हर फिक्र को जबड़े में दबाता चला गया
बचपन में देवानंद की फिल्म- हम दोनो देखी। उसका एक गीत- हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया, उस समय लोगों की जुंबा पर छाया रहता था। समय बदला, लोगों के जीने का अंदाज बदला, पर सिगरेट नहीं बदली और न ही धुंआ बदला। उलटा तंबाकू उत्पाद में एक नई चीज और जुड़ गई, वो है गुटखा। एक छोटी सी पुड़िया से लेकर बड़े पाउच की पैकिंग में बिकने वाला तंबाकू उत्पाद यह गुटखा। यानी गले से नीचे गटको भी मत और खाओ भी मत। सिर्फ इसे रखो दांतों और जबड़े के इर्द-गिर्द फंसा कर। शायद इसका चलन करीब चालीस पचास साल पहले आज की तरह होता तो देवानंद की फिल्म का गीत तब धुएं में केंद्रित न होकर गुटखे में ही केंद्रित होता। तब पर्दे पर हीरो यह गाते नजर आता कि- हर फिक्र को जबड़े में दबाता चला गया। अलग-अलग नाम से बिकने वाला यह तंबाकू उत्पाद, जिसे जितना ज्यादा देर तक जबड़े में फंसाकर रखोगे, उतनी तेजी से ही दांत व जबड़े खराब होने लगेंगे। मुंह के भीतर की खाल सड़ने लगेगी। नतीजन केंसर का खतरा भी बड़ जाएगा।
उत्तराखंड में सरकार ने पहली जनवरी से गुटखे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसा लगा कि अब बाजार से यह गायब हो जाएगा। कई साथी लोग परेशान थे कि प्रतिबंध के बाद गुटखा नहीं मिलेगा। इसलिए कई ने एक महीने का कोटा एडवांस में खरीद लिया। कई इस आस में रहे कि चलो अच्छा है, जब बिक्री बंद होगी तो उनकी यह आदत भी छूट जाएगी। इसके विपरीत दुकानों से यह गायब नहीं हुआ। हां पैकिंग जरूर बदल गई। एक दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि तंबाकू की मिलावट वाले उत्पाद बंद हुए हैं। अलग से शुद्ध तंबाकू बिक रहा है। बगैर तंबाकू के पान पराग आदि अलग पैकिंग में आ रहा है। यानी जिसे गुटखा खाना है तो दो पैकेट अलग-अलग लो और गुटखा तैयार कर लो। यानी सरकार ने रेडीमेड तैयार होकर आने वाले गुटखे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। यदि किसी को मिलावट करनी है तो खुद ही करो। इससे बिक्रेताओं की तो चांदी ही निकल पड़ी। पहले एक पैकेट बिकता था अब एक साथ दो पैकेट की डिमांड ग्राहक कर रहे हैं।
ये लत भी ऐसी है कि जानबूझकर लोग अपनी सेहत का बंटाधार करने में तुले हैं। मेरे पड़ोस में एक बंगाली परिवार रहता है। बंगाली दादा की दो बेटियों की शादी हो रखी है। एकलौता बेटा ज्यादा पढ़ नहीं पाया और न ही उसे कहीं नौकरी मिल पाई। न ही उसकी शादी हुई। दादा ने उसे घर पर ही दुकान खोल दी। बेटा दुकान में बैठा सामान बेचता साथ ही मुंह में गुटखा भी दबाए रहता। घर परिवार के लोगों ने उसे काफी समझाया, लेकिन वह नहीं माना। एक बार उसे पीलिया हुआ। डाक्टरों ने गुटखा न खाने की सलाह दी। वह ठीक हुआ तो फिर से गुटखे का मोह नहीं छोड़ पाया। दूसरी बार उसका जबड़ा खराब हुआ । इलाज के लिए देहरादून से दिल्ली ले गए। दो माह बाद वापस लौटा और हालत में कुछ सुधार नजर आया। लगा कि अब तो यह युवक सुधर जाएगा। जब इंसान की आत्मशक्ति क्षीण हो जाती है तो दोबारा वापस लौटने में काफी वक्त लग जाता है। इस युवक के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कुछ दिन गुटखे को त्यागने के बाद उसने फिर से अपनी फिक्र को जबड़े में दबाना शुरू कर दिया। बस यही उसकी आखरी गलती रही। जब दोबारा इलाज के लिए दिल्ली ले गए तो जबड़े से लेकर छाती तक डाक्टरों ने चीराफाड़ी कर डाली। भीतर की नलियां सड़ने के कारण पाइप डाला गया। अब बेचारा युवक गुटखे से तौबा कर चुका है। यहां तक उसने दुकान में तंबाकू उत्पाद बेचने भी बंद कर दिए। पर यह भी कड़ुवा सच है कि प्लास्टिक के पाइप को शरीर में डलवाकर वह कितने दिन सुख चैन से काट सकता है। क्योंकि जब चिड़िया खेत चुग गई हो तो फिर पछताने का कोई फायदा नहीं है।
एक भले मानस के साथ भी कुछ ऐसी ही गुजर रही है। यार दोस्त शराब व गुटखा छोड़ने को समझा-समझा कर थक गए, लेकिन उनका तर्क है कि उन्हें सब कुछ हजम हो जाता है। कई बार बोल चुके हैं कि छोड़ना चाहता हूं, लेकिन आदत छुटती ही नहीं। इन मित्र की माताजी का देहांत हुआ तो दोस्तों ने समझाया कि क्रिया में बैठने के दौरान हर चीज का परहेज रखना पड़ता है। इतने दिन शराब से तो दूर ही रहोगे। ऐसे में आसानी से छूट जाएगी। साथ ही तंबाकू को भी तिलांजलि दे डालो। मित्र हां में हां तो मिलाते रहे। पूरे तेरह दिन घर पर रहे और शराब से दूर रहे, लेकिन गुटखे का मोह नहीं छो़ड़ पाए। एक कमरे में लगातार तेरह दिन बैठना। सर्दियों में भी जमीन में सोना। खुद के लिए स्वयं खाना बनाना। यह कर्म तो करना ही था, लेकिन अपनी फिक्र को जबड़े में दबाने से भी पीछे नहीं रहे। बगैर तेल, मसालों से तैयार खाना भले ही अनमने मन से खाया हो, लेकिन मुंह में गुटखा लगातार ठूंसते रहे, जैसे कोई बड़ा काम न छूट जाए।
लगातार तंबाकू-तंबाकू-तंबाकू। यह शरीर कितना झेलता। माताजी की तेहरवीं निपटी, तो दांत में दर्द हो गया। डाक्टर को दिखाया तो उसने अस्पताल में भर्ती कर दिया। पूरे जबड़े, मसूड़े से लेकर छाती तक सूजन आ गई। साथ ही भीतर पस पड़ गया। गले के पास छेद किए गए। उससे पाइप भीतर डाला गया। इस पाइप से लगातार पस बाहर निकलकर थैली में भरा जा रहा था। एक सप्ताह तक भर्ती रहने के बाद अस्पताल से छुट्टी मिली। फिर कुछ दिन बाद डाक्टर ने खोखले हो चुके दांत बाहर निकाल दिए। लगा कि अब सबकुछ ठीक हो गया है। पर ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी फिक्र को जबड़े में दबाना नहीं भूले। अस्पताल से आने के बाद भी लगातार तंबाकू खाते रहे। फिर अचानक एक दिन मुंह में फिर से सूजन आ गई और अब डाक्टर के चक्कर लगा रहे हैं। न जाने कब ऐसे मित्रों को सदबुद्धि आएगी। कोई उसे समझाए कि जब जबड़ा ही सलामत नहीं रहेगा, तो उसमें फिक्र कैसे दबा पाओगे।
भानु बंगवाल
बचपन में देवानंद की फिल्म- हम दोनो देखी। उसका एक गीत- हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया, उस समय लोगों की जुंबा पर छाया रहता था। समय बदला, लोगों के जीने का अंदाज बदला, पर सिगरेट नहीं बदली और न ही धुंआ बदला। उलटा तंबाकू उत्पाद में एक नई चीज और जुड़ गई, वो है गुटखा। एक छोटी सी पुड़िया से लेकर बड़े पाउच की पैकिंग में बिकने वाला तंबाकू उत्पाद यह गुटखा। यानी गले से नीचे गटको भी मत और खाओ भी मत। सिर्फ इसे रखो दांतों और जबड़े के इर्द-गिर्द फंसा कर। शायद इसका चलन करीब चालीस पचास साल पहले आज की तरह होता तो देवानंद की फिल्म का गीत तब धुएं में केंद्रित न होकर गुटखे में ही केंद्रित होता। तब पर्दे पर हीरो यह गाते नजर आता कि- हर फिक्र को जबड़े में दबाता चला गया। अलग-अलग नाम से बिकने वाला यह तंबाकू उत्पाद, जिसे जितना ज्यादा देर तक जबड़े में फंसाकर रखोगे, उतनी तेजी से ही दांत व जबड़े खराब होने लगेंगे। मुंह के भीतर की खाल सड़ने लगेगी। नतीजन केंसर का खतरा भी बड़ जाएगा।
उत्तराखंड में सरकार ने पहली जनवरी से गुटखे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसा लगा कि अब बाजार से यह गायब हो जाएगा। कई साथी लोग परेशान थे कि प्रतिबंध के बाद गुटखा नहीं मिलेगा। इसलिए कई ने एक महीने का कोटा एडवांस में खरीद लिया। कई इस आस में रहे कि चलो अच्छा है, जब बिक्री बंद होगी तो उनकी यह आदत भी छूट जाएगी। इसके विपरीत दुकानों से यह गायब नहीं हुआ। हां पैकिंग जरूर बदल गई। एक दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि तंबाकू की मिलावट वाले उत्पाद बंद हुए हैं। अलग से शुद्ध तंबाकू बिक रहा है। बगैर तंबाकू के पान पराग आदि अलग पैकिंग में आ रहा है। यानी जिसे गुटखा खाना है तो दो पैकेट अलग-अलग लो और गुटखा तैयार कर लो। यानी सरकार ने रेडीमेड तैयार होकर आने वाले गुटखे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। यदि किसी को मिलावट करनी है तो खुद ही करो। इससे बिक्रेताओं की तो चांदी ही निकल पड़ी। पहले एक पैकेट बिकता था अब एक साथ दो पैकेट की डिमांड ग्राहक कर रहे हैं।
ये लत भी ऐसी है कि जानबूझकर लोग अपनी सेहत का बंटाधार करने में तुले हैं। मेरे पड़ोस में एक बंगाली परिवार रहता है। बंगाली दादा की दो बेटियों की शादी हो रखी है। एकलौता बेटा ज्यादा पढ़ नहीं पाया और न ही उसे कहीं नौकरी मिल पाई। न ही उसकी शादी हुई। दादा ने उसे घर पर ही दुकान खोल दी। बेटा दुकान में बैठा सामान बेचता साथ ही मुंह में गुटखा भी दबाए रहता। घर परिवार के लोगों ने उसे काफी समझाया, लेकिन वह नहीं माना। एक बार उसे पीलिया हुआ। डाक्टरों ने गुटखा न खाने की सलाह दी। वह ठीक हुआ तो फिर से गुटखे का मोह नहीं छोड़ पाया। दूसरी बार उसका जबड़ा खराब हुआ । इलाज के लिए देहरादून से दिल्ली ले गए। दो माह बाद वापस लौटा और हालत में कुछ सुधार नजर आया। लगा कि अब तो यह युवक सुधर जाएगा। जब इंसान की आत्मशक्ति क्षीण हो जाती है तो दोबारा वापस लौटने में काफी वक्त लग जाता है। इस युवक के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कुछ दिन गुटखे को त्यागने के बाद उसने फिर से अपनी फिक्र को जबड़े में दबाना शुरू कर दिया। बस यही उसकी आखरी गलती रही। जब दोबारा इलाज के लिए दिल्ली ले गए तो जबड़े से लेकर छाती तक डाक्टरों ने चीराफाड़ी कर डाली। भीतर की नलियां सड़ने के कारण पाइप डाला गया। अब बेचारा युवक गुटखे से तौबा कर चुका है। यहां तक उसने दुकान में तंबाकू उत्पाद बेचने भी बंद कर दिए। पर यह भी कड़ुवा सच है कि प्लास्टिक के पाइप को शरीर में डलवाकर वह कितने दिन सुख चैन से काट सकता है। क्योंकि जब चिड़िया खेत चुग गई हो तो फिर पछताने का कोई फायदा नहीं है।
एक भले मानस के साथ भी कुछ ऐसी ही गुजर रही है। यार दोस्त शराब व गुटखा छोड़ने को समझा-समझा कर थक गए, लेकिन उनका तर्क है कि उन्हें सब कुछ हजम हो जाता है। कई बार बोल चुके हैं कि छोड़ना चाहता हूं, लेकिन आदत छुटती ही नहीं। इन मित्र की माताजी का देहांत हुआ तो दोस्तों ने समझाया कि क्रिया में बैठने के दौरान हर चीज का परहेज रखना पड़ता है। इतने दिन शराब से तो दूर ही रहोगे। ऐसे में आसानी से छूट जाएगी। साथ ही तंबाकू को भी तिलांजलि दे डालो। मित्र हां में हां तो मिलाते रहे। पूरे तेरह दिन घर पर रहे और शराब से दूर रहे, लेकिन गुटखे का मोह नहीं छो़ड़ पाए। एक कमरे में लगातार तेरह दिन बैठना। सर्दियों में भी जमीन में सोना। खुद के लिए स्वयं खाना बनाना। यह कर्म तो करना ही था, लेकिन अपनी फिक्र को जबड़े में दबाने से भी पीछे नहीं रहे। बगैर तेल, मसालों से तैयार खाना भले ही अनमने मन से खाया हो, लेकिन मुंह में गुटखा लगातार ठूंसते रहे, जैसे कोई बड़ा काम न छूट जाए।
लगातार तंबाकू-तंबाकू-तंबाकू। यह शरीर कितना झेलता। माताजी की तेहरवीं निपटी, तो दांत में दर्द हो गया। डाक्टर को दिखाया तो उसने अस्पताल में भर्ती कर दिया। पूरे जबड़े, मसूड़े से लेकर छाती तक सूजन आ गई। साथ ही भीतर पस पड़ गया। गले के पास छेद किए गए। उससे पाइप भीतर डाला गया। इस पाइप से लगातार पस बाहर निकलकर थैली में भरा जा रहा था। एक सप्ताह तक भर्ती रहने के बाद अस्पताल से छुट्टी मिली। फिर कुछ दिन बाद डाक्टर ने खोखले हो चुके दांत बाहर निकाल दिए। लगा कि अब सबकुछ ठीक हो गया है। पर ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी फिक्र को जबड़े में दबाना नहीं भूले। अस्पताल से आने के बाद भी लगातार तंबाकू खाते रहे। फिर अचानक एक दिन मुंह में फिर से सूजन आ गई और अब डाक्टर के चक्कर लगा रहे हैं। न जाने कब ऐसे मित्रों को सदबुद्धि आएगी। कोई उसे समझाए कि जब जबड़ा ही सलामत नहीं रहेगा, तो उसमें फिक्र कैसे दबा पाओगे।
भानु बंगवाल
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