Friday, 25 January 2013

Encounter 2...

एनकाउंटर 2, तू डाल-डाल मैं पात-पात....
कई बार पुलिस के लिए सिरदर्द बने बदमाश और पुलिस के बीच शह और मात का खेल चलता रहता है। यह खेल तब तक जारी रहता है, जब तक बदमाश की मौत नहीं हो जाती। या फिर बदमाश की जिंदगी में नया मोड़ आता है और वह बदमाशी छोड़ देता है। अमूमन किसी शहर के लोगों के लिए मुसीबत बने बदमाशों की जिंदगी ज्यादा लंबी नहीं होती। या तो वे आपसी रंजिश में मारे जाते हैं, या फिर पुलिस की गोली का शिकार हो जाते हैं। इसके बावजूद भी वे इतिहास से सबक नहीं लेते और जब तक जिंदा रहते हैं, तब तक समाज के लिए मुसीबत बने रहते हैं। रीतू व बिरजू की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। जो शहर के लिए मुसीबत बन गए थे और पुलिस के लिए चुनौती।
बचपन से ही स्कूली दोस्त रीतू व बिरजू दोनों ही काफी बिगड़े हुए थे। परिजन स्कूल पढ़ने के लिए भेजते, लेकिन दोनों ही बच्चों के बैग से पैन, कापी व अन्य सामान चुराने में भी पीछे नहीं रहते। घर से स्कूल को निकलने के बावजूद रास्ते में बंक मारने की आदत भी उनमें पढ़ रही थी। आठवीं तक पहुंचते ही दोनों स्कूल में बदनाम हो चुके थे। साथ ही आसपड़ोस के घर से भी मौका देखकर सामान पर हाथ साफ कर देते। या यूं कहें कि चोरी में दोनों माहीर होते जा रहे थे। देहरादून में वे जिस स्कूल में पढ़ रहे थे, वहां आठवीं के दौरान ही दोनों को स्कूल से निकाल दिया गया। इसके बाद दोनों आवारागर्दी करने लगे। साथ ही चोरी करते और  पकड़े भी जाते। जैसे-जैसे दोनों किशोर अवस्था में पहुंचे, वैसे-वैसे उनके चोरी का ग्राफ बढ़ता चला गया। खाली घर में सेंधमारी करना उनकी आदत बन गई। कई बार पुलिस ने पकड़ा भी, लेकिन परिजन पुलिस की मुट्ठी गरम कर उन्हें छुड़ा लाते।
बीड़ी, सिगरेट, शराब के आदी हो रहे इन किशोरों ने एक रात सेना के किसी रिटायर्ड अफसर के घर धावा बोला। घर में कोई नहीं था। नकदी, जेवर में हाथ साफ करने के दौरान उन्हें एक चीज और मिली, जिसे वे अपने साथ ले गए। यह वस्तु थी 32 बोर की रिवाल्वर। रिवाल्वर हाथ लगते ही रीतू और बिरजू ने समझा कि सारी दुनियां की ताकत उनके हाथ आ गई। जिस फौजी ने देश सेवा की कसमें खाई और कई मोर्चों में अग्रणीय रहा, उसके घर से रिवाल्वर चोरी करने के बाद रीतू व बिरजू ने राह चलते एक स्कूटर सवार को रोका। कोई दुश्मनी न होने पर भी उन्होंने स्कूटर सवार युवक को गोली मार दी और स्कूटर छीन कर भाग गए। यहीं से दोनों की गिनती खुंखार बदमाशों में होने लगी। पुलिस दोनों को पकड़ने को जाल बिछाती,लेकिन वे वारदात करने के बाद गायब हो जाते। चोरी के लिए देहरादून के राजपुर क्षेत्र में तो एक कोटी में धावा बोलकर उन्होंने घर में बुजुर्ग दंपत्ती को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद किसी की हत्या करना उनके लिए मामूली बात हो गई।
इस हत्या के बाद दोनों शहर से गायब हो गए। पुलिस देहरादून व आसपास के क्षेत्र में इन्हें तलाश रही थी, लेकिन वे गढ़वाल के उत्तरकाशी जनपद के दुरस्थ क्षेत्र पुरोला में जाकर वे छिप गए। ग्रामीणों को उन्होंने बताया कि वे व्यापारी हैं। जब वे किसी दुकान से बीस रुपये का सामान खरीदते और छुट्टे पैसे न होने पर बाकी दुकानदार के पास ही छोड जाते, तो लोगों को उन पर शक हुआ। इस पर किसी ने पुलिस को सूचना दी और पुलिस ने जब उन्हें पकड़ा, तो पता चला कि वे वही शातिर बदमाश हैं, जिन्हें दो साल से दून पुलिस तलाश कर रही है। जेल में रहने के दौरान ही रीतू और बिरजू की कई अन्य अपराधियों से दोस्ती हुई और उन्होंने जेल मे ही गिरोह गठित कर दिया। करीब दस साल तक रीतू व बिरजू गिरोह ने देहरादून में आतंक मचा कर रखा। उन्होंने उस वकील तक को नहीं छोड़ा, जो हर बार अपने कानूनी दांव पेंच से उन्हें अदालत से दोषमुक्त करा देता था। एक सुबह आत्मसमर्पण व जमानत कराने के बहाने वकील साहब के घर पहुंचे। वकील ने पहले अपनी फीस मांगी, तो उन्होंने वकील के घर के सभी सदस्यों को बंधक बनाकर घर का सारा कीमती सामान ही लूट लिया। इनकी खासियत यह थी कि वारदात करने के बाद गिरोह के सदस्य देहरादून से कहीं दूर फरार हो जाते। रीतू और बिरजू एक साथ निकलते और अन्य सदस्य अलग-अलग ग्रुप में भागते। जब पुलिस का दबाव ज्यादा बढ़ता तो वे चुपके से अदालत में आत्मसमर्पण कर देते। कई बार दूसरे शहरों में चल रहे पुराने मामले में जमानत तुड़वा देते और जेल के भीतर जाकर खुद को पुलिस से बचने का सुरक्षित उपाय तलाश लेते।
करीब दस साल से पुलिस की नाक में दम कर रहे इन बदमाशों को मुठभेड़ में मार गिराने की पुलिस की हर चाल विफल हो जाती। पुलिस के पकड़ते ही मानवाधिकार आयोग को इसकी शिकायत पहुंच जाती कि कहीं अवैध हिरासत में रखकर पुलिस एनकाउंटर न कर दे। एक भरी दोपहर को देहरादून में एक कोठी की चाहरदीवारी फांद कर कुछ बदमाश भीतर घुसे। घर में महिलाएं व बच्चे थे। हथियारों की नोक पर उन्होंने सभी सदस्यों को डराधमका कर जमकर लूटपाट की। फिर अपना काम पूरा करने के बाद भागने लगे। दीवार फांदते हुए एक बदमाश गमले में उलझ गया और जमीन पर गिर पड़ा। उसके पैर पर चोट लग गई थी। तब तक उसके साथी आगे निकल चुके थे। जिस घर में डकैती पड़ी थी, उस घर की एक सहासी महिला ने उस बदमाश को दबोच लिया और शोर मचा दिया। ऐसे में भीड़ आ गई और लोगों ने पुलिस को भी फोन कर दिया। उन दिनों रीतू व बिरजू दूसरे शहरों में ही ज्यादा वारदात कर रहे थे। दून में उन पुलिस थानेदारों के भी जनपद के बाहर तबादले हो चुके थे, जो उन्हें पहचानते थे। जब संबंधित थाने का थानेदार बदमाश को पकड़ने आया तो वह भी उसे कोई छोटा-मोटा चोर समझ रहा था। इसी बीच दूसरे थाने का एक थानेदार भी वहीं पहुंच गया। वह बदमाश को पहचान गया, लेकिन उसने अपने साथियों को नहीं बताया। इस थानेदार ने अधिकारियों से कहा कि पकड़े गए बदमाश को पूछताछ के लिए वह अपने साथ ले जा रहा है। पूछताछ के बाद संबंधित थाने को सौंप देगा। कुछ घंटे अपने साथ रखने के बाद वह बदमाश को जंगल में ले गया और उसे गोली मार दी। फिर पुलिस की कहानी कुछ ऐसे बनी कि एक घर से लूटपाट की सूचना पर पुलिस ने चारोंतरफ नाकेबंदी कर दी। मालदेवता के जंगलों की तरफ एक संदिग्ध कार को रुकने का इशारा किया तो कार की गति तेज हो गई। इस पर पुलिस ने पीछा किया। बदमाश कार से उतरकर जंगल की तरफ भागे और पुलिस पर फायर किया। आत्मरक्षा में पुलिस ने गोलियां चलाई। एक बदमाश ढेर हो गया, जो कुख्यात रीतू था। अन्य बदमाशों की तलाश में पुलिस कांबिंग कर रही है।
रीतू को निपटाने के बाद पुलिस ने बिरजू को पकड़ने का जाल फैलाया, लेकिन तीन माह बाद पुलिस को पता चला कि वह तो पुलिस की नजरों से बचने के लिए दिल्ली की जेल में है। पुराने मामले में जमानत तुड़वाकर उसने खुद को जेल की चाहरदीवारी में सुरक्षित कर लिया था। अब पुलिस कई मामलों में बिरजू को पूछताछ के लिए लाना चाहती ती। इसके लिए न्यायालय से वारंट बी जारी करवाया गया। दिल्ली जेल से वारंट बी के आधार पर पुलिस बिरजू को लेकर दून के लिए चली। रास्ते भर मे बिरजू पूरे आत्मविश्वास के साथ था कि उसका कुछ नहीं होगा। कुछ दिन पुलिस पूछताछ करेगी और फिर वह जेल में सुरक्षित पहुंच जाएगा। दून पहुंचते ही एकांत में पुलिस की कार को दूसरी कार ने ओवरटेक किया। आगे जाकर पुलिस की गाड़ी के आगे दूसरी कार खड़ी कर दी गई। तेजी से दूसरी कार से बदमाश निकले और हथियारों की नोक पर पुलिस को घेर लिया। बदमाशों ने बिरजू को पुलिस से छुड़ाया और शहर की सीमा से बाहर निकलने के लिए हरिद्वार रोड की तरफ कार दौड़ा दी। फिर वही हुआ जो पुलिस की कहानी में होता है। बदमाशों की कार का पुलिस ने पीछा किया। एक नदी के पास कार छोड़कर बदमाश भागे। दोनों तरफ से फायरिंग हुई। मुठभेढ़ में बिरजू मारा गया। अन्य बदमाश फरार हो गए। सब कुछ  फिल्मी अंदाज में हुआ। पुलिस के चुंगल से बिरजू को छुड़ाने वाले बदमाश भी पुलिसवाले ही थे। जैसे ही उन्होंने बिरजू को अपनी गाड़ी में बैठाया, तो वह भी समझ गया कि उसका अंत आ गया। मौत सामने देखकर वह पहले सभी के पैरों पर लौटने लगा। फिर उसने यही कहा कि मैने जो भी बुरा किया, भगवान मुझे माफ कर दे। इसके बाद एनकाउंटर होने तक वह मौन ही रहा। (समाप्त)
भानु बंगवाल      

Monday, 21 January 2013

Encounter 1

एनकाउंटर...1
एक शब्द एनकाउंटर का नाम सुनते ही आम आदमी के शरीर में एक सिहरन सी दौड़ने लगती है। बदमाशों और पुलिस के लिए यह शब्द प्रचलित है। बदमाशों को पता होता है कि जब वे अति करने लगते हैं तो पुलिस भी उनके एनकाउंटर की तैयारी करने लगती है। बस एक बार पकड़ में आए, फिर कहीं एकांत में ले जाकर पुलिस कर देती है एनकाउंटर। बावजूद इसके अपराधों में कमी नहीं आती और हर दिन अपराध का ग्राफ चढ़ता ही जाता है। फिर भी कितना भी शातिर अपराधी हो, वह भी एनकाउंटर शब्द से डरता है। इससे बचने के लिए वह भी तिगड़म भिड़ाता रहता है।
वर्ष 1990 से 2000 के बीच देहरादून में बदमाशों के उत्पात की जितनी तेजी से घटनाएं घटी, उतनी तेजी से पुलिस ने उनके एनकाउंटर भी किए। एक बदमाश सिर उठाता और पुलिस उतनी ही तेजी से उसका खात्मा कर रही थी। कभी आतंकवादियों से पुलिस जूझती रहती तो कभी स्थानीय बदमाशों की कारस्तानियों से। पुलिस और बदमाशों के बीच चूहे-बिल्ली की दौड़ का खेल चल रहा था। एक इंसपेक्टर तो बाकायदा एनकाउंटर के लिए पूरी तरह से ड्रामा रचा करते थे।
अमूमन पुलिस की फाइल में किसी घटना के बारे में विवरण लगभग एक जैसा ही रहता है। मसलन पुलिस जो कहनी गढ़ती है, उसमें पहले किसी वारदात का जिक्र होता है। फिर पीछा करने का। पीछा करने के दौरान बदमाशों की तरफ से फायरिंग का जिक्र होता है। बचाव में पुलिस भी गोली चलाती है और बदमाश ढेर हो जाता है। ऐसे एनकाउंटर जिसमें पुलिस को गोली नहीं लगती, उसे फर्जी करार देने वाले भी पीछे नहीं रहते। वे पुलिस की कार्यप्रणाली पर अंगुली उठाते हैं।
आखिर पुलिस को  क्यों किसी बदमाश के एनकाउंटर की नौबत आती है। कहते हैं कि जब पानी सिर से ऊपर आ जाए तो उसका इलाज सख्ती से ही संभव है। ऐसे में पुलिस अपराधियों पर दबाव बनाने के लिए एनकाउंटर का ड्रामा रचती है। कई बार तो पुलिस के इस ड्रामे का पात्र ऐसे बदमाश भी बन जाते हैं, जिनका अपराधिक इतिहास भी ज्यादा नहीं होता। ऐसे ही एक ड्रामेबाज इंस्पेक्टर ने जब चार्ज संभाला तो पहले अपने क्षेत्र की जनता के साथ बैठकें कर उनका विश्वास जीतने का प्रयास किया। फिर किसी छोटी सी बारदात के बाद पकड़े जाने वाले बदमाशों का जुलूस भी निकाला। जब बदमाश नहीं माने तो उनका एनकाउंटर करने से भी पीछे नहीं रहे। कई बदमाशों का एनकाउंटर हुआ। उनमें ऐसे भी व्यक्तियों को बदमाश करार दिया गया, जो छोटी-मोटी चोरियां करते थे। या फिर दो भाइयों के बीच विवाद में एक ने पुलिस का सहारा लेकर दूसरे को बदमाश करार करवा दिया। फिर लूट की एक कहानी गढ़ी गई और बदमाश को पुलिस ने मार गिराया।
ड्रामा चरम पर था। अक्सर किसी न किसी के एनकाउंटर की सूचना मिल जाती। एक दिन देहरादून के गांधी पार्क के बाहर पुलिस की गाड़ी सुबह से खड़ी देखकर एक जागरूक पत्रकार का माथा ठनका। उसने तहकीकात की तो पता चला कि पार्क में बदमाशों के आने की संभावना है और पुलिस ने पकड़ने को जाल बिछा रखा है। जागरूक पत्रकार ने अपने ही तरीके से खोज की तो एक कार में कुछ पुलिस वाले सादी वर्दी में बैठे मिले। उन्होंने युवक को कार में बैठा रखा था। पत्रकार ने कार में बैठे युवक की फोटो खींच ली। फोटो खींचने की बात जैसे ही ड्रामेबाज इंस्पेक्टर को पता चली तो उन्होंने कहानी की स्क्रीप्ट ही बदल डाली। खुद वह धोती व कुर्ता पहने ग्रामीण के वेश में थे। उन्होंने बदमाश को कार से बाहर पार्क की तरफ भागने को कहा। बदमाश धीरे-धीरे उस ओर चला। जागरूक पत्रकार पार्क के गेट के पास से  बदमाश की फोटो खींच रहा था। पार्क में बदमाश के पहुंचते ही पुलिस ने उसे घेर लिया। हवाई फायर हुए। अफरा-तफरी मची, लेकिन बदमाश को गोली नहीं मारी और उसे दबोच लिया। यहां पुलिस के प्लान में कुछ पानी फिर गया था। पुलिस की योजना थी कि बदमाश को गोली मारी जाए। एक बोतल में किसी का खून लेकर भी पुलिस आई थी। इसे एक स्थान पर गिरा दिया गया था। पुलिस की कहना थी कि बदमाश वारदात कर भाग रहे थे। उनकी संख्या तीन थी। घिरने पर उन्होंने गोली चलाई। दो तरफा चली गोली से एक बदमाश घायल हो गया और एक ढेर हो गया। घायल बदमाश व उसका साथी भागने में सफल रहे। जो बदमाश मारा गया वो एक हिस्ट्रीशीटर था।
पुलिस के ड्रामे को अंजाम पहुंचाने से पहले ही बदमाश के सही सलामत पुलिस के बीच बैठे होने की फोटो खींचने के बाद पुलिस ने कहानी मोड़ दी। सब कुछ पहले से लिखी स्क्रीप्ट के तहत ही चला, लेकिन बदमाश ढेर नहीं हुआ और उसे दबोच लिया गया। फिर भी पुलिस ने एक मुठभेड़ को लेकर खूब वाहवाही लूटी और जनता को पुलिस का सच पता नहीं चल सका। वहीं जिस बदमाश को पुलिस ने पकड़ा था उसने भी बदमाशी छोड़ दी और वह परिवार के साथ अपने दिन सुख चैन से बीता रहा है। (जारी। अगला ब्लॉग-एनकाउंटर -दो-तू डाल-डाल, मैं पात-पात)
भानु बंगवाल                

Sunday, 20 January 2013

Fear of maid ...

डर कामवाली का...
करीब  सवा साल पहले वर्ष 2011 को मैं एक माह की कार्यशाला में भाग लेने नोएडा गया हुआ था। इस बड़े शहर स्थित जिस दफ्तर में मैं गया, वहां मुझे समूचे भारत की झलक दिखाई दी। कारण कि बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत कई राज्यों के लोग वहां काम करते नजर आए। साथ ही देश व विदेश के कोने-कोने के समाचार इस अखबार के दफ्तर में पहुंचते थे। वहीं से समाचार पत्र के सारे संस्करणों के लिए इन समाचारों को दुरुस्त कर जारी किया जाता था। खैर ये व्यवस्था तो अमूमन सभी समाचार पत्रो की है। नोएडा में मैं जिस सज्जन के बगल में अमूमन बैठता था, वह मुझसे उम्र में काफी छोटा था। एक नवयुवक जिसे सभी पांडे जी कहकर पुकारते थे। पांडेय जी की ड्यूटी करीब शाम पांच बजे से रात के एक बजे तक रहती थी। इससे पहले का समय उन दिनों वह कामवाली की तलाश में गुजार रहे थे। कैंटीन व होटल का खाना खाते-खाते वह परेशान हो गए। इस पर किसी ने सलाह दी कि टीफन लगा लो। कुछ दिन लगाया भी, लेकिन घर तक खाना आते ठंडा हो जाता। इस पर वह सही ढंग से खाना नहीं खा पाए। तब उन्होंने उस कामवाली की तलाश शुरू कर दी, जो नियमित रूप से घर आकर खाना बना दिया करे।
अमूमन मेट्रो सिटी में नौकरी के लिए पहुंचे युवा मिलकर ही किराये का कमरा लेते हैं। खाने की व्यवस्था भी आपसी कंट्रीब्यूशन के हिसाब से चलती है। खाना बनाने के लिए कामवाली की व्यवस्था होती है। जो बर्तन साफ भी कर जाती है। अन्य काम युवक आपस में बांट कर करते हैं। ऐसे घर के सदस्य वही होते हैं, जो शादीशुदा नहीं होते या फिर जिनकी शादी हो रखी होती है, लेकिन पत्नी दूसरे राज्य व शहर में रहती है। पांडेजी भी कई दिनों से कामवाली की तलाश कर रहे थे। जैसे ही वह आफिस पहुंचते तो सभी सहयोगी उनसे एक ही सवाल पूछते कि कामवाली मिली या नहीं। फिर पांडे जी विस्तार से बताते कि कामवाली की तलाश में वह कहां-कहां गए। कितने परिचितों से मुलाकात की। कहां से क्या आश्वासन मिले। मैं जब सुनता तो मुझे यह काफी अटपटा लगता। क्योंकि जब कभी मैं नौकरी के सिलसिले में युवावस्था में घर से बाहर रहा तो मैंने या तो होटल में खाया या फिर खुद ही अपना काम किया। ऐसे में मुझे पांडेजी की खोज ऐसे लगती जैसे वह किसी के लिए रिश्ता तलाशने जा रहे हों। मुझे लगता कि इतने दिनों में तो शायद वह पत्नी ही तलाश लेते, क्यों कामवाली की तलाश कर रहे हैं।
एक दिन पांडेजी ने विजयी मुस्कान लेकर आफिस में कदम रखा। उनके कंधे में बैग टंगा हुआ था। एकसाथ सभी के मुंह से यही निकला बधाई हो कि कामवाली मिल गई। पांडे जी भी खुश थे। उन्होंने बताया कि कामवाली मिल गई और उसने काम करना शुरू भी कर दिया। तभी तो इस भोजनमाता के हाथ से बना खाना टीफन में लेकर आया हूं। कामवाली। सिर्फ एक शब्द का कितना महत्व है। ये शायद तब मैं नहीं जानता था। उसकी दया पर ही तो युवकों को जो खाना मिलता है वह उनको अपने घर की याद दिला देता है। मानो लगता है कि वे अपनी मां के हाथों का खाना खा रहे हैं। फिर मां के हाथ के खाने से कामवाली के हाथ के खाने की तुलना होती है। मां के खाने में तो उसका प्यार उमड़ा रहता है। ऐसे में भारी तो मां के हाथों का खाना ही पड़ता है, लेकिन कामवाली के हाथ का खाना होटल से लाख गुना अच्छा लगता है।
दो दिन खाने का टीफन लाने बाद पांडे जी फिर बगैर बैग के आफिस पहुंचे। सभी ने पूछा कि क्या आज आपका ब्रत है। इस पर वह उदास होकर बोले कि आज कामवाली के साप्ताहिक अवकाश का दिन है। सप्ताह में एक दिन उसे अवकाश भी चाहिए। ऐसे में आज होटल में ही निर्भर हूं। सचपूछो तो देहरादून जैसे शहर में भी जो दंपती नौकरीपेशा वाले हैं, वे भी कामवाली की दया पर ही निर्भर हो रहे हैं। उनके लिए तो ज्यादा समस्या है, जो अखबार की नौकरी करते हैं। ऐसे लोगों के घर पहुंचने का समय भी देर रात का होता है। देर रात को घर जाकर खुद रसोई जोड़ना हरएक के बूते ही बात नहीं। ऐसे ही एक दफ्तर में एक महिला है, जिसकी दो बेटियां हैं। पति महाशय दूसरे दफ्तर में है और वह रात 11 बजे घर पहुंचते हैं। महिला की ड्यूटी भी शाम करीब चार बजे से रात 11 बजे तक है। करीब सवा साल पहले जब उनकी छोटी बेटी हुई तो मातृत्व अवकाश की छुट्टियां काटने बाद भी महिला ड्यूटी ज्वाइन नहीं कर सकी। कारण कि बच्चे रखने के लिए दून में ऐसा कोई क्रेच नहीं है, जहां रात 11 बजे तक छोटे बच्चों को छोड़ा जाए। बड़ी बेटी को तो महिला की मां ने संभाल लिया था, लेकिन दूसरी जब हुई तो उम्र के अंतिम पड़ाव में माताजी भी बच्चे को संभालने के लायक नहीं रही। ऐसे में महिला के लिए दो ही विकल्प बचे थे। या तो नौकरी छोड़ दे, या फिर किसी ऐसी कामवाली को तलाशा जाए जो उसकी बेटी की देखभाल कर सके। आसानी से नौकरी मिलती नहीं। ऐसे में बड़ती महंगाई में नौकरी छोड़ना भी सही नहीं है। फिर तलाश हुई कामवाली की। कामवाली मिली, लेकिन महिला ड्यूटी पर नहीं पहुंची। कामवाली ने कहा कि पहले बेटी उसे पहचानने लगे और उससे हिलमिल जाए। तभी वह उसे संभालेगी। करीब पंद्रह दिन कामवाली और बेटी के बीच महिला घर पर रही। फिर कामवाली ने बेटी को संभालना शुरू किया। करीब एक साल से वह महिला की बेटी को उसके घर पर आकर देख रही है।
अब इस महिला की स्थिति ऐसी है कि वह अगर किसी से डरती है तो वो है उसकी कामवाली। यदि किसी बात पर कामवाली नाराज हो जाए तो वह धमकी दे डालती है कि किसी दूसरी कामवाली की व्यवस्था कर लो। पैसे बढ़ाने हो तो इस डायलॉग से कामवाली का काम चल जाता है। अब महिला अपने साप्ताहिक अवकाश में भले ही ड्यूटी कर ले, लेकिन जब कामवाली को छुट्टी चाहिए होती तो उसे भी छुट्टी मारनी पड़ती। ऐसे में आफिस में छुट्टी मारने के लिए क्या कारण बताए। अपना कारण तो व्यक्ति कुछ भी बता सकता है, लेकिन बार-बार कामवाली के धोखा देने का कारण दफ्तरों में कब तक चलेगा। ऐसे में इस महिला का हर दिन नई कामवाली की तलाश में शुरू होता है। पर यह भी सच है कि जो बच्ची किसी कामवाली से हिलमिल गई हो, उसकी तरह उसे दूसरी कामवाली नहीं मिल पाती। अधिकांश निजी संस्थानों में कार्यप्रणाली की व्यवस्था रहती है कि यदि कोई एक अवकाश मांगता है तो उसके बदले उस व्यक्ति को ड्यूटी करनी पड़ती है, जिसका उस  दिन साप्ताहिक अवकाश होता है। ऐसे में महिला के आफिस में सभी सहयोगी हर दिन अपने साप्ताहिक अवकाश में डरे रहते हैं कि कहीं उसकी कामवाली धोखा न दे जाए। ऐसे में उनकी छुट्टी का मजा किरकिरा हो जाएगा। सचमुच एक कामवाली ने एकसाथ कितनों को डरा रखा है।
भानु बंगवाल           

Wednesday, 16 January 2013

Every care was pressed by the jaws

हर फिक्र को जबड़े में दबाता चला गया
बचपन में देवानंद की फिल्म- हम दोनो देखी। उसका एक गीत- हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया, उस समय लोगों की जुंबा पर छाया रहता था। समय बदला, लोगों के जीने का अंदाज बदला, पर सिगरेट नहीं बदली और न ही धुंआ बदला। उलटा तंबाकू उत्पाद में एक नई चीज और जुड़ गई, वो है गुटखा। एक छोटी सी पुड़िया से लेकर बड़े पाउच की पैकिंग में बिकने वाला तंबाकू उत्पाद यह गुटखा। यानी गले से नीचे गटको भी मत और खाओ भी मत। सिर्फ इसे रखो दांतों और जबड़े के इर्द-गिर्द फंसा कर। शायद इसका चलन करीब चालीस पचास साल पहले आज की तरह होता तो देवानंद की फिल्म का गीत तब धुएं में केंद्रित न होकर गुटखे में ही केंद्रित होता। तब पर्दे पर हीरो यह गाते नजर आता कि- हर फिक्र को जबड़े में दबाता चला गया। अलग-अलग नाम से बिकने वाला यह तंबाकू उत्पाद, जिसे जितना ज्यादा देर तक जबड़े में फंसाकर रखोगे, उतनी तेजी से ही दांत व जबड़े खराब होने लगेंगे। मुंह के भीतर की खाल सड़ने लगेगी। नतीजन केंसर का खतरा भी बड़ जाएगा।
उत्तराखंड में सरकार ने पहली जनवरी से गुटखे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसा लगा कि अब बाजार से यह गायब हो जाएगा। कई साथी लोग परेशान थे कि प्रतिबंध के बाद गुटखा नहीं मिलेगा। इसलिए कई ने एक महीने का कोटा एडवांस में खरीद लिया। कई इस आस में रहे कि चलो अच्छा है, जब बिक्री बंद होगी तो उनकी यह आदत भी छूट जाएगी। इसके विपरीत दुकानों से यह गायब नहीं हुआ। हां पैकिंग जरूर बदल गई। एक दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि तंबाकू की मिलावट वाले उत्पाद बंद हुए हैं। अलग से शुद्ध तंबाकू बिक रहा है। बगैर तंबाकू के पान पराग आदि अलग पैकिंग में आ रहा है। यानी जिसे गुटखा खाना है तो दो पैकेट अलग-अलग लो और गुटखा तैयार कर लो। यानी सरकार ने रेडीमेड तैयार होकर आने वाले गुटखे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। यदि किसी को मिलावट करनी है तो खुद ही करो। इससे बिक्रेताओं की तो चांदी ही निकल पड़ी। पहले एक पैकेट बिकता था अब एक साथ दो पैकेट की डिमांड ग्राहक कर रहे हैं।
ये लत भी ऐसी है कि जानबूझकर लोग अपनी सेहत का बंटाधार करने में तुले हैं। मेरे पड़ोस में एक बंगाली परिवार रहता है। बंगाली दादा की दो बेटियों की शादी हो रखी है। एकलौता बेटा ज्यादा पढ़ नहीं पाया और न ही उसे कहीं नौकरी मिल पाई। न ही उसकी शादी हुई। दादा ने उसे घर पर ही दुकान खोल दी। बेटा दुकान में बैठा सामान बेचता साथ ही मुंह में गुटखा भी दबाए रहता। घर परिवार के लोगों ने उसे काफी समझाया, लेकिन वह नहीं माना। एक बार उसे पीलिया हुआ। डाक्टरों ने गुटखा न खाने की सलाह दी। वह ठीक हुआ तो फिर से गुटखे का मोह नहीं छोड़ पाया। दूसरी बार उसका जबड़ा खराब हुआ । इलाज के लिए देहरादून से दिल्ली ले गए। दो माह बाद वापस लौटा और हालत में कुछ सुधार नजर आया। लगा कि अब तो यह युवक सुधर जाएगा। जब इंसान की आत्मशक्ति क्षीण हो जाती है तो दोबारा वापस लौटने में काफी वक्त लग जाता है। इस युवक के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कुछ दिन गुटखे को त्यागने के बाद उसने फिर से अपनी फिक्र को जबड़े में दबाना शुरू कर दिया। बस यही उसकी आखरी गलती रही। जब दोबारा इलाज के लिए दिल्ली ले गए तो जबड़े से लेकर छाती तक डाक्टरों ने चीराफाड़ी कर डाली। भीतर की नलियां सड़ने के कारण पाइप डाला गया। अब बेचारा युवक गुटखे से तौबा कर चुका है। यहां तक उसने दुकान में तंबाकू उत्पाद बेचने भी बंद कर दिए। पर यह भी कड़ुवा सच है कि प्लास्टिक के पाइप को शरीर में डलवाकर वह कितने दिन सुख चैन से काट सकता है। क्योंकि जब चिड़िया खेत चुग गई हो तो फिर पछताने का कोई फायदा नहीं है।
एक भले मानस के साथ भी कुछ ऐसी ही गुजर रही है। यार दोस्त शराब व गुटखा छोड़ने को समझा-समझा कर थक गए, लेकिन उनका तर्क है कि उन्हें सब कुछ हजम हो जाता है। कई बार बोल चुके हैं कि छोड़ना चाहता हूं, लेकिन आदत छुटती ही नहीं। इन मित्र की माताजी का देहांत हुआ तो दोस्तों ने समझाया कि क्रिया में बैठने के दौरान हर चीज का परहेज रखना पड़ता है। इतने दिन शराब से तो दूर ही रहोगे। ऐसे में आसानी से छूट जाएगी। साथ ही तंबाकू को भी तिलांजलि दे डालो। मित्र हां में हां तो मिलाते रहे। पूरे तेरह दिन घर पर रहे और शराब से दूर रहे, लेकिन गुटखे का मोह नहीं छो़ड़ पाए। एक कमरे में लगातार तेरह दिन बैठना। सर्दियों में भी जमीन में सोना। खुद के लिए स्वयं खाना बनाना। यह कर्म तो करना ही था, लेकिन अपनी फिक्र को जबड़े में दबाने से भी पीछे नहीं रहे। बगैर तेल, मसालों से तैयार खाना भले ही अनमने मन से खाया हो, लेकिन मुंह में गुटखा लगातार ठूंसते रहे, जैसे कोई बड़ा काम न छूट जाए।
लगातार तंबाकू-तंबाकू-तंबाकू। यह शरीर कितना झेलता। माताजी की तेहरवीं निपटी, तो दांत में दर्द हो गया। डाक्टर को दिखाया तो उसने अस्पताल में भर्ती कर दिया। पूरे जबड़े, मसूड़े से लेकर छाती तक सूजन आ गई। साथ ही भीतर पस पड़ गया। गले के पास छेद किए गए। उससे पाइप भीतर डाला गया। इस पाइप से लगातार पस बाहर निकलकर थैली में भरा जा रहा था। एक सप्ताह तक भर्ती रहने के बाद अस्पताल से छुट्टी मिली। फिर कुछ दिन बाद डाक्टर ने खोखले हो चुके दांत बाहर निकाल दिए। लगा कि अब सबकुछ ठीक हो गया है। पर ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी फिक्र को जबड़े में दबाना नहीं भूले। अस्पताल से आने के बाद भी लगातार तंबाकू खाते रहे। फिर अचानक एक दिन मुंह में फिर से सूजन आ गई और अब डाक्टर के चक्कर लगा रहे हैं। न जाने कब ऐसे मित्रों को सदबुद्धि आएगी। कोई उसे समझाए कि जब जबड़ा ही सलामत नहीं रहेगा, तो उसमें फिक्र कैसे दबा पाओगे।
भानु बंगवाल

Sunday, 13 January 2013

Sacrifice ....

बलिदान....
करुणा आज काफी खुश थी। उसे ऐसा लगा कि जैसे उसकी जिंदगी का सबसे खुशी का दिन आज ही है। कारण यह था कि उसकी छोटी बहन शानू के ससुराल से खुशी के संदेश का फोन आया। उसकी सास ने करुणा को बताया कि शानू ने बेटे को जन्म दिया। जच्चा व बच्चा दोनों ही ठीक हैं। जिस शानू का कुछ साल पहले भविष्य गर्त में नजर आ  रहा था, उसके मां बनने पर करुणा को ऐसा लगा कि सारी दुनियां की खुशी उसके आंचल में डाल दी गई। यह खुशी करुणा के बलिदान से ही शानू को मिली, लेकिन वह इसे बलिदान नहीं मानती। उसकी नजर में यह बड़ी बहन का फर्ज है। ऐसा फर्ज माता-पिता औलाद के लिए निभाते हैं, लेकिन करुणा तो शानू की बड़ी बहन तो थी ही, साथ ही उसे मां का प्यार भी देती आई।
देहरादून में बचपन में ही करुणा की मां की मौत हो गई थी। तब उसकी बहन शानू करीब तीन साल की थी और करुणा की उम्र करीब दस साल की थी। मां की मौत के बाद करुणा ने ही छोटी बहन का ख्याल रखा। पिता सरकारी आफिस में अफसर थे। करुणा की दादी व अन्य परिजनों ने उसके पिता से दूसरी शादी को कहा। सबका कहना था कि पत्नी आएगी तो बच्चों को कम से कम खाना तो बना कर खिलाएगी। छोटी उम्र से ही दोनों बच्चे काम करेंगे तो पढ़ाई कब करेंगे। पिता भवानी दत्त शुरुआत में शादी को टालते रहे, लेकिन जब परिजन ज्यादा जोर देने लगे तो वह राजी हो गए। परिवार के ही कुछ सलाहकार भवानी की शादी के खिलाफ थे। उनका कहना था कि सौतेली मां ने यदि बच्चों का ख्याल नहीं रखा तो तब दोनों बेटियों का क्या होगा। सोतेली मां की जब अपनी औलाद होगी तो तय है कि वह करुणा और शानू को मां का प्यार नहीं देगी। हो सकता है कि वह दोनों लड़कियों पर अत्याचार भी करने लगे।
भवानी दत्त ने भी इसी दृष्टिकोण से सोचा और फिर उसका उपाय भी निकाल लिया। शादी से पहले भवानी ने परिवार नियोजन के लिए अपना आपरेशन कराया और फिर एक सीदी साधी गरीब घर की अपनी हम उम्र लड़की से शादी कर ली। गरीबी के कारण उस लड़की का विवाह नहीं हो पाया था।
शुरूआत में नई मां से दोनों लड़कियां डरी। फिर धीरे-धीरे दोनों ने उसकी आदत डाल ली। दोनों बेटियों के प्रति मां का व्यवहार भी अच्छा था। बेचारी नई मां भी बलिदानी थी। विवाह के बाद ही उसे पता चला कि वह कभी किसी बच्चे को जन्म नहीं दे पाएगी। क्योंकि उसके पति ने पहले ही आपरेशन करा लिया था। यह टीस उसे कई साल तक सालती रही, फिर उसने दोनों बेटियों को ही मां का प्यार दिया और उन्हें अपनी सगी बेटियों की तरह माना। बेटियां जवान हुई और करुणा की शहर से बहुत दूर बंगलौर में नौकरी लग गई। वह घर से बाहर रहने लगी। शानू तब बीए में पढ़ रही थी। इसी दौरान वह मोहल्ले के एक युवक के संपर्क में आई। पिता और सौतेली माता को जब इसका पता लगा तो उन्होंने उसे घर व परिवार धर्म का पाठ पढ़ाया। शानू को समझाया कि युवक तेरे काबिल नहीं है। वह दस से आगे तक नहीं पढ़ पाया। तेरा उस के साथ सुखद भविष्य नहीं है। पढ़ाई पूरी कर और बड़ी बहन की तरह पांव में खड़े हो। युवक भी नशेड़ी था। उसके घर वाले भी शानू से शादी के खिलाफ थे। उसके परिजनों ने भी नशा छुड़ाने के लिए बेटे को दिल्ली में किसी अस्पताल में भर्ती कराया। इधर शानू भी मानसिक रूप से परेशान रहने लगी। उसे पागलपन सवार हो जाता। वह सामान उठाकर पटकने लगती। कई बार उसे कपड़े पहनने तक ही सुधबुध तक नहीं रहती। ऐसे में उसका इलाज मनो चिकित्सक से शुरू कराया गया। साथ ही उसे घर में कमरे में बंद करके रखा जाने लगा।
उन दिनों शानू को देख कोई यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि वह ठीक हो जाएगी। मोहल्ले का युवक तो ठीक हो गया और उसके परिजनों ने उसके लिए लड़की तलाश कर उसका विवाह भी करा दिया। उसके लिए कुछ वाहन खरीदे गए और वह ट्रैवल्स का काम करने लगा।
शानू की बिगड़ती हालत देख करुणा एक दिन उसे अपने साथ बंगलौर ले गई। कुछ दिन उसने अपनी नजर में उसे रखा। उसे अच्छा-बुरा समझाया। समय के साथ शानू में भी परिवर्तन आया और वह नार्मल होने लगी। उसने अधूरी छूटी बीए की पढ़ाई भी पूरी की। एक दिन माता-पिता ने शानू के लिए लखनऊ में अपनी जाति का ही लड़का तलाश कर उसका विवाह करा दिया। सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। विवाह के करीब डेढ़ साल बाद शानू ने लड़की को जन्म दिया। बस यहीं से उसके बुरे दिन शुरू हो गए। ससुराल पक्ष में पति, सास से लेकर हर कोई शानू के साथ ऐसा वर्ताव करने लगा कि जैसे बेटी को जन्म देकर उसने कोई अपराध किया है। बात-बात पर ताने और बुरे वर्ताव के चलते शानू फिर से अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। इस पर ससुराल वालों ने उसके माता-पिता पर आरोप मढ़ा कि उन्होंने पागल बेटी उनके लड़के के पल्ले बांध दी है। दोनों पक्षों का विवाद अदालत तक पहुंचा और तलाक के बाद ही मामला निपटा। ससुराल वाले शानू की बेटी को अपने साथ ले गए। वह अपने पिता के घर पर रहने लगी। पागलपन के दौरे के दौरान कभी शानू मांग में सिंदूर सजाकर सजधज कर घर में बैठ जाती तो कभी कई दिनों तक सिर पर कंघी तक नहीं करती।
बड़ी बहन को फिर छोटी की चिंता सताने लगी। वह उसे फिर अपने साथ ले गई। हवा-पानी बदला और करुणा की मेहनत भी रंग लाई। शानू फिर से ठीक होने लगी। करुणा को परिजन शादी के लिए कहते, लेकिन पैंतीस से ज्यादा उम्र निकल गई थी। साथ ही छोटी की दशा देखकर उसने शादी न करने का संकल्प ले रखा था। वह शानू को अपने पांव में खड़ा होते देखना चाहती थी। आफिस जाने के दौरान करुणा के संपर्क में राकेश नाम का एक युवक आया। हर रोज की मुलाकात जान पहचान में बदल गई। फिर धीरे-धीरे दोनों अपने घर परिवार की बातें एक दूसरे को बताने लगे। इन बातों में करुणा की बातें छोटी बहन शानू पर ही केंद्रित रहती। उधर, युवक ने बताया कि उसका विवाह हो चुका था। पत्नी की मौत हो गई। एक छोटा बेटा है। एक दिन युवक ने करुणा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। इसे करुणा ने ठुकरा दिया। उसने बताया कि वह शादी न करने का संकल्प ले चुकी है। उसने अपनी छोटी बहन शानू से विवाह करने का उसे प्रस्ताव दिया, जिसे राकेश ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शानू की कहानी करुणा राकेश पर पहले ही बता चुकी थी। उसे सुनकर राकेश का कहना था कि डिप्रेशन कोई बीमारी नहीं है। यह तो हमारे अपने ही कारण पैदा होती है। यदि माहोल सही मिले तो व्यक्ति आसानी से मानसिक परेशानियों का मुकाबला कर सकता है। शानू का राकेश से विवाह हुआ। नए ससुराल के लोगों ने उसका खूब ख्याल रखा। फिर शानू ने बेटे को जन्म दिया और वह अपने पति, सास-ससुर, सौतेले बेटे और नवजात शिशु के साथ बेहद खुश है। उधर, बड़ी बहन करुणा को जैसे ही शानू के दोबारा मां बनने की सूचना मिली, खुशी से उसकी आंखे छलक उठी। आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। आखिरकार छोटी बहन के लिए उसका बलिदान काम आया।
एक परिवार के सदस्यों का किसी न किसी रूप में दिया गया बलिदान। सचमुच किसका बलिदान बड़ा है, यह कहना मुश्किल है। एक पिता का बेटियों की अच्छी परवरिश के लिए किया गया बलिदान,  जिसने दूसरी शादी तो की, लेकिन पुत्र या अन्य संतान का मोह त्याग दिया। उस मां का बलिदान, जो दुल्हन तो बनी, लेकिन जीवन भर अपनी कोख से मां बनने का सपना उसका पूरा नहीं हो सका। करुणा का बलिदान, जिसने अपनी छोटी बहन की खातिर अपनी शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया और प्रस्ताव रखने वाले युवक से अपनी बहन का रिश्ता करा दिया। राकेश का बलिदान, जो चाहता तो करुणा को था, लेकिन उसकी बहन को उसने अपना लिया।
भानु बंगवाल

Tuesday, 8 January 2013

Severe cold and pultan market ...

कड़ाके की ठंड और पलटन बाजार...
उत्तरभारत में कड़ाके की ठंड। इस ठंड की तुलना पहले की ठंड से की जा रही है। कोई कहता है कि 45 साल बाद ऐसी ठंड पड़ी, तो कोई मौसम विज्ञानी के आंकडो़ के आधार पर कह रहे हैं कि 12 साल बाद ऐसी सर्दी आई। यानी प्रकृति भी अपने इस रूप को दोहरा रही है। देश के अन्य इलाकों की तरह ही उत्तराखंड के मैदानी इलाको में भी सर्दी अपना प्रकोप बरपा रही है। फिर भी पर्वतीय इलाकों में मौसम खुशगवार है। ऐसा मौसम देहरादून की राजपुर रोड से सटे इलाकों में भी देखने को मिल रहा है। मेरा तो कहना है कि यदि मैदानी इलाकों में रहने वालों ने धूप के दर्शन नहीं किए और सूर्यदेव की एक झलक पाने को तरस गए हों तो चले आइए उत्तराखंड। यहां सुबह व शाम को सर्दी का अहसास जरूर होता है, लेकिन देहरादून समेत नई टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग व चमोली जैसे शहरों में सुबह करीब आठ बजे से गुनगुनी धूप खिलने लगती है। शाम पांच बजे तक धूप का मजा यहां लिया जा सकता है। जैसे समुद्र किनारे खड़े होकर लगता है कि पूरी दुनियां में पानी ही पानी है। ठीक उसी तरह यहां धूप को देखकर यह अहसास तक नहीं होता कि देहरादून से आगे निचले इलाके के लोग धूप से तरस रहे हैं।
कितनी जरूरी है यह धूप भी जीवन के लिए। लोगों की सुबह धूप से शुरू होती है। सुबह होते ही जब बच्चे व बूढ़े बिस्तर छोड़ते हैं तो वे पहले धूप में जरूर बैठते हैं। इसके बाद ही दांतों में ब्रश व अन्य काम की शुरूआत होती है। घर से आफिस पहुंचने पर सबसे पहले कर्मी धूप में खड़े हो रहे हैं। फिर कुछ देर की सिकाई के बाद ही कामकाज को पटरी पर लाने की दिनचर्या की शुरुआत होती है। काम करते-करते घंटे दो घंटे बाद चाय पीने के बहाने ऐसे कर्मी धूप सेंकने से भी नहीं चूक रहे हैं। कई विभागों में तो अधिकारी से लेकर बाबू तक धूप में ही कुर्सी मेज लगाकर कामकाज निपटाते देखे जा सकते हैं।
ये तो था प्रकृति का दोहराव। जो कुछ-कुछ साल के अंतराल में पुराने मौसम को दोहराकर पुरानी यादों को ताजा कर देती है। लेकिन, इस बार तो देहरादून में व्यवस्थागत दोहराव भी नजर आने लगा है। यह दोहराव शहर के मुख्य बाजार पलटन बाजार में देखने को मिल रहा है। जहां करीब पैंतीस साल पहले भ्रमण के दौरान वाहन दिखाई नहीं देते थे। क्योंकि तक शहर में वाहनों की संख्या सीमित थी। ऐसे में लोग पैदल ही इस बाजार में पहुंचकर छोटी-छोटी जरूरत का सामान खरीदते थे। समय के साथ हुए बदलाव ने इस बाजार की सूरत ही बिगाड़ कर रख दी। दोपहिया व ठेलियों की भीड़ के चलते इस बाजार में जाने से हर कोई कतराने लगा था। इस बार प्रशासन ने इस बाजार में वाहनों की आवाजाही प्रतिबंधित कर दी। ऐसे में पलटन बाजार अपने पुराने रूप से और ज्यादा निखर गया है। क्योंकि यहां करीब दस साल पहले अतिक्रमण के खिलाफ अभियान चलाकर कई दुकानें पीछे की गई। इससे सड़क भी चौड़ी हो गई। दिन में गुनगुनी धूप और चौड़ी सड़क पर पैदल भ्रमण का मजा कुछ अलग ही है।
अब बात करें पलटन बाजार की। वर्ष 1882 में जब सहारनपुर-देहरादून मार्ग का निर्माण हुआ तो मसूरी व गढ़वाल के समीपस्थ क्षेत्रों तक सामान पहुंचाने के लिए अंग्रेजों ने एक यातायात व्यवस्था आरंभ की। तब मोहंड सुरंग से प्रवेश कर मुख्य सड़क राजपुर रोड में प्रवेश किया जाता था। उस समय एकमात्र सड़क धामावाला ग्राम से होते हुए आज के घंटाघर के समीप से राजपुर तक पहुंचती थी। सहारनपुर रोड से दर्शनी होते हुए राजपुर तक की सड़क 1892 के आसपास तक राजपुर रोड कहलाई। जहां वर्तमान में पलटन बाजार है, वहां 1864 में अंग्रेजों की ओल्ड सिरमौर बटालियन ने छावनी बनाई। यहां सैन्य अधिकारियों के आवासीय स्थल भी थे। सड़क के दोनों ओर के क्षेत्र सेना के पास थे। समीप ही परेड मैदान गोरखा बटालियन के पास था। दोनों बटालियन बाद में दून के गढ़ी डाकरा क्षेत्र में स्थानांतरित हो गई और पलटन बाजार क्षेत्र खाली हो गया। परिणामस्वरूप तीन जुलाई 1874 को यह क्षेत्र तत्कालनी सुपरिंटेंडेंट ऑफ दून एचजी रॉस को सेना ने इस आशय के साथ सुपुर्दगी में दिया कि वह भूमि का नजराना सेना के कोष में प्रतिवर्ष जमा कराते रहें। यह भूमि बाद में नगर पालिका को सौंप दी गई। 1923 में राय बहादुर उग्रसेन ने नगर पालिका अध्यक्ष का कार्यभार संभाला तो खाली नजूल भूखंडों के स्वामित्व का अधिकार उन्होंने या तो अपने पास रख लिया या उसे व्यापारियों को औने-पौने दाम में बेच दिया। परिणामस्वरूप एक बाजार के रूप में पलटन बाजार अस्तित्व में आया।
अपने भीतर एक इतिहास को संजोए हुए देहरादून का पलटन बाजार आज फिर से सेलानियों के लिए एक सुंदर पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होता नजर आ रहा है। जहां लोगों की भीड़ तो है, लेकिन वाहनों की आवाजाही न होने के चलते अफरातफरी का माहौल नहीं है। इस व्यवस्था से बाजार जाने वाले खुश हैं। सिर्फ दुखी एक तबका है, वो हैं यहां के व्यापारी। जो पहले की तरह न तो दुकानों के आगे अतिक्रर्मण हीकर पा रहे हैं और न ही वाहनों की आवाजाही के प्रतिबंध को हजम कर पा रहे हैं।
भानु बंगवाल