ये कैसी सूखी हड़ताल....
देर रात को दफ्तर से घर पहुंचने के बाद सुबह जल्द बिस्तर से उठने का मन नहीं करता। इसके बावजूद जल्द इसलिए उठना पड़ता है कि बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे होते हैं। मंगलवार की सुबह तो छोटे बेटे ने मुझे उठाया और कहा कि स्कूल का समय हो रहा है। आटो अंकल नहीं आएंगे। उनकी हड़ताल है। आपको ही मुझे स्कूल छोड़ना और वापस लाना होगा। ऐसे में बिस्तर छोड़ते ही मैं कपड़ने बदलने में लग गया। खिड़की से बाहर झांका तो देखा कि बाहर कोहरा छाया हुआ है। आसमान में कुछ बादल भी थे। यानी सूर्यदेव भी हड़ताल पर चले गए।
बात-बात पर हड़ताल करने में तो हम भारतवासी महान हैं। राजनीतिक दल हों या फिर सामाजिक संगठन। आएदिन सड़कों पर उतरकर सरकार के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं। जनता के हक की लड़ाई लड़ने वाले ये लोग जब सड़कों पर उतरते हैं, तो शायद सरकार को तो कोई फर्क पड़े न पड़े, लेकिन आमजन जरूर परेशान हो जाता है। उत्तराखंड में तो राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ने के बाद यहां के लोग धरने, प्रदर्शन व आंदोलन में माहिर हो गए हैं। बात-बात पर जुलूस व प्रदर्शन के लिए सचमुच यहां के लोगों को आलस तक नहीं आता। गांधीवादी तरीके से आंदोलन तो करते हैं, साथ ही सरकार, मंत्री या फिर किसी भी नेता का पुतला फूंकने में भी देरी नहीं लगाते। यदि प्रदर्शन के दौरान मीडिया वाले नजर आ जाएं, तो कैमरे में नजर आने के लिए ऐसी होड़ मचती है कि कई बार घंटों तक रास्ता जाम भी कर दिया जाता है।
निजी परिवहन की हड़ताल से मैं खुश इसलिए था कि सड़क पर वाहनों का जमावड़ा नजर नहीं आएगा। चलो एक दिन सड़कों पर कुछ प्रदूषण तो कम होगा। देहरादून की सड़कों पर भले ही निजी बसें, टैक्सी, ऑटो आदि नहीं चले, लेकिन वाहन भी कम नहीं थे। लोग अपने संसाधनों से ही बच्चों को स्कूल छोड़ रहे थे। खुद दफ्तर को निकल रहे थे। ऐसे में सड़क पर अन्य दिनों की भांति चहल-पहल जरूर थी, लेकिन ज्यादा भीड़ नहीं थी। सड़कें कुछ चौड़ी नजर आ रही थी। साथ ही सड़कों पर जाम नहीं लग रहा था। कई लोग पैदल ही अपने गंतव्य को जा रहे थे। कई स्कूलों ने तो छुट्टी ही घोषित कर दी। कई स्कूल खुले और अभिभावकों की स्कूलों तक दौड़ लगी। स्कूलों में बच्चे भी कम पहुंचे, वहीं सरकारी दफ्तरों व स्कूलों में तो कर्मियों को देरी से आने का बहाना ही मिल गया। कई तो कड़ाके की ठंड में घर से बाहर ही नहीं निकले। बहाना ये था कि अपना संसाधन है नहीं। दस से बीस किलोमीटर दूरी तक काम में कैसे पहुंचते।
इस हड़ताल से उदासीराम काफी मायूस थे। उन्हें यही दुख सता रहा था कि सिर्फ सवारी वाहनों की ही हड़ताल क्यों हुई। ट्रांसपोर्ट कंपनियों, एसोसिएशन आदि ने इस बार अपनी सेवाएं बंद रखने का ऐलान किया हुआ था। यानी प्राइवेट टैक्सी, बस व अन्य सवारी वाहनों का चक्का जाम था। इस आंदोलन से सरकारी संस्थान, शिक्षण संस्थाओं, बाजार को मुक्त रखा गया। कई बार तो जब चक्का जाम होता था तो उसे प्रभावी बनाने के लिए व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ ही शिक्षण संस्थाओं, सरकारी व निजी दफ्तरों को बंद करने का भी ऐलान कर दिया जाता था। ऐसे में तो उदासीराम जी की मौज आ जाती थी। उनका दफ्तर शहर से कुछ दूरी पर था। इस पर जब कभी आंदोलनकारी उनके दफ्तर को बंद कराने नहीं पहुंचते, तो वह स्वयं उनके पास जाते और यह सूचना देते कि एक दफ्तर वहां चल रहा है। ऐसे में आंदोलनकारी दफ्तर बंद कराने पहुंचते। दफ्तर के आगे नारेबाजी करते और फिर कर्मचारी बाहर निकलते और दफ्तर बंद हो जाता। सभी कर्मी घर चले जाते। आसमान से बूंदाबांदी शुरू हो गई और वह हड़ताल करने वालों को ही कोस रहे थे कि इस बार कैसी सूखी हड़ताल कर दी।
भानु बंगवाल
देर रात को दफ्तर से घर पहुंचने के बाद सुबह जल्द बिस्तर से उठने का मन नहीं करता। इसके बावजूद जल्द इसलिए उठना पड़ता है कि बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे होते हैं। मंगलवार की सुबह तो छोटे बेटे ने मुझे उठाया और कहा कि स्कूल का समय हो रहा है। आटो अंकल नहीं आएंगे। उनकी हड़ताल है। आपको ही मुझे स्कूल छोड़ना और वापस लाना होगा। ऐसे में बिस्तर छोड़ते ही मैं कपड़ने बदलने में लग गया। खिड़की से बाहर झांका तो देखा कि बाहर कोहरा छाया हुआ है। आसमान में कुछ बादल भी थे। यानी सूर्यदेव भी हड़ताल पर चले गए।
बात-बात पर हड़ताल करने में तो हम भारतवासी महान हैं। राजनीतिक दल हों या फिर सामाजिक संगठन। आएदिन सड़कों पर उतरकर सरकार के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं। जनता के हक की लड़ाई लड़ने वाले ये लोग जब सड़कों पर उतरते हैं, तो शायद सरकार को तो कोई फर्क पड़े न पड़े, लेकिन आमजन जरूर परेशान हो जाता है। उत्तराखंड में तो राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ने के बाद यहां के लोग धरने, प्रदर्शन व आंदोलन में माहिर हो गए हैं। बात-बात पर जुलूस व प्रदर्शन के लिए सचमुच यहां के लोगों को आलस तक नहीं आता। गांधीवादी तरीके से आंदोलन तो करते हैं, साथ ही सरकार, मंत्री या फिर किसी भी नेता का पुतला फूंकने में भी देरी नहीं लगाते। यदि प्रदर्शन के दौरान मीडिया वाले नजर आ जाएं, तो कैमरे में नजर आने के लिए ऐसी होड़ मचती है कि कई बार घंटों तक रास्ता जाम भी कर दिया जाता है।
निजी परिवहन की हड़ताल से मैं खुश इसलिए था कि सड़क पर वाहनों का जमावड़ा नजर नहीं आएगा। चलो एक दिन सड़कों पर कुछ प्रदूषण तो कम होगा। देहरादून की सड़कों पर भले ही निजी बसें, टैक्सी, ऑटो आदि नहीं चले, लेकिन वाहन भी कम नहीं थे। लोग अपने संसाधनों से ही बच्चों को स्कूल छोड़ रहे थे। खुद दफ्तर को निकल रहे थे। ऐसे में सड़क पर अन्य दिनों की भांति चहल-पहल जरूर थी, लेकिन ज्यादा भीड़ नहीं थी। सड़कें कुछ चौड़ी नजर आ रही थी। साथ ही सड़कों पर जाम नहीं लग रहा था। कई लोग पैदल ही अपने गंतव्य को जा रहे थे। कई स्कूलों ने तो छुट्टी ही घोषित कर दी। कई स्कूल खुले और अभिभावकों की स्कूलों तक दौड़ लगी। स्कूलों में बच्चे भी कम पहुंचे, वहीं सरकारी दफ्तरों व स्कूलों में तो कर्मियों को देरी से आने का बहाना ही मिल गया। कई तो कड़ाके की ठंड में घर से बाहर ही नहीं निकले। बहाना ये था कि अपना संसाधन है नहीं। दस से बीस किलोमीटर दूरी तक काम में कैसे पहुंचते।
इस हड़ताल से उदासीराम काफी मायूस थे। उन्हें यही दुख सता रहा था कि सिर्फ सवारी वाहनों की ही हड़ताल क्यों हुई। ट्रांसपोर्ट कंपनियों, एसोसिएशन आदि ने इस बार अपनी सेवाएं बंद रखने का ऐलान किया हुआ था। यानी प्राइवेट टैक्सी, बस व अन्य सवारी वाहनों का चक्का जाम था। इस आंदोलन से सरकारी संस्थान, शिक्षण संस्थाओं, बाजार को मुक्त रखा गया। कई बार तो जब चक्का जाम होता था तो उसे प्रभावी बनाने के लिए व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ ही शिक्षण संस्थाओं, सरकारी व निजी दफ्तरों को बंद करने का भी ऐलान कर दिया जाता था। ऐसे में तो उदासीराम जी की मौज आ जाती थी। उनका दफ्तर शहर से कुछ दूरी पर था। इस पर जब कभी आंदोलनकारी उनके दफ्तर को बंद कराने नहीं पहुंचते, तो वह स्वयं उनके पास जाते और यह सूचना देते कि एक दफ्तर वहां चल रहा है। ऐसे में आंदोलनकारी दफ्तर बंद कराने पहुंचते। दफ्तर के आगे नारेबाजी करते और फिर कर्मचारी बाहर निकलते और दफ्तर बंद हो जाता। सभी कर्मी घर चले जाते। आसमान से बूंदाबांदी शुरू हो गई और वह हड़ताल करने वालों को ही कोस रहे थे कि इस बार कैसी सूखी हड़ताल कर दी।
भानु बंगवाल
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