Saturday, 8 December 2012

Hopes for happines during sadness

दुख की घड़ी में सुख की आस....
दुख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। इंसान की जिंदगी में इनके आने-जाने का क्रम लगा रहता है। कई बार जब सुख की बारी आती है, तो उसका क्रम चलता रहता है। फिर ऐसा लगता है कि ये दुनियां काफी खूबसूरत है। इसके विपरीत जब दुखों की झड़ी लगती है, तो व्यक्ति निराश होने लगता है। ऐसे में धारा के विपरीत जो तैरना जानते हैं, वे दुख को रोक तो नहीं सकता है, लेकिन उसका डटकर मुकाबला कर प्रभाव को कुछ कम जरूर कर देते हैं। वैसे तो सुख व दुख किसी व्यक्ति के लिए निजी हो सकते हैं,  लेकिन उसका प्रभाव आसपास के परिवेश के लोगों पर भी पड़ता है। ऐसे में सुख व दुख के भागीदारी उसे भोगने वाले व्यक्ति के संबंधी व पहचान वाले भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से  बनते हैं। यानी एक व्यक्ति दुखी हुआ तो उसके घर परिवार के सदस्यों से साथ ही ऑफिस तक के साथियों पर इसका असर पड़ता है।
एक ऑफिस के एक केबिन में करीब आठ लोग एकसाथ बैठकर कार्य निपटाते आ  रहे थे। यदि किसी साथी का अवकाश होता तो दूसरे साथियों पर उसके कार्य की जिम्मेदारी आ जाती। बड़े मजे से काम चल रहा था। आपसी समन्वय कर सभी ऑफिस का काम निपटाते थे। एक दिन बगल के तीन व्यक्तियों वाले दूसरे छोटे केबिन का एक साथी दुर्घटना में घायल हो गया और उसकी टांग टूट गई। तो वहां की सारी जिम्मेदारी बाकी बचे दो साथियों पर आ गई। कुछ दिन बाद एक साथी और नौकरी छोड़कर चला गया। ऐसे में दूसरा केबिन खाली होने लगा तो बड़े केबिन से एक साथी को वहां की दोहरी जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। खींचतान कर दोनों केबिन का काम फिर पटरी पर आ गया। घायल व्यक्ति के बदले नई भर्ती नहीं की जा सकती थी। क्योंकि जब वह ठीक होकर आता तो फिर से उसे अपना कार्य संभालना था। ऐसे में आठ व्यक्तियों वाले केबिन से ही कार्य में मदद दी जा रही थी।
समय भी तेजी से करवट बदलता है। इस बड़े केबिन में जैसे कोई ग्रहण लग गया। केबिन के कुछ साथियों को दुख ने घेरना शुरू कर दिया। एक दिन बारू नाम का व्यक्ति को घर से दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसकी करीब 83 साल की माता जी की चीख उसे सुनाई दी, जो घर के बरामदे में जमीन पर लेटी थी। बारू दौड़कर अपनी माताजी के पास गया और उसे उठाने का प्रयास किया। उसकी माताजी अपना शरीर सीधा तक नहीं कर पा रही थी। कार से माताजी को अस्पताल पहुंचाया गया। पता चला कि रीड़ की हड्डियां टूट गई हैं। करीब पंद्रह दिन अस्पताल में रखने के बाद चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। कहा कि अब घर ले जाकर उनकी बिस्तर पर ही सेवा करो। करीब पंद्रह दिन बाद बारू ने फिर से ऑफिस आना शुरू किया। अब बारू पर हर सुबह उठकर पत्नी के साथ माताजी का बिस्तर साफ करना, नहलाना, बिस्तर पर ही उनके कपड़े बदलना आदि कार्य की जिम्मेदारी आ पड़ी। बारू भी बेटा धर्म निभा रहा था। जितने दिन बारू ऑफिस नहीं आया, उतने दिन उसके कार्य की जिम्मेदारी भी केबिन के साथियों ने आपस में बांट ली थी। करीब तीन माह बीते कि तभी एक दिन केबिन के दूसरे साथी भगवान को पिथोरागढ़ जनपद स्थित उनके गांव से सूचना आई कि उनके पिताजी का स्वास्थ्य काफी खराब है। इस पर भगवान को देहरादून से अपने घर पहुंचने में दो दिन लगे। केबिन के साथियों ने आपसी छुट्टियां केंसिल कर व्यवस्था को बनाए रखा। पिथोरागढ़ में अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टरों ने भगवान सिंह के पिता के कई टेस्ट करा दिए। फिर दिल्ली के लिए रैफर कर दिया। दिल्ली जाने पर पता चला कि केंसर से उसके पिता के फेफड़े संक्रमित हो चुके हैं। केंसर भी आखरी चरण में पहुंच गया। इस पर बेटे ने पिता का दिल्ली में इलाज शुरू कराया। बेटे को यह पता था कि पिता ज्यादा दिन तक नहीं रहेंगे, लेकिन जीवन के अंतिम छणों में उन्हें कोई पीड़ा न हो, इसलिए वह कर्ज लेकर बेटे का धर्म निभा रहा था। भगवान को आठ से दस दिन के अंतराल में पिता को कीमोथेरेपी के लिए दिल्ली ले जाना पड़ता था। वह रात को काम निपटाकर दिल्ली रवाना होता। अगले दिन पिता को कीमोथेरेपी से दवा चढ़ाता और उसी रात को वापस देहरादन चल पड़ता। ऐसे में उसे एक या दो दिन की ही छुट्टी लेनी पड़ती। इस बीच कई बार ऐसी स्थिति हो जाती कि केबिन में कर्मियों की संख्या पांच तक रह जाती। ऐसे में कई को अपने रिश्तेदारों की शादी तक में जाने का प्लान केंसिल करना पड़ा।
भगवान के दुख भी यहीं कम नहीं हुए। एक सुबह जब वह उठा तो देखा कि घर के बरामदे से उसकी मोटर साइकिल गायब है। रात को कोई चोर उसकी मोटर साइकिल ले उड़ा। एक तो कंगाली और ऊपर से आटा गीला। यही कुछ हाल भगवान का था। फिर भी उसके माथे पर कोई शिकन नहीं रहती। ऑफिस में वह घर के दर्द भूल जाता और बड़ी तन्मयता से आपना कार्य निपटाता। दुख-ही दुख से भरे इस केबिन में एक साथी गोल्डी को शुभ समाचार मिला। यह समाचार था कि उसे  केंद्रीय संस्थान में नौकरी मिल गई। इस साथी के सुख से समाचार के साथ अन्य साथी खुश तो हुए, लेकिन सभी को एक चिंता यह भी सताने लगी कि इसके जाने के बाद केबिन का कार्य छितर-बितर हो जाएगा।
सच्चाई यह है कि कितनी भी बारिश हो, आंधी चले, तूफान आए, लेकिन सड़कों पर वाहन दौड़ते हैं। रेल चलती है, डाकिया पत्र लेकर लोगों केघर जाता है। समाचार पत्र छपते हैं। कोई भी आवश्यक कार्य नहीं रुकता। हां कुछ देर जरूर हो जाती है। गोल्डी के बदले नया साथी केबिन में मिल गया। साथ ही एक अन्य नए युवक को ट्रायल के तौर पर रख लिया गया। दूसरे केबिन में दुर्घटना में घायल साथी ने भी नौकरी छोड़ दी। वहीं भगवान के पिताजी का निधन हो गया। वह क्रियाक्रम संस्कार निपटाने के लिए पंद्रह दिन के लिए गांव चला गया। इसी बीच एक अन्य साथी भी तीन दिन के लिए किसी रिश्तेदार की शादी में दिल्ली चला गया। दो साथी पहले से कम थे कि अचानक बारू की मांताजी ने भी दम तोड़ दिया। गोविंद व भगवान के साथ ही गोल्डी ने ऑफिस जाना बंद कर दिया। एक साथी विवाह समारोह में शामिल होने के लिए दिल्ली गया था। ऐसे में चार पुराने व दो नए साथियों पर केबिन की जिम्मेदारी आ पड़ी। सभी इस आस में काम कर रहे थे कि दुख के बाद सुख जरूर आएगा। पहले विवाह से लौटकर साथी आएगा, फिर भगवान की वापसी होगी और फिर बारू केबिन में लौटेगा। इसके बाद स्थिति सामान्य हो जाएगी। इसीआस में वे कर्मी भी आगे की अपनी छुट्टी की योजना भी मन ही मन में बना रहे हैं, जो लगातार काफी समय से बगैर छुट्टी से कार्य कर रहे हैं।
भानु बंगवाल

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