Wednesday, 12 December 2012

Torch ....

मशाल....
पहाड़ों ने भी ओढ़ ली
बर्फ की चादर
चुपचाप देखते रहे
हम तमाशा
चारों ओर चित्कार के खिलाफ
सी लिए होंठ
चुप्पी तोड़ने की कोशिश में
टूटकर बिखर रहा सच
बिखरा हुआ क्या तोड़ेगा
सन्नाटा
एक लहर उठी, मची हलचल
टूटने लगी चुप्पी
मचने लगा शोर
बंधने लगी मुट्ठियां
जलने लगी मशाल
फिर शुरू हुई
मशाल को बुझाने की कोशिश
यात्राएं तेज हुईं, यज्ञ हुए और महामंत्र
पढ़े जाने लगे
फिर भी ये आग कम नहीं हुई
कम होती भी कैसे
मशालची अपनी झोपड़ियों को जलाकर
बना रहे थे मशाल
भूखे पेट से निकलने लगा
रोटी की मांग के नारों का शोर
एक दिन ये मशाल
जला कर राख कर देगी
चुप्पी का पाठ पढ़ाने वालों को
और रचेगी एक नए समाज को
ये मशाल।
भानु बंगवाल

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