एनकाउंटर...1
एक शब्द एनकाउंटर का नाम सुनते ही आम आदमी के शरीर में एक सिहरन सी दौड़ने लगती है। बदमाशों और पुलिस के लिए यह शब्द प्रचलित है। बदमाशों को पता होता है कि जब वे अति करने लगते हैं तो पुलिस भी उनके एनकाउंटर की तैयारी करने लगती है। बस एक बार पकड़ में आए, फिर कहीं एकांत में ले जाकर पुलिस कर देती है एनकाउंटर। बावजूद इसके अपराधों में कमी नहीं आती और हर दिन अपराध का ग्राफ चढ़ता ही जाता है। फिर भी कितना भी शातिर अपराधी हो, वह भी एनकाउंटर शब्द से डरता है। इससे बचने के लिए वह भी तिगड़म भिड़ाता रहता है।
वर्ष 1990 से 2000 के बीच देहरादून में बदमाशों के उत्पात की जितनी तेजी से घटनाएं घटी, उतनी तेजी से पुलिस ने उनके एनकाउंटर भी किए। एक बदमाश सिर उठाता और पुलिस उतनी ही तेजी से उसका खात्मा कर रही थी। कभी आतंकवादियों से पुलिस जूझती रहती तो कभी स्थानीय बदमाशों की कारस्तानियों से। पुलिस और बदमाशों के बीच चूहे-बिल्ली की दौड़ का खेल चल रहा था। एक इंसपेक्टर तो बाकायदा एनकाउंटर के लिए पूरी तरह से ड्रामा रचा करते थे।
अमूमन पुलिस की फाइल में किसी घटना के बारे में विवरण लगभग एक जैसा ही रहता है। मसलन पुलिस जो कहनी गढ़ती है, उसमें पहले किसी वारदात का जिक्र होता है। फिर पीछा करने का। पीछा करने के दौरान बदमाशों की तरफ से फायरिंग का जिक्र होता है। बचाव में पुलिस भी गोली चलाती है और बदमाश ढेर हो जाता है। ऐसे एनकाउंटर जिसमें पुलिस को गोली नहीं लगती, उसे फर्जी करार देने वाले भी पीछे नहीं रहते। वे पुलिस की कार्यप्रणाली पर अंगुली उठाते हैं।
आखिर पुलिस को क्यों किसी बदमाश के एनकाउंटर की नौबत आती है। कहते हैं कि जब पानी सिर से ऊपर आ जाए तो उसका इलाज सख्ती से ही संभव है। ऐसे में पुलिस अपराधियों पर दबाव बनाने के लिए एनकाउंटर का ड्रामा रचती है। कई बार तो पुलिस के इस ड्रामे का पात्र ऐसे बदमाश भी बन जाते हैं, जिनका अपराधिक इतिहास भी ज्यादा नहीं होता। ऐसे ही एक ड्रामेबाज इंस्पेक्टर ने जब चार्ज संभाला तो पहले अपने क्षेत्र की जनता के साथ बैठकें कर उनका विश्वास जीतने का प्रयास किया। फिर किसी छोटी सी बारदात के बाद पकड़े जाने वाले बदमाशों का जुलूस भी निकाला। जब बदमाश नहीं माने तो उनका एनकाउंटर करने से भी पीछे नहीं रहे। कई बदमाशों का एनकाउंटर हुआ। उनमें ऐसे भी व्यक्तियों को बदमाश करार दिया गया, जो छोटी-मोटी चोरियां करते थे। या फिर दो भाइयों के बीच विवाद में एक ने पुलिस का सहारा लेकर दूसरे को बदमाश करार करवा दिया। फिर लूट की एक कहानी गढ़ी गई और बदमाश को पुलिस ने मार गिराया।
ड्रामा चरम पर था। अक्सर किसी न किसी के एनकाउंटर की सूचना मिल जाती। एक दिन देहरादून के गांधी पार्क के बाहर पुलिस की गाड़ी सुबह से खड़ी देखकर एक जागरूक पत्रकार का माथा ठनका। उसने तहकीकात की तो पता चला कि पार्क में बदमाशों के आने की संभावना है और पुलिस ने पकड़ने को जाल बिछा रखा है। जागरूक पत्रकार ने अपने ही तरीके से खोज की तो एक कार में कुछ पुलिस वाले सादी वर्दी में बैठे मिले। उन्होंने युवक को कार में बैठा रखा था। पत्रकार ने कार में बैठे युवक की फोटो खींच ली। फोटो खींचने की बात जैसे ही ड्रामेबाज इंस्पेक्टर को पता चली तो उन्होंने कहानी की स्क्रीप्ट ही बदल डाली। खुद वह धोती व कुर्ता पहने ग्रामीण के वेश में थे। उन्होंने बदमाश को कार से बाहर पार्क की तरफ भागने को कहा। बदमाश धीरे-धीरे उस ओर चला। जागरूक पत्रकार पार्क के गेट के पास से बदमाश की फोटो खींच रहा था। पार्क में बदमाश के पहुंचते ही पुलिस ने उसे घेर लिया। हवाई फायर हुए। अफरा-तफरी मची, लेकिन बदमाश को गोली नहीं मारी और उसे दबोच लिया। यहां पुलिस के प्लान में कुछ पानी फिर गया था। पुलिस की योजना थी कि बदमाश को गोली मारी जाए। एक बोतल में किसी का खून लेकर भी पुलिस आई थी। इसे एक स्थान पर गिरा दिया गया था। पुलिस की कहना थी कि बदमाश वारदात कर भाग रहे थे। उनकी संख्या तीन थी। घिरने पर उन्होंने गोली चलाई। दो तरफा चली गोली से एक बदमाश घायल हो गया और एक ढेर हो गया। घायल बदमाश व उसका साथी भागने में सफल रहे। जो बदमाश मारा गया वो एक हिस्ट्रीशीटर था।
पुलिस के ड्रामे को अंजाम पहुंचाने से पहले ही बदमाश के सही सलामत पुलिस के बीच बैठे होने की फोटो खींचने के बाद पुलिस ने कहानी मोड़ दी। सब कुछ पहले से लिखी स्क्रीप्ट के तहत ही चला, लेकिन बदमाश ढेर नहीं हुआ और उसे दबोच लिया गया। फिर भी पुलिस ने एक मुठभेड़ को लेकर खूब वाहवाही लूटी और जनता को पुलिस का सच पता नहीं चल सका। वहीं जिस बदमाश को पुलिस ने पकड़ा था उसने भी बदमाशी छोड़ दी और वह परिवार के साथ अपने दिन सुख चैन से बीता रहा है। (जारी। अगला ब्लॉग-एनकाउंटर -दो-तू डाल-डाल, मैं पात-पात)
भानु बंगवाल
एक शब्द एनकाउंटर का नाम सुनते ही आम आदमी के शरीर में एक सिहरन सी दौड़ने लगती है। बदमाशों और पुलिस के लिए यह शब्द प्रचलित है। बदमाशों को पता होता है कि जब वे अति करने लगते हैं तो पुलिस भी उनके एनकाउंटर की तैयारी करने लगती है। बस एक बार पकड़ में आए, फिर कहीं एकांत में ले जाकर पुलिस कर देती है एनकाउंटर। बावजूद इसके अपराधों में कमी नहीं आती और हर दिन अपराध का ग्राफ चढ़ता ही जाता है। फिर भी कितना भी शातिर अपराधी हो, वह भी एनकाउंटर शब्द से डरता है। इससे बचने के लिए वह भी तिगड़म भिड़ाता रहता है।
वर्ष 1990 से 2000 के बीच देहरादून में बदमाशों के उत्पात की जितनी तेजी से घटनाएं घटी, उतनी तेजी से पुलिस ने उनके एनकाउंटर भी किए। एक बदमाश सिर उठाता और पुलिस उतनी ही तेजी से उसका खात्मा कर रही थी। कभी आतंकवादियों से पुलिस जूझती रहती तो कभी स्थानीय बदमाशों की कारस्तानियों से। पुलिस और बदमाशों के बीच चूहे-बिल्ली की दौड़ का खेल चल रहा था। एक इंसपेक्टर तो बाकायदा एनकाउंटर के लिए पूरी तरह से ड्रामा रचा करते थे।
अमूमन पुलिस की फाइल में किसी घटना के बारे में विवरण लगभग एक जैसा ही रहता है। मसलन पुलिस जो कहनी गढ़ती है, उसमें पहले किसी वारदात का जिक्र होता है। फिर पीछा करने का। पीछा करने के दौरान बदमाशों की तरफ से फायरिंग का जिक्र होता है। बचाव में पुलिस भी गोली चलाती है और बदमाश ढेर हो जाता है। ऐसे एनकाउंटर जिसमें पुलिस को गोली नहीं लगती, उसे फर्जी करार देने वाले भी पीछे नहीं रहते। वे पुलिस की कार्यप्रणाली पर अंगुली उठाते हैं।
आखिर पुलिस को क्यों किसी बदमाश के एनकाउंटर की नौबत आती है। कहते हैं कि जब पानी सिर से ऊपर आ जाए तो उसका इलाज सख्ती से ही संभव है। ऐसे में पुलिस अपराधियों पर दबाव बनाने के लिए एनकाउंटर का ड्रामा रचती है। कई बार तो पुलिस के इस ड्रामे का पात्र ऐसे बदमाश भी बन जाते हैं, जिनका अपराधिक इतिहास भी ज्यादा नहीं होता। ऐसे ही एक ड्रामेबाज इंस्पेक्टर ने जब चार्ज संभाला तो पहले अपने क्षेत्र की जनता के साथ बैठकें कर उनका विश्वास जीतने का प्रयास किया। फिर किसी छोटी सी बारदात के बाद पकड़े जाने वाले बदमाशों का जुलूस भी निकाला। जब बदमाश नहीं माने तो उनका एनकाउंटर करने से भी पीछे नहीं रहे। कई बदमाशों का एनकाउंटर हुआ। उनमें ऐसे भी व्यक्तियों को बदमाश करार दिया गया, जो छोटी-मोटी चोरियां करते थे। या फिर दो भाइयों के बीच विवाद में एक ने पुलिस का सहारा लेकर दूसरे को बदमाश करार करवा दिया। फिर लूट की एक कहानी गढ़ी गई और बदमाश को पुलिस ने मार गिराया।
ड्रामा चरम पर था। अक्सर किसी न किसी के एनकाउंटर की सूचना मिल जाती। एक दिन देहरादून के गांधी पार्क के बाहर पुलिस की गाड़ी सुबह से खड़ी देखकर एक जागरूक पत्रकार का माथा ठनका। उसने तहकीकात की तो पता चला कि पार्क में बदमाशों के आने की संभावना है और पुलिस ने पकड़ने को जाल बिछा रखा है। जागरूक पत्रकार ने अपने ही तरीके से खोज की तो एक कार में कुछ पुलिस वाले सादी वर्दी में बैठे मिले। उन्होंने युवक को कार में बैठा रखा था। पत्रकार ने कार में बैठे युवक की फोटो खींच ली। फोटो खींचने की बात जैसे ही ड्रामेबाज इंस्पेक्टर को पता चली तो उन्होंने कहानी की स्क्रीप्ट ही बदल डाली। खुद वह धोती व कुर्ता पहने ग्रामीण के वेश में थे। उन्होंने बदमाश को कार से बाहर पार्क की तरफ भागने को कहा। बदमाश धीरे-धीरे उस ओर चला। जागरूक पत्रकार पार्क के गेट के पास से बदमाश की फोटो खींच रहा था। पार्क में बदमाश के पहुंचते ही पुलिस ने उसे घेर लिया। हवाई फायर हुए। अफरा-तफरी मची, लेकिन बदमाश को गोली नहीं मारी और उसे दबोच लिया। यहां पुलिस के प्लान में कुछ पानी फिर गया था। पुलिस की योजना थी कि बदमाश को गोली मारी जाए। एक बोतल में किसी का खून लेकर भी पुलिस आई थी। इसे एक स्थान पर गिरा दिया गया था। पुलिस की कहना थी कि बदमाश वारदात कर भाग रहे थे। उनकी संख्या तीन थी। घिरने पर उन्होंने गोली चलाई। दो तरफा चली गोली से एक बदमाश घायल हो गया और एक ढेर हो गया। घायल बदमाश व उसका साथी भागने में सफल रहे। जो बदमाश मारा गया वो एक हिस्ट्रीशीटर था।
पुलिस के ड्रामे को अंजाम पहुंचाने से पहले ही बदमाश के सही सलामत पुलिस के बीच बैठे होने की फोटो खींचने के बाद पुलिस ने कहानी मोड़ दी। सब कुछ पहले से लिखी स्क्रीप्ट के तहत ही चला, लेकिन बदमाश ढेर नहीं हुआ और उसे दबोच लिया गया। फिर भी पुलिस ने एक मुठभेड़ को लेकर खूब वाहवाही लूटी और जनता को पुलिस का सच पता नहीं चल सका। वहीं जिस बदमाश को पुलिस ने पकड़ा था उसने भी बदमाशी छोड़ दी और वह परिवार के साथ अपने दिन सुख चैन से बीता रहा है। (जारी। अगला ब्लॉग-एनकाउंटर -दो-तू डाल-डाल, मैं पात-पात)
भानु बंगवाल
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