Saturday, 31 August 2013

योगी नहीं भोगी, साधु नहीं स्वादु...

योगी नहीं ये तो भोगी हैं। साधु  नहीं ये तो स्वादु हैं। जिनका काम दूसरों को नसीहत देना है, लेकिन वे खुद की फजीहत करा रहे हैं। क्या यही चरित्र रह गया हमारे देश के बाबाओं का। पहले किसी नेता के गिरफ्तार होने की सूचना से पूरे देश में सनसनी फैल जाती थी। अब नेताओं की गिरफ्तारी आम हो गई। नेताओं का चरित्र किसी से छिपा नहीं रहा। फिर बाबाओं पर ही लोगों का विश्वास था, लेकिन वे तो नेताओं से भी चार कदम आगे निकल रहे हैं। आखिर क्या हुआ इन बाबाओं को। भारत के विश्व में अधात्म गुरु बनने का दावा करने वालों आप अपने चरित्र के प्रति क्यों संजीदा नहीं हो रहे हो। ऐसे में देश की साख पर बट्टा लगाने वालों की सूची में आपने भी अपना नाम क्यों दर्ज करा दिया है।
बचपन में प्रवचन के नाम पर मैं मंदिर या फिर मोहल्ले मे पंडितजी के मुख से उवाची गई सत्यनारायण की कथा ही सुनता रहा। तब बाबा उसी को कहते थे, जो भगवा कपड़ों में रहते थे। सिर पर जटा होती थी और गली-गली घूमकर भीख मांगा करते थे। समय बदला और बाबाओं का ट्रेंड बदला। पैदल घूमने की बजाय उनके पास लक्जरी कारें आ गई। घर-घर जाने की बजाय उन्होंने अपनी दुकानें खोल ली। भीख मांगने की बजाय आश्रम रूपी दुकान चलाने के लिए चंदा लेना शुरू कर दिया। अब बाबा गरीब के द्वार भीख मागने नहीं जाते, बल्कि गरीब का तो उनसे संपर्क ही नहीं रहा। जिसकी जेब में जितना पैसा है, वही बाबा का परम भक्त है। उसी का भला करने का वे ठेका लेते हैं। गरीब की सेवा तो य़े कैसे करते हैं, इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे।
एक बार एक नामी बाबा के पास गरीब महिला आती है। वह बाबा से मिलती है और रोते हुए अपनी व्यथा सुनाती है। उसका इस दुनियां में कोई नहीं होता। उसने कुछ नहीं खाया और उसका पेट खाली है। बाबा को उस पर तरस आया और झट दे दिया आशीर्वाद। कुछ दिनों बाद वह महिला फिर से बाबा से मिलती है और रोने लगती है। बाबा कहते हैं अब क्या चाहिए तूझे बच्चा। मैने तूझे आश्रम में काम दिया। रहने को घर दिया। तेरा पेट खाली था, उसे भी भर दिया। हे मानव सब्र करना सीख। अब तू जा मैं कुछ और नहीं कर सकता। बेचारी अबला आश्रम छोड़कर जाने लगती है। जैसे वह पहले थी, वैसी ही गरीब व लाचार है। सिर्फ अंतर यह आया कि उसका पेट खाली नहीं रहा। उसमें बाबा के आशीर्वाद का करीब छह माह का गर्भ पल रहा था। ऐसी ही होती हैं पाखंडी बाबाओं की कहानी।
काम, क्रोध, लोभ ही इंसान को कहीं का नहीं छोड़ते। इससे दूर रहकर ही इंसान का भला हो सकता है। ये भी मैं और अन्य लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं। फिर इन्हीं बातों को दोबारा सुनने के लिए क्यों हमें बाबाओं के पंडाल में जाना पड़ रहा है। ये आदतें तो हमें सुनकर नहीं, बल्कि व्यवहार में उतारनी चाहिए। वर्ष 94 में ऋषिकेश में एक सफेद दाढ़ी वावे बाबा भागवत पर प्रवचन कर रहे थे। मुझे समाचार पत्र के लिए प्रवचन की कवरेज करनी पड़ती थी। पहले दिन जब मैं प्रवचन सुनने गया तो बाबा के भक्तों ने बैठने को भी नहीं पूछा। सो मैने समाचार में एक लाइन में इसका जिक्र भी कर दिया। इसका असर भी अगले दिन देखने को मिला। मुझे सबसे आगे जमीन पर स्थान दिया गया। जमीन पर बैठना मुझे इसलिए अखर रहा था कि मैं बाबा को अपना भगवान नहीं मानता और न ही गुरु। फिर मैं भी उसकी तरह क्यों न आसन पर बैठूं। खैर समाचार पत्र में नौकरी करनी थी, तो परिस्थिति से समझौता करना पड़ा। बाबा गाना गाने लगे। मैने नोट किया कि जब भी वह गाना गाते तो अपने दायें हाथ की तरफ एक कोने में जरूर देखकर मुस्कराते। कनखियों ने मैने भी उस और देखा, तो जो कुछ नजारा समझ आया, तब मुझे वह वहम लगा। भक्तों की भीड़ को बाबा के दायीं तरफ यह नहीं दिखता था कि वहां क्या है। मुझे आगे बैठने की वजह से दिख रहा था। वहां एक विदेशी सुंदरी (या बंदरी) बैठी थी। जिससे बार बाबा नैन मिला रहे थे। तब का यह वहम आज मेरे विश्वास में बदल गया। तब बाबा यही प्रवचन कर रहे थे कि काम मानव को कहीं का नहीं छोड़ता है। इससे इंसान का पतन निश्चित है। तब सही कहा था बाबा ने। अब खुद फंसे और सफेद दाढ़ी वाले बाबा को कल ही पुलिस ने बलात्कार के आरोप में इंदौर से गिरफ्तार किया।
अगले दिन बाबा क्रोध पर प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन के दौरान माइक ने काम करना बंद कर दिया। इस पर सेवादार फाल्ट तलाशने में जुट गए। बाबा ताली बजाने लगे और भक्ततों के साथ- जयश्रीराम बोलो-जय सियाराम गुनगुनाने लगे। कितनी सहनशीलता थी बाबा में। यही में देख रहा था। तभी बिजली भी चली गई। बाबा पसीने से तरबतर हो गए। कूलर बंद हो चुके थे। बाबा के सब्र का बांध टूटा। उन्होंने गुजराती बोली में ही सेवादारों को हड़काना शुरू किया। बाबाजी को क्रोध भी आता है मुझे उस दिन ही पता चला।
सात दिन चलने के बाद प्रवचन समाप्त हो गए, लेकिन बाबा के चेले उस आश्रम में ही डटे रहे जिसमें प्रवचन चल रहे थे। पता चला कि अब आश्रम के महंत से पैसों के लेन-देन का विवाद हो गया। यह विवाद निपटा तो बाबा के सेवादारों ने ऋषिकेश से दस किलोमीटर दूर ब्रहमपुरी में एक आश्रम पर ही कब्जा कर लिया। विवाद बढ़ने पर वहां पुलिस भी गई और समाचार पत्रों में यह समाचार सुर्खियों में भी रहा। तब पता चला कि ये बाबा तो लोभी भी हैं। राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। बाद में पछताएगा जब टेम जाएगा छूट। कुछ इसी सिद्धांत पर चल रहे थे बाबाजी।
आज एक बाबा की गिरफ्तारी का समाचार सुनने पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ। क्योंकि पहले भी ऐसे समाचार सुनने को मिलने लगे थे। एक निश्छळ बाबा निश्छल नहीं रहे और उनकी महिलाओं के साथ वीडियो क्लिप सार्वजनिक तक हो गई थी। चरित्र के मामले में ये बाबा तो नेताओं से भी टक्कर लेने लगे। तभी तो आम धारणा बनती जा रही है कि ये योगी नहीं भोगी हैं, साधु नहीं स्वादु हैं। ऐसे स्वादु को गलती करने में भी जब सजा का नंबर आता है तो क्यों उन्हें वीआइपी ट्रीटमेंट दिया जाता है। क्यों उन्हें गिरफ्तार कर कार व हवाई जहाज से ले जाया जाता है। उन्हें आम बलात्कारी की तरह क्यों नहीं पुलिस ले जाती। क्योंकि यदि बाबा वाकई भगवान होते तो उनके चेलों पर भी प्रवचन का असर पड़ता। वे मीडिया पर हमला नहीं करते और क्रोध को काबू करने की कला का प्रयोग करते साथ ही संयम बरतते। इस सबके बावजूद यह भी सच है कि लगातार गलतियां करने वाले का जब पाप का घड़ा भरता है तो हंडिया चौराहे पर ही फूटती है।
भानु बंगवाल

Sunday, 25 August 2013

ना थैला ना सब्जी......

बचपन में मुझे जो पसंद था, काश आज भी वही होता तो शायद मैं खुश रहता। क्योंकि तब मैं ज्यादा महत्वकांक्षी नहीं था। वैसे तो आज भी नहीं हूं, लेकिन जो मुझे तब पसंद था वह आज उतना नहीं है। तब मुझे माताजी जब भी भोजन परोसती तो मेरी पसंद व नापसंद का ख्याल रखती थी। खाने में मुझे दाल के नाम पर मात्र अरहर ही पसंद थी, जो शायद आज भी बच्चों को ज्यादा पसंद रहती हो। साथ ही अपने घर की बजाय दूसरों के घऱ की दाल ही ज्यादा अच्छी लगती थी। इसी तरह सब्जियों में मुझे मात्र आलू ही पसंद था। सब्जियों में लौकी, कद्दू, तौरी, भिंडी, बैंगन, शिमला मिर्च, गोभी, राई पालक आदि मुझे पसंद नहीं थी। आज भी शायद बच्चों को यह सब्जियां पसंद नहीं होंगी। ऐसे में जब भी मां शाम को सब्जी बनाती थी, तो मुझे तवे या छोटी कढ़ाई में आलू की सब्जी जरूर बनाती। मैं हर शाम बड़े चाव से आलू ही खाता। कई बार तो चूल्हे में मैं साबुत आलू डाल देता। जब यह आग में भुन जाता तो छिलका उतारकर बड़े चाव से खाता।
उस समय ज्यादातर लोग अपने घरों में ही सब्जी उगाते थे। किसी रिश्तेदारी व नातेदार के यहां जब भी पिताजी जाते तो उनके पास थैला जरूर रहता। वापस लौटते समय परिचित पिताजी के थैले में घर की ताजा सब्जियां जरूर रख देते।
पहले लोगों में मेलजोल कुछ ज्यादा ही था। लोग अक्सर छुट्टी के दिन किसी न किसी के घर जरूर जाते थे। फिर टेलीविजन लोगों के घर आया और रविवार को टीवी में दूरदर्शन फिल्में दिखाने लगा। तब लोग मेहमानों को ज्यादा तव्वजो देने से कतराने लगे और टीवी पर ही ध्यान केंद्रित करने लगे। ऐसे में लोगों का किसी के घर जाना कम होने लगा। अब यह मेलजोल किसी खास त्योहार, शादी आदि आयोजन पर ही नजर आता है। अब रिश्तेदार व नातेदारों को नई पीढ़ी पहचानती तक नहीं।
समय बदला, आदतें बदली, पसंद व नापसंद भी बदल गई। अब आलू मेरे लिए इतना पसंदीदा नहीं रहा कि हर दिन इसे खाया जाए। अन्य सब्जियों की कीमतें आसामान छू रही हैं। उसे खरीदने में घर का बजट बिगड़ रहा है। एकमात्र आलू ही कुछ सस्ता है तो यह हर दिन नहीं खाया जा सकता। सोचता हूं कि मुझे यह हर दिन अब क्यों पसंद नहीं है। लोगों के घरों के आसपास की जमीन बची ही नहीं। ऐसे में लोगों ने सब्जियां घर पर उगानी भी बंद कर दी है। पहले सब्जियों के लिए एक सप्ताह में सौ रुपये का बजट रहता था, वही अब बढ़कर पांच सौ से लेकर हजार रुपये तक हो गया। महिने के आखिर में जब ज्यादा बजट सब्जियां बिगाड़ रही हैं तो कई बार बच्चों की गुल्लक टलोलने की नौबत भी आ रही है। फिर जिसके घर यदि खाली जमीन है और वह उसमें सब्जी उगा रहा है, तो क्यों इस महंगाई में वह दूसरे को देगा।
हम सब्जियों की बढ़ती कीमतों को लेकर सरकार को कोसते हैं। सरकार भी हाथ पर हाथ रखकर मौन है। किसान से सस्ती दरों पर सब्जी, आलू, प्याज आदि औने-पौने भाव में खरीदकर जमाखोरों गोदामों में डंप करने लगे हैं। ऐसे जमाखोरों के खिलाफ प्रदेश सरकार या केंद्र सरकार भी कोई कार्रवाई क्यों करेगी। क्योंकि सरकार चलानेवालों को भी तो चुनावों में व्यापारियों से चंदा लेना है। नतीजा यह है कि लगातार सब्जियों का अकाल दर्शाकर दाम बढ़ रहे हैं और घर का बजट बिगड़ रहा है। बच्चों के नए कपड़े व अन्य आवश्यक सामान के बजट का पैसा सब्जियों में ही खर्च हो रहा है। कमबख्त शेयर बाजार के मानिंद सब्जियों के भाव दिन भर चढ़ते व उतरते हैं। सुबह महंगी व देर रात को सब्जी कुछ सस्ती हो जाती है। कद्दू, तोरी, लोकी, शिमला मिर्च के दाम दिल में जख्म कर रहे हैं। वहीं हरी मिर्च सौ रुपये किलो पहुंचकर इन जख्मों पर आग लगा रही है। ऐसे में जहां सब्जी के रेट बड़ रहे हैं, वहीं थाली में सब्जी का स्थान कम होकर अचार की तरह परोसा जाने लगा है।  सब्जी भी ऐसी जो दिखने में ताजा लगती है, लेकिन पकाने के बाद स्वाद कसैला निकल रहा है। प्याज को ही ले लो। आजकल ऐसा प्याज बाजार में मिल रहा है कि काटने के आधे घंटे बाद ही उसकी ताजगी खत्म हो रही है। प्याज लकड़ी की तरह सख्त हो रहा है। आखिर क्यों कोई इस प्याज में अपना बजट बर्बाद करें। सख्त हो रहे प्याज को यदि हम नहीं खाएंगे तो हमारा क्या बिगड़ेगा। फिर जमाखोर भी इसे क्यों जमा करेंगे। जिस प्रकार गांधीजी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आदोलन चलाया था, उसी प्रकार प्याज का भी बहिष्कार क्यों न किया जाए। इसे न खाने से मुंह से भी बदबू नहीं आएगी और जमाखोरों को भी इसे सस्ता करने को विवश होना पड़ेगा। प्याज न खाने से तो काम चल जाएगा। फिर अन्य सब्जियों का क्या होगा। इसके लिए दो उपाय हैं। एक उपाय यह है कि इतना पकाओ की बर्बाद न हो। दूसरा उपाय है कि गमले में कैक्टस के कांटे उगाने की बजाय सब्जियों की पौध लगाओ। यदि पांच दस गमलों में मौसमी सब्जियों की पौध लगाई गई तो शायद एक छोटे परिवार के लिए महिने में पांच दस दिन की सब्जी का जुगाड़ तो होगा। ऐसे में सब्जी का बजट कुछ कम होगा। क्योंकि अब न तो मेरे पिताजी जिंदा हैं, न ही उनका थैला मेरे पास है और न ही थैले मे सब्जी देने वाला कोई है।
भानु बंगवाल

देखना है कितना सच छपा है.......

सब छपा है, सब छपा है, आज इन अखबार में। मैं छपा हूं, तू छपा है, ये छपा है, वो छपा है, देखना है कितना सच छपा है। ये पंक्तियां मैने एक नाटक के प्रदर्शन के दौरान सुनी थी। शायद संस्था युगमंच नैनीताल थी और करीब वर्ष नब्बे या 91 की बात रही होगी। इस संस्था ने जनवरी माह में देहरादून में दृष्टि नाट्य संस्था के सहयोग से नाटकों के प्रदर्शन किए थे। तब मेरा भी वास्ता पत्रकारिता से नया नया ही था। तब मैं भी पत्रकारिता को एक मिशन मानकर चलता था। क्योंकि उस दौरान पत्रकारों को एक-एक समाचार के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। समाचार सूत्र जो थे, उनसे व्यक्तिगत संपर्क करने पड़ते थे। मोबाइल तब होते नहीं थे। पैदल, साइकिल या फिर स्कूटर से ही कहीं आना-जाना होता था। जिसे मैं मिशन मानकर चल रहा था, मुझे क्या पता था कि यह तो व्यक्ति की रोटी रोटी चलाने का ही धंधा है। पहले पेट पूजा फिर बाद में मिशन। फिर भी समुचित संसाधान न होने के बावजूद एक पत्रकार हर समाचार की पूरी छानबीन करता और तब ही वह पत्र में प्रकाशित होती। आज तो ट्रेंड ही बदल गया। पत्रकारिता ग्लेमर बनती जा रही है और इसे नाम व पैसा कमाने का आसान धंधा समझा जाने लगा। बाहरी दुनियां से यह जितना आसान दिखता है, उतना होता नहीं। सच्चाई कुछ और बयां करती है।
वैसे तो अमूमन लोगों की पत्रकारिता की शुरूआत क्राइम रिपोर्टिंग से होती है। इसके लिए जिला अस्पताल, पुलिस कंट्रोल रूम, एसएसपी कार्यालय, पोस्टमार्टम हाउस समेत पुलिस थानों के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। घटना की सूचना पर मौके की तरफ दौड़ना पड़ता है। आज बदलते ट्रेंड व मोबाइल के जमाने में इसमें भी बदलाव आने लगा है। फील्ड रिपोर्टिंग के नाम पर अधिकारियों की गणेश परिक्रमा हो रही है। मौके पर जाने की बजाय मोबाइल से ही लोगों से वार्ता कर समाचार जुटाए जाने लगे। कई भाइयों ने तो अब कोर्ट रिपोर्टिंग तक भी छोड़ दी। वे सरकारी अधिवक्ताओं पर ही निर्भर हो गए हैं। इसी तरह अन्य फील्ड का हाल है। इसका परीणाम कई बार बासी समाचार के रूप में सामने आता है। कई बार रिपोर्टर तक जो समाचार पहुंचते हैं, वे एक पक्षीय होते हैं। वैसे तो देखा जाए तो समाचारों के मामले में मीडिया भी भेदभाव बरतने लगा है। उसे अब आम आदमी से कोई सरोकार तक नहीं रहा। ऐसे समाचार को ही तव्वजो दी जाने लगी, जो अपमार्केट हो। आजादी के बाद के काल में श्रमिकों की समस्याएं जहां समाचार पत्रों में प्रमुखता से रहती थी, वह अब हाशिए में चली गई। कोई व्यक्ति दुर्घटना में मारा गया तो सबसे पहले उसकी हेसियत देखी जाने लगी। यदि वह मजदूर का बेटा है तो शायद संक्षिप्त समाचार में ही उसे स्थान मिलता है। इसी तरह बलात्कार के समाचारों में भी वर्ग को ध्यान में रखकर समाचार परोसे जाने लगे। आम आदमी जिसकी हेसियत कुछ भी नहीं है, उसे तो कभी यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि समाचार पत्र उसकी आवाज बन सकते हैं। क्योंकि समाचार एक प्रोडक्ट बन गया है। यदि मजदूर की बात लिखेगा तो लिखी बात को मजदूर पढे़गा नहीं। ऐसे में क्यों समाचार पत्र मजदूर की बात को लिखे, यही विचारधारा समाज में पनप रही है, जो कि घातक है। मीडिया को तो चटपटी खबर चाहिए, जिसे मसाला लगाकर परोसा जाए। मुंबई में महिला पत्रकार से गैंगरेप... एक बड़ी खबर। गांव में मजदूर की बेटी से रेप.... एक छोटी खबर। यानी आम आदमी की अब कोई औकात नहीं है।
आज मैं इस ब्लॉग में ऐसी बात इसलिए लिख रहा हूं कि जहां कई साथी जल्दबाजी में ब्रेकिंग की होड़ में गलत सूचनाएं प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दबाजी का उदाहरण जून माह में उत्तराखंड हई त्रास्दी के दौरान भी देखा गया। फेसबुक में हमेशा अपडेट सूचना देने वालों ने तो एक जिलाधिकारी के बीमार होने की सूचना को उनकी मौत की सूचना के रूप में दे दिया। वहीं कई इतने सुस्त हैं कि दूसरों पर निर्भर होकर समाचार लिख रहे हैं। ऐसे लोगों के समाचार जब पाठकों तक पहुंच रहे हैं, तो पाठक को पहले से ही सब पता रहता है। तब पाठक शायद यही गुनगुनाता है..हमको पहले से पता है जी। ऐसे में पाठकों को क्या नया बताना या पढ़ाना चाहते हैं। ये शायद समाचार लिखने वाले को भी नहीं पता होगा। तभी तो कई बार समाचार पढ़ते समय मैं यही गुनगुनाता हूं-सब, छपा है, सब छपा है,,,,,,,देखना है कि कितना सच छपा है।
भानु बंगवाल

Friday, 23 August 2013

Remote and Decorating

रिमोट और सजा
बचपन से आज तक देखता रहा हूं कि हम छोटी-छोटी बातों पर दूसरे पर निर्भर होते जा रहे हैं। चाहे वह कामकाजी व्यक्ति हो या फिर व्यापारी। एकदूसरे की नकल करने की प्रवृति बढ़ती ही जा रही है। मतलब साफ है कि अपनी क्षमताओं व कार्यों के संचालन का रिमोट हम दूसरों के हाथ सौंप रहे हैं। यह स्थिति घातक है। बेहतर होता कि हम अपना रिमोट अपने ही हाथ रखें। तभी हम अपने भीतर के इंसान को निखार सकते हैं।
जब बच्चा घुटने से चलता है तो वह कई बार कुर्सी व मेज का सहारा लेकर खड़ा होने का प्रयास करता है। इस प्रयास में वह सफल भी होता है और जल्द दौड़ना सीख जाता है। तब उसे सहारे की जरूरत नहीं पड़ती। फिर हम बच्चे को साथ घुमाने के लिए अपनी अंगुली पकड़ाकर उसे लेकर चलते हैं। यानी उसका रिमोट हम हर वक्त अपने पास ही रखते हैं। छोटी-छोटी बातों पर हम उस पर हम अपनी बातें ही थोपते हैं। ऐसी स्थिति में वह भी खुद के निर्णय लेने की बजाय हम पर ही निर्भर हो जाता है। वर्तमान में स्थिति यह है कि हरएक का रिमोट कहीं न कहीं से संचालित हो रहा है। बच्चे का माता पिता के हाथ से, पत्नी का पति के हाथ से, कर्मचारी का अधिकारी के हाथ से, अधिकारी का नेता के हाथ से, छोटे नेता का बड़े नेता के हाथ से, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सोनिया गांधी के हाथ से रिमोट संचालित हो रहा है। मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि किसी काम में बड़े की सलाह न ली जाए, लेकिन जब बड़ा ही सही सलाह न दे, तो रिमोट अपने हाथ में लेना भी गलत नहीं है।
जब बच्चे खेलते हैं तो कई के पास तरह-तरह के खिलौने भी होते हैं। पहले तो खिलौने चाभीनुमा रिमोट से संचालित होते थे, अब तो हर खिलौनों में रिमोट होने लगे हैं। बच्चे इनके संचालन में पांरगत भी हो जाते हैं। अस्सी के दशक में स्कूल जाने वाले बच्चों में जो ट्यूशन पढ़ते थे, उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता था। तब यही माना जाता था कि बच्चा होशियार नहीं है। इसलिए उसे ट्यूशन की जरूरत पड़ी। बड़ा परिवार व गरीबी के चलते मध्यम वर्ग की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहे गरीब तबके के लिए ट्यूशन शब्द ही दूर की कौड़ी था। वर्ष 76 में सुमन नाम की बालिका आठवीं में पढ़ती थी। पढ़ाई वह सामान्य थी। घर का माहौल ऐसा नहीं था कि उसकी अंग्रेजी सुधर सकती। उसकी तरह ही अन्य बालक व बालिकाओं की भी स्थिति इसी तरह थी। तब आठवीं के बच्चों को अंग्रेजी के शिक्षक ने छुट्टी के बाद ट्यूशन पढ़ने का सुझाव दिया। इस पर कुछ बच्चों के घरवाले राजी हो गए और दस रुपये प्रतिमाह के हिसाब से ट्यूशन पढ़ाने लगे। सुमन ने भी अपनी मां के समक्ष ट्यूशन पढ़ने की मांग रखी। बेचारी मां का रिमोट पिता के हाथ में था। छह बच्चों में एक को ही ट्यूशन की जरूरत क्यों पड़ी, तीन बड़ी बहन और एक बड़ा भाई उसे घर पर ही पढ़ा सकते हैं। इस तरह के सवाल व जवाब पिता से आने थे। सो माता ने भी सुमन को पति की सलाह लिए बगैर ही अपना फैसला सुना दिया कि वह ट्यूशन नहीं पढ़ेगी। घर में ही पढ़ाई किया करे। जहां दिक्कत हो तो बड़ों से पूछ ले। बेचारी सुमन का घर में बड़े भाई बहनों के साथ ही छोटे भाई ने भी समर्थन नहीं किया।
सुमन के साथ ही उसका छोटा भाई प्रकाश भी स्कूल जाता था। वह छठी कक्षा मे था। जब छुट्टी होती दोनों भाई बहन करीब चार किलोमीटर दूर पैदल ही घर को  जाते। कुछएक दिन से सुमन छुट्टी के बाद घर को नहीं जा रही थी। वह क्लास में ही बैठी रहती। ऐसे में छोटा भाई अन्य बच्चों के साथ घर लौट जाता। सुमन घर में यही बताती कि काम ज्यादा मिल रहा है, उसे स्कूल में ही पूरा करना पड़ता है।
अक्सर देखा गया कि छोटे भाई बहनों की जासूसी करते हैं। प्रकाश की जासूसी यही कहती थी कि सुमन ट्यूशन पढ़ने लगी है। फिर सवाल उठा कि उसके पास ट्यूशन के पैसे कहां से आए। जब प्रकाश को जवाब नहीं मिला तो उसने सुमन की शिकायत अपनी मां से कर दी। मां के साथ सभी भाई बहन सुमन पर बिफर गए। पिता गुस्सैल थ। ऐसे में उनके छिपकर मां की अदालत में सुमन पर सवालों की बौछारें होने लगी। तब ट्यूशन का सवाल पीछे छूट गया। पहला सवाल यही रहा कि ट्यूशन के लिए पैसे कहां से आए। सुमन रोई, गिड़गिड़ाई और यह सच भी उगल दिया कि उसने दस रुपये घर में बनाए गए पूजास्थल से लिए। तब अक्सर किसी तीज त्योहार में पूजा के समय सुन की माता व पिता चवन्नी या अठन्नी पूजा में चढ़ाते थे। जब ज्यादा राशि जमा हो जाती तो उसे किसी मंदिर में चढ़ा देते थे। सुमन ने उन्हीं पैसों में से दस रुपये एकत्र कर ट्यूशन के लिए अदा किए थे। सुमन का अपराध यह था कि उसने चोरी की थी, लेकिन उसका ध्येय गलत नहीं था। मां की अदालत में सभी भाई बहनों ने इस नादानी पर उसे क्षमाकर दिया। साथ ही उसे पूरे सालभर ट्यूशन पढ़ाने का निर्णय भी लिया गया। नतीजा भी बेहतर आया और सुमन प्रथम श्रेणी में पास हुई। सच्ची घटना पर आधारित इस कहानी में किसकी गलती कहां और कितनी थी,यही सवाल मुझे आज भी कचोटता है। क्योंकि सुमन ने अपने भविश्य को बनाने के लिए अपना रिमोट अपने हाथ ले लिया था। सुमन की मां गलत थी या चुगलखोर भाई या फिर सुमन।
भानु बंगवाल

Tuesday, 20 August 2013

अब तो पत्नियां भी बांधने लगी रक्षा सूत्र

अभी तक यही माना जाता रहा है कि रक्षाबंधन भाई बहन का त्योहार है। बहन भाई को राखी बांधती है और भाई उसकी रक्षा का संकल्प लेता है। साथ ही बहन को भाई दक्षिणा देता है। अब प्रश्न यह है कि एक मामूली सा धागा बांधने से क्या किसी की रक्षा हो सकती है। शायद सभी इसका उत्तर ना में ही देंगे। इस बारे में मेरा मानना है कि कोई भी पर्व आत्मविश्वास बढाने का होता है। यदि त्योहारों में हम ब्रत रखते हैं तो हम खुद को भी भीतर से मजबूत करते हैं। जरूरत पढ़ने पर हम भूखा रह सकते हैं। ऐसा ही आत्मविश्वास हमारे अंदर बढ़ता है। इसी प्रकार रक्षा सूत्र भी आत्मविश्वास बढ़ाने का काम करता है। ठीक वैसे ही जैसे मेरी 85 वर्षीय बूढ़ी मां को जब भी बुखार होता है, तो उसे मैं बुखार की गोली देता हूं। मैं जो गोली देता हूं कई बार वह उससे ठीक नहीं होती। इस पर उसे डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता है। डॉक्टर उसे वही गोली देता है, जो मैं पहले ही दे चुका हूं। इसके बावजूद वह डॉक्टर की गोली से ठीक हो जाती है। यही तो एक दूसरे के प्रति विश्वास है।
रक्षाबंधन को लेकर कई कहानियां मिलती हैं। कृष्ण को द्रोपती ने राखी बांधी तो चीरहरण के दौरान कृष्ण ने उसे संकट से बचाया। इंद्र रक्षसों से जब सब कुछ हार चुके तो उनके गुरु बृहस्पति ने उन्हें रक्षा सूत्र बांधा। यही रक्षा सूत्र ने इंद्र का आत्मविश्वास बढ़ाने का काम किया और वह राक्षसों से जीतने में सफल हुए। इसी तरह राजा बलि को जब पता चलता है कि उनकी हत्या ब्राह्मण के हाथ होनी है, तो वह गुरु शुक्राचार्य के पास जाते हैं। गुरु शुक्राचार्य उन्हें रक्षा सूत्र बांधते हैं और राजा बलि पाताल में जाकर अपनी जान बचाता है। इसी तरह की अनेक कहानियां प्रचलित हैं। कहते हैं कि पहले यज्ञ के दौरान यज्ञसूत्र बांधे जाते थे। बाद में यही यज्ञ सूत्र का नाम बदलकर रक्षा सूत्र हो गया। ब्राह्मण अपने यजमान को रक्षा सूत्र बांधते हैं और यजमान उन्हे दक्षिणा देते हैं। अब सवाल यह उठता है कि रक्षा सूत्र किसे बांधा जाए। आप किसी की रक्षा का संकल्प लेते हैं, किसी की लंबी आयु की कामना करते हैं, तो उसे रक्षा सूत्र बांध सकते हैं। उत्तराखंड में मैती आंदोलन से जुड़े लोग पेड़ों को रक्षासूत्र बांधकर उनकी रक्षा का संकल्प लेते हैं। वहीं अब तो यह त्योहार भाई व बहन का न होकर पिता-बेटी, पति-पत्नी का भी हो गया है। मेरी बहन तो अपने पति की लंबी उम्र की कामना को लेकर हर साल पति को रक्षा सूत्र बांधती है। इसी तरह दिल्ली स्थित मेरे भांजे की पत्नी अपने पिता को रक्षा सूत्र बांधती है।
रक्षा सूत्र बांधने के इस त्योहार को व्यापक स्तर पर मनाया जाना चाहिए। यह भी ध्यान रहे कि सिर्फ एक धागा बांधकर त्योहार की औपचारिकता न निभाई जाए। यह संकल्प भी लिया जाए कि जिसे राखी बांधी जा रही है,या जिससे बंधवाई जा रही है, हर मुसीबत में एक दूसरे की मदद को तैयार रहेंगे। कितना अच्छा होता कि होली की तरह यह त्योहार भी हर भेदभाव से हटकर मनाया जाता। पड़ोसी एक दूसरे को रक्षा सूत्र बांधते। साथ ही एक दूसरे के प्रति मन में खटास को भूलने का प्रयास करते। अमीर-गरीब को, छोटा-बड़े को, बलवान-कमजोर को, मालिक नौकर को क्यों नहीं बांधता रक्षा सूत्र। क्यों नहीं हम एक दूसरे की तरक्की में सहयोग का संकल्प लेते। परिवार, रिश्तेदार, मित्र आदि शायद बुरे वक्त पर काम आ जाएंगे, लेकिन नए रिश्ते व संबंध भी जरूरत पड़ने पर काम आ सकते हैं।
भानु बंगवाल

Saturday, 17 August 2013

Worried About Pyre...

 चिता की चिंता....
ये प्रकृति भी अजीबोगरीब खेल दिखाती है। कहीं सुख का अहसास कराती है, तो कभी इसका ऐसा रूप देखने को मिलता है कि दुख भी शायद उसे देखकर डर जाए। वैसे तो इंसान के जीवन में सुख और दुख आते और जाते रहते हैं। कभी व्यक्ति इतना खुश रहता है कि लगता है सारे जीवन की खुशियां उसे मिल गई हो। वहीं, कभी व्यक्ति पर दुख की झड़ियां लग जाती हैं। इससे उबरना ही व्यक्ति के लिए कड़ी चुनौती होता है। कई दुख का तो निवारण होता है, लेकिन कई का कोई हल नहीं होता। सिर्फ हिम्मत से ही व्यक्ति अपने दुखों के अहसास को कम कर सकता है।
छुट्टी के दिन एक सुबह मैं बिस्तर से उठने ही जा रहा था कि मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैने काल रिसीव की तो पता चला कि आफिस के सहयोगी की पत्नी चल बसी। यह सूचना मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थी। क्योंकि मित्र की पत्नी काफी दिनों से, या कह लो कि काफी साल से बीमार थी। उसे कैंसर था। पहले मित्र अपने बीमार पिता की सेवा कर रहे थे। कई साल तक उनके पिता बिस्तर पर रहे और एक दिन चल बसे। इसके बाद भी मित्र के दुख कम नहीं हुए। उनकी पत्नी बीमार रहने लगी। पहले चिकित्सकों को बीमारी का पता नहीं चला। सभी अपने हिसाब से इलाज करते। बाद में जब बीमारी पता चली तो तब तक केंसर काफी बढ़ चुका था। कई साल तक मित्र पत्नी का इलाज कराते रहे। इलाज के लिए उन्हें हर माह कुछ दिन के लिए चंडीगढ़ भी जाना पड़ता। जब भी उनसे कोई पत्नी के बारे में पूछता तो वह यही जवाब देते कि हालत में सुधार है। फिर एक दिन ऐसा आया कि चिकित्सकों ने कहा कि सब कुछ सामान्य हो गया। अब उनकी पत्नी को कोई बीमारी नहीं है। इलाज से पूरा केंसर ही कंट्रोल हो गया। मित्र भी खुश थे कि उनकी सेवा काम आई। एक दिन अचानक उनकी पत्नी की तबीयत फिर से बिगड़ी और जब चिकित्सकों को दिखाया तो पता चला कि फिर से वही बीमारी लौट आई। इस बार केंसर ने ज्यादा खतरनाक रूप ले लिया। फिर दोबारा से वही इलाज शुरू किया गया, जो करीब पांच साल पहले हुआ था। ज्यादातर उनकी पत्नी अस्पताल में ही भर्ती रहने लगी। फिर उस दिन उसने इस दुनियां को अलविदा कह दिया।
मैं बिस्तर से उठकर जल्द तैयार हुआ और मित्र के घर चल दिया। वहां पता चला कि अतिम संस्कार हरिद्वार में होगा। देहरादून में किसी की मौत होने पर अमूमन लोग हरिद्वार ही अंतिम संस्कार करते हैं। देहरादून से हरिद्वार के लिए बस की व्यवस्था की हुई थी। मेरे अन्य मित्र भी हरिद्वार जा रहे थे। कई के पास अपनी कार थी। ऐसे में मैं भी एक दूसरे मित्र की कार में बैठ गया। इस दौरान हल्की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई। जब हरिद्वार पहुंचे तो वहां पहले बारिश हो चुकी थी, जो थम गई थी।
हरिद्वार के खड़खड़ी स्थित श्मशानघाट में टिन शेड के नीचे करीब पांच शव जल रहे थे। ऐसे में वहां शव के दाह संस्कार के लिए हमें इंतजार करना पड़ता। इस पर यह तय हुआ कि गंगा के तट पर खुले में ही दाह संस्कार किया जाए। वहां पहले से दो चिताएं जल रही थी। बीच में एक स्थान पर मित्र की पत्नी की शवयात्रा पर आए लोगों ने लकड़ियां रखनी शुरू कर दी। खैर चिता तैयार हुई। घाट स्थित टाल से  लकड़ियां भीगी मिलने पर चिता को जलाने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी। चिता की आग को तेज करने के लिए उस पर राल (साल के पेड़ से निकलने वाला गोंद) डाली जाती है। राल पेट्रोल की तरह आग पकड़ती है। लकड़ी गीली होने पर एक पैकेट की बजाय राल के तीन पैकेट लग गए। किसी तरह चिता ने आग पकड़ी। तभी बारिश शुरू हो गई। आसमान से पानी बरस रहा था और धरती पर चिता जल रही थी। लगातार बारिश से चिता की आग बुझना तय था। आसमान से गिरते पानी से लड़कर चिता को आग को कायम रखना आसान काम नहीं था। क्योंकि बारिश थमने की बजाय तेज होती जा रही थी। अब हमारे साथ जितने लोग थे, उनमें कुछ युवकों ने चिता की आग को न बुझने देने के प्रयास शुरू किए। इस प्रयास में राल के पैकेट के पैकेट खरीदे गए और एक दो युवक उसे चिता में डालते रहे। नदी तट पर पहले से जो दो चिता जल रही थी, उनकी आग भी बुझने से बचाने के वे लोग प्रयास कर रहे थे, जिनके परिचितों की चिता जल रही थी। इस दौरान एक और चिता लगा दी गई थी, लेकिन वह तो शुरूआती दौर पर ही जल नहीं पाई। नदी के तट पर चार चिताओं में से तीन ही धूं-धूं कर जल रही थी। जैसे ही आग बुझने लगती, तो उस पर राल डाल दी जाती। समीप ही एक चिता की आग बुझी तो उसे जलाने वाले किसी दुकान से साइकिल के पुराने टायर लाए और उससे चिता में डाला। माना जाता है कि चिता में आग लगने के बाद उसे बुझने नहीं दिया जाता। बुझने की स्थिति में दोबारा से उस पर आग नही लगाई जाती। उसी के अंगारों को ही दोबारा भभकाया जाता है। बारिश लगातार बढ़ रही थी, लेकिन लोगों के प्रयास से चिताएं भी जल रही थी। जीवन में मैने पहली बार ऐसा नजारा देखा कि बारिश में भी चिता जल सकती है। उसे जलता रहने के लिए विपरीत परिस्थितियों में मानव प्रकृति से संघर्ष कर रहा था। साथ ही सभी को एक ही चिंता सताए जा रही थी कि बस किसी तरह चिता जलती रहे।क्योंकि चिता को तब तक जलते रहना है, जब तक ये नश्वर शरीर राख में नहीं बदल जाता।
भानु बंगवाल