्छी थी। सभी उसे नेक व चरित्रवान मानते थे। वह जब बातें करता तो सभी से घुलमिल जाता था। जन्मदिन पार्टी में भी वह पड़ोसी के घर ऐसे काम करने लगा कि जैसे उसी घर का सदस्य हो। कभी वह चाय परोसता तो कभी मेहमानों तक प्लेट में पकोड़े व अन्य खानपान की वस्तुएं पहुंचाता। इसी दौरान एक बार कीचन में एक ऐसा मौका आया कि प्रकाश व युवती दोनों ही अकेले थे। तब प्रकाश युवती के पास धीरे से फुसफुसाया...आप बहुत सुंदर हो, मुझे आपसे प्यार होने लगा है। यह कहने भर के लिए वह थर-थर कांप रहा था। उसमें युवती की प्रतिक्रिया तक जानने का साहस नहीं हुआ। वह चाय की ट्रे लेकर बाहर निकल गया।
जन्मदिन मनाने के बाद पड़ोसी के ससुराल वाले भी अपने घर लौट गए और प्रकाश भी अन्य दिनों की तरह ड्यूटी को जाने लगा। उसका मन न तो काम में लगता और न ही उसे भूख लगती। रह-रहकर गुल्लो की सूरत ही उसे नजर आती। नींद में भी और जागते हुए भी। वह गुल्लो से बात करना चाहता था। मीठी-मीठी बातें कर उसे समझना चाहता था, लेकिन उस तक पहुंचने का उसे रास्ता नहीं सूझ रहा था। किस्मत ने पलटी मारी और ठेकेदार ने प्रकाश को सनमाइका के कुछ टुकड़े सौंपे और कहा कि इन सेंपलों के लेकर सहारनपुर जाओ। वहां जिस दुकान में ऐसी डिजाइन की सनमाइका मिले, वहां कुछ एडवांस देकर आर्डर बुक करा देना। सहारनपुर का नाम सुनते ही प्रकाश का दिल सीने से उछलकर हलक में आ गया। वह बिजनेस की बातें समझकर ठेकेदार से सहारनपुर जाने को विदा हुआ, लेकिन सीधे अपने पड़ोसी के घर पहुंचा। वहां जाकर उसने पड़ोसी से कहा कि मुझे सहारनपुर जाना है। वहां के बाजार का मुझे ज्ञान नहीं है। तु्म्हारा ससुराल सहारनपुर है। तुम्हारे दो साले हैं। वहां का पता दे दो, मैं तुम्हारे एक साले को साथ लेकर बाजार जाउंगा तो परेशानी कम होगी।
सज्जन पडो़सी ने एक कागज में पता लिखा। साथ ही एक मैप भी बना दिया कि बस अड्डे से वह कैसे उसकी ससुराल तक पहुंचेगा। पता जेब में डालकर प्रकाश सहारनपुर को रवाना हो गया। सहारनपुर पहुंचने के बाद प्रकाश को पड़ोसी के ससुराल को तलाशने में परेशानी नहीं हुई। वह उस घेर (आहता) तक पहुंच गया, जहां गुल्लो उससे मिलने वाली थी। पुरानी हवेलीनुमा मकान की उधड़ती सीढ़ियां चढ़कर प्रकाश एक दरवाजे के सामने पहुंचा। वहां गुल्लो को झा़ड़ू मारते देखा, प्रकाश उसके सामने खड़ा हो गया। अचानक प्रकाश को सामने देख गुल्लो आश्चर्यचकित हो गई। उसने पूछा कैसे आए। प्रकाश से जवाब मिला आपसे मिलने। घर में कोई नजर नहीं आ रहा था। गुल्लो उसे कमरे में ले गई। वह सोफे में बैठ गया। प्रकाश ने पूछा कि बाकी सब कहां हैं। गुल्लो इठलाती हुई बोली कि आप आ रहे थे, मैने सभी को भगा दिया। शाम तक कोई नहीं आएगा। वह रसोई में जाकर प्रकाश के लिए चाय बनाने लगी। प्रकाश भी पीछे-पीछे रसोई में चला गया। उसने गुल्लो का हाथ पकड़ा। फिर माथा चूम लिया। गुल्लो ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। न वह हंसी और न ही चिढ़ी। प्रकाश डर गया वह वापस सौफे में बैठ गया। अब प्रकाश  सोचने लगा कि वह वहां क्यों आया। क्या उसकी मंजिल गुल्लो है। या फिर उसे अभी जीवन में बहुत कुछ करना है। अभी उसकी उम्र 21 साल ही तो है। अभी वह ठीक से कामाता तक नहीं। यदि प्रेम के जाल में फंस गया तो शायद वह बर्बाद हो जाएगा। मेरी मंजिल तो यहां नहीं है। मुझे तो सहारनपुर के बाजार में सनमाइका का सेंपल लेकर घूमना है। जहां सेंपल से मिलतीजुलती सनमाइका मिलेगी, वहीं मेरा काम खत्म। मैं क्यों इस माया के जाल में फंस रहा हूं। भाग निकल प्रकाश, वर्ना बाद में पछताना पड़ेगा।
इसी बीच गुल्लो चाय लेकर पहुंच गई। तभी उनके घर एक व्यक्ति ने प्रवेश किया। वह उनका परिचित था,  जो शायद गांव से गुल्लो के पिता के पैसे देने आया था। गुल्लो ने उसे टरकाने के उद्देश्य से यह कहा कि मेरे पिताजी चार घंटे बाद आएंगे, लेकिन वह वापस जाने को टस से मस नहीं हुआ और घर पर ही बैठकर इंतजार करने की बात कहने लगा। तभी गुल्लो ने घर से दूर एक फेमस दुकान का नाम बताया और वहां से गाजर का हलवा लाने को भेज दिया। वह चला गया। प्रकाश ने चाय पी और गुल्लो से विदा लेने को उठने लगा। पर गुल्लो तो कुछ और चाह रही थी। उसने मुख्य द्वार बंद कर चटकनी लगा दी। वह प्रकाश को पकड़कर बिस्तर की तरफ खींचने लगी। जिस गुल्लो को लेकर प्रकाश कई दिनों से सपने देखता आ रहा था, वह चकनाचूर हो गए। वही गुल्लो उसे भयानक  सूपर्नखा नजर आने लगी। वह उससे पीछा छुड़ाना चाह रहा था। उसे गुल्लो से घीन आने लगी। उसका पूरा शरीर डर से कांप रहा था, वहीं गुल्लो वासना से कांप रही थी। उसने गुल्लो से कहा कि वह एक घंटे बाद दोबारा आएगा। तब तक वह इंतजार करे। वह प्रकाश का रास्ता रोक खड़ी हो गई। इस पर प्रकाश ने उसे थप्पड़ रसीद कर दिया। फिर चटकनी खोली तो देखा कि सामने की छत से कुछ महिलाएं उसी घर की तरफ टकटकी लगाए देख रही। जो शायद किसी तमाशे के इंतजार में थीं। प्रकाश तेजी से साथ दरवाजे की दहलीज लांघ कर निकल गया। उसने पीछे मुड़कर देखने का साहस तक नहीं किया। वहीं गुल्लो खिड़की से उसे जाता हुआ देख रही थी। उसे आश्चर्य हुआ कि जो उसे देखकर लट्टू होता था, वह तो भगोड़ा निकला। वहीं प्रकाश ने हमेशा से लिए दिल से गुल्लो को निकाल दिया और फिर कुछ बनने के लिए जारी दौड़ में शामिल हो गया।
भानु बंगवाल 

Friday, 18 October 2013

सपना न हो सका अपना...

मालिक देता, जब भी देता, देता छप्पर फाड़कर। यहां तो छप्पर है नहीं, फिर चलो धरती ही खोद ली जाए। खेत बंजर पड़े हैं, लेकिन उसे खोदने की फुर्सत किसी को नहीं। खेत को खोदते तो शायद ये धरती सोना उगलती, लेकिन यहां तो महज पांच वर्ग मीटर के हिस्से को खोद कर पूरे भारत की किस्मत बदलने की तैयारी चल रही है। वो भी एक साधु के कहने पर। सुना है कि साधु के कहने पर कई बार लोगों की किस्मत पलट गई। फिर सरकार भी क्यों पीछे रहे। सो शुरू करा दी उन्नाव के डांडिया खेड़ा स्थित राव राम बक्स सिंह किले के पास सोने की खोज में खुदाई। सपनों के खजाने की खोज जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, तमाशबीनों के साथ ही पूरे देश के लोगों की जिज्ञासा भी बढ़ने लगी है। सच ही तो कहा संतश्री शोभन सरकार ने इस स्थान पर खजाना दबा है। खजाना मिले या ना मिले, लेकिन वहां पहुंच रही भीड़ के जरिये कई लोग चांदी काटने लगे हैं। तमाशबीनों के लिए चाय, नाश्ता, पकोड़ी आदि की दुकानें सजने लगी। चलो खजाना मिलने से पहले ही इस बहाने कई को रोजगार तो मिला। सोने की तलाश में जैसे-जैसे धरती का सीना चीर रहे हैं, वैसे-वैसे ही लोगों की उत्सुकता बढ़ रही है। स्थानीय युवाओं का रोजगार चल पड़ा।  सोना मिले या ना मिले, लेकिन वहां अस्थायी दुकान चलाने वाले तो यही सोच रहे होंगे कि ये खुदाई लंबी चले। लोगों की भीड़ वहां आए और वे इस बहाने सोना न सही, लेकिन चांदी जरूर काटते रहें।
इस खुदाई ने राजनीतिक लोगों को चर्चा करने का मुद्दा दे दिया। नरेंद्र मोदी जहां सरकार को खींच रहे हैं, वहीं साधु व संत समाज पक्ष व विपक्ष में खड़ा होने लगा है। वैसे सपनों में कौन यकीं करेगा। सपने तो देखने व भूलने के लिए होते हैं। हर रोज भारत की गरीब आबादी यही सपना देखती है कि वह भी महल में ठाठ-बाट से रह रही है। गरीब व्यक्ति दो जून की रोटी का सपना देखता है। वह सपना देखता है कि उसके बच्चे भी अच्छे स्कूल में पढ़ने जाएं, लेकिन उसके सपने की किस को चिंता है। क्योंकि उसके सपने में गड़ा धन नहीं है। व्यक्ति को जहां भी सोना (लालच) नजर आता है वही उसके पतन का कारण भी बनता है। सोना यानी लालच। सीता को भी हिरन सोने का नजर आया। तो उसे इसका भयंकर परीणाम सहना पड़ा। सोने (नींद) के दौरान सोने का सपना। वो भी एक संत को। संत ने तो ठीक कहा कि जमीन में सोना दबा पड़ा है। सोना तो जमीन के भीतर ही होगा, यदि नहीं मिला तो कहीं और खोद लो, वहां मिल जाएगा। ये धरती तो सभी धातु व गैस व अन्य खजाना अपने भीतर समाए हुए है। हो सकता है वहां सोने की बजाय तेल का भंडार ही मिल जाए। मनोज कुमार की फिल्म का गीत यूं ही नहीं बुना गया कि..मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती। इस गीत के अब सार्थक होने का सभी इंतजार कर रहे हैं।
वैसे भारत देश को सोने की चीड़िया भी कहा जाता है। यानी यहां सोने की कोई कमी नहीं थी। आखिर वो सोना कहां दबा पड़ा है। चलो देर से आयद, दुरुस्त आयद, वाली कहावत को अब चरितार्थ करने में जुट गए। पर देखा जाए तो यह भी कहा गया कि राजा जनक ने हल चलाया, लेकिन धरती पर बीज नहीं बोए। यानी उन्होंने फल की इच्छा के बिना ही कर्म किया। जब उन्होंने निष्काम कर्म किया तो उन्हें भक्ति रूपी सीता मिली। जहां सीता हो तो वहां भगवान राम स्वयं चले आते हैं। यहां तो सोना खोजने के लिए फल की इच्छा से कर्म हो रहा है। सोना मिला नहीं, लेकिन बंटवारे को लेकर विवाद होने लगा। एक और महाभारत की तैयारी। काश संतश्री शोभन सरकार की बात सच निकले। धरती से दबा खजाना मिल जाता। फिर क्या था कोई भी काम करने की जरूरत नहीं। बस घर में चादर तान को सोते रहो। कब किस दिन एक सुनहरा सपना आ जाए और किस्मत पलट जाए। अंग्रेज तो चांद पर ठोकर मारकर आ गया, हम सपनों की दुनिंया में ही विचरण करते रहेंगे। खुराफाती रामदास जी भी चादर तान कर सो गए। फिर लगातार सात दिन तक वह घर से बाहर नहीं निकले। आस-पड़ोस के लोगों ने उनकी तलाश की तो भीतर से दरबाजा बंद मिला। दरबाजा तोड़कर खोला गया। देखा भीतर रामदास जी सोए पड़े हैं। उन्हें नींद से उठाया गया। पहले वे लोगों पर नाराज हुए। फिर उन्होंने कहा कि मोहल्ले के गरीब धर्मदास के मकान के नीचे खजाना दबा पड़ा है। भीड़ जुटने लगी धर्मदास के मकान के पास। खजाने की तलाश में धर्मदास की झोपड़ी तोड़ी जानी थी। वह गिड़गिड़ा रहा था कि उसने पूरे जीवन की कमाई से झोपड़ी बनाई है। वह कहां जाएगा। लोगों ने कहा कि खजाना मिलने पर उसे भी हिस्सा दिया जाएगा। रामदास का सपना सच हो सकता है। धर्मदास को भविश्य नहीं, अपने वर्तमान की चिंता थी। उसने कहा कि खुदाई के दौरान वह कहां रहेगा। वह अपना घर नहीं तुड़वा सकता। इस पर लोगों ने चंदा कर गांव में ही धर्मदास के लिए नया मकान बनवा दिया। तब शुरू हुई धर्मदास के पुराने घर में खजाने की तलाश में खुदाई। कई दिन व महीने के बाद भी कुछ नहीं निकला। इस बीच रामदास भी स्वर्ग सिधार गए, लेकिन उनके सपने ने धर्मदास को एक अच्छा आशियाना दिला दिया। काश शोभन सरकार को भी ऐसा ही सपना आता कि खजाना फलां के मकान के नीचे दबा होता। इससे कई धर्मदास का तो भला होता। फिर भी जहां खुदाई चल रही है, वहां कई धर्मदास अपनी दुकानें चलाकर अपनी पोटली का खजाना बढा़ने का प्रयास कर रहे हैं। चलो इस बहाने उनका भी कुछ भला हो जाएगा।
भानु बंगवाल

Tuesday, 15 October 2013

आज भी जिंदा हैं रावण व सूपनर्खा....

हर बार की तरह इस बार भी दशहरे का त्योहार मनाया गया। पंडालों में रामलीला का मंचन किया गया। सच्चाई के पाठ पढ़े गए। झूठ और बुराइयों से दूर रहने के संकल्प लिए गए। रामलीला के पात्रों के उदाहरण दिए गए। सूपनर्खा, रावण व अन्य राक्षसों की बुराइयों से सबक लेने को कहा गया। त्योहार निपटा और जीवन की गाड़ी फिर उसी पटरी पर दौड़ने लगी, जिसमें पहले से ही दौड़ रही थी। सारे संकल्प व्यवहारिक जिंदगी में हवा होने लगे। आए दिन किसी न किसी सूपनर्खा तो कहीं रावण जैसे कृत्य के बारे में समाचार भी छपते हैं। दशहरे के साथ न तो सूपनर्खा का ही अंत हुआ और न ही रावण का। हम पुतला दहन कर भले ही खुश होते रहें, लेकिन हकीकत में तो दोनों समाज में आज भी जिंदा हैं।
ये रावण व सूपनर्खा कौन थे। यह सवाल जब भी कोई करेगा तो सभी उसे मूर्ख समझेंगे। क्योंकि बचपन में एक कहावत सुनी थी कि.. सारी रामायण पढ़ी, फिर पूछने लगे कि सीता किसका बाप। रावण के बारे में तो मैं बस इतना जानता हूं कि वह भी एक मानव था। जिसके कर्मों ने उसे दानव बना दिया। वह लंका का राजा था। ब्राह्मण था यानी कि बुद्धिमान था। विज्ञान व तकनीकी में उसका कोई सानी नहीं था। उसके पास उस जमाने के अत्याधुनिक अस्त्र थे। समुंद्र लांघने के लिए नाव थी और पोत थे। रथ के घोड़े ऐसी नस्ल के थे कि जब वे दौड़ते तो कहा जाता कि वे दौड़ते नहीं, बल्कि उड़ रहे हैं। शायद उस समय रावण के पास वायुयान भी रहा हो। सुख साधन से संपन्न लंका को इसीलिए सोने की लंका कहा जाता था। इस सबके बावजूद रावण अपने ज्ञान व विज्ञान का प्रयोग दूसरों की भलाई में नहीं करता था। वह तो अपना साम्राज्य बढ़ा रहा था। राजाओं, ऋषियों व प्रजा को लूट रहा था। इसीलिए उसके अत्याचारों के कारण उसे राक्षस की संज्ञा दी गई। राक्षस का साथ देने वाला हर प्राणी भी राक्षस कहलाने लगा। तब मीडिया वाले नारद मुनि कहलाते थे। जो उच्च वर्गीय लोगों के समाचार ही नमक मिर्च लगाकर जनता तक पहुंचाते थे। आम  जनता से उनका कोई लेना देना नहीं था। या तो वे राक्षसों के समाचार ही लोगों तक पहुंचाते या फिर देवताओं के। देवता यानी दैवीय शक्ति। ये वे राजा व ऋषि थे, जिनका मससद समाज की खुशहाली था। वे भी विज्ञान के ज्ञाता थे। उनका विज्ञान राक्षसों से युद्ध करने में ही लगा हुआ था। राक्षस आते और आम जनता की कमाई को लूट ले जाते। उनसे जो राजा या ऋषि संगठित होकर मुकाबला करते, तो बेचारी भोली भाली जनता यही समझती कि मायावी शक्ति से देवीय शक्ति मुकाबला कर रही है।
राम भी ऐसे प्रतापी राजा दशरथ के पुत्र थे जो ऋषि मुनियों से शिक्षा लेकर अपने इस संकल्प को पूरा करने में लगे थे कि इस धरती को राक्षसों के अत्याचारों से मुक्त कराएंगे। बचपन में राक्षसी ताड़का व सुबाहू जैसे लूटेरों का वध किया। जब बड़े हुए तो वनवास मिला। वनवास भले ही भरत को राजगद्दी पर बैठाने के लिए दिया गया, लेकिन राम ने अपना संकल्प वनवास के दौरान भी नहीं त्यागा। वह लोगों को राक्षसों के अत्याचारों के खिलाफ संगठित करते हुए एक गांव से दूसरे गांव तक जाते। लोगों में भी साहस का संचार होने लगा और वे भी राक्षसों का मुकाबला करने को तैयार रहने लगे। तब बंदर उस जाति के लोगों को कहा जाता था, जो जंगलों में रहती थी और बेहद पिछड़ी हुई थी। ऐसे लोगों की मदद से ही गुरिल्ला वार लड़कर राम ने खर व दूषण को जमीन चटा दी। खर व दूषण से लड़ने वे उनके गढ़ में नहीं गए, बल्कि उनके हमले का इंतजार करते रहे। जब वे फौज लेकर आए तो चारों तरफ से राम के साथ ही ग्रामीणों ने घेरकर उन्हें मार डाला। यानी लोग संगठित हो रहे थे और राम का युद्ध में साथ दे रहे थे।
शक्तिशाली रावण की बहन सूपनर्खा जो गुणों से राक्षसी गुण वाली थी। शारीरिक बनानट व नैन नक्श से वह अत्यंत सुंदरी कहलाती थी। दुनियां के सबसे बड़े लूटेरे की बहन का कोई कहना टाल दे, यह मजाल तब शायद किसी की नहीं थी। जब वह राम व लक्षमण को देखती है और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखती है। उसे यह नहीं पता था कि वे उसके प्रस्ताव को ठुकरा देंगे। पहले वह अनुनय विनय करती है। फिर उन्हें अपने भाई रावण की ताकत का भय दिखाती है। जब यहां से भी काम नहीं चलता तो वह सीता को मारने का प्रयास करती है। इसी छीना झपटी में लक्ष्मण उसे धक्के देकर अपनी कुटिया से दूर खदेड़ देता है। दुनियां के सबसे ताकतवर राजा रावण की बहन की कोई बात नहीं माने और उल्टे उसे बेईजत्त होकर लौटना पड़े। यही तो है सूपनर्खा की नाक कटना। इस बेईजत्ती का बदला रावण सीता का अपहरण करके लेता है। इसके लिए वह मारीच का सहारा लेता है। मारीच उस जमाने का ऐसा कलाकार था, जो हर किसी की आवाज निकालने में माहीर था।
राम की कुटिया में मारीज एक साधु के वेश में जाता है। जब सीता उसे भोजन पसोसती है और बैठने को कहती है को साधु वेशधारी मारीच उनके बिछाए गए आसन में बैठने से मना करता है। वह अपनी पोटली से हिरन की खाल निकालता है, जिसमें सोना जड़ा होता है। उसे जमीन पर बिछाकर मारीच बैठता है। साथ ही वह बताता है कि आगे जंगल में ऐसे हिरन हैं, जिनकी खाल में सोना जड़ा होता है। वह कहता है कि उसे मारने वाले को बेहतर धावक होना चाहिए, क्योंकि ऐसा हिरन बहुत तेज गति से दौड़ता है।
कहते हैं कि जिसकी आंखों में लालच आया, तो समझो वह विपत्ती में पड़ा। सीता को भी हिरन की खाल देखकर लालच आया। वह राम को हिरन लाने के लिए मारीच के साथ जाने को कहती है। मारीच बताता है कि उसने ऐसे हिरन रास्ते में कुछ ही समय पहले देखे थे। सीता के अनुरोध पर राम मारीच के साथ धनुष लेकर हिरन को लेने चल पड़ते हैं। जब मारीच को पता चलता है कि वे इतनी दूर पहुंच गए जहां से पूरी ताकत से चिल्लाने के बाद भी राम की कुटिया तक उनकी आवाज नहीं जाएगी। तब वह आश्वस्त होकर अपने थेले से लाउडस्पीकर की तरह का यंत्र निकालता है। साथ ही दौड़ लगा देता है। इस यंत्र से वह राम की आवाज में विलाप करने लगता है और चिल्लाता है, भैया लक्ष्मण मुझे बचाओ। राम भी चिल्ला रहे कि यह धोखा है धोखे में मत आना, लेकिन उनकी आवाज लक्ष्मण व सीता तक नहीं पहुंचती। वहीं मारीच लगातार यंत्र के सहारे अपनी आवाज पहुंचाता है। राम मारीच को पकड़ने के लिए पूरी ताकत से दौड़ते हैं। मारीच भी हिरन से तेज कुल्लाचे भरकर दौड़ने लगता है। यही तो है हिरन का रूप, जो मारीच ने धरा था।  मारीच रुपी हिरन को मारने में ही तब राम ने भलाई समझी। तब तक वह यंत्र को तोड़ चुका था और राम इतनी दूर पहुंच गए थे कि कुटिया तक जल्द वापस लौटना भी संभव नहीं था। फिर वही कहानी। सीता लक्ष्मण को मदद को भेजती है। अकेली सीता को रावण उठाकर ले जाता है।
ये तो थी त्रेता युग की कहानी। आज देखें तो समाज में सूपनर्खाओं की कमी नहीं है। कई किस्से तो ऐसे हैं कि सूपनर्खा की तरह महिलाएं यह जानती हैं कि इस पुरुष की शादी हो रखी है, फिर भी वे उसे ही अपना जीवन साथी बनाने में तुली रहती हैं। पत्नी से तलाक करवाती हैं। यदि कोई राम व लक्ष्मण की तरह मना कर दे, तो झट कोर्ट में मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। साल दो साल लिव इन रिलेशन में (या कुछ और कह लो) साथ बिताने के बाद जब मन की नहीं हुई तो लगा दिए आरोप। सब कुछ जानबूझकर हो रहे हैं ऐसे अपराध। वहीं रावण की भी कमी नहीं है। अबला व लाचार नारी के अपहरण की घटनाएं हर दिन अखबारों की सुर्खियां रहती हैं। कल्पना करो कि यदि तब आज की तरह न्यायालय होते तो शायद राम व लक्ष्मण भी सूपनर्खा की बेईजत्ती के मामले में जेल की सलाखों के पीछे रहते। रावण ने तो अपहरण के बाद भी सीता से कोई बदसलूकी नहीं की। उसके भी कुछ सिद्धांत थे। अब तो समाज में जो रावण व सूपनर्खा पनप रहे हैं, ये उस जमाने के रावण व सूपनर्खा से ज्यादा घातक हैं। उनसे बचने के लिए समाज में एक नई क्रांति की जरूरत है।
भानु बंगवाल  

Saturday, 12 October 2013

ये भूत तो नाच कर डराते हैं.....

आखिर ये भूत क्या है, जो बचपन से ही मानव को डराता है। इन दिनों रामलीला चल रही है, तो मुझे भूत की भी याद आ गई। क्योंकि मौका देखकर मैं बच्चों को भी रामलीला दिखा रहा हूं। रामलीला में भूत तो नहीं होते, लेकिन राक्षस जरूर होते हैं। राक्षसों में सूपनर्खा व ताड़का को तो इतना डरावना बनाते हैं, कि बच्चे डरने लगते हैं। अब तो शायद बच्चे ऐसे चरित्रों को देखने के अभ्यस्त हो गए। लेकिन, 80 के दशक  में सन 70 से 75 के बीच जब देहरादून में टेलीविजन नहीं थे, तब तो भूत के नाम से ही बच्चों के साथ ही बड़ों के शरीर में सिहरन दौड़ने लगती थी। आखिर क्या है ये भूत। ये तो सिर्फ इंसान की कल्पना है। बच्चे कहते थे कि उसका चेहरा डरावना होता है। पांव पीछे की तरफ होते हैं। काले कपड़े पहनता है। काला रंग यानी अंधेरे का प्रतीक। जब दिमाग में अंधेरा हो या फिर कोई रंग ही नहीं हो तो हर चीज काली ही नजर आती है। वैसे तो देवता व राक्षस प्रवृति व्यक्ति के भीतर ही होती है। जो व्यक्ति अच्चे कार्य करता है, दूसरों की भलाई करता है, उसके भीतर दैवीय गुण होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही देवता कहा गया है। वहीं, जो लूटेरा होता है, दूसरों पर अत्याचार करता है, वही तो राक्षस हुआ। रामलीला मंचन के जरिये भी यही संदेश देने का प्रयास किया जाता है कि अपने भीतर के रावण को जला डालो। अपने भीतर के राक्षसी गुण को त्याग दो।
वैसे तो अब रामलीला के मंचन सिमटने लगे हैं। देर रात तक चलने वाली रामलीला को छोटा कर जल्द निपटाया जाने लगा। देहरादून के राजपुर में तो रामलीला 64 वें साल में प्रवेश कर गई। संचालक व समाजसेवी योगेश अग्रवाल बच्चों को रामलीला की तरफ आकर्षित करने के लिए नायब प्रयोग कर रहे हैं। पर्दा गिरते ही जब दूसरे दृश्य की तैयारी होती है, तो वह मंच से बच्चों से सवाल पूछते हैं। सही जवाब देने वाले बच्चों को टीवी सीरियल के कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर ईनाम दिया जाता है। यह ईनाम चाहे दस रुपये ही क्यों न हो, लेकिन प्रतियोगिता जीतना भी काफी सम्मानजनक है। सवाल ऐसे  होते हैं कि... राम के दादा का क्या नाम था। साथ ही दूसरा सवाल... आपके पिताजी के दादा का क्या नाम है। बच्चे शायद दूसरे सवाल का जवाब तक नहीं जानते। कितना भूल गए हम अपनी वंशावली को। राम के वंश को तो शायद याद रखते हैं, लेकिन टूट रहे परिवार के लोग अब अपने वंश के लोगों का नाम तक याद नहीं रख पा रहे हैं। दादा या दादी, नाना या नानी जिंदा हैं तो जबाव देना आसान। नहीं तो किसी को कुछ पता नहीं। यह प्रयोग कामयाब नजर आया। पूछे गए सवाल का जवाब दूसरे दिन देना पड़ता है। ऐसे में बच्चे सही जवाब देने के लिए रामलीला आ रहे हैं, जब बच्चे आएंगे तो अभिभावकों का साथ जाना भी मजबूरी हो गया।
चलिए में आपको टाइम मशीन में बैठाकर वर्ष 1974 में ले चलता हूं। नवरात्र के दौरान किशनपुर, चुक्खूवाला, राजपुर समेत देहरादून के विभिन्न स्थानों पर हर रात को रामलीला का मंच हो रहा है। राजपुर रोड के किनारे घंटाघर से लेकर दिलाराम बाजार तक कुछ एक दुकान व मकान तो हैं, लेकिन जैसे-जैसे आगे राजपुर या मसूरी की तरफ बढ़ेंगे तो सड़क सुनसान नजर आएगी। रात को इन सड़कों पर घनघोर अंधेरा। क्या पता कहां से भूत आ जाए, यही डर राहगीर को सताता रहता। वैसे तो रात को कोई सड़क पर निकलना नहीं चाहता था। मजबूरी में ही लोग कहीं आते जाते। साइकिल वाले भी काफी कम थे। स्कूटर वालों की हैसियत पैसेवालों में गिनी जाती है। किशनपुर की रामलीला देखने के लिए बारीघाट व राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान के लोग जत्था बनाकर जाते हैं। राष्ट्रपति आशिया के निकट सड़क से सटा हुआ एक विशाल बरगद का पेड़ है। कहते हैं कि वहां भूत देखा गया है। कोई कहता कि वह सफेद घोड़े में सफेद कपड़े पहनकर घुमता है। कोई कहता कि काली बनियान व काला कच्छा पहने व हाथ में तलवार लेकर भूत लोगों के पीछे दौड़ता है। इस दौर के लोगों को क्या पता कि 21वीं सदी में हर गली व मोहल्ले में सफेदपोश भूत ही भूत नजर आएंगे। जो खुद मस्त रहेंगे और जनता परेशान। वे जनता को लूटेंगे, लेकिन इसकी खबर किसी को नहीं होगी। इस दिन रात को रामलीला देर रात दो बजे खत्म हुई। भूत के डर से इन दो मोहल्लों के लोग छोटे-छोटे जत्थे में घर को लौट रहे। बच्चे ऊंघते हुए बड़ों का हाथ पकड़े चल रहे। घर लौट रहे सबसे आगे वाला जत्था ठिठक गया। उसे दूर बरगद के पेड के पास दो काली परछाई नजर आई। फिर लोगों ने समझा उनका भ्रम है। जैसे ही आगे बड़े परछाई दो आकृतियों में बदल गई। सिर से पांव तक काला लिबास। हाथ में लंबे डंडे। पैरों में घुंघरु की छम-छम। उन्हें देखते ही सभी जत्थों के पैर गए थम। दोनों आकृतियां नृत्य कर रही थी और लोगों में भगदड़ मचने लगी। भागो भूत आया कहकर जिसे जहां रास्ता मिला वहीं से भागने लगा। ये भूत भी बड़े शरीफ थे, जो किसी को कुछ नहीं कह रहे थे। वे तो मस्त होकर नाच रहे थे। फिर किसी को उनसे क्यों डर लग रहा था। तभी कुछ ज्यादा उत्साहित एक भूत का कंबल से बना लबादा सरक गया। नई चेकदार कमीज ने उसकी पोल खोल दी। एक लड़की चिलाई...अरे ये तो संडोगी (मोहल्ले में बच्चों द्वारा रखा नाम) है। जब संडोगी का पता चला तो यह भी पक्का था कि दूसरा युवक संडोगी का मित्र वीरु होगा। दोनों ही अक्सर साथ देखे जाते थे। फिर क्या था, पड़ने लगी दर्जनों लोगों के मुख से दोनों को गालियां। पीछे से संडोगी व वीरू की माताएं भी घर को आ रही थी। उनसे कई ने शिकायत की, तो बेचारी शर्म से लाल होने लगी। फिर क्या था, युवकों की माताएं उनसे पहले घर पहुंच चुकी थी। उन्होंने अपने-अपने तरीके से बेटों को सजा देने की तैयारी कर ली। वहीं भूत बने दोनों युवक अब घर जाते समय धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे। साथ ही वे भय से थर-थर कांप रहे थे कि घर की अदालत में क्या होगा।
भानु बंगवाल

Wednesday, 9 October 2013

मन का विश्वास कमजोर हो ना....

सुबह उठा तो पता चला कि कुछ ज्यादा ही सो गया। जल्दबाजी में आफिस के लिए तैयार होने लगा। मुझे आफिस में देरी से पहुंचना पसंद नहीं है और न ही मैं बच्चों का भी स्कूल में देरी से जाना पसंद करता हूं। सभी को यही सलाह देता हूं कि समय से पहले पहुंचो। सुबह दस बजे आफिस पहुंचना होता है, लेकिन कई बार मैं सुबह साढ़े नौ पर ही पहुंच जाता हूं। ये मेरी आदत में शुमार है। जब देरी हो ही गई, वह भी ज्यादा नहीं, तो मैने सोचा कि रास्ते में बैंक का काम भी करता चला जाऊं। क्योंकि बैंक के सामने जब मैं पहुंचा तो तब ठीक दस बज रहे थे। वहां मुझे एक मिनट का काम था। ऐसे में मैने राजपुर रोड स्थित बैंक आफ बड़ोदा की शाखा के सामने मोटर साइकिल खड़ी की और बैंक के प्रवेश द्वार को सरकाकर भीतर घुस गया। भीतर का नजारा कुछ अजीब लगा। बैंक के सभी कर्मी अपनी सीट पर बैठने की बजाय खड़े थे। जिनकी सीट दूर थी, वे गैलरी में ही खड़े थे। काउंटर तक जाने के रास्ते पर कर्मचारियों के खड़े होने के कारण मैं भी ठीक प्रवेश द्वार से कुछ कदम आगे बढ़कर अपने स्थान पर खड़ा हो गया। मैने सोचा कि शायद कोई दुखद समाचार मिला है और कर्मचारी शोक सभा कर रहे हैं। फिर मुझे एक धुन सुनाई दी, जो शायद कंप्यूटर के जरिये बजाई जा रही थी। धुन चिरपरिचित एक प्रार्थना की थी। धुन के साथ ही प्रार्थना भी सुनाई देने लगी...इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना। बैंक में प्रार्थना वो भी कामकाज की शुरूआत से पहले। मुझे अटपटा सा लगा। जिस प्रार्थना को मैं बचपन में स्कूल में बोलता था, गाता था, वही मुझे बैंक में भई सुनाई दी।
प्रार्थना, यानी की अच्छाई को जीवन में उतारने का संकल्प। बचपन में जब मैं यह प्रार्थना सुनता व बोलता था, तब मुझे इसका अर्थ तक समझ नहीं आता था। शायद आज भी ठीक से नहीं समझ पाया हूं। क्योंकि हम जो बोलते हैं, उसे शायद करते कम ही हैं। छठी जमात तक स्कूल में सुबह प्रार्थना की लाइन में मैं भी खड़ा होता रहा। तमन्ना यही रहती कि उन पांच बच्चों में शामिल रहूं, जो सबसे आगे खड़े  होकर प्रार्थना बोलते हैं। फिर उनके पीछे सब बच्चे प्रार्थना को दोहराते हैं। मेरी आवाज बेसुरी थी। फटे बांस जैसी, सो मेरी प्रार्थना को लीड करने की यह तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकी। सातवीं से ऐसे स्कूल में पढ़ा,  जिसका नाम दयानंद एंग्लोवैदिक (डीएवी) कालेज था। वहां न तो सुबह प्रार्थना होती थी और न ही इंटरवल। कालेज में पहले घंटे (पीरिएड) से लेकर 14 पीरिएड होते थे। शिफ्ट में कक्षाएं चलती थी। हमारी सातवीं की कक्षा आठवें घंटे से लेकर 14 वें घंटे तक चलती थी। नवीं से 12 वीं तक की कक्षाएं सुबह की शिफ्ट में होती थी। ऐसे में न कोई प्रार्थना न इंटरवल। बैंक में खड़े रहने के दौरान मैं भी आंखे बंद कर खड़ा रहा। मुझे लगा कि मैं तीसरी या चौथी कक्षा का छात्र  हूं, जो प्रार्थना सभा में खड़ा है। टीचर हाथ में बेंत लेकर यह मुआयना कर रहा है कि कौन सा बच्चा प्रार्थना सही नहीं बोल रहा है। वही चेहरे व अध्यापकगण मेरी आंखों के सामने नाच रहे थे, जिन्हें मैं लंबे अर्से के बाद भूल चुका था।
बैंक को प्रार्थना की जरूरत क्यों पड़ी। क्या कारण है कि जो नैतिक शिक्षा का पाठ हम बचपन में पढ़ते थे, उसे दोहराया जाने लगा। क्यों प्रार्थना के जरिये हमारी नाड़ियों में ऐसे रक्त संचार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि हमारा मन शुद्ध रहे। हम इस संकल्प के साथ काम की शुरूआत करें कि किसी दूसरे का बुरा न सोचें। वैसे तो प्रार्थना का कोई समय ही नहीं है। सुबह उठने से लेकर रात को सोते समय तक प्रार्थना दोहराई जा सकती है। पर मुझे नफरत है समाज सेवा का दंभ भरने वाली उस संस्थाओं के लोगों से जो रात को होटल में संस्था की बैठक में अपनी समाजसेवा की शेखी बघारते हैं। रात दस बजे से बैठक होती है और लगभग 12 बजे खत्म होती है। फिर शुरू होता है राष्ट्रीय गान...जन,गन,मन...। ऐसा लगता है जैसे बैठक में उपस्थित भद्रजनों को जबरन सजा दी जा रही है। क्योंकि एक तरफ राष्ट्रीय गान चल रहा होता है, वहीं दूसरी तरफ फैलोशिप व भोजन की तैयारी चल रही होती है। फैलोशिप यानी कि भाईचारा। जो दो पैग मारने के बाद ही भीतर से पनपता है। उधर, राष्ट्रीय गीत की धुन और दूसरी तरफ गिलास में तैयार होने पैग की खन-खन। इसके बगैर तो समाज सेवा की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
बैंक के कर्माचरियों से बातचीत करने के बाद यही निष्कर्ष निकला कि प्रार्थना के बहाने देरी से आने वाले कर्मचारी अपनी आदत में बदलाव तो करेंगे। साथ ही ग्राहकों से अच्छा व्यवहार करेंगे। प्रार्थना पौने दस बजे होनी थी,लेकिन देरी से आने वालों ने दस बजे से शुरू कराने की परंपरा डाल दी। प्रार्थना के दौरान सभी की आंखे मुंदी रहती हैं और देरी पर भी देरी से आने वाले चुपचाप से खड़े हो जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अक्सर देरी करने वाला व्यक्ति बॉस व अन्य साथियों से हाथ मिलाए बगैर ही चुपचाप सबसे पहले अपनी सीट पर बैठता है कि शायद किसी को यह पता न चले कि वह फिर देरी से पहुंचा। फिर भी एक विश्वास है कि शायद हर रोज यह प्रार्थना दोहराने वालों का विश्वास कमजोर नहीं पड़ेगा। शायद खुद के विश्वास को मजबूत करने के लिए उनकी धमिनयों में नई उमंग, नई तरंग, नए उत्साह वाले रक्त का संचार होगा। यही तो है प्रार्थना का उद्देश्य। मुझे खुद भी देरी हो चुकी थी, सो मैं प्रार्थना के बाद बैंक में काम कराए बगैर ही जल्द ही वहां से खिसक गया। क्योंकि तब तक काउंटर में भीड़ लग चुकी थी। कर्मचारी अपनी कुर्सी पर बैठने की तैयारी कर रहे थे। सिक्योरिटी गार्ड आलमारी से अपनी बंदूक निकाल रहा था। कर्मचारी अपने कंप्यूटर को आन करने के बटन दबा रहे थे, लेकिन समय तेजी से सरक रहा था.....
भानु बंगवाल 

Monday, 7 October 2013

इतिहास खुद को दोहराता रहेगा...

नवरात्र शुरू हो जाएं और रामलीला मंचन न हो, यह तो हो नहीं सकता। भले ही अब रामलीला के पंडाल सिमटने लगे हैं। फिर भी कुछ विरले लोग ही इस पुरानी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। बचपन से ही मुझे रामलीला अच्छी लगती थी और आज भी लगती है। जब छह सात साल का था तो हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर रामलीला का मंचन होता था। मोहल्ले के लोग टोलियां बनाकर पैदल ही रामलीला देखने जाते। मेरी बड़ी बहनों के साथ माताजी रामलीला के लिए रात को घर से निकलती, तो मैं भी साथ जाने की जिद करता। मुझे ले जाने में वे इसलिए कतराते थे कि रामलीला के समापन पर मैं नींद का बहाना करता। ऐसे में मुझे बारी-बारी से पीठ पर ढोकर घर लाया जाता। साथ ही मुझे ढोने वाली बहने पूरे रास्ते भर मुझे ताने देती। साथ ही यह कहती कि कल से साथ नहीं लाएंगे। मैं चुपचाप उनकी डांट सुनता। कभी पीठ पर लदे हुए ही सो जाता। अगली रात जैसे ही सब तैयार होते, तो मैं भी इस आश्वासन पर साथ चल देता कि आज खुद ही पैदल आऊंगा।
समय बदला। टेलीविजन का दौर आया। कई स्थानों से रामलीला के पंडाल लुप्त हो गए। नए मोहल्लों व स्थानों पर रामलीला शुरू कराने का साहस किसी को नहीं हुआ। कुछएक रामलीला समितियां ही ऐसी बची हैं, जो इस पुरानी परंपरा को निभा रही हैं। कई ने समय के साथ ही रामलीला मंचन का ट्रैंड बदला। टी-20 क्रिकेट मैच की तरह फटाफट रामलीला का मंचन किया जाने लगा। ऐसे में सीडी चला दी जाती है। मंच पर कलाकार सिर्फ मुंह चलाते हैं। चार-पांच मंच बने होते हैं और नानस्टाप चलने वाली रामलीला में एक दिन का मंचन दो घंटे में ही निपट जाता है। लोगों के पास अब समय ही कहां बचा है कि रात के नौ बजे से एक बजे तक रामलीला को देखें। बच्चों का स्कूल रहता है। पढ़ाई का बोझ इतना होता है कि वे भी रामलीला से वंचित हो रहे हैं। फटाफट वाली रामलाली मैं तो कुछएक दर्शक जुट रहे हैं। लेकिन, पुरानी शैली वाली रामलीला में जिसमें कलाकार ही सब कुछ करता है, दर्शकों का टोटा पड़ गया है। फिर भी मुझे पुरानी शैली की रामलीला ही पसंद है। इसका कारण यह है कि नए युवाओं को अभिनय के प्रति आगे बढ़ाने मे रामलीला भी सहायक होती हैं। कलाकार का गला भी साफ व सुरीला होना चाहिए। वैसे रामलीला के संदेश सत्य की असत्य पर जीत के होते हैं। सही का साथ दो, गलत को गलत समझो। किसी का बुरा न करो। यही तो रामलीला सिखाती है। इस देश का दुर्भाग्य यह है कि आसूमल नाम के फ्राड जब प्रवचन करते हैं तो पंडालों में भीड़ जुट जाती है, लेकिन जब लोगों के बीच के कलाकार अभिनय के जरिये वही बात कहते हैं, तो उन्हें सुनने की किसी को फुर्सत नहीं।
मेरी कोशिश यह रहती है कि हर साल बच्चों को रामलीला जरूर दिखाऊं। जैसे सर्कस में शेर देखने को आज की पीड़ी तरस गई, वैसे रामलीला से भी वंचित न रहे। मेरे घर से करीब सात किलोमीटर दूरी पर मसूरी की तलहटी में बसे राजपुर कस्बे में इस साल भी रामलीला का मंचन चल रहा है। वहां रामलीला 64वें साल में पहुंच गई। मैने इस बार बच्चों को वहीं रामलाली दिखाने की ठानी। बड़ा बेटा दसवीं की तैयारी कर रहा है। हर रोज स्कूल में उसे टैस्ट देने पड़ रहे हैं। ऐसे में चाहते हुए भी उसने रामलाली जाने से मना कर दिया। मैं छोटे बेटे को लेकर राजपुर पहुंच गया। हालांकि अभी स्वैटर शुरू नहीं हुई, फिर भी राजपुर इतनी ऊंचाई में है कि मैने दस साल के बेटे को जैकेट साथ रखने को कहा। रामलीला शुरू हुई कुछ वही पुराने चेहरे नजर आए, जिन्हें मैं बचपन से देखता आ रहा था। हांलाकि उनके चरित्र बदल गए। जो पहले राम बनता था, उसे ज्यादा उम्र होने के कारण विश्वमित्र की भूमिका निभानी पड़ रही है। वाकई रामलीला के जरिये दूसरों की भलाई का संदेश देने वालों में यदि एक भी ऐसा काम करे तो रामलीला का औचित्य को सफल माना जा सकता है। हर साल की तरह इस बार भी संचालन कर रहे योगेश अग्रवाल से जब मैं मिला तो पता चला कि वह रक्तदान करते हैं। उनका रक्तदान का आंकड़ा 102 पर पहुंच गया। इसी तरह शिवदत्त नाम का एक कलाकार सामाजिक सेवा में भी अग्रणीय है। एक पत्रकार जो कलाकार भी है, वह भी अपने आसपास के लोगों की समस्याओं के निराकरण में हमेशा तत्पर रहता है। मैं पंडाल में पर्दे के पीछे पुराने कलाकारों से मिलने पहुंचा। एक ने मुझे टोका कि किससे मिलना है। मैने कहा पुराने चेहरों से। मैकअप से पुते हुए उस व्यक्ति ने कहा नाम बताओ। मेरे मुंह से छुटा प्रवीण। वह बोला मैं ही हूं। पहचाना नहीं क्या। प्रवाण नाम का यह व्यक्ति एक साप्ताहिक पत्र निकालता है। रामलीला में वह ब्रह्मा, विश्वमित्र व अन्य कई भूमिका निभा रहा था। उससे मिलकर मुझे काफी सुखद अनुभव हुआ।
रामलीला शुरू हो गई। दुख यह रहा कि दर्शक के नाम पर पूरा पंडाल खाली था। तीस के करीब बच्चे व इनके ही महिला व पुरुष रामलीला देखने पहुंचे। वहीं, कई साल पहले पंडाल में सबसे आगे जगह पाने के लिए लोग जल्दी घर से निकल जाते थे। पंडाल दर्शकों से खचाखच भरा रहता था। इसी तरह कलाकार भी कम ही नजर आए। एक कलाकार दो से तीन भूमिका निभा रहा था। ऐसे में बार-बार उसे ड्रैस बदलनी पड़ती। फिर भी एक उम्मीद नजर आती है कि जैसे भी हो, रामलीला जारी रहेगी। भले ही आज बुरा दौर चल रहा है, लेकिन पंडाल में भीड़ जरूर लौटेगी। रामलीला के संदेश हमेशा अमर रहेंगे। क्योंकि इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है।
भानु बंगवाल

Sunday, 6 October 2013

इक मुट्ठी भर जौ को मिट्टी...

नवरात्र शुरू हुए और पत्नी की सुबह पूजा पाठ से हुई। वैसे तो मेरी पत्नी हर रोज ही पूजा करती थी, लेकिन किसी विशेष दिनों में उसकी पूजा कुछ लंबी ही रहती है। नवरात्र में ही ऐसा ही होता है। मैं सोया हुआ था और घंटी की आवाज से नींद खुली। जब तक मैं जागा देखा कि वह पूजा-अर्चना कर घर से उस स्कूल के लिए निकल गई, जहां वह पढ़ाती है। यह सच है कि यदि दोनों काम न करें तो घर का खर्च नहीं चल सकता। मैं उठा तो देखा कि घर में बनाए गए पूजास्थल में दीप जल रहा है। धूपबत्ती भी बुझी नहीं, उसकी सुगंध से पूरा घर महक रहा है। वहीं मुझे ख्याल आया कि पहले नवरात्र में पत्नी ने जौ नहीं बोई। बोती भी कहां से। पहले तो माताजी ही इस काम का मोर्चा संभाले रहती थी। अब माताजी की इतनी उम्र हो गई कि वह बार-बार हर बात को भूलने लगती है। कभी-कभी किसी बात को दोहराने लगती है। वह तो भोजन करना भी भूल जाती है। बस उसे याद रहता है तो शायद सुबह को समय से नहाना व धूप जलाना। हाथ में इतनी ताकत नहीं रही कि किसी बर्तन में या फिर पत्तों का बड़ा सा दोना बनाकर उसमें मिट्टी भर ले और उसमें जौ बोई जाए। वैसे मैं पूजा पाठ नहीं करता, लेकिन यदि कोई घर में करता है तो उसे मना भी नहीं करता। मुझे नवरात्र  में जौ बोना इसलिए अच्छा लगता है कि उसमें जल्द ही अंकुर फूट जाते हैं। नौ दिन के भीतर छह ईंच से लेकर आठ दस ईंच तक हरियाली उग जाती है। घर के भीतर हरियाली देखना मुझे सुखद लगता है। ऐसे में मैने ही पत्नी की पूजा और विधि विधान से कराने की ठानी और जौ बोने की तैयारी में जुट गया।
सबसे पहले मैं इस उधेड़बुन में ही लगा रहा कि किस बर्तन में जौ बोई जाए। स्टील के डोंगे में बोता था, लेकिन पानी कि निकासी न होने से जौ गलने लगती थी। माताजी की तरह पत्तों का दोना बनाना मुझे आता नहीं। आफिस भी समय से पहुंचना था। इतना समय नहीं था कि किसी दुकान में जाकर जौ बोने के लिए मिट्टी का चौड़ा बर्तन खरीद कर ले आऊं। कुम्हार की चाक भी मेरे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर थी। कुम्हार मंडी में भी दीपावली के दौरान ही रौनक रहती है। साल भर बेचारे कुम्हार अपनी किस्मत को कोसते रहते हैं। घर-घर में फ्रिज होने के कारण उन्होंने सुराई व घड़े बनाना भी बंद कर दिया। गमले बनाते हैं, लेकिन अब लोग प्लास्टिक व सीमेंट के गमले इस्तेमाल करने लगे।
प्लास्टिक का जमाना है। ऐसे में मुझे माइक्रोवेव में इस्तेमाल होने वाला एक डोंगेनुमा बर्तन ही उपयुक्त लगा, जिसकी तली में कई छेद थे। प्लास्टिक के इस बर्तन का इस्तेमाल शायद कभी घर में हुआ ही नहीं। इसलिए नया नजर आ रहा था। अब मुझे मिट्टी की आवश्यकता थी, जिसमें एक मुट्ठी जौ बोई जा सके। घर के बाहर निकला। पूरे आंगन में टाइल बिछी थी। घर में हमने कहीं कच्ची जगह ही नहीं छोड़ी। फिर मिट्टी कहां से मिलती। मेरे घर के आसपास की जमीन रेतीली या बजरी वाली है। आसपास सभी के घर की यही स्थिति थी। कंक्रीट का ढांचा खड़ा करते-करते किसी ने घर व आसपास इतनी जगह तक नहीं छोड़ी कि कहीं कच्ची जमीन हो। गली व मोहल्ले की सड़कें भी पूरी पक्की, किनारा भी कच्चा नहीं। किनारे में सीमेंट से बनी पक्की नालियां। नाली से सटी लोगों के घर की दीवार। दीवार के उस पार पक्का फर्श और फिर मकान। बारिश हो तो सारा पानी बहता हुआ देहरादून से सीधे निकलकर नालियों व बरसाती नदियों में बहता हुआ दूर सीधे हरिद्वार निकल जाए। या फिर बारिश का पानी लोगों के घरों में घुसने लगता है। धरती में समाने की जगह नहीं होती, नतीजन हर तरफ जलभराव। पानी को धरती में समाने की हमने कोई जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में भूमिगत पानी रिचार्ज कैसे होगा। इसीलिए तो गर्मियों में हैंडपंप सूख जाते हैं और नलकूप भी हांफते हुए पानी देते हैं।
मुझे याद आया कि बचपन में मिट्टी से मेरा कितना करीब का नाता था। घर के आसपास मिट्टी ही तो नजर आती थी। आंगन में लिपाई भी मिट्टी से होती थी। जहां हम रहते थे, वहां पीली मिट्टी की एक ढांग थी। जहां से लोग खुदाई कर जरूरत के लिए मिट्टी ले लेते थे। स्कूल गया तो सरकारी स्कूल में कला के नाम पर मिट्टी के खिलौने बनाने पड़ते थे। मैं सेब, केला, मिट्टी की गोलियों से बनी माला या फिर कुछ न कुछ आटयम बनाता। उसमें सलीके से रंग भरता। मास्टरजी देखते और उसे देखकर खुश होने की बजाय कहते कि और बेहतर बनाते। यहां रंग गलत भरा। फिर बच्चों के बनाए खिलौने पटक-पटक कर तोड़ दिए जाते कि कहीं दूसरी बार स्कूल से ही लेजाकर रंग चढ़ाकर मास्टरजी को दिखाने न ले आए। न तो मेरा वो पुराना मोहल्ला मेरा रहा। क्योंकि उसे हम करीब बीस साल पहले छोड़ चुके। वहीं उस मोहल्ले में भी अब मिट्टी खोदने वाले भी नहीं रहे। सभी के घर पक्के हो गए। मिट्टी की जरूरत तो शायद अब किसी को पड़ती ही नहीं। जिसने बचपन में मिट्टी खोदी, अब वही अपने बच्चों को मिट्टी से दूर रखने का प्रयास करते हैं।
जौ बोनी थी क्योंकि बर्तन की खोज मैं कर चुका था। ऐसे में हिम्मत हारनी तो बेकार थी। मैने घर में गमलों पर नजर डाली, जिनकी मिट्टी भी खाद न पड़ने के कारण सख्त हो गई थी। इनमें से एक गमले की मुझे बलि देनी थी। एक गमला मुझे कुछ टूटा नजर आया। बस मेरा काम बन गया। मैं खुरपी लेकर एक मुट्ठी जौ बोने के लिए मिट्टी निकालकर प्लास्टिक के बर्तन में डालने में जुट गया। साथ ही यह सोचने लगा कि हम लोग जाने-अनजाने में इस मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं। भले ही हम अपनी मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं, लेकिन ये मिट्टी हमारा साथ नहीं छोड़ती। यदि ये मिट्टी न हो तो इंसान का क्या होगा। वह इस मिट्टी में भी कैसे मिलेगा।
भानु बंगवाल

Sunday, 29 September 2013

वाइवा को छत्तीसगढ़ से दून की दौड़

दिन था रविवार। सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं और स्कूल व कॉलेज में भी छुट्टी रहती है। प्राइवेट संस्थानों में जहां रविवार को भी काम चलता है, वहां ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की भी इस दिन ज्यादातर छुट्टी रहती है। छुट्टी के दिन ही विश्वविद्यालय ने छात्रों को वाइवा (साक्षात्कार) के लिए बुलाया। समय सुबह के दस बजे से था। पत्रकारिता से एमए कर रहे छात्र वाइवा के लिए देहरादून स्थित विश्वविद्यालय के कैंप कार्यालय पहुंच गए। वहां करीब सौ से ज्यादा छात्र थे। ओपन विश्वविद्यालय के इन छात्रों में ऐसे भी लोग ज्यादा थे, जो कहीं न कहीं नौकरी कर रहे थे। उनकी उम्र चालीस से ज्यादा थी। इनमें कई पत्रकार भी थे, जो लंबे समय से पत्रकारिता मे हाथ मांज रहे हैं। शौकिया कहो या फिर कोई और प्रायोजन, वे भी एमए के स्टूडेंट थे।
ये वाइवा भी वाकई कमाल का होता है। पता नहीं पूछने वाला क्या पूछे बैठे। परीक्षक के कक्ष में सबसे पहले जाने का कोई साहस नहीं करता। जब एकआध लोग वाइवा देकर बाहर निकलते हैं, तो उनसे अन्य लोग पूछने लगते हैं कि भीतर क्या सवाल किए गए। फिर वही सवालों के जवाब रटने लगते हैं। वाइवा के लिए एक सम्मानित पत्र के संपादक महोदय को बुलाया गया था। पत्रकार मित्र आपस में बात कर रहे थे कि क्या पूछा जाएगा। वैसे अमूमन सवाल यही पूछा जाता है कि आप पत्रकारिता से क्यों एमए कर रहे हो। एक ने कहा कि यदि मेरे से पूछा कि तो मैं जवाब दूंगा कि महोदय आपसे दो बार नौकरी मांगने गया था। आपने मुझे सलेक्ट नहीं किया। मैने सोचा कि शायद आगे पढ़ लूं तो आप मुझे अपने सम्मानित पत्र में नौकरी का आमंत्रण दोगे। आपसी ठिठोली भले ही सभी कर रहे थे, लेकिन भीतर से वाइवा का डर हरएक के चेहरे पर भी झलक रहा था। पहले दूर-दराज से पहुंचे लोगों का नंबर आया। कारण था कि उनका वाइवा पहले निपटा लिया जाए, क्योंकि उन्हें वापस भी जाना होगा। ऐसे में चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी व पौड़ी जनपद के लोगों को पहले बुलाया गया। तभी वेटिंग रूम में जहां सभी छात्र बैठे हुए थे, वहां एक महिला काफी परेशान दिखी। उसका कहना था कि वह छत्तीसगढ़ से आई है। सभी ने उसे अन्य से पहले परीक्षक के कक्ष में जाने को कहा। इस पर उस युवती ने अपने कंधे पर बैग लटकाया। बैग देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बैग में दो टेग लगे थे, जैसे नई चीज को खरीदते वक्त लगे होते हैं। इन टेग को हटाया नहीं गया था। उसे देख मुझे अमिताभ बच्चन की एक फिल्म का गाना याद आ गया, जिसमें अमिताभ के चश्में पर रेट का टेग लगा होता है। खैर पास से देखने पर पता चला कि टेग पर एयर इंडिया लिखा है। इस पर मुझे और आश्चर्य हुआ कि यह महिला हवाई जहाज से वाइवा देने आई। मन में तरह-तरह के विचार थे। उससे ही पूछने की इच्छा हुई, लेकिन तब तक वह परीक्षक के कक्ष में जा चुकी थी। जब वह बाहर आई और जाने लगी, तब मैने उससे सवाल किया कि भीतर क्या पूछा गया। इस पर उसने बताया कि व्यवहारिक सवाल ही पूछे गए। मैने पूछा कि उसकी ट्रेन छत्तीसगढ़ से सीधे उत्तराखंड के देहरादून में ही क्यों रुकी। क्या बीच में कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं था जहां से वह पढ़ाई कर सकती थी। उसने बताया कि उसने हरिद्वार में पत्रकारिता से बीए किया। छत्तीसगढ़ में सरकारी नौकरी लग गई। वहां एक साल में एमए की सुविधा नहीं थी। पढ़ाई के लिए उसे यही विश्वविद्यालय सुविधाजनक लगा। वाइवा की जानकारी अचानक लगी तो वह हवाई जहाज से यहां आई। कितना डर था उसे कि कहीं वाइवा न छूट जाए। इसी जल्दबाजी में वह बैग से एयर इंडिया का टेग भी नहीं हटा सकी। या हो सकता है कि उसने जानबूझकर न हटाया हो। एक पत्रकार इसलिए डरे हुए थे कि उन्होंने पहले इसी परीक्षक के अधीन काम किया था। उनसे बनती नहीं थी, तो नौकरी बदल दी थी। जब वह वाइवा निपटाकर वापस आए तो खुश दिखे।वहीं हर व्यक्ति को यह डर कि परीक्षक क्या पूछे बैठे। जिनका वाइवा निपट जाता, उनसे पूछे गए सवाल पर सभी तोते की तरह रट लगा रहे थे।
नौकरी से साथ पढ़ाई वाले काफी थे। एक वरिष्ठ पत्रकार सेवानिवृत्त होने के बावजूद भी एमए कर रहे थे। वहीं जिस समाचार पत्र के एक संपादक परक्षक थे, तो उसी पत्र के दूसरी यूनिट के संपादक भी वाइवा देने पहुंचे हुए थे। एक महाशय तो हरिद्वार में एक विभाग में उच्च पद पर तैनात हैं। उन्होंने करीब सात विषयों पर एमए किया। कई किताबें लिखी। पीएचडी भी की। अब पत्रकारिता पढ़ रहे हैं। प्रमाण के तौर पर वह एयरबैग में भरकर अपनी पुस्तकें लेकर वाइवा देने पहुंचे। यहां मुझे समझ आया कि पढ़ाई की वाकई में कोई उम्र नहीं होती। वाइवा में पांच मिनट लगने थे, लेकिन अपना नंबर आने में सभी को देरी लग रही थी। कई सुबह दस बजे से पहुंचे और नंबर दोपहर ढाई बजे भी नहीं आया। छुटी के दिन मेरे भी पांच घंटे इस वाइवा के चक्कर में बीत गए। जब नंबर आया तो मुझसे भी यही सवाल पूछा गया कि आप पत्रकारिता से एमए क्यों कर रहे हो। मैने जवाब दिया कि बीस साल से ज्यादा समय पत्रकारिता में हो गया। अब अपने ज्ञान को कागजों में लाना चाहता हूं।
भानु बंगवाल

Tuesday, 24 September 2013

मानवता बिसराई....

इंजीनियर साहब जब भी दो पैग चढ़ाते थे, तो वे इसी कविता को दोहराने लगते थे। जोर की आवाज में वह बार में ही गीत के लहजे मे कविता सुनाने लगते-मानवता बिसराई। कविता का भाव यह था कि समाज का पतन हो रहा है। इंसान दूसरे की कीमत नहीं समझता। किसी के मन में अब मानवता नहीं बची। सब स्वार्थ पूर्ति के लिए एक दूसरे के करीब आते हैं। जब कभी भी वे मूढ़ में होते तो उनके परिचित कविता सुनाने को कहते और वे सुनाने लगते। वैसे इंजीनियर साहब कवि नहीं थे। कविता भी उन्होंने तब से गुनगुनानी शुरू की, जब से वे ज्यादा दुखी रहने लगे थे। एक सरकारी विभाग में अधिशासी अभियंता थे इंजीनियर साहब। पैसों की कमी नहीं थी। ऊपरी आमदानी भी खूब थी। जितना कमाते थे, उसमें से दारू में भी खूब बहाने लगे थे। उनके साथ यारों की चौकड़ी होती, जो होटल या बार में साथ रहती। जब वेटर बिल थमाता तो संगी साथी जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने का उपक्रम करते, इससे पहले ही इंजीनियर साहब बिल अदा कर चुकते थे।
इंजीनियर साहब का स्टाइल भी कुछ अलग ही था। उनकी कमर में बेल्ट के साथ लाइसेंसी रिवालवर लटकी रहती। सिर के बाल जवानी के अमिताभ बच्चन की स्टाइल में थे, जो सफेद हो चुके थे, लेकिन वे उस पर काला रंग चढ़ा लेते थे। पतले व लंबे इंजीनियर साहब हल्के-हल्के किसी बात को कहते और कोई यदि पहली बार उनसे बात करे तो यही धारणा बनती थी कि वे मन के काफी साफ हैं। साहब के अधिनस्थ अन्य सहायक इंजीनियर व जूनियर इंजीनियर दिन भर आफिस में उनकी लीपापोती तो करते थे, साथ ही शाम को उन्हें बार में भी घेरे रहते। इंजीनियर साहब बीमार पड़े तो चेकअप कराने को सरकारी अस्पताल में गए। वहां डॉक्टर ने उन्हें देखा और कुछ दवाएं लिख दी। डॉक्टर भी दारूबाज था। वह ड्यूटी में ही दो पैग चढ़ाकर मरीज को देखता। दारू पीने वालों की दोस्ती भी जल्द हो जाती है। ऐसे में इंजीनियर साहब से उनकी दोस्ती हो गई। बार में बैठने वाली चौकड़ी में डॉक्टर साहब भी साथ ही नजर आते। डॉक्टर साहब भी कम नहीं थे। एक दिन रास्ते में उनकी कार से एक व्यक्ति टकरा गया। उक्त व्यक्ति से उनका विवाद हुआ। डॉक्टर साहब फटाफट अपनी ड्यूटी पर पहुंच गए। कार से टकराने वाला व्यक्ति भी पुलिस रिपोर्ट कराने से पहले मेडिकल के लिए सरकारी अस्पताल पहुंचा। वहां पहुंचते ही उसका माथा ठनका, क्योंकि जिस डॉक्टर ने मेडिकल रिपोर्ट बनानी थी, उसी ने उसे टक्कर मारी थी। ऐसे में वह व्यक्ति हताश होकर बगैर मेडिकल कराए ही चला गया।
इंजीनियर साहब का लीवर कमजोर पड़ने लगा, लेकिन डॉक्टर ने दवा तो दी साथ ही दारू छोड़ने की सलाह नहीं दी। उल्टी सलाह यह दी कि छोड़ो मत लिमिट में पिया करो। साथ ही पीने के दौरान खुद ही साथ बैठने लगे। इंनीनियर पहले  अपने लीवर के उपचार की दवा लेते और कुछ देर बाद दारू पीने बैठ जाते। जब इंनीनियर की आत्मा की आवाज बाहर निकलती तो तभी उनके मुंह से बोल निकलते-मानवता बिसराई।
एक बार अधिनस्थ कर्मचारियों ने घोटाले कर दिए और इंजीनियर साहब फंस गए। नौकरी से निलंबन हो गया। जब समाचार पत्रों के संवाददाताओं ने संपर्क कर उनसे जानना चाहा तो उन्होंने खुद ही बता दिया कि किस योजना में क्या घोटाला होने के आरोप उन पर लगे हैं। ऐसी ही सादगी भरा जीवन था उनका। निलंबन के बाद वह ज्यादा समय बार में ही बिताने लगे। उसी दौरान उनके मुंह से कविता भी फूटने लगी। वह दोस्तों को भले ही अपने खर्च से दारू पिलाते, लेकिन यह उन्हें बखूबी पता था कि उनके यार सिर्फ दारू के हैं।निलंबन के दौरान भी साथियों ने इंजीनियर साहब के ही पैसों से दारू पीनी नहीं छोड़ी। कोई उन्हें केस लड़ने के लिए अच्छा वकील तलाशने का सुझाव देता, तो कोई अधिकारियों पर दबाव डालने के लिए नेताओं से बात कराने का दावा करता। ऐसी सलाह बार दारू पीते ही दी जाती। इंजीनियर साहब को निलंबन में आधे वेतन से ही गुजारा करना पड़ रहा था। साथ ही दारू का खर्च भी कम नहीं हो रहा था। ऊपरी कमाई भी बंद हो गई थी। माली हालत बिगड़ रही थी, लेकिन मानवता बिसराई हुई थी।
अचानक इंजीनियर साहब ने बार में जाना बंद कर दिया। डॉक्टर मित्र घर गए तो पता चला कि उन्हें पीलिया हो गया। परीक्षण किया तो पता चला कि लीवर सिकुड़ गया है। डॉक्टर ने फुसफुसाते हुए अन्य मित्रों को बताया कि अब इंजीनियर साहब कुछ ही दिन के मेहमान हैं। उनके घरवालों को सलाह दी गई कि उन्हें कहीं बाहर दिखाया जाए। कुछ माह दिल्ली में उपचार चला और एक दिन वह चल बसे। मानवता तो सच में इंजीनियर साहब के संगी साथियों ने बिसरा दी थी। बीमार होने पर भी उन्हें दारू पीने नहीं रोकते थे। वे तो उनके नशे में होने का लाभ उठाते। वैसे तो देखा जाए आजकल हर कहीं मानवता को इंसान बिसरा रहा है। संत कहलाने वालों के कुकर्म सामने आ रहे हैं। शिक्षकों पर छात्रा से छेड़छाड़ के आरोप लग रहे हैं। भाई-भाई का दुश्मन हो रहा है। गरीब की मदद के पैसे को नेताजी उड़ा रहे हैं। हर तरफ बंदरबांट हो रही है। समाज में कौन अपना है या पराया, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो गया है। मौका मिलने पर कोई भी टांग खिंचने के पीछे नहीं रहता। ऐसे में आम आदमी तो यही कहेगा ना कि-मानवता बिसराई.......
भानु बंगवाल

Sunday, 22 September 2013

अक्ल के टप्पू...

अक्ल के टप्पू, सिर पर बोझ घोड़े पर अप्पू। इस कहावत को मैं बचपन से ही पिताजी से मुख से सुनता रहा। उनका हर कर्म एक सिस्टम के अंतर्गत होता था। जब भी हम कोई गलती करते तो वह इस कहावत को कहते। इसका मतलब था कि सिर पर तो बोझ की गठरी पड़ी है और बेअक्ल घोड़े पर बैठा है। पिताजी कहानी सुनाते थे कि एक व्यक्ति की घोड़ी गर्भवती थी। वह घोड़ी की पीठ पर बैठा और अपने सिर पर उसने बड़ी गठरी लादी हुई थी। गठरी सिर पर रखने के पीछे उसका तर्क था कि घोड़ी पर ज्यादा बोझ न पड़े। वाकई अक्ल ही ऐसी चीज है जो किसी भी व्यक्ति की निजी पूंजी है। यह किसी पेड़ पर नहीं उगती और न ही इसे कहीं खरीदा जा सकता है। यह तो व्यक्ति खुद ही विकसित करता है। वैसे कहा गया कि जैसा सोचोगे, जैसा करोगे तो व्यक्ति वैसा ही हो जाता है। व्यक्ति अपने जीवन को जिस तरह ढालेगा वह वैसे ही होने लगता है। छोटी-छोटी बातों पर भी यदि हम अक्ल का सही इस्तेमाल करें तो काम सही तो होगा ही और उसे करने का आनंद भी आएगा। इन दिनों पितृ पक्ष चल रहा है और हिंदू परंपराओं के मुताबिक सभी निश्श्चित तिथि पर पूर्वजों को तर्पण के माध्यम से मोक्ष की कामना करते हैं। हम हर साल श्राद्ध में पित्रों को याद करते हैं फिर श्राद्ध निपटने पर उन्हें भूल जाते हैं। हम पितृ पक्ष को सही तरीके से समझते नहीं हैं और सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर पंडितजी को घर बुलाते हैं। वह तर्पण कराते हैं और हमसे संकल्प लिवाते हैं। क्षमता के मुताबिक पंडितजी को हम दक्षिणा देते हैं और वह भी अपना झोला समेट कर चले जाते हैं। बस हो गया पित्रों का श्राद्ध। हमने संकल्प लिया, लेकिन क्या संकल्प लिया यह हमें पता ही नहीं रहता। इसका कारण यह है कि हम सिर्फ परंपराओं को निभाते हैं। उसके सही मायनों को समझने का प्रयत्न नहीं करते। सभी मायनों में पितृ पक्ष में श्राद्ध करने व पित्रों को याद करने का मलतब यह है कि हम अपने पूर्वजों के आदर्शों को याद करें। उनकी अच्छाइयों को जीवन में उतारने का संकल्प लें। यही संकल्प सही मायने में पित्रों को याद करने का बेहतर तरीका है।
हमारे गांव में खेती बाड़ी के लिए सिंचाई की जमीन नहीं है। वहां लोग बारिश पर ही निर्भर रहते है। मेरे पिताजी जब भी गांव जाते तो देहरादून से आम के साथ ही फूलों की पौध ले जाते। वे पौध को खेतों के किनारे लगाते थे। आज पिताजी भले ही इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके हाथ से रोपित आम की पौध पेड़ बनकर आज भी फल दे रहे हैं। अक्सर मेरे पिताजी का यही कहना रहता था कि किसी का मन न दुखाओ, सदा सत्य बोलो। एक बात पर वह हमेशा जोर देते थे कि हर चीज को एक निर्धारित स्थान पर रखो। इसका फायदा भी मिलता था। जब बत्ती गुल होती, तो निश्चित स्थान पर रखी हमें मोमबत्ती व माचिस मिल जाती। उनका सिद्धांत था कि समय की कीमत समझो साथ ही अनुशासन में रहो। एक व्यक्ति ने अपने घर का सिद्धांत बनाया हुआ था कि सुबह उठते ही घर के सभी सदस्य पंद्रह से बीस मिनट तक घर की सफाई में जुट जाते। इसके बाद ही उनकी बाकी की दिनचर्या शुरू होती। इन छोटे-छोटे कामों में भी अक्ल की जरुरत पड़ती है। जैसे एक साहब बाथरूम में नहाने घुसे। पहले उन्होंने गीजर से बाल्टी में गर्म पानी डालने को नल चालू किया। फिर जब आधी बाल्टी भर गई तो ठंडा पानी चालू किया। जब बाल्टी भरी तो कपड़े उतारने लगे। अब कोई समझाए कि गर्म व ठंडा पानी एक साथ भरते और पानी भरने के दौरान ही कपड़े आदि उतारते तो समय की बचत होती। यह समय किसी का इंतजार नहीं करता। घड़ी तो लगातार चलती रहती है। समय निकलने के बाद ही व्यक्ति पछताता है। एक सज्जन ने चपरासी से सिगरेट मंगाई तो समझदार चपरासी माचिस भी लेकर आया। उसे पता था कि सिगरेट जलाने के लिए माचिस मांगेगा। ऐसे में उसे फिर से दोबारा दुकान तक जाना पड़ेगा। एक महिला सब्जी बनाने के लिए करेले को छिल रही थी। तभी दूसरी ने उसे बताया कि करेले की खुरचन को फेंके नहीं। उसे नमक के घोल के पानी में कुछ देर डुबाकर रखे। फिर खुरचन को धोकर आटे के साथ गूंद लो। बस तैयार कर लो पोष्टिक परांठे। बेटा बड़ा होकर माता-पिता को घर से निकाल रहा है, वहीं बेटी की बजाय पुत्र मोह में अक्ल के टपोरे फंस रहे हैं। उत्तराखंड में आपदा आई तो दूसरे राज्यों से भी मदद के हाथ बढ़े। अक्ल के टपोरे नेता फिजूलखर्ची रोकने की बजाय विधानसभा सत्र से पहले घर में पार्टी देकर जश्न मना रहे हैं। पार्टी में एक नेता की रिवालवर से गोली चली और दो घायल हुए, पर अक्ल के टपोरे घटना पर ही पर्दा डालने लगे। वाकई पार्टी में शामिल कांग्रेस के लोग गांधीजी के बंदर की भूमिका निभा रहे हैं। तभी तो उन्होंने बुरा, देखना, सुनना व कहना छोड़ दिया और गोली चलने पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं। अक्ल के टपोरों के तो शायद आंख, नाक, कान तक खराब रहते हैं। वहीं अक्ल की टपोरी पुलिस मौन बैठी है और नेता खामोश है। सभी को अपनी राजनीति चमकानी है। देश व प्रदेश जाए भाड़ में नेताओं को तो जनता का पैसा लूटाना है।  ऐसे में यही कहा जा सकता है कि अक्ल का जितना इस्तेमाल करो वह उतनी बढ़ती है।
भानु बंगवाल

Monday, 16 September 2013

हर तरफ फैशन शो....

आजकल भई फैशन का जमाना है। इसके बगैर तो शायद ही कोई अपनी योग्यता का परिचय किसी को नहीं करा सकता। फेमस होने के लिए हो या फिर खुद को दूसरों की नजर में लाने के लिए, सभी काम में फैशन शो की जरूरत पड़ने लगी है। वैसे तो फैसन शो किसी होटल आदि में होते हैं। वहां मॉडल किसी कंपनी के उत्पाद या फिर परिधान को पहनकर रैंप में कैटवाक करती है। देखने वालों की निगाह उत्पाद पर कम और महिला मॉडल पर ज्यादा रहती है। शायद इसी को फैसन शो कहते थे। अब समय बदला और फैसन शो भी आम आदमी के इर्दगिर्द सिमट कर रह गया। फेसबुक में तो मानो इसकी बाढ़ सी आ गई। लिखने वाले तो इस सोशल साईट्स का इस्तेमाल अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में कर रहे हैं, वहीं कई फेशन शो में भी पीछे नहीं हैं। युवतियों की नग्न तस्वीरें हर दिन अपलोड की जाने लगी। इसे लाइक करने वालों की भी कमी नहीं है। तो क्या यहीं तक सिमट कर रह गया फैसन शो। इस पर मेरा जवाब नहीं में ही है। क्योंकि अब तो कोई भी वस्तु चाहे अच्छी या बुरी क्यों न हो, लेकिन उसे परोसने के लिए फैशन शो की जरूरत ही महसूस की जाने लगी।
शीशे के सामने कोई यदि खुद को निहारता है, तो शायद उसे यही भ्रम होता है कि वह काफी खूबसूरत है। अपने भ्रम को और पुख्ता करने के लिए वह अपने रंग-रूप, पहनावे, खानपान आदि में भी ध्यान देने लगता है। भीतर से यानी स्वभाव से चाहे वह कितना कुरूप हो, लेकिन बाहर से सबसे सुंदर दिखने का प्रयत्न करता है। अब तो व्यक्ति शीशे से निकलकर कंप्यूटर, मोबाइल के जरिये इंटरनेट की दुनियां में आ गया है। फैशन शो के जरिये वह भी खुद को साबित करने की जुगत में लगा है। बच्चें हों या फिर जवान, युवक, युवती हों या फिर बूढे़। सभी इस फैशन शो का अंग बन रहे हैं।
वैसे हर कदम-कदम पर फैशन की जरूरत पड़ने लगी है। मित्र की रेडियो व टेलीविजन मरम्मत की एक दुकान थी। अब टीवी ज्यादा खराब होते नहीं हैं और रेडियो खराब होने पर लोग नया खरीद लेते हैं। मरम्मत का काम तो लगभग खत्म हो गया है। घर में रखे टीवी से ज्यादा कीमत के लोग मोबाइल इसलिए खरीदते हैं कि यह फैशन बन गया है। दुकान जब नहीं चल रही थी तो मित्र ने टीवी रिपेयरिंग की दुकान को रेडीमेड कपड़ों की दुकान में तब्दील कर दिया। कपड़ों के शोरूम में चाहे कपडों की क्वालिटी जैसी भी हो, लेकिन दुकान की सजावट का पूरा ख्याल रखा गया। इससे दूर से ही लोग दुकान की तरफ आकर्षित होने लगे। यही तो है फैशन शो। नेताजी के पिताजी ने पूरी उम्र राजनीति की। बेटे ने राजनीति की बजाय वकालत की। फिर फैशन के तौर पर वकील बेटा पिता के पदचिह्न पर चला और नेतागिरी करने लगा। उत्तराखंड में राजनीति की। कमाल का आनंद मिला इस राजनीति में। फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और बड़े पदों में काबिज हो गए। नेताजी को जब मलाई मिली तो उनके बेटे भी जनता के दुखदर्द का बीड़ा उठाने के लिए राजनीति के मैदान में उतर गए। माह में एक लाख रुपये से अधिक की सेलरी की नौकरियां छोड़ दी। अब उनसे कौन पूछे कि बगैर नौकरी के कैसे गुजारा चल रहा है। कहां से उनकी अंटी में पैसा आ रहा है। बेटों को भी आगे बढ़ने के लिए फैशन शो का ही सहारा लेना पड़ रहा है। एक बेटा तो बड़ा चुनाव हार गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। कूदे पड़ें हैं राजनीति के फैशन शो में कि कभी कोई न कोई शो हिट जरूर होगा। वैसे कमाई की चिंता नहीं है। बड़े-बड़े बिल्डरों को लाभ पहुंचाने में बेटों का सीधे हाथ रहता है। बड़ी योजनाओं का काम सीधा ऐसे बिल्डरों को उनके माध्यम से ही जा रहा है।
हर क्षेत्र में फैशन शो के बगैर काम चलना अब मुश्किल है। लेखक यदि किताब लिखता है तो उसका बाहरी आवरण यदि बेहतर नहीं होगा तो शायद कोई किताब को देखेगा ही नहीं। समाचार पत्रों की खबर की हेडिंग ही उसका आकर्षण है। एक नेता को अपनी लच्छेदार भाषा व पहनावे पर ध्यान देना पड़ता है। दुकान जितनी सजी होती, ग्राहक भी उतना आकर्षित होगा। क्लीनिक में डाक्टर को अपनी डिग्रियों की प्रति सजाने के साथ ही अपनी अन्य योग्यताओं के प्रमाण सजाने पड़ रहे हैं। गजब की प्रतिस्पर्धा है इस फैशन शो में। सभी आगे बढ़ने के लिए दूसरे की टांग खिंचने में लगे रहते हैं। ऐसे में जो हिट हुआ वहीं सफल मॉडल है।
भानु बंगवाल

Saturday, 14 September 2013

लोगों का काम है कहना...

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। ये गाना मैने बचपन में सुना था। तब शायद इसका सही मतलब भी नहीं जानता था। अब यही महसूस करता हूं कि हमारे सभी अच्छे व बुरे कार्यों में लोगों की प्रतिक्रिया भी जुड़ी होती है। कई बार तो इसे ध्यान में रखकर ही व्यक्ति किसी काम को अंजाम देता है। वहीं, कई बार व्यक्ति दूसरों की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर देता है। फिर भी लोग तो कहते ही हैं। कई बार तो लोगों के कहने का हमारी कार्यप्रणाली में सार्थक असर भी पड़ता है। हम लोगों की प्रतिक्रिया के मुताबिक अपनी गलतियों से रूबरू होते हैं और उसमें सुधार का प्रयत्न करते हैं।
वैसे लोगों का काम तो कहना ही है। बेटी की उम्र बढ़ गई और समय पर रिश्ता नहीं हुआ। पिता को इसकी चिंता तो है ही, साथ ही यह चिंता रहती है कि लोग क्या कहेंगे। रिश्ता हुआ और यदि वर व बधु पक्ष को कोई दिक्कत नहीं, लेकिन जोड़ी में सही मेल न हो तो भी लोग तो कहेंगे। लड़की ज्यादा पढ़ीलिखी थी, लड़का कम पढ़ा है। कोई खोट रहा होगा लड़की में ऐसा ही लोग कहेंगे। वैसे देखा जाए तो दुख की घड़ी में ज्यादातर लोग दुखी व्यक्ति के पक्ष में सकारात्मक ही बोलते हैं, लेकिन सुख की घड़ी में ऐसे लोगों की कमी नहीं होती, जो कुछ न कुछ बोलने में कसर नहीं छोड़ते। बारात आई और मेहमान भी खाने में पिलते हैं। साथ ही प्रतिक्रिया भी दे जाते हैं खाना अच्छा नहीं था या फिर शादी के आयोजन की कमियां गिनाते रहते हैं।
लड़की के मामले में तो अभिभावकों को बेटी से ज्यादा दूसरों की चिंता होती है। यदि कहीं बेटी से छेड़छाड़ की घटना हो जाए, तो बेचारे लोगों की टिप्पणी के भय से इसकी शिकायत थाने तक नहीं कर पाते हैं। लोग कहीं बेटी पर ही दोष न दें। दुष्कर्म होने पर लोकलाज के भय से ही ज्यादातर लोग अपने होंठ सील लेते हैं। ऐसे मे दोषी के खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं हो पाती है। लोगों की चिंता छोड़ सही राह में चलने वाले को कई बार चौतरफा विरोध झेलना पड़ता है। इसके बावजूद ऐसे सहासी लोग किसी की परवाह किए बगैर अपने कार्य को अंजाम देते हैं। तभी तो दिल्ली गैंग रैप के आरोपियों को फांसी की सजा हुई। संत कहलाने वाले आसाराम का असली चेहरा जनता के सामने उजागर हुआ और वह भी सलाखों के बीचे है। नेता हो या अभिनेता, संत हो या धन्ना सेठ। कोई कानून से बड़ा नहीं है। यदि कोई गलत करता है तो उसे सजा भी मिलनी चाहिए।
कोई भी नया काम करने से पहले उसके विरोध में खड़े होने वालों की संख्या भी कम नहीं होती। जब किसी दफ्तर में कोई नई योजना लागू होती है तो उसके शुरू होने से पहले ही कमियां गिनाने वाले भी कुछ ज्यादा हो जाते हैं। जब देश में कंप्यूटर आयो तो तब भी यही हाल रहा। इसके खिलाफ एक वर्ग आंदोलन को उतारू हो गया। तर्क दिया गया कि लोग बेरोजगार हो जाएंगे। आज कंप्यूटर हर व्यक्ति की आवश्यकता बनता जा रहा है। कोई काम करने से पहले परीणाम जाने बगैर ही अपनी राय बनाने वाले शायद यह नहीं जानते कि यदि मन लगाकर कोई काम किया जाए तो उसके नतीजे ही अच्छे ही आते हैं। 
अब रही बात यह कि क्या करें या क्या न करें। सुनो सबकी पर करो अपने मन की। यह बात ध्यान में रखते हुए ही व्यक्ति को कर्म करना चाहिए। क्योंकि अपने जीवन में सही या गलत खुद ही तय करना ज्यादा बेहतर रहता है। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता है कि वह कुछ करे या बोले। लेकिन, इस स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं कि वह दूसरे की स्वतंत्रता में दखल दे रहा है। खुद तेज आवाज में गाने सुन रहा है और पड़ोस के लोगों को उससे परेशानी हो रही है। ऐसी स्वतंत्रता का तो विरोध भी होगा। सेवाराम जी इसलिए ही परेशान हैं। बच्चे घर में पढ़ाई करने बैठते हैं, तो पड़ोस के मंडल जी के घर में तेज आवाज में गाने बजने लगते हैं। सेवाराम जी कसमसाकर रह जाते हैं। वह यदि मंडलजी को समझाने का प्रयास करते हैं, तो भी उन पर कोई असर नहीं पड़ता। मंडलजी कहते हैं लोगों का काम कहना है। मैं तो अपने घर में गाने सुन रहा हूं। गुस्साए लोग कहते हैं कि मंडलजी को घर से बाहर घसीटकर सड़क पर उनका जुलूस निकाला जाए। मंडलजी को इसकी परवाह नहीं। बेचारे पड़ोसी दिन मे भी कमरे के खिड़की व दरबाजे बंद करने लगे हैं, ताकि मंडल के घर से आवाज न सुनाई दे और बच्चों की पढ़ाई में कोई व्यावधान ना आए। वहीं मंडलजी खुश हैं कि उनकी मनमानी के खिलाफ बोलने वाले चुप हो गए। नतीजा मंडल के घर में जितने बच्चे थे, सभी परीक्षा में फेल हो गए और पड़ोस के बच्चे अच्छे अंक लेकर नई क्लास में चले गए। परीणाम देखकर मंडलजी को  यही चिंता सताने लगी कि लोग क्या कहेंगे।
भानु बंगवाल

Monday, 9 September 2013

गौरी का प्रेम

अत्याधुनिक कहलाने के बावजूद अभी भी हम जातिवाद, सांप्रदायिकता के जाल से खुद को बाहर नहीं निकाल पाते हैं। छोटी-छोटी बातों पर उपजा छोटा सा विवाद कई बार दंगे का रूप धर लेता है। व्यक्ति-व्यक्ति का दुश्मन हो जाता है। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, सांप्रदायिकता के नाम पर बटा व्यक्ति एक-दूसरे के खून का प्यासा हो जाता है। इसके विपरीत सभी की रगो में एक सा ही खून दौड़ता है। यदि चार व्यक्तियों के खून को अलग-अलग परखनली में डाला जाए तो उसे देखकर कोई नहीं बता सकता कि किस परखनली में किससा खून है। हिंदू का है, या मुस्लिम का, सिख का है या ईसाई का। क्योंकि खून तो बस खून है। सभी की रगों में एक समान दौड़ता है। इसमें जब फर्क नहीं है तो हम क्यों फर्क पैदा करते हैं। खून में फर्क करके ही लोग उन्माद फैलाते हैं। नजीजन किसी किसी शहर में दंगे के रूप में देखने को मिलता है। सफेदपोश इस दंगे को हवा देते हैं और अपने वोट पक्के करते हैं। पिसता तो सिर्फ गरीब इंसान ही है। उसकी स्थिति तो एक जानवर के समान है। जो अच्छे बुरे को भी नहीं पहचान सकता और जाता है बहकावे में।

बुरे इंसान की संज्ञा जानवर के रूप में दी जाती है। तो सवाल उठता है कि क्या वाकई जानवर किसी से प्रेम करना नहीं जानते। ऐसा नहीं है। एक कुत्ता भी मालिक से वफादारी निभाता है। यही नहीं एक ही घर में पल रहे कुत्ता, बिल्ली, तोता, गाय सभी एकदूसरे पर हमला नहीं करते हैं। वे एक दूसरे के साथ की आदत डाल देते हैं। कुत्ता गाय से प्यार जताता है, तो गाय भी उसे प्यार से चाटती है। मेरे एक मित्र के घर कुत्ता तोता था। जब भी पड़ोस की बिल्ली तोते की फिराक में उसके घर पहुंचती तो तोता कुत्ते से सटकर बैठ  जाता  और खुद को सुरक्षित महसूस करता। बिल्ली बेचारी म्याऊं-म्यीऊं कर वहां से खिसक लेती। कई बार तो कुत्ता गुर्राकर बिल्ली को भगा देता। जब एक घर के जानवर एक छत के नीचे प्यार से रहते हैं तो एक देश के इंसान क्यों नहीं रह सकते। क्यों हम जानवर के बदतर होते जा रहे हैं। आपस में प्यार करना सीखो। जैसे गौरी ने घर के सभी सदस्यों से किया।
गौरी मेरी एक गाय का नाम था। हम देहरादून में जिस कालोनी में रहते थे, वहां अधिकांश लोगों ने मवेशी पाले हुए थे। इससे घर में दूध भी शुद्ध मिल जाता था। साथ ही कुछ दूध बेचकर मवेशियों के पालन का खर्च भी निकल जाता था। करीब सन 82 की बात होगी। पिताजी से घर के सभी सदस्यों ने गाय खरीदने की जिद करी। सभी ने यही कहा कि हम सेवा करेंगे और दाना, भूसा समय से खिलाने के साथ ही हम गाय का पूरा ख्याल रखेंगे। गाय तलाशी गई, लेकिन अच्छी नसल की गाय तब के हिसाब से काफी महंगी थी। फिर एक करीब पांच माह की जरसी नसल की बछिया ही सस्ती नजर आई और घर में खूंटे से बांध दी गई। इस बछिया का नाम गौरी रखा गया। मैं और मुझसे बड़े भाई बहन इस बछिया को ऐसे प्यार करते थे, जैसे परिवार का ही कोई सदस्य हो। जैसा व्यवहार करो वैसा ही  जीव हो जाता है। गौरी भी सभी से घुलमिल गई। हम उसे पुचकारते थे, तो वह भी खुरदुरी जीभ से हमें चाटकर प्यार जताती थी। घर में पालतू कुक्ते जैकी से भी वह घुलमिल गई। खुला छोड़ने पर दोनों खेलते भी थे। गाढ़े भूरे रंग की गौरी इतनी तगड़ी हो गई कि दूर से वह घोड़ा नजर आती थी। पड़ोस के बच्चे भी उसे सहलाते और वह चुप रहती। गौरी बड़ी हुई पूरी गाय बनी। कई बार उसने  बछिया बछड़े जने। साथ ही घर में दूध की कमी नहीं रही।
वर्ष, 89 में पिताजी सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हुए। कालोनी से घर खाली करना था। ऐसे में हमें किराए का मकान लेना था। एक मकान तलाशा, लेकिन वहां इसकी गुंजाइश  नहीं थी कि गौरी को भी वहां ले जाया जा सके। इस पर गौरी को बेचने का निर्णय किया गया। फिलहाल गौरी को वहीं कालोनी में पुराने मकान के साथ बनी गोशाला में ही रखा गया। पुराने एक पड़ोसी को उसे समय से दाना-पानी देने की जिम्मेदारी सौंपी गई। सज्जन पड़ोसी हर दिन सुबह गौरी को दाना-पानी देते और कुछ देर के लिए खुला छोड़ देते। वहां समीप ही जंगल था। गौरी जंगल जाती और वहां से चर कर वापस गोशाला आती खूंटे के समीप खड़ी हो जाती। हर वक्त उसकी आंखों से आंसू निकलते रहते। जब कभी हम उसे देखने जाते तो उसकी आंख से लगातार आंसू गिरते रहते। हमारे वापस जाने पर वह ऐसी आवाज में चिल्लाती, जो मुझे काफी पीड़ादायक लगती।
एक दिन हमारे घर में कोई आया और गौरी को खरीद गया। उसका घर हमारे घर से करीब आठ किलोमीटर दूर था। ना चाहते हुए भी गौरी को हमें देना पड़ा। उसे रस्सी से बांधकर जब नया मालिक उसके सहयोगी ले जा रहे थे, तो गौरी अनजान व्यक्ति के साथ एक कदम भी नहीं चली। इस पर मुझे उनके साथ जाना पड़ा। मैं साथ चला तो शायद गौरी ने यही सोचा कि जहां घर के सभी सदस्य हैं, वहीं ले जा रहे होंगे। इस पर वह बगैर किसी प्रतिरोध के मेरे पीछे-पीछे चलने लगी। उसके नए मालिक के घर पहुंचने पर गौरी को वहां खूंटे से बांध दिया गया। मेरे लौटने के बाद से उसका रोने का क्रम फिर से शुरू हो गया। बताया गया कि वह कई दिनों तक आंसू बहाती रही। फिर धीरे-धीरे नए मालिक के घर के सदस्यों से घुलमिल गई। जिस दिन में गौरी को खरीदार के घर छोड़ गया था, उस दिन से मैने भी उसे नहीं देखा। इसके बावजूद गौरी का प्रेम में आज तक नहीं भूल सकता।
भानु बंगवाल