Monday, 31 December 2012

Goodbye twelve...

अलविदा बारह, नए संकल्प का सहारा.... 
वर्ष, 2012 को अलविदा कहने के साथ ही नए साल का स्वागत। बीते साल में यदि नजर दौड़ाएं तो इस साल को आंदोलन का साल कहने में मुझे कोई परहेज नहीं है। कभी बाबा रामदेव का आंदोलन, तो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्ना हजारे का आंदोलन। इन आंदोलन में पूरे देश की जनता का आंदोलन में कूदना। लगा कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा। एक आशा जरूर बंधी, लेकिन सब कुछ पहले की तरह ही नजर आया। न तो विभागों का सिस्टम बदला और न ही हमारी मानसिकता। जो इस भ्रष्टाचारी सिस्टम की आदि हो गई है। जब काम होता नहीं तो हम भी शार्टकट का रास्ता अपनाते हैं और उसी रास्ते चल पड़ते हैं, जिसके खिलाफ हम सड़कों पर उतरे थे। साल के अंत में दिल्ली में गैंगरैप की एक विभत्स घटना से तो मानो पूरे देश को ही उद्वेलित कर दिया। गैंगरैप की घटना कोई नई बात नहीं थी, लेकिन वहशियों ने जिस तरह से दरिंदगी को अंजाम दिया वह हरएक को व्यथित करने वाली थी। फिर लोग सड़कों पर उतरे और पहले आरोपियों की गिरफ्तारी, फिर गिरफ्तार होने पर फांसी की सजा की मांग जोर पकड़ने लगी। आरोपियों का क्या सजा मिलेगी, यह तो भविष्य के गर्त में छिपा है। सजा चाहे कितनी भी कड़ी क्यों न हो, लेकिन एक बात यह भी तय है कि ऐसी घटनाओं पर तब तक अंकुश नहीं लग पाएगा, जब तक समाज का नजरिया नहीं बदलेगा। चाहे वो भ्रटाचार के मुद्दे पर हो या फिर महिला के सम्मान का मुद्दा हो।
दिल्ली गैंगरैप की घटना के बाद लोग उद्वेलित हुए। समाज के हर वर्ग के लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन क्या समस्या का हल निकला। लोगों के आंदोलन करने के दौरान भी महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाएं कम नहीं हुई। उत्तराखंड के श्रीनगर में तो शाम को कैंडिल मार्च निकला और उसके बाद ही युवती से छेड़छाड़ का मामला प्रकाश में आया। हालांकि महिलाओं ने ऐसे युवकों की पिटाई कर उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया। साथ ही यह भी मनन का विषय है कि महिला के प्रति सम्मान की जो बात हम बचपन से ही बच्चों को सिखाते हैं, क्या ये उन दरिंदों के माता-पिता ने उन्हें नहीं सिखाई। सच तो यह है कि आज एकल परिवार में माता-पिता इतने व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें अपने बच्चों पर नजर रखने की फुर्सत तक नहीं है। पिता का बेटे के साथ बैठकर शराब पीना फैशन सा बन गया है। बेटी के आज भी देरी से घर आने पर हो सकता है उसे बड़े भाई के साथ ही माता-पिता के सवालों का जवाब देना पड़ सकता हो। लेकिन, इसके ठीक उलट बेटे पर तो कोई अंकुश नहीं रहता कि वह कहां जाता है और क्या कर रहा है। मेरी एक मित्र जितेंद्र अंथवाल से आज ही फोन से बात हो रही थी। उसने बताया कि उम्र के तीसरे पड़ाव में भी आज भी उनकी माताजी देरी से घर आने पर दस सवाल पूछने लगती है। माता-पिता का ये भय कहां है आज की युवा पीढ़ी को। साथ ही गुरु का डर भी नहीं रहा है। प्राथमिक स्तर की शिक्षा से ही आज नैतिक शिक्षा की जरूरत है। स्कूल के साथ ही ऐसी शिक्षा माता-पिता या अभिभावकों को भी बच्चों को देनी होगी। तभी हम समाज में बदलाव की बात को अमलीजामा पहना सकेंगे।
दामिनी की चिता जली और पूरे देश में वहिशयों के खिलाफ एक मशाल जली। शोक संवेंदना वालों का तांता लग गया। ऐसे लोगों में फिल्मी हस्तियां भी पीछे नहीं रही। सेलिब्रेटी के बढ़चढ़कर बयान आए। मानों की महिला उत्पीड़न की चिंता उन्हें ही है। यदि वास्तव में वे इतने गंभीर हैं तो उन्हें भी नए साल में ये संकल्प लेना चाहिए कि भविष्य में वे ऐसी फिल्मों से परहेज करेंगे जो विभत्स हो और समाज को बुराई की तरफ धकेलने के लिए प्रेरित करती हो। समाज को क्या शिक्षा दे रही हैं ये फिल्मी हस्तियां। ये तो हत्या या अन्य वातदात के तरीके सिखा रहे हैं। ऐसी ही एक फिल्म देखकर हरिद्वार में 12 वीं के छात्र ने पांचवी की छात्रा की हत्या करने के बाद उसके घर अपहरण का फोन किया और फिरौती मांगी।
नए साल की पूर्व संध्या पर उत्तराखंड में कई संगठनों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम निरस्त कर दिए। यानी सादगी से नए साल का स्वागत किया गया। इस स्वागत के बीच हमें बदलाव का संकल्प भी लेना चाहिए। यदि हम बच्चे हैं तो हमें संकल्प लेना होगा कि बड़ों को समझे और उनका सम्मान करें। इसके उलट यदि हम बड़े हैं तो हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम बच्चों को यह समझाएं कि क्या गलत है और क्या सही। यदि हम बदलाव की शुरुआत अपने घर से ही करेंगे तो इस समाज में भी इसका असर जरूर पड़ेगा।  
भानु बंगवाल

Saturday, 29 December 2012

Change (story) ....

परिवर्तन (कहानी)....
दुकान का साइनबोर्ड जंग खा चुका था, जो दुकान की हालत को बयां कर रहा था। दुकान को देखकर ऐसा लगता था कि आजकल ही इसमें ताले लग जाएंगे। क्योंकि दुकान में न तो ग्राहक ही आते थे और न ही भीतर बैठे व्यक्ति में उत्साह ही नजर आता था। फिर भी आजकल करते-करते कई साल बीत गए। दुकान में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। जो फर्क पड़ रहा था वो था साइनबोर्ड। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे। साइनबोर्ड के अक्षर धुंधले पड़ रहे थे। जिन्हें दुकान स्वामी ने साइनबोर्ड में कभी अपने ही हाथ से बड़ी लगन से लिखा था। पहले स्वास्थिक का चिह्न था। उसके बाद लिखा था दर्जी प्रेमचंद। अब तो ये अक्षर भी मात्र धब्बे से नजर आते, जो दुकान के पुरानेपन की याद दिलाते रहते।
बाजार में एक बड़े से कमरे की दुकान, जो पूरी खाली थी। उसके भीतर फर्श पर बैठने के लिए एक टाट-पट्टी बिछी थी। तिहरे किए गए एक अलग टाट को बिछाकर आसन बनाया गया था। इस आसन पर रखी थी एक सिलाई मशीन। आसन पर बैठा करीब 50 वर्षीय प्रेमचंद धीमी रफ्तार से सिलाई मशीन चला रहा था। कुछ साल पहले तक प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार काफी तेज थी। उसके हुनर की चर्चा दूर-दूर तक थी। दूर-दूर से लोग उसके पास कपड़े सिलाने आते। वह भी सस्ते में कपड़े सिलकर देता। दुनियां की रफ्तार बढ़ रही थी और प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार धीमी होती जा रही थी। उसके पास पुराने ग्राहक ही कभी-कभार आते। नई पीढ़ी को शायद उसके हुनर पर विश्वास नहीं था। प्रेमचंद की बगल में लकड़ी की एक संदूकची रखी थी। इसमें वह सिलने के लिए आए कपड़े रखता था। साथ ही इस संदूक का प्रयोग ग्राहक को बैठाने के लिए करता था। दीवार की खूंटियों पर कुछ सिले कपड़े टंगे थे। दीवारों में करीब बीस साल से रंग रोगन तक नहीं हुआ था। ऐसे में दुकान से सीलन की बदबू भी आती थी। 
शरीर से दुबला, सांवला रंग, झुर्रियों वाला चेहरा, गंजा सिर। सामने के तीन दांत टूटे होने के कारण प्रेमचंद का उच्चारण भी स्पष्ट नहीं था। उसकी छोटी-छोटी काली आंखों में हमेशा उदासी के बादल छाए रहते। फिर भी वह काफी नम्र व्यवहार का था। अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित प्रेमचंद कड़ी मेहनत करते-करते पचास साल में ही सत्तर का नजर आने लगा। यह सब उसके सच्चे व कड़े परिश्रम का वह कड़ुवा फल था, जिसने उसे उम्र से पहले ही बूढ़ा बना दिया। जहां तक प्रेमचंद को याद है कि उसने न तो कभी किसी का बुरा किया और न ही किसी से झगड़ा। बचपन से ही उसे ऐसे कामों के लिए फुर्सत तक नहीं मिली। जब वह पंद्रह साल का था और शादी का मतलब तक नहीं जानता था तब उसकी शादी करा दी गई। आठवीं तक ही पढ़ पाया और उसे इस पुश्तैनी धंधे में लगा दिया गया। पिता की मौत के बाद दुकान की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई। वह अन्य दर्जी से कम कीमत में कपड़े सिलता और पत्नी व अपना पेट भरने लायक कमा लेता।
प्रेमचंद की पत्नी सुक्की ने जब जुड़वां बेटों को जन्म दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह खुशी कुछ साल तक ही रही। जब बेटे चार साल के हुए तो सुक्की का स्वर्गवास हो गया। अब प्रेमचंद पर पिता के साथ ही माता की जिम्मेदारी भी आ गई, जो उसने बखूबी निभाई। उसे परिवार व रिश्तेदारों ने सलाह दी कि दूसरी शादी कर ले, लेकिन उसने अपने बेटों राघव व नंदू की खातिर ऐसा करने से मना कर दिया।
प्रेमचंद की इच्छा थी कि वह अपने बेटों को अच्छी शिक्षा देने के बाद इसी पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ाएगा। समय से उसने बेटों का अच्छे स्कूल में दाखिला कराया। उसने दिनरात खूब मेहनत की। बेटों ने बीए कर लिया तो प्रेमचंद ने उनसे दुकान संभालने को कहा। इस पर राघव ने कहा कि पढ़-लिखने के बाद अब वह वह कपड़े सिलने का काम नहीं करेगा। यही जवाब नंदू का भी था। दोनों ने कहा कि वे कहीं नौकरी करेंगे। दुकान में तो यह भी भरोसा नहीं रहता है कि ग्राहक आएगा या नहीं। अगर पढ़े -लिखे न होते तो यह काम कर लेते, लेकिन अब संभव नहीं है। यदि उनके दोस्त उन्हें कपड़े सिलते देखेंगे तो वह कैसे उनका सामना करेंगे।
राघव न नंदू दोनों ही नौकरी की तलाश कर रहे थे, लेकिन सफलता नहीं मिल रही थी। मिलती भी कैसे। होशियार जरूर थे, लेकिन सिफारिश उनके पास नहीं थी। सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत देने मे भी वे असमर्थ थे।
दुकान में बैठे प्रेमचंद को यही चिंता सताती कि बेटों का क्या होगा। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि आज जो हो जाए, लेकिन वह घर जाकर बेटों को समझाएगा और दोनों को दुकान पर बैठने को राजी करेगा। यदि वे नहीं माने तो उन्हें घर से निकाल देगा। मन में  दृढ़ निश्चय कर दो घंटे पहले ही वह दुकान बंद कर घर चला गया। अपना फैसला सुनाने की प्रेमचंद को उतावली हो रही थी। उसने घर की तरफ दौड़ लगा दी। उसे भय था कि कहीं उसके मन में उठे विचार देर होने पर छू मंतर न हो जाएं। उसका मकसद बेटों को खुशहाल देखना था। साथ ही उसे दुख हो रहा था कि उसने बेटों को ज्यादा क्यों पढ़ाया। नई युवा पीढ़ी तो पुश्तैनी धंधे को ही बेवकूफी का काम मान रही है। उसे तरस आ रहा था इस संकीर्ण मानसिकता पर। आजकल युवा पीढ़ी किसी फैक्ट्री या आफिस में दूसरे की गुलामी कर अपने को बड़ा समझती है, जबकि अपने ही घर के काम को घटिया करार देती है। घर के दरवाजे पर ताला लटका देखते ही प्रेमचंद दुखी हो गया। उसने कांपते हाथों से ताला खोला। देर तक बेटों का इंतजार करता रहा। समय काटने के लिए चाय बनाकर पी। फिर चारपाई में निढाल होकर लेट गया।
रात करीब नौ बजे राघव ने उसे जगाया-पिताजी खाना खा लो। नौ बज गए हैं नंदू ने कहा। साथ ही पूछा आज आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या। प्रेमचंद दोनों बेटों को घूर रहा था। साथ ही यह अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि उस समय दिन के नौ बजे हैं या रात के। खाना खाने के बाद उसने दोनों बेटों को समीप बुलाया। वह समझाने के लहजे में बोला-देखो बेटा तुम दोनों को दुकान का काम नापसंद है। मैने भी कभी दोनों से इस काम की जबरदस्ती नहीं की। मैं समझता था कि दोनों पढ़े लिखे हो। कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी। रोज इतना संघर्ष के बाद भी तु्म्हें कोई सफलता नहीं मिलते देख मुझे लगता है कि दोनों को पढ़ा-लिखा कर मैने गलती की। यदि बचपन से ही दोनों को दर्जी के काम में लगाता तो आज तुम दुकान संभाल रहे होते। ये बात मैं भी मानता हूं कि जीवन भर इस दुकान में बैठने के बाद भी मैने सिर्फ पेट की आग बुझाने के अलावा कुछ नहीं कमाया। जबकि मेरी दुकान में उत्तम किस्म की सिलाई होती है। सिलाई की दर भी सस्ती है। फिर भी ग्राहक कम आते हैं। मुझे चिंता इस बात की है कि मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा। मेरी सलाह है कि नौकरी को तलाशते रहो साथ ही दुकान का काम भी सीखते रहो। यदि नौकरी मिल जाए तो बेशक दुकान का काम छोड़ देना।
राघव व नंदू बड़ी गंभीरता से प्रेमचंद के उपदेश सुन रहे थे। उन्हें प्रेमचंद एक तपस्वी नजर आ रहा था। जो अपने तप से अर्जित ज्ञान के अमृत की वर्षा उन पर कर रहा था। सुझाव दोनों भाइयों को पसंद आया। फिर तय हुआ कि एक दिन राघव
दुकान में बैठकर काम सिखेगा और नंदू नौकरी की तलाश में जाएगा। दूसरे दिन नंदू सिखेगा तो राघव काम की तलाश करेगा। सीखने का क्रम आरंभ हुआ। जैसे-जैसे सीखने की एक सीढ़ी को वे पार करते, वैसे-वैसे उनकी सीखने की ललक बढ़ती जाती। पुरानी पीढ़ी का हुनर और आधुनिक स्टाइल के बीच तालमेल बैठाते हुए वे कपड़े तैयार कर रहे थे। काम के प्रति उनका प्यार बढ़ता गया और नौकरी की तलाश कम होती चली गई। वे सप्ताह में एक बार नौकरी की तलाश में निकलते। बाद में उन्होंने तलाश ही बंद कर दी और प्रतिदिन नियमित दुकान पर बैठने लगे। इसका असर यह हुआ कि कुछ ग्राहक भी बढ़े और दो नई सिलाई मशीन भी खरीद ली गई। अब राघव व नंदू कपड़े सिलते और प्रेमचंद तुरपाई, काज, बटन आदि का काम करता।
जब कुछ पैसे बचने लगे तो प्रेमचंद ने कहा कि अब वह दोनों भाइयों का घर बसाने के लिए लड़की तलाशनी शुरू करेगा। इस पर राघव व नंदू ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी दुकान को बेहतर बनाना है। इसके लिए दुकान में नया रंग रोगन करने के साथ ही फर्नीचर आदि खरीदना होगा। कुछ राशि उधार लेकर दुकान को नए रंग-रूप में सजाया गया। चमचमाता साइनबोर्ड लगाया गया। उस पर लिखा गया-प्रेमचंद फैशन डिजाइनर। इधर नया साइनबोर्ड लगा और प्रेमचंद की दुकान के दिन ही बहुरने लगे। ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही दुकान की सजावट भी बढ़ाई जाने लगी। तीन मशीन से छह हुई और फिर दस। नए कारीगर रखे गए। कारीगर काम करते और बेटों को ग्राहक से जूझने में ही सारा समय लग जाता। प्रेमचंद हैरान था कि जितने ग्राहक उसकी दुकान में पहले एक महीने में आते थे, उससे कहीं ज्यादा एक ही दिन में आते हैं। अब उसके यहां सिलाई की दर भी दूसरों से ज्यादा थी। इसका रहस्य भी वह जान गया था जो चमक-दमक, रंग-रोगन व साइन बोर्ड में छिपा था। जैसे -जैसे साइनबोर्ड का आकार बढ़ता, उसके साथ ही दुकान का विस्तार भी होता। केवल एक चीज घट रही थी। वो थी प्रेमचंद की मानसिकता। उसे पुराने प्रेमचंद से नफरत होने लगी। उसके भीतर से सच्चाई, शालिनता, ईमानदारी, करुणा की बजाय चपलता, फरेब चापलूसी ने जन्म ले लिया। इसका उपयोग वह काउंटर में बैठा हुआ ग्राहकों से बातचीत में करता। साथ ही उन कारीगरो से उसका व्यवहार काफी कठोर रहता, जो कड़ी मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी बामुश्किल जुटा पाते थे। प्रेमचंद को उनमें पुराने प्रेमचंद की छवि दिखाई देती थी। इसलिए वह उनसे घृणा करता था कि कहीं वे भी आज का प्रेमचंद न बन जाए।
भानु बंगवाल     

Friday, 28 December 2012

Signboard (poem)

साइनबोर्ड (कविता) 
सड़क के दोनों ओर
लगे थे दो साइनबोर्ड
एक पर लिखा था
रुकिए, देखिए और जाइए
मैं रुका, मैने देखा
और चलने लगा
तभी देखा दूसरे साइनबोर्ड पर
लिखा था
व्यर्थ में समय न गवांइए

Tuesday, 25 December 2012

Wedding sweets and budget of Hinjdon

शादी के लड्डू और हिंजड़ों का बजट
कहावत है कि शादी के लड्डू को जो खाए वह भी पछताए और जो न खाए वो भी पछताए। फिर भी ये शादी के लड्डू हैं बड़े की मजेदार। शादी करने वाले से लेकर कराने वालों के साथ ही विवाह समारोह में शामिल होने वालों में इसके लिए खासा उत्साह होता है। परिवार में किसी शादी के लिए तो महिलाएं व बच्चे तो पहले से ही योजना बनाने लगते हैं। लेडिज संगीत, मंगल स्नान, बारात, रिसेप्शन में किस रंग की साड़ी, लहंगा या सूट पहना जाए। इसके लिए पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती है। बच्चे भी माता-पिता से अपनी पसंद के कपड़ों के लिए जिद करते हैं। अक्सर ऐसे मौकों पर मेरी पत्नी व बच्चों की जब फरमाइश पूरी होती है, तो मेरा नंबर आते ही बजट समाप्त हो जाता है। ऐसे में पुराने कपड़ों पर ही प्रेस मारकर काम चला लेता हूं। सर्दियों में जब भी शादी होती है, तब मेरी शादी के वक्त के वो तीन सूट ही काम आते हैं, जिनके बाद मैं आज तक सूट सिलाने का साहस नहीं कर सका।
मेरी बहन केंद्रीय संस्थान में सरकारी नौकरी पर है। जीजा भी आबकारी विभाग में है। उनका एक ही बेटा है, जिसकी शादी तय हो रखी है और उसकी तैयारी में वे मशगूल हैं। जब भी बहन मिलती है, या फिर फोन से बात होती है, तो आजकल उसका बात का टोपिक भी शादी का ही होता है। मुझसे वह बारात में लोगों की सूची, खाने का  मैन्यू आदि पर चर्चा करती रहती है। लगभग सब फाइनल हो चुका है। एक माह बाद फरवरी में बारात दिल्ली जानी है। ऐसी ही चर्चा के दौरान मैने बहन को सतर्क किया कि सब चीजों का अनुमानित बजट बना लिया होगा, लेकिन बजट में कम से कम पांच से दस हजार रुपये शादी के बाद के लिए बचाकर रखना। अचानक किसी दिन हिंजड़े आएंगे और बधाई के लिए ठुमके मारने लगेंगे। उनके साथ बार्गेनिंग करना भी हरएक के बस की बात नहीं। चाहे कोई पुलिसवाला हो, नेता हो या फिर पत्रकार। वे किसी की नहीं सुनते। कई बार तो लोग शादी के दौरान ही सब कुछ खर्च कर जाते हैं। जब हिंजड़ों की बारी आती है तो कुछ भी पल्ले में कुछ बचा नहीं रहता। ऐसे में घर में ड्रामा होना निश्चित होता है। बहन ने बड़ी सरलता से कहा कि उनकी चिंता नहीं है। कितना लेंगे, दस या पंद्रह हजार। वो मैने बजट में शामिल कर रखा है। उसके लिए कितना आसान था यह बजट। कई तो इस बात से ही घबराते हैं कि इस तीसरी कौम को कहां से पैसा देंगे।
सच कहो तो इस दुनियां में मैं भी किसी से यदि डरता हूं तो वे हिंजड़े ही हैं। कभी किसी जमाने में किन्नरों को राजा लोग गुप्तचर के रूप में इस्तेमाल करते थे। आज तो उनकी जासूसी हर गली व मोहल्लों में है। मेरे पड़ोस में एक बेचारा छोटी मोटी नौकरी करता था। साथ में उसकी पत्नी भी थी। पहला बच्चा जब लड़का हुआ तो कई दिन तक उन्होंने बच्चे के कपड़े छत में इसलिए नहीं सुखाए कि किसी को यह पता नहीं चल सके कि घर में छोटा बचा हुआ है। करीब आठ हजार वेतन में मकान किराया व अन्य खर्च के बाद एक पैसा उसके पास नहीं बचता। वह आधा वेतन हिंजड़ों को नहीं देना चाहता था। ऐसे में वह सुबह घर से भाग जाता। शाम को देर से घर आता। यह छुपनछुपाई ज्यादा दिन नहीं चल सकी। मोहल्ले के धोबी, नाई, मालन, कामवाली बाई सभी तो इन हिंजड़ों के सूचना तंत्र हैं। एक दिन उन्होंने पड़ोसी को पकड़ ही लिया और शुरू कर दिए उसके घर में ठुमके लगाने। कुछ पड़ोसियों ने बचाव किया और बार्गेनिंग हुई। तब तरस खाकर वे इक्कतीस सौ रुपये में माने।
पहले तो लड़की की शादी, बेटी के पैदा होने पर हिंजड़े नहीं आते थे, लेकिन अब तो शादी हो या फिर बच्चा हो, नया मकान बनाया हो तो हिंजड़ों का बजट जरूर रखना चाहिए। ना जाने कब आ धमकें। कई बार तो एक पार्टी से छुटकारा मिलता है तो दूसरी आ धमकती है। उनका अपना एरिया का झगड़ा होता है, लेकिन पिसता वो व्यक्ति है, जिसके घर वे आते हैं। करीब 14 साल पहले की बात है। उन दिनों मैं सहानपुर था। एकदिन मैं समाचार पत्र के आफिस में बैठा समाचार लिख रहा था कि पीछे से आवाज आई कि मेरी विज्ञप्ति भी छाप दे। मैने पीछे देखे बगैर कह दिया कि विज्ञप्ति टेबल में रख दो देख लूंगा। इस पर विज्ञप्ति लाने वाला बोला कि मेरे सामने ही समाचार लिख। तब ही जाऊंगी। आवाज मर्दाना, लेकिन खुद को जनाना बताने वाले शक्स को देखने के लिए मैने गर्दन पीछे घुमाई। वह मेरे सिर के पास तक पहुंच गया था। उसे देखते ही मेरे बदन में झुरझुरी सी उठ गई। वह सलवार-कमीज पहने हुए एक हिंजड़ा था। उसने मुझे देखते ही अपने लहजे में अजीब सा मुंह  बनाया और आंखों से इशारा किया। उसे देखते ही मैं डर गया। मैने उससे पीछा छुड़ाने के लिए विज्ञप्ति ले ली, लेकिन वह जिद में अड़ा रहा कि उसका समाचार उसके सामने ही बनाकर भेजा जाए। वह किसी दूसरे हिंजड़े की शिकायत लेकर आया था। उसका कहना था कि वे असली हिंजड़े नहीं हैं। नकली हिंगड़ों का गिरोह मोहल्लों में जाकर बधाई मांगता है। ऐसे नकली से लोगों को बचना चाहिए। इस दिन से मुझे एक बात समझ में आई कि उनमें भी असली व नकली की लड़ाई है। किसी तरह उसे आफिस से चलता कर मैने हिंजड़ों की लड़ाई पर एक रोचक समाचार भी लिखा और समाचारपत्र में प्रकाशित भी हुआ।
उन्हीं दिनों मेरी पत्नी ने बेटे को जन्म दिया। जब वह गर्भवती थी तभी हर महीने के वेतन से मैंने कुछ पैसे डिलीवरी के नाम से बचाने शुरू कर दिए थे। साथ ही हिंजड़ों के लिए तब पांच सौ रुपये भी अलग से रखे। सरकारी अस्पताल में नार्मल डिलीवरी के कारण बजट नहीं बिगड़ा। बच्चा होने के बाद पत्नी मायके पर ही थी। एक दिन वहां दो हिंजड़े पहुंच गए। उन्हें समझाया कि यह लड़की का मायका है। जब वह पति के घर जाएगी वहीं जाना, लेकिन वे नहीं माने और पत्नी से पांच सौ रुपये और साड़ी लेकर ही घर से टले। अक्सर नवजात शिशु को पीलिया हो जाता है। मेरे बेटे को भी पीलिया की शिकायत पर डाक्टर ने उसे सुबह व शाम की धूप दिखाने की सलाह दी। एक सुबह मैं घर की खिड़की के पास बैठा धूप दिखा रहा था,तभी कमरे में करीब पांच-छह हिंजड़ों की टोली आ गई। उन्हें समझाया गया कि दो दिन पहले ही हिंजड़े आए थे और बधाई लेकर चले गए। इस पर टोली की मुखिया बिगड़ गई और कहने लगी कि पहले वालों को भले ही तुमने पांच सौ रुपये दिए, लेकिन मैं तो इक्यावन सौ रुपये लेकर ही जाऊंगी। वह जोर से ताली पीट रही थी और बच्चा रो रहा था साथ ही मैने मन में हथौड़े चल रहे थे। मैने उन्हें डांटा तो वे एक साथ कपड़े उतारने का उपक्रम करने लगे। तभी मुझे कुछ दिन पूर्व आफिस में आए हिंजड़े की बात याद आई। मैने उनसे कहा कि यदि कपड़े उतारने हों तो उतार लो। आज असली व नकली का भी फैसला हो जाएगा। फिर तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा। दो-दो बार किस बात की बधाई दी जाए। उन्हें मैं घर के गेट के बाहर तक ले आया। अचानक एक मुझे डराने लगा कि पहले अपने गुरु को लाउंगी और तूझे पहनाऊंगी सलवार, घुमाऊंगी गली-गली।
मैं थाने में जाकर उनकी रिपोर्ट कराने को बाहर निकला। उनका मुझसे लड़ने का भी अंदाज कुछ निराला था। तब तक उनमें से एक मुझसे कहने लगा कि-चल थाने, चल थाने। जितनी बार वह चल थाने कहता साथ ही मेरे पेट पर भी हथेली से धकियाता। मैं उसके वार से बचने को एक कदम पीछे होता और वह फिर कहता चल थाने। जितनी बार वह चल थाने कहता उतनी बार उसका सहयोगी ढोलक पर थाप भी देता। आसपड़ोस के लोग छतों से तमाशा देख रहे थे। तभी एक महिला ने साहस कर बोला कि जब एक बार ये बधाई दे चुके हैं तो दोबारा किस बात की। खैर किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाया गया, लेकिन मैने दूसरी बार बधाई के नाम पर अपने वेतन का करीब छठा हिस्सा उन्हें नहीं दिया। वे अपने गुरु व पहली बार बधाई ले गए हिजड़े को साथ लाने की बात कहकर गए, जो उसके बाद फिर दोबारा नहीं आए।
भानु बंगवाल         

Wednesday, 19 December 2012

Rape and truth of punishmeint

बलात्कार और सजा का सच......
दिल्ली में रविवार की रात एक फिजियोथेरेपिस्ट के साथ चलती बस में सामूहिक दुष्कर्म को लेकर पूरे देश में सड़क से लेकर संसद तक भूचाल सा आ गया। लोग सड़कों पर उतरे और दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी की सजा की मांग करने लगे। बलात्कार के मामले में कड़ी सजा पर बहस छिड़ गई। साथ ही यह आवश्यकता भी जताई जाने लगी कि ऐसे मामले फास्ट ट्रेक कोर्ट में सुने जाएं और जल्द ही दोषियों को सजा मिले। बलात्कार के खिलाफ पूरे देश भर में आवाज उठना अच्छी बात है। यह इस मुद्दे पर लोगों की एकजुटता को भी प्रदर्शित करता है। साथ ही यह भी सोचनीय प्रश्न है कि राजधानी दिल्ली जैसे स्थान पर ही कोई घटना होने पर ही इतना बबाल क्यों मचता है। मुझे याद है कि करीब पैंतीस साल पहले दिल्ली में चौपड़ा दंपती के बच्चों संजय व गीता के अपहरण के बाद उनकी हत्या करने के मामले में भी इसी तरह पूरे देश भर में आवाज उठी थी। इस मामले में दो कार चोर रंगा व बिल्ला को पुलिस ने गिरफ्तार किया और बहुत जल्द सुनवाई होने के बाद ही दोनों को फांसी भी हो गई थी। ये मामले दिल्ली के थे, तो राजधानी में बैठे सांसदों ने भी इन्हें गंभीरता से लिया। इसके विपरीत हर साल देश भर के विभिन्न इलाकों में हर रोज बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं। कई मामलों में तो लोक लाज से भय से आरोपियों के खिलाफ आवाज तक ही नहीं उठती और शिकार युवतियों की चींख हलक से बाहर तक नहीं निकलती। ऐसा नहीं है कि ऐसे मामले इन दिनों ही ज्यादा हो रहे हैं। ये तो सदियों से होते आ रहे हैं और ऐसे मामलों के आरोपियों को सजा दिलाने का साहस हर कोई नहीं कर पाता। ऐसा ही एक मामला करीब पैंतीस साल पहले देहरादून में हुआ, जिसमें बलात्कार की शिकार युवती की चींख उसके मन में ही घुंट कर रह गई। इस बात का गवाह सारे मोहल्ले को सांप सुंघ गया और आरोपी की शिकायत पुलिस थाने तक भी नहीं पहुंची।
करीब पैंतीस साल पहले देहरादून में दो गिरोह के बीच गैंगवार चल रही थी। शाम को कहीं न कहीं गोलीकांड देहरादून में आम बात हो गई थी। देहरादून में मसूरी की तलहटी से निकलने वाली एक बरसाती नदी से सटे एक मोहल्ले में ऐसे ही एक गिरोह का गुंडा रहता था। इस गुंडे की खासियत थी कि वह मोहल्ले के लोगों से उलझता नहीं था। फिर भी मोहल्ले में लोग उससे डरते थे और सामने से दिखाई देने पर रास्ता बदल देते। इसी मोहल्ले में एक ट्रक ड्राइवर डेनी रहता था। डेनी की पत्नी के बारे में कहा जाता था कि या तो वह मर गई थी या फिर किसी के साथ भाग गई थी। उसकी एक बूढ़ी मां थी और एक बेटी बेबो थी जो जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी।
बेबो करीब 16 साल की हुई तो वह गुंडे की दादागिरी से काफी प्रभावित होने लगी। दुकानदार के सामने उसका नाम लेकर कई बार वह बाजार से मुफ्त सामान भी ले आती। बेबो की आसपड़ोस के लोग समझाते, लेकिन उसकी समझ में किसी की बात नहीं आ रही थी। पैंतीस साल पहले ही बिहार के भागलपुर क्षेत्र में पुलिस ने कुछ लोगो को डकैती के आरोप में पकड़ा था। ऐसे लोगों के चेहरे में तेजाब डाल दिया गया। इनमें से कई की नेत्र ज्योति भी चली गई थी। ऐसे ही कुछ दृष्टिहीनों को पुनर्वास के लिए देहरादून के राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में प्रशिक्षण को भेजा गया। जो क्रूर डकैत कहलाते थे, वे अन्य दृष्टिहीनों के साथ प्रशिक्षण ले रहे थे। बोलचाल में वह इतने शालिन थे कि कोई यह कह ही नहीं सकता था कि उनका इतिहास हत्या व डकैती का रहा होगा। हां दृष्टिहीन होने के बावजूद सभी कद-काठी से लंबे चौड़े व फुर्तीले थे।
एक शाम मोहल्ले के गुंडे को ना जाने क्या सूझी। पहले उसने अपने दोस्तों के साथ एक मैदान में शराब पी और जब अंधेरा गहरा गया तो चल दिया डेनी के घर। बेबो घर में थी। उसे घसीटता हुआ गुंडा अपने साथ ले गया। डेनी ने गुंडे के पांव पकड़े और गिड़गिड़ाया, वह रोया,  लोगों से मदद को चिल्लाया। इसके विपरीत मोहल्ले के लोगो को मानो सांप सूंघा हुआ था। गुंडा बेबो को एकांत में जंगल की तरफ ले गया, जहां उसके साथी पहले से इंतजार कर रहे थे। बेचारा डेनी मदद के लिए इधर-उधर भागा और उस बैरिक तक पहुंच गया, जिसमें भागलपुर से आए करीब पांच डकैत रह रहे थे। उसने डकैतों को अपना हाल सुनाया और मदद मांगी। इस पर एक डकैत ने उसे सलाह दी की पुलिस थाने चला जाए। इस पर डेनी ने कहा कि यदि वह ऐसा करेगा तो गुंडा उसे और उसकी बेटी को जान से मार देगा। बस मेरी बेटी को गुंडे की चुंगल से छुड़ा दो। जब तक डकैत बेबो को बचाने मौके पर पहुंचे तब तक काफी देर हो चुकी थी। कुछ गुंडों की दरिंदगी का शिकार बनी इस युवती को उन लोगों ने छुड़ाया, जिनकी पहचान डकैत की थी। इस घटना के अगले दिन डेनी अपनी बेटी व मां के साथ घर छोडकर कहीं और चला गया। इसके बाद से उसे और उसकी बेटी को आज तक मैने भी नहीं देखा।
भानु बंगवाल       

Saturday, 15 December 2012

Truth of the Operation

आपरेशन का सच.....
शुक्रवार के दिन टिहरी जनपद के कीर्तिनगर में आयोजित किए गए परिवार नियोजन के एक शिविर में महिला की आपरेशन के बाद तबीयत बिगड़ी और वह बेहोश हो गई। अफरा-तफरी में परिजन महिला को श्रीनगर गढ़वाल के बेस चिकित्सालय ले गए, जहां चिकित्सक भी महिला को बचा नहीं सके। इस मामले में चिकित्सकों ने तुर्रा मारा कि महिला की मौत घबराहट से हुई। इस समाचार ने सभी को चौंकाया कि नसबंदी के एक छोटे से आपरेशन पर भी क्या किसी को जान से हाथ धोना पड़ सकता है। ऐसी नौबत आने के लिए क्या इसे चिकित्सकों की लापरवाही नहीं कहा जाएगा। इस मामले में महिला के पति ने चिकित्सकों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए थाने में रिपोर्ट भी लिखाई और पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने के साथ ही पोस्टमार्टम कराकर अपने फर्ज की इतिश्री भी कर दी।
इस घटना से सवाल उठता है कि यदि परिवार नियोजन के मामलों में ऐसी लापरवाही बरती जाने लगी तो आने वाले दिनों में लोग इस सबसे आसान तरीके को अपनाने में भी घबराएंगे। ऐसे में बढ़ती जनसंख्या पर अंकुश लागना भी संभव नहीं हो सकेगा। एक यह भी सच है कि परिवार नियोजन के आपरेशन कराने में अक्सर महिलाओं को ही आगे किया जाता है। इसकी तस्दीक सरकारी आंकडे़ भी करते हैं कि ऐसे आपरेशन कराने वालों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या ज्यादा है। पुरुष तो हर मामले में महिला को ही आगे कर देता है। महिला का जीवन ही ऐसा है कि पुरुष प्रधान समाज में जनसंख्या नियंत्रण में भी उसके कंधे पर ही जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। ऐसे मामले में या तो काफी जागरूक पुरुष ही आगे आते हैं या फिर मजबूरी में।
एक बार मुझे किसी रिश्तेदार का फोन आया। उन्होंने मुझसे कहा कि उनकी बहन का दामाद देहरादन में रहता है। पहले उसकी एक बेटी आपरेशन से हुई। वह चलने लायक भी नहीं हुई कि दूसरी बेटी ने भी आपरेशन से जन्म दिया। चिकित्सकों ने स्पष्ट कह दिया कि यदि फिर औलाद हुई तो मां की जान जा सकती है। बहन की बेटी दो बच्चों की मां तो बन गई, लेकिन काफी कमजोर है। ऐसे में परिवार नियोजन के लिए उसका आपरेशन तो करा नहीं सकते, लेकिन उसके पति का आपरेशन कराना है। परिचित ने मुझे बताया कि काफी समझाने के बाद दामाद आपरेशन के लिए राजी तो हो गया, लेकिन उसे लेकर तुम्हें अस्पताल जाना होगा। यानी परिचित ने अपनी बहन के दामाद के आपरेशन की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी।
मैं बंटू नाम के इस युवक के घर पहुंचा। उसकी उम्र करीब 27 साल रही होगी। बंटू के साथ ही के उसके माता व पिता से मैं पहली बार मिला। उन्होंने भी मुझसे यही कहा कि बेटा तू ही इसे अस्पातल ले जाकर आपरेशन करा। नहीं तो हमारी बहू मुसीबत में पढ़ जाएगी।
बंटू को मैं देहरादून के सरकारी अस्पताल ले गया। कागजी कार्यावाही पूरी की गई। आपरेशन के नाम से ही बंटू कांप रहा था। उसे आपरेशन कक्ष में कंपाउंडर ले गया। करीब दो मिनट बाद दरवाजा खुला और चिकित्सक बाहर आया। उसने मुझसे कहा कि इस युवक का आपरेशन करना मुश्किल है। यह तो घबराहट में कांप रहा है। ऐसी स्थिति में इसका आपरेशन करना संभव नहीं है। चिकित्सक ने मुझसे कहा कि पहले इसे मानसिक रूप से मजबूत करो। इसके भीतर का डर हटाओ तभी आपरेशन कर पाऊंगा। इस पर मैं आपरेशन कक्ष में गया उसे मैं जितना समझा सकता था समझाया। कहा- अपने बच्चों का भविष्य सोच। पत्नी को देख यदि उसे कुछ हो गया तो तेरा और बच्चों का क्या होगा। उसे बताया गया कि ऐसा आपरेशन काफी छोटा होता है। इससे कोई खतरा नहीं होता। बंटू मानसिक रूप से कुछ मजबूत हुआ और आपरेशन के लिए तैयार हो गया और मैं कक्ष से बाहर आ गया।
भीतर बंटू व चिकित्सक था और मैं बाहर इंतजार कर रहा था। बाहर सरकारी चिकित्सालय की एक नर्स भी खड़ी थी। जो कुछ समय पहले मुझे बंटू को समझाते हुए देख रही थी। नर्स को अपना रिकार्ड बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन के केस लाने होते थे। वह परेशान थी कि उसे कोई केस नहीं मिल रहा। उसे मैं काम का नजर आया। वह मेरे पीछे पढ़ गई कि मुझे भी ऐसे केस लाकर दो। उस नर्स की बातें सुनकर मैं बोर हो रहा था। उसने अपनी कार्यप्रणाली से लेकर अब तक कराए गए आपरेशनों की संख्या तक मुझे गिना दी। मैने उसे आश्वासन दिया कि जब भी कोई ऐसा मामला मेरी नजर में आएगा उसे आपके पास ही भेजूंगा।
कुछ देर बाद आपरेशन कक्ष का दरवाजा खुला और बंटू खुद चलकर बाहर आया। उसके हाथ में कुछ गोलियां भी थीं। वह मुझसे कुछ नहीं बोला। मैने पूछा आपरेशन हो गया। इस पर उसने हां में सिर हिलाया। तब मैने उसे कहा कि उसे घर छोड़ आता हूं। कुछ मानसिक रूप से कमजोर होने के बावजूद बंटू बोला कि आपरेशन कराने के पैसे मिलते हैं। पैसे लेकर ही घर जाऊंगा। इस पर हम चिकित्सक की रिपोर्ट लेकर अस्पताल के कार्यालय में बाबू के पास गए। वहां कागजी खानापूर्ति के बाद बंटू को एक सौ का नोट थमाया गया। बंटू को मैने स्कूटर से घर छोड़ दिया। जब मैं वापस जाने लगा तो वह मुझपर बरसने लगा। उसे यही गुस्सा था कि मैने उसका आपरेशन क्यों कराया। वह मेरी शक्ल तक देखना नहीं चाहता था, जबकि उसके घर में सभी खुश थे। मैं चुपचाप उसके घर से बाहर निकल गया। इस घटना के करीब पंद्रह साल हो चुके हैं। उसके बाद से मैने उसे नहीं देखा, लेकिन इतना पता है कि उसकी बेटियां जवान हो गई हैं और परिवार खुशहाल है।
भानु बंगवाल

Wednesday, 12 December 2012

Torch ....

मशाल....
पहाड़ों ने भी ओढ़ ली
बर्फ की चादर
चुपचाप देखते रहे
हम तमाशा
चारों ओर चित्कार के खिलाफ
सी लिए होंठ
चुप्पी तोड़ने की कोशिश में
टूटकर बिखर रहा सच
बिखरा हुआ क्या तोड़ेगा
सन्नाटा
एक लहर उठी, मची हलचल
टूटने लगी चुप्पी
मचने लगा शोर
बंधने लगी मुट्ठियां
जलने लगी मशाल
फिर शुरू हुई
मशाल को बुझाने की कोशिश
यात्राएं तेज हुईं, यज्ञ हुए और महामंत्र
पढ़े जाने लगे
फिर भी ये आग कम नहीं हुई
कम होती भी कैसे
मशालची अपनी झोपड़ियों को जलाकर
बना रहे थे मशाल
भूखे पेट से निकलने लगा
रोटी की मांग के नारों का शोर
एक दिन ये मशाल
जला कर राख कर देगी
चुप्पी का पाठ पढ़ाने वालों को
और रचेगी एक नए समाज को
ये मशाल।
भानु बंगवाल

Monday, 10 December 2012

How this Dry strike ....

ये कैसी सूखी हड़ताल....
देर रात को दफ्तर से घर पहुंचने के बाद सुबह जल्द बिस्तर से उठने का मन नहीं करता। इसके बावजूद जल्द इसलिए उठना पड़ता है कि बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे होते हैं। मंगलवार की सुबह तो छोटे बेटे ने मुझे उठाया और कहा कि स्कूल का समय हो रहा है। आटो अंकल नहीं आएंगे। उनकी हड़ताल है। आपको ही मुझे स्कूल छोड़ना और वापस लाना होगा। ऐसे में बिस्तर छोड़ते ही मैं कपड़ने बदलने में लग गया। खिड़की से बाहर झांका तो देखा कि बाहर कोहरा छाया हुआ है। आसमान में कुछ बादल भी थे। यानी सूर्यदेव भी हड़ताल पर चले गए।
बात-बात पर हड़ताल करने में तो हम भारतवासी महान हैं। राजनीतिक दल हों या फिर सामाजिक संगठन। आएदिन सड़कों पर उतरकर सरकार के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं। जनता के हक की लड़ाई लड़ने वाले ये लोग जब सड़कों पर उतरते हैं, तो शायद सरकार को तो कोई फर्क पड़े न पड़े, लेकिन आमजन जरूर परेशान हो जाता है। उत्तराखंड में तो राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ने के बाद यहां के लोग धरने, प्रदर्शन व आंदोलन में माहिर हो गए हैं। बात-बात पर जुलूस व प्रदर्शन के लिए सचमुच यहां के लोगों को आलस तक नहीं आता। गांधीवादी तरीके से आंदोलन तो करते हैं, साथ ही सरकार, मंत्री या फिर किसी भी नेता का पुतला फूंकने में भी देरी नहीं लगाते। यदि प्रदर्शन के दौरान मीडिया वाले नजर आ जाएं, तो कैमरे में नजर आने के लिए ऐसी होड़ मचती है कि कई बार घंटों तक रास्ता जाम भी कर दिया जाता है।
निजी परिवहन की हड़ताल से मैं खुश इसलिए था कि सड़क पर वाहनों का जमावड़ा नजर नहीं आएगा। चलो एक दिन सड़कों पर कुछ प्रदूषण तो कम होगा। देहरादून की सड़कों पर भले ही निजी बसें, टैक्सी, ऑटो आदि नहीं चले, लेकिन वाहन भी कम नहीं थे। लोग अपने संसाधनों से ही बच्चों को स्कूल छोड़ रहे थे। खुद दफ्तर को निकल रहे थे। ऐसे में सड़क पर अन्य दिनों की भांति चहल-पहल जरूर थी, लेकिन ज्यादा भीड़  नहीं थी। सड़कें कुछ चौड़ी नजर आ रही थी। साथ ही सड़कों पर जाम नहीं लग रहा था। कई लोग पैदल ही अपने गंतव्य को जा रहे थे। कई स्कूलों ने तो छुट्टी ही घोषित कर दी। कई स्कूल खुले और अभिभावकों की स्कूलों तक दौड़ लगी। स्कूलों में बच्चे भी कम पहुंचे, वहीं सरकारी दफ्तरों व स्कूलों में तो कर्मियों को देरी से आने का बहाना ही मिल गया। कई तो कड़ाके की ठंड में घर से बाहर ही नहीं निकले। बहाना ये था कि अपना संसाधन है नहीं। दस से बीस किलोमीटर दूरी तक काम में कैसे पहुंचते।
इस हड़ताल से उदासीराम काफी मायूस थे। उन्हें यही दुख सता रहा था कि सिर्फ सवारी वाहनों की ही हड़ताल क्यों हुई। ट्रांसपोर्ट कंपनियों, एसोसिएशन आदि ने इस बार अपनी सेवाएं बंद रखने का ऐलान किया हुआ था। यानी प्राइवेट टैक्सी, बस व अन्य सवारी वाहनों का चक्का जाम था। इस आंदोलन से सरकारी संस्थान, शिक्षण संस्थाओं, बाजार को मुक्त रखा गया। कई बार तो जब चक्का जाम होता था तो उसे प्रभावी बनाने के लिए व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ ही शिक्षण संस्थाओं, सरकारी व निजी दफ्तरों को बंद करने का भी ऐलान कर दिया जाता था। ऐसे में तो उदासीराम जी की मौज आ जाती थी। उनका दफ्तर शहर से कुछ दूरी पर था। इस पर जब कभी आंदोलनकारी उनके दफ्तर को बंद कराने नहीं पहुंचते, तो वह स्वयं उनके पास जाते और यह सूचना देते कि एक दफ्तर वहां चल रहा है। ऐसे में आंदोलनकारी दफ्तर बंद कराने पहुंचते। दफ्तर के आगे नारेबाजी करते और फिर कर्मचारी बाहर निकलते और दफ्तर बंद हो जाता। सभी कर्मी घर चले जाते। आसमान से बूंदाबांदी शुरू हो गई और वह हड़ताल करने वालों को ही कोस रहे थे कि इस बार कैसी सूखी हड़ताल कर दी।
भानु बंगवाल

Saturday, 8 December 2012

Hopes for happines during sadness

दुख की घड़ी में सुख की आस....
दुख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। इंसान की जिंदगी में इनके आने-जाने का क्रम लगा रहता है। कई बार जब सुख की बारी आती है, तो उसका क्रम चलता रहता है। फिर ऐसा लगता है कि ये दुनियां काफी खूबसूरत है। इसके विपरीत जब दुखों की झड़ी लगती है, तो व्यक्ति निराश होने लगता है। ऐसे में धारा के विपरीत जो तैरना जानते हैं, वे दुख को रोक तो नहीं सकता है, लेकिन उसका डटकर मुकाबला कर प्रभाव को कुछ कम जरूर कर देते हैं। वैसे तो सुख व दुख किसी व्यक्ति के लिए निजी हो सकते हैं,  लेकिन उसका प्रभाव आसपास के परिवेश के लोगों पर भी पड़ता है। ऐसे में सुख व दुख के भागीदारी उसे भोगने वाले व्यक्ति के संबंधी व पहचान वाले भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से  बनते हैं। यानी एक व्यक्ति दुखी हुआ तो उसके घर परिवार के सदस्यों से साथ ही ऑफिस तक के साथियों पर इसका असर पड़ता है।
एक ऑफिस के एक केबिन में करीब आठ लोग एकसाथ बैठकर कार्य निपटाते आ  रहे थे। यदि किसी साथी का अवकाश होता तो दूसरे साथियों पर उसके कार्य की जिम्मेदारी आ जाती। बड़े मजे से काम चल रहा था। आपसी समन्वय कर सभी ऑफिस का काम निपटाते थे। एक दिन बगल के तीन व्यक्तियों वाले दूसरे छोटे केबिन का एक साथी दुर्घटना में घायल हो गया और उसकी टांग टूट गई। तो वहां की सारी जिम्मेदारी बाकी बचे दो साथियों पर आ गई। कुछ दिन बाद एक साथी और नौकरी छोड़कर चला गया। ऐसे में दूसरा केबिन खाली होने लगा तो बड़े केबिन से एक साथी को वहां की दोहरी जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। खींचतान कर दोनों केबिन का काम फिर पटरी पर आ गया। घायल व्यक्ति के बदले नई भर्ती नहीं की जा सकती थी। क्योंकि जब वह ठीक होकर आता तो फिर से उसे अपना कार्य संभालना था। ऐसे में आठ व्यक्तियों वाले केबिन से ही कार्य में मदद दी जा रही थी।
समय भी तेजी से करवट बदलता है। इस बड़े केबिन में जैसे कोई ग्रहण लग गया। केबिन के कुछ साथियों को दुख ने घेरना शुरू कर दिया। एक दिन बारू नाम का व्यक्ति को घर से दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसकी करीब 83 साल की माता जी की चीख उसे सुनाई दी, जो घर के बरामदे में जमीन पर लेटी थी। बारू दौड़कर अपनी माताजी के पास गया और उसे उठाने का प्रयास किया। उसकी माताजी अपना शरीर सीधा तक नहीं कर पा रही थी। कार से माताजी को अस्पताल पहुंचाया गया। पता चला कि रीड़ की हड्डियां टूट गई हैं। करीब पंद्रह दिन अस्पताल में रखने के बाद चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। कहा कि अब घर ले जाकर उनकी बिस्तर पर ही सेवा करो। करीब पंद्रह दिन बाद बारू ने फिर से ऑफिस आना शुरू किया। अब बारू पर हर सुबह उठकर पत्नी के साथ माताजी का बिस्तर साफ करना, नहलाना, बिस्तर पर ही उनके कपड़े बदलना आदि कार्य की जिम्मेदारी आ पड़ी। बारू भी बेटा धर्म निभा रहा था। जितने दिन बारू ऑफिस नहीं आया, उतने दिन उसके कार्य की जिम्मेदारी भी केबिन के साथियों ने आपस में बांट ली थी। करीब तीन माह बीते कि तभी एक दिन केबिन के दूसरे साथी भगवान को पिथोरागढ़ जनपद स्थित उनके गांव से सूचना आई कि उनके पिताजी का स्वास्थ्य काफी खराब है। इस पर भगवान को देहरादून से अपने घर पहुंचने में दो दिन लगे। केबिन के साथियों ने आपसी छुट्टियां केंसिल कर व्यवस्था को बनाए रखा। पिथोरागढ़ में अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टरों ने भगवान सिंह के पिता के कई टेस्ट करा दिए। फिर दिल्ली के लिए रैफर कर दिया। दिल्ली जाने पर पता चला कि केंसर से उसके पिता के फेफड़े संक्रमित हो चुके हैं। केंसर भी आखरी चरण में पहुंच गया। इस पर बेटे ने पिता का दिल्ली में इलाज शुरू कराया। बेटे को यह पता था कि पिता ज्यादा दिन तक नहीं रहेंगे, लेकिन जीवन के अंतिम छणों में उन्हें कोई पीड़ा न हो, इसलिए वह कर्ज लेकर बेटे का धर्म निभा रहा था। भगवान को आठ से दस दिन के अंतराल में पिता को कीमोथेरेपी के लिए दिल्ली ले जाना पड़ता था। वह रात को काम निपटाकर दिल्ली रवाना होता। अगले दिन पिता को कीमोथेरेपी से दवा चढ़ाता और उसी रात को वापस देहरादन चल पड़ता। ऐसे में उसे एक या दो दिन की ही छुट्टी लेनी पड़ती। इस बीच कई बार ऐसी स्थिति हो जाती कि केबिन में कर्मियों की संख्या पांच तक रह जाती। ऐसे में कई को अपने रिश्तेदारों की शादी तक में जाने का प्लान केंसिल करना पड़ा।
भगवान के दुख भी यहीं कम नहीं हुए। एक सुबह जब वह उठा तो देखा कि घर के बरामदे से उसकी मोटर साइकिल गायब है। रात को कोई चोर उसकी मोटर साइकिल ले उड़ा। एक तो कंगाली और ऊपर से आटा गीला। यही कुछ हाल भगवान का था। फिर भी उसके माथे पर कोई शिकन नहीं रहती। ऑफिस में वह घर के दर्द भूल जाता और बड़ी तन्मयता से आपना कार्य निपटाता। दुख-ही दुख से भरे इस केबिन में एक साथी गोल्डी को शुभ समाचार मिला। यह समाचार था कि उसे  केंद्रीय संस्थान में नौकरी मिल गई। इस साथी के सुख से समाचार के साथ अन्य साथी खुश तो हुए, लेकिन सभी को एक चिंता यह भी सताने लगी कि इसके जाने के बाद केबिन का कार्य छितर-बितर हो जाएगा।
सच्चाई यह है कि कितनी भी बारिश हो, आंधी चले, तूफान आए, लेकिन सड़कों पर वाहन दौड़ते हैं। रेल चलती है, डाकिया पत्र लेकर लोगों केघर जाता है। समाचार पत्र छपते हैं। कोई भी आवश्यक कार्य नहीं रुकता। हां कुछ देर जरूर हो जाती है। गोल्डी के बदले नया साथी केबिन में मिल गया। साथ ही एक अन्य नए युवक को ट्रायल के तौर पर रख लिया गया। दूसरे केबिन में दुर्घटना में घायल साथी ने भी नौकरी छोड़ दी। वहीं भगवान के पिताजी का निधन हो गया। वह क्रियाक्रम संस्कार निपटाने के लिए पंद्रह दिन के लिए गांव चला गया। इसी बीच एक अन्य साथी भी तीन दिन के लिए किसी रिश्तेदार की शादी में दिल्ली चला गया। दो साथी पहले से कम थे कि अचानक बारू की मांताजी ने भी दम तोड़ दिया। गोविंद व भगवान के साथ ही गोल्डी ने ऑफिस जाना बंद कर दिया। एक साथी विवाह समारोह में शामिल होने के लिए दिल्ली गया था। ऐसे में चार पुराने व दो नए साथियों पर केबिन की जिम्मेदारी आ पड़ी। सभी इस आस में काम कर रहे थे कि दुख के बाद सुख जरूर आएगा। पहले विवाह से लौटकर साथी आएगा, फिर भगवान की वापसी होगी और फिर बारू केबिन में लौटेगा। इसके बाद स्थिति सामान्य हो जाएगी। इसीआस में वे कर्मी भी आगे की अपनी छुट्टी की योजना भी मन ही मन में बना रहे हैं, जो लगातार काफी समय से बगैर छुट्टी से कार्य कर रहे हैं।
भानु बंगवाल

Thursday, 6 December 2012

What is this kind of love ....

ये कैसा प्यार....
सफलता व विफलता दोनों ही इंसान के जीवन में आती रहती है। कहावत है कि बार-बार प्रयास करने के बाद इंसान कठिन से कठिन कार्य को भी सफल बना लेता है। ऐसे में व्यक्ति को प्रयास नहीं हारने चाहिए। इसके विपरीत सामाजिक परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि बार-बार व्यक्ति प्रयास में हारता रहता है, लेकिन उसकी हार में भी एक जीत होती है। ऐसा ज्यादातर प्रेम के मामलों में देखा गया है। कई बार प्रेमी हारकर भी जीत जाता है। यानी वह खुद तो मायूस हो जाता है, लेकिन दूसरों का दिल जीत लेता है।
 मानव नाम के युवक की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। करीब तीन साल पहले वह हरिद्वार स्थित एक संस्थान में जनसंचार में स्नातकोत्तर का छात्र था। घर यूपी के किसी जिले में था और पढ़ने हरिद्वार आया हुआ था। खुद के लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर वह पढाई कर रहा था। साथ ही साथियों  को भी यही सुझाव देता कि उन्हें भी क्या करना चाहिए। या यूं कहिए कि मानव एक प्रतिभाशाली छात्र था, जो परीक्षा में भी पूरी यूनिवर्सिटी में टापर रहा। पढ़ाई के साथ ही वह नौकरी भी तलाशता रहा और पढ़ाई पूरी करते-करते एक संस्थान में उसे कामचलाऊ नौकरी भी मिल गई।
पढ़ाई के दौरान ही मानव की एक छात्रा से काफी निकटता बढ़ी। शुरुआत में वे अच्छे दोस्त रहे। धीरे-धीरे दोस्ती प्यार में बदल गई। फिर दोनों साथ जीने व मरने की कसम खाने लगे और एक दूसरे के घर भी जाने लगे। मानव का घर यूपी में बरेली के निकट था और प्रिया नाम की उसकी मित्र छात्रा उत्तराखंड के उधमसिंह नगर की रहने वाली थी। मानव ने छात्रा को अपनी ही तरह मेहनती बनाने का हर संभव प्रयास किया। युवती भी दिल्ली में नौकरी लग गई। दोनों की मित्रता तक तो मामला सही था, लेकिन युवती के परिजन मित्रता को रिश्ते में बदलने को तैयार नहीं थे। उनकी निकटता के बीच जाति की दीवार मजबूती से खड़ी हो गई।
दोनों ही अपने परिजनों का मान रखते थे। दोनों ने ही अपने-अपने परिजनों को समझाने का प्रयास किया। इसमें मानव के परिजन तो मान गए, लेकिन युवती की मां राजी नहीं हुई। दोनों के मन में घर से भागने का विचार भी आया। उनके मित्रों ने भी कुछ इसी तरह के सुझाव भी दिए। इसके बावजूद लेकिन दोनों ने कुछ भी गलत न करने का निर्णय लिया, जिससे उनके परिजनों मान मर्यादा को ठेस लगे। बात आगे बढ़ रही थी और युवती के परिजनों की चिंता भी विकराल होती जा रही थी। ऐसे में प्रिया के घरवालों ने उसका रिश्ता किसी दूसरे से तय कर दिया। वह भी  नौकरी छोड़कर अपने घर चली गई।
हर संभव प्रयास के बावजूद प्रिया की मां दोनों का रिश्ता करने को तैयार नहीं हुई और न ही मानव व प्रिया एक दूसरे को भूलने को तैयार नहीं हुए। एक दिन सुबह के समय मानव को प्रिया की मां का फोन आया कि प्रिया ने जहर खा लिया है। तू जल्द हमारे घर चला आ। मानव तो अपनी सुध-बुध खो बैठा। न चाय पी और न ही नाश्ता किया। तैयार हुआ और बस पकड़कर प्रिया के घर को रवाना हो गया। रास्ते में वह तरह-तरह की कल्पानाएं भी कर रहा था कि कहीं उसको निपटाने का प्लान तो नहीं बनाया गया है। फिर उसके मन में यह सकारात्मक विचार आता कि युवती की मां उसे कहेगी कि अब हमारे बस की बात नहीं है। तुम्हारे प्यार की जीत हुई। तू ही मेरी बेटी से विवाह कर ले। कुछ इसी तरह की कल्पानाओं के ताने-बाने बुनता हुआ वह युवती के घर चला गया। हां किसी अनहोनी या विवाद की स्थिति से निपटने के लिए वह अकेला नहीं गया।
प्रिया के घर पहुंचने पर उसकी माता ने मानव के भीतर की इंसानियत को जगाया। उसे जाति-पाति का पाठ पढ़ाया। दो जातियों के बीच की दीवार का मतलब समझाया। फिर अपना आंचल फैलाकर उसके सामने रख दिया और कहा कि मेरी बेटी को समझा और हमे भूल जा। तू ही मेरी बेटी को समझा सकता है। वह हमारे कहने में नहीं है, लेकिन तेरा कहना जरूर मानेगी। नहीं तो एक साथ कई परिवार बर्बाद हो जाएंगे। मानव के आगे खाई थी और पीछे कुंआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे या क्या न करे। फिर उसने प्रिया से कुछ देर बात की। इसके बाद वह हमेशा-हमेशा के लिए प्रिया से नाता तोड़ कर वापस घर को चल दिया। वहीं, प्रिया के परिजन उसकी कहीं और शादी की तैयारियों में जुट गए।फिर एक दिन ऐसा आया कि मानव को यूनिवर्सिटी से टॉपर का सम्मान दिया रहा था और दूसरी तरफ प्रिया की डोली उठ रही थी।  
भानु बंगवाल