Wednesday, 29 August 2012

तन ढांपने को बैनर ही काफी.........

अपनी धुन में सवार जब वह चलती तो उसे अपने कपड़ों तक का होश नहीं रहता था। अपनी सुधबुध खोकर वह निर्वस्त्र सड़कों पर घूमती। सड़कों पर चलने वाले लोग दूर से ही उसे देखकर मुंह फेर लेते। पागलपन का दौरा समाप्त होते ही उसे खुद के महिला होने का अहसास होता तो वह देहरादून के घंटाघर चौराहे क्षेत्र में लगा कोई भी बैनर उतारकर उसे साड़ी की तरह लपेट कर अपना तन ढकने का प्रयास करती। करीब पंद्रह साल पहले दून की सड़कों पर ऐसी एक विक्षिप्त महिला को अक्सर देखा जाता था। जो पागलपन का दौरा पड़ते ही तन के कपड़े फाड़ देती थी और कभी साड़ी की तरह बैनर को शरीर पर लपेट लेती थी। कई सालों तक उक्त महिला को देहरादून की सड़कों पर विचरण करते देखा गया। फिलहाल करीब पांच   साल से वह गायब है और उसे देखकर मुंह फेरने वाले भी राहत महसूस कर रहे होंगे।
दून की सड़को पर निर्वस्त्र घूमने वाली महिला तो विक्षिप्त थी। आज देखता हूं कि पढ़े-लिखे सभ्य समाज की स्थिति उस महिला से भी ज्यादा खराब है। उक्त महिला के संदर्भ में हर व्यक्ति के मन में यही सवाल उठता कि आखिरकार प्रशासन ने भी उसकी तरफ से निगाह क्यों फेर रखी है। वहीं, समाज सेवा का दंभ भरने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं भी क्यों लाचार बनी बैठी हैं। तब ऐसी घटनाएं चौंकाने वाली होती थी, लेकिन आज ऐसी अशलीलता आम होती जा रही है। फेसबुक में ऐसे युवक व युवतियों की कमी नहीं, जो अशलील फोटो व अन्य सामग्री अपलोड कर रहे हैं। फेसबुक में वे अपनी फोटो डालते हैं या फिर अपने परिवार के किसी और की सदस्य की। लेकिन, एक बात साफ है कि ऐसी फोटो को शायद उसे अपलोड करने वाला भी अपने परिवार के सदस्य के साथ नहीं देख सकता है। करीब पंद्रह साल पहले शहर की सड़को पर एक महिला निर्वस्त्र घूमती थी, लेकिन आज तो फेसबुक में हर सौ व्यक्ति में एक व्यक्ति ऐसा मिल जाएगा जो अशलीलता को बढ़ावा दे रहा है। उनकी हरकतों से उनकी मां का दूध भी शायद लज्जा जाता होगा। ऐसे लोगों की हरकतों से परेशान होकर फेसबुक में कई लोगों को अब यह संदेश भी देते हुए देखा जा रहा है कि उन्हें अशलील सामग्री ने भेजी जाए।
आज सोचता हूं कि युवा पीढ़ी किस दिशा में भटक रही है। उसे छोटे-बड़े, नाते-रिश्तेदार का भी लिहाज नहीं । वो तो एक पागल महिला थी, लेकिन फिर भी बैनर से तन ढकने का प्रयास करती थी, लेकिन यहां तो पढ़े-लिखे नग्न होकर खुद की प्रदर्शनी लगा रहे हैं। मेरे एक मित्र ने सुझाव दिया कि मैं यह भी बताया करूं कि कैसे उच्च नैतिक मूल्यों वाले मानव संसाधन को विकसित किया जा सकता हैं ? यहां मै यही कहूंगा कि मैं या आप कोई तांत्रिक नहीं हैं। जो उपाय बताएं और उस पर लोग अमल करें। सभी को पता है कि नैतिक मूल्य वाले मानव संसाधन को विकसित कैसे किया जा सकता है। जीवन को सही तरीके से जीने के लिए हमारे ऋषि-मुनियों व बुजुर्गों ने बताया कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि से दूर रहें। यही शिक्षा स्कूल में शिक्षक भी देते हैं और घर में माता-पिता भी। शुरूआत माता से ही होती है। कोई भी मां नहीं चाहेगी कि उसका बच्चा बड़ा होकर गलत राह पर चले। सबसे पहले संस्कार घर से ही मिलते हैं। अब एक जैसी शिक्षा मिलने के बावजूद दो व्यक्ति अलग-अलग चरित्र के कैसे हो जाते हैं। क्या दोनों की शिक्षा में कोई कमी रह जाती है। यहां मैं कही कहूंगा कि कमी हमारी इच्छा शक्ति पर रहती है। हमारे भीतर दैवीय व राक्षसी दोनों ही प्रवृति होती है। जिस प्रवृति का हम ज्यादा सदुपयोग करते हैं, उसी के अनुरूप हमारी आदतें बनती जाती हैं। यानी कि बीमारी भी हमारे भीतर है और उसका इलाज भी। यदि हम खुद को अच्छा बनाने का प्रयास करेंगे तो समाज में भी निश्चित तौर पर बदवाल आएगा। हमें उन चीजों को स्वीकार करना होगा,जिसे हम बदल नहीं सकते। साथ ही उन चीजों को बदलने का प्रयास करना होगा जिसे हम बदल सकते हैं। अब सवाल उठेगा कि हम किसे बदल सकते हैं, तो जवाब होगा- अपने आप को। दूसरा सवाल उठेगा कि किसे नहीं बदल सकते, तब मेरा जवाब होगा- दूसरों को। समाज को बदलने के लिए कोई क्रांति नहीं आने वाली कि डंडा घुमाया और समाज बदल गया। इसे बदलने की शुरूआत हमें अपने से ही करनी होगी। अपनी आदतों से करनी होगी और खुद में सुधार लाना होगा।  पहले जब हम खुद को बदलेंगे तो निश्चित ही यह समाज बदलेगा। तब कोई महिला शरीर पर बैनर लपेटे नहीं दिखाई देगी। उसे या तो कोई ठोर मिलेगा या फिर वह भी साड़ी से लिपटी नजर आएगी।
भानु बंगवाल          

Monday, 27 August 2012

जब डोल जाता है ईमान...

सड़क चलते यदि हमें यदि पचास, सौ या फिर पांच सौ का नोट मिल जाए, तो हम खुद को किस्मत का धनी मानकर खुशी से फूले नहीं समाते। फिर मन में लालच उठता है कि यह रकम और ज्यादा होती तो ही अच्छा होता। कुछ काम तो आती। पचास, सौ रुपये में क्या होगा। व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसा है कि उसकी इच्छा नहीं भरती। वहीं, जिस भी व्यक्ति की यह रकम खोती है, ऐसे व्यक्ति पर क्या बीत रही होती है, इसका हमें अंदाजा नहीं होता। अमूमन मुझे राह चलते दस, बीस, पचास व सौ रुपये कई बार मिले हैं। ऐसी राशि को मैं किसी जरूरतमंद को दे देता हूं। अभी तक मुझे बड़ी राशि नहीं मिली। यदि राशि बड़ी मिलती तो उसे खोने वाले व्यक्ति को तलाशने का प्रयास जरूर करता। ऐसा नहीं है कि जमीन पर पड़ी चाहे छोटी राशि ही क्यों न मिले, हमारा ईमान नहीं डोलता। हमें भी लगता है कि काश बड़ी राशि मिलती, तो मजा आ जाता। फिर मेरे दिमाग में गोविंद का चेहरा नाचने लगता। ऐसे में मैं यही सोचता कि ऐसी राशि को उसी व्यक्ति तक पहुंचाना चाहिए, जो उसे अपनी लापरवाही से खो चुका है।
बात करीब 1977 की है। तब मैं पांचवीं जमात में था। शाम को मोहल्ले के बच्चों के साथ मैं पास के मैदान से खेल कर मैं घर की तरफ आ रहा था। हम करीब पांच बच्चे थे। सबसे बड़ा बच्चा मुझसे करीब दो साल बड़ा था। घर के पास एक गली में एक गीठ लगा रूमाल पैदल मार्ग पर पड़ा देखकर एक बच्चे ने उस पर लात मारी। तभी दूसरे बच्चे से उसे उठाकर उस पर और गांठ बांध दी। उसे छोटी सी गेंद का रूप देकर हम पैर से फुटबाल की तरह खेलने लगे। रूमाल भी किसी महिला की धोती से फाड़े गए कपड़े का था। इसी दौरान हमारे बीच सबसे बड़ी उम्र के बच्चे ने कहा कि इस रुमाल में क्या बंधा है। खोलकर देखते हैं। हो सकता है कि पैसे हों। इस पर ऐसे स्थान पर झाड़ियों की ओंट में रूमाल खोला गया, जहां कोई हमें न देख सके।
रूमाल खोलते ही हमारी आंखे फटी की फटी रह गई। उसके भीतर पचास-पचास के तीन नोट थे। पांच बच्चे और डेढ़ सौ रुपये। दो दिन बाद दीपावली थी। तय हुआ कि दीपावली के दिन सभी साथ बाजार जाएंगे और खूब ऐश करेंगे। यह रकम सबसे बड़े बच्चे को रखने को दी गई। उस समय के हिसाब से डेढ़ सौ रुपये की रकम काफी थी। साठ-सत्तर रुपये में एक परिवार का महीने का राशन पानी आ जाता था। घर के पास पहुंचे तो वहां का नजारा देख मैं घबरा गया। एक मकान के बाहर गोविंद नाम का व्यक्ति दीपक नाम के युवक की पिटाई कर रहा था। दीपक गोविंद के घर अक्सर जाया करता था। डेढ़ सौ रुपये गोविंद के ही खोए थे। चोरी के संदेह में वह दीपक को पीट रहा था। गोविंद को दीपावली का बोनस डेढ़ सौ रुपये मिला था। उसे उसने पत्नी को दिए, लेकिन रकम गायब होने पर वह दीपक पर शक कर रहा था। मौके पर तमाशबीनों की भीड़ लगी थी। काफी पीटने के बाद भी जब दीपक से कुछ नहीं मिला तो गोविंद ने उसे छोड़ दिया। वह रोते-रोते यही कह रहा था कि इस बार बच्चे दीपवली कैसे मनाएंगे। मेरे साथियों ने मुझे समझाया कि अब बात आगे निकल चुकी है। किसी को यह मत बताना कि पैसे हमें मिले।
मोहल्ले के हर घर में गोविंद व दीपक की ही चर्चा थी। मेरे घर के आंगन में भी एक दृष्टिहीन व्यक्ति बिशन सिंह थापा मेरे पिताजी व अन्य लोगों के साथ बतिया रहा था। कोई दीपक को चोर बता रहा था तो कोई गोविंद को ही गलत ठहरा रहा था। गोविंद के घर चूल्हा तक नहीं जला, वहीं मोहल्ले के लोगों के घर भी रात के भोजन का स्वाद बिगड़ चुका था। हर व्यक्ति गोविंद की दशा देख व्यथित था। मेरा मन नहीं माना और मैने अपनी मां को डेढ़ सौ रुपये मिलने की बात बता दी। मेरी मां ने बिशन सिंह को मेरे मुंह से सुनी कहानी सुना दी। फिर क्या था। मोहल्ले के लोग एकत्र होकर अन्य बच्चों के घर गए, बच्चों से पूछताछ हुई और गोविंद की खोई रकम मिल गई। चर्चाओं में पता चला कि गोविंद की पत्नी ने रूमाल साड़ी में खोसा हुआ था, जो शायद रास्ते में गिर गया। रकम मिलने के कुछ देर बाद गोविंद के बच्चे पटाखे छुड़ाने लगे। उसने मुझे बुलाया और दस रुपये देने का प्रयास भी किया, लेकिन मैने नहीं लिए। अब मोहल्ले के लोगों की सहानुभूति दीपक से हो गई। लोग उसके घर जाकर हालचाल पूछ रहे थे। सभी यही कहते कि दीपक के साथ बुरा हुआ। वह ऐसा नहीं है। उस पर गलत शक किया गया। पिटाई से दीपक की हालत भी खराब थी। फिर भी यह मामला थमा नहीं। दीपक के घरवाले गोविंद के घर आ धमके। गोविंद घर पर नहीं था। ऐसे में दीपक के घर के लोगों ने गोविंद के विकलांग भाई मेत्रू की जमकर पिटाई कर दी। काफी देर भड़ास निकालने के बाद ही वे वापस लौटे।
भानु बंगवाल
   

Saturday, 25 August 2012

यही है मूल मंत्र....

अमूमन रविवार की सुबह टीवी ऑन कर पत्नी गाने लगा देती है। सुबह की नींद डीवीडी से चलाए गए फिल्म पहचान के गाने से खुली। गाना था- बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं। इस गाने पर ही मैं मनन करने लगा कि आज यह गीत कितना सार्थक है। लगा कि यह सही तो है कि इस जीवन में सुकून से रहने के लिए यदि इंसान दूसरे का आदर करे, सम्मान करे, परोपकार की भावना को जीवन का मूल मंत्र बना दे तो सचमुच यह दुनियां कितनी खूबसूरत बन जाएगी। कहीं जातिवाद, तो कहीं धर्म का आबंडर, कहीं क्षेत्रवाद, ऊंच-नीच की भावना, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब की खाई। ऐसे में आदमी से प्यार करने का अपराध आदमी करता है या फिर यह सिर्फ गाने तक ही सीमित है। हर जगह लोग लड़ रहे हैं। असम जल रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। यही चारो तरफ नजर आता है। क्या इंसानियत इस देश व दुनियां से खत्म हो गई है। हर व्यक्ति स्वार्थी होता जा रहा है। क्या हर तरफ अराजकता है, तो फिर ये दुनियां कैसे चल रही है। क्योंकि सिक्के के दो पहलू होते हैं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हम नाकारात्मक सोचते हैं तो नकारात्मक ही देखते हैं। उस दूसरे पहलू को हम नजरअंदाज कर देते हैं, जिसकी आज ज्यादा से ज्यादा आवश्यकता है। जो दूसरों के लिए प्रेरक है। सच्चे आनंद की अनुभूति व खुशहाल जीवन का सही मूलमंत्र भी वही है। यह पक्ष है आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं।
बुरा तलाशने चलोगे तो पूरी दुनियां ही बुरी नजर आएगी। हमएक दूसरे को कोसेंगे, लेकिन अच्छाई को देखने की फुर्सत नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे समुद्र के किनारे खड़े होने से लगता है कि सारी दुनियां में समुद्र है। दूर-दूर तक लहलहाते खेतों को निहारने पर पूरी दुनियां में खेत, पहाड़ों में जाने पर पहाड़ ही नजर आते हैं। यदि अच्छाई तलाशो तो छोटे-छोटे शहर व गांव में हमें अच्छाई ही नजर आने लगेगी। तब लगेगा कि दुनियां काफी खूबसूरत है। इसमें कई रंग भरे हैं। आज जरूरत है अच्छे रंगों को बढ़ावा व बुरे दिखने वाले रंगों को नजरअंदाज करने की।
यदि एक सिरे से अच्छाई खोजो तो इसकी कहीं कमी नहीं है। शुरूआत मैं देवभूमि उत्तराखंड से ही करने की कोशिश कर रहा हूं। हिमालय से आने वाली बयार सदियों से भाईचारे का संदेश दे रही है। तकरीबन सवा सौ साल पहले हिंदुओं के विश्वप्रसिद्ध धाम बदरीनाथ में प्रतिदिन होने वाली आरती नंदप्रयाग के बदरुदीन ने लिखी थी। यहां तो हिंदू-मुस्लिम का कोई भेदभाव नजर नहीं आता। चमोली ही जिले में यदि बदरीनाथ की आरती एक अपवाद हो सकती है, लेकिन सिखों के पवित्रस्थल हेमकुंट साहिब के बारे में क्या कहेंगे। वहां के प्रथम ग्रंथी भ्यूंडार गांव के नत्था सिंह रहे। आज भले ही नत्था सिंह इस दुनियां में नहीं हैं, लेकिन उनका नाम इस पवित्र स्थल से जुड़ना एक मिसाल बनी हुई है। जनकवि जहूर आलम के गीत की ये पंक्तियां (मिसाल लेकर चलो और मशाल लेकर चलो, सवाल जिंदा हैं जो वो सवाल लेकर चलो) उत्तराखंड में कितनी सार्थक बैठती हैं।
अब चमोली के कर्णप्रयाग क्षेत्र के काल्दा भैरव मंदिर को ही देखें, तो पता चलता है कि यहां का पुजारी दलित समुदाय से ताल्लुक रखता है। रुद्रप्रयाग जनपद के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के अंतर्गत बेड़ूबगड़ व डांगी नाम के दो गांव ऐसे हैं, जहां के लोग सांप्रदायिक सदभाव की मशाल को वर्षों से रोशन कर रहे हैं। इन गांवों में जहां ईद के मौके पर हिंदुओं में भी उत्साह रहता है, वहीं होली व दीपावली का त्योहार मुसलमान भी मनाते हैं। बात त्योहार मनाने व बधाई देने तक ही सीमित नहीं है। यहां देश प्रेम की भावना भी लोगों में कूट-कूट कर भरी है। देश की सीमाओं पर मोर्चा संभालते हुए शहीद होने वालों में उत्तराखंड के जवानो की संख्या भी कम नहीं है। सीमांत गांव नीती में तो 15 अगस्त को आजादी का पर्व त्योहार की रूप में मनाया जाता है। इसमें हर घर के बच्चे से लेकर बूढ़े शामिल होते हैं। हाल ही में जोशीमठ में सांप्रदायिक सदभाव की मशाल को आगे बढ़ाने का उदाहरण सामने आया। ईद के दिन भारी बारिश के कारण मैदान पानी से लबालब था। इस पर मुस्लिम समुदाय के लोग चिंता में थे कि नमाज कैसे पढ़ी जाए। उनकी चिंता को दूर करने के लिए स्थानीय गुरुद्वारे के प्रबंधक बूटा सिंह आगे आए और उन्हें नमाज पढ़ने के लिए गुरुद्वारे में आमंत्रित किया। यहां नमाज पढ़ना भी एक मिसाल बन गई।
क्या देवभूमि की बयार ही ऐसी है कि यहां आने वाले व्यक्ति का हृदय ही परिवर्तित हो जाता है। वर्ष 1990 में जब मैं हेमकुंट साहिब की यात्रा के लिए खड़ी चढ़ाई चढ़ रहा था, तो कई बार लगता कि सांस उखड़ जाएगी। ऐसे में वापस लौट रहे सिख यात्री हौंसला बंधाते। कुछएक ने तो मुझे गुलूकोज़ या टॉफी भी दी। तब मुझे ऐसा प्रेम व सदभाव काफी उत्साहजनक व आनंदित करने वाला लगा। यही नहीं गुरुसिक्खी में पगड़ी को पवित्र माना गया है। 30 मई 2012 का वाक्या है, जब जोशीमठ के समीप पीपलकोटी के कौडिया में एक टबेरा वाहन खाई से लुढ़कता हुआ अलकनंदा नदी में जा गिरा। इस दुर्घटना में दो लोग मौके पर ही मर गए। दो अलकनंदा के तेज बहाव में बह गए। सात घायल खाई में गिरे पड़े थे। स्थानीय लोग घायलों को निकालने के लिए घरो से दौड़ पड़े। खाई में उतरने के लिए रस्से की जरूरत थी। ऐसे में हेमकुंट जाने व वहां से लौट रहे सिख तीर्थ यात्रियों ने अपनी पगड़ियां खोल दी। उन्हें आपस में बांधकर रस्सा तैयार किया गया और घायलों को खाई से बाहर निकाला गया। यदि उस समय सिख यात्री समय पर मदद नहीं करते तो शायद मरने वालों की संख्या ज्यादा होती।
इन उदाहरणों को देख मेरे मन में सवाल उठता है कि क्या एक क्षेत्र विशेष में पहुंचकर या फिर कभी कभार ही हमारा मन अच्छाई की तरफ क्यों प्रेरित होता है। अच्छाई तो हमारे भीतर है। इसका इस्तेमाल हम विपदा पढ़ने पर ही क्यों करते हैं। मेरा तो मानना है कि धर्म वही है, जो दूरे धर्म का आदर करे। क्यो नहीं हम बारिश होने पर जन्माष्टमी मस्जिद, गुरुद्वारा व गिरजाघरों में मनाते। आज हम बुराई को ही उजागर कर रहे हैं और बुराई को ही फैला रहे हैं। अच्छाइयां दब रही हैं। यदि अच्छाई को बढ़ाएंगे तो समाज में अच्छाई ही फैलेगी। तब किसी को अचरज नहीं होगा कि मंदिर या गुरुद्वारे में भी नमाज पढ़ी गई। समाज को नई रोशनी दिखाने का काम मुझसे (यानी कि आम आदमी) अकेले से नहीं हो सकता। इस काम में आप भी साथ आइए। अरे जरा सी हलचल तो करके देखिए। फिर देखिए आज नहीं तो कल, हम होंगे कामयबा। .........
भानु बंगवाल

Wednesday, 22 August 2012

दंगा हुआ शहर में (कविता)

दंगा हुआ शहर में
लोग मारे गए
देखा सबने शहर में
हिंदू मरा
मुसलमान मरा
सिख मरा
ईसाई मरा
न देखा किसी ने
गरीब मरा शहर में
कर्फ्यू लगा शहर में
दुकानें बंद
दफ्तर बंद
रोटी बंद
रोजी बंद
अस्पताल रोया शहर में
दवा के अभाव में
बीमार मरा शहर में
चीनी महंगी
सब्जी महंगी
आटा महंगा
नमक महंगा
आदमी सस्ता शहर में
कोई न जान सका
दंगा क्यों हुआ शहर में..

भानु बंगवाल

Monday, 20 August 2012

न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी...

सुबह-सुबह फेसबुक खोली तो दो फ्रेंड रिक्वेस्ट मिली। अमूमन मैं फ्रेंड रिक्वेस्ट को स्वीकार कर लेता हूं। इसका कारण यह भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का यह सस्ता व सुलभ माध्यम है। इन दो फ्रेंड रिक्वेस्ट में एक युवती की थी और एक युवक की। दोनों को कनफर्म करने के कुछ ही देर बाद मेरी वाल में ऐसी फोटोग्राफ्स नजर आने लगी, जिसे मैं परिवार के किसी भी सदस्य के साथ नहीं देख सकता। ये सब उक्त लड़की की ओर से जारी हुए थे, जिसे मैं फ्रेंड लिस्ट में शामिल कर चुका था। हो सकता है कि किसी ने उसे ऐसी फोटो से टेग कर दिया हो और इसका उस समय तक उसे पता भी नहीं हो। या फिर किसी लड़की की फर्जी आइडी से फेस बुक में एकाउंट खोलकर किसी ने ऐसी हरकत की हो। कई बार तो व्यक्ति को पता भी नहीं चलता और उसे दूसरा व्यक्ति अशलील मैसेज या फोटो से टेग कर देता है। ऐसे में उसके पेज की सारी सामग्री उसके मित्रो को भी चली जाती है। ऐसी ही अशलीलता की शिकार एक युवती हाल ही में आत्महत्या भी कर चुकी है। जो भी हो, लेकिन फेसबुक में अशलीलता उस लड़की की तरफ से ही परोसी गई। मेरा एकाउंट मेरा दस वर्षीय छोटा बेटा तक खोल देता है। ऐसे में मैंने उक्त लड़की को अपनी फ्रेंड लिस्ट से ही हटा दिया। इसके बाद ही मुझे अशलील फोटो से निजात मिली।
सोशल साइट फेसबुक जहां रचनात्मक कार्य करने वालों के लिए एक कारगार हथियार साबित हो रही है, वहीं इसके माध्यम से ऐसे लोग भी सक्रिय हैं, जो या तो संकीर्ण विचारधारा के हैं, या फिर किसी बीमारी से ग्रसित। ऐसे लोगो के कारण ही कई बार समाज में भ्रामक सूचनाएं फैलती हैं और नतीजा बंगलौर में मची अफरा-तफरी के रूप में सामने आता है। इसके बावजूद हम दोष दूसरे मुल्क को देते है। अपने बीच के जयचंद को हम भूल जाते हैं। बाहर से तो एक मैसेज आया, लेकिन उसे आगे बढ़ाने वाले कौन थे, यह भी विचारणीय प्रश्न है। सोशल साइट फेसबुक भी मीडिया का एक रूप है। मीडिया का उद्देश्य सूचना देना, शिक्षित करना व मनोरंजन करना है। इसमें कोई नियंत्रण नहीं होना भी आने वाले दिनों में खतरनाक साबित हो सकता है। विचारों का आदान-प्रदान, एक दूसरे से पहचान बढ़ाना आदि के लिए ऐसी साइट का उपयोग तो सही है। इसके विपरीत राष्ट्र व समाज को नुकसान पहुंचाने, भ्रामक प्रचार, अशीलीलता परोसने वालों पर अंकुश लगाने की भी जरूरत है।
आजाद मुल्क के हम वहीं तक आजाद नागरिक हैं, जहां तक हम दूसरों की आजादी में दखल नहीं डालते हैं। फेसबुक में कई बार ऑनलाइन होते ही चेट पर कई महाशय टपक जाते हैं। ऐसे कई लोग तो काफी मुश्किल से पीछा छोड़ते हैं। मानो वे आपका इंतजार करते रहते हैं कि कब आप ऑनलाइन होंगे। कैसे हो, क्या कर रहे हो, और सुनाओ आदि उनके सवाल होते हैं। कई बार काम के वक्त ऐसे लोगों का टपकना मुझे कुछ झुंझलाहट देता है, लेकिन मैं इनका बुरा नहीं मानता। क्योंकि ऐसे लोग बुरे नहीं होते, वे तो सिर्फ टाइम पास कर रहे होते हैं। इनसे अगर कोई परेशान हो तो वह चेट आफलाइन कर सकता है। इसके विपरीत फेस बुक में भ्रामक प्रचार व अशलीलता परोसने वालों का क्या उपाय है। मैने तो ऐसे लोगों से निजात पाने का उपाय निकाल लिया है कि उन्हें अपनी फ्रेंड लिस्ट से ही बाहर कर दिया जाए। क्योंकि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
भानु बंगवाल   

Saturday, 18 August 2012

दिल सच्चा और चेहरा झूठा...

वेश बदलना भी एक कला है। वेश बदलकर जो पहचाना नहीं जाए, वही वेश बदलने की कला में माहिर होता है। कई बार वेश बदलने वाले का कोई न कोई मकसद भी होता है। कोई किसी काम को निकालने के लिए वेश बदलता है, तो कोई पेट की खातिर, तो कोई मनोरंजन के लिए। वेश वदलने का मुझे भी शोक रहा, लेकिन एक बार मैं इस शरारत पर मुसीबत में पड़ गया। तब से मैने वेश बदलने से तौबा ही कर ली।
देहरादून के डीएवी कॉलेज करनपुर के गेट के बाहर बच्चों के खाने की सामग्री (चूरन, लड्डू, टॉफी आदि) एक ठेली में बिकती थी। सातवीं जमात से ही मैं ठेली में अक्सर बुड्ढा खेलता था। बुड्ढा यानी एक गुड्डा ठेली पर रखा था। उसके हाथ में दस पैसे रखे जाते। ठेली वाला इन पैसे को गुड्डे के मुंह में डालता। फिर उसके सिर पर हम हाथ रखते। एक छोटे से बोर्ड के चारों तरफ सामान सजा होता। गुड्डे या बुड्डे के सिर पर हाथ रखने पर बोर्ड के बीच में एक सुंई तेजी से घूमती। जब रुकती तो जिस सामान के सामने सुंई की नोक होती, वही बच्चों को दे दिया जाता। ऐसे सामान में चूरन की पुड़िया, बिस्कुट आदि ऐसा ही सामान मिलता, जिसकी कीमत भी दस पैसे से कम होती। महंगी आयटम के आगे सुंई नहीं रुकती थी। जब मैं नवीं क्लास में पढ़ता था, तब एक बार मेरी सुंई एक पैकिट के आगे रुकी। इस पर ठेली वाले को कुछ नुसकान जरूर हुआ और मुझे पैकिट देना पड़ा। इस पैकिट में दाढ़ी-मूंछ का सेट था।
इस दाढ़ी-मूंछ का मैने शुरू में प्रयोग नहीं किया और घर पर ही पड़ी रही। वर्ष 1985 की बात है। जब मैं युवावस्था में पहुंचा तो कई बार मैं दाढ़ी व मूंछ लगाकर सिर पर बहन की चुन्नी से पटका बांधकर सिख जैसा दिखने का अभ्यास करने लगा। इसमें मैं काफी अभ्यस्त भी हो गया।
रंग खेलने वाली होली की पूर्व संध्या पर हर मोहल्ले में जगह-जगह होलिका के आसपास सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था। इस स्थान पर जाकर बदले वेश का परीक्षण करना मुझे सबसे उपयुक्त नजर आया। चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ, सिर पर पटका,  आंखों पर काला चश्मा लगा कर मैं निकटवर्ती होली का हुड़दंग देखने पहुंच गया। मुझे मेरे मित्र पहचान नहीं सके। कुछएक से मैंने अनजान बनकर बात भी की। काफी देर बाद ही मैने राज खोला, तब ही वे मुझे पहचान पाए। मैं खुश था कि मेरा वेश बदलना कामयाब रहा। तय हुआ कि पूरी रात को एक होली से दूसरी होली तक घूमने के दौरान मैं इसी वेश में रहूंगा। रात के करीब नौ बज रहे थे। मुझे भूख लगने लगी। इस पर मैं मित्रों से यह कहकर घर की तरफ निकला कि खाना खाने के बाद जल्द आ जाऊंगा। घर पहुंचा और सीधे अपने कमरे में गया। वहां मेज पर मेरा खाना रखा हुआ था। मां व बहने दूसरे कमरे में थी। मैं कुर्सी पर बैठकर खाना खाने लगा। इस बीच मेरे पिताजी ने देखा कि एक अनजान सिख युवक सीधे घर में घुसा और खाना खा रहा है। इस पर वह आग-बबूला हो गए और हाथ में डंडा थामे मेरे आगे खड़े हो गए। तभी मौके की नजाकत भांपते हुए मैं पिताजी के सामने चिल्लाया यह मैं हूं। वह पहचाने नहीं, फिर चिल्लाए कौन मैं। ऐसे में मुझे दाढ़ी-मूंछ व पटका उतारकर फेंकना पड़ा। तब वह शांत हुए। तब तक उनकी एक लाठी मुझ पर पड़ चुकी थी। 
ये थी मेरी युवावस्था की शरारत। तब वेश बदलने का मकसद सिर्फ अपना और दूसरों का मनोरंजन करना था। आज देखता हूं कि लोग असल जिंदगी में भी वेश बदल रहे हैं। शिवरात्री का पर्व हो, क्रिसमस डे हो या फिर ईद। मंदिर, ईदगाह और गिरजाघरो के बाहर इन दिन विशेष को भीख मांगने वाले भी तो बहुरुपिये ही होते हैं। मंदिर के आगे जो व्यक्ति माथे पर तिलक, सिर पर लाल चुन्नी बांधकर भीख मांगता है, वही ईदगाह के आगे भी नजर आता है। भीखारियों की ऐसी टोली में शामिल महिलाएं बुर्खा ओढ़े दान-दक्षिणा देने वालों की दुआ करती हैं। ये न ही हिंदू होते हैं न ही मुस्लिम। पेट की खातिर वे हर धर्म का चोगा ओढ़ लेते हैं। सच ही तो है कि किसी का खून देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह किस धर्म व जाति के व्यक्ति का है। फिर क्षेत्र व धर्म के नाम पर क्यों खून बहाया जाता है। धर्म के मायने तो ये भिखारी सिखा रहे हैं। जो रोटी के लिए हर धर्म का सम्मान करते हैं।
आपराधिक प्रवत्ति के लोग भी वेश बदलते हैं। हाल ही में देहरादून में एक हत्या का खुलासा पुलिस ने किया। पुलिस ने दावा किया कि जब युवक को हत्यारोपी ने अपने पास किसी बहाने से बुलाया तब हत्या करने वाला युवक वेश बदले हुए था। वेश बदलना। यानी बाहर से कुछ और भीतर से कुछ दूसरा। अब तो ऐसे बहुरुपियों की समाज में कोई कमी नहीं है। इनमें सबसे आगे नेता हैं। जो समाज का हमदर्द  बनकर उनका ही खून चूस रहे हैं। इन बहुरुपियों के चुंगुल में फंसकर ठगी का शिकार व्यक्ति को काफी देर बाद ही ढगे जाने का पता चलता है। ताजुब्ब है कि मैं तो एक बार वेश बदलकर मुसीबत में फंस गया, लेकिन इन नेताओं को तो सब कुछ हजम हो जाता है। फिर भी मेरा मानना है कि जो लोग वेश बदलकर किसी दूसरे को नुसकान नहीं पहुंचाते उनका चेहरा भले ही झूठा होता है, लेकिन दिल सच्चा होता है। वहीं, इसके विपरीत व्यक्तित्व वालों का न तो दिल ही सच्चा होता है और न ही चेहरा। 
भानु बंगवाल            

Tuesday, 14 August 2012

सौ में सत्तर आदमी जब तक ....

नई उमंग व नई तरंग लेकर 15 अगस्त की सुबह आई। लगातार कुछ दिन से दून में बारिश हो रही थी। इस दिन सुबह से बारिश। भारत की आजादी का दिन। कई दशकों तक अंग्रेजों के गुलाम रहने के बाद इस दिन ही हम आजाद हुए। ऐसे में इस दिन का महत्व भी प्रत्येक नागरिक के लिए बढ़ जाता है। मेरे लिए छुट्टी का दिन। फिर भी मेरी नींद कुछ जल्द ही खुल गई। टीवी आन किया तो जो भी चेनल लगाया, वहां देशभक्ति गीत ही सुनाई दिए। किसी चेनल में जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, तो किसी में मेरे देश की धरती सोना उगले, तो किसी में कुछ और बजाया और सुनाया जा रहा था।
सचमुच कितना आनंद है इस दिन में। कामकाजी इसलिए खुश हैं कि दफ्तरों की छुट्टी होती है, वहीं बच्चे इसलिए खुश होते हैं कि अधिकांश स्कूल नहीं जाते। ये अलग बात है कि जब मैं छटी जमात में था तो इस दिन स्कूल न जाने पर अगले दिन सुबह प्रार्थना के समय सभी बच्चों को सजा के तौर पर मुर्गा बना दिया गया था। फिर भी हर कोई आजाद है। जहां तक हम दूसरों की आजादी को बाधित नहीं करते, वहां तक तो हम आजाद ही हैं। हरएक को अपनी बात कहने की आजादी है। आंदोलन की आजादी। राजनीति में आने की आजादी। बचपन में मैं घर के आंगन में तिरंगा फहराता था। तब इस लोकतांत्रिक देश में झंडे जी की जय बोलो, डंडे जी की जय बोलो के साथ ही सांस रोककर खड़े-खड़े मुझे अधिनायक की जय बोलना भी अच्छा लगता था। अब झंडा तो नहीं फहराता, लेकिन मन में इसके प्रति सम्मान जरूर है।
आजादी का पर्व सभी अपने-अपने अंदाज से मनाते हैं। समाचार पत्रों के कार्यालयों में भी छुट्टी होने की वजह से मेरे कई पत्रकार मित्र तो इस दिन पूरे आजाद नजर आते हैं। कहीं पिकनिक प्लान की जाती है। शराब की दुकाने बंद रहती हैं, तो एक दिन पहले से ही जुगाड़ कर लिया जाता है। इस दिन वे भी पीने की आजादी मनाते हैं। खैर जो भी हो, जिस गली या मोहल्ले में निकल जाओ, वहां का वातावरण देशभक्तिमय नजर आता है। सड़क पर भीड़ नहीं रहेगी, यह सोचकर मैं भी बेटे की साइकिल उठाकर घर से शहर की परिक्रमा को निकल पड़ा। लंबे अर्से के बाद साइकिल में हाथ लगाने पर शुरुआत में मैं डरा भी, लेकिन फिर मुझे लगा कि जैसे रोज चलाता हूं। घर से कुछ आगे मंदिर के प्रागंण पर भी ध्वजारोहण की तैयारी चल रही थी। विधायकजी ने आना था। वहां भी डाल-डाल पर सोने की चिड़िया... का रिकार्ड बज रहा था। अब घर मैं गौरेया तक दिखाई नहीं देती, सोने की चिड़िया तो दूर की बात हो गई। आगे एक स्कूल के प्रांगण में सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे। बालक व बालिकाएं देशभक्ति गीत पर नृत्यकर रहे थे। बेचारी मासूम बालिकाएं सचमुच कितनी आजाद नजर आईं। वह भी आजादी का जश्न मना रही हैं। भले ही घर जाकर उसे भाई की अपेक्षा कम महत्व दिया जाता है। कई का घर में चोका व बर्तन इंतजार कर रहे होते हैं। अब तो माता-पिता भी मनचाही औलाद के लिए आजाद नजर आते हैं। गर्भ में ही बालिका की हत्या कर दी जाती है। फिर भी इस दिन तो सारा देश मस्त है। झूम रहा है। आजादी का जश्न मना रहा है। ऐसा मुझे सुबह से ही प्रतीत हो रहा था। हर स्कूल, सरकारी कार्यालय विशेष रूप से सजाए गए।
घर-घर में टेलीविजन व रेडियो या फिर डेक पर देशभक्ति गीत सुनाई देने से मैं प्रफुल्लित हो रहा था। एक घर के बगल से जब मैं गुजरा तो वहां स्टीरियो में जो गीत बज रहा था, उसे सुनकर मैं चौंक पड़ा। गीत के बोल थे-सौ में सत्तर आदमी....
इस गीत को सुनकर मैं समझ गया कि यह किसी कामरेड का घर है। कामरेड ही  विपरीत धारा में तैरने का प्रयास करते हैं। आज के दिन इस गीत को बजाकर वह अलग तरीके से आजादी के मायने तलाश रहा था। मैं देहरादून का दिल कहे जाने वाले शहर के केंद्र बिंदु घंटाघर तक पहुंच गया। यहां तक पहुंचने में मुझे कहीं बच्चों की प्रभातफेरी नजर आई, तो कहीं हाथ में झंडियां लेकर स्कूल जाते बच्चे। कहीं सफेद, लाल, हरे या नीले बार्डर की साड़ी से लिपटी स्कूलों की शिक्षिकाएं। मानों वही साक्षात भारत माता हों। उत्साह, उमंग और तरंग से ओतप्रोत बच्चे। रास्ते में जगह-जगह बजते लाउडस्पीकर । हर तरह सोना ही उगला जा रहा था। लगा कि आजादी से पहले हमारे बाप दादा भूखों मरते थे। तब शायद किसी को काम नहीं था। सभी बेरोजगार थे। अब देश आजाद है। सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से हर एक सुरक्षित है। कोई फटेहाल नहीं है। अब तो हर एक गरीब को मोबाइल भी मिल जाएंगे। इससे ज्यादा और क्या चाहिए एक आजाद देश के आजाद नागरिकों को।
घंटाघर के आसपास लाउडस्पीकर का शोर भी कुछ ज्यादा ही था। यानी सारे शहर का उत्साह वहीं केंद्रित था। घंटाघर के पास मेरी नजर रिड़कू पर पड़ी। वह अपनी एक दिन की नीलामी के लिए खड़ा था। रिड़कू मजदूरी करता था और काफी मेहनती भी था। घंटाघर में रिड़कू की तरह हर सुबह काफी संख्या में मजदूर खड़े होते थे। वहां ठेकेदार, या अन्य लोग मजदूरों की तलाश में पहुंचते हैं। दिहाड़ी का मोलभाव होता है और मजदूर को लेकर जरूरतमंद अपने साथ ले जाता है। इस चौक पर मजदूर अपने एक दिन के श्रम की नीलामी को खड़े होते हैं। वहां मुझे अकेला रिड़कू ही नजर आया। रिड़कू को मैं पहले से इसलिए जनाता था, क्योंकि उससे मैं भी घर में पुताई करा चुका था। मेरी उससे बात करने की इच्छा हुई। पास पहुंचने पर मैने उससे बचकाना सवाल किया, रिड़कू कैसे हो और आज यहां क्यों खड़े हो। रिड़कू बोला बाबूजी घंटाघर में मजदूरी की तलाश में ही खड़ा होता हूं। आज कोई बावूजी और ठेकेदार नहीं आया।
मैने रिड़कू को समझाया कि आज स्वाधीनता दिवस है। इस दिन देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ था। आज कोई तूझे अपने साथ नहीं ले जाएगा। क्योंकि आज काम की छुट्टी होती है। काम कराने वाले का चालान हो सकता है। यह सुनकर रिड़कू निराश हो गया। वह बोला तभी दो घंटे से आज यहां कोई मजदूर के लिए नहीं आया। मैने उसे कहा कि आज सारा देश आजादी का जश्न मना रहा है। तुम भी मनाओ। घर जाओ बच्चों के साथ खुशी से नाचो। यह सुनकर रिड़कू बिफर गया। वह बोला कैसे मनाएं बाबूजी। एक हफ्ते से बारिश हो रही थी। ऐसे में काम ही नहीं मिला। पैसा खत्म हो गया। बनिया ने उधार देना बंद कर दिया। सुबह कनस्तर बजाकर पत्नी ने रोटियां बनाई तो बच्चों व उसके नसीब में एक-एक रोटी ही आई। आज काम नहीं मिलेगा तो शाम को चूल्हा कैसे जलेगा। जब तन ढकने को कपड़ा नहीं होगा, पेट में रोटी नहीं होगी, तो आप ही बताओ बाबूजी कैसे नाचूंगा। मुझसे बात करने के बाद रिड़कू समझ गया कि अब घंटाघर में खड़े रहने का कोई फायदा नहीं है। वह छोटे-छोटे डग भरकर घर की तरफ चल दिया और मैं भी अपने घर की तरफ। रास्ते में लाउडस्पीकर देशभक्ति के गीतों से गूंज रहे थे। इस शोर में मुझे अब कोई भी गीत स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। मेरे कान में बस वही गीत गूंज रहा था, जो मैने घर से निकलते हुए रास्ते में एक कामरेड के मकान के भीतर बज रहे डेक से सुना था। वो गीत था- सौ में सत्तर आदमी, जब तक नासाज हैं। दिल पर हाथ रखकर कहो, क्या ये देश आजाद है........
भानु बंगवाल
     

Saturday, 11 August 2012

बहादुरी या आत्मघाती....

बड़े बुजुर्गों ने सही कहा है कि कोई भी कदम उठाने से पहले गंभीरता से उस पर विचार कर लेना चाहिए। जल्दबाजी में उठाया कदम नुकसानदायक होता है। फिर भी कई बार त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं। ऐसे में कई बार निर्णय सही हो जाए तो वाहवाही होती है और यदि गलत हो तो फिर हमें कोसने वालों को मौके मिल जाते हैं। दस साल पहले की बात है। रात के करीब नौ बजे देहरादून के क्लेमंटाउन क्षेत्र में डकैती की सूचना मिली। इस सूचना पर एक छायाकार व सहयोगी को लेकर मैं मौके की तरफ रवाना हो गया। तब हमें सिर्फ यही सूचना थी कि किस गांव में डकैती पड़ी है। पूरी जानकारी हमें मौके पर ही जाकर मिलनी थी। ऐसे में हम कार से जैसे ही गांव में प्रवेश करने लगे तो ग्रामीणों की भीड़ ने हमें रोक लिया। भीड़ के तेवर काफी उग्र थे और अधिकांश के हाथ में डंडे व अन्य हथियार थे। ग्रामीण हर आते-जाते को ही डकैत समझकर उससे दो-दो हाथ करने पर उतारु थे।  हमने समझाया कि हम प्रेस से हैं और डकैती की सूचना पर ही गांव पहुंचे हैं। ऐसे में काफी पूछताछ के बाद ही भीड़ ने हमें उस मकान तक जाने का रास्ता बताया जहां डकैती पड़ी थी।
ग्रामीणो की एकता व तेवर को देखकर मुझे यही आश्चर्य हो रहा था कि इस गांव में आखिरकार कैसे डकैती पड़ गई। जहां एक आवाज में ग्रामीण मदद के लिए सड़को पर निकल जाते हों, वहां डकैतों का दुस्सहास भी कुछ कम नहीं था। डकैती की सूचना के तुरंत ही ग्रामीण यदि तत्परता दिखाते तो शायद डकैत उनके कब्जे में होते। खैर हम उस मकान में पहुंचे, जहां डकैती पड़ी थी। घर के सदस्यो से बातचीत में पता चला कि करीब 14 वर्षीय किशोर ने जैसे ही किसी काम के लिए घर में प्रवेश करने वाली मुख्य ग्रिल खोली, तभी हथियारबंद बदमाश भीतर घुस गए। सदस्यों को डरा धमका कर उन्होंने सामान बटोरा और सामने जंगल की तरफ भाग निकले।
पुलिस आई, तो वह भी पूछताछ करने लगी। तभी ग्रामीणो ने कहा कि बदमाश ज्यादा दूर नहीं गए होंगे। पूछताछ बाद में होती रहेगी, पहले उन्हें पकड़ो। उस समय सहायक पुलिस अधीक्षक युवा था और नई भर्ती भी। इस युवा में जोश भी था। वह ग्रामीणों के जत्थे को साथ लेकर जंगल की तरफ चल दिया। हम भी उनके साथ जंगल में प्रवेश कर गए। लगा कि जैसे बदमाश पुलिस को आगे ही मिल जाएंगे और मुझे उन्हें पकड़ने की लाइव स्टोरी कवर करने का मौका। जंगल में एक नाले पर उतरने के बाद सर्दी की इस रात में इतना अंधेरा छाया हुआ था कि हमें रास्ता तक नहीं दिखाई दे रहा था। नाले पर पानी भी बह रहा था। ऐसे में बदमाश को तलाशने की बजाय हमें खुद के सुरक्षित आगे बढ़ने पर ही ध्यान केंद्रित करना पड़ रहा था। एएसपी ने हाथ में सर्विस रिवालवर थामी हुई थी। काफी भटकने के बाद बदमाशों के मिलने की उम्मीद धूमिल होने लगी, लेकिन जंगल में अनजान रास्तों पर पूरा जत्था ही रास्ता भटक गया। तब दिमाग में यही आशंका चल रही थी कि कहीं झाड़ियों में छिपे बदमाशों ने हमारी तरफ गोलियां बरसा दी तो हम संभल भी नहीं सकेंगे। पुलिस के पास टार्च तक नहीं थी और न ही जंगल में घुसते समय किसी ग्रामीण को इसका ख्याल आया। बीड़ी पीने वाले बीच-बीच में माचिस की तिल्ली जलाकर रास्ता सुझाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सभी माचिसों की तिल्लियां भी जल्द खत्म हो गई। इस भूलभुलैया वाले रास्ते में कुछ देर में हम घूमफिर कर वहीं पहुंच गए, जहां से हमने जंगल में प्रवेश किया। अब मेरे मन में सवाल उठता हैं कि -बगैर तैयारी के जल्दबाजी में लिया गया जंगल में प्रवेश का पुलिस का निर्णय बहादुरी वाला था या आत्मघाती।
भानु बंगवाल

Tuesday, 7 August 2012

रुंगे में चाहिए एक अदद वोट...

कमाल के हैं भई रुंगा मांगने वाले। हो भी क्यों नहीं। अब तो पहले की तरह रुंगा मिलता नहीं। अब तो बड़ी चतुराई से ही रुंगा वसूला जाता है। कोई मांग कर लेता है, तो कोई धोखे से। अब आप पूछोगे कि ये आखिर रुंगा क्या है। बचपन से ही मैं रुंगा मांगते हुए लोगों को देखता आया हूं। जब एक पाव दही खरीदते थे, तब दही वाले से रुंगा जरूर मांगते थे। इसी तरह दूध, सरसों का तेल आदि कोई भी सामग्री खरीदने पर विक्रेता वजन व माप करने के बाद थोड़ा सा अपनी तरफ से डाल देता है। इसी को रुंगा कहा जाता है। सब्जी खरीदी तो रुंगे में हरी मिर्च व धनिया भी दे दिया। ऐसे में ग्राहक भी विक्रेता से खुश रहता है। वो क्यों मुफ्त में बांटेगा। यह रुंगा ही ऐसी चीज है। भले ही विक्रेता कहीं न कहीं से रुंगे की लागत वसूल कर ही लेता है, पर ग्राहक तो फोकट का समझकर खुश रहता है। देहरादून में तो एक ऐसा बार है, जहां नियमित पीने वाले पूरे पैग लगाने के बाद अंत में काउंटर पर बैठे व्यक्ति से रुंगा मांगते हैं। चाहे कितने भी पैसे की दारू पी लें, लेकिन जब तक रुंगे में मिली मुफ्त की नहीं पीते, तब तक उन्हें पीने का मजा ही नहीं आता।
अब बढ़ती महंगाई में रुंगा देना भी दुकानदारों ने बंद कर दिया। सब्जी वाला हरी मिर्च व धनिया भी रुंगे पर नहीं देता। यदि देता भी है तो उस ग्राहक को, जो कई सब्जी एक साथ खरीदता है। कई विक्रेता तो रुंगा देने की बजाय ले रहे हैं। यानी सामान में ही घटतौली कर अपने पास रुंगा बचा रहे हैं। ऐसा रुंगा लेने में रसोई गैस ऐजेंसी वाले अव्वल हैं। हर सिलेंडर से एक सौ ग्राम गैस कम ही निकलती है। परेशान ग्राहक सौ ग्राम की कमी को चुपचाप सहन कर लेता है। एक कवि मित्र पहले अपनी एक कविता को सुनने का मुझसे आग्रह करते हैं। मेरे हां कहने पर जब वह सुनाने पर आते हैं तो रुंगे में दो-तीन से ज्यादा ही सुना जाते हैं।
अफसर हो या नेता सभी रुंगे पर ही तो काम कर रहे हैं। नेताजी किसी को काम दिलाते हैं, तो रुंगे में अपनी जेब भी भरना नहीं भूलते। कई रुंगा लेने के आरोप में पकड़े भी गए और जेल भी गए। ऐसे भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करके अन्ना हजारे ने देशवासियों के मन में एक उम्मीद जगाई। लोकपाल बिल को लागू करने के लिए अनशन किए। यह सब उन्होंने इस देश की जनता के लिए किया। अब जनता से भी टीम अन्ना रुंगा मांगेगी। मांगे भी क्यों नहीं। जब वह जनता के लिए आंदोलन कर रही है तो क्या एक रुंगे की हकदार नहीं है। वह रुंगा है हर मतदाता का एक वोट, जिसे पाकर वे संसद में जाएंगे और देश की कायापलट कर देंगे। देखते हैं कि समय क्या करवट लेता है। लेकिन, यह भी सच है कि- ये दुनियां बड़ी जालिम है, दिल तोड़कर हंसती है।....
 भानु बंगवाल

Sunday, 5 August 2012

छुआछूत से सुरक्षा का अहसास......

वाकई छुआछूत एक बीमारी ही है। यह किसी को कभी भी लग जाती है, लेकिन इसकी चपेट में आने वाला व्यक्ति खुद को बीमार नहीं समझता। बचपन में सुनता था कि गांव में यदि किसी को कुष्ठ या क्षय रोग हो जाता है, तो ऐसे व्यक्ति का इलाज कराने की बजाय सारा गांव उसका बहिष्कार कर देता है। ऐसे व्यक्ति को गांव से दूर छानी (मवेशियो के लिए बनाया गया स्थान) में रहने के लिए कहा जाता था। सारे गांव को यह भय रहता था कि कहीं अन्य ग्रामीण भी बीमारी की चपेट में न आ जाएं। ऐसे में बीमार का सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। समय से साथ कई बीमारियों का इलाज होने से अब ऐसे बहिष्कार की घटनाएं कम ही सुनाई देती हैं। इसके विपरीत मैं तो छुआछूत करने वाले व्यक्ति को भी बीमार मानता हूं। ऐसे कई लोग हैं जो किसी व्यक्ति को छूने या हाथ मिलाने से परहेज करते हैं। छूने की स्थिति में बार-बार हाथ धोने की आदत उन्हें होती है। वैसे यह मैं नहीं कहता कि साफ सफाई का ख्याल मत रखो, लेकिन किसी व्यक्ति को छूने से कोई व्यक्ति कैसे गंदा हो जाता है, यह बात मुझे आज तक समझ नहीं आई।
जब मैं छोटा था उस समय लोग सार्वजनिक नल से पानी भरते थे। तब ऐसे कई लोग थे, जो अपना नंबर आने पर पहले नल की टोंटी को रगड़-रगड़ कर धोते थे। इसके बाद ही पानी भरते। इसी तरह कई लोग रसोई में बच्चों का प्रवेश करने पर पूरी रसोई को धोते और इसके बाद ही खाना बनाते। ऐसे लोगों की रसोई में बच्चों का प्रवेश ही वर्जित होता था। छुआछूत की बीमारी वालों की बात यहीं तक समाप्त नहीं होती। करीब पैंतीस साल पहले हमारे मोहल्ले में एक वृद्धा रहने आई। उसकी कोई औलाद भी नहीं थी। वह हर सुबह नहाती थी और पूजा पाठ भी करती। मोहल्ले की महिलाएं जब घर के पास मैदान की घास पर बैठती तो वृद्धा उनसे कुछ दूरी बनाकर बैठती। शायद इसलिए वह दूर बैठती कि कहीं कोई उसे छू न ले। यदि गलती से कोई उसे छू लेता तो वह दोबारा घर जाकर नहाती। मोहल्ले के बच्चों को जब इसका पता चला तो उन्होंने वृद्धा को तंग करना शुरू कर दिया। सर्दियों के दिन थे, वह नहाधोकर धूप सेकने बाहर बैठी कि तभी एक बच्चे ने दौड़ते हुए उसे छू लिया। अक्सर यह बच्चों का खेल बना हुआ था। वृद्धा को दोबारा नहाना पड़ा। फिर दोबारा जब वह धूप पर बैठी फिर एक बच्चे ने उसे छू लिया। बच्चे नादानी कर रहे थे और वृद्धा मूर्खता। सर्दियों में कई बार नहाने से वह बीमार हो गई और एक दिन चल बसी। लोगों को उस वृद्धा के किसी रिश्तेदार व नातेदार का भी पता नहीं था। ऐसे में मोहल्ले के लोगों ने चंदा एकत्र कर उसके अंतिम संस्कार का इंतजाम किया। उसे उन लोगों ने ही कांधा दिया, जिनके छूने से वह पहले कई बार नहा चुकी थी। उस अभागी ने तो जीते जी यह तक नहीं जाना कि,जिनसे वह छूत करती है, वही उसके सच्चे हिमायती, मित्र व पड़ोसी थे।
जब मैं बड़ा हुआ तो देखा कि छुआछूत की बीमारी तो हर तरफ फैली हुई है। भले ही इसका रूप दूसरा है। जहां कहीं भी कोई नई जगह काम करता तो वहां पहले से मौजूद साथी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करते कि मानो उसे कोई बीमारी है। ऐसे लोग मुझे मोहल्ले की उस वृद्धा की तरह ही नजर आते, जिसे मैं बचपन में देखता था। ऐसे लोग या तो नए व्यक्ति के काम में गलती निकालते या फिर उससे गलती होने का इंतजार करते हैं। साथ ही उससे कुछ दूरी भी बनाकर रखते हैं। ऐसा हर नई जगह में शुरूआती दौर पर ही होता है। जब दूसरे को यह महसूस होने लगता है कि उसे नए व्यक्ति से कोई खतरा नहीं तो वे उसके अच्छे मित्र भी बन जाते हैं। ऐसी मित्रता बाद तक कायम रहती है।
भानु बंगवाल      

Wednesday, 1 August 2012

बहने दे रही रक्षा की गारंटी.....

राखी का त्योहार। बाजार में कई दिनों से छाने लगी रंग बिरंगी राखियां। भाई की कलाई में राखी बांधती बहनें। कोई बहन सस्ती राखी से काम चला लेती और कोई चांदी व सोने से बनी महंगी राखी अपने भाई की कलाई में बांधती है। तब भाई लेता है बहन की रक्षा का संकल्प। वो भाई भी संकल्प लेते हैं, जिन्हें खुद को ही रक्षा की जरूरत होती है। अब सवाल यह है कि भाई ही बहन की रक्षा का संकल्प क्यों लेता है। लड़की को फिर कमजोर क्यों समझा जाता है। बहन भाई की रक्षा का संकल्प क्यों नहीं लेती। कुछ इस तरह के सवाल मेरे मन में उठते हैं। महिलाएं भी किसी से कम नहीं हैं, तो ऐसे में वे अपने से छोटे या फिर बड़े व कमजोर भाई की रक्षा का संकल्प क्यों नहीं लेती। कई बार तो वह बगैर संकल्प लिए ही रक्षा करके दिखाती है, फिर इस दिन संकल्प क्यों नहीं लेती। मेरी नजर में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां मुसीबत की घड़ी में बड़ी बहन ने अपने छोटे भाई, बहन व परिवार का जिम्मा उठाया। इसके बाद भी वही बहन अपने भाई की कलाई में राखी बांधती है और रक्षा की उम्मीद करती है। कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं कि जो बहन अपने भाई से रक्षा के संकल्प की उम्मीद करती हैं, इसी दिन वो जंगल में जाकर वृक्षों की रक्षा का संकल्प लेती हैं।
उत्तराखंड़ के कई पर्वतीय क्षेत्र में कुछ ऐसी ही परंपरा रही है। वहां के लोगों के पास नदी, पहाड़ और जंगल है। तभी तो वहां के त्योहर भी इसके इर्द-गिर्द ही नजर आते हैं। यहां चिपको आंदोलन कर महिलाएं वृक्षों को बचाने आगे आती हैं तो राखी के दिन जंगल में जाकर पेड़ों पर रक्षा सूत्र बांधती हैं। चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी जनपद के कई गांव ऐसे हैं, जहां महिलाएं पेड़ो पर रक्षासूत्र बांधकर उनकी रक्षा का संकल्प लेती हैं। पेड़ जब प्राणवायु देकर हमारी रक्षा करते हैं तो हम क्यों नहीं उसकी रक्षा का संकल्प लेते। शायद यही वजह है कि महिलाएं इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए रक्षाबंधन को अलग अंदाज से मनाती हैं। ऐसा भी नहीं कि प्रकृति प्रेम सिर्फ एक दिन का हो। कई गांव तो ऐसे हैं। जहां शादी होने पर नए जोड़े से फलदार वृक्षो की प्रजाति का पौधारोपण कराया जाता है। ऐसे पौध की देखभाल का जिम्मा भी नए जोड़े पर होता है। सच ही तो है यदि पेड़ बचे रहेंगे तो दुनियां में जीवन बचा रहेगा। सही मायने में इंसान की रक्षा इन पेड़ों की रक्षा से ही हो सकेगी। वहीं, राखी के दिन पंडितजी यजमान को राखी बांधकर अपनी रक्षा की उम्मीद करते हैं। यानी हरएक अपनी रक्षा की गारंटी चाहता है, लेकिन दूसरे की रक्षा का खुद प्रयास नहीं करता। ऐसा प्रयास तो सिर्फ पेड़ों को रक्षा सूत्र बांधने वाली महिलाएं ही कर रही हैं। पेड़ों को बचाकर वे समाज की रक्षा की गारंटी दे रही हैं। यदि उनसे प्रेरणा लेकर हर व्यक्ति एक एक पेड़ की रक्षा का संकल्प लेगा, तो सही मायने में भविष्य की रक्षा हो सकेगी। तभी रक्षाबंधन का त्योहार भी सार्थक होगा।
भानु बंगवाल