Wednesday, 29 August 2012

तन ढांपने को बैनर ही काफी.........

अपनी धुन में सवार जब वह चलती तो उसे अपने कपड़ों तक का होश नहीं रहता था। अपनी सुधबुध खोकर वह निर्वस्त्र सड़कों पर घूमती। सड़कों पर चलने वाले लोग दूर से ही उसे देखकर मुंह फेर लेते। पागलपन का दौरा समाप्त होते ही उसे खुद के महिला होने का अहसास होता तो वह देहरादून के घंटाघर चौराहे क्षेत्र में लगा कोई भी बैनर उतारकर उसे साड़ी की तरह लपेट कर अपना तन ढकने का प्रयास करती। करीब पंद्रह साल पहले दून की सड़कों पर ऐसी एक विक्षिप्त महिला को अक्सर देखा जाता था। जो पागलपन का दौरा पड़ते ही तन के कपड़े फाड़ देती थी और कभी साड़ी की तरह बैनर को शरीर पर लपेट लेती थी। कई सालों तक उक्त महिला को देहरादून की सड़कों पर विचरण करते देखा गया। फिलहाल करीब पांच   साल से वह गायब है और उसे देखकर मुंह फेरने वाले भी राहत महसूस कर रहे होंगे।
दून की सड़को पर निर्वस्त्र घूमने वाली महिला तो विक्षिप्त थी। आज देखता हूं कि पढ़े-लिखे सभ्य समाज की स्थिति उस महिला से भी ज्यादा खराब है। उक्त महिला के संदर्भ में हर व्यक्ति के मन में यही सवाल उठता कि आखिरकार प्रशासन ने भी उसकी तरफ से निगाह क्यों फेर रखी है। वहीं, समाज सेवा का दंभ भरने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं भी क्यों लाचार बनी बैठी हैं। तब ऐसी घटनाएं चौंकाने वाली होती थी, लेकिन आज ऐसी अशलीलता आम होती जा रही है। फेसबुक में ऐसे युवक व युवतियों की कमी नहीं, जो अशलील फोटो व अन्य सामग्री अपलोड कर रहे हैं। फेसबुक में वे अपनी फोटो डालते हैं या फिर अपने परिवार के किसी और की सदस्य की। लेकिन, एक बात साफ है कि ऐसी फोटो को शायद उसे अपलोड करने वाला भी अपने परिवार के सदस्य के साथ नहीं देख सकता है। करीब पंद्रह साल पहले शहर की सड़को पर एक महिला निर्वस्त्र घूमती थी, लेकिन आज तो फेसबुक में हर सौ व्यक्ति में एक व्यक्ति ऐसा मिल जाएगा जो अशलीलता को बढ़ावा दे रहा है। उनकी हरकतों से उनकी मां का दूध भी शायद लज्जा जाता होगा। ऐसे लोगों की हरकतों से परेशान होकर फेसबुक में कई लोगों को अब यह संदेश भी देते हुए देखा जा रहा है कि उन्हें अशलील सामग्री ने भेजी जाए।
आज सोचता हूं कि युवा पीढ़ी किस दिशा में भटक रही है। उसे छोटे-बड़े, नाते-रिश्तेदार का भी लिहाज नहीं । वो तो एक पागल महिला थी, लेकिन फिर भी बैनर से तन ढकने का प्रयास करती थी, लेकिन यहां तो पढ़े-लिखे नग्न होकर खुद की प्रदर्शनी लगा रहे हैं। मेरे एक मित्र ने सुझाव दिया कि मैं यह भी बताया करूं कि कैसे उच्च नैतिक मूल्यों वाले मानव संसाधन को विकसित किया जा सकता हैं ? यहां मै यही कहूंगा कि मैं या आप कोई तांत्रिक नहीं हैं। जो उपाय बताएं और उस पर लोग अमल करें। सभी को पता है कि नैतिक मूल्य वाले मानव संसाधन को विकसित कैसे किया जा सकता है। जीवन को सही तरीके से जीने के लिए हमारे ऋषि-मुनियों व बुजुर्गों ने बताया कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि से दूर रहें। यही शिक्षा स्कूल में शिक्षक भी देते हैं और घर में माता-पिता भी। शुरूआत माता से ही होती है। कोई भी मां नहीं चाहेगी कि उसका बच्चा बड़ा होकर गलत राह पर चले। सबसे पहले संस्कार घर से ही मिलते हैं। अब एक जैसी शिक्षा मिलने के बावजूद दो व्यक्ति अलग-अलग चरित्र के कैसे हो जाते हैं। क्या दोनों की शिक्षा में कोई कमी रह जाती है। यहां मैं कही कहूंगा कि कमी हमारी इच्छा शक्ति पर रहती है। हमारे भीतर दैवीय व राक्षसी दोनों ही प्रवृति होती है। जिस प्रवृति का हम ज्यादा सदुपयोग करते हैं, उसी के अनुरूप हमारी आदतें बनती जाती हैं। यानी कि बीमारी भी हमारे भीतर है और उसका इलाज भी। यदि हम खुद को अच्छा बनाने का प्रयास करेंगे तो समाज में भी निश्चित तौर पर बदवाल आएगा। हमें उन चीजों को स्वीकार करना होगा,जिसे हम बदल नहीं सकते। साथ ही उन चीजों को बदलने का प्रयास करना होगा जिसे हम बदल सकते हैं। अब सवाल उठेगा कि हम किसे बदल सकते हैं, तो जवाब होगा- अपने आप को। दूसरा सवाल उठेगा कि किसे नहीं बदल सकते, तब मेरा जवाब होगा- दूसरों को। समाज को बदलने के लिए कोई क्रांति नहीं आने वाली कि डंडा घुमाया और समाज बदल गया। इसे बदलने की शुरूआत हमें अपने से ही करनी होगी। अपनी आदतों से करनी होगी और खुद में सुधार लाना होगा।  पहले जब हम खुद को बदलेंगे तो निश्चित ही यह समाज बदलेगा। तब कोई महिला शरीर पर बैनर लपेटे नहीं दिखाई देगी। उसे या तो कोई ठोर मिलेगा या फिर वह भी साड़ी से लिपटी नजर आएगी।
भानु बंगवाल          

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