बचपन में सबसे आसान खेल मुझे कुर्सी दौड का खेेल लगता था।इस खेल में गोलाई पर कई कुर्सियां लगी होती थी।उसके चारों तरफ दौड़ना पड़ता था।संगीत की धुन बजती रहती थी।गाना बंद होते ही कुर्सी कब्जानी पड़ती थी। धीरे-धीरे कुर्सी की संख्या घटती और खेल रोचक होता चला जाता। बाद में एक कुर्सी पर एख ही काबिज रहता।यह तो था खेल।हकीकत भी इससे कुछ अलग नहीं है।आज देखता हूं कि कुर्सी के लिए हरएक दौड़ रहा है।व्यक्ति के जीवन में यह खेल हमेशा जारी रहता है।
बचपन में स्कूल के बच्चों में सबसे आगे की कुर्सी कब्जाने की होड़ रहती है।बड़े होकर वे जब कंप्टीशन देते हैं तो हजारों की भीड़ में कुछ के हाथ ही कुर्सी आती है।बाकी फिर दौड़ में शामिल होकर कुर्सी पाने की जुगत में लगे रहेते हैं।ये कुर्सी भी किसी एक की होकर नहीं रहती है। जो खेल मुझे सबसे आसान नजर आता था, वही आज सबसे मुश्किल खेल लगता है। नेताजी कुर्सी के लिए पूरे पांच साल मेहनत करते हैं।फिर चुनाव होता है।जीत गए तो कुर्सी मिल गई और हारे तो फिर से कुर्सी पाने की जुगत में लग जाते हैं। फिर से उन्हें पूरे पांच साल की मेहनत करनी पड़ती है।कई बार तो नेताजी लंबे समय तक कुर्सी पर काबिज रहते हैं। आखिरी बार चुनाव लड़ने पर कुर्सी ही धोखा दे जाती है।
ये कुर्सी भी ऐसी जालिम है, जो हरएक चरित्र के लोगों की गवाह होती है। नेताजी की कुर्सी, ईमानदार अफसर की कुर्सी, भ्रष्टाचारी की कुर्सी, मेहनती व्यक्ति की कुर्सी, कामचोर की कुर्सी, लापरवाह की कुर्सी आदि।कुर्सी के मोह में सभी फंसे पड़े हैं।उसे बचाने के लिए तो कुछ टोटके भी करते हैं। बसपा की जनसभाओं में मायावती की कुर्सी भी अलग रखी होती है। बस में कंडक्टर भी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ता।सवारी के बीच जाकर टिकट काटने के बजाय वह कुर्सी पर ही जमा रहता है।कई दफ्तरों से तो लोग कुर्सी से इसलिए नहीं उठते हैं कि कहीं दूसरा न ले बैठे।क्योंकि महंगाई के इस दौर में कुर्सी कम हो रही है और दौड़ लगाने वाले बढ़ रहे हैं।एक दफ्तर में तो एक कर्मचारी हर दिन सीट पर आने के बाद अपनी कुर्सी को तलाशते हैं।उन्हें कुर्सी अपनी जगह नहीं मिलती है।फिर परेशान होकर उन्होंने कुर्सी को मेज से बांधना शुरू कर दिया।पर कुर्सी उड़ाने वाले भी कम नहीं। वे रस्सी के बंधन को काटकर कुर्सी अपनी सीट तक घसीट देते हैं। ऐसे में महाशय ने कुर्सी को स्कूटर के ब्रेक की वायर से बांधना शुरू कर दिया।
कई कुर्सी मनहूस भी मानी जाती है।उसमें जो बैठ गया, तो समझो वह ज्यादा दिन नहीं टिका। एक दफ्तर मंे इंचार्जों की नीले रंग की कुर्सी होती थी।कई इंचार्ज आए और चले गए। फिर क्या था।नीले रंग की कुर्सी को मनहूस कहा जाने लगा।उसमें बैठने से सभी परहेज करने लगे। इस मिथ्या को तोड़ने का साहस वहां किसी का नहीं हुआ।अपनी कुर्सी बचाने के लिए दफ्तरों में लोग दूसरे की कुर्सी पर कीचड़ उछालने से भी परहेज नहीं करते हैं।इस खींचतान में अच्छे दोस्त भी दुश्मन बनने लगते हैं।दूसरों को नीचा दिखाने के लिए खुद नीचे गिरने से भी उन्हें परहेज नहीं होता। खैर महंगाई के इस दौर में कुर्सी की संख्या घट रही है, उसे पाने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।ऐसे में कुर्सी के दावेदारों में जोरआजमाइश हमेशा रहती है।कुर्सी दौड़ में कायम रहने के लिए कुछ नया करना हरएक के लिए जरूरी हो गया है।जब तक रेस में जीतते रहे, तो कुर्सी भी बची रहेगी।जिस दिन रेस के बाहर हुए तो दोबारा कुर्सी पाना हरएक के लिए संभव नहीं है।क्योंकि कुर्सी की संख्या तो लगातार घट रही है और उसके लिए दौड़ जारी है। ......
भानु बंगवाल
बचपन में स्कूल के बच्चों में सबसे आगे की कुर्सी कब्जाने की होड़ रहती है।बड़े होकर वे जब कंप्टीशन देते हैं तो हजारों की भीड़ में कुछ के हाथ ही कुर्सी आती है।बाकी फिर दौड़ में शामिल होकर कुर्सी पाने की जुगत में लगे रहेते हैं।ये कुर्सी भी किसी एक की होकर नहीं रहती है। जो खेल मुझे सबसे आसान नजर आता था, वही आज सबसे मुश्किल खेल लगता है। नेताजी कुर्सी के लिए पूरे पांच साल मेहनत करते हैं।फिर चुनाव होता है।जीत गए तो कुर्सी मिल गई और हारे तो फिर से कुर्सी पाने की जुगत में लग जाते हैं। फिर से उन्हें पूरे पांच साल की मेहनत करनी पड़ती है।कई बार तो नेताजी लंबे समय तक कुर्सी पर काबिज रहते हैं। आखिरी बार चुनाव लड़ने पर कुर्सी ही धोखा दे जाती है।
ये कुर्सी भी ऐसी जालिम है, जो हरएक चरित्र के लोगों की गवाह होती है। नेताजी की कुर्सी, ईमानदार अफसर की कुर्सी, भ्रष्टाचारी की कुर्सी, मेहनती व्यक्ति की कुर्सी, कामचोर की कुर्सी, लापरवाह की कुर्सी आदि।कुर्सी के मोह में सभी फंसे पड़े हैं।उसे बचाने के लिए तो कुछ टोटके भी करते हैं। बसपा की जनसभाओं में मायावती की कुर्सी भी अलग रखी होती है। बस में कंडक्टर भी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ता।सवारी के बीच जाकर टिकट काटने के बजाय वह कुर्सी पर ही जमा रहता है।कई दफ्तरों से तो लोग कुर्सी से इसलिए नहीं उठते हैं कि कहीं दूसरा न ले बैठे।क्योंकि महंगाई के इस दौर में कुर्सी कम हो रही है और दौड़ लगाने वाले बढ़ रहे हैं।एक दफ्तर में तो एक कर्मचारी हर दिन सीट पर आने के बाद अपनी कुर्सी को तलाशते हैं।उन्हें कुर्सी अपनी जगह नहीं मिलती है।फिर परेशान होकर उन्होंने कुर्सी को मेज से बांधना शुरू कर दिया।पर कुर्सी उड़ाने वाले भी कम नहीं। वे रस्सी के बंधन को काटकर कुर्सी अपनी सीट तक घसीट देते हैं। ऐसे में महाशय ने कुर्सी को स्कूटर के ब्रेक की वायर से बांधना शुरू कर दिया।
कई कुर्सी मनहूस भी मानी जाती है।उसमें जो बैठ गया, तो समझो वह ज्यादा दिन नहीं टिका। एक दफ्तर मंे इंचार्जों की नीले रंग की कुर्सी होती थी।कई इंचार्ज आए और चले गए। फिर क्या था।नीले रंग की कुर्सी को मनहूस कहा जाने लगा।उसमें बैठने से सभी परहेज करने लगे। इस मिथ्या को तोड़ने का साहस वहां किसी का नहीं हुआ।अपनी कुर्सी बचाने के लिए दफ्तरों में लोग दूसरे की कुर्सी पर कीचड़ उछालने से भी परहेज नहीं करते हैं।इस खींचतान में अच्छे दोस्त भी दुश्मन बनने लगते हैं।दूसरों को नीचा दिखाने के लिए खुद नीचे गिरने से भी उन्हें परहेज नहीं होता। खैर महंगाई के इस दौर में कुर्सी की संख्या घट रही है, उसे पाने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।ऐसे में कुर्सी के दावेदारों में जोरआजमाइश हमेशा रहती है।कुर्सी दौड़ में कायम रहने के लिए कुछ नया करना हरएक के लिए जरूरी हो गया है।जब तक रेस में जीतते रहे, तो कुर्सी भी बची रहेगी।जिस दिन रेस के बाहर हुए तो दोबारा कुर्सी पाना हरएक के लिए संभव नहीं है।क्योंकि कुर्सी की संख्या तो लगातार घट रही है और उसके लिए दौड़ जारी है। ......
भानु बंगवाल
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