खुद जिओ औरो को भी जीने दो....
चाहे कोई त्योहार हो या फिर धार्मिक अनुष्ठान। अब सभी में दिखावा ज्यादा ही होने लगा है। हमारे पर्वों का सौम्य रूप हमारी ही निम्न अभिरुचि के अनाचार से धीरेधीरे विकृत होता जा रहा है। दीपावली हो या फिर दशहरा। इन सभी त्योहार को मनाने की परंपरा अब विकृत रूप धारण करती जा रही है। इन सभी में पैसों की चमक हावी होती जा रही है। त्योहार को अब संपन्नता से जोड़कर देखा जाने लगा है। दीपावली में जहां आतिशबाजी में करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जाने लगा है, वहीं हाल ही में मनाई गई होली भी अब पैसों की चमक से अछूती नहीं रही है। होली आई और चली भी गई। रंगों का त्योहार। आपसी प्रेम व भाईचारे का प्रतीक। अमीर व गरीब सभी एक दूसरे पर गुलाल लगाते हैं। सभी के चेहरे रंगे रहते हैं। शक्ल व सूरत देखकर यह फर्क नहीं लगता कि कौन लखपति है या फिर कौन गंगू तेली। सभी तो एक ही तरह से रंग में सरोबर हुए रहते हैं। अब होली में भी फर्क पैदा होने लगा है। अमीर की होली, गरीब की होली, नेता की होली, पुलिस की होली, मजदूर की होली बगैरह, बगैरह...। अलग अंदाज में अलग-अलग होली। अधिकांश में सिर्फ समानता यह रही कि सभी जगह एक दूसरे पर रंग लगाया गया और जमकर शराब उड़ाई गई। अब तो मोहल्लों में भी जब किसी के घर रंग लगाने पहुंचो तो रंग लगाने के साथ ही मेहमान अपने मेजवान को एक पैग का आफर देने लगता है। कितना भी बताओ कि मैं दारू नहीं पिता, लेकिन वह ऐसी जिद्द करता है कि जैसे समुद्र मंथन में निकला गया अमृत परोस रहा हो। उसे पीने से ही अमृत्व प्रदान होगा। यही विकृत रूप बना दिया हमने अपने त्योहारों का।
साल के अंत में जब दीपावली आती हो तो हिंदुओं के त्योहारों पर भी ब्रेक सा लग जाता है। फिर वसंत पंचमी या फिर सक्रांत से त्योहारों की शुरूआत होती है। स्कूली छात्रों की परीक्षा का भी यही वक्त होता है। इसके बावजूद धार्मिक अनुष्ठान की इतनी बाढ़ सी आ जाती है कि हर गली, हर शहर, हर गांव में कहीं भागवत, कहीं जगराता तो कहीं अन्य अनुष्ठान का क्रम चलता रहता है। धार्मिक अनुष्ठान करो, दान दो, अच्छे संदेश व परोपकार की बातें सुनों और उनसे कुछ अपने जीवन में भी अमल करो। तभी यह संसार खूबसूरत बनेगा। पर यह कहां की रीत है कि इन अनुष्ठान के नाम पर दूसरों की सुख शांति को ही छीन लो। बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं और मोहल्लों में तेज आवाज से लाउडस्पीकर चल रहे हैं। दिन में तो ठीक है, लेकिन रात को देवी जागरण के नाम पर पूरे मोहल्ले की नींद हराम की जा रही है। क्यों चिल्ला रहे हो भाई पूरी रात भर। यही जवाब मिलेगा कि देवी को जगा रहे हैं। मोहल्ले वाले सो नहीं पाए, फिर देवी क्यों नहीं जाग रही है। वह क्यों सोई पड़ी है। ऐसी कौन सी तपस्या या अनुष्ठान है, जिससे कई लोगों को परेशान कर हम भगवान को खुश करने की कल्पना करते हैं। न खुद सो पाए और न ही आस पड़ोस के लोगों को ही सोने दें। बगैर लाउडस्पीकर के जगराता करने से क्या देवता खुश नहीं होंगे। क्या देवता भी यह देखता है कि भक्त ने कितनी जेब ढीली की। उसी के अनुरूप उसे फल मिलेगा। यही सोच हमें कहां धकेल रही है। इस पर मनन करने का समय आ गया है। धार्मक अनुष्ठान करो। घर में खूब हुड़दंग करो, लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि हम आवाज का वाल्यूम इतना रखें कि दूसरों को परेशानी न हो। किसी दिल के रोगी या अन्य की तबीयत न बिगड़े। यदि मानव ही मानव की परेशानी का ख्याल रखेगा तो शायद आपके भीतर बैठा भगवान भी खुश होगा। यदि आपकी व दूसरे की आत्मा खुश है तो समझो कि भगवान खुश है। क्योंकि व्यक्ति के कर्म ही उसे भगवान व राक्षस बनाते हैं। व्यक्ति ही स्वयं भगवान का रूप है और वही अपने कर्मों से राक्षस भी है। इसलिए तो कहा गया है कि खुद जिओ और औरों को भी जीने दो।
भानु बंगवाल
चाहे कोई त्योहार हो या फिर धार्मिक अनुष्ठान। अब सभी में दिखावा ज्यादा ही होने लगा है। हमारे पर्वों का सौम्य रूप हमारी ही निम्न अभिरुचि के अनाचार से धीरेधीरे विकृत होता जा रहा है। दीपावली हो या फिर दशहरा। इन सभी त्योहार को मनाने की परंपरा अब विकृत रूप धारण करती जा रही है। इन सभी में पैसों की चमक हावी होती जा रही है। त्योहार को अब संपन्नता से जोड़कर देखा जाने लगा है। दीपावली में जहां आतिशबाजी में करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जाने लगा है, वहीं हाल ही में मनाई गई होली भी अब पैसों की चमक से अछूती नहीं रही है। होली आई और चली भी गई। रंगों का त्योहार। आपसी प्रेम व भाईचारे का प्रतीक। अमीर व गरीब सभी एक दूसरे पर गुलाल लगाते हैं। सभी के चेहरे रंगे रहते हैं। शक्ल व सूरत देखकर यह फर्क नहीं लगता कि कौन लखपति है या फिर कौन गंगू तेली। सभी तो एक ही तरह से रंग में सरोबर हुए रहते हैं। अब होली में भी फर्क पैदा होने लगा है। अमीर की होली, गरीब की होली, नेता की होली, पुलिस की होली, मजदूर की होली बगैरह, बगैरह...। अलग अंदाज में अलग-अलग होली। अधिकांश में सिर्फ समानता यह रही कि सभी जगह एक दूसरे पर रंग लगाया गया और जमकर शराब उड़ाई गई। अब तो मोहल्लों में भी जब किसी के घर रंग लगाने पहुंचो तो रंग लगाने के साथ ही मेहमान अपने मेजवान को एक पैग का आफर देने लगता है। कितना भी बताओ कि मैं दारू नहीं पिता, लेकिन वह ऐसी जिद्द करता है कि जैसे समुद्र मंथन में निकला गया अमृत परोस रहा हो। उसे पीने से ही अमृत्व प्रदान होगा। यही विकृत रूप बना दिया हमने अपने त्योहारों का।
साल के अंत में जब दीपावली आती हो तो हिंदुओं के त्योहारों पर भी ब्रेक सा लग जाता है। फिर वसंत पंचमी या फिर सक्रांत से त्योहारों की शुरूआत होती है। स्कूली छात्रों की परीक्षा का भी यही वक्त होता है। इसके बावजूद धार्मिक अनुष्ठान की इतनी बाढ़ सी आ जाती है कि हर गली, हर शहर, हर गांव में कहीं भागवत, कहीं जगराता तो कहीं अन्य अनुष्ठान का क्रम चलता रहता है। धार्मिक अनुष्ठान करो, दान दो, अच्छे संदेश व परोपकार की बातें सुनों और उनसे कुछ अपने जीवन में भी अमल करो। तभी यह संसार खूबसूरत बनेगा। पर यह कहां की रीत है कि इन अनुष्ठान के नाम पर दूसरों की सुख शांति को ही छीन लो। बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं और मोहल्लों में तेज आवाज से लाउडस्पीकर चल रहे हैं। दिन में तो ठीक है, लेकिन रात को देवी जागरण के नाम पर पूरे मोहल्ले की नींद हराम की जा रही है। क्यों चिल्ला रहे हो भाई पूरी रात भर। यही जवाब मिलेगा कि देवी को जगा रहे हैं। मोहल्ले वाले सो नहीं पाए, फिर देवी क्यों नहीं जाग रही है। वह क्यों सोई पड़ी है। ऐसी कौन सी तपस्या या अनुष्ठान है, जिससे कई लोगों को परेशान कर हम भगवान को खुश करने की कल्पना करते हैं। न खुद सो पाए और न ही आस पड़ोस के लोगों को ही सोने दें। बगैर लाउडस्पीकर के जगराता करने से क्या देवता खुश नहीं होंगे। क्या देवता भी यह देखता है कि भक्त ने कितनी जेब ढीली की। उसी के अनुरूप उसे फल मिलेगा। यही सोच हमें कहां धकेल रही है। इस पर मनन करने का समय आ गया है। धार्मक अनुष्ठान करो। घर में खूब हुड़दंग करो, लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि हम आवाज का वाल्यूम इतना रखें कि दूसरों को परेशानी न हो। किसी दिल के रोगी या अन्य की तबीयत न बिगड़े। यदि मानव ही मानव की परेशानी का ख्याल रखेगा तो शायद आपके भीतर बैठा भगवान भी खुश होगा। यदि आपकी व दूसरे की आत्मा खुश है तो समझो कि भगवान खुश है। क्योंकि व्यक्ति के कर्म ही उसे भगवान व राक्षस बनाते हैं। व्यक्ति ही स्वयं भगवान का रूप है और वही अपने कर्मों से राक्षस भी है। इसलिए तो कहा गया है कि खुद जिओ और औरों को भी जीने दो।
भानु बंगवाल
व्यक्ति के कर्म ही उसे भगवान व राक्षस बनाते हैं। व्यक्ति ही स्वयं भगवान का रूप है और वही अपने कर्मों से राक्षस भी है
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