नवरात्र शुरू हो जाएं और रामलीला मंचन न हो, यह तो हो नहीं सकता। भले ही अब रामलीला के पंडाल सिमटने लगे हैं। फिर भी कुछ विरले लोग ही इस पुरानी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। बचपन से ही मुझे रामलीला अच्छी लगती थी और आज भी लगती है। जब छह सात साल का था तो हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर रामलीला का मंचन होता था। मोहल्ले के लोग टोलियां बनाकर पैदल ही रामलीला देखने जाते। मेरी बड़ी बहनों के साथ माताजी रामलीला के लिए रात को घर से निकलती, तो मैं भी साथ जाने की जिद करता। मुझे ले जाने में वे इसलिए कतराते थे कि रामलीला के समापन पर मैं नींद का बहाना करता। ऐसे में मुझे बारी-बारी से पीठ पर ढोकर घर लाया जाता। साथ ही मुझे ढोने वाली बहने पूरे रास्ते भर मुझे ताने देती। साथ ही यह कहती कि कल से साथ नहीं लाएंगे। मैं चुपचाप उनकी डांट सुनता। कभी पीठ पर लदे हुए ही सो जाता। अगली रात जैसे ही सब तैयार होते, तो मैं भी इस आश्वासन पर साथ चल देता कि आज खुद ही पैदल आऊंगा।
समय बदला। टेलीविजन का दौर आया। कई स्थानों से रामलीला के पंडाल लुप्त हो गए। नए मोहल्लों व स्थानों पर रामलीला शुरू कराने का साहस किसी को नहीं हुआ। कुछएक रामलीला समितियां ही ऐसी बची हैं, जो इस पुरानी परंपरा को निभा रही हैं। कई ने समय के साथ ही रामलीला मंचन का ट्रैंड बदला। टी-20 क्रिकेट मैच की तरह फटाफट रामलीला का मंचन किया जाने लगा। ऐसे में सीडी चला दी जाती है। मंच पर कलाकार सिर्फ मुंह चलाते हैं। चार-पांच मंच बने होते हैं और नानस्टाप चलने वाली रामलीला में एक दिन का मंचन दो घंटे में ही निपट जाता है। लोगों के पास अब समय ही कहां बचा है कि रात के नौ बजे से एक बजे तक रामलीला को देखें। बच्चों का स्कूल रहता है। पढ़ाई का बोझ इतना होता है कि वे भी रामलीला से वंचित हो रहे हैं। फटाफट वाली रामलाली मैं तो कुछएक दर्शक जुट रहे हैं। लेकिन, पुरानी शैली वाली रामलीला में जिसमें कलाकार ही सब कुछ करता है, दर्शकों का टोटा पड़ गया है। फिर भी मुझे पुरानी शैली की रामलीला ही पसंद है। इसका कारण यह है कि नए युवाओं को अभिनय के प्रति आगे बढ़ाने मे रामलीला भी सहायक होती हैं। कलाकार का गला भी साफ व सुरीला होना चाहिए। वैसे रामलीला के संदेश सत्य की असत्य पर जीत के होते हैं। सही का साथ दो, गलत को गलत समझो। किसी का बुरा न करो। यही तो रामलीला सिखाती है। इस देश का दुर्भाग्य यह है कि आसूमल नाम के फ्राड जब प्रवचन करते हैं तो पंडालों में भीड़ जुट जाती है, लेकिन जब लोगों के बीच के कलाकार अभिनय के जरिये वही बात कहते हैं, तो उन्हें सुनने की किसी को फुर्सत नहीं।
मेरी कोशिश यह रहती है कि हर साल बच्चों को रामलीला जरूर दिखाऊं। जैसे सर्कस में शेर देखने को आज की पीड़ी तरस गई, वैसे रामलीला से भी वंचित न रहे। मेरे घर से करीब सात किलोमीटर दूरी पर मसूरी की तलहटी में बसे राजपुर कस्बे में इस साल भी रामलीला का मंचन चल रहा है। वहां रामलीला 64वें साल में पहुंच गई। मैने इस बार बच्चों को वहीं रामलाली दिखाने की ठानी। बड़ा बेटा दसवीं की तैयारी कर रहा है। हर रोज स्कूल में उसे टैस्ट देने पड़ रहे हैं। ऐसे में चाहते हुए भी उसने रामलाली जाने से मना कर दिया। मैं छोटे बेटे को लेकर राजपुर पहुंच गया। हालांकि अभी स्वैटर शुरू नहीं हुई, फिर भी राजपुर इतनी ऊंचाई में है कि मैने दस साल के बेटे को जैकेट साथ रखने को कहा। रामलीला शुरू हुई कुछ वही पुराने चेहरे नजर आए, जिन्हें मैं बचपन से देखता आ रहा था। हांलाकि उनके चरित्र बदल गए। जो पहले राम बनता था, उसे ज्यादा उम्र होने के कारण विश्वमित्र की भूमिका निभानी पड़ रही है। वाकई रामलीला के जरिये दूसरों की भलाई का संदेश देने वालों में यदि एक भी ऐसा काम करे तो रामलीला का औचित्य को सफल माना जा सकता है। हर साल की तरह इस बार भी संचालन कर रहे योगेश अग्रवाल से जब मैं मिला तो पता चला कि वह रक्तदान करते हैं। उनका रक्तदान का आंकड़ा 102 पर पहुंच गया। इसी तरह शिवदत्त नाम का एक कलाकार सामाजिक सेवा में भी अग्रणीय है। एक पत्रकार जो कलाकार भी है, वह भी अपने आसपास के लोगों की समस्याओं के निराकरण में हमेशा तत्पर रहता है। मैं पंडाल में पर्दे के पीछे पुराने कलाकारों से मिलने पहुंचा। एक ने मुझे टोका कि किससे मिलना है। मैने कहा पुराने चेहरों से। मैकअप से पुते हुए उस व्यक्ति ने कहा नाम बताओ। मेरे मुंह से छुटा प्रवीण। वह बोला मैं ही हूं। पहचाना नहीं क्या। प्रवाण नाम का यह व्यक्ति एक साप्ताहिक पत्र निकालता है। रामलीला में वह ब्रह्मा, विश्वमित्र व अन्य कई भूमिका निभा रहा था। उससे मिलकर मुझे काफी सुखद अनुभव हुआ।
रामलीला शुरू हो गई। दुख यह रहा कि दर्शक के नाम पर पूरा पंडाल खाली था। तीस के करीब बच्चे व इनके ही महिला व पुरुष रामलीला देखने पहुंचे। वहीं, कई साल पहले पंडाल में सबसे आगे जगह पाने के लिए लोग जल्दी घर से निकल जाते थे। पंडाल दर्शकों से खचाखच भरा रहता था। इसी तरह कलाकार भी कम ही नजर आए। एक कलाकार दो से तीन भूमिका निभा रहा था। ऐसे में बार-बार उसे ड्रैस बदलनी पड़ती। फिर भी एक उम्मीद नजर आती है कि जैसे भी हो, रामलीला जारी रहेगी। भले ही आज बुरा दौर चल रहा है, लेकिन पंडाल में भीड़ जरूर लौटेगी। रामलीला के संदेश हमेशा अमर रहेंगे। क्योंकि इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है।
भानु बंगवाल
समय बदला। टेलीविजन का दौर आया। कई स्थानों से रामलीला के पंडाल लुप्त हो गए। नए मोहल्लों व स्थानों पर रामलीला शुरू कराने का साहस किसी को नहीं हुआ। कुछएक रामलीला समितियां ही ऐसी बची हैं, जो इस पुरानी परंपरा को निभा रही हैं। कई ने समय के साथ ही रामलीला मंचन का ट्रैंड बदला। टी-20 क्रिकेट मैच की तरह फटाफट रामलीला का मंचन किया जाने लगा। ऐसे में सीडी चला दी जाती है। मंच पर कलाकार सिर्फ मुंह चलाते हैं। चार-पांच मंच बने होते हैं और नानस्टाप चलने वाली रामलीला में एक दिन का मंचन दो घंटे में ही निपट जाता है। लोगों के पास अब समय ही कहां बचा है कि रात के नौ बजे से एक बजे तक रामलीला को देखें। बच्चों का स्कूल रहता है। पढ़ाई का बोझ इतना होता है कि वे भी रामलीला से वंचित हो रहे हैं। फटाफट वाली रामलाली मैं तो कुछएक दर्शक जुट रहे हैं। लेकिन, पुरानी शैली वाली रामलीला में जिसमें कलाकार ही सब कुछ करता है, दर्शकों का टोटा पड़ गया है। फिर भी मुझे पुरानी शैली की रामलीला ही पसंद है। इसका कारण यह है कि नए युवाओं को अभिनय के प्रति आगे बढ़ाने मे रामलीला भी सहायक होती हैं। कलाकार का गला भी साफ व सुरीला होना चाहिए। वैसे रामलीला के संदेश सत्य की असत्य पर जीत के होते हैं। सही का साथ दो, गलत को गलत समझो। किसी का बुरा न करो। यही तो रामलीला सिखाती है। इस देश का दुर्भाग्य यह है कि आसूमल नाम के फ्राड जब प्रवचन करते हैं तो पंडालों में भीड़ जुट जाती है, लेकिन जब लोगों के बीच के कलाकार अभिनय के जरिये वही बात कहते हैं, तो उन्हें सुनने की किसी को फुर्सत नहीं।
मेरी कोशिश यह रहती है कि हर साल बच्चों को रामलीला जरूर दिखाऊं। जैसे सर्कस में शेर देखने को आज की पीड़ी तरस गई, वैसे रामलीला से भी वंचित न रहे। मेरे घर से करीब सात किलोमीटर दूरी पर मसूरी की तलहटी में बसे राजपुर कस्बे में इस साल भी रामलीला का मंचन चल रहा है। वहां रामलीला 64वें साल में पहुंच गई। मैने इस बार बच्चों को वहीं रामलाली दिखाने की ठानी। बड़ा बेटा दसवीं की तैयारी कर रहा है। हर रोज स्कूल में उसे टैस्ट देने पड़ रहे हैं। ऐसे में चाहते हुए भी उसने रामलाली जाने से मना कर दिया। मैं छोटे बेटे को लेकर राजपुर पहुंच गया। हालांकि अभी स्वैटर शुरू नहीं हुई, फिर भी राजपुर इतनी ऊंचाई में है कि मैने दस साल के बेटे को जैकेट साथ रखने को कहा। रामलीला शुरू हुई कुछ वही पुराने चेहरे नजर आए, जिन्हें मैं बचपन से देखता आ रहा था। हांलाकि उनके चरित्र बदल गए। जो पहले राम बनता था, उसे ज्यादा उम्र होने के कारण विश्वमित्र की भूमिका निभानी पड़ रही है। वाकई रामलीला के जरिये दूसरों की भलाई का संदेश देने वालों में यदि एक भी ऐसा काम करे तो रामलीला का औचित्य को सफल माना जा सकता है। हर साल की तरह इस बार भी संचालन कर रहे योगेश अग्रवाल से जब मैं मिला तो पता चला कि वह रक्तदान करते हैं। उनका रक्तदान का आंकड़ा 102 पर पहुंच गया। इसी तरह शिवदत्त नाम का एक कलाकार सामाजिक सेवा में भी अग्रणीय है। एक पत्रकार जो कलाकार भी है, वह भी अपने आसपास के लोगों की समस्याओं के निराकरण में हमेशा तत्पर रहता है। मैं पंडाल में पर्दे के पीछे पुराने कलाकारों से मिलने पहुंचा। एक ने मुझे टोका कि किससे मिलना है। मैने कहा पुराने चेहरों से। मैकअप से पुते हुए उस व्यक्ति ने कहा नाम बताओ। मेरे मुंह से छुटा प्रवीण। वह बोला मैं ही हूं। पहचाना नहीं क्या। प्रवाण नाम का यह व्यक्ति एक साप्ताहिक पत्र निकालता है। रामलीला में वह ब्रह्मा, विश्वमित्र व अन्य कई भूमिका निभा रहा था। उससे मिलकर मुझे काफी सुखद अनुभव हुआ।
रामलीला शुरू हो गई। दुख यह रहा कि दर्शक के नाम पर पूरा पंडाल खाली था। तीस के करीब बच्चे व इनके ही महिला व पुरुष रामलीला देखने पहुंचे। वहीं, कई साल पहले पंडाल में सबसे आगे जगह पाने के लिए लोग जल्दी घर से निकल जाते थे। पंडाल दर्शकों से खचाखच भरा रहता था। इसी तरह कलाकार भी कम ही नजर आए। एक कलाकार दो से तीन भूमिका निभा रहा था। ऐसे में बार-बार उसे ड्रैस बदलनी पड़ती। फिर भी एक उम्मीद नजर आती है कि जैसे भी हो, रामलीला जारी रहेगी। भले ही आज बुरा दौर चल रहा है, लेकिन पंडाल में भीड़ जरूर लौटेगी। रामलीला के संदेश हमेशा अमर रहेंगे। क्योंकि इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है।
भानु बंगवाल
सुखद व सार्थक सन्देश देता आलेख ..शुभ ..
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