Saturday, 30 June 2012

वजन बढ़ता गया और जेब ढीली..( बचपन के दिन-4)

कोई काम देखने से काफी आसान लगता है, लेकिन जब करने बैठो तब ही उसकी अहमियत नजर आती है। आसान सा दिखने वाला काम ही काफी मुश्किल भरा होता है। चाहे कोई नौकरी करता हो,  दुकान चलाता हो, चाहे कोई मजदूरी करता हो, या फिर एक्टिंग करता हो, नृत्य करता हो, या कोई खिलाड़ी निरंतर खेल का अभ्यास करता हो। ऊपरी तौर पर देखने में दूसरो के काम आसान लगते हैं। हो सकता है कि देखादेखी के बाद कोई दूसरे का काम कुछ समय तक आसानी से कर दे, लेकिन काम चलताऊ न हो, नियमित रूप से हो तो वह आसान नहीं होता। ऐसे में मेरा यही मानना है कि जो भी काम करो, दिल लगाकर।
अक्सर दूसरे के घर चुलबुले कुत्ते देखकर मन ललचाता है और देखने वाला भी यही डिमांड करता है कि ऐसा ही एक कुत्ता उसे भी दिला दो। कुत्ता पालना सबसे आसान काम नजर आता है, लेकिन तरीके से पालो तो यह ऐसी ड्यूटी हो जाती है, जिसमें कोई इंटरबल नहीं होता और न ही वीकऑफ। परवरिश में इंसान के बच्चे की तरह कुत्ते की भी देखभाल करनी पड़ती है। तभी वे पलते हैं। नहीं तो कब बीमारी लगी और कैसे उसकी मौत हुई इसका कारण भी पता नहीं चलता।
डोबरमैन प्रजाति की पालतू कुतिया ट्रेसी ने हमारे घर में एकसाथ चार बच्चों एक कुत्ता व तीन कुतिया को जन्म दिया। उस समय सर्दी के दिन थे। चारों बच्चों के साथ ही ट्रेसी की देखभाल मेरा बड़ा भाई करता था। घर में कुत्तों की भीड़ लगी तो बाद में हमने ट्रेसी को बहन को दे दिया। चार बच्चों में कुत्ते को हम रखना चाहते थे। तीन बच्चों को ऐसे लोगों को देना चाहते थे, जो उनकी सही परवरिश कर सकें। जब चारों कुत्ते करीब सवा महीने के थे, तो उनकी शैतानी भी बढ़ने लगी। मुझसे बड़ी बहन जब भी घर में झाड़ू-पौछा करती, तो चारों शैतानों को उसका इंतजार रहता। वे झाड़ू का छोर मुंह से पकड़ने का प्रयास करते। ऐसे में कुत्तों के साथ बहन की छीना झपटी होती। पौछा लगाते समय चारों एक छोर पकड़ लेते, जब वह छुड़ाने को पौछा खींचती, तो दूर तक फर्श में घिसटते चले जाते। इन कुत्तों के बच्चों का कोई नाम नहीं रखा गया। पहचान के लिए सबसे मोटी कुतिया को मोटी, सबसे कमजोर को छुटकी, भूरे रंग की कुतिया को भूरी व कुत्ते को कुत्ता ही पुकारा जा रहा था।
सर्दी ज्यादा होने पर चारों हीट ब्लोवर से सट कर बैठ जाते। भाई के कमरे में बेड के नीचे ही सभी ने अपना ठिकाना बनाया हुआ था। घर के आंगन में रखे गमलों में  कीट का प्रकोप बढ़ने के कारण हम कीटशानाशक डीडीटी का प्रयोग करते थे। डीडीटी के गत्ते के डिब्बे को बेड से करीब तीन फुट की ऊंचाई पर दीवार में बने आले में रखा हुआ था। दोनों भाई तब अलग-अलग समाचार पत्रों में रिपोर्टर थे। एक शाम मैं व भाई दोनों ही घर पर नहीं थे। जब रोत को घर लौटे तो नजारा काफी भयावह था। आले से डीडीटी का डिब्बा बेड में गिर गया था। चारों शैतान बेड पर चढ़कर डीडीटी के गत्ते को कुतरकर खाते चले गए। पहले उनके पेट में गत्ते की लुगदी गई, फिर जहर।
जब हम घर पहुंचे तो बिस्तर पर डीडीटी पाउडर बिखरा हुआ था। जमीन पर चारों कुत्ते निढाल पड़े थे। नजारा देख पहली नजर में समझ आ गया। किसी तरह उनके पेट से जहर वापस निकालना था। ऐसे में हमें कुछ न सूझा और चीनी नमक का घोल बनाकर एक-एक कर उनके मुंह में भरना शुरू किया। जब जरूरत से ज्यादा घोल उनके पेट में गया तो उन्होंने उगलना शुरू किया। ऐसे में कुछ देर बाद उनकी तबीयत कुछ ठीक नजर आने लगी। कुत्ता व मोटी अन्य की अपेक्षा कुछ तगड़े थे। ऐसे में वे ठीक नजर आए। रात करीब दो बजे जब हम सोए, तो कुछ देर बाद कुत्ते के छटपटाने से नींद खुल गई। वह मिर्गी के मरीज की भांति पैर हिला रहा था। मुंह से झाग निकल रहा था। फिर से उसका ट्रीटमेंट किया गया।
अगले दिन चारों को एक बड़े से डिब्बे में रखकर निजी पशु चिकित्सक के पास ले गए। उसने कुत्तों की जांच की और खतरे से बाहर बताया। साथ ही उसने बताया कि चारों कुत्ते काफी कमजोर हैं। इन्हें खाने में क्या देते हो। भाई ने बताया कि खाना तो मामूली देते हैं। सभी यही कहते हैं कि कुत्ते को ज्यादा खाना दो और पेट भरा हो तो वह रखवाली नहीं करेगा। डॉक्टर ने बताया कि जिस तरह इंसान के बच्चे को बार-बार भूख लगती है, उसी तहर कुत्तों को भी लगती है। इन्हें इतना खाना दो कि उनका पेट भर जाए और प्लेट पर भी बचा रहे। डाइट में अंडा, दूध, सेरेलेक, कीमा आदि खिलाओ। फिर क्या था घर में सेरेलेक के डिब्बे आने लगे। कुत्तो की दवा, डाइट आदि पर भाई का आधा वेतन उड़ने लगा। भाई की जेब ढीली होती रही और कुत्तों का वजन बढ़ने लगा। इस बीच दो कुतिया मोटी व छुटकी को अलग-अलग लोगो को दे दिया। तब तक कुत्ते का नाम बुलेट रख दिया गया, जो बाद में बुल्ली हो गया।
दो कुत्तों को नियमित घुमाना, नहलाना, खिलाना भी आसान काम नहीं था। जब वे छह माह के थे, तो दोनों के लिए तीस से अधिक रोटी बनती थी। मां या बहन जो भी रोटी बनाती, मन ही मन कुत्तों को भी कोसते। इन कुत्तों ने उन्हें बांधने के लिए प्रयोग होने वाली कई चेन भी तोड़ डाली। सुबह के समय मैं दोनो को घुमाने करीब दो किलोमीटर दूर डेयरी फार्म के खेत व जंगलों में ले जाता। मेरे से साथ मेरी बड़ी बहन के जेठ का बेटा सोनू भी कई बार सुबह घुमने जाता। अब वह मर्चेंट नेवी में है। रास्ते में दोनों कुत्ते कई बार इतना जोर लगाते कि चेन पकड़कर संभालना भी मुश्किल हो जाता। एक दिन हम घर की तरफ लौट रहे थे। सोनू ने दोनों कुत्तों की चेन पकड़ी और वो आपस में उलझ गई। कुत्तों ने जोर मारा और उसके हाथ से चेन छूट गई। दोनों कुत्ते सामानांतर दोड़ रहे थे। चेन बीच में उलझी हुई थी। सामने से आने जाने वाले लोग रास्ता छोड़ रहे थे। हन दोनों मामा-भांजा कुत्तों को पकड़ने का प्रयास कर रहे थे। तभी एक व्यक्ति हमसे आगे जाता दिखाई दिया। उसे पता नहीं था कि पीछे क्या हो रहा है। करीब पैंसठ वर्षीय वह व्यक्ति दोनो कुत्तों के बीच चेन की चपेट में आ गया और जमीन पर गिर पड़ा। इसके बाद सोनू कुत्तों को लेकर घर पहुंचा और मैं पहले उस व्यक्ति के घर, फिर उसके परिजनो को साथ लेकर अस्पताल। (जारी)
भानु बंगवाल

Thursday, 28 June 2012

हिंसा से अहिंसा का पाठ (बचपन के दिन-3)

घर के पालतू जानवर भी परिवार का सदस्य हो जाते हैं। घर में सुख-दुख की घड़ी में जानवर भी व्यक्ति जैसा ही व्यवहार करते हैं। वे भले ही आदमी की बोली को बोल नहीं पाते हैं, लेकिन उनसे क्या कहा जा रहा है, उन्हें समझ आ जाता है। ज्यादातर जानवर हिसंक होते हैं, लेकिन एक ऐसा बेजुवान भी था, जो हिंसा से अहिंसा का पाठ पढ़ा गया।
मेरा भोटिया प्रजाति का कुत्ता अज्ञानतावश एक बैंक मैनेजर ने मरवा दिया। रॉक्सी नाम के इस कुक्ते की मौत पर घर में सभी को दुख था। तब कुत्ता पालने के नाम से ही मैं दुखी होने लगता था। दुनियां की रीत है कि एक दिन जो आया उसे जाना ही है। किसी के मरने का कितने दिन गम मनाया जा सकता है। कुछ दिन व्यक्ति दुखी होता है और धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगती है। अब तो इंसान की जान की कोई कीमत ही नहीं रही, फिर भी रॉक्सी तो कुत्ता ही था। उसे भी कुछ दिनों के बाद सभी भुला बैठे। मेरे भाई ने तय किया कि अब ऐसा कुत्ता पाला जाए, जिसे हाथ लगाने का कोई साहस नहीं कर सके। एक दिन वह करीब ढाई माह की डोवरमैन प्रजाति की कुतिया घर ले आया। इसका नाम ट्रेसी रखा गया।
काफी चंचल प्रवृति की ट्रेसी घर के सभी सदस्यों की लाडली थी। ट्रेसी को खाना देने के लिए एक प्लेट थी। जब परिवार के लोग खाना खाते हैं, तब कुत्ते को भोजन नहीं देना चाहिए। यहीं हमने कुत्ता पालने में गलती कर दी। हम कभी-कभार खाना खाते समय रोटी के टुकड़े उछालकर उसे देते थे। बस क्या था ट्रेसी की आदत पड़ गई कि जब भी हम भोजने करते वह चिल्लाने लगती। यह आदत छुड़ाने के लिए उसे काफी डराया भी गया, लेकिन यहां हमारा मनोवैज्ञानिक फेल हो गया। ट्रेसी की खासियत थी कि छोटे बच्चों से उसे काफी प्यार था। उसके सामने किसी बच्चे को यदि डांट दिया जाए, तो वह डांटने वाले पर ही भौंकने लगती, साथ ही काटने का उपक्रम भी करती। मेरा भांजा सोनू अक्सर हमारे घर आता था। वह शरारत करता और ट्रेसी के पास छिप जाता। ऐसे में उसे डांटने का साहस किसी पर नहीं होता। जन्माष्टमी में बच्चे घर में चंडाल सजाते हैं। मेरा भांजा भी हमारे घर अपने खिलौने- हीमैन, जेआइजो, बैटमैन आदि लेकर आया हुआ था। उसके लिए मैने नदी से रेत, पत्थर लाने के साथ ही काई, होली के रंग आदि से घर के आंगन में वृंदावन का मॉडल बनाया। उसे खिलौनों से सजाया गया। करीब तीस खिलौने वहां पर रखे गए। आसपड़ोस के बच्चे भी सोनू के साथ खेलने को दिन भर हमारे घर ही जमे रहे। शाम को काफी तेज बारिश होने लगी। बहन सोनू को अपने घर ले गई, बारिश के दौरान आपाधापी में वह खिलौने वापस नहीं ले जा सका। सारे खिलौने बाहर आंगन में पड़े रहे। रात गई और नई सुबह धूप के साथ निकली। बिस्तर से उठकर मैं सीधे  आंगन में गया और वहां का नजारा देख मेरे पैर से जमन खिसक गई। सारे खिलौने गायब थे। मैने सोचा कि बारिश से सजावट टूट गई, हो सकता है खिलौने रेत में दबे होंगे, लेकिन ऐसा नहीं था। शायद खिलौने कोई चोर ले उड़ा। अब सोनू को मनाना काफी मुश्किल काम था। फिर मुझे ट्रेसी पर गुस्सा आया कि बारिश में उसे किसी अनजान के आने का पता क्यों नहीं चला। रखवाली की बजाय वह भी टिन की छत  वाले अपने कमरे में सोती रही होगी। गुस्से से मैने ट्रेसी को आवाज लगाई, लेकिन वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। मैं जब उसके कमरे में पहुंचा, तो वहां का नजारा देखकर मुझे काफी अचरज हुआ। मुझे पूरी कहानी समझ आई तो प्यार से ट्रेसी को पुचकारने लगा। हुआ यूं कि रात को खिलौने बाहर देख ट्रेसी विचलित हो गई होगी और एक-एक खिलौने को उठाकर वह अपने कमरे में जमा करती रही। इस तरह पूरी रात बारिश में भीगकर उसने अपने कमरे में खिलौनो का ढेर लगा दिया।
ट्रेसी ने चार बच्चों को जन्म दिया और कुत्ता पालने की चाहत में हमने उसे बहन को दे दिया। ट्रेसी को घुमाने अक्सर मेरे जीजा अपने बेटे सोनू व दूसरी बहन के बेटे को लेकर सैनिक डेयरी फार्म के जंगल में चले जाते थे। एक दिन एक बरसाती खाले में उतरकर वे जंगल में काफी आगे निकल गए। वे एक खाले से दूसरे खाले में भटक रहे थे, लेकिन उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था। ऐसे में सोनू रोने लगा। फिर उन्होंने तय किया कि खुद रास्ता खोजने की बजाय ट्रेसी पर निर्भर हो जाते हैं। ट्रेसी आगे-आगे चलती रही और राह भटके तीनों उसके पीछे। कुछ देर इधर-उधर घुमाने के बाद ट्रेसी उन्हें मुख्य मार्ग तक ले आई। बहन के घर उनके ऑफिस का एक कर्मचारी कौशिक आता था। उसे देख ट्रेसी स्वभाव के अनुरूप भौंकती थी। एक सुबह मेरे जीजा ट्रेसी को घुमा रहे थे। रास्ते देखा कि कौशिक का पड़ोसी से विवाद हो रहा है। विवाद बड़ा और मारपीट में बदल गया। कौशिक को पड़ोसी का परिवार पीट रहा था। तभी ट्रेसी ने आव-देखा न ताव और कौशिक को पीट रहे मुख्य व्यक्ति का हाथ मुंह से पकड़ लिया। वह व्यक्ति घरबाकर खुद को छुड़ाने में लग गया, लेकिन ट्रेसी की पकड़ से छूट नहीं पाया। पड़ोसी के चुंगल से छूटने के बाद मौका देख कौशिक जान बचाकर भाग निकला। दो पक्षो की हिंसा रोकने के लिए ट्रेसी के हिंसक होने के चर्चे उस दिन से कई दिनों तक बहन के मोहल्ले के लोगो की जुबां पर रहे। हिंसक होकर भी उसने अहिंसा का पाठ पढ़ा दिया। ... (जारी)
भानु बंगवाल

Tuesday, 26 June 2012

कौन गलत, कौन सही..(बचपन के दिन भुला-2)

अपने प्यारे कुत्ते जैकी की मौत का घर में सभी को काफी दुखः था। जिस दिन उसकी मौत का पता चला घर में किसी की खाना खाने तक की इच्छा नहीं हुई। मैने दोबारा कुत्ता पालने का विचार ही मन से निकाल दिया। वर्ष 1989 की जनवरी में पिताजी सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो गए। उनके रिटायर्डमेंट के बाद कुछ माह हम किराये के दो कमरो के मकान में चिड़ौवाली नामक स्थान पर रहे। रिटायर्डमेंट के बाद जो पैसा मिला उससे पिताजी ने वर्ष 1990 में देहरादून की राजपुर रोड से सटे आर्यनगर में तीन कमरों का मकान खरीद लिया। तब तक मेरी तीन बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी। बड़ा भाई एक दैनिक समाचार पत्र में रिपोर्टर था और मैं एक ठेकेदार के साथ सरकारी विभागों में भवन आदि बनाने की ठेकेदारी का काम सीख रहा था। मैने अपनी मेहनत से एक साइकिल खरीदी, जो घर से ही चोरी हो गई। इसका जिक्र भी मैं- साइकिलः अपनी कमाई की, नामक  ब्लाग में काफी पहले कर चुका हूं।
पिताजी के पास जो राशि थी, उससे मात्र मकान का ढांचा ही खरीदा गया। तीन कमरों में ही छत थी। मकान में दो बाथरूम थे। इन दो बाथरूम के साथ ही एक छोटे कमरे व कीचन में छत नहीं थी। हमारे रहने लायक मात्र तीन कमरे थे। मकान का चारदीवारी तो थी, लेकिन गेट नहीं था। किसी तरह कीचन व बाथरूम के साथ ही एक अन्य कमरे में सिमेंट व टिन की चादर की छत का जुगाड़ किया गया, लेकिन गेट के नाम पर बांस की खपच्चियों से पिताजी और मैने एक कामचलाऊ गेट बना दिया।
घर से साइकिल चोरी होने पर रखवाली के लिए कुत्ते की आवश्यकता महसूस होने लगी। जैकी की मौत के बाद मैंने कुत्ता तलाशने में ज्यादा दिलचस्पी नही दिखाई। एक दिन मेरा बड़ा भाई राजपुर रोड जाखन स्थित एक सेवानिवृत्त मेजर के घर से भौटिया प्रजाति के कुत्ते का बच्चा लेकर घर आ गया।
भूरे रंग का करीब दस-पंद्रह दिन के कुत्ते के इस बच्चे को घर में सभी का खूब प्यार मिला। उसकी देखभाल भी अच्छी तरह हुई और वह तेजी से बड़ा होने लगा। इस कुत्ते का नाम मैने रॉक्सी रखा। बचपन से ही रॉक्सी काफी चुलबुला था। साथ ही वह रात को सोते समय मेरे बिस्तर में घुस जाता। जिस डंडे को देखकर कुत्ते डरते थे, वह उसे देखकर गुर्राना सीखा। करीब तीन महीने की उम्र में ही वह बड़े साइज के कुत्ते के बराबर नजर आने लगा। वह जल्द भौंकना सीख गया था। उसे देखकर अनजान व्यक्ति डरता था। जब उसके दांत निकलने लगे तो काफी पैने थे। वह खेल में भी यदि मुंह से किसी को पकड़ता तो समझो खून निश्चित रूप से आएगा। खेल ही खेल में मेरे भांजे को भी वह काट चुका था। वह कुत्ता कम, भेड़िया ज्यादा नजर आता था। उसकी नजर से कोई चीज छिपी नहीं रह सकती थी। वह उसे तलाश ही लेता। जब कुत्तों के दांत निकलते हैं और जब दूध के दांत टूटते हैं, तब वे चप्पल व जूतों को कुतरने लगते है। रॉक्सी में भी यही आदत थी।
घर में माता-पिता के साथ हम दो भाई व एक बहन थे। रॉक्सी की आदत यह भी थी कि जब कोई घर से बाहर निकलता तो उसका काफी दूर तक पीछा करने का प्रयास करता। काफी भगाने के बाद ही वह वापस लौटता। मेरी बहन राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में टीचर्स की ट्रैनिंग ले रही थी। एक दिन अलसुबह मेरी बहन ने मुझे संस्थान तक छोड़ने को कहा। मैं मोटरसाइकिल से उसे छोड़ने को निकल पड़ा। घर के कामचलाऊ गेट से छिरककर रॉक्सी भी बाहर आ गया और हमारा पीछा करने लगा। मोटरसाइकिल में लगे शीशे पर मेरी नजर जब पड़ी तो मुझे इसका पता चला। मैने रुक कर उसे भगाने का प्रयास किया, वह कुछ दूर पीछे जाकर रुक गया। उस दिन वह वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहा था, क्योंकि नियति को कुछ और मंजूर था। मैने मोटरसाइकिल तेज दौड़ाई और घर से करीब दो किलोमीटर दूर स्थित संस्थान में बहन को छोड़ दिया। वापस आया तो न तो रॉक्सी मुझे सड़क पर मिला और न ही घर पहुंचा। मुश्किल से पंद्रह मिनट में ही वह गायब हो चुका था। मैने आसपास उसे काफी तलाशा, पर उसका पता नहीं चला। एक महिला ने मुझे बताया कि राजपुर रोड पर कुछ दूर मैरा पीछा करने के बाद उसके पीछे कुत्तों के समूह पड़ा और वापस लौट गया।
उस दिन ड्यूटी में मेरा मन नहीं लगा। दोपहर को काम छोड़कर मैं वापस घर की तरफ रॉक्सी को तलाशने को चल पड़ा। घर से करीब दो किलोमीटर पहले ओल्ड सर्वे रोड पर दूर से मुझे दो व्यक्ति पैदल चलते दिखाई दिए। उनके हाथ में रस्सा था। रस्से पर रॉक्सी का शव बंधा था। वे उसे घसीट कर ले जा रहे थे। मैने उन्हें रोका और कुत्ते की मौत का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि वे नगर पालिका के कर्मचारी है। यह जंगली कु्त्ता किसी बैंक के मैनेजर के घर घुस गया था। इसकी शिकायत नगर पालिका में की गई, तब जाकर काफी मुश्किल से यह कुत्ता मारा गया। कर्मचारी कुत्ते को मारने की अपनी बहादुरी बखान कर रहे थे और मेरा शरीर सुन्न होता जा रहा था। मैने अपनी एक दिन की दिहाड़ी बीस रुपये उन्हें दी और कहा कि उसे गोद में ले जाओ। इसे कहीं दफन कर देना। पैसों के लालच में वे कुत्ते को  उठाकर चलने लगे। उनसे शिकायतकर्ता का पता लेकर मैं सीधा उस घर में गया, जहां रॉक्सी को मरवाया गया था। बैंक मैनेजर का परिवार काफी सीधा लगा। उन्हें कुत्ते की प्रजाति का भी पता नहीं था। हुआ यूं कि उस दिन रॉक्सी पहली बार घर से बाहर कदम रखकर काफी दूर तक निकल गया था। जब रॉक्सी के पीछे सड़कों के कुत्ते पड़े तो वह डरकर बैंक मैनेजर के घर जान बचाने को घुस गया। वह उनके घर बेड के नीचे जा छिपा। उसे भगाने को जब डंडा दिखाया तो स्वभाव के अनुरूप वह गुर्राने लगा। ऐसे में जंगली कुत्ता समझकर उन्होंने उसे मरवा दिया। मैं बैंक मैनेजर को भी कुछ नहीं कह सका। यही मनन करता रहा कि मेरी गलती पहली थी कि कुत्ते को ज्यादा दूर पीछे क्यों आने दिया। आज यह सवाल मन में उठता है कि बैंक मैनेजर ने भी क्या गलती की थी, जो कुक्ते को जंगली समझकर उसे मरवा दिया। पूरे प्रकरण में कौन गलत और कौन सही था। घर पहुंचा तो देखा माताजी खाना बना रही है। सबकी रोटी बनाने के बाद वह रॉक्सी के आने की उम्मीद में उसके लिए मोटी-मोटी रोटियां थैप रही थी।........(जारी)
भानु बंगवाल

Monday, 25 June 2012

बचपन के दिन भुला न देना....

जिसका बचपन जहां बीतता है, व्यक्ति उस स्थान को अक्सर याद करता रहता है। बचपन के साथी भी अक्सर याद आते हैं। बड़े होने पर कई का तो यह भी नहीं पता होता कि वह कहां है। यही नहीं, व्यक्ति की तरह जानवर में भी पुरानी बातें याद रखने की प्रवृति होती है। इनमें कुत्ता ऐसा जीव है, जो कई साल तक व्यक्ति को याद रखता है। कई साल बाद सामने पड़ने पर तुरंत पहचान जाता है।
कुत्ते की आदत भी इंसान की तरह ही होती है। उसका बचपन भी शैतानी, उछलकूद से भरा होता है। वहीं बुढ़ापा भी बीमार व बूढ़े व्यक्ति की तरह ही कटता है। हालांकि कुत्ते को घर की रखवाली के लिए पाला जाता है, लेकिन सभी कुत्तों की आदत व प्रवृत्ति भिन्न होती है। बचपन से ही मुझे कुत्ता पालने का शौक था। पिताजी कुत्ता पालने के नाम पर इसलिए चिढ़ते थे कि उसकी सुबह से लेकर शाम तक कौन नियमित ड्यूटी बजाएगा। समय से खाना खिलाना, घूमाना आदि भी कोई आसान काम नहीं है। फिर भी एक कुत्ता मुझे रास्ते में मिला, उसे घर लाया, लेकिन वह कभी भौंका तक नहीं। इस पर उस कुत्ते को मैने महज एक क्रिकेट की बॉल के बदले एक व्यक्ति को दे दिया था। इसका जिक्र मैं पहले भी एक ब्लाग में कर चुका हूं। महंगा कुत्ता खऱीदने की मैरी हिम्मत नहीं थी और आवारा देसी कुत्ते मैं पालना नहीं चाहता था। ऐसे में जिसके पास भी कुत्ता देखता, उसे यही कहता एक कुत्ता मुझे भी कहीं से दिला दो।
वर्ष 1978 की बात है। देहरादून में राजपुर रोड स्थित राष्ट्रपति आशिया की देखभाल के लिए दिल्ली से राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की रोटेशन के आधार पर पोस्टिंग हुआ करती थी। इन अंगरक्षक के मुखिया को दफेदार कहते हैं। राष्ट्रपित आशिया परिसर में काफी सुंदर कुत्ते पाले हुए थे। मुझे दफेदार काफी अच्छा मानता था। मैने उससे एक कुत्ता मांगा तो उसने मना नहीं किया। भोटिया प्रजाति से कुछ छोटा, सफेद रंग व छह ईंची बाल वाला कुत्ता रस्सी से बांधकर वह मेरे घर ले आया। कुत्ते को मैने पुचकारा तो वह दुम हिलाने लगा। मैने उसे कुछएक दिन घर में बांधा। समय पर खाना खिलाया तो वह घर के सभी सदस्यों से घुलमिल गया। इस कुत्ते का नाम जैकी रखा गया। धीरे-धीरे मैने जैकी को बांधना छोड़ दिया। तब जैकी की उम्र करीब तीन साल रही होगी। उसकी शैतीनी भी अन्य कुत्तों की तरह थी, लेकिन कई बार वह गंभीर नजर आता था। हरएक के साथ वह नहीं खेलता था। कभी-कभी उसे अपना बचपन याद आता तो वह घर से गायब हो जाता। एक बार मैने उसका पीछा किया तो देखा कि वह घर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित राष्ट्रपति आशिया पहुंच गया। वहां वह कुछ घंटे या फिर एक दो दिन बिताने के बाद वापस घर लौट आता था।
जैकी की आदतें भी कुछ अजीब थी। लंबे बाल होने के कारण उसे गर्मी भी कुछ अधिक लगती थी। ऐसे में वह आलसी भी था। जब वह सो रहा होता और कोई अजनबी घर में आ जाता, तो वह एक आंख उठाकर देखता। आलस बढ़ता तो  चुपके से आंख बंद कर लेता, मानो उसने किसी को देखा ही नहीं। जब अजनबी वापस जाने लगता, तो उसे अपनी ड्यूटी याद आती। उसका स्वाभिमान जागता और वह रास्ता रोककर उस पर भौंकने लगता।
मेरी याददाश्त कहती है कि जैसी ने शायद ही किसी को काटा होगा। मां जब गाय के  लिए चारा लेने जाती, तो वह भी उसके साथ जंगल तक जाता। एक बार मां घासफूंस काटने को आगे बढ़ रही थी, तो जैसी ने उसका रास्ता रोक दिया। वह भौंकने लगा। उसके खुंखार रूप को देखकर मां भी डर गई। उसे डांटने का भी असर नहीं हो रहा था। मां आगे बढ़ी, तो देखा जिस बेल से वह पत्ते काटने आगे बढ़ी उस पर सांप लिपटा हुआ था। इस दिन से मां भी जैकी को ज्यादा ही लाड करने लगी। समय बीत रहा था। मैं बड़ा हो रहा था और जैसी बूढ़ा। उसका आत्मविश्वास जवाब देने लगा था। भागदौड़ की बजाय वह सधे कदमों से चलता। नजर कमजोर होने के कारण कई बार वह स्टूल व कुर्सी आदि से टकरा भी जाता। जब उसे खाना देते तो वह प्लेट के पास आता, उसमें झांकता और कई बार खाए बगैर ही वापस कुछ दूर जाकर बैठ जाता। कभी एकआध निवाला ही लपकता। आसपड़ोस के कुत्ते या फिर कौवे, चिड़िया उसकी प्लेट पर मुंह या चोंच मारते तो वह चुपचाप देखता रहता। खाना देखकर अक्सर वापस भागने वाला कुत्ता भी यही मैने पहली बार देखा। यही नहीं वह सप्ताह में एक दिन भूखा भी रहने लगा था। उसकी वह आदत मैं अब बच्चों या बूढ़ों में देखता हूं। बच्चे खाने में नखरे करते हैं, वहीं बढ़े थाली से एक आध कोर खाने के बाद पूरा खाना छोड़ देते हैं। बूढ़ों के मुंह में न तो स्वाद ही बचा रहता और न ही उनकी खाने की इच्छा रहती है। खाने पर जोर डालने पर वे गुस्सा होने लगते हैं। एक दिन जैकी घर से गायब हो गया। कई दिन तक वह वापस नहीं आया। मैने उसे राष्ट्रपति आशिया भी में तलाश किया, लेकिन उसका पता नहीं चला। उसके गायब होने के करीब बीस बाद एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि उसने जैकी को पास के खाले में मरा देखा। यह सुनकर मैने गेंती, फावड़ा उठाया और जैकी को समाधी देने घर से निकल पड़ा। (जारी)
भानु बंगवाल

Saturday, 23 June 2012

वाह रे सानंदः खूब कट रहा केक

वाह रे स्वामी सानंद।उत्तराखंड को आपने श़ॉप्ट केक बना िदया।जब मर्जी आई और रुख कर दिया उत्तराखंड की ओर।कभी गंगा की पवित्रता के नाम पर, तो कभी अविरलता के नाम पर बैठ गए धरने पर। पूरी जिंदगी भर गंगा की याद नहीं आई।रिटायर्डमेंट के बाद अचानक गंगा के प्रति आपका प्रेम जागा।यह प्रेम कितना सच्चा है, यह आप जाने, लेकिन यह तो सच ही है कि आपने खुद को व्यस्त रखने का एक अच्छा मनोरंजन का साधन तलाश लिया। यदि मन में कभी गंभीरता होती तो पूरे जीवन जिस कानपुर में गंगा को मैली होते देखते आए, वहां से ही गंगा की पवित्रता के लिए आंदोलन तो करते।ऐसा नहीं कर स्वामी का चोला पहनकर हर बार आप उत्तराखंड की तरफ रुख करते हो और इससे वहां का माहौल भी खराब होने लगता है।
जल विद्युत परियोजनाओं का िवरोध कर रहे स्वामी सानंद के खिलाफ आखिरकार 22 मई को श्रीनगर में परियोजना समर्थकों का गुस्सा फूट ही गया।विरोध को देखते हुए उन्हें पुलिस ने उत्तराखंड की सीमा से बाहर कर दिया।इस बीच रास्ते में कई बार उन्हें रोकने व उन पर स्याही डालने के प्रयास भी हुए।यही नहीं उनके साथी भारत झुनझुनवाला के घर में भी परियोजना समर्थक धमक गए।उनके चेहरे में स्याही तक लगा दी गई।यह घटना स्वामी सानंद के लिए नई नहीं है।मई 2009 में स्वामी सानंद (तब प्रोफेसर जीडी अग्रवाल) ने उत्तरकाशी में लोहारीनागपाला, पाला मनेरी व प्रस्तावित भैरव घाटी परियोजना के खिलाफ धरना दिया था।इनमें दो योजनाओँ पर काफी काम भी हो चुका था।वहां भी श्रीनगर की तरह उत्तरकाशी की जनता का विरोध उन्हें झेलना पड़ा और जान बचाकर भागना पड़ा।आखिरकार तीनों परियोजनाएं बंद कर दी गई।क्षेत्र के लोग जमीन से भी गए और परियोजना पर स्थानीय युवकों की नौकरी पाने की उम्मीद भी धराशायी हो गई।
उत्तराखंड के संबंध में स्पष्ट है कि यहां गंगा मैली नहीं हो रही है और न ही छोटे प्रोजेक्ट से गंगा की अविरलता को कोई खतरा है।यहां के 63 फीसदी जंगल, जल व जमीन देश व दुनियां को प्राणवायु दे रहे हैं।हरिद्वार के बाद ही गंगा नाले के पानी के रूप में तब्दील हो रही है।गंगासागर तक कमोवेश यही स्थिति है।जिस कानपुर में जीवन भर प्रो. जीडी अग्रवाल रहे, वहां तो गंगा की हालत काफी खराब है।इसके बावजूद गंगा की स्वच्छता की उन्हें अब जब भी याद आती है, तो वह उत्तराखंड की धरती पर धमक जाते हैं।गंगा आंदोलन चलाने वाले स्वामी सानंद के आंदोलन का केंद्र बिंदु दिल्ली न होकर उत्तराखंड ही रहता है, जबकि सत्ता का केंद्र बिंदु दिल्ली है। वहीं से गंगा को लेकर निर्णय़ होना है, लेिकन ऐसा न कर वह उत्तराखंड के लोगों की जनभावनाओं को बार-बार चुनौती देने पहुंच जाते है।वो भी ऐसे स्थान पर जहां से गंगा पतित नहीं होती।यानी सारा जनपद झुलस रहा है और राजधानियां ठंडी हैं।
 श्रीनगर में स्वामी सानंद के साथ जनता का व्यवहार गलत रहा या ठीक।यह अलग बहस का मुद्दा है।हो सकता है कि स्वामी सानंद अपनी जगह ठीक हों और वह गंगा की पवित्रता के लिए सच्चे मन से आंदोलन कर रहे हों।इसके बावजूद यह भी है कि जब गंगा के मुद्दे पर दिल्ली से ही निर्णय होना है, तो वहीं क्यों नहीं आंदोलन किया जाता।फिर आंदोलन तब ही क्यों किया जाता है, जब परियोजना केै नाम पर जंगल कट जाते हैं और आधे से ज्यादा काम हो चुका होता है।कई लोग अपनी जमीन तक परियोजना के नाम पर भेंट चढ़ा देते हैं।इससे पहले परियोजना की शुरूआत में पर्यावरण प्रेमी क्यों चुप रहते हैं और आधा काम होने का इंतजार क्यों करते हैं।गंगा की निर्मलता व अविरलता की बात करें तो सबसे बड़ा खतरा टिहरी बांध से था।जब उसका निर्माण हो रहा था तब स्वामी सानंद जैसे लोग कहां थे।सच तो यह है कि उत्तराखंड को स्वामी सानंद ने शॉफ्ट केक बना दिया।रिटायरमेंट के बाद से उनका जब मन आता है वह चर्चाओं में रहने के लिए उत्तराखंड धमक जाते हैं और धरने रूपी केक को काटकर अपना जन्मदिन मनाते हैं।
भानु बंगवाल  

Friday, 22 June 2012

पहले छिपाते थे, अब बताते हैं...

सुबह जैसे ही समाचार पत्र पढ़ने लगा। एक समाचार पर मेरी निगाह पड़ी कि पहली टेस्ट ट्यूब बेबी की मां लेस्ली ब्राउन का ब्रिटेन में निधन हो गया। इस समाचार ने मुझे करीब दस साल पुरानी बात याद दिला दी। ब्राउन ने 1978 में टेस्ट ट्यूब बेबी को जन्म दिया था, लेकिन मेरे शहर देहरादून में वर्ष 2001 में जून माह में पहला टेस्ट ट्यूब बेबी जन्मा था। देहरादून की राजपुर रोड स्थित सेनी आइवीएफ एंड फर्टीलिटी रिसर्च सेंटर में इस बच्चे ने 12 जून 2001 को जन्म लिया था। इसके बाद एक साल के भीतर इसी सेंटर में दस ऐसे दस बच्चों ने जन्म लिया। दावा किया गया कि उक्त टेस्ट ट्यूब बेबी उत्तराखंड का पहला है। इस पहले टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में समाचार पत्रों में खूब लिखा गया, लेकिन बच्चे के माता-पिता की पहचान गायब रखी गई। इसका कारण यह था कि टेस्ट ट्यूब बेबी के माता-पिता खुद को टेस्ट ट्यूब बेबी के माता-पिता कहलाने से शर्म महसूस कर रहे थे।
पहला टेस्ट ट्यूब बेबी बालक था। बच्चा जब एक साल का होने को था, तब मुझे उस पर स्टोरी करने को कहा गया। स्टोरी बच्चे के जन्मदिन वाले दिन प्रकाशित होनी थी। जन्मदिन से कुछ दिन पहले तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं रिसर्च सेंटर पहुंचा। वहां बच्चे के माता-पिता पहले से मौजूद थे। वे मेरे सामने नहीं आए। सेंटर के एक कमरे में उन्हें बैठा दिया गया। बीच में पर्दा लगा दिया गया। मुझे पर्दे के पीछे बैठे दंपती से बात करनी थी। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि बात कहां से शुरू की जाए। क्या पूछूं और स्टोरी का एंगिल क्या रहेगा। सबसे पहले मैने बातचीत शुरू करते हुए कहा नमस्कार- आपको मेरी बात समझ आ रही है। पर्दे के भीतर से भी हां में जवाब आया। आवाज सुनकर मैने अंदाजा लगाया कि बच्चे की माता ने जवाब दिया। जो शायद किसी देहात की रहने वाली लग रही थी। मैने कहा कि आपका बेटा एक साल का होने को है, इसके बारे में कुछ बताओ। जवाब आया आप जो पूछोगे, मैं बता दूंगी। मेरे समझ मैं नहीं आया कि क्यू पूंछूं। मैने कहा कि इस बच्चे का व्यवहार अन्य बच्चों से क्या भिन्न है। इस पर जवाब आया कि जैसे अन्य बच्चे होते हैं, ऐसा ही यह है। मैने खाने के बारे में पूछा, तो बताया बया जो सब बच्चे खाते हैं, वही इसे भी खिलाया जाता है।
मैं अंधेरे में तीर मार रहा था और न्यूज एंगिल नहीं मिल रहा था। तभी मुझे याद आया कि मेरा बड़ा बेटा जब छह माह का था, तो हम पत्नी के मौसा के घर गए। बच्चा घुटनों चलता था। मौसा ने हमसे कहा कि इसे फर्श में छोड़ दो। घुटनों चलने वाले बच्चे उन्हें काफी अच्छे लगते हैं। यह याद आते ही मैने बेबी के माता-पिता से सवाल किया कि जब बच्चा घुटनों चला तो कैसा लगा। महिला का जवाब आया कि यह घुटनो नहीं चला। मैने पूछा फिर कैसे चला। उसने बताया कि यह बिस्तर में ही लोटपोट करता था। ग्याहरवें महीने का जब हुआ तो सीधा खड़ा हुआ और चलने लगा। बस यहीं से मुझे न्यूज एंगिल मिला और मैने समाचार लिखा कि-घुटनों नहीं चला पहला टेस्ट ट्यूब बेबी।
जहां ब्राउन ने अपनी पहचान नहीं छिपाई, वहीं हमारे देश में विदेश से कई साल बाद टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म होने पर माता-पिता पहचान छिपाते रहे। फिर धीरे-धीरे यह बात आम होने लगी। बच्चे के माता-पिता का पर्दे से पीछे से इंटरव्यू लेने की घटना के कुछ साल बाद एक ही दिन करीब तीन लोग टेस्ट ट्यूब बेबी के पिता बने। इनमें से दो को मैं पहचानता था। एक देहरादून में जाने माने इंस्टीट्यूट का स्वामी था और दूसरा एक नेता। दोनो ने ही मुझे फोने से टेस्ट ट्यूब बेबी का पिता बनने की जानकारी दी और अनुरोध किया कि यह समाचार प्रकाशित किया जाए। सचमुच समय के साथ व्यक्ति की सोच में कितना परिवर्तन आ जाता है। पहले संकोचवश जिस बात को छिपाया जाता था। अब उसी को फोन से बताया   जाता है।
भानु बंगवाल         

Sunday, 17 June 2012

पिताजी तुम संकट में याद आते हो

कवि मैथली शरण गुप्त की कविता-नर हो ना निराश करो मन को, मैने बचपन में पिताजी से सुना, जो बाद में मैने शायद चौथी जमात में पढ़ी। इस कविता का मतलब पिताजी मुझे किसी अच्छे काम के लिए प्रेरित करने के लिए समझाते थे। साथ ही इसकी एक लाइन-निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे, को फोर्स से समझाते हुए मेरा स्वाभिमान जगाने व हिम्मत बढ़ाने का प्रयास करते थे। तब बचपन में कई बार मुझे पिताजी के उपदेश अच्छे नहीं लगते थे। आज उनकी समझाई गई बातों को मैं अक्सर दोहराता हूं। अपने बच्चों को भी समझाने का प्रयास करता हूं।
टिहरी जनपद के डांगचौरा के निकट गुरछौली गांव को महज 14 साल की उम्र में मेरे पिताजी ने टाटा कर दिया था। घर छोड़कर वह देहरादून आ गए। अपने साथ जो रकम व चांदी आदी की धगुली व अन्य जेवर वह लेकर आए कुछ दिन उसके बल पर अपना खर्च चलाते रहे। साथ ही जारी की नौकरी की तलाश। मेरे दादाजी तब ही दुनियां छोड़ चुके थे, जब पिताजी महज ढाई साल के थे और मेरे चाचाजी दादी के पेट में थे। परिवार में वही बड़े थे, उनकी कोई बहन भी नहीं थी। देहरादून आने पर उन्होंने जिल्दसाजी, फोटो फ्रेम बनाना आदि के काम सीखे और धामावाला में दुकान खोल दी। मुंहफट, स्वाभिमानी, सहृदय, गलत बात पर दूसरों से भिड़ने की प्रवृति ने उनकी आसपास के परिवेश में अलग ही पहचान बना दी। उनका नाम कुलानंद था, लेकिन लोग उन्हें पंडित जी के नाम से पुकारने लगे। जब बह छोटे थे, तब स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था। पिताजी भी जुलूस व अन्य विरोध प्रदर्शन में शामिल होते, गिरफ्तार होते, लेकिन जेलर उन्हें जेल में बंद नहीं करता। वह पिताजी को पहचानता था, वह कहता अरे पंडित तुम कहां फंस गए। भाग जाओ दोबारा जुलूस में नजर मत आना। तब पिताजी भी खुश होते कि जेल जाने से बच गए। ठीक उसी तरह जिस तरह उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कई सक्रिय आंदोलनकारी पुलिस की पकड़ से बाहर रहे और राज्य बनने के बाद उनका नाम किसी आंदोलनकारी की सूची में नहीं है। ठीक इसी तरह पिताजी ने भी शायद यह नहीं सोचा कि जो लोग जेल में बंद हो रहे हैं, बाद में वे सरकारी सुविधा के पात्र बनेंगे। देश आजाद हुआ। जेल जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सैनानी कहलाए, लेकिन मेरे पिताजी को इसका कभी मलाल नहीं हुआ कि आंदोलन के नाम पर वह किसी सहायता के पात्र बनते।
राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान में वह सरकारी नौकरी लग गए और दुकान आठ सौ रुपये में बेच दी। पंडितजी के नाम से लोगों में पहचान बनाने वाले पिताजी को पूजा-पाठ करते मैं कभी कभार ही देखता था। वह तो कर्म को ही भगवान मानते थे। उनका सीधा मत था कि गलत काम को करो मत और किसी से दबो मत। समाचार पत्र को पढ़ने  के बाद छितरा कर रखने से पिताजी को नफरत थी।वह उसकी तह लगाकर रखते थे।रास्ते में यदि पत्थर या ईंट पड़ी हो तो उसे उठाकर किनारे कर देते। साथ ही बाहर से कड़क व गुसैल नजर आने वाले वह भीतर से काफी नरम थे।झूठ व फरेब से उन्हें सख्त नफरत थी।वह कहते थे कि गलती को छिपाओ मत, बल्कि उसे बताकर सुधारने का प्रयास करो। घर में पिताजी ने हर सामान को रखने की जगह फिक्स की हुई थी। यदि जगह पर वस्तु नहीं मिलती तो हम भाई बहनों को उनकी डांट सुननी पड़ती। आज देखता हूं कि उनका यह फार्मूला हरदिन कितना काम आता है। अचानक बिजली जाने पर अंधेऱे में भी टार्च हाथ में लग जाती है। समय से हर काम करने, अनुशासन में रहने की वह हमेशा सीख देते थे। वह हर छुट्टी के दिन किसी न किसी परिचित के घर जरूर जाते थे। छोटे में उनके साथ मैं भी जाता रहा। बाद में मैने बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि नाते व रिश्तेदारों में नई पीढ़ी अब हमे पहचानती नहीं। अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने के बावजूद वह अतिथि सत्कार में भी कोई कमी नहीं रखते। संस्थान में रहने वाले दृष्टिहीन व्यक्तियों को पंडितजी पर काफी विश्वास रहता था। वे उनकी सलाह भी मानते थे, साथ ही यदि उन्हें कोई खरीददारी करनी होती तो पंडितजी से ही कहते। ऐसे में वह भी दृष्टिहीन का हाथ पकड़कर उन्हें बाजार ले जाते और जरूरत का सामान खरीदवाते।
आज पिताजी को इस दुनियां से विदा हुए करीब 12 साल हो गए। इन बारह सालों में मैं जब भी कभी खुद कमजोर महसूस करता हूं, तो उनकी आदतों व बातो को याद करता हूं। संकट की घड़ी में मुझे अक्सर पिताजी के मुख से सुनी यही कविता याद आती है कि-नर हो ना निराश करो मन को.....
भानु बंगवाल

Friday, 15 June 2012

बेटे की मौतः मीट भात खाऊंगा (फादर्स डे पर सच्ची घटना पर आधारित)

सुबह करीब सात बजे का समय। मोहल्ले के सार्वजनिक नल पर पानी भरने को  करीब तीस लोगों की भीड़ थी। नल से पानी भी पतली धार के रूप में टपक रहा था। सुबह-सुबह ही मोहल्ले में रामू की आपसी गोलीबारी में मौत की खबर पहुंची थी। ऐसे में नल के आसपास के माहौल में सन्नाटा पसरा हुआ था। आपस में लोग रामू की मौत के बारे में कानाफूसी के रूप में चर्चा कर रहे थे। तभी एकाएक रामू के पिता शोभराज पर सभी की नजर पड़ी। वह भी बाल्टी लेकर नल पर पानी भरने पहुंचे थे। शोभराज को देखते ही सभी चुप हो गए। इस सन्नाटे को शोभराज ने ही तोड़ा। वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा-आखिर मर ही गया। मेरी औलाद थी, पर समझाने के बाद भी नाक में दम कर रखा था। शहर का बदमाश था। मैं कहता था कि बदमाशी छोड़ दे, पर मानता नहीं था। अब मार दिया ना बदमाशों ने। कर्म ऐसे थे, कि उसे मरना ही था। यदि बदमाश नहीं मारते तो पुलिस की गोली से मरता। अब मैं काफी खुश हूं। मिल गया ऐसी औलाद से छुटकारा। आज शाम को मैं मीट भात पकाकर खाऊंगा।
वर्ष 1974 के आसपास की बात थी। उन दिनों दून में बदमाशों के दो गैंग के बीच गैंगवार छिड़ी थी। गिरोह के सदस्य भले ही आपस में कितने दुश्मन हों, लेकिन अपने मोहल्ले में उनका व्यवहार सभी से काफी अच्छा रहता था। ऐसे ही एक गिरोह का सक्रिय सदस्य शोभराज का बेटा रामू था। देहरादून की राजपुर रोड से सटे मोहल्ले में शोभराज रहता था। वह एक सरकारी महकमें में कुक था। तीन बेटियों में रामू उसका एकलौता बेटा था। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही रामू व उसके साथियों का दूसरे गुट के छात्रों के साथ अक्सर झगड़ा हो जाता था। विवाद बढ़ता गया और दो गुट के दो गिरोह बन गए। पहले रामू खुखरी लेकर चलता था, बाद में रिवाल्वर व अन्य हथियार उसके खिलौने हो गए। दोनों गिरोह एक दूसरे के जानी दुश्मन हो गए।
उन दिनों बदमाश दो चीजों से डरते थे। एक खाकी वर्दी और दूसरे उनके दुश्मन। पुलिस व दुश्मन की नजर से बचने के लिए वह हमेशा सतर्क रहते। शोभराज ने बेटे को समझाया कि बदमाशी छोड़ दे। पर कोई फायदा नहीं हुआ। नतीजन शहर में कोई भी घटना होती, तो उसमें रामू का नाम भी जुड़ जाता। ऐसे में पुलिस शोभराज के घर धमक जाती। हालांकि रामू व गिरोह के अन्य सदस्य चोरी, डकैती आदि नहीं करते थे। वे नेताओं व कुछ सेठों के इशारे पर ही दबाव बनाने का काम करते थे। कहीं किसी को ठेका दिलाना हो, या फिर किसी के पैसों को वसूलना हो, ऐसे कामों के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता था।
रामू को पकड़ने जब भी पुलिस मोहल्ले में आती तो रामू अपने साथियों सहित आसपास के किसी खंडहर या जंगल में छिप जाता। पुलिस से ज्यादा सक्रिय रामू का सूचना तंत्र था। मोहल्ले के बच्चे-बच्चे रामू को बता देते ही फलां स्थान पर  पुलिस नजर आई। पुलिस मोहल्ले में रामू के संभावित ठिकानों को तलाशती और अधिकतर खाली हाथ लौटने लगती। ऐसे में कई मर्तबा शोभराज ने ही रामू के ठिकानों का पता पुलिस को बताया और उसे पकड़वा दिया। शोभराज ने जब देखा कि रामू समझाने पर भी नहीं समझ रहा है। तब उसने सोचा कि रामू की शादी कर दी जाए। हो सकता है परिवार की जिम्मेदारी सिर पर आते ही वह सुधर जाएगा। शादी हुई, एक बेटे व तीन बेटियों का बाप बना, लेकिन रामू की आदत नहीं बदली। या तो वह रात को मोहल्ले में किसी ऐसे व्यक्ति के यहां सोता, जहां पुलिस को शक न हो, या फिर उसकी रात व दिन जेल में कटते। या यूं कहें कि जेल में आना जाना उसका लगा रहता था।
रामू की मौत का समाचार जब मोहल्ले में मिला, तो पुलिस ने यही बताया कि हरिद्वार में आपसी संघर्ष में वह मारा गया। रामू की मां, बहने, पत्नी आदि का रो-रोकर बुरा हाल था। वहीं, शोभराज सभी को खुश नजर आ रहा था। पिताजी का हाथ पकड़कर मैं शाम के समय शोभराज के घर पहुंचा। पिताजी ने शोभराज को सांत्वना दी। सुबह जो शोभराज पत्थर दिल बाप के रूप में कठोर नजर आ रहा था, शाम के समय तक वह टूट चुका था। मीट भात खाने की बात करने वाले शोभराज के घर चूल्हा तक नहीं जला। छोटे बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे। शोभराज कमरे के कोने में चुपचाप बैठा था। वह कुछ बोल नहीं रहा था। उसकी आंखों से अश्रु धारा लगातार निकल रही थी।
उन दिनों टेलीफोन दूर की कौड़ी थी। लोग किसी से संपर्क या तो चिट्ठी पत्री से करते थे, या फिर व्यक्तिगत रूप एक-दूसरे के पास जाकर। करीब तीन दिन बाद अचानक रामू मोहल्ले में नजर आया। उसे तो लोग मरा समझ रहे थे। तब रामू ने बताया कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस ने चाल चली थी। चाल यह थी कि मरने की सूचना पर कोई उससे संपर्क करेगा और पुलिस उसे पकड़ लेगी। एक रात शोभराज रामू के बेटे के साथ घर में बिस्तर पर लेटा था। तभी दो नकाबपोश घर में घुसे और बिस्तर पर लेटे शोभराज को रामू समझकर फायर कर भाग गए। गोली शोभराज के पेट में लगी। करीब बीस दिन तक वह अस्पताल में रहा और उसने दम तोड़ दिया। बेटे की करनी का फल भुगतते-भुगतते आखरी सांस तक शोभराज बेटे को यही समझाता रहा कि बदमाशी छोड़ दे। समय तेजी से बदला। शोभराज की जगह रामू की पत्नी को सरकारी नौकरी मिल गई। गिरोह के सदस्य या तो आपसी गोलीबारी में मारे गए, या कई बीमारी से चल बसे। बाप के जीते जी रामू ने उसका कहना नहीं माना, लेकिन पिता के मरने के बाद उसके जीवन में बदलाव आ गया। रामू ने बदमाशी से तौबा कर ली। उसका बेटा व बेटियों का अपना-अपना घर बस गया। अब वह भी बच्चों को यही उपदेश देता है कि कभी बदमाशी मत करना। उसका पश्चाताप ही उसके पिता की आत्मा को सच्ची श्रद्धांजलि है।
भानु बंगवाल

Tuesday, 12 June 2012

ये मुंबइया बहुत बोलता है...

इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हरएक घड़ी देखकर काम कर रहा है। सुबह उठने से लेकर चाय-नाश्ता, नहाने, समाचार पत्र पढ़ने, दफ्तर जाने आदि सभी का करीब टाइम फिक्स रहता है। अमूमन अंदाज से तय समय के अनुरूप ही हमारे काम निपटते हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं, जिसमें हमारा टाइम मैनेजमेंट पूरी तरह से फेल हो जाता है। हमें पता ही नही होता है कि उसमें कितना वक्त लग जाएगा। ऐसे कामों में बिजली, पानी के बिल जमा करना, रेलवे आरक्षण  कराना, चिकित्सक के पास जाना आदि शामिल हैं। ऐसे कामों में यह पता नहीं होता है कि पहले से वहां कितनी भीड़ हो सकती है। इन सबसे अलग करीब एक माह में एक बार एक काम ऐसा आता है, जहां भी काफी इंतजार के बाद नंबर आता है। वह है नाई की दुकान में जाकर बाल कटवाना।
कहते हैं कि पहनावे, बालों की स्टाइल आदि से व्यक्ति की स्मार्टनेस झलकती है। बाल यदि सही तरह के बने हों तो व्यक्ति का चेहरा-मोहरा भी बदला नजर आता है। ऐसे में व्यक्ति को अच्छे नाई की तलाश रहती है। बचपन से ही मुझे नाई की दुकान में जाने से खीज उठती रही। कारण है कि एक तो बाल कटवाने में काफी देर लगती है, दूसरे अक्सर नाई इतना बोलते हैं कि कई बार उन्हें सुनना भी बर्दाश्त से बाहर हो जाता है। शहर के हर छोटे बड़े व्यक्ति की जन्मपत्री उनके पास रहती है। सभी तरह के लोग उनकी दुकान में आते हैं। ऐसे में उनका सामाजिक ज्ञान कुछ ज्यादा ही होता है। डॉक्टर हो या वकील, दरोगा हो या सिपाही सभी उनकी दुकान में आते हैं। साथ ही वह कई बार तो अपनी पहचान का फायदा भी उठाने से नहीं चूकते।
कई बार बालों की कटिंग से संतुष्टि नहीं मिलने पर मैने नाई की दुकान बदली। पहली बार जिस भी दुकान में बाल कटाने गया, वहां नाई ने पहला सवाल यही किया कि पहले कहां से बाल कटाते रहे। सारे बाल खराब कर दिए हैं। अब मैं उन्हें ढर्रे पर लाऊंगा। आगे से यही बाल कटवाया करो। बाल काटने के साथ ही मजबूरन मुझे उसकी तारीफ भी सुननी पड़ती है। पहली बार तो अमूमन सभी हेयर ड्रेसर काफी तल्लीनता से बार काटते हैं, फिर आगे वे चलताऊ काम करने लगते हैं। ऐसे में मुझे कोई ऐसा हेयर ड्रेसर नहीं मिला, जो हर बार नए अंदाज व उत्साह के साथ बाल काटे।
मेरे एक मित्र ने बताया कि देहरादून की रायपुर रोड पर भट्टे के निकट एक हेयर ड्रेसर काफी अच्छे बाल काटता है। उसकी बताई दुकान पर मैं भी गया। उससे परिचय मित्र ने पहले ही करा दिया था। जब मैं दुकान में गया तो वहां कुर्सी पर बैठे एक ग्राहक को निपटा कर उसने मेरा ही नंबर लगाया। पहले से बैठे अन्य को उसने कहा कि मेरे बाद ही वह उनके बाल काटेगा। मैं खुश था। इस दुकान में बाल काटने वाला युवक मुंबइया के नाम से प्रचलित है। युवक ने मेरे बालों में क्लिप लगा दी। बालों को बार-बार नाप रहा था और काट छांट रहा था। खामोशी से अपने काम को अंजाम दे रहा यह युवक मुझे पहली ही बार प्रभावित कर गया। आधे बाल कटे तो मैने उससे पूछा कि तूझे मुंबइया क्यों कहते हैं। यहीं मै गलती कर गया। बस उसकी जुबां खुली और लपलपाने लगी। उसने बताया कि वह मुंबई में भी काम कर चुका है। फिर उसने यह भी बताया कि मेरे बाल वह ऐसे कर देगा कि हर कोई पूछेगा कि कहां बाल कटवाता हूं। नानस्टाप बोलने वाले इस युवक के बोलते समय कई बार हाथ भी चलने भी बंद होने लगते। ऐसे में बाल कटने में करीब सवा घंटा बीत गया।
बाल अच्छे कटे और मैं नियमित रूप से मुंबइया से ही बाल कटवाने लगा। कटिंग के पैसे भी वह मामूली वसूलता था। वाकई में उसने आड़े-तिरछे खड़े वालों को तीन-चार माह में ही ढर्रे पर ला दिया। उसकी दुकान में मेरे साथ दोनों बेटे भी बाल कटवाने जाते।  मुंबइया इतना बोलता था कि उसकी दुकान में जाने से मुझे झीज चढ़ने लगी। साथ ही वह काफी आलसी था। छुट्टी के दिन जब सुबह मैं उसकी दुकान पर पहुंचता, तो वहां ताला लगा होता। बगल में घर से उसे मैं उठाता। तब दुकान का शटर खोलकर वह सफाई का उपक्रम करता। मैं बच्चों से कहता कि बोलना मत, नहीं तो यह रामायण, पुराण व महाभारत सभी कुछ एक साथ शुरू कर देगा। फिर भी हमसे गलती हो ही जाती और वह टेपरिकार्डर की तरह अपनी कहानी सुनाने लगता। साथ ही बार-बार कहता कि मैने ऐसे बाल काट दिए हैं कि लोग पूछेंगे कि कहां से कटवाए। आज तक मुझसे ऐसा किसी ने नहीं पूछा, लेकिन उसका मानना था कि ऐसा लोग पूछते हैं।
एक दिन मुंबइया मेरे बाल काट रहा था और मेरा छोटा बेटा कुर्सी को घुमाकर खेल रहा था। उसने कुर्सी दुकान के बीचोंबीच रख दी। फिर कहने लगा अब आसानी से घुमाओ। तभी बड़े बेटे से कहा कि गाने सुनने हैं। उसने हां कह दिया। फिर वह मेरे बाल काटने छोड़कर भीतर अपने घर में चला गया। वहां से डेक को ऑन किया। गाना चला और बंद हो गया। फिर पेंचकस लेकर वह डेक ठीक करने लगा। घड़ी तेजी से घूम रही थी, लेकिन मुंबइया हमें खुश करने के लिए डेक का पोस्टमार्टम कर रहा था। इस काम में उसे बीस मिनट लग गए। तीन जनों के बाल काटने में उसने तीन घंटे से अधिक समय लगा दिया। मैं उसे जल्दी-जल्दी बाल काटने को कहता, लेकिन वह किसी की सुनता ही न था। ऐसे में मेरे साथ ही बच्चों ने भी मुंबइया से बाल कटवाने से तौबा कर ली। मुंबइया की दुकान हमारे घर से करीब ढाई किलोमीटर दूरी पर है, वहीं हमारे घर से डेढ़ सौ मीटर की दूसरी पर हेयर ड्रेसर की दुकान है। अब हम घर के ही पास बाल कटवाते हैं। बच्चों से जब भी मैं मुंबइया से बाल कटवाने को कहता हूं, तो वे यही कहते हैं कि- मुंबइया बहुत बोलता है और समय ज्यादा लगता है। पर सच यह भी है कि मुंबइया के हाथ में जो हुनर है, वह मुझे बड़ी से बड़ी नामी दुकानों के कारीगर में नजर नहीं आया।
भानु बंगवाल           

Sunday, 10 June 2012

पकड़ाना आसान, सजा दिलाना, ना बाबा ना...

शादी में जाने के लिए पहले कभी सूटकोट पहनने का क्रेज था। कुर्ता, पायजामा पहनने में तो तौहीन समझी जाती थी, लेकिन इन दिनों शादी के मौके पर लंबे डिजाइनर कुर्ते व पायजामे पहनने का फैशन सा चल गया है। दूल्हा भी सूटकोट की बजाय कुर्ता व पायजामा पहनता है, वहीं बारातियों के साथ ही शादी में आने वाले मेहमान भी डिजाइनर कुर्ते पहने होते हैं। इन डिजाइनर कुर्तों के साथ पायजामे में जेब तक नहीं होती। ऐसे में पहनने वाले को कुर्ते की जेब पर ही अपना पर्स व पैसे आदि रखने पड़ते हैं। ढीले-ढाले कुर्ते की जेब कब कट जाए, इसका भी पता नहीं चलता है। यह भी सच है कि आजकल शादियों में अक्सर लोगों की जेब कट जाती है। क्योंकि जेबकतरों के लिए कुर्ते में रखा पर्स उड़ाना आसान होता है।
बात करीब पांच साल पुरानी है। देहरादून में मैं पत्नी व बच्चों के साथ किसी विवाह समारोह में गया था। शादी में शामिल होने के लिए मेरी बड़ी बहन का परिवार भी दिल्ली से आया हुआ था। शादी में शामिल होने से पहले मेरे भांजे ने एक शोरूम से एक डिजाइनर कुर्ता खरीदा। मेरे जीजा भी अक्सर शादियों में सूट की बजाय कुर्ता ही पहनते हैं। शादी में जब हम पहुंचे तो वहां कुर्ते में कई युवा व बड़ी उम्र के लोग दिखाई दिए। लड़की की शादी में हम आमंत्रित थे।
वेडिंग प्वाइंट के गेट पर बारात जब आई, तो उस समय भीड़ का फायदा उठाकर छोटी उम्र के जेबकतरों का गिरोह भी सक्रिय हो गया। कुर्ते पहने मेहमान ही उनके निशाना बनते गए और किसी को इसका आभास तक नहीं हुआ। इसी बीच एक व्यक्ति को अपनी जेब कटने का एहसास हुआ। उसने जेब काटने वाले एक करीब 16 साल के किशोर को पकड़ लिया। किशोर की जेब से कुछ लोगों की जेब से साफ की गई रकम भी मिल गई। भीड़ उस पर अपने हाथ आजमाने लगी। किशोर के अन्य साथी भाग गए। कई लोगों की रकम भी वे साथ ही ले गए।
ऐसे मौकों पर कई बार जेबकतरों के साथी भी भीड़ में शामिल होकर उनकी पिटाई करने का उपक्रम करते हैं और मौका देखकर उसे भगा देते हैं। ऐसे में मुझे बीच में पड़ना पड़ा और मैने सभी को किशोर की पिटाई करने से मना किया। साथ ही उसे एक कुर्सी पर बैठा दिया और कोतवाली में फोन किया। मेरे जीजा व भांजे की जेब भी कट चुकी थी। जीजा के करीब तीन हजार रुपये गायब थे और भांजे का पर्स। पर्स में ज्यादा रकम नहीं थी, लेकिन एटीएम कार्ड, बीजा कार्ड, क्रेडिट कार्ड, परिचय पत्र आदि उसके पर्स में थे। पर्स किशोर के पास से बरामद हो गया और नकदी छोड़कर अन्य सारी वस्तुएं उसमें मिल गई। काफी देर के बाद पुलिस आई और किशोर को पकड़कर साथ ले गई। पुलिस ने पूछा कि कोई रिपोर्ट करना चाहता है, ऐसे में मेरे जीजा ने कहा कि वह रिपोर्ट लिखाएंगे। क्योंकि उनकी रकम मिली नहीं थी, ऐसे में उनके मन में जेबकतरे को सजा दिलाने का निश्चय करना स्वाभाविक ही था।
विवाह समारोह स्थल पर मेहमान पकवानों का मजा ले रहे थे, वहीं मेरे जीजा कोतवाली में बैठकर रिपोर्ट लिखा रहे थे। उनके साथ मेरा भी शादी का मजा किरकिरा हो गया था। रिपोर्ट लिखाकर जब वैडिंग प्वाइंट में हम वापस पहुंचे, तब तक खाना भी निपट चुका था। मैं बच्चों के साथ घर लौट आया। जीजा भी दो-तीन दिन देहरादून रहकर दिल्ली लौट गए। उनकी जेब से उड़ी रकम बरामद नहीं हो सकी। इस घटना के करीब डेढ़ साल बाद न्यायालय से मुझे देहरादून में और जीजा व भांजे को दिल्ली में सम्मन पहुंचे। रिपोर्ट में सभी के नाम का जिक्र था। ऐसे में सभी की गवाही जरूरी थी। देहरादून में रहने के कारण मैं तो कोर्ट में उपस्थित हो गया, लेकिन जीजा व भांजे के लिए यह एक सजा के ही समान था। जीजा निर्धारित तिथि पर देहरादून पहुंचे, लेकिन उस दिन वकीलों की हड़ताल थी। ऐसे में डेट आगे सरक गई। अगली डेट में आरोपी के वकील ने जानबूझकर कोई बहाना बना दिया और फिर दूसरी डेट ले ली। अब बार-बार डेट आगे सरकती और गवाही नहीं हो पाती। ऐसे में जीजा भी परेशान हो गए। जेब कटने पर उन्होंने जितनी रकम गंवाई, उससे कई ज्यादा दिल्ली-देहरादून के चक्कर में खर्च हो गए। ऐसे में वह आरोपी के वकील के मुताबिक ही बयान देने को तैयार हो गए। तब आरोपी के वकील ने भी झट से कोर्ट पहुंचकर मामला निपटा दिया। बाद में संदेह के आधार पर किशोर बरी हो गया। यह सच है कि  न्यायालयों में लेटलतीफी से उकताकर ही लोग कानूनी पचड़े में फंसने से तौबा करते हैं। ऐसे झंझट में फंसे लोग यही कहते हैं कि किसी अपराधी को पकड़ना आसान है, लेकिन सजा दिलाना, ना बाबा ना......
भानु बंगवाल
      

Friday, 8 June 2012

रोमांच बढ़ता गया और बच्चे रोते गए

उत्साह, उमंग और रोमांच। सभी कुछ है इस फुटबाल के खेल में।मैदान में जूझते खिलाड़ियों में उत्साह, दर्शकों में उमंग और रोमांच के बीच पवेलियन मैदान में चारों तरफ उठने वाला शोर।इसे देखकर शायद हर कोई रोमांचित हो जाए, लेकिन एक समय मेरे जीवन में ऐसा भी आया, जब इस शोर को सुनकर, उत्साह को देखकर मैं डर गया।या यूं कहें कि मेरी तरह अन्य कई बच्चे भी डर गए थे।
दुनियां में सबसे लोकप्रिय खेल समझे जाने वाला खेल फुटबाल यूरो कप के कारण इन दिनों फिर से लोगों में उत्साह लेकर आया है। फुटबाल के दीवाने शाम को टेलीविजन ऑन कर इसका लुत्फ उठा रहे हैं। हर कोई फुटबाल का दीवाना बना हुआ है।कभी मेरे शहर देहरादून की पहचान भी फुटबाल से भी थी।यहां भी बड़े टूर्नामेंट का आयोजन किया जाता था। बात करीब वर्ष 1974 की है। तब मैं आठ साल का था।उन दिनों देहरादून के पवेलियन मैदान में राष्ट्रीय स्तर के फुटबाल मैच होते थे।तब मोहन बगान कलकत्ता, जेसीटी फगवाड़ा, गोरखा ब्रिगेड देहरादून आदि के साथ ही कई नामी टीमें टूर्नामेंट में भाग लेती थी। उन दिनों  देहरादून के लोगों में फुटबाल का रोमांच देखते ही बनता था।
मेरी उम्र के छोटे बच्चों ने सलाह बनाई कि पवेलियन मैदान में पहुंचकर फुटबाल मैच को देखा जाए।तब मेरा घर देहरादून की राजपुर रोड स्थित राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर में था।वहां से पवेलियन मैदान की दूरी करीब चार किलोमीटर है। तब राजपुर रोड पर सिटी बसें चलती थी। साथ ही कभी-कभार तांगे चला करते थे। आवागमन के यही साधन थे। पूरी सड़क पर हर समय संनाटा पसरा रहता था। एक-आध स्कूटर ही नजर आते थे।कार तो कभी-कभार ही दिखती थी।सिटी बस भी आधे घंटे से एक घंटे के अंतराल मं आती थी। साइकिल ही इस सड़क पर ज्यादा दिखती थी।हम करीब पांच बच्चे शाम को खेलने के बहाने घर से निकले और राजपुर रोड पर पहुंच गए।अब कैसे पवेलियन तक पहुंचे, इसकी ही चिंता सभी को थी।किसी के पास एक पैसा तक नहीं थी। उन दिनों बस किराया शायद पंद्रह पैसे था।
सड़क पर पहुंचकर हमने लिफ्ट लेने का इरादा किया।कोई भी साइकिल वाला दिखता उससे घंटाघर तक लिफ्ट देने का अनुरोध हम करते।उस स्थान से घंटाघर तक जाने के लिए काफी ढलान थी।साइकिल वालों को एक-आध स्थान पर ही पैडल मारने की जरूरत पड़ती थी।सो हमें लिफ्ट मिलने में कोई दिक्कत नहीं आई।सलाह के मुताबिक एक-एक कर लिफ्ट लेकर पांचों बच्चे निर्धारित स्थान पर मिल गए।
पवेलियन मैदान के प्रवेश द्वार पर पहुंचकर अब हमारी चिंता यह थी कि भीतर कैसे घुसा गाए।तब मैच का टिकट एक रुपये था। हमारे पास को फूटी कौड़ी तक नहीं थी ।ऐसे में सभी बच्चे भीतर घुसने की जुगत लगा रहे थे।तभी हमें पता चला कि एक टिकट पर बड़े व्यक्ति के साथ बच्चा फ्री जा सकता है। ऐसे में भीतर घुसने वाले हर व्यक्ति से हम अनुरोध करते कि हमें अपने साथ भीतर ले जाए। दर्शकों की भीड़ में हमे ऐसे पांच सज्जन आसानी से मिल गए, जो पवेलियन तक जाने में हमारे मददगार साबित हुए। पवेलियन मैदान का नजारा मेरे लिए नया ही था। मेरी तरह अन्य बच्चों के   लिए भी यह आश्चर्यचकित करने वाला था। मैदान के चारों तरफ बैठने के लिए बनी सीड़ियां खचाखच भर चुकी थी।मैदान के एक तरफ की दीवार के उस पार सिटी बस अड्डा था।बस अड्डे के आसपास की दुकानों की छतें दर्शकों से भरी पड़ी थी।मैदान की एक दीवार से सटा गांधी पार्क था।इस दीवार के पीछे पार्क में जितने भी ऊंचे पेड़ थे।वहां से फ्री में फुटबाल देखने वाले जान जोखिम में डालकर पेड़ की डाल पर बैठे थे।
मैदान में इतनी भीड़ देखकर मैं डर गया।सच कहो तो पवेलियन मैदान में तब ही मैने पहली बार इतनी भीड़ देखी थी।इसके बाद दो और बार इस मैदान में मैने भीड़ देखी।ऐसी भीड़ दोबारा दारा सिंह के साथ हॉंगकांग के माइटी मंगोल की कुश्ती के दौरान देखी।तीसरी बार ऐसी भीड़ मैने यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवंती नंदन बहुगुणा की जनसभा में देखी।अब पवेलियन में मेरा और अन्य बच्चों का ध्यान खुद को सुरक्षित रखने में ही केंद्रित हो गया।भीड़ में कहीं हम खो ना जाएं, या फिर चोट न लग आए, यही चिंता हमें सता रही थी।मैदान में ड्रैस से सजे दो टीम के खिलाड़ी उतरे।खिलाड़ी भी मुझे दूर से रामलीला के पात्रों की तरह नजर आए।क्योंकि तब बचपन में रामलाली के पात्रों की ड्रैस मुझे प्रभावित करती थी।या फिर फुटबाल के खिलाड़ियों की रंगीन ड्रैस मुझे काफी अच्छी लगी।
मैच शुरू हुआ।मैदान के चारों तरफ शोर बढ़ने लगा।शोर बढ़ने के साथ ही बच्चों की धड़कन भी तेज होती चली गई।बिना टिकट मैदान में दीवार फांद कर घुसने की चेष्टा कर रहे लोगों को पुलिस और वालिंटियर लठिया रहे थे।मैदान के हर छोर पर मैच बढ़ने के साथ ही हुड़दंग भी बढ़ रहा था।कहीं हल्की भगदड़ होती और वहां स्थिति शांत की जाती, तो तभी दूसरे छोर में हंगामा हो जाता।इसके विपरीत इस हुड़दंग के अनजान होकर खिलाड़ी खेल में मशगूल थे।किसने बॉल पास की।किसे दी, किसने गोल मारा, किसने बचाने का प्रयास किया, किसे रेड कार्ड दिखाया, यह कुछ भी मेरे समझ नहीं आया।मैं तो भीड़ के हुड़दंग से अपने साथियों का हाथ पकड़कर खुद को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहा था।जब मैच रोमांच में पहुंच गया और हुड़दंग भी बढ़ गया तो मुझे घर की याद सताने लगी।बार-बार मां का चेहरा याद आता।मैं रोने लगा।मेरी देखादेखी अन्य बच्चे भी रोने लगे।पर इस भीड़ में किसका ध्यान हमारी तरफ होता।सभी अपने में मस्त थे।शोर बढ़ता गया और हम रोते चले गए।अचानक मेरे साथी देव सिंह के बड़े भाई नंदन बिष्ट की नजर हम पर पड़ी।वह हमसे करीब दस साल बड़ा था, जो अपने मित्रों के साथ फुटबाल मैच देखने पवेलियन आया था।उसने पहले हमें डांटा कि तुम क्यों आए।फिर हम सब बच्चों को अपने साथ ही रखा।तब हमने खुद को सुरक्षित महसूस किया।मैच समाप्ति पर हमें पैदल ही घर जाना पड़ा। क्योंकि चढ़ाई में कोई भी साइकिल सवार लिफ्ट नहीं देता था।घर पहुंचकर मार अलग पड़ी कि चार घंटे तक घर से कहां गायब रहे।
भानु बंगवाल         

Wednesday, 6 June 2012

अब हाइटेक हो गए ठग...

पीएनबी में बैंक खाता होने के बावजूद अक्सर मैं दूसरे बैंक के एटीएम का इस्तेमाल करता हूं।कारण यह है कि पीएनबी का एटीएम काउंटर मेरे रास्ते में तो पड़ते हैं, लेकिन सड़क क्रास करने का झंझट रहता है।साथ ही पीएनबी के काउंटर में भीड़ भी मुझे ज्यादा मिलती है।ऐसे में जब भी मैं दूसरे बैंक के एटीएम से पैसे निकालता हूं, तो मोबाइल मंे एक मैसेज आता है।इसमें निकाली गई राशि का विवरण होता है, साथ ही एक अनुरोध भी रहता है कि पीएनबी के एटीएम का ही इस्तेमाल करें।ऐसे में कई बार मैं पीएनबी की एटीएम मशीन का इस्तेमाल करने का प्रयास करता हूं।इस प्रयास मंे अधिकतर मुझे निराश ही होना पड़ा।कई बार पैसे ही नहीं निकले, तो कई बार मशीन खराब मिली।एक रात को देहरादून में पीएनबी की इंद्रानगर शाखा के एटीएम से पैसे निकालने गया, तो वहां अंधेरा था।मशीन चालू थी।मैने पहले जमा राशि की जांच के लिए कार्ड मशीन पर डाला।राशि का पता तो चल गया, लेकिन कार्ड बाहर नहीं निकला।अंधेरे में मैं परेशान हो गया।अक्सर एटीएम मशीन के कक्ष में कुछ मोबाइल नंबर लिखे होते हैं।इनमें किसी परेशानी की शिकायत की जाती है।मैने मोबाइल से रोशनी कर पूरे कक्ष का निरीक्षण किया।वहां कुछ नंबर थे।वहां दीवारों में नंबर के कुछ स्टीकर तो लगे थे, पर कहां के हैं इसका पता नहीं चल रहा था।कारण स्टीकर कुछ फटे हुए थे।ऐसे में मैने अंदाज से पहला नंबर मिलाया।वह मैरिज ब्यूरो का निकला।दूसरा नंबर मिलाया तो वह हैल्थ सेंटर का निकला।जहां बताया जाता है कि वजन को कैसे कम किया जाए।तीसरे नंबर एक एजेंसी का था, जिसमें यह बताया जा रहा था कि घर बैठे मैं आसानी से करोड़ पति बन सकता हूं।
रात के साढ़े दस बजे कार्ड फंसा और वहीं पर ग्यारह बज गए।मैने एक मित्र को फोन मिलाकर शिकायत के लिए नंबर हासिल किया, लेकिन वह नंबर दस से बारह बार ट्राई करने के बावजूद भी नहीं लगा।फिर मैने समय बर्बाद करने की बजाय घर जाना ही बेहतर समझा।अगले दिन सुबह मैं बैंक गया।वहां के मैनेजर मुझे काफी सज्जन लगे।उन्हें मैने अपनी समस्या बताई तो वह मुस्कराने लगे।उनके लिए यह नई बात नहीं थी।मैनेजर के कमरे में एक महिला भी बैठी थी, वह पांच हजार रुपये से एकांउट खुलाने आई थी।मैनेजर ने उस महिला से पूछा कि वह क्या करती है, तो उसने बताया कि वह घरेलू महिला है।खाता खोलने की वजह उसने बताई कि उसकी लाटरी लग गई है।ऐसे में एकाउंट खोलना जरूरी है।महिला की बात सुनकर मेरी दिलचस्पी बढ़ी।मैने पूछा कि कहीं लाटरी का टिकट लिया था।इस पर उसने बताया कि टिकट नहीं लिया।मोबाइल फोन पर करीब तीस लाख की लाटरी लगने का मैसेज आया।कागजी कार्रवाई के लिए उससे दस हजार रुपये अदा करने हैं।फिर बैंक में पैसे ट्रांसफर हो जाएंगे।मैं तुरंत समझ गया कि महिला ठगी का शिकार बनने वाली है।मैने उसे समझाया कि इस तरह के मैसेज फर्जी होते हैं।अब तक कई लोग ऐसी ठगी का शिकार हो चुके हैं।मैने बताया कि मुझे तो कई मिलीयन डालर, यूरो व अन्य ईनाम के मैसेज अक्सर आते रहते हैं।मैने हाल ही में ऐसी ठगी के शिकार लोगों के उदाहरण भी दिए, जो मैसेज के जाल में फंसकर पांच से दस लाख रुपये गंवा चुके थे।इस पर महिला सब कुछ आसानी से समझ गई और उसने लाटरी की राशि का मोह छोड़ दिया।
सच ही है कि व्यक्ति लोभ के फेर में पड़कर ही अपनी जमा पूंजी भी गंवा देता है।पहले भी ठगी करने वाले लालच देते थे और अब भी।फर्क इतना है कि अब ठग हाइटेक हो गए हैं, वह सीधे सामने नहीं आते और काम कर जाते हैं।जब मैं छोटा था, तब ठग रास्ते में पोटली रख देते थे।कोई व्यक्ति जब उसे उठाता, तो एक व्यक्ति भी उसके पास आता।वह कहता कि पोटली दोनों ने देखी है।इसका सामान आधा-आधा बांटेंगे।पोटली में नकली सोने के गहने होते।ठग अपने हिस्से में नकदी मांगता।लालच में पड़कर व्यक्ति अपनी जेब की राशि ठग को देता।ऐसे में ठग राशि कम बताता और ठगी का शिकार बन रहे व्यक्ति की घड़ी, चेन, अंगूठी आदि भी ले जाता।बदले में व्यक्ति को पीतल के गहनों की पोटली थमा देता।इसी तरह रास्ते में मिलने वाले अनजान कई बार परेशानी बताकर सोने को कौड़ियों के भाव बेचने का लालच देते।लालच में पड़कर व्यक्ति अपनी जेब की राशि, अंगूठी आदि ठग को थमाकर ज्यादा सोना लाने के फेर में पड़ जाते।ठगी का शिकार होने वाले यह भी नहीं सोचते कि वह सोने के बदले सोना क्यों दे रहे हैं।जो वह दे रहे हैं वह तो असली है, लेकिन दूसरा जो थमा रहा है, उसके असली होने की क्या गारंटी है।लालच ही ऐसी चीज है, जो सोचने की शक्ति को भी कमजोर कर देती है।
ऐसा नहीं है कि ठगी का शिकार भोले-भाले लोग ही बनते हैं।कई बार तो समाज में शातीर माने जाने वाले नेताजी भी लालच में पड़कर ठगी का शिकार हो जाते हैं।देहरादून में जिला पंचायत के एक पूर्व अध्यक्ष बैंक से करीब दो लाख रुपये निकालकर अपनी गाड़ी तक पहुंचे।सीट पर ब्रीफकेस रखकर वह जैसे ही बैठने लगे, तभी एक व्यक्ति ने उन्हें बताया कि उनके कुछ नोट जमीन पर गिर गए है।नेताजी ने देखा कि वाकई में दस, पचास व सौ के कुछ नोट नीचे पड़े हैं। लालच में वह नोट उठाने लगे।खुश होकर उन्होंने नोटों को एकत्र कर कुर्ते की जेब के हवाले किया।फिर कार में बैठे तो उनके नीचे से जमीन ही खिसक गई।उनका नोटों से भरा ब्रिफकेस गायब हो चुका था।वह नोट के बदले नोट ही गंवा बैठे।
भानु बंगवाल 
 
  

Monday, 4 June 2012

जब अतिथि करने लगें अति.......

भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता की तरह पूजने की परंपरा है।अब धीरे-धीरे यह परंपरा भी समाप्त हो रही है।अब तो अतिथि का नाम सुनते ही लोग भयभीत होने लगते हैं।सच तो यह है कि इस भागदौड़ में न तो कोई किसी के घर जाना ही पसंद करता है और न ही कोई यह पसंद करता है कि उसके घर कोई ऐसा मेहमान आए, जो कई दिनों तक रहे।मेहमान भी एक-आध दिन के लिए ही आते हैं, तो यह मेजवान व मेहमान दोनों के लिए ठीक रहता है।कई बार तो मेहमान मिलने के लिए आपके घर आते हैं और रहने को होटल में चले जाते हैं।मेजवान भी ऐसे हो गए कि वह यह तक नहीं कहते कि हमारे घर रुक जाओ।वह यही कहते हैं कि अच्छे होटल में रुके हो।वहां सभी सुविधाएं मिल जाएगी।
ऐसा नहीं है कि अतिथि सत्कार की परंपरा समाप्त हो गई।आज भी लोगों के घर मेहमान आते हैं और रुकते हैं।ज्यादातर मेहमान करीबी रिश्तेदार या नातेदार ही होते हैं।अपरिचित के घर मेहमान बनकर रुकना काफी कम हो गया है।फिर भी कई बार जीवन में ऐसे क्षण आए जब पहले परिचय में ही मुझे किसी के घर रुकना पड़ा।वर्ष, 94 में ऋषिकेश में एक संस्थान में कार्यरत व्यक्ति के पिताजी बीमार पड़ गए।उपचार के लिए वह अपने पिताजी को चंडीगढ़ पीजीआइ में ले गए।उनके बदले काम संभालने को मुझे देहरादून से ऋषिकेश भेजा गया।जब मैं ऋषिकेश पहुंचा तो वहां पहली बार ही मेरा परिचय उस व्यक्ति से हुआ, जिसका काम मुझे फौरी तौर पर कुछ दिन के लिए संभालना था।वह व्यक्ति मुझे व मेरा सामान अपने घर ले गया और जब तक वह चंडीगढ़ रहा, तब तक मैं उनके ही घर करीब एक सप्ताह रहा।इसी तरह मुझे आफिस के काम से मेरठ बुलाया जाता था।वहां कार्यरत अन्य साथियों से फोन पर परिचय था।मेरठ जाने पर जब आमना-सामना हुआ तो रात को रहने की दिक्कत नहीं आई।अक्सर मेरठ जाने पर कोई न कोई साथी अपने घर ले जाता था।तब यह परंपरा थी।शायद जो समय के साथ अब या तो समाप्त हो गई या फिर कम पड़ गई। यही नहीं, एक बार तो एक व्यक्ति के घर जब मैं गया तो मुझे काफी आश्यर्च हुआ।उस व्यक्ति का किराए का कमरा काफी छोटा था।उसकी पांच छोटी-छोटी बेटियां थी।एक ही कमरे में डबल बैड पर लाइन से सभी के लेटने की व्यवस्था की गई।सच पूछो तो उस व्यक्ति का दिल कमरे से काफी बड़ा था।इसी तरह मुझे मेरठ से बुलंदशहर के खुर्जा जाना था।रास्ते में संस्थान के बुलंदशहर कार्यालय प्रभारी के घर मैं रात को करीब साढ़े तीन बजे पहुंचा।उन्होंने मुझे कुछ देर घर में आराम के लिए बिस्तर दिया।फिर चाय नाश्ता देकर आगे के लिए विदा किया।उन दिनों को मैं आज भी याद करता हूं।
पहले जब घर में मेहमान आते थे, तो बच्चों से लेकर बड़े सभी खुश दिखाई देते थे।अब किसी के पास मेहमान तक के लिए ज्यादा समय तक नहीं बचा है।फिर भी जिस घर में छोटे बच्चे होते हैं, उस घर के बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जो बच्चों से आसानी से घुलमिल जाता है।यदि मेहमान बच्चों को बात-बात पर टोकने लगे या फिर समझाने लगे तो बच्चे ऐसे मेहमान के जाने की प्रार्थना करने लगते हैं।साथ ही बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जिसके बच्चे भी साथ आए हों।तब बच्चों को मेहमान के जाने का ज्यादा दुख होता है।मेरे एक परिचित दिल्ली में रहते हैं।उनके बड़े भाई जब भी दिल्ली जाते थे, तो अक्सर उनकी जेब कट जाती थी।जेब कटती थी या फिर उन्होंने बार-बार जेब कटने की बात को अपना तकिया कलाम बना दिया था, यह कोई नहीं जानता।फिर भी एक बात स्पष्ट हो गई थी कि उनकी जेब कटने की बात का हर बार कोई विश्वास नहीं करता था।अब मेहमान को देखो, जेब कटने की बात कहकर दिल्ली में घूमने व फिरने का खर्च भी वह अपने भाई से ही वसूलते।बात-बात पर भाई के बच्चों को टोकना, टेलीविजन पर देर तक पसरना उनका आदत थी।यह बात करीब पच्चीस साल पुरानी है।परिचित के घर दिल्ली में उनके भाई पहुंचे हुए थे।एक सप्ताह से अधिक समय हो चुका था।उस बार भी उनकी जेब कट चुकी थी।परिचित की  बेटी उस समय छह साल की थी और बेटा चार साल का। बच्चों ने टेलीविजन देखना चाहा, तो उनके मेहमान ताऊ ने टीवी देखने में भी बच्चों को टोकना शुरू कर दिया।इस पर परिचित की बेटी ने एक दिन अपने ताऊजी से पूछा-ताऊजी एक बात बताओ, आप कब घर जाओगे। इस पर ताऊजी ने कहा कि  दो दिन बाद।इस पर बच्ची ने रोने के अंदाज में कहा कि दो दिन बाद मत जाना।ताऊ ने सोचा कि बच्ची उन्हें पसंद करती है।ऐसे में उन्होंने कहा कि एक सप्ताह बाद चला जाउंगा।इस पर बच्ची फिर रोने के अंदाज में कहने लगी कि एक सप्ताह बाद भी मत जाना।तब ताऊ ने पूछा कि तू  ही बता कब जाऊँ। इस पर बच्ची ने कहा कि आप अभी क्यों नहीं चले जाते।.....
भानु बंगवाल

Friday, 1 June 2012

बताना नहीं था, पर बता रहा हूं.....

व्यक्ति का स्वभाव यह भी है कि वह किसी दूसरे को अपने राज बताने के साथ ही यह भी कहता है कि यह बात वह सिर्फ उससे ही कह रहा है।किसी दूसरे से इसका जिक्र मत करना।दूसरी तरफ से पूरी तरह से आश्वासन मिलने के बाद ही व्यक्ति अपना राज दूसरे को बताता है। दूसरा भी कुछ समय या दिन तक पेट में बात रखता है और फिर उसे आगे बढ़ा देता है।इसीलिए तो किसी के राज ज्यादा दिन तक राज बने नहीं रहते।
दूसरों के राज अपने मन में रखना भी काफी मुश्किल भरा काम है।कई बार तो व्यक्ति दूसरों की भलाई के फेर में खुद को ही संकट में डाल देता है।खुद बुरा बनता है और दूसरा साफ बच निकलता है।वह तो दूसरे के विश्वास को तोड़ना नहीं चाहता, लेकिन सही बात को आगे न बताने पर उसके सामने धर्म संकट आ खड़ा होता है।कई बार तो देखा गया कि किसी दूसरे को न बताने वाली बात को बताकर ही ज्यादा लाभ मिलता है।ऐसी बातों को आगे बताकर बिगड़े काम भी बन जाते है।
बात काफी पुरानी हो गई।तब मैं करीब सत्ताइस साल का था।मुझसे बड़ी बहन का रिश्ता तय हो गया था।मैं एक समाचार पत्र में कार्यरत था।मेरा लक्ष्य परमानेंट होने का था और अपनी शादी के बारे में तब तक मैने सोचा तक नहीं था।मेरा मत था कि जब तक मैं अच्छी सेलरी लेने लायक नहीं बन जाता, तब तक शादी नहीं करुंगा।मेरा एक मित्र मुझे शादी पर जोर दे रहा था।मैने उससे कहा कि अभी मुझे कौन अपनी लड़की देगा।मुझे यह मालूम नहीं था कि मित्र मुझे टोह रहा है।उसने मुझसे पूछा कि मेरी व मेरे घरवालों की डिमांड क्या है।मैने उसे बताया  कि मेरे पिताजी आर्य समाजी विचारधारा के हैं।वह दहेज लेने व देने दोनोंे से चिढ़ते हैं।बेटियों की शादी में उन्होंने दहेज नहीं दिया और मेरी शादी में वह दहेज नहीं लेंगे।
एक दिन मित्र ने मुझे एक रिश्ता बताया।उसने बताया कि उसकी बुआ की लड़की है। जो पढ़ी-लिखी है।बुआ टीचर है और विधआ है।उसकी कीडनी खराब हो गई है।वह अपने जीते जी बेटी की शादी करना चाहती है।बेटी काफी अच्छी व सीधी है।मित्र बुआ की बेटी की फोटो भी साथ लाया था।उसने मुझे फोटो दिखाई।फोटो देखकर मैं पहली नजर में ही लड़की को पसंद कर गया।साथ ही मेरे मन में भय था कि कहीं अचानक शादी करा दी, तो कैसे परिवार चलाउंगा।
फोटो को मैने अपने घर में पिताजी, माताजी व बहनों को दिखाया। सभी को फोटो में लड़की पसंद आई।इसके बाद मित्र के पिताजी बात आगे बढ़ाने को हमारे घर भी आए।एक दिन मित्र ने बताया कि बुआ उनके घर आई है।साथ में बेटी को भी लाई है।उसे देखने हमारे घर आ जाओ।इस पर तय दिन व समय के मुताबिक मैं अपनी बड़ी बहन, जीजा व पिताजी के साथ मित्र के घर चला गया।वहां खातिरदारी में कोई कमी नहीं की गई।मित्र की बुआ मुझे काफी सीधी-साधी लगी।लड़की को दिखाया गया, लेकिन मुझे वह पसंद नहीं आई।इसका कारण यह था कि फोटो से वह बिलकुल उलट थी।उन्नीस-बीस साल की उम्र मंे वह नाबालिग लग रही थी।कद भी काफी कम था।सामने का एक दांत भी गायब था।अब मैं असमंजस की स्थिति में था कि क्या करूं या ना करूं।खैर मुझे लड़की से बात करने को कहा।कहा गया कि आपस में एक दूसरे को समझ लो।किसी इंसान को समझने में कई साल लग जाते हैं और जिससे साथ जिंदगी गुजारनी हो उसे समझने के लिए मुझे दस-पंद्रह मिनट दिए गए।कई सवाल मेरे मस्तिष्क में कौंध रहे थे।एक कमरे में दोनों को बैठा दिया गया।मेरे दिमाग में यह भी नहीं आ रहा था कि उससे क्या पूंछूं।
कमरे में चुप्पी के कारण सन्नाटा पसरा हुआ था।इसे लड़की ने ही तोड़ा।उसने सवाल किया कि आपने क्या सोचा है।मैने पूछा सोचने से क्या मतलब।उसने कहा कि अभी आपसे पूछेंगे कि लड़की पसंद आई या नहीं।फिर सगाई की डेट फिक्स होगी।साथ ही संभव है कि शादी की डेट भी फिक्स हो जाए।मैने उससे पूछा कि आप बताओ मैं क्या जवाब दूं।तूम्हें पसंद करूं या नहीं।इस पर वह रोने लगी।उसने बताया कि मेरी मां के जीवन का कोई भरोसा नहीं है।ऐसे में वह मेरी शादी करना चाहती है।मैैं शादी नहीं करना चाहती।साथ ही मां को कोई दुख भी देना नहीं चाहती।ऐसे में यदि संभव हो तो आप शादी से मना कर देना, लेकिन यह मत बताना कि मैने आपको ऐसा करने को कहा है।मैने लड़की को आश्वासन दिया कि जैसा वह चाहती है, वैसा ही करुंगा।
संक्षिप्त बातचीत समाप्त हुई।मैं इतना तो समझ गया कि वह लड़की किसी दूसरे से विवाह करना चाहती है।संकोच व डर के कारण उसने अपनी माताजी को नहीं कुछ नहीं बताया।बैठक में आने के बाद दोनों तरफ से लोग ऐसे बातें कर रहे थे जैसे रिश्ता पक्का हो गया।मित्र के परिजन व मेरे पिताजी, बड़ी बहन आदि सभी उत्साहित थे।मुझसे पूछा गया बोल अब क्या मर्जी है।लड़की तो पसंद आ गई होगी।सगाई की डेट फिक्स कर देते हैं।झेंपू प्रवृति का होने के कारण मेरे मन में साहस तक नहीं आ रहा था कि क्या करूं।मैने इतना ही कहा कि अभी जल्दबाजी न करो।एक-दो दिन तक मुझे सोचने की मोहल्लत दो।इस पर सभी को झटका लगा।मुझे सभी टोहने लगे कि लड़की पसंद नहीं आई क्या।मैने कहा कि यह बात नहीं फिर भी मुझे दो-तीन दिन का समय दे दो।इसके बाद हम घर लौट गए।
तीन दिन बीते मित्र ने मुझसे मिलकर पूछा कि मैं अपना निर्णय सुनाऊँ।विवाह की तैयारी करनी है।मैं उसे टाल रहा था।टालते-टालते एक सप्ताह से अधिक का समय बीत गया।फिर एक दिन मित्र मेरे पीछे ही पड़ गया।फिर मैने मित्र को सिर्फ इतना ही कहा कि लड़की से पता कर लो वह कहींं दूसरी जगह शादी करना चाहती है।इस पर मित्र चिढ़ गया।वह मुझे खरी-खोटी सुनाने लगा।मैने उसे काफी समझाया, लेकिन वह अपनी भड़ास मुझपर उतारकर चला गया।फिर उसने मुझसे कभी इस रिश्ते का जिक्र नहीं किया।इस घटना के छह माह बीत गए।एक दिन मैने मित्र से पूछा कि बुआ की बेटी की शादी का क्या हुआ।इस पर मित्र ने बताया कि तू ठीक ही था।बुआ की बेटी किसी दूसरे लड़के को चाहती थी।उससे जब सख्ती से पूछा गया तो उसने सारा राज उगल दिया।उसका उसी लड़के से विवाह भी कर दिया गया है।आज दोनों खुश हैं।
भानु बंगवाल