Wednesday, 30 May 2012

शिक्षा के मंदिर या फिल्म के सेट.....

सभी माता-पिता का सपना होता है कि बच्चों को बेहतर शिक्षा देकर किसी लायक बनाया जाए, लेकिन शिक्षा के मंदिर के नाम पर यहां तो दुकानें खुली हैं।कौन सी दुकान ज्यादा अच्छी है इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।शिक्षा के ठेकेदारों ने शिक्षा के मंदिर को तो किसी फिल्म की शूटिंग के सेट के समान बना दिया है।लोगों को आकर्षित करने के लिए वे हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं।शिक्षा की दुकानों में फिल्म सेट की तरह मंच सजता है।लाइट होती है।एक्शन होता है और फिर लोगों को फांसने का ड्रामा होता है।फर्क सिर्फ इतना होता है कि इस सेट में ड्रामे के साथ कैमरा नहीं होता।
जब बच्चा बोलने व कुछ समझने की स्थिति में होता है तो माता पिता चाहते हैं कि स्कूल जाने की आदत डालने के लिए उसे किसी अच्छे प्ले स्कूल में उसे भेजा जाए।प्ले स्कूलों को भी फिल्म सेट की तरह सजाया जा रहा है।लोगों को आकर्षित करने के लिए उसमें तरह-तरह के खिलौनों की प्रदर्शनी की जाती है।एडमिशन के नाम पर भारी भरकम फीस अदा करने के बाद जब बच्चा स्कूल जाता है तो उसे किताबों के बोझ में दबा दिया जाता है।खिलौने कम होते जाते हैं और किताबें बढ़ती जाती हैं।यानी एक दो माह तक ही बच्चों को कुछ देर खिलौने से खेलने दिया जाता है।बाद मंे बच्चा होशियार है कहकर उसे प्रमोट कर दिया जाता है।साथ ही नई क्लास का खर्च भी अभिभावकों से वसूला जाता है।बच्चा होशियर है समझकर अभिभावक भी खुश हो जाते हैं, वहीं ठगी मंे सफलता मिलने पर शिक्षा के दुकानदार भी खुश हो जाते हैं। 
किसी तरह इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर जब युवा अपने करियर के लिए किसी अच्छे शिक्षण संस्थान की तलाश करते हैं तो वहां भी फिल्म सेट की तरह पूरा आडंबर रचा जाता है।देहरादून में ऐसे शिक्षण संस्थानों की भरमार है, जो युवाओं के सपने बेचते हैं।कोई एयर होस्टेज बनाने का सपना बेच रहा है, तो कोई हवाई जहाज उड़ाने का।कोई हवाई कंपनी में इंजीनियर बनाने का सपना बेच रहा है, तो कोई पैरामेडिकल संस्थान के नाम पर सपने बेच रहा है। ऐसे संस्थानों में दिखाने के लिए हवाई जहाज का मॉडल तक रखे जाते हैं।जब एडमिशन का दौर चलता है तो संस्थानों को विशेष रूप से सजाया जाता है।बड़े-बड़े स्क्रीन किराए पर लिए जाते हैं। उसमें फिल्म दिखाई जाती है।फिल्म देखकर हरकोई समझेगा कि संस्थान में जाकर उसके बच्चे का भविष्य निश्चत रूप से संवरेगा, लेकिन हकीकत कुछ और होती है।
ऐसे संस्थान जब मान्यता के लिए किसी विश्वविद्यालय में अप्लाई करते हैं तो वहां भी ड्रामा रचा जाता है।जिस विषय की मान्यता के लिए निरीक्षण होता है, उस विषय की लैब, फैकल्टी आदि सभी कुछ फर्जी तरीके से तैयार की जाती है।यानी फैकल्टी में पूरी संख्या दिखाई जाती है।लैब का सामान किराए पर लेकर एक हॉल को लैब के रूप में  सजाया जाता है।निरीक्षण पूरा होने और मान्यता मिलने के बाद वही लैब दूसरे कोर्स की मान्यता के लिए सजा दी जाती है। फैकल्टी भी वही होती है।
फैकल्टी भी शोषण का ही शिकार होती है।कागजों में यदि किसी को बीस हजार रुपये दिए जाते हैं तो हकीकत में उसे भुगतान दस हजार का ही होता है।इतनी सफाई से यह काम होता है कि कोई इसे पकड़ नहीं पाता है।भुगतान के रूप में फैकल्टी के बैंक एकाउंट में बीस हजार रूपये जाते हैं।बाद मंे फैकल्टी को दस हजार रुपये संस्थान में वापस करने पड़ते हैं।यदि वापस नहीं किए तो उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
हवाई कंपनियों में एयर होस्टेज व स्टूअर्ड आिद के लिए सपने दिखाने वाली शिक्षण संस्थाओं की भी दून में भरमार है।यहां ऐसे चेहरोंे को भी एडमिशन दे दिया जाता है, जो शायद ही किसी हवाई कंपनी में सलेक्ट हों।क्योंकि हवाई कंपनियों में सलेक्शन का सीधा फंडा चेहरा, मोहरा, शारीरिक बनावट आदि है।वहां न तो पहले से किसी प्रशिक्षण को वरियता दी जाती है और न ही किसी प्रशिक्षण संस्थान को। कंपनी तो अपना प्रशिक्षण देती है।इसके बावजूद पांच फीट पांच ईंच तक के युवाओं को भी शिक्षा की दुकान में एडिशन दे दिया जाता है।चेहरे में आकर्षण न हो, लेकिन इन दुकानों में उसे भी सपने दिखाए जाते हैं।
यह बॉत मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं।मेरा बड़ा भांजा हवाई कंपनी के लिए लगातार ट्राई कर रहा था।उसने पहले कहीं से कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था।भांजे को हर बार कंपनी के लोग शुरूआती इंटरव्यू में चेहरे को ठीक करने को कह देते।उसके चेहरे में अक्सर दाने हो जाते हैं।ऐसे में वह हर बार इंटरव्यू में रह जाता था।उसकी देखादेखी छोटे भांजे ने भी अप्लाई किया।कद काठी उसकी भी ठीक थी। चेहरे से वह चॉकलेटी था।काफी चिकना।बस क्या था पहली बार में ही वह सलेक्ट हो गया और एक साल से हवाई कंपनी में  नौकरी कर रहा है।वह तो किसी दुकान में प्रशिक्षण लेने भी नहीं गया था। सिर्फ सामान्य ज्ञान, कद-काठी व चेहरे के बल पर वह इंटरव्यू में सलेक्ट हो गया।
भानु बंगवाल

Monday, 28 May 2012

यहां तो बस नाम चलता है......

सच ही कहा जाए किसी भी फील्ड में कितनी भी महारथ हासिल कर लो, लेकिन आपका नाम नहीं, तो कोई फायदा नहीं।यदि नाम है तो आपके नाम से कचरा भी बाजार मंे बिक जाएगा।नाम नहीं तो कितने भी पत्थर को तराशकर हीरा बना लो, लेकिन उसकी चमक की तरफ कोई निगाह नहीं डालेगा।लेखन के क्षेत्र में यह कुछ ज्यादा ही है।नाम के साथ ही चलती है भेड़ चाल।जिसका नाम बिक रहा होता है, तो उसकी हर रचना को पढ़ने वाले की भी भीड़ होती है। भले ही उसकी कही बात कहीं से चुराई गई हो।या फिर किसी दूसरे की रचना को तोड़मरोड़कर लिखा गया हो।नाम है तो तो उसका लिखा सब कुछ बिकता है।
पिछले कुछ दिन पहले तक आइपीएल का बुखार पूरे देश भर में चल रहा था।क्रिकेट ही ऐसा खेल है, जब कभी होता है तो लोग अपना कामधाम तक छोड़ देते हैं।किक्रेट मैच के दौरान कई बार लिखते हुए मुझे भी डर लगता है।इसका कारण यह है कि मैं तो पूरी मेहनत से लिखूंगा, लेकिन पढ़ने वालों को तो क्रिकेट से फुर्सत नहीं रहेगी।ऐसे में लिखी जाने वाली बात तो बेकार हो जाएगी।फिर भी लिखने की आदत छुटती नहीं है और किक्रेट मैच के दौरान ना चाहकर भी लिखने को मजबूर होता रहा हूं।
लिखने वाले भी कमाल के हैं। एक नामी व्यक्ति के अलग-अलग लेख, रचनाएं अलग-अलग पत्रिका में एक ही दिन छप जाते हैं।वे कितना मनन करते हैं। कितना सोचते हैं और सोच को कितना शब्दों मंे उतार देते हैं।पहले तक यह रहस्य मैं नहीं जान सका था।क्या एक व्यक्ति की इतनी क्षमता हो सकती है कि वह एक ही दिन में कई सारी बातों पर लिखता चला जाता है।ऐसे लोग लिख भी रहे हैं और पढ़े भी जा रहे हैं।जो जितना बढ़ा नामी होता है, जिसका लिखा जितना महंगा बिकता है, वह उतना ही ज्यादा लिखता है।कई साल पहले मैने कई मुद्दों पर फीचर लिखे।वे कितने पढ़े गए, मुझे पता नहीं। हां इतना जरूर है कि उनकी नकल करके कई वाहवाही लूट चुके हैं।नकल करने वालो की िहम्मत भी लाजवाब है।वे तो एक-एक अक्षर तक की नकल कर देते हैं।इसमें न उन्हें शर्म आती है और न ही कोई संकोच होता है।उल्टा यह कहते हैं फिरते हैं िक उसने इतना बेहतर लिखा, जो पहले किसी ने नहीं लिखा।
रही बात लिखने की।यह शौक किसे कब आता है, यह भी पता नहीं चलता।धीरे-धीरे शौक आदत बन जाती है।मेरे एक मित्र का विवाह कुछ माह पूर्व ही हुआ।मित्र किसी कंपनी में नौकरी करते हैं।सोशल साइट फेसबुक में वह हमेशा अफडेट रहते हैं।उनकी पत्नी सीधी-साधी घरेलू महिला है।मित्र की पत्नी को बचपन से ही लिखने का शौक था।वह शेर, नज्म, गजल, बंदिश आदि डायरी में लिखती थी।उसके पिता पुराने विचारों के थे।वह बेटी के लिखने से चिढ़ते थे।उसे लिखते देखकर वह डायरी फाड़ देते थे।उनके डर से बेटी पिता की नजर बचाकर ही लिखा करती।शादी हुई, तो ससुराल में ऐसा माहौल मिला कि किसी ने उसे लिखने पर टोका नहीं।उल्टे सभी ने प्रोत्साहन किया।फिर क्या था, मित्र की पत्नी ने कई डायरियां कविता, शेर, नज्म आदि से भर दी।एक दिन उनके किसी परिचित को उसके लिखने का पता चला।इस पर उसने सलाह दी कि वह अपनी रचनाओं को उसे बेच दे।उसने मित्र की पत्नी की लिखी एक डायरी की कीमत पांच हजार रुपये लगाई।मित्र की पत्नी ने पूछा कि उसका लिखा उसके नाम से प्रकाशित होगा, तो परिचित ने कहा कि यह वह भूल जाए कि रचना किसके नाम से छपेगी।उसके नाम से छपेगी तो कोई पढ़ेगा नहीं।क्योंकि उसका नाम कोई नहीं जानता। बाजार में तो सिर्फ नाम चलता है और बिकता है।तुम सिर्फ लिखो और बेचते जाओ।मित्र की पत्नी को फिर भी यह सौदा अच्छा लगा।जिससे परिवार का खर्च आसान हो रहा था।घर बैठे ही वह लिखती है और महीने में दो डायरी आसानी से भर देती है।साथ ही घर के चूल्हे, चोका-बर्तन आदि सभी काम भी संभाल रही है।वह लिख रही है और कीमत अदा हो रही है।साथ ही उसके लेखन पर नाम किसी नामी का छप रहा है और बिक रहा है।नामी को पढ़ने को दुनियां पागल हो रही है।उसकी एक साथ कई रचनाएं अलग-अलग पत्रिकाओं में छप रही हैं।अब तो मुझे भी ऐसे ही किसी फाइनेंसर की तलाश है, जो मुझसे कहे कि तुम अपना लिखा हमें बेचते रहो.........  ।
भानु बंगवाल

Friday, 25 May 2012

सब कुछ नकली, तो असली क्या

महंगाई लगातार बढ़ रही है।पेट्रोल, सब्जी, राशन-पानी के दाम लगातार बढ़ रहै हैं।अब तो दाम बढ़ना सामान्य बात सी लगने लगी है।करीब बीस साल पहले जब समाचार पत्रों में आतंकवादी वारदात या हत्या आदि के समाचार पहले पेज में छपते थे, तो उस पर लोग भी चर्चा करते थे।बाद में यह बात सामान्य होने लगी।ठीक उसी तरह महंगाई बढ़ना भी अब सामान्य बात होने लगी है। महंगाई तो बढ़ रही है।साथ ही अब असली व नकली के बीच भेद करना भी मुश्किल हो गया है।महंगा सामान खरीदा और पता चला कि नकली है।सच तो यह है कि मिलावटी का जमाना आ गया है।हर चीज में मिलावट है।फिर किसे इस्तेमाल करें या किसे न करें, यह सवाल हर जनमानस के मन में उठता है।
सुबह उठने के बाद जब व्यक्ति स्नान आदि से निवृत होने के बाद नाश्ते की तैयारी करता है।नाश्ते में दूध लो, लेकिन क्या पता वह भी असली नहीं हो।सिंथेटिक दूध का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। चेकिंग के नाम पर सरकारी महकमा छोटे विक्रेताओं पर ही शिकंजा कसता है।बड़ी कंपनियों व बड़े कारोबारियों के डिब्बा बंद व पैकेट की शायद ही कभी जांच की जाती हो। यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि अधिकांश लोग पैकेट की चीजों के इस्तेमाल पर िवश्वास करते हैं।मेरे एक सहयोगी ने बताया कि एक दिन रात के समय उसके हाथ से दूध का पैकेज गिर गया।थैली फट गई।उसने सोचा की सुबह फर्श की सफाई करेगा।सुबह उठने के बाद जब सफाई की तो वह दूध के दाग नहीं छुटा पाया।कई महीने तक दूध के दाग साफ नहीं हो सके।ऐसे दूध को असली कहेंगे या फिर कुछ और।
अच्छी सेहत के हरी सब्जी खाने को डॉक्टर कहते हैं।अब सब्जी के चटक हरे व दमकते रंग भी धोखा हो सकते हैं।सब्जी ताजी दिखाने के लिए परमल, करेला, खीरा, पालक, मटर के दाने आदि में कृत्रिम रंग मैलेचाइड ग्रीन को मिलाया जाता है।इसके घोल में डालने से सब्जी ताजी नजर आती हैं।ऐसी सब्जी को खाने से पेट दर्द, लीवर की खराबी, ट्यूमर, कैंसर जैसे खतरनाक रोग हो सकते हैं।अब दूध भी नकली, सब्जी भी नकली।तो खाओगे क्या।डॉक्टर कहते हैं कि ताजे फल खाओ और सेहत बनाओ।रही बात फलों की।उन्हें पकाने का तरीका भी तो नकली है।पेड़ में पकने की बजाय कच्चे फल तोड़कर उन्हें जल्द पकाने के लिए कैिल्शयम कार्बाइड का प्रयोग किया जाता है।खरबूजा, तरबूज, आम, आड़ू, अंगूर आदि इसी से पकाए जा रहे हैं।ऐसे फल खाकर बीमारी को न्योता देना है। तरबूज का लाल रंग भी धोखा हो सकता है।भीतर से सूर्ख लाल दिखने के लिए इसमें रोडामीन बी का इंजेक्शन दिया जाता है।इसे खाना भी बीमारी का न्योता देना है।केला बाहर से सही नजर आता है।छिलका उतारने पर भीतर गला होता है।
नकली फल, सब्जी खाने से बीमार हुए तो डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा।कई डॉक्टर साहब भी नकली हैं।नकली डिग्री लेकर गांव-गांव व कस्बों में उनकी दुकान मिल जाएगी।वे दवा लिखेंगे और हम कैमिस्ट की दुकान पर जाएंगे।क्या गारंटी है कि दवा भी असली हो।वैसे तो फल, दूध, सब्जी की जांच के तरीके भी हैं, लेकिन किसके पास इतना समय है कि सब्जी लाने के बाद उसके एक टुकड़े पर स्प्रीट से भीगी रुईं रगड़े।ऐसा करने पर मिलावटी रंग रुईँ पर लग जाएगा।इसी तरह चायपत्ती व अन्य सामान की भी जांच की जा सकती है।यहां जांच के तरीके बताउंगा तो यह ब्लाग काफी बढ़ा हो जाएगा।पर सच यह है कि जांच करोगे तो कुछ भी खाने लायक नहीं रहोगे।खाने के बाद बात रही पीने की।पानी भी अब शुद्ध नहीं रह गया है।पतित पावनी गंगा का पानी भी प्रदूषित है।इसे भी मैला करने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी।
दूध मिलावटी, पानी प्रदूषित, सब्जी का रंग नकली, दही मिलावटी, पनीर मिलावटी, दाल में पॉलिश, जूस मिलावटी सभी कुछ तो नकली है।फिर असली क्या बचा है।इंसानी रिश्ते।यह भी मिलावटी हो सकते हैं और बनावटी भी।तभी तो अपने असली पिता का पता लगाने के लिए रोहित शेखर नाम के व्यक्ति ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के खिलाफ न्यायालय की शरण ली है।सच्चाई का पता लगाने के लिए उन्हें डीएनए टैस्ट के लिए कहा जा रहा है।     
 भानु बंगवाल

Wednesday, 23 May 2012

संतोषी माताः आडंबर व छलावा

बात करीब पैंतीस साल से अधिक पुरानी है।बचपन की मुझे याद है तब सिनेमा हॉल में जय मां संतोषी पिक्चर लगी।तब देहरादून में टेलीविजन नहीं होते थे।टेलीफोन भी सरकारी अॉफिस व सेठ लोगों तक ही सीमित थे।इस धार्मिक फिल्म का प्रभाव हर वर्ग के लोगों पर पड़ा।पहले तो गांव-गांव व मोहल्लों की महिलाओं के जत्थे इस फिल्म को देखने सिनेमा हॉल तक पहुंचने लगे।फिर शुरू हुआ संतोषी माता की पूजा का दौर।महिलाएं संतोषी माता की पूजा के लिए शुक्रवार का उपवास रखने लगी।पांच, सात या सोलह उपवास के बाद उद्यापन किया जाने लगा।उपवास समाप्ति पर ब्राह्रामण परिवार के बच्चों को जिमने के लिए घर-घर बुलाया जाने लगा।मैं छोटा था।मुझे भी करीब हर शुक्रवार को किसी न किसी घर से उद्यापन में जिमने को बुलाया जाता।तब दक्षिणा भी दस पैसे मिलती थी, जो उस समय के िहसाब से मेरे लिए काफी थी।अच्छे पकवान व दक्षिणा की लालच में हर शुक्रवार का मुझे भी बेसब्री से इंतजार रहता था।
इस फिल्म ने लोगों में आध्यात्म की भावना को जाग्रत तो किया ही।साथ ही देशवासियों पर एक उपकार भी किया।वह यह था कि सप्ताह मंे एक दिन महिलाओं का भूखे रहने से राशन की बचत भी हो रही थी।साथ ही भूखे रहने की आदत से व्यक्ति का आत्मबल बढ़ता है और शारीरिक व मानसिक दृष्टि से भी व्यक्ति मजबूत होने लगता है।विपरीत परिस्थितियों से निपटने के लिए मानसिक व शारीरिक मजबूती भी जरूरी है।इसीलिए लाल बहादुर शास्त्री जी ने भी देशवासियों से सप्ताह में एक दिन भूखे रहने की अपील की थी।यदि पूरे देश की एक फीसदी आबादी भी हर सप्ताह उपवास रखे तो इसका परिणाम सार्थक निकलेगा।काफी राशन की बचत होगी, जो देश की तरक्की के लिए शुभ संकेत होगा।
संतोषी माता की पूजा, उपवास तक तो बात ठीक थी, लेकिन धर्म की आड़ में भोले-भाले लोगों को फंसाकर अपनी दुकान चलाने वाले लोग भी उन दिनों सक्रिय हो गए।यहां मेरा मकसद किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं है।मैं तो धर्म के नाम पर अपनी झोली भरने वालों व दूसरों को ठगने वालों का चेहरा उजागर करना चाहता हूं।देहरादून में राजपुर रोड पर दृष्टिबाधितार्थ संस्थान है।इसी से सटा हुआ है राष्ट्रपति आशियाना।राष्ट्रपति आशियाना में राष्ट्रपति के अंगरक्षक रहते हैं।जिनकी पोस्टिंग देहरादून में समय-समय पर दिल्ली राष्ट्रपति भवन से देहरादून के लिए होती है।प्रेजीडेंट्स बाडीगार्ड के नाम से ही आसपास के मोहल्ले का नाम बाडीगार्ड पड़ गया।उच्चारण बिगड़ा और बाद मंे इस मोहल्ले को बारीघाट के नाम से जाना जाने लगा।
संतोषी माता हरएक के दिलों दिमाग में छाने लगी।इसी बीच दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में कार्यरत एक चौकीदार के घर में उनके गांव से एक महिला और उसका भाई आया।चौकीदार दंपती की मेहमान महिला ने खुद को संतोषी माता के नाम से प्रचारित करना शुरू कर िदया।देखते ही देखते यह चर्चा चारों ओर फैलने लगी।पहले चौकीदार के घर में ही महिला ने आसन सजाया।छोटे-मोटे चमत्कार दिखाए।फिर आसन को घर से आसन को उठाकर एक पंडाल के नीचे ले गई।घर के आगे छोटे के मैदान में पंडाल सजाकर शाम के समय से भजन व कीर्तन के कार्यक्रम आयोजित होने लगे।मोहल्ले के लोग पंडाल में भरपूर रोशनी के लिए पेट्रोमैक्स तक घरों से लाने लगे। संतोषी माता का रूप धरकर महिला मंच पर बैठती।लाल साड़ी, हाथ में त्रिशूल, सिर पर मुकुट आदि सभी कुछ उसके श्रृंगार में शामिल थे।रात को कीर्तन होता।इसमें पुरुष कम और मोहल्ले की महिलाओं व बच्चों की भीड़ ज्यादा रहती।दिनोंदिन भीड़ बढ़ने लगी और महिलाएं घर का करना भले ही भूल जाए, लेकिन संतोषी माता के दरबार जाना नहीं भूलती।अब महिलाएं चढ़ावे के नाम पर घर राशन भी दरबार में लुटाने लगी।लोगों के घर राशन कम होता जा रहा था, संतोषी माता व चौकीदार दंपत्ती का घर भरता जा रहा था।
उन दिनों दून में गैंगवार चल रही थी।भरतू व बारू गैंग के लोग एक-दूसरे के दुश्मन थे।अक्सर कहीं न कहीं दोनों गिरोह के सदस्य जब भी आमने-सामने होते तो गोलियां चल जाती और किसी गुट का कोई न कोई सदस्य जरूर मारा जाता था।इसी गिरोह का एक सदस्य बारीघाट रहता था।रामेश्वर नाम के इस व्यक्ति को मोहल्ले के लोग दाई करकर पुकारते।मोहल्ले के लोगों से उसका व्यवहार भी काफी अच्छा था।इस पर उसकी बात सभी मानते और उसकी इज्जत भी करते थे।
रामेश्वर का अक्सर समय या तो पुलिस से छिपने में बीतता या फिर जेल में।उसकी पत्नी गाय व भैंस पालकर बच्चों की परवरिश करती।संतोषी माता का प्रभाव रामेश्वर की पत्नी पर भी पड़ा।वह भी हर शाम दरबार में जाने लगी।शाम को गाय का दूध निकालने का समय भी नियमित नहीं रहा।ऐसे में जब गाय का बछड़ा जब हर रोज दूध के लिए चिल्लाने लगा तो गाय भी बिगड़ गई।उसने दूध देना बंद कर दिया।रामेश्वर को जब इसका पता लगा कि मोहल्ले के लोग घर का कामकाज छोड़़कर कथित संतोषी माता के फेर में पड़ गए हैं।साथ ही घर का राशन तक लुटाने लगे हैं।ऐसे में उसने पहले तो अपनी पत्नी को दरबार में न जाने ही चेतावनी दी।साथ ही एक दिन दरबार में पहुंचकर संतोषी माता व उसके भाई की पिटाई कर दी।पूरा पंडाल तहस-नहस कर दिया।फिर इसके बाद वहां कभी संतोषी माता का दरबार नहीं लगा।जब संतोषी माता भाग गई, तभी कई लोगों को पाखंडी महिला के चक्कर में खुद के लुटने का अहसास हुआ।इस घटना के बाद से लोग फिर से अपने कामकाज में जुट गए।घरों में संतोषी माता की पूजा की जाती रही। उपवास होते रहे, लेकिन अंतर यह आया कि पाखंड व छलावे के फेर में पडकर लोगों ने किसी पाखंडियों की पूजा नहीं की।
भानु बंगवाल

Monday, 21 May 2012

ऐसा भी होता है.....

धर्म व नैतिक शिक्षा देने वाले हमेशा काम, क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष आिद को इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं।वे सदा सदकर्म की राह पर चलने का संदेश देते हैं, लेकिन व्यवहारिक जिंदगी इसके ठीक उलट ही होती है।कई बार मनुष्य न चाहकर भी क्रोध, लोभ, द्वेष आदि के फेर में पड़ जाता है।मैने तो धर्म का उपदेश देने वालों को भी कई बार क्रोध में देखा है।एक बार करीब वर्ष 94 में ऋषिकेश में प्रवचन के दौरान आसाराम बापू का माइक खराब हो गया। इस पर वह सेवादारों पर भड़क गए, जबकि हर दिन वह क्रोध पर नियंत्रण की बात अपने प्रवचन पर कहते आ रहे थे।उस दिन जाने-अनजाने में उन्हें भी गुस्सा आ गया।
रही बात आम व्यक्ति की।वह तो होश संभालने के बाद से ही मेरा व तेरा के फेर मे पड़ जाता है।सभी बेशुमार दौलत कमाने की तमन्ना रखते हैं।उसके लिए हर संभव प्रयास करते हैं।यह प्रयास किसी-किसी का ही रंग लाता है।इसके बावजूद दौलत की भूख मिटती नहीं है।यह तो मानव प्रवृति है कि जितनी इच्छा की पूर्ति होती है, उतनी भूख बढ़ती जाती है।ऐसे ही थे एक पंडित जी।जो देहरादून में रायपुर क्षेत्र में रहते थे।उनके पास जमीन-जायदाद की कमी नहीं थी। या यूं कह लो कि कंजूसी करके पाई-पाई जुटाकर उन्होंने लाखों की संपत्ति अर्जित की।साठ पार करने के बावजूद भी वह पंडिताई में अच्छा कमा लेते थे।उनके चार बेटे व तीन बेटियां थी।सभी का विवाह हो चुका था और वे खुशहाल थे।
पंडितजी साइकिल से चलते थे।जब साइकिल मंे पंचर होता तो दुकान में नहीं जाते और खुद ही घर में पंचर लगाते।बार-बार पंचर होने पर जब वह परेशान हो गए, तो खर्च बचाने के लिए उन्होंने एक टोटका निकाला।सेळू (एक पेड़ की छाल, जिससे रेशे से रस्सी बनती है) के रेशे को साइकिल के रिम व टायर के बीच ट्यूब के स्थान पर भर दिया।फिर हो गई ट्यूबलैस साइकिल तैयार।सचमुच कंजूसी ने पंडितजी को प्रयोगवादी बना दिया।अब न तो साइकिल पंचर होने का डर था और न ही बार-बार खर्च करने का भय।जिंदगी खूब मजे में कट रही थी।बेशुमार दौलत तिजौरी में बढ़ती जा रही थी।
करीब पांच साल पहले की बात है।पंडितजी बीमार पड़ गए।उन्हें अपने बचने की आस नजर नहीं आई।ऐसे में पंडितजी ने सोचा कि आखिर यह दौलत किस काम की।क्यों वह दौलत के पीछे भागते रहे।अब उनका इस दुनियां से जाने का समय आ गया।दौलत तो यहीं रह जाएगी।अपना मन मारकर दौलत कमाई और उनके जाने के बाद यह दौलत दूसरों का मजा करेगी।पंडितजी ने अपने सभी बच्चों को बुलाया और उनके बीच संपत्ति का बंटवारा कर दिया।सभी को खेत, मकान व नकदी में हिस्सा दिया।फिर अपने जीवन की अंतिम घड़ियां गिनने लगे।एक-एक करके कई दिन गुजर गए।फिर महीने।पंडितजी को कुछ नहीं हुआ और  वह भले चंगे हो गए।दौलत बांटी और खुद खाली हुए तो सेहत भी अच्छी हो गई।ठीक होने पर उनके भीतर लोभ जाग्रत हुआ।उन्हें पछतावा होने लगा कि उन्होंन जीते जी अपनी दौलत लुटा दी।बच्चे मौज कर रहे हैं और वह पैसों को तरस रहे।इस पर पंडितजी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया।दौबारा से दौलत जुटाने की हिम्मत उनके पास नहीं थी।ऐसे में पंडितजी पागलों जैसी हरकत करने लगे।कभी जंगलों में भाग जाते और घरवाले उन्हें तलाशने में जुटे रहते।
पंडितजी के व्यवहार में हुए बदलाव का कारण तलाशने का उनके बच्चों में प्रयास किया।पता चला कि वह तो संपत्ति बांट कर खुद को लुटा महसूस कर रहे हैं।बच्चों के आगे उन्होंने यह उजागर नहीं किया, लेकिन सच्चाई यही थी।इस पर उनके बेटों व बेटियों ने आपस में धनराशि एकत्र कर पंडितजी को दी।यह राशि उतनी नहीं थी, जितनी वह पहले बच्चों को बांट चुके थे, लेकिन फिर भी इतनी थी कि पंडितजी के दिन आराम से कट सकते थे।इसके बाद पंडितजी लगभग पांच साल तक जिंदा रहे।हाल ही में उनकी मौत हुई।इस बार मौत से पहले मरने का अहसास होने पर भी उन्होंने अपनी जमा पूंजी का बंटवारा नहीं किया। उनकी मौत के बाद ही बच्चों ने आपस में पंडितजी की दौबारा जमा की गई राशि का बंटवारा किया।
भानु बंगवाल
 
  

Saturday, 19 May 2012

आतंक....(सच्ची घटना पर आधारित कहानी)

वर्ष 96 में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पुण्य तिथि को आतंकवादी विरोधी दिवस व सदभावना दिवस के रूप में मनाने का सरकारी कार्यालयों में एक आदेश आया।देहरादून के सभी केंद्र सरकार के संस्थानों में भी इस आदेश के अनुरूप तैयारी की जाने लगी।राजपुर रोड स्थित एक संस्थान के निदेशक ने टीके को इस कार्यक्रम के आयोजित करने की जिम्मेदारी सौंपते हुए उन्हें इसका संयोजक बना दिया।संस्थान के एक अनुभाग के फोरमैन टीके ने सहर्ष जिम्मेदारी लेते हुए निदेशक से यह वादा भी किया कि वह ऐसे अंदाज मे इस दिवस को मनाएंगे कि देखने वाले देखते रह जाएंगे।
कद पांच फुट।पहनावे में सूट-कोट।मोटी आवाज।ज्यादा बोलने की आदत।कुछ इस तरह के गुण थे टीके के।टीके ने तय किया कि आतंकवादी विरोधी दिवस के दिन संस्थान परिसर में जुलूस निकाला जाएगा।इसके लिए वह पूरी मेहनत से तैयारी में जुट गए।संस्थान के हर अनुभाग में जाते और नारे से लिखी पर्ची कर्मचारियों को थमाते।उनसे कहते कि नारे ठीक से याद कर लेना।दृष्टिहीन कर्मचारियों को ब्रेल लिपी में नारे लिखकर दिए गए।नारों से लिखे बैनर व तख्तियां खुद टीके ने अपने घर में ही तैयार किए।इस काम में उनकी मदद पत्नी व बच्चों ने भी की।
टीके जिस संस्थान में काम करते थे, वहां कोई मजदूर यूनियन कभी गठित नहीं हो पाई।मैनेजमैंट का कर्मियों पर हमेशा खौफ रहता था।हरएक ही लोकतांत्रिक तरीके से उठाई गई आवाज को दबा दिया जाता।इस काम में टीके जैसे लोग भी खुफिया तंत्र की भूमिका निभाते थे।हर कर्मचारी की रिपोर्ट ऊपर तक भेजते थे।ऐसे में कर्मचारियों के बीच टीके का आतंक बना रहता था।नारे कैसे लगते हैं।जुलूस कैसे निकलता है।इन सब बातों से संस्थान के कर्मचारी अनभिज्ञ थे। टीके को भी यह भय था कि कहीं जुलूस में कर्मचारी कुछ गड़बड़ न कर दें।फिर भी वह दस दिन पहले से ही जुलूस की तैयारी में जुटे थे।
आखिरकार वह दिन आ ही गया।21 मई की भरी दुपहरी को संस्थान परिसर मंे जुलूस निकाला गया।सबसे आगे महिलाओं को रखा गया।साथ ही टीके ने व्यवस्था की कि जुलूस में शामिल लोग दो की पंक्ति मंे रहेंगे।इससे जुलूस लंबा नजर आएगा।कर्मचारियों ने पहले कभी नारे नहीं लगाए थे।ऐसे मे वे नारे लगाते झेंप रहे थे।टीके उन्हें जोश में नारे लगाने की हिदायत दे रहे थे।कर्मचारियों के गले कम्युनिष्टों की भांति साफ नहीं लग रहे थे।ऐसे में कार्मिकों की आवाज में जोश की बजाय खानापूर्ति नजर आ रही थी।संस्थान परिसर का चक्कर काटने के बाद टीके की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।इसका कारण यह था कि निमंत्रण के बावजूद प्रेस रिपोर्टर व छायाकार समय पर नहीं आए।उनके आने से पहले वह जुलूस समाप्त करना नहीं चाहते थे।ऐसे में जुलूस को संस्थान परिसर से आगे बढ़ाकर मुख्य मार्ग राजपुर रोड पर ले गए।कर्मचारी गर्मी से बेहाल थे।वे जुलूस को समाप्त करने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन टीके तो जुलूस को आगे ही बढ़ाए जा रहे थे।कभी वह जुलूस में शामिल महिलाओं को निर्दश देते हुए सबसे आगे पहुंचते, तो कभी पीछे के लोगों में उत्साह भरने उनके पास पहुंच जाते।
मुख्य मार्ग पर ट्रैफिक भी था।ऐसे में कर्मचारी संभलकर चल रहे थे।टीके सबसे पीछे चल रहे कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाने के लिए उनके पास पहुंचे।तभी उनकी नजर सामने एक पेड़ पर पड़ती है।पेड की डाल पर चढ़कर एक प्रेस छायाकार जुलूस की फोटो खींच रहा था।टीके सबसे पीछे थे, ऐसे में वह फोटो में खुद को शामिल करने के लिए जल्द ही सबसे आगे पहुंचना चाहते थे।वह फोटोग्राफर की तरफ इशारा करते हुए जोर से चिल्लाए--ठहरो।इसके साथ ही उन्होंने आगे पहुंचने के लिए सड़क पर दौड़ लगा दी और तभी......
सड़क के बीच गोल दायरे में कर्मचारियों की भीड़ लगी थी।बीच में टीके बेहोश पड़े थे।अब नारों से लिखी तख्तियों से महिलाएं टीके साहब को हवा कर रही थीं।पानी की छींटे टीके के मुंह पर डाले जा रहे थे।राह चलते लोगों की भी मौके पर भीड़ जमा होने लगी।एक व्यक्ति ने एक कर्मचारी से पूछा कि क्या हुआ।इस पर कर्मचारी ने बताया कि टीके को एक मोटर साइकिल सवार ने सामने से टक्कर मार दी और वह बेहोश हो गए।राहगीर ने पूछा कि मोटर साइकिल सवार का क्या हुआ।जवाब मिला उसके भी चोट लगी है।पैर की हड्डी टूट गई है।टीके के होश में आने के बाद उससे भी निपटा जाएगा।सभी टीके को होश में लाने में जुटे थे।बेचारा मोटर साइकिल सवार को पूछने वाला कोई नहीं था।वह सड़क के किनारे जमीन पर बैठा दर्द से कराह रहा था।साथ ही आतंक विरोधी दिवस मनाने वालों के आतंक से थर-थर कांप रहा था।

भानु बंगवाल  
  

Thursday, 17 May 2012

बड़े धोखे हैं इस कुर्सी की राह में.....

बचपन में सबसे आसान खेल मुझे कुर्सी दौड का खेेल लगता था।इस खेल में गोलाई पर कई कुर्सियां लगी होती थी।उसके चारों तरफ दौड़ना पड़ता था।संगीत की धुन बजती रहती थी।गाना बंद होते ही कुर्सी कब्जानी पड़ती थी। धीरे-धीरे कुर्सी की संख्या घटती और खेल रोचक होता चला जाता। बाद में एक कुर्सी पर एख ही काबिज रहता।यह तो था खेल।हकीकत भी इससे कुछ अलग नहीं है।आज देखता हूं कि कुर्सी के लिए हरएक दौड़ रहा है।व्यक्ति के जीवन में यह खेल हमेशा जारी रहता है।
बचपन में स्कूल के बच्चों में सबसे आगे की कुर्सी कब्जाने की होड़ रहती है।बड़े होकर वे जब कंप्टीशन देते हैं तो हजारों की भीड़ में कुछ के हाथ ही कुर्सी आती है।बाकी फिर दौड़ में शामिल होकर कुर्सी पाने की जुगत में लगे रहेते हैं।ये कुर्सी भी किसी एक की होकर नहीं रहती है। जो खेल मुझे सबसे आसान नजर आता  था, वही  आज सबसे मुश्किल खेल लगता है। नेताजी कुर्सी के लिए पूरे पांच साल मेहनत करते हैं।फिर चुनाव होता है।जीत गए तो कुर्सी मिल गई और हारे तो फिर से कुर्सी पाने की जुगत में लग जाते हैं। फिर से उन्हें पूरे पांच साल की मेहनत करनी पड़ती है।कई बार तो नेताजी लंबे समय तक कुर्सी पर काबिज रहते हैं। आखिरी बार चुनाव लड़ने पर कुर्सी ही धोखा दे जाती है।
ये कुर्सी भी ऐसी जालिम है, जो हरएक चरित्र के लोगों की गवाह होती है। नेताजी की कुर्सी, ईमानदार अफसर की कुर्सी, भ्रष्टाचारी की कुर्सी, मेहनती व्यक्ति की कुर्सी, कामचोर की कुर्सी, लापरवाह की कुर्सी आदि।कुर्सी के मोह में सभी फंसे पड़े हैं।उसे बचाने के लिए तो कुछ टोटके भी करते हैं। बसपा की जनसभाओं में मायावती की कुर्सी भी अलग रखी होती है। बस में कंडक्टर भी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ता।सवारी के बीच जाकर टिकट काटने के बजाय वह कुर्सी पर ही जमा रहता है।कई दफ्तरों से तो लोग कुर्सी से इसलिए नहीं उठते हैं कि कहीं दूसरा न ले बैठे।क्योंकि महंगाई के इस दौर में कुर्सी कम हो रही है और दौड़ लगाने वाले बढ़ रहे हैं।एक दफ्तर में तो एक कर्मचारी हर दिन सीट पर आने के बाद अपनी कुर्सी को तलाशते हैं।उन्हें कुर्सी अपनी जगह नहीं मिलती है।फिर परेशान होकर उन्होंने कुर्सी को मेज से बांधना शुरू कर दिया।पर कुर्सी उड़ाने वाले भी कम नहीं। वे रस्सी के बंधन को काटकर कुर्सी अपनी सीट तक घसीट देते हैं। ऐसे में महाशय ने कुर्सी को स्कूटर के ब्रेक की वायर से बांधना शुरू कर दिया।
कई कुर्सी मनहूस भी मानी जाती है।उसमें जो बैठ गया, तो समझो वह ज्यादा दिन नहीं टिका। एक दफ्तर मंे इंचार्जों की नीले रंग की कुर्सी होती थी।कई इंचार्ज आए और चले गए। फिर क्या था।नीले रंग की कुर्सी को  मनहूस कहा जाने लगा।उसमें बैठने से सभी परहेज करने लगे। इस मिथ्या को तोड़ने का साहस वहां किसी का नहीं हुआ।अपनी कुर्सी बचाने के लिए दफ्तरों में  लोग दूसरे की कुर्सी पर कीचड़ उछालने से भी परहेज नहीं करते हैं।इस खींचतान में अच्छे दोस्त भी दुश्मन बनने लगते हैं।दूसरों को नीचा दिखाने के लिए खुद नीचे गिरने से भी उन्हें परहेज नहीं होता। खैर महंगाई के इस दौर में कुर्सी की संख्या घट रही है, उसे पाने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।ऐसे में कुर्सी के दावेदारों में जोरआजमाइश हमेशा रहती है।कुर्सी दौड़ में कायम रहने के लिए कुछ नया करना हरएक के लिए जरूरी हो गया है।जब तक रेस में जीतते रहे, तो कुर्सी भी बची रहेगी।जिस दिन रेस के बाहर हुए तो दोबारा कुर्सी पाना हरएक के लिए संभव नहीं है।क्योंकि कुर्सी की संख्या तो लगातार घट रही है और उसके लिए दौड़ जारी है। ......
भानु बंगवाल

Monday, 14 May 2012

ये आइएसबीटी दिल्ली है

जब भी मैं जाने के लिए बस या ट्रेन का सफर करता हूं, तो जेबकतरों से सावधान रहता हूं।हमेशा यह डर रहता है कि कहीं जेब कट गई, तो फजीहत होगी।एेसे में सतर्क रहना ही जरूरी है।वैसे तो जेब कतरे ही नहीं, मुसीबत अन्य रूप में भी सामने आ सकती है।कभी लोग जहरखुरानी का शिकार बनते हैं, तो कभी बस व ट्रेन में डकैती का।हर बार ठगी, चोरी या डकैती करने वाले नया फंडा अपनाते हैं। उनके जाल में अक्सर कोई न कोई फंस ही जाता है।
बचपन से ही मैने जेबकतरे तो सुने थे, पर कभी उनका शिकार नहीं बना।पहले सिनेमा हॉल में भी टिकट की खिड़की पर जब भीड़ में मारामारी मचती थी, तब जेबकतरों का काम आसान हो जाता था।अब सिनेमा हॉल में न तो ऐसी फिल्म लगती है, जिसके लिए मारामारी हो और न ही जेब कटने की घटनाएं होती हैं।
कई बार जेब कटने के बाद तो व्यक्ति की स्थिति ऐसी हो जाती है कि वह यह तक तय नहीं कर पाता कि क्या करे या ना करे।मेरा एक मित्र अनुपम कुछ साल पहले देहरादून के दिल्ली नौकरी के इंटरव्यू के लिए गया।ट्रेन से उतरकर जब वह स्टेशन से बाहर आया तो उसे पता चला कि जेब कट चुकी है। दूसरी जेब मंे भी ज्यादा पैसे नहीं थे।सिर्फ इतने पैसे थे कि वह रिश्तेदारों को फोन कर सकता था। उसके पर्स के साथ ही उसमें रखे एटीएम कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस व अन्य महत्वपूर्ण कागजात जेबकतरे के पास चले गए।किसी तरह उसने किसी परिचित को मौके पर बुलाया।उसकी मदद से इंटरव्यू देने गया और वापस देहरादून आ गया।इस घटना को करीब एक माह से अधिक समय बीत चुका था।तब तक मित्र जेब कटने की घटना अन्य िमत्रों को सुना-सुना कर थक चुका था।एक दिन मित्र को छोटा का पार्सल आया।उसे खोलने पर देखा कि भीतर उसके कागजात, एटीएम कार्ड व अन्य परिचय पत्र आदि थे।यानी जेबकतरे को उस पर तरस आ गया और पर्स की रािश खुद रखकर उसके बाकी कागजात लौटा दिए।यहां जेबकतरे का ऐसा व्यवहार मुझे अच्छा लगा।
अक्सर बसों में सामान चोरी व जेब काटने की घटनाएं होती रहती है, लेकिन कई बार तो लोगों को ठगने के लिए बाकायदा ड्रामा रचा जाता है।ऐसे ड्रामे को देखने वाला ही फिर ठगी का शिकार हो जाता है।बात करीब वर्ष 1985 की है।मैं किसी काम से दिल्ली गया था।वापस देहरादून आने के लिए रात करीब दस बजे आइएसबीटी कश्मीरी गेट पहुंचा।सर्दी के दिन थे।देहरादून की बस के लिए भीड़ मंे मारामारी मची थी।जैसे ही बस लगती, लोग खिड़की से भीतर घुस जाते और मैं बस में चढने सेै रह जाता। मेरी बस छुटती चली गई और रात के करीब 11 बज गए।मैं एकांत में अपना बैग कंधे पर लटकाए बस का इंतजार करने लगा। किसी ने मुझे बताया कि रात 12 बजे तक बस िमल जाती है। तभी अंधेरे एक कोेने में एक अधेड़ महिला जोर-जोर से चिल्ला रही थी। वह चप्पलों से एक युवक को पीट भी रही थी। साथ ही गालियां दे रही थी।जैसे ही मौके पर भीड़ लगती, युवक भाग गया। इसके बाद महिला से जो कोई पूछता वह अपनी कहानी सुनाती।बताती कि युवक उसके पैसे लेकर भाग गया। यह बात मुझे हजम नहीं हो रही थी। वह युवक की पिटाई कर रही थी तो वह पैसे लेकर कैसे भाग सकता था।खैर मैं अलग हटकर बस का इंतजार करने लगा। तभी वह महिला मेरे पास आई और बोली बेटा तूने देखा कि मेरे साथ क्या हुआ।मुझे मेरठ जाना है और किराए तक के पैसे नहीं है।बेटा बीमार है।उसके इलाज के लिए भी पैसे नहीं है।मेरी मदद कर दो। मैं उस महिला को टालना चाहता था। इस पर मेने कहा कि अपने भाई से बातकरके बताउँगा।इस पर वह दूसरे शिकार को तलाशने लगी। कुछ देर बाद वह मेरे पास फिर आई और कहने लगी कि भाई साहब यह बताओ कि मेरी क्या मदद कर सकते हो। मेने कहा कि मैं इतना कर सकता हूं कि जिस बस से तुम मेरठ आओगी उससे मैं देहरादून जाउंगा। मै तुम्हारा मेरठ तक का टिकट ले लूंगा।इस पर वह मुझे ही गालियां देने लगी।मेरी समझ में तब कुछ-कुछ यह आने लगा कि वह महिला आइएसबीटी में क्यों घूम रही है। पहले गुहार लगाकर फिर डरा धमकाकर वह तो लोगों को ठग रही थी।मैं पास ही एक पुलिस कर्मी के पास चला गया और उससे अपना परिचय देकर महिला के बारे में बताया। तब तक महिला दूर कहीं छिप गई। या फिर पुलिस कर्मी ने उसे गायब होने का इशारा कर दिया।तब तक कई अन्य भी वहां शिकायत लेकर आ गए।पुलिस कर्मी ने उसे तलाशने का ड्रामा किया, लेकिन महिला किसी को नजर नहीं आई।
भानु बंगवाल   

Saturday, 12 May 2012

जब चिड़िया चुग गई खेत ..(मदर्स डे पर विशेष)

मां शब्द में वाकई जादू है, ताकत है,  हिम्मत है और हर समस्या का समाधान है। एक  मां ही तो है जो अपनी औलाद को जिस सांचे में ढालना चाहे, ढाल सकती है। बच्चों की गलतियों को हमेशा वह  क्षमा कर देती है। वही बच्चे की पहली गुरु होती है। उस मां का दर्जा सबसे बड़ा है। हो सकता है कि मदर्स डे के दिन कई ने अपनी मां को उपहार दिए हों। मां की उम्मीद के अनुरूप कार्य करने की कसमें खाई हों, लेकिन यह कसम दिन विशेष को ही क्यों खाने की परिपाटी बन रही है। इसके विपरीत मां तो बच्चे की खुशी के लिए कोई दिन नहीं देखती है और न ही समय। फिर हमें ही क्यों मां के सम्मान में मदर्स डे मनाने की आवश्यकता पड़ी। क्यों न हम भी हर दिन ही मदर्स डे की तरह मनाएं। क्योंकि मां के दर्द को जिसने नहीं समझा। उसके पास बाद में पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचता।
यह चिंतन भी जरूरी है कि हम अपनी मां को हर दिन कितना सम्मान देते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि साल भर उसकी बातों को तव्वजो तक नहीं देते। फिर एक दिन मां को खुश करने का दिखावा करने लगते हैं। अपने बचपन से लेकर बड़े होने तक मां की भूमिका और अपने व्यवहार में नजर डालें तो इसमें समय के साथ बदलाव नजर आएंगे। बचपन में बच्चा किसी दूसरे की बजाय अपनी मां की बातों पर ही ज्यादा विश्वास करता है। इसके बाद जब वह स्कूल जाने लगता है, तो वह गरु की बातों पर उसी तरह विश्वास करता है, जैसा मां की बातों पर करता था। बाद में यह स्थान मित्र का हो जाता है। फिर मां से बातें छिपाने की आदत औलाद पर पड़ने लगती है। तब औलाद अज्ञानवश मां को हर बात में यह कहने से नहीं चूकती कि- मां तू कुछ भी नहीं जानती। वे यह नहीं जानते कि मां ही पहली गुरु के साथ मित्र भी होती है। जो पहले हर अच्छी बुरी बात जानती थी, वह बच्चों के जवान होने पर कैसे अज्ञानी हो सकती है।
बात काफी पुरानी है। हमारे मोहल्ले में तीन भाइयों का संयुक्त परिवार रहता था। इन भाइयों की मां काफी वृद्धा थी। वृद्धा का करीब 18 साल का सबसे छोटा बेटा बीमार रहता था। इस गरीब परिवार के घर पानी का कनेक्शन तक नहीं था। ऐसे में वृद्धा हर सुबह हमारे घर पानी भरने आती थी। मां को हमेशा बेटों की ही चिंता सताती रहती थी, लेकिन  बेटों को मैने कभी मां की चिंता करते नहीं देखा। पानी भरने के लिए उसके कई फेरे लगते थे। कभी-कभार उसका बीमार बेटा ही मां की पानी ढोने में मदद किया करता था। बाकि दो बेटों को शायद मां की उम्र की भी चिंता नहीं थी। मां बेटों से कहती कि सत्तर साल की उम्र में अब पानी ढोना मुश्किल हो रहा है। घर मैं ही नल लगवा दो। बेटे पैसा न होने का तर्क देते। एक दिन लाचार मां का बीमार बेटा भी मर गया। अब इस मां का सहारा भी छिन गया। बेचारी मां भी टूट गई और एक साल बाद दुनिया से चल बसी। बेटों के सिर पर घर की जिम्मेदारी आने पर ही उन्हें अपनी मां के उस दर्द का अहसास हुआ, जो वह वर्षों से झेलती आ रही थी। चार दिन पानी ढोना पड़ा तो बेटों ने घर में पानी का कनेक्शन लगवा दिया। जिस मां के दर्द को वे महसूस नहीं करते थे, अपनी बारी आने पर वे  बिलबिला उठे। अब मोहल्ले के लोग कहते हैं कि मां के मरने के बाद दोनों भाई सुधर गए हैं। सुबह उठकर वे जब पूजा पाठ करते हैं तो मां की फोटो के आगे नतमस्तक होकर घंटी बजाते हैं। वहीं, लोग कहते हैं कि मां के मरने के बाद ऐसी पूजा किस काम की। जब चिड़िया खेत चुग गई, तो पछतावे से क्या होगा....
                                                                    भानु बंगवाल

We've all seen the world ... (Mother's Day poem)

xसारी दुनिया को देखा है हमने,
कोई नजरों को जचता नहीं है
सिर्फ मां का प्यार ऐसा है,,
जिसके मन में शंका नहीं है
उसने बुराई से लड़ना सिखाया।
उसने तूफां से भिड़ना सिखाया।
संकट की हर घड़ी में,
उसने सब्र का पाठ पढ़ाया।
एक मां तू ही ऐसी है,
जिसके मन में भेदभाव नहीं है।
मां की ममता को देखो रे,
बच्चों की खुशी में ही खुश है।
अपने कष्टों को छिपाकर,
बच्चों के कष्ट हरती है।
घर की नैया को चलाने में उसके,
हाथ पतवार से कम नहीं है।
सारी दुनिया को देखा है हमने
कोई नजरों को जचता नही है।
एक मां ही ऐसी मिली है,
जिसके जीवन में धब्बा नहीं है।
भानु बंगवाल

Thursday, 10 May 2012

माः कहानी में प्रेरणा, हाथ में जादू

वैसे तो मां की किसी भी आदत व व्यवहार की बराबरी कोई नहीं कर सकता, फिर भी मुझे अपनी मां की दो खासियत हमेशा याद रहती हैं। उनमें से एक है मां की कहानियां  और दूसरी खासियत मां के हाथ से बनाया गया स्वादिष्ट खाना। उसकी कहानी में इस संसार में अच्छे-बुरे कर्म की नसीहत होती है। साथ ही उसके हाथ में अनौखा जादू है। इसी जादू का कमाल है कि उसके हाथ का खाना मुझे हमेशा याद रहता है।
आज के इस दौड़भाग के दौर में हो सकता है कि कई माताओं को बच्चों के लिए समय तक न हो, लेकिन जो माताएं अपने बच्चों के लिए कुछ समय निकालती हैं, वह तो धन्य हैं कि साथ ही उनकी औलाद भी धन्य हैं। बच्चों के विकास में मां की कहानियों का भी बड़ा योगदान होता है। कहानियां ही बच्चों को अच्छे व बुरे का ज्ञान कराती हैं। 
बचपन से ही मुझे अपनी मां से कहानी सुनने का सौभाग्य मिला। मैं और मुझसे बड़ी बहने रात को सोने के लिए मां के अगल-बगल लेट जाते थे। फिर मां को कहानी के लिए बोला जाता। तब मानों मां के पिटारे में कहानी का भंडार था। हर रोज एक नई कहानी। कहानी सुनने के बाद ही मुझे अच्छी नींद आती थी। रात को सपने में कहानी के पात्र देखा करता। मां से सुनी  कहानी से मिलता जुलता सपना ही मुझे आता था।
मां की कहानियों में सत्य की असत्य पर जीत, मेहनत करने का फल हमेशा मीठा होता है, ईमानदारी, दूसरों की मदद आदि संदेश छिपे होते थे। कामचोर के लिए कहानी के अंत में बुरा परीणाम आता था।
तीन भाई शूर, वीर और टोखण्या की कहानी तो मानो मुझे काफी पसंद थी। इसे अक्सर मैं मां को सुनाने के लिए कहता। फिर जब कहानी याद होने लगी तो मां के साथ मैं भी बोलता चला जाता। इस कहानी में तीन भाई होते हैं। शूर व वीर काफी मेहनत करते हैं और टोखण्या कामचोर व चालाक होता है। भाई खेतों में काम करते हैं, टोखण्या दिन भर मस्ती करता है। शाम को घर पहुंचने से पहले टोखण्या मिट्टी को शरीर में पोत कर घर पहुंचता है, जिससे यह लगे कि उसने ही ज्यादा काम किया। दो भाइयों की मेहतन से फसल उगती है, लेकिन टोखण्या उस पर अपना हक जताता है। वह कहता है कि धरती माता से पूछ लिया जाए कि फसल किसकी है। टोखण्या अपनी मां को जमीन में दबा देता है। फिर मौके पर भाइयों को ले जाता है और पूछता है कि धरती माता बता फसल किसकी है। मां को अपनी औलाद हमेशा प्यारी होती है। चाहे वह रावण जैसी हो या फिर राम की तरह। मां सोचती है कि टोखण्या नायालक है। उसके मरने के बाद तो दोनों भाई मेहनत करके खा कमा लेंगे, लेकिन टोखण्या का क्या होगा। ऐसे में जमीन में दबी मां बोलती है सारी फसल टोखण्या की है। भाई फसल टोखण्या को सौंप देते हैं। जमीन पर दबाने से मां की मौत हो जाती है।
इसके बाद दोनों भाई टोखण्या को सबक सिखाने की ठानते हैं। मेहनत करके वे काफी बकरियां लेकर गांव लोटते हैं। टोखण्या उनसे पूछता है कि कहां से बकरियां लाए। इस पर वे बताते हैं कि गंगा में एक स्थान ऐसा है, जहां छलांग लगाकर बकरियां मिलती हैं। इस पर टोखण्या गंगा में जाता है और छलांग लगा देता है। इस तरह उसके अत्याचारों से दोनों भाइयों को भी छुटकारा मिल जाता है। मां की कहानी में गलत राह का बुरा परिणाम बताया जाता था। साथ ही मेहनत के लिए प्रेरणा भी होती थी। कुछ साल पहले तक मेरे व भाई के बच्चों को मेरी मां वही कहानी सुनाया करती, जो मुझे सुनाती थी। मां के पौता, पौती, नाती आदि सभी ने इस दादी व नानी से कहानियां सुनी। आज मेरी मां की उम्र 85 साल से ऊपर हो गई है। वह अक्सर भूलने लगती है। ऐसे में वह कहानी तो नहीं सुना पाती, लेकिन बच्चों के लिए आज भी वह सबसे प्यारी दादी व नानी है। जब बच्चों को किसी गलती पर डांट पड़ती है या फिर मार खाने की नौबत आती है, तो वे बचाव के लिए दादी के पास ही जाते हैं।
मां के हाथ से बनाया खाना भी मुझे हमेशा अच्छा लगता है। खाने में उसकी मेहनत, लगन व प्यार समाया रहता है, जिस कारण उसका स्वाद होना लाजमी है। बचपन में मैं कई बार मां से शिकायत करता कि दूसरों के घर का खाना ज्यादा अच्छा होता है। इसका कारण यह था कि बच्चों को हमेशा दूसरों के घर का खाना ही अच्छा लगता है। बाद में जब कुछ साल घर से बाहर रहना पड़ा। होटलों में खाना खाया, तो तब अहसास हुआ कि मां के हाथ के खाने से अच्छा और कहीं खाना नहीं मिल सकता। लाख मना करने के बावजूद भी मेरी मां इस उम्र में भी कभी-कभार दाल व सब्जी अपने हाथों से बनाने का प्रयास करती है। हम मना इसलिए करते हैं कि उसका शरीर अब काम करने लायक नहीं रहा। फिर भी वह कभी जिद पकड़ लेती है। कांपते हाथों से दाल व सब्जी तैयार करती है। दाल भी वही होती है और मसाले भी वहीं, लेकिन उसमें स्वाद कहां से आ जाता है, यह रहस्य मैं आज तक नहीं जान पाया।
                                                                                       भानु बंगवाल

Tuesday, 8 May 2012

मां से प्यारः बुराई छोड़ कर दो उपहार

क्या सच में आप अपनी मां से प्यार करते हो। यह सवाल ऐसा है कि अमूमन जिससे भी पूछोगे, तो जवाब हां में ही आएगा। यदि किसी बच्चे से पूछा जाए कि वह सबसे ज्यादा किससे प्यार करता है, तो उसका उत्तर यही रहेगा कि अपनी मां से। बड़ा होने तक व्यक्ति यही कहता है। फिर शादी होती है तो कुछ अपनी राय बदल देते हैं और पत्नी व बच्चे मां का स्थान ले लेते हैं। फिर भी कई अपनी यह धारणा नहीं बदलते। यही नहीं संकट की घड़ी में भी बच्चे से लेकर बडे तक मां ही याद करते है। जब बच्चे को चोट लगती है तो वह मम्मी ही चिल्लाता है। हाय मां मै मर गया। यह अक्सर लोग कहते हैं, लकिन हाय पिताजी मैं मर गया, यह शायद ही कोई कहता हो। यानी दुखः में हमेशा मां ही याद आती है।
अब रहा मां से प्यार का सवाल। कोई अपनी मां से कितना प्यार करता है। उस मां से जो औलाद के लिए हमेशा कष्ट सहती रही। बच्चे के लालन पालन में कोई कमी न आए, उसका पहला कर्तव्य बना। उसके भले के लिए ही वह हमेशा सोचती रही।  उस मां को प्यार करने के सवाल का जवाब देने से पहले हमें यह सोचना होगा कि हम अपनी मां की हर छोटी-बड़ी बातों को कितना तव्वजो देते हैं। मां तो हमेशा सही राह ही बताती है। कुछएक अपवाद हो सकते हैं, लेकिन कोई मां नहीं चाहेगी कि उसकी औलाद गलत दिशा में जाए। मां की डांट जो बचपन में बुरी नहीं लगती थी, वही बड़े होने पर क्यों बुरी लगने लगती है। मां तो हमेशा भले के लिए ही डांट लगाती है और अच्छी सलाह देती है। यही नहीं पिता की बजाय मां के समक्ष बच्चे या बड़े अपने राज खोल देते हैं। वह तो औलाद की गलती छिपाती है और उसे दोबारा गलती न करने की सलाह भी देती है। कई बार तो अपने पिता को मनाने व किसी बात को समझाने के लिए बच्चे मां को हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। उस मां से प्यार करने की बात कहने से पहले हमें यह जरूर देखना चाहिए कि हम अपनी मां का व्यवहारिक रूप में कितना आदर करते हैं।
 एक व्यक्ति काफी शराब पीता था। उसके शराब पीने से घर में पत्नी व बच्चे भी परेशान रहने लगे। सभी उसे समझाते, लेकिन वह तो शराब का आदि हो चुका था। उसे दूसरों की सीख भी बुरी लगती थी। उसकी मां समझा-समझा कर हार गई। बाद में उसकी मां ने यह तक सलाह दी कि यदि तूझे शराब पीनी है तो शाम को घर में पिया कर। बाहर से पीकर मत आया कर। नशे में दुर्घटना का भय रहता है। मां कितनी परेशान थी अपने इस बेटे के लिए। पर बेटा तो अज्ञानवश यह भी नहीं समझ पा रहा था कि उसकी एक आदत से पूरा घर परिवार प्रभावित हो रहा है। एक दिन बेटे से मैने पूछा कि तू दुनियां में सबसे ज्यादा किसे प्यार करता है, तो तपाक से उसका जवाब था कि अपनी मां से। मैने उससे कहा कि तू झूठ बोल रहा है। इस पर वह मुझसे लड़ने-भिड़ने को आ गया। इस पर मैने समझाया कि यदि उसे अपनी मां से प्यार होता तो मां के कहने से शराब छोड़ चुका होता। मां से ज्यादा तो वह शराब से प्यार करता है। जो शराब को छोड़ने को तैयार नहीं है। वह अपनी मां से प्यार करने की बात पर अड़ा रहा, लेकिन शराब छोड़ने को भी तैयार नहीं था। ऐसे में स्पष्ट था कि मां से ज्यादा वह शराब को प्यार करता है।
मेरा एक मित्र अपना समाचार पत्र निकालता है। करीब 15 साल पहले तक उसकी भी अत्यधिक शराब पीने की आदत थी। रात के 12 बजे तक अक्सर वह ऐसी पार्टी में होता, जहां शराब के दौर चल रहे हों। एक दिन मित्र की माता का देहांत हो गया। मरते समय उसकी मां ने बेटे से वचन लिया कि शराब छोड़ दे। मित्र ने भी वचन निभाया और शराब को फिर कभी हाथ नहीं लगाया। इसे कहते हैं मां का प्यार। वह मां जो अपने जीते जी बेटे को अपनी बात नहीं मनवा सकी, मरते दम तक बेटे को सही राह में लाने का वह प्रयास करती रही। यह प्रयास रंग भी लाया। मां के दुनियां से विदा होने के बाद ही बेटे को अक्कल आई। अब शायद उसे पछतावा होता है कि यदि वह मां के जिंदा रहते शराब छोड़ता, तो यह देखकर उसकी मां को कितनी खुशी होती।
मां कभी अपनी औलाद का बुरा नहीं चाहती। वह तो उसके भले के लिए हमेशा चिंतित रहती है। वे लोग सौभाग्यशाली हैं जो अपनी मां के साथ रहते हैं। इसके विपरीत जो परिस्थिति या मजबूरीवश अपनी मां से अलग रहते हैं उन पर मुझे तरस भी आता है। फिर भी मैं तो यही कहूंगा कि अपनी मां से प्रेम करते हो तो वह  आपसे जो अपेक्षा रहती है, उस पर खरा उतरने का प्रयास करो। तब देखो की मां को खुश रखकर कितना मजा आता है। हां जिनकी मां अब नहीं है, उनके लिए तो यहीं कहूंगा कि वे यही सोचें कि अगर मां होती, वह क्या अपेक्षा करती। उसी अपेक्षा के अनुरूप वे अपने को ढालें। मां की अपेक्षा के अनुरूप यदि हम एक बुराई को छोड़ देंगे तो यही मदर्स- डे में मां के लिए सबसे बड़ा उपहार होगा।  
                                                                                          भानु बंगवाल

Sunday, 6 May 2012

असली मां कौन.......

एक मां वह होती है, जो बच्चे को जन्म देती है, लेकिन उसका लालन पालन नहीं करती। वहीं,  एक मां वह होती है, जो बच्चे को जन्म तो नहीं देती, लेकिन उसका  लालन पालन करती है। इन दोनों मां में कौन बड़ी या कौन छोटी। कौन असली या कौन नकली मां है यह बताना मुश्किल है। क्योंकि कई बार परिस्थितियां या मजबूरी औलाद को मां से अलग कर देती हैं, फिर बच्चे को पालने वाली ही उसकी मां कहलाती है। कई बार तो बच्चों को यह तक पता नहीं होता है कि, जो उसका लालन पालन कर रही है, वह उसे जन्म देने वाली मां नहीं है। यह राज कई बार अंत तक नहीं खुल पाता। फिर भी मां शब्द ही वातसल्य से जुड़ा हुआ है। बच्चों का लालन-पालन, दुख-दर्द को दूर करना ही मां अपना कर्तव्य समझती है और निभाती भी है। इस धरती में मानव पल रहा है,  इसीलिए हिंदू धर्म में धरती को माता कहा जाता है। गाय को भी यहां माता की संज्ञा दी गई। इसलिए मां से बड़ा कोई नहीं। क्योंकि बाप का स्थान मां ले सकती है, लेकिन मां का स्थान कोई ले ही नहीं सकता।
बात करीब वर्ष 1997  की है। तब मैं सहारनपुर था। एक दिन सहारनपुर में कचहरी के सामने काफी भीड़ जमा थी। दो महिलाओं में विवाद हो रहा था। एक करीब 13 साल की बच्ची जोर-जोर से रो रही थी। बार-बार वह यही कहती अम्मा मैं तूझे छोड़कर किसी के साथ नहीं जाऊंगी। बालिका जिसे अम्मा कह रही थी, उसका भी रो-रोकर बुरा हाल था। एक पत्रकार होने के नाते मेरा मौके पर जाना स्वाभाविक था। मेरी तरह कई पत्रकार मौके पर एकत्र हो गए। वस्तुस्थिति जानी तो पता चला कि एक महिला ने जब बच्ची को जन्म दिया तो वह उसका लालन-पालन करने में सक्षम नहीं थी। ऐसे में उसने बच्ची को अपनी सहेली को गोद दे दिया। कोई लिखत-पढ़त नहीं की गई। बच्ची को गोद लेने वाली महिला ने मां का लाड-प्यार दिया। उसे यह तक नहीं बताया कि उसे जन्म देने वाली कोई दूसरी महिला है। जब बच्ची तेरह साल की हो गई, तो अचानक उसे जन्म देने वाली मां का ममतत्व जाग गया। उसने अपनी बच्ची को वापस मांगा, तो बच्ची को मां की तरह पाल रही महिला पर जैसे पहाड़ ही गिर गया। साथ ही बच्ची को जब असलियत पता चली तो उसे जन्म देने वाली मां से कोई लगाव नहीं रहा। वह तो उसे पालने वाली को ही अम्मा कहकर किसी और के साथ न जाने की रट लगाकर रो रही थी। मामला कोर्ट तक पहुंचा। बच्ची के दो दावेदार होने के नाते उस वक्त उसे महिला शरणालय भेज दिया गया। यही कहा गया कि बालिग होने पर बच्ची जहां जाना चाहेगी, उसे वहीं भेजा जाए।
इस घटना को मैं जब भी याद करता हूं तो मेरे मन में यही सवाल उठते हैं कि असली मां का अर्थ क्या है। वह मां असली है, जिसने बच्ची को जन्म देकर उसे दूसरे के हवाले कर दिया। बाद में ममतत्व जागा तो उसे लेने वापस आ गई। या फिर बच्ची की असली मां तो वही है, जिसने अंगुली पकड़कर बच्ची को चलना सिखाया। उसकी परवरिश की। खुद कष्ट सहे और हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि बच्ची को कोई  कष्ट न रहे।
                                                                                          भानु बंगवाल

Saturday, 5 May 2012

मां... हौसलो का पहाड़, ममता का सागर

हे मां। तुझ पर जितना लिखा जाए उतना कम है। तेरे लिए मेरे दिमाग में शब्द तक नहीं सूझते हैं। जब से होश संभाला, तभी से देख रहा हूं कि तेरा हौसला तो पहाड़ जैसा है। बच्चों के दुखः दर्द तू अपने सिर पर ले लेती है और हम पर ममता का सागर उड़ेलती रही है। मैं तो भगवान से यही दुआ करता हूं कि हर जन्म में तू मेरी मां ही बने। क्योंकि तूने ही मुझे हर कठिन परिस्थितियों में आसानी से दो चार होना सिखाया।
कैसा विकट जीवन रहा मेरी मां का। जब खेलने कूदने की उम्र थी, तब गांव में घर के  काम-काज में जुटा दिया गया। काम क्या था। खेतों में गुड़ाई, जंगल से पशुओं का चारा लाना, घर का खाना बनाना। जब स्कूल जाने की उम्र हुई तो महज तेरह साल की उम्र में तेरी शादी कर दी गई। सच में तूने तो यह तक नहीं जाना कि मां का प्यार क्या होता है। बचपन में ही ससुराल में पहुंचकर सास को ही तूने अपनी मां समझा। भले ही तू अपनी माता की छत्रछाया में ज्यादा साल नहीं रही, लेकिन तूने ममत्व का सारे गुण स्वतः ही सीख लिए।
विवाह के बाद मेरे पिताजी देहरादून आ गए। तब उनकी धामावाला में दुकान थी। मां को गढ़वाल ही छोड़ दिया। सच कहो तो उस समय घर का काम कराने के लिए ही शादी की जाती थी। फिर कुछ साल के बाद पिताजी मां को देहरादून ले आए। दो बेटी के बाद एक बेटा, फिर दो बेटी और सबसे आखिर में मेरा जन्म हुआ। इस तरह हम छह भाई, बहन थे। मेरी माता गांव की सीधीसाधी महिला थी, जिसने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। पिताजी ने ही घर में मां को अक्षर ज्ञान कराया। जितना उनसे सीखा, उसे मां ने बच्चों पर अजमाया। जमीन पर मिट्टी फैलाकर मेरी मां ने उस पर अंगुलियों से क-ख-ग लिखना हम सभी भाई-बहनों को सिखाया। साथ ही वह सच्चाई व ईमानदारी का पाठ भी पढ़ाती थी। मां के पास कहानी का भी पिटारा था। जब मैं पैदा हुआ, तब पिताजी दुकान बेचकर सरकारी नौकरी में लग गए। बच्चे बड़े होने लगे और घर के खर्च में तंगी आने लगी। ऐसे में मेरी मां ने भी खर्च के लिए कुछ पैसे जुटाने को चरखा चलाना शुरू किया। तब राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में दृष्टिहीनों को कपड़ा बुनना सिखाया जाता था। मां ताने-बाने में इस्तेमाल होने वाले धागे को चरखे से नलियों में लपेटा करती थी।
मां कब सोती थी यह मैने कभी नहीं देखा। रात को मेरे सोने के बाद ही शायद वह सो जाती थी। सुबह मां के उठने के बाद ही घर में सभी की नींद खुलती।  नहा-धोकर पूजा पाठ जब मां कर लेती, उसके बाद ही हमें उठाती। चूल्हे में लकड़ियां लगाकर जब मां खाना बनाती तो हम सभी भाई-बहन चूल्हे के इर्द-गिर्द बैठ जाते। मां के पास बैठने को लेकर सभी में झगड़ा भी होता था। ये मां की मेहनत और संस्कारों का ही प्रभाव था कि बड़ी बहन बीए करने के बाद दिल्ली में सरकारी नौकरी में लग गई। जो अब रिटायर्ड  भी हो चुकी है।  जब घर के खर्च और बढ़ने लगे तो मां ने बकरी व गाय भी पाली। गाय का कुछ  दूध हमें पीने को मिलता और कुछ बेचकर घर के खर्च चलते।
खुद के खाने-पीने की बजाय बच्चों पर ध्यान देने में मां की उम्र गुजर रही थी। उसने बच्चों का ख्याल तो रखा, लेकिन अपना ख्याल नहीं रख सकी । चूल्हे के धुएं से उसकी आंख की रोशनी धूमिल पड़ने लगी। तीन बार आप्रेशन हुए उसकी आंखों के। जीवन में कई झटके भी झेले मेरी मां ने। एक बार गाय के रस्से में हाथ फंस गया। गाय खूंटे से खुलने के बाद घोड़े की तरह दौड़ती थी। मां को भी वह घसीटती हुई काफी दूर तक ले गई। एक बार दूध निकालते समय जब गाय ने पांव उठाया, तो दूध की बाल्टी बचाने के फेर में वह एक अंगुली तुड़वा बैठी।  एक बार सरकारी डिस्पेंसरी में दवा लेने जा रही थी। रास्ते में हाई टेंशन की बिजली की तार झूल रही थी। मां का छाता तार से टकरा गया। तब वह बुरी तरह से घायल हो गई थी। शरीर में खून कम होने से करंट भी ज्यादा नहीं लगा।
पिताजी ने भी जब देखा कि मां के हाथ में बरकत है, तो उन्होंने भी घर खर्च के हिसाब-किताब की जिम्मेदारी मां को ही सौंप दी। इस जिम्मेदारी को उसने बखूबी निभाया भी। अपना मन मारकर बच्चों का ख्याल रखने की आदत ने मेरी मां को जल्द ही बूढ़ी कर दिया। मां के हाथों के बने खाने में गजब का स्वाद रहता था। क्योंकि वह पूरे मन से खाना बनाती थी और उसमें मां का प्यार होता था। अब तो घर की दाल भी स्वाद नहीं लगती। आज मां की उम्र करीब 85 साल हो गई है। अब जब खाने पीने की उसे कमी नहीं है, तो उसका शरीर ही इसे झेलने लायक नहीं रहा कि वह पसंद का कुछ ज्यादा खा सके। हाथ-पैर कांपते हैं। चलने में धक्के भी लगते हैं।  हां दो बहुएं हैं, जिसकी कोशिश रहती है कि मां को कोई दिक्कत न हो। बिस्तर में ही दूध-नाश्ता दे दिया जाता है। पर अब उसे तो जैसे भोजन से नफरत हो गई है। याददाश्त भी कमजोर पड़ गई। बार-बार वह हर बात को भूल जाती है या फिर दोहराती है। हां एक बात वह नहीं भूलती। वह है सुबह उठकर सबसे पहले नहाना और पूजा करना।
                                                        भानु बंगवाल

Thursday, 3 May 2012

मासूम ने दिखाई राह...

 यदि किसी को तैरना नहीं आता, तो उसे गहरे पानी में जाने से परहेज करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के सामने यदि कोई डूब रहा हो तो उसे मदद के लिए पानी में छलांग लगाने की बजाय दूसरे उपाय सोचने चाहिए। पानी में छलांग लगाने की स्थिति में दूसरा तो शायद नहीं बचे, लेकिन बचाने वाले की भी बचने की गारंटी नहीं रहेगी। क्योंकि उसे भी तैरना नहीं आता और वह दूसरे को बचाने के लिए पानी में कूद पड़ा। अक्सर दुर्घटनाओं के समय ऐसे ही वाक्ये होते हैं। बचाने के प्रयास में कई बार अच्छे खासे व्यक्ति भी जान से हाथ धो बैठते हैं।
इसीलिए कहा गया कि किसी भी दुर्घटना के वक्त जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिए, लेकिन हकीकत में ऐसे समय व्यक्ति जल्दबाजी में ही निर्णय लेता है। कई बार तो बड़ों की बजाय अनजाने में छोटे बच्चे ही ऐसा काम कर जाते हैं, जिससे संकट टल जाता है। मासूमों को यह तक पता नहीं होता कि वह जो कर रहे हैं, कितना खतरनाक काम है।
 करीब छह साल पहले दिल्ली में मेरे भांजे की शादी थी। मै परिवार के साथ दिल्ली के  सरोजनी नगर क्षेत्र में गया हुआ था। मकान के आगे मैदान में मेहमानों के लिए भोजन का टैंट लगाया हुआ था। मेरा छोटा बेटा उस समय करीब चार साल का था। वह टैंट से दूर बजरी व रेत के ढेर से खेल रहा था। टैंट के पीछे जहां हलुवाई खाना बना रहा था, वहां भट्टी के सिलेंडर में आग लग गई। अचानक आग लगते ही टैंट में मौजूद सभी लोगों में अफरा-तफरी मच गई। सभी सुरक्षित स्थान की तरफ भागे। इस दौरान आग सिलेंडर तक ही सीमित थी। तेजी से साथ सिलेंडर से गैस निकल रही थी और वहां से आग की लपटे निकल रही थी । दूर खड़े होकर लोग सलाह देने लगे। कोई कहता पानी डालो। तो कोई कहता पानी नहीं, सिलेंडर फट जाएगा। कोई मिट्टी डालने की सलाह दे रहा था। इसी बीच मैने देखा कि मेरा चार साल का बेटा सिलेंडर के निकट खड़ा था। मैने उसे वहां से भागने को आवाज लगाई, साथ ही उसकी तरफ दौड़ा। तब तक वह अपनी पेंट की जेब में भरी हुई रेत को सिलेंडर की तरफ डाल चुका था। इसके बाद वह दोबारा रेत लेने जाने लगा। तभी मैने उसे खींचकर अलग किया। इस बच्चे को देख तब तक वहां मौजूद हलुवाई व अन्य लोग ने प्लेट व अन्य बर्तनों में रेत भरकर सिलेंडर पर डाली और आग को बुझा दिया। उस दिन एक बच्चे से अपनी शरारत से सभी को संकट से बचने की राह दिखाई और आग बुझाने के लिए प्रेरित किया। उसे देखकर ही सभी को पता चल सका था कि समीप ही रेत का ढेर भी है।
                                                                          भानु बंगवाल