Sunday, 17 June 2012

पिताजी तुम संकट में याद आते हो

कवि मैथली शरण गुप्त की कविता-नर हो ना निराश करो मन को, मैने बचपन में पिताजी से सुना, जो बाद में मैने शायद चौथी जमात में पढ़ी। इस कविता का मतलब पिताजी मुझे किसी अच्छे काम के लिए प्रेरित करने के लिए समझाते थे। साथ ही इसकी एक लाइन-निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे, को फोर्स से समझाते हुए मेरा स्वाभिमान जगाने व हिम्मत बढ़ाने का प्रयास करते थे। तब बचपन में कई बार मुझे पिताजी के उपदेश अच्छे नहीं लगते थे। आज उनकी समझाई गई बातों को मैं अक्सर दोहराता हूं। अपने बच्चों को भी समझाने का प्रयास करता हूं।
टिहरी जनपद के डांगचौरा के निकट गुरछौली गांव को महज 14 साल की उम्र में मेरे पिताजी ने टाटा कर दिया था। घर छोड़कर वह देहरादून आ गए। अपने साथ जो रकम व चांदी आदी की धगुली व अन्य जेवर वह लेकर आए कुछ दिन उसके बल पर अपना खर्च चलाते रहे। साथ ही जारी की नौकरी की तलाश। मेरे दादाजी तब ही दुनियां छोड़ चुके थे, जब पिताजी महज ढाई साल के थे और मेरे चाचाजी दादी के पेट में थे। परिवार में वही बड़े थे, उनकी कोई बहन भी नहीं थी। देहरादून आने पर उन्होंने जिल्दसाजी, फोटो फ्रेम बनाना आदि के काम सीखे और धामावाला में दुकान खोल दी। मुंहफट, स्वाभिमानी, सहृदय, गलत बात पर दूसरों से भिड़ने की प्रवृति ने उनकी आसपास के परिवेश में अलग ही पहचान बना दी। उनका नाम कुलानंद था, लेकिन लोग उन्हें पंडित जी के नाम से पुकारने लगे। जब बह छोटे थे, तब स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था। पिताजी भी जुलूस व अन्य विरोध प्रदर्शन में शामिल होते, गिरफ्तार होते, लेकिन जेलर उन्हें जेल में बंद नहीं करता। वह पिताजी को पहचानता था, वह कहता अरे पंडित तुम कहां फंस गए। भाग जाओ दोबारा जुलूस में नजर मत आना। तब पिताजी भी खुश होते कि जेल जाने से बच गए। ठीक उसी तरह जिस तरह उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कई सक्रिय आंदोलनकारी पुलिस की पकड़ से बाहर रहे और राज्य बनने के बाद उनका नाम किसी आंदोलनकारी की सूची में नहीं है। ठीक इसी तरह पिताजी ने भी शायद यह नहीं सोचा कि जो लोग जेल में बंद हो रहे हैं, बाद में वे सरकारी सुविधा के पात्र बनेंगे। देश आजाद हुआ। जेल जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सैनानी कहलाए, लेकिन मेरे पिताजी को इसका कभी मलाल नहीं हुआ कि आंदोलन के नाम पर वह किसी सहायता के पात्र बनते।
राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान में वह सरकारी नौकरी लग गए और दुकान आठ सौ रुपये में बेच दी। पंडितजी के नाम से लोगों में पहचान बनाने वाले पिताजी को पूजा-पाठ करते मैं कभी कभार ही देखता था। वह तो कर्म को ही भगवान मानते थे। उनका सीधा मत था कि गलत काम को करो मत और किसी से दबो मत। समाचार पत्र को पढ़ने  के बाद छितरा कर रखने से पिताजी को नफरत थी।वह उसकी तह लगाकर रखते थे।रास्ते में यदि पत्थर या ईंट पड़ी हो तो उसे उठाकर किनारे कर देते। साथ ही बाहर से कड़क व गुसैल नजर आने वाले वह भीतर से काफी नरम थे।झूठ व फरेब से उन्हें सख्त नफरत थी।वह कहते थे कि गलती को छिपाओ मत, बल्कि उसे बताकर सुधारने का प्रयास करो। घर में पिताजी ने हर सामान को रखने की जगह फिक्स की हुई थी। यदि जगह पर वस्तु नहीं मिलती तो हम भाई बहनों को उनकी डांट सुननी पड़ती। आज देखता हूं कि उनका यह फार्मूला हरदिन कितना काम आता है। अचानक बिजली जाने पर अंधेऱे में भी टार्च हाथ में लग जाती है। समय से हर काम करने, अनुशासन में रहने की वह हमेशा सीख देते थे। वह हर छुट्टी के दिन किसी न किसी परिचित के घर जरूर जाते थे। छोटे में उनके साथ मैं भी जाता रहा। बाद में मैने बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि नाते व रिश्तेदारों में नई पीढ़ी अब हमे पहचानती नहीं। अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने के बावजूद वह अतिथि सत्कार में भी कोई कमी नहीं रखते। संस्थान में रहने वाले दृष्टिहीन व्यक्तियों को पंडितजी पर काफी विश्वास रहता था। वे उनकी सलाह भी मानते थे, साथ ही यदि उन्हें कोई खरीददारी करनी होती तो पंडितजी से ही कहते। ऐसे में वह भी दृष्टिहीन का हाथ पकड़कर उन्हें बाजार ले जाते और जरूरत का सामान खरीदवाते।
आज पिताजी को इस दुनियां से विदा हुए करीब 12 साल हो गए। इन बारह सालों में मैं जब भी कभी खुद कमजोर महसूस करता हूं, तो उनकी आदतों व बातो को याद करता हूं। संकट की घड़ी में मुझे अक्सर पिताजी के मुख से सुनी यही कविता याद आती है कि-नर हो ना निराश करो मन को.....
भानु बंगवाल

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