Saturday, 30 March 2013

Live and let others live...

खुद जिओ औरो को भी जीने दो....
चाहे कोई त्योहार हो या फिर धार्मिक अनुष्ठान। अब सभी में दिखावा ज्यादा ही होने लगा है। हमारे पर्वों का सौम्य रूप हमारी ही निम्न अभिरुचि के अनाचार से धीरेधीरे विकृत होता जा रहा है। दीपावली हो या फिर दशहरा। इन सभी त्योहार को मनाने की  परंपरा अब विकृत रूप धारण करती जा रही है। इन सभी में पैसों की चमक हावी होती जा रही है। त्योहार को अब संपन्नता से जोड़कर देखा जाने लगा है। दीपावली में जहां आतिशबाजी में करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जाने लगा है, वहीं हाल ही में मनाई गई होली भी अब पैसों की चमक से अछूती नहीं रही है। होली आई और चली भी गई। रंगों का त्योहार। आपसी प्रेम व भाईचारे का प्रतीक। अमीर व गरीब सभी एक दूसरे पर गुलाल लगाते हैं। सभी के चेहरे रंगे रहते हैं। शक्ल व सूरत देखकर यह फर्क नहीं लगता कि कौन लखपति है या फिर कौन गंगू तेली। सभी तो एक ही तरह से रंग में सरोबर हुए रहते हैं। अब होली में भी फर्क पैदा होने लगा है। अमीर की होली, गरीब की होली, नेता की होली, पुलिस की होली, मजदूर की होली बगैरह, बगैरह...। अलग अंदाज में अलग-अलग होली। अधिकांश में सिर्फ समानता यह रही कि सभी जगह एक दूसरे पर रंग लगाया गया और जमकर शराब उड़ाई गई। अब तो मोहल्लों में भी जब किसी के घर रंग लगाने पहुंचो तो रंग लगाने के साथ ही मेहमान अपने मेजवान को एक पैग का आफर देने लगता है। कितना भी बताओ कि मैं दारू नहीं पिता, लेकिन वह ऐसी जिद्द करता है कि जैसे समुद्र मंथन में निकला गया अमृत परोस रहा हो। उसे पीने से ही अमृत्व प्रदान होगा। यही विकृत रूप बना दिया हमने अपने त्योहारों का।
साल के अंत में जब दीपावली आती हो तो हिंदुओं के त्योहारों पर भी ब्रेक सा लग जाता है। फिर वसंत पंचमी या फिर सक्रांत से त्योहारों की शुरूआत होती है। स्कूली छात्रों की परीक्षा का भी यही वक्त होता है। इसके बावजूद धार्मिक अनुष्ठान की इतनी बाढ़ सी आ जाती है कि हर गली, हर शहर, हर गांव में कहीं भागवत, कहीं जगराता तो कहीं अन्य अनुष्ठान का क्रम चलता रहता है। धार्मिक अनुष्ठान करो, दान दो, अच्छे संदेश व परोपकार की बातें सुनों और उनसे कुछ अपने जीवन में भी अमल करो। तभी यह संसार खूबसूरत बनेगा। पर यह कहां की रीत है कि इन अनुष्ठान के नाम पर दूसरों की सुख शांति को ही छीन लो। बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं और मोहल्लों में तेज आवाज से लाउडस्पीकर चल रहे हैं। दिन में तो ठीक है, लेकिन रात को देवी जागरण के नाम पर पूरे मोहल्ले की नींद हराम की जा रही है। क्यों चिल्ला रहे हो भाई पूरी रात भर। यही जवाब मिलेगा कि देवी को जगा रहे हैं। मोहल्ले वाले सो नहीं पाए, फिर देवी क्यों नहीं जाग रही है। वह क्यों सोई पड़ी है। ऐसी कौन सी तपस्या या अनुष्ठान है, जिससे कई लोगों को परेशान कर हम भगवान को खुश करने की कल्पना करते हैं। न खुद सो पाए और न ही आस पड़ोस के लोगों को ही सोने दें। बगैर लाउडस्पीकर के जगराता करने से क्या देवता खुश नहीं होंगे। क्या देवता भी यह देखता है कि भक्त ने कितनी जेब ढीली की। उसी के अनुरूप उसे फल मिलेगा। यही सोच हमें कहां धकेल रही है। इस पर मनन करने का समय आ गया है। धार्मक अनुष्ठान करो। घर में खूब हुड़दंग करो, लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि हम आवाज का वाल्यूम इतना रखें कि दूसरों को परेशानी न हो। किसी दिल के रोगी या अन्य की तबीयत न बिगड़े। यदि मानव ही मानव की परेशानी का ख्याल रखेगा तो शायद आपके भीतर बैठा भगवान भी खुश होगा। यदि आपकी व दूसरे की आत्मा खुश है तो समझो कि भगवान खुश है। क्योंकि व्यक्ति के कर्म ही उसे भगवान व राक्षस बनाते हैं। व्यक्ति ही स्वयं भगवान का रूप है और वही अपने कर्मों से राक्षस भी है। इसलिए तो कहा गया है कि खुद जिओ और औरों को भी जीने दो।
भानु बंगवाल

Saturday, 23 March 2013

Son's Game, father's concern ...

बेटे का खेल, पिता की चिंता ... 
हर माता-पिता का सपना होता है कि उनकी औलाद उनके मनमुताबिक सही राह पर चले। सही व गलत को समझे, तरक्की करे और एक ऐसा व्यक्तित्व बने कि दूसरों के लिए उदाहरण बन जाए। इसके बावजूद यह दुनियां काफी रंगबिरंगी है। इसमें खुशियों के प्रतीक अबीर, गुलाल के साथ ही दुख देने वाले काले रंग भी हैं। कोई नहीं चाहता कि उसकी जिंदगी काली हो, लेकिन यह रंग भी जरूर आता है। कई बार तो व्यक्ति के जीवन में काला रंग चढ़ता ही जाता है। इससे छुटकारा पाने के लिए वह तरह-तरह का प्रयास करता है। यदि मामला औलाद का हो तो व्यक्ति यही चाहता है कि उसकी औलाद होनहार हो। लड़का व लड़की में भले ही वह भेद न करने के कितने ही बखान करता है, लेकिन उसके व्यवहार में फर्क जरूर रहता है। लड़का है तो कोई डर नहीं यह सोचकर उसे कुछ ज्यादा ही आजादी दी जाती है। वहीं लड़की को बताया जाता है कि घर की चाहरदीवारी से बाहर कदम रखने के लिए उसे घर में किसी बड़े से अनुमति लेनी पड़ेगी। कुछ ऐसी ही छूट, सख्ती या लापरवाही ही व्यक्ति के परिवार को बिगाड़ने का काम करती है। जब समय निकल जाता है, तो बाद में पछताने के सिवा कुछ नहीं रहता।
बालाजी के दो बच्चे हैं। इनमें बड़ा बेटा है और उससे छोटी बेटी। करीब दो साल पहले बेटे ने दसवीं बोर्ड की परीक्षा दी थी। बेटा होनहार था। ए ग्रेड से परीक्षा पास की। आसानी से अच्छे अंक मिलने पर बालाजी का बेटा काफी लापरवाह हो गया। शाम को घर से खेलने के बहाने निकलता, तो उससे ज्यादा सवाल-जवाब नहीं होते। वहीं, बेटी का घर से बाहर निकलना भी मना था। माता या बड़े भाई के साथ ही वह स्कूल जा पाती। शाम को बेटा खेलने के नाम पर घर से गायब रहने लगा। वहीं बेटी घर में ही बैठकर माता के साथ काम में हाथ बंटाती या फिर पढ़ने बैठ जाती। लड़का व लड़की में इस फर्क के सोच की बुनियाद जो घर परिवार में पड़ी उसका असर उनकी जिदंगी में भी होने लगा। ग्याहरवीं में बालाजी का बेटा गया, लेकिन स्कूल से बंक मारने लगा। एक ही स्कूल में दोनों भाई-बहन के पढ़ने से प्रिंसिपल ने लड़की से उसके भाई की शिकायत कर माता-पिता को बताने को कहा। इस पर बालाजी जब स्कूल पहुंचे तो पता चला कि बेटा तो अक्सर गायब रहता है। स्कूल की फीस भी उसने जमा नहीं कराई। ऐसे में ग्याहरवीं में उसका स्कूल से नाम भी काटा जा चुका है। उसका पास होना भी मुश्किल है। बालाजी को बेटे की करतूत का पता चला तो उन्होंने उसकी घर में पिटाई भी की। स्कूल की फीस जमा कराई और उसे नियमित स्कूल जाने की चेतावनी भी दी। आठ- दस दिन बेटा नियमित स्कूल भी गया, लेकिन फिर उसी ढर्रे पर लौट आया।
बालाजी ने पता लगाने की कोशिश की कि उसका बेटा स्कूल से गायब होने के बाद कहां जाता है। पता चला कि वह तो गली-मोहल्लों में खुले स्नूकर खेल के नाम पर चल रहे जुआघर में जाकर अपना जीवन बर्बाद कर रहा है। स्नूकर व बिलियर्ड्स के नाम पर इन दुकानों में हारजीत का दांव लगाया जा रहा है। कई बच्चे इस खेल के बहाने अपना समय ऐसे जुआघर में बिताने लगे हैं।
शारीरिक खेल फुटबाल, बेडमिंटन, कब्बड्डी आदि से मन व शरीर स्वस्थ्य होता है, लेकिन यह कैसा खेल स्नूकर है, जिसमें बालाजी का बेटा सपनों की दुनियां में जीने की कला सीख रहा है। एक ही दांव में लाखों कमाने के इरादे से वह पढ़ाई में भी मन नहीं लगाता। नतीजा वही निकला जो तय था। बालाजी का बेटा परीक्षा में फेल हो गया। दोबारा उसी क्लास मे बैठने को वह राजी नहीं हुआ। उसे अपने पिता का डर तक नहीं रहा। काफी समझाने के बाद वह स्कूल जाने को तैयार हुआ, लेकिन स्कूल से बंक मारने का क्रम भी कम नहीं हुआ। बालाजी ने इस समस्या को अपने कुछ मित्रों को बताया। कुछ ने मुफ्त में कई सलाह दे डाली। पर सही सलाह कोई नहीं दे सका। एक मित्र ने कहा कि बेटे को संभालने के लिए पहले आपको सुधरना होगा। आप अक्सर शराब के नशे में रहते हो। ऐसे में बेटे की नजर में आपकी कोई कीमत नहीं है। नशेड़ी जानकर वह आपकी इज्जत भी नहीं करेगा। एक मित्र ने सख्ती से पेश आने की सलाह दी। इसी तरह अलग-अलग सलाह से लैस बालाजी को सख्ती की सलाह ही पंसद आई। खुद भी शराब वह छोड़ना नहीं चाहते थे। जबकि सच्चाई यह थी कि एक नशेड़ी भले ही परिवार के लिए लाख सुविधाएं जुटा ले, लेकिन उसकी नशे की लत का असर परिवार के हर सदस्यों पर ही पड़ता है। बच्चों की समुचित निगरानी न होने का असर बालाजी के बेटे पर भी पड़ गया था। एक मित्र ने बालाजी से पूछा कि बेटा स्नूकर खेलने जाता है, उसे इसके लिए पैसे कौन देता है। इस पर बालाजी ने कहा कि दोस्त देते होंगे। मित्र ने कहा कि घर में जो पैसे रखे होते हैं उसका हिसाब किताब रखा करो। कहीं ऐसा तो नहीं कि...। इस पर बालाजी को मित्र पर गुस्सा आ गया, पर वह बोले कुछ नहीं। कुछ दिनों के बाद बालाजी मित्र के पास पहुंचे और कहा कि आप ही सही थे। बेटे ने कहीं का नहीं छोड़ा। वह पहले स्कूल फीस ही उड़ाता रहा। बाद में घर से पैसे पर ही हाथ साफ करने लगा। उन्होंने मित्र को बताया कि करीब एक माह में ही बीस से पच्चीस हजार रुपये कम पाए गए। वह पैसों का हिसाब तो रखते नहीं थे, हो सकता है कि बेटा ज्यादा रकम स्नूकर में उड़ा गया।
कुछएक बार बालाजी ने स्नूकर केंद्र में पहुंचकर बेटे को वहां खेलते हुए पकड़ा। वहीं से पीटते हुए घर लाए। दुकान के संचालक को चेतावनी दी कि बच्चों को मत खेलने दिया कर। संचालक से कहा कि छोटे बच्चों को भगा दिया करे। इसके बावजूद संचालक नहीं माना। संचालक भी तो भोले भाले बच्चों के बहाने लाखों रुपये कमाने के सपने देख रहा था। वह बालाजी की बातों में आकर अपना नुकसान क्यों कराता। बालाजी की बेटी जहां माता से पास ही रहती, वहीं बेटा तो हाथ से निकल गया। बालाजी दोपहर बाद ड्यूटी को घर से जैसे ही निकलते। उनके पीछे बेटा भी जुआघर को चल देता। अब बालाजी को ऐसे जुआघर चलाने वालों पर ही क्रोध आ रहा था। उन्हें यही लगा कि पुलिस भी इस धंधे में लिप्त लोगों से मिली हुई है। तभी तो ऐसे स्थानों पर कोई कार्रवाई नहीं करती। फिर भी उन्होंने खेल के नाम पर चलने वाले ऐसे जुआघरों को बंद कराने की मुहीम छेड़ दी। पुलिस के बड़े अधिकारी से वह मिले और समस्या समझाई। अधिकारी भी ईमानदार थे। ऐसे में नतीजा भी सार्थक ही आया। उनके घर के आसपास के सभी ऐसे जुआघरों छापा पड़ा और पुलिस ने सील कर दिए। फिलहाल बालाजी इन दिनों खुश नजर आ रहे हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि जब तक बांस नहीं रहेगा, तब तक बांसुरी भी नहीं बजेगी। साथ ही वह बेटे को नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ा रहे हैं। वह जानते हैं कि किसी लत को छुड़ाने के लिए लती को उससे दूर रखना ही बेहतर उपाय है। पुलिस को मोटा चढ़ावा देने के बाद ये जुआघर जल्द शुरू हो जाएंगे। ऐसे में बेटे को ही इससे दूर रखने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा।
भानु बंगवाल

Thursday, 21 March 2013

Carefully depress the eye...

संभलकर दबाना आंख, कहीं मिटा न दे साख.... 
सुबह जब प्रकाश की नींद खुली तो बांयी आंख में दर्द हो रहा था। आंख पूरी तरह से नहीं खुल रही थी। वह परेशान हो उठा कि क्या करे। शायद एक दिन पहले मोटरसाइकिल चलाते समय आंख में धूल- मिट्टी के कण या फिर कोई तिनका चला गया था। उस समय तो हल्का सा दर्द महसूस हुआ, लेकिन अब तो यह तिनका बेहद दर्द दे रहा था। कुछ दवा भी डाली, लेकिन आंख बंद करने पर ही आराम हो रहा था। अब आफिस जाना था, लेकिन यही डर था कि रास्ते भर एक आंख बंद रहेगी और किसी लड़की की नजर उस पर पड़ेगी तो कहीं अशलीलता का मुकदमा न ठोक दे। आजकल कानून ही ऐसे बन रहे हैं। एक बार घूरने पर जमानत हो जाएगी, लेकिन दूसरी बार घूरा तो जमानत ही नहीं होगी। प्रकाश को याद आया कि शायद ही उसने किसी को कभी सीधे नहीं घूरा।यदि कोई चेहरा आकर्षित लगा तो उसने कनखियों से ही उसे देखने की कोशिश की। अब यह एक आंख बंद है। इसका क्या किया जाए। घूरने का आरोप तो नहीं लगेगा, लेकिन अशलीलता का आरोप लग सकता है। काला चश्मा तलाशा कि वही आंख में लगा लिया जाए। चश्मा होता तो घर में मिलता। बच्चे का छोटा चश्मा तो मिल गया, लेकिन बड़ों का चश्मा नहीं मिल सका। आफिस जाने से पहले प्रकाश ने डॉक्टर से पास जाना ही उचित समझा। चल दिया मोटरसाइकिल उठाकर सरकारी अस्पताल में। आंख से लगातार पानी निकल रहा था। नेत्र चिकित्सक के कक्ष के बाहर मरीजों की लंबी लाइन थी। पर्ची बनाकर प्रकाश भी लाइन में खड़ा हो गया। डॉक्टर साहब को सुबह आठ बजे सीट पर बैठना था, लेकिन वह तो साढ़े दस तक भी सीट पर नहीं बैठे। पता चला कि जैसे  किसी सभा में नेता तब पहुंचता है, जब तक मौके पर भीड़ जमा न हो जाए। ठीक इसी प्रकार यह सरकारी डॉक्टर भी तब सीट पर पहुंचते हैं, जब मरीजों की लंबी लाइन लग जाती है। साथ ही जब तक मरीज परेशान होकर कुलबुलाने नहीं लगते, तब तक डॉक्टर साहब सीट पर बैठते ही नहीं।
प्रकाश लाइन में खड़ा था। बगल में एक महिला भी लेडिज लाइन में खड़ी थी। वह थक गई तो बगल वाली से कहकर समीप ही बैंच में बैठ गई। प्रकाश ने कनखियों से उस महिला को देखा। लगा कि शायद उसे जानता है। ऐसे में वह सीधे ही देखने लगा। तभी आंख का दर्द तेज हुआ और उसकी बाईं आंख चल गई। आंख क्या चली कि महिला ने आगबबूला होकर प्रकाश को घूरा। अब महिला घूरे तो कोई कानून नहीं बना। यह प्रकाश जानता था, लेकिन वह मुसीबत में पड़ गया। उसने महिला का गुस्सा भांपने को उसे दोबारा देखा कि फिर उसकी बांई आंख बंद हो गई। महिला को गुस्सा आ रहा था। उसने अपने पति को प्रकाश की हरकत से अवगत कराया। पति महाशय भी काफी तगड़ा, लंबा चौड़ा था। वह प्रकाश को खा जाने वाली निगाह से देखने लगा। अब प्रकाश की आंख का दर्द घबराहट में हवा हो चुका था। उसके समझ नहीं आया कि वह क्या करे। उसे साफ अहसास हो रहा था कि अब तमाशा होने वाला है। पहले महिला मारेगी, फिर पति मारेगा और उसके बाद कुछ मरीज भी उस पर हाथ आजमाएंगे। फिर समाचार पत्रों में छपेगा कि एक महिला को छेड़ने के आरोप में दो बच्चों के बाप की अस्पताल में पिटाई। अब प्रकाश ने अपनी जान बचाने के लिए एक तरकीब सोची। घबराबट में आंख में दर्द महसूस भी नहीं हो रहा था, लेकिन उसने महिला के पति की तरफ चेहरा कर अपनी बांयी आंख दबा दी। कुछ-कुछ देर बाद वह आंख को दबाता रहा। पति उसके पास आया और निकट से घूरने लगा। प्रकाश कांप रहा था। साथ ही वह आंख को भी दबाता रहा। उसकी आंख से पानी तो पहले ही निकल रहा था। तब तक डॉक्टर भी कक्ष में बैठ चुका था। पति महाशय ने कहा कि भाई साहब आपको ज्यादा तकलीफ हो रही है। आप हमसे पहले अपनी आंख दिखा लो। उसने आगे खड़े अन्य लोगों से भी यही अनुरोध किया कि उसे पहले दिखा लेने दो। लोग भी मान गए। प्रकाश का पहला नंबर आ गया। वह खुश था कि जिस आंख से उसकी शामत आने वाली थी, वही आंख उसे लाइन में सबसे पहले खड़ा कर गई। (बुरा मत मानो-होली है, होली की शुभकामनाएं)  
भानु बंगवाल

Tuesday, 19 March 2013

Confidence .....

आत्मविश्वास.....
जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास भी कभी धोखा दे जाता है। कई बार तैराक ही भंवर में फंसकर बहने लगता है। ऐसे में आत्मविश्वास के साथ ही समझदारी से काम लेना ही बेहतर होता है। किसी काम को करने से पहले ही उसके पूरे होने में कई किस्म की शंका पालना ही कमजोर आत्मविश्वास की निशानी होती है। पहले काम तो शुरू किया जाए। उसे करने के दौरान जो परेशानी हो, उसे दूर करने के लिए उसका विकल्प तलाशना चाहिए। फिर काम आसान होता चला जाएगा और उसे करने में भी मजा आएगा। यही तो है आत्मविश्वास। यह एक दिन में नहीं आता। निरंतर मेहनत करने व कर्म करने से ही व्यक्ति का आत्मविश्वास मजबूत होने लगता है।
चाहे घर में किसी की शादी हो या फिर कोई और आयोजन। इसे पूरा करने के लिए व्यक्ति योजना बनाता है। यानी समुचित प्रबंधन करना है। योजना का खाका खींचता है। फिर उस खाके के मुताबिक काम करता है। लगभग हमारी परिकल्पना के मुताबिक ही काम होता चला जाता है। कभी कभार बीच में परेशानी भी खड़ी होती है। इस परेशानी का हम तोड़ भी तलाश लेते हैं। ऐसी रणनीति ही हमारे आत्मविश्वास का नतीजा होती है।
वैसे तो आत्मविश्वास एक दिन या फिर किसी एक घटना से मजबूत नहीं होता। व्यक्ति को छोटे से ही इसका अभ्यास होता चला जाता है। एक परिवार को ही लो। लोग बच्चों को बच्चा ही समझते हैं। बच्चे भी माता-पिता पर निर्भर हो जाते हैं। स्कूल से घर जाना हो या फिर घर के लिए छोटा-मोटा सामान दुकान से लाना हो। बच्चों पर माता-पिता का विश्वास नहीं होता। ऐसे में उनका आत्मविश्वास भी कैसे जागृत होगा। होना यह चाहिए कि जब बच्चा दो और दो चार जोड़ना सीख रहा हो तो उससे हल्की-फुल्की खरीददारी करानी चाहिए। ताकी वह भी दुकान से घर का सामान ला सके। हिसाब-किताब जोड़ सके। बच्चा समझकर दुकानदार उसे फटे नोट न पकड़ा दे। ऐसी छोटी-छोटी चीजों का उसे ज्ञान होना चाहिए। ऐसा ज्ञान उसे तब ही आएगा, जब उसे हम जिम्मेदारी सौंपेंगे उस पर विश्वास करेंगे। जब मेरा बड़ा बेटा चौथी क्लास में पढ़ता था और छोटा केजी में। उस समय मैने बेटों को जूड़ो सीखने भेजा। घर से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित जूड़ो हाल में उन्हें कभी मैं छोड़ता और कभी मेरी पत्नी। उनसे बड़े बच्चों को भी उनके अभिभावक ही जूड़ो हाल तक छोड़ा करते थे। एक दिन जूड़ो कोच ने मुझसे कहा कि बच्चों को कहो कि खुद ही टेंपो पकड़कर यहां तक पहुंचे। पहले मैं हिचकिचाया कि अभी वे छोटे हैं। फिर मैने बच्चों को टेंपो मैं बैठाना शुरू किया। कुछ ही दिन में दोनों घर से खुद ही निकलने लगे और जूड़ो के प्रशिक्षण के बाद घर आने लगे। घर के छोटे-बड़े काम में दोनों का सहयोग लिया जाने लगा। यह सहयोग आज भी जारी है, जबकि बड़े बेटे ने नवीं व छोटे ने पांचवी की परीक्षा हाल ही में दी।
परीक्षा समाप्त होने के बाद कुछ दिन दोनों घर में धमाचोकड़ी मचाते रहे। कंप्यूटर गेम्स, टेलीविजन कितना बहला सकते हैं। दोनों घर में परेशान होने लगे। न मुझे समय कि मैं कहीं ले जाऊं और न ही पत्नी को। एक दिन पहले ही बच्चों की नानी का फोन आया कि सहारनपुर आ जाओ। बड़े बेटे ने कहा कि अभी मम्मी के स्कूल में छुट्टी नहीं पड़ी है। जब पड़ेंगी तब आऊंगा। नानी का घर। मैने तो अपनी नानी या नाना दोनों ही नहीं देखे। दादी भी तब स्वर्ग सिधार गई थी, जब मैं करीब पांच साल का था। इसके बावजूद मैने अपनी मां को नाती व पोतों के साथ प्यार जताते हुए देखता हूं। मेरी भांजी, भांजा, भतीजी, भतीजा या फिर मेरे बेटे सभी उसे प्यार करते हैं। वह भी बच्चों को कहानी सुनाती है। ऐसे में बच्चों का भी मन बहलता है और मेरी माताजी का भी। ऐसे में मैं भी अपने बच्चों को उनकी नानी से क्यों दूर रखूं। मैने बड़े बेटे से कहा कि अब तुम पंद्रह के होने वाले हो। खुद ही नानी के घर चले जाओ। छोटे को भी साथ ले जाओ। कल रात ही बच्चों ने पैकिंग कर दी। साथ ही यह भी कहा कि नानी को सरपराइज देना है, उन्हें मत बताना कि हम आ रहे हैं।
कल रात ही कपड़ों की पैकिंग हो गई। जिस स्कूल बैग में पहले किताबें होती थी, वह कपड़ों से ठसाठस भर गया। सुबह मैने दोनों बच्चों को सहारनपुर की बस में बैठा दिया। बड़े को पता था कि कहां उतरना है। फिर भी उसे मोबाइल थमा दिया और बताया कि कुछ-कुछ देर में संपर्क करके यह बताते रहना कि कहां पहुंच गए।
करीब ढाई घंटे बीते, लेकिन बेटे का फोन नहीं आया। मैं परेशान होकर उसे फोन मिलता रहा कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई। कहां तक पहुंचे होंगे। कहीं बस खराब तो नहीं हो गई। उसका फोन लग नहीं रहा था। मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी। काफी देर बाद बेटे का फोन आया और उसने बताया कि उसने जानबूझकर फोन नहीं किया था। उसे खुद पर आत्मविश्वास था। वह नानी के घर सकुशल पहुंच गया है। यहां उन्हें देखकर सभी खुश हैं और घर में मेले या किसी त्योहार जैसा माहौल है।
भानु बंगवाल
  

Saturday, 16 March 2013

Small fish can kill big fish..

जी हां, छोटी मछली भी मार सकती है बड़ी को......
हर सुबह एक्वेरियम के आगे जैसे ही मैं पहुंचता हूं, तो भोजन की चाहत में उसके भीतर इतराती मछलियां ऊछल-कूद मचाने लगती हैं। कितना आराम आता है, सुबह-सुबह मछलियों को निहारना। मन शांत रहता है। साथ ही हर दिन उन्हें देखने के बाद भी उत्सुकता कम नहीं होती। यही नहीं यदि आप हाई ब्लड प्रेशर के शिकार हैं और तनावग्रस्त हैं, तो घर में एक्वेरियम लाकर मछलियां पाल सकते हैं। पानी में तैरती रंगीन मछलियों को कुछ देर निहारने से ये बीमारी नियंत्रित हो सकती है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। पानी में दिखाई देने वाली रंगीन मछलियों के चलने से निकलने वाली तरंग आंखों को आराम देती है। इससे व्यक्ति के नर्वस सिस्टम को काफी आराम पहुंचता है, लेकिन इस आराम को हासिल करने के लिए भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। यदि जरा सी चूक हो जाए, तो आराम की बजाय आपको उलटा टेंशन हो सकती है। क्योंकि देखभाल में चूक होने से मछलियां बीमारी की चपेट में आने लगती हैं। यदि कोई मछली बीमार होती है, तो उस पर दूसरी हमला करने लगती है। कमजोर पर हमला करना हर प्राणी की फितरत है। वह यह नहीं सोचता कि इस हमले से उसे ही नुकसान पहुंचेगा। ऐसा ही मछलियों में भी होता है। बीमार व कमजोर को अन्य मछली नोंचने लगती हैं। ऐसे में वे भी बीमार होने लगती हैं और एक-एक कर सबकी मौत होने लगती है। ऐसे में जल की रानी को बचाने व स्वस्थ्य रखने के लिए उन पर हर समय नजर भी रखनी पड़ती है। यदि मछली स्वस्थ्य तो उसे पालने वाला भी खुश रहता है। 
यूं तो हर व्यक्ति की अपनी रुचि होती है। वह रंगों व आकार व अपनी जेब के वजन के हिसाब से एक्वेरियम में मछली पालता है। मछली को पालने के लिए समय से भोजन, एक्वेरियम की सफाई, मछलियों को उसमें पर्याप्त आक्सीजन मिल रही है या नहीं, इन सभी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। बेजुवान प्राणी कोई परेशानी होने पर बता नहीं पाता। सिर्फ उनकी हरकत से ही हम उनके सुख-दुख का अहसास कर सकते हैं। जैसे सुबह जब मछलियों के भोजन का समय होता है तो जो व्यक्ति उन्हें नियमित रूप से दाना देता है, उसे देखते ही सभी मछलियां ठीक उसी तरह छटपटाने लगती है, जैसे कूत्ता या अन्य पालतू भोजन देख कर खुश होता है। यदि उनमें से कोई मछली शांत व चुपचाप बैठी हो, तो यही समझा जाता है कि उसे कोई परेशानी है।
करीब आठ साल से सुबह उठते ही सबसे पहले मैं एक्वेरियम में मछलियों को दाना देता हूं। इसके बाद मेरी दिनचर्या प्रारंभ होती है। इन आठ साल में मैने अनुभव किया कि मछलियों का स्वभाव भी अन्य प्राणी व मनुश्य की तरह की होता है। उन्हें मनुश्य के समान बीमारी होती है। साथ ही वे मनुश्य की तरह ही अलग-अलग स्वभाव वाली होती है। अब स्वभाव की बात देखिए नोटी प्रजाति की मात्र एक ईंच छोटी मछली गप्पी करीब 38 रंगों में अलग-अलग रंग की होती है। यह मछली काफी आक्रमक होती है और अपने से पांच से छह ईंच बड़ी मछली को भी मार कर खा जाती है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि छोटी मछली भी बड़ी को मार सकती है। वहीं गहरे नीले रंग की ब्लू लोच प्रजाति की मादा मछली काफी शर्मिली होती है। नर ही भोजन तलाश कर इसकी सूचना मादा को देते हैं। शर्मिली मछली अक्सर किसी आड़ में छिपी रहती है।
इसी तरह मछलियां यदि स्वभाव के विपरीत हरकत करती हैं, तो यह उनके बीमारी के लक्षण होते हैं। ताकतवर मछली के साथ रहने वाली कमजोर मछली या फिर आक्सीजन की कमी से मछलियां हाईटेंशन की शिकार हो जाती हैं। ऐसी मछलियों के फिन की नशों में खून चमकने लगता है। यह रोग समय से भोजन न मिलने, ज्यादा मात्रा में भोजन करने, पानी में घुलित आक्सीजन की कमी के चलते भी हो जाता है। ऐसी मछलियों को एक्वेरियम से बाहर दूसरे बर्तन में रखकर ही उनका इलाज किया जाता है। देसी नमक मिले पानी में कुछ दिन रखने से उनका रोग नियंत्रित किया जा सकता है। इसी प्रकार फ्लू होने की स्थिति में मछलियों की चाल सुस्त पड़ जाती है। ऐसे में वह कुछ खाती भी नहीं और मुंह का रंग सफेद पड़ने लगता है। ऐसे में ब्लू मिथाइलिन दवा की बूंद पानी में डालकर इनका इलाज किया जाता है। साथ ही तापमान बढ़ाने के लिए या तो हीटर लगाया जाता है, या फिर गुनगुना पानी एक्वेरियम में लगाया जाता है। लीवर डेमेज होने पर मछलियों में ड्रॉप्सी बीमारी हो जाती है। इस बीमारी का अभी तक कोई कारगार इलाज नहीं है। इसकी चपेट में आई मछलियों की नाभी से नीचे का हिस्सा बढ़कर लंबा हो जाता है। बार-बार तामपान घटने व बढ़ने से मछलियों में चर्म रोग हो जाता है। उसमें सफेद चकते पड़ने लगते हैं। ऐसे स्पोट को चिमटी से निकाला जाता है। साथ ही एक्वेरियम में लगे हीटर का तापमान 27 डिग्री से 32 के बीच किया जाता है। उपचार के लिए पानी की मात्रा का एक प्रतिशत पोटेशियम परमेंग्नेट भी इसमें मिलाया जाता है। पानी की खराबी में फिन रोग होने पर मछली के फिन गलने लगते हैं। यह रोग मछलियों की जान तक ले लेता है। जरूरत से ज्यादा खाना खिलाने पर मछलियों को दस्त लग जाते हैं। ऐसे में मछलियों दो से तीन दिन तक खाना देना बंद करना पड़ता है। साथ ही एक्वेरियम के पानी को बार-बार बदलना पड़ता है।
एक इंसान के बच्चे को पालने में जैसी मेहनत लगती है। ठीक उसी तरह एक्वेरियम में पली मछलियों की देखभाल में भी मेहनत लगती है। यदि समुचित देखभाल नहीं की तो मछलियां मरती रहेंगी और लोग उसके स्थान पर दूसरी डालते रहेंगे। तब शायद ही आपका ब्लड प्रेशर का रोग नियंत्रित हो पाएगा। यदि आप मछलियों की समुचित देखभाल कर उन्हें हर तरह की बीमारी से बचाते हैं और उनकी उम्र को लंबा करते हैं तभी मछलियों का पालने का आनंद आएगा। साथ ही उन्हें निहारने से आपना मन सदैव प्रसन्न रहेगा। वह भी आपको देखकर ऐसी खुशी का इजहार करेंगी कि आप ही उनके सच्चे हितैशी हैं।  
भानु बंगवाल   

Thursday, 14 March 2013

The Kuar Of Khurja..

खुर्जा के कुंवर साहब....
वर्ष 2004 में मुझे नौकरी के दौरान देहरादून से ऋषिकेश में कुछ दिन के लिए भेजा गया। कारण यह था कि जिस समाचार पत्र में मैं कार्यरत था, उसमें ऋषिकेश में तैनात प्रतिनिधि के पिताजी बीमार थे। चंडीगढ़ में उनका इलाज चल रहा था। इस पर प्रतिनिध चंडीगढ़ गया हुआ था और उसके बदले मुझे व्यवस्था के तौर पर वहां भेजा गया। सहयोगी के पिताजी कई दिन तक बीमार रहने के बाद इस दुनियां से चल बसे। इसके बाद सहयोगी नियमित ड्यूटी करने लगे,लेकिन मुझे वापस देहरादून नहीं भेजा गया। इस तरह मुझे करीब डेढ़ साल से अधिक का समय ऋषिकेश रहते हुए हो गया। एक दिन मैने विचार किया कि कितने दिन होटल में खाना खाऊंगा। चाय नाश्ता तो कमरे में ही बना सकता हूं। उन दिनों उत्तराखंड आंदोलन चल रहा था। बार-बार आंदोलनकारी संगठन बंद की कॉल करते। ऐसे में होटल भी बंद हो जाते थे और मुझे या तो भूखा रहना पड़ता, या फिर मित्रों की कृपादृष्टि का पात्र बनना पड़ता। एक दिन मैं देहरादून घर आया तो स्टोव व कुछ बर्तन साथ ले गया कि कभी-कभार खाना भी बना लिया करूंगा। मैं जिस दिन रसोई का सामान लेकर ऋषिकेश पहुंचा, उसी दिन आफिस पहुंचने पर मुझे ज्ञात हुआ कि मुझे खुर्जा भेजा जा रहा है। यूपी में स्थानीय निकाय के चुनाव हो रहे हैं। इसी की कवरेज के लिए मुझे खुर्जा जाना पड़ेगा। इससे पहले मुझे आवश्यक दिशा निर्देशन के लिए समाचार पत्र के मुख्यालय मेरठ जाना था। यह घटना नवंबर 1995 की है।
सच तो यह है कि उसी दिन मुझे यह ज्ञात हुआ कि खुर्जा बुलंदशहर जिले का एक शहर है। मेरठ जाते समय मैं रास्ते भर खुर्जा के बारे में कल्पना ही कर रहा था। रास्ते में प्लानिंग बना रहा था कि किसी होटल में ठहरूंगा। दिन भर शहर भर में घूमा करंगा और शाम को अखबार के दफ्तर में बैठकर समाचार लिखूंगा और फैक्स से भेजूंगा। तब कंप्यूटर तो थे, लेकिन समाचार पत्रों के जिला मुख्यालयों में ही होते थे। मेरठ में मुझे अखबार के दफ्तर से पता चला कि खुर्जा में पहले से ही समाचार पत्र का प्रतिनिधि तैनात है। उसे किसी दूसरे शहर से भेजा गया था। खुर्जा में वह बीमार रहने लगा था। कई दिनों से वह ड्यूटी से भी गायब है। उसकी इच्छा शायद उस शहर में रहने की नहीं है। ऐसे में मुझे वहां भेजकर फंसाया जा रहा था। मैं मन से इस अनजाने शहर में कुछ दिन रहने को तैयार था, लेकिन वहां अपनी कर्मभूमि बनाने को हर्जिग तैयार नहीं था। मुझे समाचार पत्र के मालिक ने अच्छा-बुरा समझाया। यह बताया कि आस-पास के शहरों में जब मैं जाऊं तो वहां कौन-कौन से स्थानीय पत्रकारों की मदद समाचार संकलन के दौरान ले सकता हूं। मुझे बताया गया कि खुर्जा जाने से पहले मैं बुलंदशहर जाऊं और वहां जिला संवाददाता से मिल लूं। आगे की रणनीति वही समझा देंगे।
रात करीब एक बजे समाचार पत्रों के बंडल लेकर खुर्जा को अखबार की गाड़ी रवाना हुई तो मुझे भी उसमें बैठा दिया गया। सुबह करीब चार बजे अखबार की गाड़ी ने मुझे जिला संवाददाता के घर के सामने उतार दिया। चालक ने बताया कि सीढ़ी चढ़कर घंटी बजा देना। मैने घंटी बजाई तो मुझसे करीब पंद्रह साल ज्यादा की उम्र के एक व्यक्ति ने दरवाजा खोला। मैने उन्हें अपना परिचय दिया। इस पर वह मुझे घर के भीतर ले गए। उन्हें शायद मेरे आने की सूचना पहले से थी। इस भले व्यक्ति ने मेरे लिए बिस्तर बिछाया और सोने के लिए कहा। बाकी बात सुबह होगी यह कहकर उन्होंने मुझे सोने को कहा। मैं बिस्तर पर लेटा, लेकिन मुझे नींद नहीं आई। भविष्य के प्रति तरह-तरह के ख्याल मेरे मन में आने लगे। मैं काफी डरा हुआ था। सुबह उक्त व्यक्ति ने मेरे नहाने को पानी गरम किया। फिर मुझे नाश्ता कराया और मुझे खुर्जा जाने वाली बस में बैठाने के लिए स्कूटर से बस स्टैंड को ले गए।
खुर्जा की बस के पास ही जिला संवाददाता को एक व्यक्ति मिला। उस व्यक्ति से उन्होंने पहले हाथ मिलाया। फिर दोनों में किसी बात को लेकर बहस होने लगी। फिर उन्होंने मेरा उससे परिचय कराया और बताया कि उक्त व्यक्ति खुर्जा ही रहता है। वह भी खुर्जा जा रहा है। आप इसी के साथ खुर्जा चले जाना। यह मुझे समाचार पत्र के दफ्तर भी पहुंचा देगा।
साधारण से कपड़े। कमीज की आस्तीन व कालर के कोने फटे, लेकिन साफ सुथरे कपड़े। एक स्वैटर पहने हुए इस व्यक्ति का परिचय कुंवर साहब के रूप में कराया गया था। कुंवर साहब की आवाज काफी कड़क थी। मैने उन्हें अपना परिचय भानु बंगवाल के रूप में दिया, लेकिन जितने दिन भी वह मुझे मिले, कभी भी मुझे बंगवाल नहीं कह पाए। कभी वह डंगवार कहते तो कभी गंगवार। रास्ते में बातचीत करने पर पता चला कि कुंवर साहब को भी लिखने-पढ़ने का शौक है। जिस दिन से खुर्जा प्रतिनिधि गायब हुआ, उस दिन से वही समाचार पत्र मुख्यालय में समाचार भेज रहे हैं। पंचायत चुनाव का प्रचार शुरू हो गया, ऐसे में वह अकेले चुनाव कवरेज नहीं कर सकते। वह सीधे घटनाक्रम के समाचार ही बना सकते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि जिला संवाददाता उनसे नाराज क्यों है। हुआ यह था कि दुष्कर्म के मामले के आरोपी की जमानत अर्जी जिला जज ने खारिज कर दी थी। फिर उनसे कमरे में अरोपी के वकील वार्ता करते हैं। इसके बाद जिला जज आरोपी के परिजनों व आरोपी को दोबारा बुलवाते हैं, फिर जमानत दे देते हैं। इस मामले को कुंवर साहब ने समाचार बनाकर भेज दिया। यह समाचार प्रकाशित होने पर हंगामा मच गया। जिला संवाददाता वकील भी थे। उन्हें जिला जज ने अपने केबिन में बुलाकर काफी हड़काया। फिर समाचार पत्र को खंडन छापना पड़ा। कुंवर साहब अपनी पर उतर आए। मुझसे कहने लगे कि उनके पास प्रमाण हैं कि इस मामले में अदालत दोबारा बैठी। क्योंकि कोर्ट के मोहर्रिर को जब जज साहब ने आरोपियों को बुलाने को भेजा, तो मोहर्रिर ने इसे अपनी जीडी (रोजनामचे) में इसे दर्ज कर लिया। उसने जीडी में लिखा था कि जब साहब के कहने पर वह आरोपी को बुलाने अपनी सीट छोड़कर गया था। कुंवर साहब का कहना था कि पत्रकार अदालतों के समाचार प्रकाशित करने से डरते हैं, लेकिन उनके समाचार में सच्चाई है। भले ही इस मामले में खंडन प्रकाशित कर दिया गया है, लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट तक शिकायत करेंगे। वह जेल जाने से भी नहीं डरते हैं। उस समय मैंने भी कुंवर साहब को समझाया कि अदालत के मामलों में टिप्पणी नहीं चलती है। ऐसे मामलों में सतर्कता बरती जानी चाहिए। पर वह अड़े रहे कि इस मामले में भ्रष्टाचार हुआ। तभी तो ऐसे मामले में सीधे जमानत दे दी गई। कुंवर साहब अपनी जगह सही थे। मुझे इसका ज्ञान तब हुआ, जब मैं खुर्जा से देहरादून लौट आया था।
कुंवर साहब ने बस में ही मेरा परिचय लिया। फिर मुझे समाचार पत्र के दफ्तर पहुंचा दिया। साथ ही वह भी मेरे साथ ही जमे रहे। मैने उनसे कहा कि किसी होटल में कमरा दिलवा दो। इस पर उन्होंने कहा कि यहां होटल ही नहीं है। कुंवर साहब ने यह सच कहा या झूठ, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं अनजान शहर में उनकी कृपा दृष्टि के सहारे थे। उन्होंने कहा कि मेरे घर रहो। मैने उन्हें समझाया कि मुझे खाने व रहने का ऑफिस से पैसा मिल जाएगा। आप सिर्फ व्यवस्था करा दो। इस पर उन्होंने कहा कि कल व्यवस्था करूंगा। आज फिलहाल आप मेरे घर रहना। मात्र एक दिन के परिचय के बावजूद वह एक अनजान से मोहल्ले में मुझे अपने घर ले गए। वहीं मुझे भोजन कराया और सोने को बिस्तर दिया। मैं रात भर यही सोचता रहा कि करीब तीन साल पहले जो शहर सांप्रदायिक दंगे में झुलसा हो, जहां दंगे की आग बड़ी मुश्किल से ठंडी हुई हो, उस शहर में सांप्रदायिक सदभाव आज भी कायम है। कुंवर साहब के घर में छोटे, बड़े व बूढ़ों ने मेरे से ऐसा व्यवहार किया जैसे मैं उनसे पहले से परिचित हूं।
उस समय खुर्जा शहर में मुझे हर तरफ गंदगी ही गंदगी ही नजर आई। सड़कों के नाम पर गड्ढे व साफ सफाई के नाम पर जगह-जगह दुर्गंध भरे नाले व सड़क किनारे कूड़े के ढेर नजर आए। राह चलते कहीं-कहीं सड़क पर कीचड़ से भी दो चार होना पड़ रहा था। खैर कुंवर साहब ने मुझे तीन सौ रुपये महिने में किराए में एक कमरा दिला दिया। एक फोल्डिंग पलंग व रजाई-गद्दा वह खुद अपने घर से लेकर आ गए और मुझे रहने का अस्थाई ठिकाना मिल गया। हर दिन सुबह कुंवर साहब मेरे पास चले आते। उन्हें साथ लेकर मैं खुर्जा के हर वार्ड में घूमता, आसपास के कस्बे, छतारी, रब्बूपुरा, पहासु आदि का भी मैने भ्रमण किया। खाना होटल में ही खाया। सामाचार लिखने के बाद जब समय बचता तो सिनेमा हॉल जाकर मैने पिक्चर भी देखी। दोपहर के वक्त पिक्चर हॉल का नजारा मुझे कुछ अपने शहर से अलग ही नजर आया। हॉल के भीतर कितने दर्शक थे, इसका मुझे बाहर से क्या पता लगता, लेकिन सिनेमा हॉल के बाहर श्रोताओं की भीड़ जमी रहती। तब हॉल की छत पर लाउडस्पीकर लगाए जाते थे और पिक्चर के सारे डायलॉग व गाने बाहर सड़क पर खड़ा व्यक्ति सुन लेता था। रिक्शेवाले, तांगेवाले खाली समय पर सिनेमा हॉल के बाहर जमे रहते और बाहर से ही डायलॉग सुनते। कई बार तो ताली व सिटी की आवाज भी होने लगती। यानी बाहर बैठे ही पिक्चर के क्लाइमैक्स का पूरा मजा।
होटलों की गंदगी को देख मुझे वहां खाना खाने में दिक्कत होने लगी। मैं पहले से ही कमजोर कदकाठी का था, वहां और सूखने लगा। किसी तरह मैने 15 दिन खुर्जा में बिता दिए। इस बीच खुर्जा प्रतिनिधि भी लौट आया। इस पर मैने अपने समाचार पत्र मुख्यालय में संपर्क कर वापस जाने की इजाजत मांगी, लेकिन वहां तो शायद कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। मुझे खुर्जा में रहने के लिए तैयार किया जा रहा था। एक दिन सभी समाचार पत्रों में पहले पेज पर समाचार प्रकाशित हुआ कि स्थानीय निकायों के चुनाव टल गए। अगली तारिख बाद में घोषित होगी। इस पर मैंने कुंवर साहब व खुर्जा प्रतिनिधि से विदा ली और मेरठ रवाना हो गया। वहां से मुझे कुछ दिन देहरादून भेजा गया फिर सहारनपुर। देहरादून आकर ही पता चला कि कुंवर साहब ने जिला जज की सुप्रीम कोर्ट में जो शिकायत की थी, उसका असर हो गया। क्योंकि सभी समाचार पत्रों में पहले पेज पर बुलंदशहर के जिला जज के निलंबन का समाचार प्रकाशित हुआ था। जिला जज पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। आज इस घटना के करीब सत्रह साल से अधिक का समय हो गया है, लेकिन मैं कुंवर साहब जैसे व्यक्तित्व की सादगी, मेहमाननवाजी, स्पष्टवादिता को कभी नहीं भुला सकता।        
 भानु बंगवाल  

Sunday, 10 March 2013

How the Maya, how these people..

कैसी ये माया, कैसे ये लोग
छल, कपट, लोभ, मोह, द्वेष ये सभी बुराइयां ही मानव को पतन की तरफ ले जाती हैं। ऐसा नैतिक शिक्षा की किताबों में भी लिखा होता है और समाज सुधार का सपना देखने वाले भी हर व्यक्ति को जीवन की इस सच्चाई से अवगत कराते रहते हैं। इसके बावजूद समाज में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन इनसे सबक काफी कम ही लोग लेते हैं। व्यक्ति जीवन भर मेहनत करता है और बुराइयों से हमेशा दूर रहने का सपना देखता है या फिर प्रयास करता है। पर यह संसार का रंगमंच ही ऐसा है कि इसमें अभिनय करने वाले पात्र को हमेशा अच्छाई व बुराई से जूझना पड़ता है। कभी पराए भी अपने हो जाते हैं और कभी अपने भी दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगते हैं। ज्ञानू की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
पंजाब के किसी जिले के एक गांव में रहने वाला ज्ञानू बचपन में ही चेचक की बीमारी के चलते दृष्टिहीन हो गया था। सिख पिता की खेती थी। जमीन जायजाद थी। वे ज्ञानू को लेकर देहरादून आए और उन्होंने उसे पढ़ाने के लिए दृष्टिहीनों के विद्यालय में दाखिला करा दिया। ज्ञान की जिंदगी बदलने लगी। होनहार बालक में वह शुमार होने लगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद उसकी बतौर प्रशिक्षक सरकारी विभाग में नौकरी भी लग गई। पहले दूसरों पर जो निर्भर था, वह अपने पांव में खड़ा हो गया। ज्ञानू काफी सफाई पसंद था। वह हमेशा अपने घर में खुद ही झाडू-पौछा करता, खुद की कपड़े धोता, खुद ही अपना खाना बनाता और खुद ही बर्तन साफ करता। उसके कपड़े देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि वह दृष्टिहीन है।
ज्ञानू को आस पड़ोस पर उसके परिचित सभी लोगों ने यही सलाह दी कि वह शादी कर ले। अभी वह खुद ही कामकाज कर लेता है, लेकिन दुख बीमारी की अवस्था में पत्नी का होना भी जरूरी है। साथ ही बच्चे होंगे तो भविष्य की चिंताएं कम हो जाएंगी। ज्ञानू के पिता कभी-कभार उससे मिलने चले आते थे और वह भी साल दो साल में पंजाब में अपने गांव जरूर जाता था। उसके भाई नहीं चाहते थे कि ज्ञानू शादी करे और अपना घर बसाए। उन्हें तो ज्ञानू दुधारू गाय के समान प्रतीत होता था। जब चाहे उससे मदद के नाम पर पैसे मांगा करते थे। शादी होगी तो फिर उन्हें भी मदद की उम्मीद नहीं थी। ऐसे में वे ज्ञानू को शादी के नाम से हमेशा डराते रहते थे।
ज्ञानू ने अपने दफ्तर से लेकर आस-पड़ोस के लोगों को अपनी इच्छा बता दी थी। वह भी शादी की जरूरत महसूस कर रहा था। सीधी-साधी ऐसी लड़की वह चाहता था, जो उसका हाथ पकड़कर पथ प्रदर्शक बन सके। बात काफी पुरानी है। करीब 1972 की। मोहल्ले का एक व्यक्ति एक दिन ज्ञानू के पास पहुंचा। उसने ज्ञानू से कहा कि उसके गांव में एक महिला है। जो विधवा है। काफी गरीब है। यदि वह चाहे तो उसके ससुराल व घरवालों को कुछ पैसा देकर वह उससे विवाह के लिए राजी कर सकता है। ज्ञानू ने उसकी बात मान ली और उसे उस समय के हिसाब से इस काम के लिए मुंहमांगी रकम भी दे दी। एक दिन वह व्यक्ति एक महिला को ज्ञानू के घर ले आया। उस ग्रामीण महिला की बोली भी जल्दी से किसी के समझ तक नहीं आती थी। पहनावे के तौर पर उसने एक कंबल रूपी लबादा पहना हुआ था। मानो वही उसकी धोती या साड़ी है। मोहल्ले में यही चर्चा थी कि उक्त व्यक्ति महिला को बहला-फुसला कर भगा कर साथ लाया है।
अनपढ़, गंवार महिला को जीवनसाथी बनाना ज्ञानू के लिए चुनौती भरा काम था। उसे उसकी पुरानी जिंदगी के कुछ लेना देना नहीं था। उसने उसे घर की सफाई करना, खाना बनाना आदि सारा काम सिखाया और वह उसका हाथ पकड़कर उसे बाजार, दफ्तर आदि ले जाया करती थी। मंगसीरी नाम की यह महिला जब ज्ञानू के घर आई तो कई बार उसका ज्ञानू से झगड़ा हो जाता। तब ज्ञानू उसे समझाने के लिए पिटता भी था। जब वह उसकी पिटाई करता तो मंगसीरी अपने कपड़े बदलकर वही कंबल पहन लेती, जिसे पहनकर वह गांव से ज्ञानू के घर आई थी। वह घर से भागती और ज्ञानू उसे पड़ोसियों की मदद से तलाश करता। फिर घर लाता, समझाता। यह ड्रामा अक्सर होता रहता था। पड़ोस में रहने वाली पंडिताईन की ज्ञानू काफी इज्जत करता था। पंडिताइन ने उसे समझाया कि पत्नी को मारा मत कर। वर्ना तूझमें और जल्लाद में क्या फर्क रह जाएगा। ज्ञानू ने कहा कि यह बात-बात पर भागने की धमकी देती है। पंडिताइन ने कहा कि यह अपना कंबल लेकर जाने लगती है। इस कंबल को ही फेंक दे। साथ ही पंडिताइन ने मंगसीरी को
भी समझाया। इसका असर यह हुआ कि ज्ञानू ने कंबल ही जला दिया। साथ ही मंगसीरी को पीटने से तौबा कर ली और मंगसीरी ने भी फिर कभी घर से भागने का नाटक नहीं किया।
समय तेजी से बीत रहा था। जब ज्ञानू के घर मंगसीरी का प्रवेश हुआ तब ज्ञानू की उम्र करीब चालीस साल व मंगसीरी की उम्र 35 साल रही होगी। समय के साथ ही मंगसीरी में भी परिवर्तन आया। वह सफाई पसंद महिला बन गई। हालांकि उनकी कोई औलाद नहीं हुई। नाश्ता-पानी कर सुबह ज्ञानू दफ्तर जाता। दोपहर को खाना खाने घर आता। इससे पहले मंगसीरी घर की सफाई व भोजन आदि तैयार कर रखती थी। शाम को भोजन करने से पहले और बाद दोनों इवनिंग वाक के लिए घर से निकलते थे। दोनों की जोड़ी को एक आदर्श जोड़ी कहा जाने लगा। एक बार आफिस की कालोनी में लोगों के रहन-सहन व साफ सफाई को लेकर सर्वेक्षण किया गया। इसमें अफसरों से भी ज्यादा साफ सुधरा घर ज्ञानू का ही निकला और वह प्रथम पुरस्कार का विजेता भी बना। यह सब मंगसीरी की लगन व सीखने की इच्छा शक्ति का ही नतीजा था।
साठ साल की उम्र तक पहुंचने व सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति से पहले ही ज्ञानू ने एक छोटा सा अपनी जरूरत के मुताबिक मकान बना लिया। सेवानिवृत्ति के बाद उसे विभिन्न जमा पूंजी व फंड का काफी पैसा मिला। बस यहीं से इस दंपती पर गिद्ध दृष्टि पढ़ने लगी। रिटारमेंट के बाद ज्ञानू ने तय किया कि वह देहरादून में ही अपने मकान में रहेगा। साथ ही कभी-कभार पंजाब में गांव में जाकर अपनी पुस्तैनी जमीन व जायदाद पर भी नजर रखेगा। पत्नी को लेकर वह कुछ माह के लिए पंजाब गया। वहां का माहौल उसे कुछ अटपटा लगा। उसके सगे भाइयों को पता था कि ज्ञानू के पास काफी पैसा है। ऐसे में वे उस पर दबाव बनाने लगे कि मंगसीरी को छोड़ दे। हम तेरी सेवा करेंगे। ज्ञानू को महसूस होने लगा कि यदि वह ज्यादा दिन अपने सगों के बीच रहा तो कहीं उसके साथ कुछ अनर्थ न हो जाए। जिस महिला ने उसका बीस साल से साथ निभाया हो, उस जीवन साथी को वह क्यों भला छोड़ेगा। इस दंपती पर पहरेदारी रखी जाने लगी। एक दिन ज्ञानू मौका देखकर चुपचाप से अपनी पत्नी को लेकर देहरादून वापस चला आया। ज्ञानू आस पड़ोस के लोगों को अपने सगे संबंधियों का हाल जब सुनाता था तो सिहर उठता था। उसका यही कहना था कि यदि वह भाग कर नहीं आता तो उसके अपने ही उसे और उसकी पत्नी को मार डालते।
करीब सत्तर साल की उम्र में ज्ञानू बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो गई। अब घर में मंगसीरी अकेली थी। ज्ञानू को जो पेंशन मिला करती थी वह मंगसीरी को मिलने लगी। सब कुछ ठीक चल रहा था। फिर अचानक मंगसीरी के रिश्तेदार व नातेदार भी पैदा हो गए। उसकी पहली जिंदगी से उसका बेटा, बेटी आदि सभी अपनी इस मां के पास पहुंच गए। मंगसीरी भी काफी साफ दिल की थी। उसने सोचा कि वे उसकी औलाद ही हैं। यदि साथ भी रहेंगे तो उसकी वृद्धावस्था आराम से कट जाएगी। बेटा कुछ पैसे लेकर अलग हो गया। बेटी अपने पति के साथ मां के मकान में जम गई। बात-बात पर बेटी और जवाईं की दखल से मंगसीरी का जीना मुहाल हो गया। वह परेशान रहने लगी। बेटी उसे घर बेचने की सलाह देती और दबाव बनाती। इससे परेशान होकर अब मंगसीरी ने अपने लिए नया ठिकाना तलाश लिया। वह घरवार छोड़कर चैन की सांस लेने इस ठिकाने तक पहुंच ही गई। यह ठिकाना है वृद्धावस्था आश्रम।
भानु बंगवाल

Friday, 8 March 2013

Special Duty

स्पेशल ड्यूटी
इन दिनों जहां सर्दी कम हुई और गर्मी ने दस्तख दी, वहीं मौसम बड़ा सुहावना हो गया है। देहरादून में तो सुबह व शाम को ही हल्की सर्दी महसूस हो रही है। दोपहर को धूप सहन तक नहीं हो पाती है। साथ ही ज्यादातार घरों का माहौल भी आजकल शांत है। इसका कारण है कि बच्चों के साथ ही बड़े छात्रों की परिक्षाएं हो रही हैं। ऐसे में घर-घर का माहौल पढ़ाई का बना हुआ है। कहीं बच्चे पढ़ रहे हैं और माता-पिता उन्हें पुढ़ा रहे हैं, वहीं कहीं बच्चों के साथ ही उनके अभिभावक भी किसी न किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। कितना बदलाव आ गया शिक्षा में। पहले कभी दसवीं या बाहरवीं के बाद पढ़ाई में ब्रेक लग जाता था। आगे की पढ़ाई के लिए काफी कम ही लोग गांव से बाहर कदम रखते थे। अब है कि शिक्षा का अंत होने का नाम ही नहीं लेता। करीब पंद्रह साल पहले जब मेरे से बड़ी बहन की शादी हुई तो उस समय मेरा जीजा नौकरी के साथ ही पढ़ाई कर रहा था। शादी हुई बच्चे हुए, आफिस में तरक्की हुई, लेकिन उन्होंने पढ़ना नहीं छोड़ा। आज भी वह किसी न किसी परीक्षा की तैयारी करते रहते हैं। उनका कहना है कि यदि किसी विषय को पढ़ोगे तो उसमें से बीस फीसदी भी दिमाग में घुसेगा तो यह ज्ञान कहीं न कहीं उपयोगी साबित होगा। इसीलिए वह पढ़ाई जारी रखे हुए हैं। नोएडा में जब भी मैं उनके घर जाता हूं तो वहां का माहौल पढ़ाई का ही नजर आता है।
अब परीक्षा को ही लो। अब परीक्षा कराने मे भी स्कूलों की कार्यप्रणाली में काफी अंतर आ गया है। पहले दृष्टिहीन, विकलांग आदि छात्र को श्रुत लेखक मिलता था। ऐसे छात्रों को परीक्षा के समय अन्य विद्यार्थियों से अलग बैठाया जाता था। ताकी उनके साथ बैठा व्यक्ति प्रश्न पत्र को उन्हें सुनाए और जब वह उत्तर लिखवाए तो दूसरा विद्यार्थी न सुन सके। आइसीएसई बोर्ड की परीक्षा में ऐसे छात्रों के साथ जिस टीचर की ड्यूटी लगती है, उसे स्पेशल ड्यूटी का नाम दिया गया है। यानी छात्र के लिए भी अलग से व्यवस्था की जाती है और टीचर भी उसके साथ अलग ही होता या होती है। ऐसी ही मेरी परिचित एक शिक्षिका की स्पेशल ड्यूटी लगी। मैने शिक्षिका से पूछा कि यह स्पेशल ड्यूटी क्या होती है। इस पर उसने बताया कि जब ड्यूटी करूंगी तभी मुझे भी पता चलेगा। कुछ दिन बाद जब वह ड्यूटी देने के बाद मुझे मिली, तब उसने मुझे इस बारे में बताया। उसने बताया कि स्पेशल ड्यूटी के तहत एक ऐसे बच्चे को अलग कमरे में परीक्षा के लिए बैठाया गया था, जिसे चीकन पॉक्स हो रखा था। पहले तो बीमारी में बच्चे परीक्षा नहीं दे पाते थे और उनका साल बर्बाद हो जाता था। अब अभिभावक भी नहीं चाहते कि बच्चे की साल भर की मेहनत बेकार जाए। ऐसे में वे बीमार बच्चे को लेकर स्कूल परीक्षा दिलवाने लाए। इस बच्चे के साथ ही उसकी ड्यूटी लगी। बच्चे को पेपर व कॉपी देना। उस पर नजर रखना व परीक्षा के बाद कॉपी को कलेक्ट करना आदि ही स्पेशल ड्यूटी में शामिल है। वह टीचर खुश थी कि स्पेशल ड्यूटी का उसे भी आर्थिक लाभ पहुंचा। परीक्षा की साधारण ड्यूटी की अपेक्षा स्पेशल ड्यूटी के भत्ते में अन्य से ज्यादा राशि उसे मिली और वह भी नकद। साथ ही उसने बताया कि बीमारी के प्रति अब समाज में कितनी जागरूकता है। इसके बारे में उसे इस ड्यूटी को करने के बाद ही पता चला। ऐसे बच्चे की कॉपी (उत्तर पुस्तिका)  भी अलग से सील की गई। साथ ही उसमें नीम के पत्ते व अन्य दवा भी छिड़की गई कि कहीं कॉपी को चेक करने वाला शिक्षक भी अपने घर इनफेक्शन न ले जाए। तब मैने पूछा कि इसमें आपको भत्ता क्यों ज्यादा मिला। इस पर वह टीचर बोली कि आप भी कैसे बुद्धू हो। इतना नहीं समझ सकते। परीक्षा के बाद घर जाकर वह भी पूरी डिटाल की एक शीशी को पानी में उड़ेलकर नहाई। ऐसे में उसका भी खर्च तो बढ़ा। इसीलिए स्पेशल ड्यूटी में ज्यादा राशि मिलती है। फिर भी ये ड्यूटी अन्य ड्यूटी से ज्यादा लाभकारी है।
भानु बंगवाल