भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता की तरह पूजने की परंपरा है।अब धीरे-धीरे यह परंपरा भी समाप्त हो रही है।अब तो अतिथि का नाम सुनते ही लोग भयभीत होने लगते हैं।सच तो यह है कि इस भागदौड़ में न तो कोई किसी के घर जाना ही पसंद करता है और न ही कोई यह पसंद करता है कि उसके घर कोई ऐसा मेहमान आए, जो कई दिनों तक रहे।मेहमान भी एक-आध दिन के लिए ही आते हैं, तो यह मेजवान व मेहमान दोनों के लिए ठीक रहता है।कई बार तो मेहमान मिलने के लिए आपके घर आते हैं और रहने को होटल में चले जाते हैं।मेजवान भी ऐसे हो गए कि वह यह तक नहीं कहते कि हमारे घर रुक जाओ।वह यही कहते हैं कि अच्छे होटल में रुके हो।वहां सभी सुविधाएं मिल जाएगी।
ऐसा नहीं है कि अतिथि सत्कार की परंपरा समाप्त हो गई।आज भी लोगों के घर मेहमान आते हैं और रुकते हैं।ज्यादातर मेहमान करीबी रिश्तेदार या नातेदार ही होते हैं।अपरिचित के घर मेहमान बनकर रुकना काफी कम हो गया है।फिर भी कई बार जीवन में ऐसे क्षण आए जब पहले परिचय में ही मुझे किसी के घर रुकना पड़ा।वर्ष, 94 में ऋषिकेश में एक संस्थान में कार्यरत व्यक्ति के पिताजी बीमार पड़ गए।उपचार के लिए वह अपने पिताजी को चंडीगढ़ पीजीआइ में ले गए।उनके बदले काम संभालने को मुझे देहरादून से ऋषिकेश भेजा गया।जब मैं ऋषिकेश पहुंचा तो वहां पहली बार ही मेरा परिचय उस व्यक्ति से हुआ, जिसका काम मुझे फौरी तौर पर कुछ दिन के लिए संभालना था।वह व्यक्ति मुझे व मेरा सामान अपने घर ले गया और जब तक वह चंडीगढ़ रहा, तब तक मैं उनके ही घर करीब एक सप्ताह रहा।इसी तरह मुझे आफिस के काम से मेरठ बुलाया जाता था।वहां कार्यरत अन्य साथियों से फोन पर परिचय था।मेरठ जाने पर जब आमना-सामना हुआ तो रात को रहने की दिक्कत नहीं आई।अक्सर मेरठ जाने पर कोई न कोई साथी अपने घर ले जाता था।तब यह परंपरा थी।शायद जो समय के साथ अब या तो समाप्त हो गई या फिर कम पड़ गई। यही नहीं, एक बार तो एक व्यक्ति के घर जब मैं गया तो मुझे काफी आश्यर्च हुआ।उस व्यक्ति का किराए का कमरा काफी छोटा था।उसकी पांच छोटी-छोटी बेटियां थी।एक ही कमरे में डबल बैड पर लाइन से सभी के लेटने की व्यवस्था की गई।सच पूछो तो उस व्यक्ति का दिल कमरे से काफी बड़ा था।इसी तरह मुझे मेरठ से बुलंदशहर के खुर्जा जाना था।रास्ते में संस्थान के बुलंदशहर कार्यालय प्रभारी के घर मैं रात को करीब साढ़े तीन बजे पहुंचा।उन्होंने मुझे कुछ देर घर में आराम के लिए बिस्तर दिया।फिर चाय नाश्ता देकर आगे के लिए विदा किया।उन दिनों को मैं आज भी याद करता हूं।
पहले जब घर में मेहमान आते थे, तो बच्चों से लेकर बड़े सभी खुश दिखाई देते थे।अब किसी के पास मेहमान तक के लिए ज्यादा समय तक नहीं बचा है।फिर भी जिस घर में छोटे बच्चे होते हैं, उस घर के बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जो बच्चों से आसानी से घुलमिल जाता है।यदि मेहमान बच्चों को बात-बात पर टोकने लगे या फिर समझाने लगे तो बच्चे ऐसे मेहमान के जाने की प्रार्थना करने लगते हैं।साथ ही बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जिसके बच्चे भी साथ आए हों।तब बच्चों को मेहमान के जाने का ज्यादा दुख होता है।मेरे एक परिचित दिल्ली में रहते हैं।उनके बड़े भाई जब भी दिल्ली जाते थे, तो अक्सर उनकी जेब कट जाती थी।जेब कटती थी या फिर उन्होंने बार-बार जेब कटने की बात को अपना तकिया कलाम बना दिया था, यह कोई नहीं जानता।फिर भी एक बात स्पष्ट हो गई थी कि उनकी जेब कटने की बात का हर बार कोई विश्वास नहीं करता था।अब मेहमान को देखो, जेब कटने की बात कहकर दिल्ली में घूमने व फिरने का खर्च भी वह अपने भाई से ही वसूलते।बात-बात पर भाई के बच्चों को टोकना, टेलीविजन पर देर तक पसरना उनका आदत थी।यह बात करीब पच्चीस साल पुरानी है।परिचित के घर दिल्ली में उनके भाई पहुंचे हुए थे।एक सप्ताह से अधिक समय हो चुका था।उस बार भी उनकी जेब कट चुकी थी।परिचित की बेटी उस समय छह साल की थी और बेटा चार साल का। बच्चों ने टेलीविजन देखना चाहा, तो उनके मेहमान ताऊ ने टीवी देखने में भी बच्चों को टोकना शुरू कर दिया।इस पर परिचित की बेटी ने एक दिन अपने ताऊजी से पूछा-ताऊजी एक बात बताओ, आप कब घर जाओगे। इस पर ताऊजी ने कहा कि दो दिन बाद।इस पर बच्ची ने रोने के अंदाज में कहा कि दो दिन बाद मत जाना।ताऊ ने सोचा कि बच्ची उन्हें पसंद करती है।ऐसे में उन्होंने कहा कि एक सप्ताह बाद चला जाउंगा।इस पर बच्ची फिर रोने के अंदाज में कहने लगी कि एक सप्ताह बाद भी मत जाना।तब ताऊ ने पूछा कि तू ही बता कब जाऊँ। इस पर बच्ची ने कहा कि आप अभी क्यों नहीं चले जाते।.....
भानु बंगवाल
ऐसा नहीं है कि अतिथि सत्कार की परंपरा समाप्त हो गई।आज भी लोगों के घर मेहमान आते हैं और रुकते हैं।ज्यादातर मेहमान करीबी रिश्तेदार या नातेदार ही होते हैं।अपरिचित के घर मेहमान बनकर रुकना काफी कम हो गया है।फिर भी कई बार जीवन में ऐसे क्षण आए जब पहले परिचय में ही मुझे किसी के घर रुकना पड़ा।वर्ष, 94 में ऋषिकेश में एक संस्थान में कार्यरत व्यक्ति के पिताजी बीमार पड़ गए।उपचार के लिए वह अपने पिताजी को चंडीगढ़ पीजीआइ में ले गए।उनके बदले काम संभालने को मुझे देहरादून से ऋषिकेश भेजा गया।जब मैं ऋषिकेश पहुंचा तो वहां पहली बार ही मेरा परिचय उस व्यक्ति से हुआ, जिसका काम मुझे फौरी तौर पर कुछ दिन के लिए संभालना था।वह व्यक्ति मुझे व मेरा सामान अपने घर ले गया और जब तक वह चंडीगढ़ रहा, तब तक मैं उनके ही घर करीब एक सप्ताह रहा।इसी तरह मुझे आफिस के काम से मेरठ बुलाया जाता था।वहां कार्यरत अन्य साथियों से फोन पर परिचय था।मेरठ जाने पर जब आमना-सामना हुआ तो रात को रहने की दिक्कत नहीं आई।अक्सर मेरठ जाने पर कोई न कोई साथी अपने घर ले जाता था।तब यह परंपरा थी।शायद जो समय के साथ अब या तो समाप्त हो गई या फिर कम पड़ गई। यही नहीं, एक बार तो एक व्यक्ति के घर जब मैं गया तो मुझे काफी आश्यर्च हुआ।उस व्यक्ति का किराए का कमरा काफी छोटा था।उसकी पांच छोटी-छोटी बेटियां थी।एक ही कमरे में डबल बैड पर लाइन से सभी के लेटने की व्यवस्था की गई।सच पूछो तो उस व्यक्ति का दिल कमरे से काफी बड़ा था।इसी तरह मुझे मेरठ से बुलंदशहर के खुर्जा जाना था।रास्ते में संस्थान के बुलंदशहर कार्यालय प्रभारी के घर मैं रात को करीब साढ़े तीन बजे पहुंचा।उन्होंने मुझे कुछ देर घर में आराम के लिए बिस्तर दिया।फिर चाय नाश्ता देकर आगे के लिए विदा किया।उन दिनों को मैं आज भी याद करता हूं।
पहले जब घर में मेहमान आते थे, तो बच्चों से लेकर बड़े सभी खुश दिखाई देते थे।अब किसी के पास मेहमान तक के लिए ज्यादा समय तक नहीं बचा है।फिर भी जिस घर में छोटे बच्चे होते हैं, उस घर के बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जो बच्चों से आसानी से घुलमिल जाता है।यदि मेहमान बच्चों को बात-बात पर टोकने लगे या फिर समझाने लगे तो बच्चे ऐसे मेहमान के जाने की प्रार्थना करने लगते हैं।साथ ही बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जिसके बच्चे भी साथ आए हों।तब बच्चों को मेहमान के जाने का ज्यादा दुख होता है।मेरे एक परिचित दिल्ली में रहते हैं।उनके बड़े भाई जब भी दिल्ली जाते थे, तो अक्सर उनकी जेब कट जाती थी।जेब कटती थी या फिर उन्होंने बार-बार जेब कटने की बात को अपना तकिया कलाम बना दिया था, यह कोई नहीं जानता।फिर भी एक बात स्पष्ट हो गई थी कि उनकी जेब कटने की बात का हर बार कोई विश्वास नहीं करता था।अब मेहमान को देखो, जेब कटने की बात कहकर दिल्ली में घूमने व फिरने का खर्च भी वह अपने भाई से ही वसूलते।बात-बात पर भाई के बच्चों को टोकना, टेलीविजन पर देर तक पसरना उनका आदत थी।यह बात करीब पच्चीस साल पुरानी है।परिचित के घर दिल्ली में उनके भाई पहुंचे हुए थे।एक सप्ताह से अधिक समय हो चुका था।उस बार भी उनकी जेब कट चुकी थी।परिचित की बेटी उस समय छह साल की थी और बेटा चार साल का। बच्चों ने टेलीविजन देखना चाहा, तो उनके मेहमान ताऊ ने टीवी देखने में भी बच्चों को टोकना शुरू कर दिया।इस पर परिचित की बेटी ने एक दिन अपने ताऊजी से पूछा-ताऊजी एक बात बताओ, आप कब घर जाओगे। इस पर ताऊजी ने कहा कि दो दिन बाद।इस पर बच्ची ने रोने के अंदाज में कहा कि दो दिन बाद मत जाना।ताऊ ने सोचा कि बच्ची उन्हें पसंद करती है।ऐसे में उन्होंने कहा कि एक सप्ताह बाद चला जाउंगा।इस पर बच्ची फिर रोने के अंदाज में कहने लगी कि एक सप्ताह बाद भी मत जाना।तब ताऊ ने पूछा कि तू ही बता कब जाऊँ। इस पर बच्ची ने कहा कि आप अभी क्यों नहीं चले जाते।.....
भानु बंगवाल
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