Monday, 27 February 2012

नैन नहीं, कान से भी होता प्यार

कहते हैं प्यार में आदमी अंधा हो जाता है। न उसे कुछ दिखाई देता है और न ही सुनाई देता है। प्यार के लिए न तो उम्र की सीमा ही होती है और न ही कोई जाति, धर्म का बंधन ही बीच में आता है। कई की कहानी सफल हो जाती है और कई असफल हो जाते हैं। प्यार करने वाले अक्सर यही तर्क देते हैं कि वे एक दूसरे के लिए बने हैं। एक पल भी अलग नहीं रह सकते हैं। उनकी कोशिश साथ रहने की होती है। बाद में उनकी प्रेम कहानी कितनी सफल होती है, यह भविष्य ही बतलाता है।
प्यार की शुरूआत भी आंखों से ही मानी जाती है। नैन मिले, विचार मिले और दोस्ती हो गई। पर जिसकी आंखें ही न  हों और प्यार हो जाए। जी हां ऐसे कई उदाहरण हैं। जिनके प्यार की शुरूआत कान से होती है। यानि एक दूसरे की आवाज सुनकर। ऐसे लोगों के लिए तो बस आवाज ही सुंदरता का प्रतीक होती है। आवाज सुनकर ही वे एक-दूसरे की सुंदरता की कल्पना करते हैं। एक मास्टरजी की भी ऐसी ही दास्तां है। वह दृष्टिहीन थे। उनके तीन बेटे भी थे। बड़ा बेटा करीब बाइस साल का था। दूसरा अट्ठारह का और तीसरा सोलह का। मास्टरजी की पत्नी भी दृष्टिहीन थी। सीधीसाधी घरेलू महिला। सरकारी नौकरी पर जब वह रिटायरमेंट की कगार पर पहुंचने लगे तो उन्हें एक दूसरी दृष्टिहीन महिला रानी से प्यार हो गया। उक्त महिला का पति भी दृष्टिहीन था और उनकी तीन बेटियां थी। बड़ी बेटी करीब दस साल की थी। बात करीब तीस साल पुरानी है। रानी और मास्टरजी के बीच इतनी करीबी बढ़ी कि वे एक दिन घर से भाग गए। इधर मा्स्टरजी की पत्नी और बेटे, तो दूसरी तरफ रानी की बेटियां और पति परेशान हो उठे। बुढ़ापे में दोनों बच्चों को छोड़कर घर से रफूचक्कर हो गए। मास्टरजी के बच्चे तो खाने-पीने के लिए मोहताज तक हो गए। मास्टरजी भाग कर मद्रास चले गए थे। किसी तरह मास्टरजी के बच्चों ने उन्हें तलाश किया। मनाने की कोशिश की। पर दोनों अलग-अलग रहने को राजी नहीं हुए। दोनों का तर्क था कि वे एक दूसरे के बगैर एक पल भी नहीं रह सकते हैं। इस पर तय हुआ कि मास्टरजी घर वापस आ जाएं। साथ ही रानी को भी रख लें। इस पर ही मास्टरजी वापस देहरादून रानी को लेकर अपने घर आए। रानी पूर्व पति के साथ रहने को तैयार नहीं थी। सो मास्टरजी के साथ ही रहने लगी। जन्म-जन्म के साथ ही कसम भले ही रानी व मास्टरजी ने खाई थी, लेकिन नियति को शायद कुछ और मंजूर था। घर आने के बाद मास्टरजी बीमार हुए और एक दिन चल बसे। अब रानी के लिए दिक्कत हो गई कि वह करे तो क्या करे। मास्टर जी के घर से दरवाजे उसके लिए बंद हो गए। पूर्व पति ने भी उसे अपने पास रखने से मना कर दिया। फिर एक दिन रानी गायब हुई और दोबारा किसी को नहीं दिखाई दी। बाद में पता चला कि रानी ने किसी दूसरे दृष्टिहीन से विवाह कर लिया।

                                                                                                                        भानु बंगवाल

Sunday, 26 February 2012

दूसरों की मदद

बचपन से ही पढ़ाया व सिखाया जाता है कि दूसरों की मदद किया करो। मदद शब्द ही ऐसा है, जिसे साकार होते देख दो व्यक्ति को खुशी होती है। एक व्यक्ति वह होता है, जिसकी मदद हो रही है और दूसरा वह जो मदद करता है। हर व्यक्ति कभी न कभी किसी न किसी रूप में दूसरों की मदद जरूर करता है। कई के जीवन में यह आदद सी बन जाती है। कई बार मदद करने के पश्चात दुख भी होता है कि मदद पाने वाला झूठा था और उसने मदद के लिए झूठ का सहारा  लिया। मदद करने वाले ने तो उसकी आपबीती सुनकर मदद की। चाहे वह झूठा ही क्यों ने था, लेकिन मदद करने वाले को इसी पर संतोष कर लेना चाहिए कि उसने तो सच्चे मन से मदद की है। झूठों के पास कहानी भी रोचक होती है। जिस पर पहली बार में हर कोई विश्वास कर लेता है।
मदद लेने के लिए कई बार तो लोग तरह-तरह का बहाना तक बना लेते हैं। सबसे छोटा होने के कारण मुझ पर घर का राशन पानी लाने की जिम्मेदारी भी डाल दी गई। शुरूआत में मैने शौक से इस काम को किया। बाद में इस काम में फंस गया। हर माह की एक तारिख को पिताजी को वेतन मिलता था। उसके अगले दिन मुझे सामान की लिस्ट थमा दी जाती और मैं साइकिल से घर से करीब पांच किलोमीटर दूर देहरादून के पीपलमंडी स्थित परचून  की दुकान पर जाकर राशन लाता था। तब मैं बीस साल का था। घी, तेल, दाले,  मसाला,साबुन आदि तब करीब डेढ़ से दो सौ रुपये में आ जाता था। एक दिन मैं राशन लेकर घर की तरफ जा रहा था। रास्ते में दो स्थानों पर खड़ी चढ़ाई पढ़ती थी। तब साइकिल से उतरकर आगे बढ़ना पड़ता था। आरटीओ दफ्तर से पहले चढ़ाई पर मैं साइकिल से उतरा। तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया। उसने मुझसे पूछा हरिद्वार कितनी दूर है, पैदल चलकर कितनी देर में पहुंच जाउंगा। उसके लिए सीधा रास्ता बताओ। देहरादन से करीब 70 किलोमीटर दूर हरिद्वार पैदल जाने की बात सुनकर मेरे मन में जिज्ञासा जगी। मैने उससे पूछा कि वह पैदल क्यों जा रहा है। इस पर उसने बताया कि वह गुजरात का रहने वाला है। वह टेलर का काम करता है। देहरादून में नेवल हाइड्रोग्राफिक्स में काम के सिलसिले में वह आया था। काम तो मिला नहीं, लेकिन उसकी जेब कट गई। हरिद्वार उसके रिश्तेदार रहते हैं। वहां तक पैदल ही जाएगा। उसने यह भी बताया कि वह सुबह से भूखा है। इस पर मुझे उस व्यक्ति पर तरस आ गया। राशन खरीदने के बाद मेरे पास घर के पैसे बचे हुए थे। जिसका हिसाब पिताजी को देना था। यदि मैं उसकी मदद करता तो मार के लिए मुझे तैयार रहना था। मैने उसे दस रुपये देने की कोशिश की। इस राशि से वह बस किराया भी दे सकता था और कुछ खा भी सकता था। वह ना नुकुर करता रहा। कहने लगा कि आज तक उसने किसी से पैसे नहीं लिए। उसने मेरा पता पूछा कि मनीआर्डर कर पैसे वापस कर देगा। मैने उसे पैसे देने के साथ ही एक कागज में अपना पता लिखकर दे दिया। उसके बाद घर जाकर मुझे झूठ बोलना पड़ा कि दस रुपये कहीं गिर गए। मैं मन ही मन खुश था कि मैने एक जरूरतमंद की मदद की। इस घटना के कई दिन बीत गए, लेकिन मुझे कोई मनिआर्डर नहीं पहुंचा। एक दिन वही व्यक्ति मुझे देहरादून में ही नजर आया। इस बार वह किसी दूसरे व्यक्ति को अपनी आपबीती सुना रहा था। उसके पास जैसे ही मैं पहुंचा तो वह मुझे पहचान गया और उसने वहां से दौड़ लगा दी। उस दिन मुझे यह दुख जरूर हुआ कि वह व्यक्ति मुझे दोबारा क्यों दिखा।
                                                                                                                   भानु बंगवाल
 

उत्तरा का आंचल

बात उस समय की है, जब उत्तराखंड आंदोलन चरम पर था। आंदोलनकारी हर दिन आंदोलन की रणनीति बनाते और जनसैलाब सड़कों पर उतरता। वह दौर ऐसा था जब लोगों ने राज्य आंदोलन में अपनी सारी ताकत झोंकी हुई थी। महिलाओं व युवकों का सारा समय आंदोलन पर निकलता। वहीं, कई युवाओं ने सरकारी नौकरी तक दांव पर लगा दी। कुछ ने तो छोड़ भी दी थी। इस दौर पर ऐसे भी लोग थे, जिनका आंदोलन से कोई सरोकार नहीं था। ऐसे भी थे, जो आंदोलन के नाम पर रकम उगाने से भी पीछे नहीं रहे। कई तो ऐसे थे, जो आंदोलनकारियों के बीच घुसकर फोटो खिंचवाते। अखबारों की कटिंग व फोटो विदेशों में रह रहे उत्तराखंड के लोगों को भेजते और उनसे आंदोलन में सहयोग के रूप में चंदा मांगते।  तो कई युवा ऐसे थे, जिन्होंने अपने घर की पंजी-पूंजी इस दौरान खर्च पर लगा दी। रैली निकालनी है, तो पेट्रोल भी चाहिए। ऐसे में कई युवा अपने साथियों की मदद करते। तब एक जुनून व मकसद था अलग राज्य का सपना। तब किसी ने सोचा तक नहीं था कि राज्य बनने के बाद बंदरबांट का दौर भी आएगा। सभी  उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोकर आंदोलन कर रहे थे।
इस दौरान फिल्म नगरी मुंबई से भी डिब्बाबंद फिल्म बनाने वाले एक फिल्म निर्माता ने उत्तराखंड की तरफ रुख किया। उन्होंने समाचार पत्रों में फिल्म के लिए कलाकारों की आवश्यकता का विज्ञापन दिया। जिस दिन विज्ञापन छपा, उस दिन मैं और मेरे मित्र देवेंद्र खाली थे। समझ नहीं आ रहा था कि अखबार के लिए क्या स्टोरी बनाएं। ऐसे में देवेंद्र की नजर विज्ञापन पर गई। दोनों की चर्चा हुई कि कोई युवाओं को ठगने के लिए आ पहुंचा। अमूमन ऐसे लोग फिल्म में रोल के नाम पर युवाओं से रकम ऐंठते, दिखावे के लिए शूटिंग करते। फिर चले जाते। देवेंद्र ने डायरेक्ट के दिए नंबर पर फोन किया। उसने यह नहीं बताया कि वह पत्रकार है। उसने अपने भाई के लिए रोल देने का आग्रह किया। डायरेक्टर ने भाई को साथ लाने को कहा। इस पर देवेंद्र का छोटा भाई बनकर मैं  और देवेंद्र गुरु रोड स्थित बताए पते पर गए। वहां खंडहरनुमा पुरानी हवेली में डायरेक्ट खरे ने अपना कार्यालय बनाया हुआ था। बाहर एक लड़की स्टूल पर बैठी थी। वह शायद रिशेप्निस्ट थी। उसने हमें बाहर रखी बैंच पर बैठने को कहा। भीतर गई और फिर वह वापस आई। उसने बताया कि हमें डायरेक्टर बुला रहे हैं।
भीतर कमरे की दीवारों पर फिल्म के पोस्टर चस्पा थे। ऐसा लग रहा था कि हम किसी सिनेमा हाल की गैलरी में पहुंच गए। मेज पर टेबल लैंप, फिल्मी पत्रिका आदि रखी थी। पूरा माहौल फिल्मी बनाने की कोशिश की गई थी। मेरे मित्र ने डायरेक्टर को बताया कि छोटा भाई भानु कलाकार है। फिल्म में काम करना चाहता है। इस पर डायरेक्टर ने पूछा पहले कभी काम किया। मैने न में उत्तर दिया। साथ ही बताया कि नुक्कड़ नाटक किया करता था। उसने मुझसे कुछ सवाल पूछे फिर एक कागज में कुछ लाइन लिखी और उसे दो मिनट में याद करके अभिनय के साथ सुनाने को कहा। डायलाग की लाइन यह थी- महाराज की जय हो, दुधवा नरेश पधार रहे हैं। मैने याद किया और जोर की आवाज में डायलाग बोल दिया। इस पर डायरेक्टर साहब झल्ला गए, बोले इतनी जोर से क्यों बोला। मैने कहा कि मैं एक छोटा सिपाही हूं। राजा के नजदीक नहीं जा पाउंगा। दूर से धीरे बोलूंगा तो उसे सुनाई नहीं देगा। इस पर डायरेक्टर महोदय चिढ़ गए। बोले ये बता डायरेक्टर तू है या मैं।
खैर हमने उनसे पैसों की बात की। कहा कि चाहे कितनी रकम ले लो, लेकिन रोल दे दो। उनकी भी आंखे चमकने लगी। तभी उनके पास एक स्थानीय व्यक्ति और आकर बैठ गया। उसने डायरेक्टर महोदय को बताया कि दोनों पत्रकार हैं। फिर डायरेक्टर ने स्पष्ट किया कि फिल्म उनके लिए बिजनेस है। इसे बनाने के लिए वह अपनी जेब का पैसा नहीं लगा सकते। कोई भी बिजनेसमैन अपना पैसा लगाकर बिजनेस नहीं करता। पैसा कलाकारों से ही लेंगे। यदि फिल्म चली, तो कलाकार आगे बढ़ेगा। नहीं चली, तो वह दूसरी बनाएंगे। उन्होंने बताया कि वह उत्तरा नाम की लड़की के जीवन पर फिल्म बना रहे हैं। जो उत्तराखंड में रहती है। फिल्म की नाम उन्होंने- उत्तरा का आंचल रखा है। खैर हमें वह कुछ स्पष्टवादी लगा। हम वहां से चले गए।
इस घटना के करीब तीन माह बीत गए। डायरेक्टर महोदय ने कलाकार आदि का चयन कर लिया। वह कभी कभार फोन करके फिल्म में काम करने को मुझे बुलाते। तब मैं उनसे मना करता। मैंने उन्हें समझाया कि उनके बारे में जानने के लिए कलाकार बनकर पहुंचा था। एक दिन शूटिंग भी शुरू हुई। डायरेक्टर महोदय ने सोचा कि कचहरी में आंदोलनकारी रहते हैं, क्यों न आंदोलन का सीन भी फिल्म में जोड़ा जाए। तामझाम लेकर पहुंच गए कचहरी। आंदोलनकारी युवा वहां शहीद स्मारक स्थल पर जमा रहते थे। उन्हें एकत्र कर डायरेक्टर महोदय ने नारे लगाने को कहा। नारे उन्होंने फिल्म के मुताबिक लिखे थे। जब भी डायरेक्टर महोदय कैमरा स्टार्ट करते- आंदोलनकारी उनके लिखे नारों के बजाय वह नारे लगाने लगते, जो अक्सर हर दिन उनकी जुंवा पर रहते थे। इस पर वह झल्ला गए। वह चिल्लाए-पैकअप। फिर तामझाम समेटकर चले गए। उसके बाद न कभी वह देहरादून नहीं दिखे और न कभी उनकी निर्देशित फिल्म-उत्तरा का आंचल ही, रिलीज हुई।  उन्होंने कितनों को ठगा और कितनो का भविष्य बनाया, यह कोई नहीं जानता।
                                                                                                                    भानु बंगवाल 

Friday, 24 February 2012

दूसरे की थाली....

मानव प्रवृति  की ऐसी है। उसे अपनी नहीं, दूसरे की थाली में ज्यादा घी नजर आता है। अब घी को ही देखें। सेहत तो बनाता ही है, लेकिन ज्यादा खाने से बिगाड़ता भी है। ज्यादा खाओ तो कलोस्ट्रोल बढ़ जाता है। फिर लोग घी से तौबा करने लगते हैं। दूसरे की थाली में देखने की आदत व्यक्ति को बचपन से ही पड़ जाती है। छोटे बच्चे हमेशा यही देखते हैं कि उनकी मनपंसद खाने की चीज कहीं दूसरे भाई या बहन को उससे ज्यादा तो नहीं दी गई। बड़े होने पर व्यक्ति अपने  दोस्तों व सहयोगियों पर नजर रखता है। कहीं वह उससे कुछ ज्यादा तो नहीं प्राप्त कर रहा है। नौकरी पेशे वालों के साथ ही आस- पड़ोस के लोगों में भी यही प्रवृति देखी जा सकती है।
नौकरी पेशा वालों में तो चाहे काम का कंप्टीशन कम रहे, लेकिन इंक्रीमेंट के समय दूसरे की सेलरी स्लीप वह अपने से पहले खंगालने का प्रयास करते हैं। उसका ज्यादा क्यों लग गया, मैरा कम क्यूं लगा,  उन्हें यही चिंता खाए जाती है। ये थाली ही ऐसी चीज है, जो कई बार दोस्तों में भी दरार पैदा कर देती है। कई बार तो जिगरी दोस्तों को  थाली से उठे झगड़े को संभालने में पापड़ तक बेलने पड़ जाते हैं।
काफी पुरानी बात है। देहरादन के राजपुर रोड स्थित राष्ट्रपति आशिया में प्रेजीडेंट बाडीगार्ड दिल्ली से हर साल गरमियों में घोड़े लाए जाते थे। देहरादून घोड़े लाने के पीछे दो कारण होते थे। एक कारण तो यह था कि घोड़ों को दिल्ली की ज्यादा गरमी से बचाया जाए। दूसरा, घोड़ों के साथ आने वाले रंगरूट (सिपाही) से देहरादून के राष्ट्रपति आशियां की देखभाल भी हो जाती थी। परिक्षेत्र में उगी घास की सफाई आदि भी वही करते थे। इन रंगरूटों में दो जिगरी दोस्त लखवीर व सतवीर थे। दोनों जाट थे और उनकी दोस्ती बचपन से थी। दोनों साथ-साथ फौज में भर्ती हुए। देहारादून आने पर दोनों ने सलाह बनाई कि अपनी फैमली भी क्यों न दो माह के लिए साथ लाई जाए। फिर दोनों अपनी बीबी व बच्चों को साथ ले आए। दोनों दोस्तों की पत्नी ने घर का कामकाज आपस में बांटा था। एक दिन एक खाना बनाती, तो दूसरे दिन दूसरी का नंबर होता। दोस्ती सही चल रही थी, लेकिन थाली ने बात बिगाड़ दी। लखवीर (लक्खी) की पत्नी ने एक दिन सतवीर की  पत्नी से इस बात पर झगड़ा कर दिया कि वह अपने पति की थाली में  ज्यादा घी डालती है। फिर यही आरोप सतवीर की पत्नी ने दूसरे दिन लक्खी की पत्नी पर लगाया। अब यह झगड़ा हर दिन का हो गया। बात बड़ी तो दोस्तों ने तय किया कि क्यों न हम रसोई को ही अलग-अलग कर दें। रसोई अलग होने पर रोज का झगड़ा थम गया, लेकिन थाली ने दोनों के बीच जो दरार बनाई, उसे वे कभी पाट नहीं पाए।

                                                                                                            भानु बंगवाल

Thursday, 23 February 2012

किनारे की तलाश...

किसी नई जगह पर अक्सर रास्ता भटकने की आशंका रहती है। कई बार तो व्यक्ति मंजिल के पास से होकर गुजर जाता है, लेकिन पहुंच नहीं पाता। गलियों के जाल वाले मोहल्ले में पहली बार किसी के घर का रास्ता याद करना मेरे तो बस की बात नहीं। कई बार तो व्यक्ति ऐसे स्थानों पर रास्ता भटक जाता है, जहां की उम्मीद तक नहीं की जा सकती। मसलन जहां गलियां न हो, सपाट मैदान हो। ऐसे स्थानों से किनारे सड़क तक निकलने के लिए रास्ते की तलाश काफी टेढ़ी खीर हो जाती है।
व्यक्ति एक मुसाफिर के समान है।  जो किसी न किसी रास्ते पर चल रहे हैं। इन रास्तों पर कई बार चुनौती खड़ी होती है, तो कई बार आनंद भी आता है। हर दिन एक नई राह के समान होता है। यदि अच्छा कट जाए तो मंजिल मिल गई और यदि दिन भर परेशानी रही, तो समझो रास्ता भटक गए। रास्ता भटकने पर राह दिखाने वाले भी मिल जाते हैं, लेकिन कई  बार ऐसा समय आता है कि काफी तलाशने के बाद भी राह दिखाने वाला जल्द नहीं मिल पाता।
देहरादून के शहरी क्षेत्र में दो बरसाती नदियां रिस्पना व बिंदाल एक दूसरे के सामानांतर हैं। इन्हीं नदियों के दोनों तरफ सड़कें बनी हैं और मोहल्ले बसे हैं। वर्तमान में अतिक्रमण के चलते ये नदियां संकरी हो गई हैं। कई  साल पहले इन नदियों में रिस्पना की चौड़ाई कई स्थानों पर पांच से सात सौ मीटर से अधिक थी। गरमियों में नदी सूखी रहती थी। यहां अक्सर रास्ते का अंदाजा नहीं लग पाता था। जहां से नदी में गए, वहां से वापस निकलने का रास्ता मुझे तब याद नहीं रहता था। ऐसे में कई बार बाहर निकलने में एक-दो किलोमीटर का अतिरिक्त फेरा लग जाता था। छोटे में अक्सर हम सफेद चमकदार पत्थर की तलाश में नदी में जाते थे।
करीब पच्चीस साल पहले की बात है। मैं सुबह करीब पांच बजे दून अस्पताल में भर्ती किसी परिचित को देखने के लिए घर से निकला। अस्पताल मेरे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर था। अस्पताल के निकट सड़क के बीच खड़े एक व्यक्ति ने मुझे रुकने का इशारा किया। उसके हाथ में खाली लोटा भी था। मैं उसके पास गया तो उस व्यक्ति ने मुझसे पूछा भैया चिड़िया मंडी कहां है। वहां से चिड़िया मंडी करीब तीन किलोमीटर दूर थी। वहां का रास्ता किसी को समझाना तब आसान काम नहीं था। कई चौक, सड़क व गलियों को पार कर ही वहां पहुंचा जा सकता था। मैने उससे पूछा कि चिड़िया मंडी वह क्यों पूछ रहा है और उसके हाथ में लोटा क्यों है। तब उसने अपनी व्यथा सुनाई कि वह चिड़िया मंडी में एक बारात में आया है। सुबह शौच के लिए रिस्पना नदी गया, वहां से वापस आने का रास्ता भटक गया। नदी से बाहर निकला, तो गलियां भूल गया। आगे बढ़ते-बढ़ते वह इस स्थान पर आ पहुंचा। मुझे उस व्यक्ति की व्यथा पर तरस आया। मैने सोचा कि सुबह-सुबह न जाने कितनी देर से यह भटक रहा है। जिस मरीज को देखने मैं जा रहा था, वहां तो अन्य लोग भी सेवा में हैं। इस पर मै उस व्यक्ति को अपने साथ चिड़िया मंडी ले गया। इसके बाद ही अस्पताल में मरीज को देखने पहुंचा।
                                                                                                                 भानु बंगवाल

Wednesday, 22 February 2012

नशे की चेतावनी.....

नशा कोई भी हो, इसकी अति अच्छी नहीं होती है। एक दिन यह व्यक्ति को बर्बाद करके ही छोड़ता है। शरीर का नाश तो होता ही है। साथ ही दिमाग भी सुन्न होने लगता है। नशा करने वाले की अंतरआत्मा उसे भीतर से समझाने का प्रयास भी करती है कि अब हद हो गई, लेकिन इसकी गिरफ्त में फंसे नशेड़ी की आत्मशक्ति कमजोर पड़ जाती है। फिर वह नशा करता है। कल छोड़ने का संकल्प लेता है और वह कल कभी नहीं आता। नशा छोड़ना  चाहने वालों के लिए सबसे सरल सूत्र यह है कि वह हर सुबह यह संकल्प लें कि आज का दिन  नशे से दूर रहकर काटेंगे। यदि नशा करेंगे तो कल। फिर उनका कल से कभी सामना नहीं होगा। हर दिन आज रहेगा और वह नशे से दूर रहेंगे। यही फार्मूला मैने भी अपनाया और अब नशे की इच्छा भी नहीं होती। हर सुबह ताजगी से होती है और रात को नींद भी आती है।
वैसे शुरूआती दौर में नशा डराता भी है। तभी किसी को अक्ल आ जाए तो शायद वह नशे से तौबा कर ले। बात वर्ष 1994 की है। मेरा देहरादून से ऱिषीकेश तबादला हुआ। तब रिषीकेश में मेरे कई मित्र पहले से थे। वे भी मेरी तरह विभिन्न समाचार पत्रों से जुड़े थे। मेरे एक मित्र शर्मा जी को मेरे रिषीकेश आने पर इतनी खुशी हुई कि वह हर रोज मुझे अपने घर में दावत का निमंत्रण देते और मैं टालता रहता। एक दिन वह जिद में ही उतर आए और जब मेरा कामकाज निपट गया तो अपने घर ले गए। घर में उनकी बहने, माताजी आदि थे। साथ ही उस दिन उनके दो अन्य मित्र भी आए हुए थे, जिन्हें मैं पहले से नहीं जानता था। मित्र ने एक कमरे में डबल बैड पर पुराना अखबार बिछाया। उसके ऊपर कटे फल, सलाद, नमकीन आदि की प्लेटें सजाई। एक प्लेट में पनीर भी था। साथ ही कांच के चार गिलास में शराब के पैग बनाए और चियर्स किया। एक पैग हलक से उतरते ही शर्मा जी के अन्य दो मित्र की आवाज भी निकलने लगी। इससे पहले वे चुप बैठे हुए थे। बात छिड़ते-छिड़ते एक स्वामीजी पर जा पहंची। स्वामी की तस्वीर शर्माजी के पीछे दीवार पर लगी थी। बात करते-करते शर्माजी ने गरदन घुमाकर स्वामी जी की तस्वीर को निहारा। फिर पलटकर हमारी तरफ मुंह किया। उनकी आवाज लड़ख़ाने लगी। तब तक तो शराब पीने की शुरूआत थी। एक पैग में ही शर्माजी को क्या हो गया, यह समझ नहीं आ रहा था। बात इतने में भी नहीं रुकी। उनके हाथ-पैर अकड़ने लगे। वह बिस्तर पर ही पसर गए। मैं व उनके अन्य मित्र घबरा गए कि कहीं शराब जहरीली तो नहीं है। फटाफट बिस्तर पर सजी प्लेटें व शराब की बोतल हटाई गई। इतने में शर्माजी बुरी तरह छटपटाने लगे। उनके मुंह से झाग निकलने लगा। मैंने आवाज देकर उनकी माता व बहनों को बुलाया, लेकिन किसी के समझ नहीं आया क्या हुआ। इसी बीच पड़ोस की एक महिला भी आ गई। शर्माजी की हालत देखकर वह चीखने लगी। महिलाएं कहने लगी कि उसे देवी आ रही है। तभी शर्मा जी को कुछ होश सा आने लगा और वह उस महिला को वहां से भागने को कहने लगे। महिला चीख रही थी और गुस्से में शर्माजी महिला पर चीखने लगे। खैर मैं और शर्माजी के दो अन्य मित्र डरे हुए थे कि कहीं उन्हें कुछ न हो जाए। इसके कुछ देर  बाद जब शर्माजी की हालत स्थिर होने लगी, तो मैंने उनके घरवालों को सलाह दी कि अस्पताल ले जाकर उन्हें डाक्टर को दिखाएं। शर्माजी को डाक्टर के पास ले जाया गया और मैं अपने कमरे की तरफ रवाना हुआ। उस रात मैं खाने से भी मोहताज हो गया। तब होटल में खाना खाया करता था। देर रात होने के कारण होटल भी बंद हो गए थे। दावत तो गई, लेकिन उस रात की घटना से शराब ने भविष्य के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी। ये घंटी तब शायद मुझे सुनाई नहीं दी, लेकिन आज उस घंटी को मैं हमेशा महसूस करता हूं।

                                                                                                               भानु बंगवाल

Tuesday, 21 February 2012

जैसी करनी, वैसी भरनी.....

गीता में सच ही कहा गया कि कर्म किए जा। फल की इच्छा न रख। अच्छे कर्म का अच्छा ही फल मिलेगा और बुरे कर्म का बुरा। व्यवहार में भी हम यही कहते और करते आए हैं। यदि किसी धुर्त का बुरा परीणाम होता है, तो कहा जाता है कि उसे सजा जरूर  मिलेगी। यह सजा कब मिलेगी,  इसका किसी को पता नहीं। फिर भी अच्छा कर्म करने का फल मिले या नहीं, लेकिन कर्म करने वाले को आत्मसंतोष जरूर होता है। इससे बड़ी और कोई वस्तु नहीं है।
यह कर्म मनुष्य ही नहीं जानवरों पर भी लागू होते हैं। कई बार उन्हें भी इसका फल मिलता है। करीब बीस साल पहले की बात है। एक आवारा सांड देहरादून के मुख्य चौराहों पर विचरता रहता था। आज तो पुलिस कर्मी डंडा रखने में शर्माने लगे हैं, लेकिन तब हर पुलिस वाले के पास डंडा जरूर होता था। जब भी सांड चौराहे पर खड़ा होकर यातायात में व्यावधान उत्पन्न करता, तो पुलिस कर्मी उसे डंडा दिखाकर खदेड़ देते। धीरे-धीरे सांड को डंडे से चिढ़ हो गई और वह पुलिस को देखकर उनके पीछे मारने को दौड़ने लगा। तब नगर पालिका ने सांड को पकड़कर शहर से चार किलोमीटर दूर राजपुर रोड पर राष्ट्रपति आशिया के करीब छोड़ दिया। इस क्षेत्र में सड़क किनारे राष्ट्रपति आशिया की जमीन पर काफी लंबे चौ़ड़े खेत होते थे। इनमें सेना के डेयरी फार्म के मवेशियों के लिए चारा उगाया जाता था। ऐसे में सांड को खाने की कमी नहीं थी। उस समय सुनसान सड़क वाले इस स्थान पर सांड से परेशानी हुई तो राष्ट्रीय दष्टि बाधितार्थ संस्थान के दष्टिहीनों को। पथ प्रदर्शक के लिए डंडा हाथ में होने से दष्टिहीनों के लिए मुसीबत हो गई। सांड को डंडे से चिढ़ थी। सड़क पर चलते दष्टिहीन पर नजर पड़ते ही सांड उसके समीप जाता और चुपके से सिंग से उठाकर पटक देता। उस समय करीब एक दर्जन दष्टिहीनों को वह घायल कर चुका था। तब सांड को अन्यत्र छो़ड़ने की मांग उठने लगी।
कहते हैं कि बुरा करोगे तो अंत भी बुरा ही होगा। गरमियों के दिन थे। पहले कभी मवेशियों के लिए सड़क  किनारे पानी पीने की चरी होती थी,  जो बाद में टुट गई। ऐसे में उन दिनों आबारा पशु ईस्ट कैनाल पर जाकर पानी पीते थे। गरमियों में नहर का पानी भी सूख गया। इस पर करीब तीन से चार किलोमीटर दूर आवारा पशु विचरण कर ऐसे स्थान पर जाते थे, जहां जल संस्थान की पानी की पाइप लाइन लीक थी। वहां जमीन पर भी काफी पानी जमा रहता था। भला हो जल संस्थान का, जिसकी उदासीनता से पशुओं को पानी जरूर मिल रहा था। एक दिन मरखोड़िया (दूसरों पर हमला करने वाला) सांड दोपहर की गर्मी में पानी पीने रिस्पना (बरसाती नदी)  किनारे फूट रहे जल स्रोत पर गया। वहां पहले से ही एक छोटा सांड मौजूद था। उसे देककर मरखोड़िया सांड ने हमला बोल दिया। दोनों की लड़ाई हुई। छोटा सांड काफी फुर्तीला था, जबकि मरखोड़िया सांड प्यासा और थका होने के कारण कमजोर साबित हुआ। इस लड़ाई में छोटे सांड ने मरखोड़िया कांड के गले में सींग घुसा दी और मरखोड़िया सांड ने दम तोड़ दिया। सांड के इस दुखद अंत को देखकर मुझे दुख जरूर हआ, लेकिन राह चलने वाले लोगों ने राहत महसूस की।
                                                                                                                  भानु बंगवाल

पढ़ाई..

पढ़ाई की कोई आयु सीमा नहीं होती। यह तो किसी भी उम्र में भी की जा सकती है। चालीस के पार पहुंचने के बाद भी लोग पढ़ते हैं और साठ के पार होने के बाद भी। किस समय पढ़ाई का शौक चर्रा जाए, इसका किसी को पहले से पता हीं रहता। पढ़ाई के बाद ठीकठाक रोजगार मिला। तो पढ़ने की इच्छा ही समाप्त हो गई। बीस साल तक इस तरफ ध्यान ही नहीं गया। घर में बच्चों को पढ़ते हुए देखता था। शादी के बाद से पत्नी की पढ़ाई भी छूटी थी। प्राइवेट नौकरी करने के दौरान उसने एमए भी कर लिया। फिर बीएड। उसकी देखादेखी मुझे भी पड़ने का शौक लगा। सो मैने भी पत्रकारिता में एमए करने की ठान ली और भर दिया फार्म। ओपन यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया। कुछ हिचक व शर्म भी आई। कोई देखेगा तो क्या कहेगा। एक बार मेरी बड़ी बहन ने नौकरी में प्रमोशन के लिए पढ़ाई दोबारा शुरू की थी। तब उसने बताया कि एक साठ साल की महिला भी उनके साथ परीक्षा दे रही थी। उसके इस उम्र में परीक्षा देने का कारण तो मुझे समझ नहीं आया था, लेकिन ज्यादा उम्र में पढ़ने से संकोच जरूर होने लगा। खैर जो हो देखा जाएगा, यही सोचकर मैने किताबों का अध्ययन करना शुरू कर दिया। भले ही किसी काम की प्रैक्टिकल जानकारी कितनी भी हो, लेकिन किताबी ज्ञान भी जरूरी है। समय बीता और परीक्षा निकट आई। मैं परीक्षा देने गया, तो देखा कि कई पत्रकार भी परीक्षा देने के लिए पहुंचे हैं। इनमें कुछ नवोदित थे, तो एक ऐसे भी थे, जो बड़े सामाचार पत्र से कई साल पहले सेवानिवृत हो चुके थे। काफी सीनियर भी थे। जब सामने पड़े तो उन्होंने कहा कि मैं मजाक में परीक्षा दे रहा हूं। एक और बड़े पत्र के संपादक भी मेरे आगे बैठे हुए थे। गंभीर स्वभाव के कारण वह ज्यादा नहीं बोलते थे। हरएक का पढ़ाई फिर से जारी रखने के पीछे कुछ न कुछ तर्क जरूर था। चाहे कोई किसी की प्रेरणा से पढ़ाई कर रहा हो, या फिर अपना करियर बनाने के लिए। फिर भी एक बात तय थी कि आगे पढ़ाई जारी रखने वाले को आत्म संतुष्टी जरूर होती है।
                                                                                                                भानु बंगवाल

Monday, 20 February 2012

महाशिवरात्रि का रंग और भंग

छोटी उम्र में मुझे शिवरात्रि का कई दिन पहले से इंतजार रहता था। इस दिन सुबह मैं ब्रत रखता था, दोपहर बाद जब भूख लगती तो कुछ भी खाकर तोड़ दिया करता था। शाम को मेरी माताजी तरह-तरह के पकवान बनाती थी। इसलिए मुझे यह त्योहार ज्यादा पसंद रहा। तब ब्रत टुटने पर दुख भी होता, लेकिन साथ ही मन में यह भी विचार आता है भगवान शिव दयालु हैं। सभी को माफ कर देते हैं। सच ही तो है भगवान शिव काफी दयालु हैं। देहरादून में टपकेश्वर मंदिर से तो उनकी दयालुता की कहानी ही जुड़ी है। यहां  उनमें वात्सल्य का रूप भी देखा गया। जब बालक अश्वथामा को भूख लगी, तो उसने शिव की आराधना की। तब जिस गुफा में अश्वथामा बालक तपस्या कर रहे थे, भगवन शिव ने वहां दध की धार टपका दी। आज वहां से दूध तो नहीं टपकता है, लेकिन पानी जरूर टपकता है। कलयुग में दूध ने पानी का रंग ले लिया और शिव के प्रसाद ने भांग का। दयालुता के साथ ही भगवान शिव का खौफ भी रहता था। उनका रोद्र रूप रिषीकेश स्थित वीर भद्रेश्वर मंदिर की कहानी से जुड़ा है। जब राजा दक्ष ने यज्ञ किया तो शिव के गण वीरभद्र ने यज्ञ को तहस नहस कर दिया।
अब देखो शिवजी कितने दयालु हैं, तभी तो आजकल भक्त उनकी दयालुता से त्योहारों को भी जोड़ने लगे हैं। गलती करो, सब माफ कर देंगे। नशेड़ी तो वैसे हर त्योहार में नशे का बहाना बनाते हैं। होली में जब तक पी नहीं लें, तो खेलने का मजा नहीं आता है। कोई परिचित की शादी हो तो दो पैग के बाद ही नाचने के लिए पैर उठते हैं। गम में तो पूछो नहीं, वहां गम मिटाने के लिए पैग लगाने पड़ जाते हैं। अब महाशिव रात्रि के त्योहार में शिव का प्रसाद भांग जब तक न गटका जाए, तब तक त्योहार का औचित्य ही कहां रहा। भगवान शिव ने तो दुनियां को बचाने के लिए हलाहल (विष) गटककर अपने कंठ में रोक लिया। तभी से उन्हें नीलकंठ कहा जाता है, लेकिन मेरे शिव भक्त भाई किसे बचाने के लिए भांग का सेवन कर रहे हैं, यह आज तक मुझे समझ नहीं आया। सभी त्योहारों का मकसद आपसी सामांजस्य, भाईचारा बढ़ाने का ही होता है। शायद यही आपसी सामंजस्य है कि भंग गटककर सभी एक समान नजर आने लगते हैं। खैर अपनी-अपनी सोच है। इसमें कोई दूसरा हस्तक्षेप नहीं कर सकता, लेकिन इतना जरूर है कि वहां तक अपने रंग में रंगों, जहां तक किसी दूसरे को परेशानी न हो। तभी त्योहार मनाने का मकसद सार्थक होगा।
                                                                                                                 भानु बंगवाल

Saturday, 18 February 2012

स्टेज का सामना...

छोटे से ही मुझे रामलीला देखने जाने का बहुत शौक था। घर में सबसे छोटा होने के कारण मुझे कोई रामलीला देखने को ले जाने के पक्ष में नहीं रहता था। इसका कारण यह था कि रामलीला हमारे घर से तीन किलोमीटर दूर आयोजित होती थी। तब रामलीला देखने रात करीब आठ बजे मोहल्ले के लोग पैदल ही जाते थे। जाते समय तो मुझमें उत्साह रहता, लेकिन जब रामलीला समाप्त होती और घर आने का समय होता तो मुझे नींद आने लगती। ऐसे में मेरी बड़ी बहनें मुझे गोद में उठाकर लाती। साथ ही मुझे कोसती थी क्यों आया। कल से मत आना। मैं चुपचाप उनकी डांट सुनता। अगले दिन फिर रामलीला देखने की जिद करता और इस जीद में अक्सर जीत भी जाया करता था।
मेरी उम्र करीब दस साल रही होगी। रामलीला देखकर मुझे अक्सर सभी पात्रों के गाने व डायलाग याद हो चुके थे। मैं भी मंच में चढ़ना चाहता था, लेकिन कैसे चढ़ूं इसकी तिगड़म भिड़ाता रहता था। राम की सेना में बंदर या फिर रावण की सेना का राक्षस का ही पात्र क्यों न बनना प़ड़े, लेकिन शरीर से कमजोर होने के कारण मुझ पर बंदर की ड्रेस ढीली पड़ती थी। राम की सेना की मार खाने पर कहीं चोट न आ जाए, इसलिए कोई मुझे राक्षस बनने का मौका तक नहीं देता था।
इस पर मैने एक दिन स्टेज पर गाना  गाने के लिए अपना नाम लिखवा दिया। स्टेज में दूसरे सीन की तैयारी के दौरान खाली समय को भरने के लिए मेरा नाम पुकारा गया। मैं मंच में चढ़ा। किसी तरह मैने कहा कि भाइयों और बहनो। मैं आपके सामने अमर, अकबर, एंथोनी फिल्म का गाना प्रस्तुत कर रहा हूँ । इसमें कोई त्रुटी होगी तो माफ करना। मैने हारमोनियम वाले को बजाने का इशारा किया और गाने लगा-अनहोनी को होनी करदे होनी को अनहोनी। तभी मैरी नजर सामने भीड़ में बैठी अपनी बड़ी बहन पर पड़ी। वह मूझे घूर रही थी। उसे देख मैं सोचने लगा कि शायद वह यही सोच रही होगी कि बच्चू तू मंच में अपनी भद पिटवाने को क्यों चढ़ा। घर जाते समय तेरी खबर लूंगी। बस क्या था मैं गाने की लाइन भूल गया। और बार-बार --अमर, अकबर, एंथोनी ही कहता रहा। फिर चुप हो गया। स्टेज से बाहर खड़े रामलीला के आयोजक मुझे कहते रहे कि मंच से उतर जा पर मैं कांप रहा था। न मुझे उतरने की सुध रही,  न गाना गाने की और न ही मुझे रोना आ रहा था। तभी एक व्यक्ति मंच पर चढ़ा और मेरा हाथ खींच कर मुझे मंच से उतार गया। उस दिन से मैनें मंच में चढ़ने में तौबा कर ली। जिस काम को मैं आसान समझता था, वह तो काफी मुश्किल लगा। तब मैने तय किया कि यदि मंच में चढ़ना हो तो पूरी तैयारी के साथ। वर्ना वही हाल होगा, जो मैरा हो चुका था।

                                                                                                    भानु बंगवाल

Tuesday, 14 February 2012

चारपाई.....

अब तो चारपाई यानि खाट देखने को भी नहीं मिलती। करीब पच्चीस साल पहले तक देहरादून में घर-घर में चारपाई नजर आती थी। तब दीवान व फोल्डिंग पलंग का प्रचलन कम था। पलंग होते थे, वो भी कपड़े की निवाड़ वाले। हां, बान से बुनी चारपाई जरूर हर घर में होती थी। चारपाई बच्चों के खेलने का भी साधन थी। यदि खड़ी कर दी तो बच्चे उसके पाए पर लटककर करतब दिखाने की कोशिश करते। दस साल तक के बच्चे बिछी चारपाई के नीचे छिपते और खेलते थे। इसके नीचे बच्चे एकत्र होकर घर-घर खेलने में घंटों मशगूल रहते।
हमारे घर के पास एक लालाजी रहते थे। पेशे से वह दुकानदार नहीं थे, बल्कि सरकारी दफ्तर में चौकीदार थे। इसके बावजूद  उन्हें लोग लाला क्यों कहते हैं यह, मैं आज तक नहीं समझ पाया। इतना जरूर है कि उन्होंने भैंसे भी पाली हुई थी। जब ड्यूटी पर नहीं रहते, तब उनका समय जंगल में भैस के लिए चारा-पत्ती लाने में बीतता। इस दौरान जंगल से पके आम, अमरूद या अन्य सीजनल फल भी वह लेकर घर पहुंचते। ऐसे में लालाजी के बेटे के साथ आस पड़ोस के बच्चे हमेशा चिपके रहते कि खाने को उनके यहां फल जरूर मिलेंगे। करीब पैंतीस साल पुरानी बात है। लालाजी की तीन बेटियों में एकलौता बेटा भोला की स्कूल से शिकायत आ रही थी कि वह पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा है। इस पर एक दिन भोला को पढ़ाई के लिए बैठाकर  लालाजी जंगल में घास लेने चले गए। भोला दिखावे के लिए कछ देर पढ़ता रहा, लेकिन लालाजी के घर से जाते ही बच्चों को एकत्र कर घर में खेलने लगा। उस दिन लालाजी जल्दी ही जंगल से वापस आ गए। चारा भैंस के आगे डालने के बाद वह जंगल से लाए पके अमरूद का थैला लेकर कमरे में दाखिल हुए। वहां भोला उन्हें नजर नहीं आया। इस पर उन्होंने आवाज दी, लेकिन भोला डर के मारे चुपचाप रहा। उससे साथ पड़ोस की एक लड़की समेत दो तीन और बच्चे थे। सभी चुपचाप रहे। लालाजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने चारपाई के नीचे झांका और भोला को देखते ही आगबबूला हो गए। गुस्सा काबू न होने पर उन्होंने भोला पर पके अमरूद बरसाने शुरू कर दिए। बच्चे घबराहट में एक-एक कर भागने लगे। पड़ोस की लड़की जो शायद उस समय आठ साल की रही होगी, अपनी फ्राक के पल्लू में अमरूद समेटने लगी। जब काफी अमरूद उसकी फ्राक में जमा हो गए। तब जाकर ही वह वहां से भागी। जो बच्चे उक्त घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे, उसी लड़की ने सभी को पूरी घटना का विवरण सुनाया। साथ ही लालाजी के घर से जो अमरूद वह लाई, उसे बच्चों को भी खिलाया।

                                                                                                                  भानु बंगवाल

Valentine Day

वैलेंटाइन डे....
वैलेंटाइन डे क्या होता है और क्यों मनाया जाता है, यह मुझे काफी बाद में समझ आया। जब में पत्रकारिता के क्षेत्र में आया। पहले तो इसका विरोध ही देखा और लिखा भी।
बचपन की याद है तब बैलेंटाइन डे तो नहीं मनाते थे, लेकिन मुझे लड़कियों से प्रेम की बजाय कुछ खौफ जरूर था। मोहल्ले की एक महिला ने अचानक मुझे छेड़ा कि तेरी शादी अपनी बेटी कश्मीरा से करूंगी। मैं शरमा गया। उस महिला को मेरा शरमाना शायद अच्छा लगा और मैं जब भी उसे दिखता तो वह आसपास सभी लोगों से कहती मैरी कश्मीरा का पति जा रहा है। मुझे कश्मीरा से ही चिढ़ होने लगी। मैं उसके घर के आगे से निकलने से पहले दूर से यह देखता कि कहीं कश्मीरा का मां घर के बाहर तो नहीं है। यदि होती तो मैं रास्ता ही बदल देता। यह क्रम कई सालों तक चला, जब तक कश्मीरा की मां मुझे भूल न गई।
इसी तरह मोहल्ले में मुझसे करीब दस साल बड़ी लड़की पप्पी ने एक दिन मजाक में कई लोगों के सामने मुझे अपना पति कह दिया। तबसे मैने पप्पी के घर की तरफ जाना तब तक बंद रखा, जब तक उसकी शादी नहीं हो गई।
ब़ड़ा होने पर भी मैं लड़कियों के मामले में अनाड़ी रहा। यदि कोई अच्छी भी लगी, तो उससे दोस्ती गांठने की हिम्मत तक नहीं हो पाई। कुछ लड़कियों से दोस्ती की कोशिश भी की, लेकिन शुरूआत ही ऐसी हुई कि उसे मन की बात तो नहीं कह सका, लेकिन झगड़ा जरूर हो गया। किसी की भावनाओं को समझना। उसका सम्मान करना।सदा खुश रहो व दूसरों को भी खुश होता देखो। शायद यही प्रेम है। इसे हरएक अपने-अपने नजरिए से देखते हैं। यह मुझे बाद में पता चला कि  कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो हमेशा खुश रहते हैं। उनके लिए तो हर दिन वैलेंटाइन डे के समान होता है।
                                                                                                                             भानु बंगवाल

Sunday, 12 February 2012

उधार दो और भूल जाओ..

उधार शब्द से ही अब मुझे चिड़ सी होने लगी है। किसी से उधार मांगना भी काफी मुश्किल है और किसी से उधार की रकम वापस लेना भी। उधार में दी गई रकम वापस कब लौटेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। उधार, मांगने की भी एक कला है। मांगने वाला ऐसा साबित करता है, कि दुनियां में उससे ज्यादा दुखी कोई नहीं है। कई बार तो उधार मांगने वाले अपने परिवार में किसी को बीमार बता देते हैं, तो कई बार किसी की मौत पर ही उधार मांगते हैं। हर बार अपनी आपबीती की नई कहानी उधार मांगने वालों के पास होती है। सीमित वेतन होने पर पहले मैने कभी ज्यादा बड़ी रकम उधार में नहीं दी। एक मित्र को 1993 में गैस के कनेक्शन के लिए छह सौ रुपये दिए। वो रकम वापस ही नहीं मिली। फिर वर्ष, 1997 में सहारनपुर में दूसरे मित्र को करीब तीन सौ रुपये दवा के लिए दिए। उसकी बहिन अस्पताल में बीमार थी। डाक्टर ने उसे दवा का पर्चा पकड़ा दिया। मित्र की बहन ने उसे पर्चा पकड़ा कर दवा लाने को कहा। बेचारा मेरा मित्र  भाई का धर्म निभा रहा था। उसने पर्चा लिया और अस्पताल के बाहर आकर अगल-बगल झांकने लगा। मैं समझ गया कि उसके पास पैसे नहीं है और मैने उसे तीन सौ रुपये पकड़ा दिए। दवा पता नहीं कितने की आई, लेकिन मित्र ने मुझे वेतन मिलते ही रुपये देने का वादा किया। धीरे-धीरे कई माह गुजर गए। मुझे पैसे वापस मांगने में हिचक रही और शायद उसे देने में। तब मैने सोचा कि कभी किसी को उधार नहीं दूंगा।
इसके कई साल तक मैने किसी को उधार नहीं दिया, लेकिन उधार मांगने वालों के पास तो  वाकई कला है। कैसे दूसरे की जेब से रकम निकालते हैं, यह हर एक के बस की बात नहीं। वर्ष 2006 की बात है। एक ठेकेदार ने मुझसे दोस्ती गांठी और दस हजार रुपये उधार मांग लिए। उसने कहा कि उसका कोई काम अटका हुआ है। छह माह में रकम लौटा देगा। इसकी एवज में वह मुझे आगामी छह माह का चेक भी देने लगा। मुझे उसकी बात पर विश्वास हो गया और मैने उससे दस हजार का चेक लिया और उसे नकद दस हजार रुपये दे दिए।
दस हजार रुपये मैने अपने छोटे बेटे को स्कूल में एडमिशन कराने के नाम पर रखे थे। मुझे जब उक्त रकम की जरूरत  थी, तब तक ठेकेदार ने वापस देने का वादा किया था। निर्धारित समय आया, लेकिन ठेकेदार मित्र ने तो आजकल करते-करते तीन माह निकाल दिए। इस पर मैने अपने अन्य मित्रों की सलाह ली। पता चला कि उक्त ठेकेदार ने तो सभी को चूना लगाया है। सबसे कम राशि पर मैं ही ठगा गया।
मैने एक वकील मित्र के माध्यम से ठेकेदार के खिलाफ न्यायालय में मुकदमा कर दिया। तब भी वह यही कहता कि मैरे पैसे लौटा रहा है। अब तारिख लगती। न्यायालय से ठेकेदार को सम्मन्न जाते वह पुलिस वालों को पचास-सौ रुपये देकर यह लिखवा लेता कि इस पते पर कोई नहीं मिला। ऐसे में करीब चार साल गुजर गए। मैं कोर्ट में अपराधियों की भांति नजर आता, वहीं ठेकेदार आराम से अपने घर होता। तभी क्षेत्र की कोतवाली में मैरे एक मित्र की कोतवाल के रूप में तैनाती हुई। तब जाकर उसने सम्मन्न को रिसिव कराया और इसके बाद ही ठेकेदार का न्यायालय में उपस्थित होने का नंबर आया। न्यायालय में मेरा पक्ष मजबूत था। चेक तीन बार बाउंस हो चुका था। इसलिए ठेकेदार को सजा मिलना भी तय था। जब न्यायालय की कार्रवाई अंतिम चरण में थी, तब ठेकेदार ने मेरे कई मित्रों की सिफारिश लेकर मुझसे मुकदमा वापस लेने का आग्रह किया। फिर एक दिन ऐसा आया कि वो रकम लौटा ही गया। तब मैने मुकदमा वापस लिया। अपनी रकम वापस लेने में मुझे पूरे पांच साल लग गए। साथ ही करीब पच्चीस बार मुझे न्यायालय में भी उपस्थित होना पड़ा। तब से मैने यही तय किया कि किसी की मदद करनी है, तो उसे रकम देकर भूल जाओ, लेकिन उधार के नाम पर कभी कुछ न दो।

                                                                                                 भानु बंगवाल

Friday, 10 February 2012

डूबते को लाश का सहारा....

कई बार जीवन से ऐसी घटनाएं होती हैं, जब व्यक्ति का मौत से साक्षात्कार हो जाता है। ऐसी घटनाएं कई बार होती हैं। फिर व्यक्ति यह अवलोकन करने लगता है कि कौन सी घटना बड़ी थी या ज्यादा खतरनाक थी। खैर घटना तो घटित होती है। इससे जो बचकर निकल गया वही सौभाग्यशाली होता है।
तब में सहारनपुर में था। देहरादन से वहां के लिए तबादला होने पर  मैं परिचितों की सूची भी साथ ले गया। नए शहर में कब कौन काम आ जाए। मेरी एक मौसी के बेटा नीलकंठ भाई साहब भी सहारनपुर रहते थे। मौसी को तो मैने जीवन में कभी नहीं देखा। भाई साहब को बचपन में देखा था, उनकी शक्ल भी मुझे याद नहीं थी। भाई साहब के चार बच्चे थे। बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अलग रहता था। दो बेटी और फिर एक छोटा बेटा उनके साथ थे।
सहारनपुर में रहने के दौरान मैं भाई साहब के घर अक्सर जाया करता था। भाई साहब की सबसे बड़ी बेटी संगीता करीब सत्रह साल की थी। वह मुझे चाचा कहती और मैरे खाने का विशेष ख्याल रखती। छुट्टी के दिन में उनके घर जाता, वह पहाड़ी व्यंजन कभी काफली (पालक का साग), कभी चौसाणी (कूटने के बाद पकाई गई उड़द की दाल) आदि बनाती थी। होटल में खाना खाकर मैं ऊब जाया करता था। इसलिए उनके घर जाकर खाने का मोह मुझे हमेशा रहता था।
खूब बातूनी, हंसी मजाक के स्वभाव वाली थी संगीता। एक दिन दोपहर के समय मुझे किसी परिचित का फोन आया कि संगीता की मौत हो गई। इस सूचना ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया। खैर ईश्वर की यही मर्जी थी। मैं भाई साहब के घर गया। अगले दिन अंतिम संस्कार के लिए शव को हरिद्वार ले गए। पहले ही तय हो चुका था कि शव को गंगा में जल समाधी दी जाएगी। हरिद्वार चंडीघाट पर शव को ले गए। कल तक उछलती कूदती संगीता जो चिर निंद्रा में सोई थी, के शव को लेकर हम कुछ  लोग गंगा के प्रवाह में उतरे। कमर से ज्यादा गहराई तक उतरने के बाद शव को रस्सी व पत्थरों से बांध दिया गया। ताकि प्रवाह में बह न जाए। जल समाधी देने के बाद सभी किनारे जाने लगे। पीछे मैं रह गया। तभी मुझे अहसास हुआ कि मेरे पैर से जमीन खिसक रही है। पानी का बहाव अचानक बढ़ा और मैं बहने लगा। तभी मैंने अपने को बचाने के लिए संगीता का हाथ पकड़ लिया। उसका हाथ पानी से बाहर को निकल रहा था। शव का सहारा लेकर मैं कम पानी की तरफ बढ़ने लगा। तब जाकर मैं खुद को संभाल पाया और कूदकर पानी से बाहर की तरफ को भागा। किनारे पहुंचने पर मैंने नदी की तरफ देखा। वहां पानी की लहर के साथ हिलता हुआ मुझे संगीता का हाथ नजर आ रहा था। मानो जो मुझे कह रही थी अलविदा चाचा जी  । वो संगीता जो मेरी भतीजी थी। जो  हमे छोड़कर चली गई थी और पानी में डूबते हुए उसकी लाश ही मेरा सहारा बनी।
                                                                                                                          भानु बंगवाल

Thursday, 9 February 2012

पंडित जी...

बचपन से ही पंडित जी मुझे काफी पसंद थे। उनका काम भी मुझे आसान नजर आता था। किताब में लिखे श्लोक पढ़ो, पूजा अर्चना कराओ और दान दक्षिणा लेकर घर को चले जाओ। इस काम में जहां इज्जत थी, वहीं तरह-तरह के पकवान खाने का मौका अलग से था। खुशी का मौका विवाह हो,  फिर तेहरवीं या श्राद्ध। सभी में पहले पंडितजी ही जिमते हैं। मुझे लगता था कि इसमें न तो ज्यादा मेहनत है और न ही ज्यादा पढ़ाई लिखाई की जरूरत। बस थोडा श्लोक का उच्चारण आना चाहिए। किताब में व्याख्या होती है। अभ्यास कर सभी अच्छा बोल सकते हैं।
टिहरी जनपद के सौड़ू गांव में मैरे मौसाजी धर्मानंद सेमवाल भी पुरोहित का काम करते थे। वह वाकई में पंडित (विद्वान) थे, इसका अहसास भी मुझे बाद में हुआ। कड़ाके की सर्दी में वह सुबह उठकर  ठंडे पानी से नहाते थे। पूजा पाठ करते और शाम को संध्या करना भी नहीं भूलते। जब भी मौसाजी देहरादून हमारे घर आते तो रसोई में बच्चों के जाने की मनाही होती। यदि कोई बच्चा रसोई में घुस जाता तो वह खाना नहीं खाते। यानि साफ सफाई का उस दौर पर भी ख्याल रखा जाता था।
मौसाजी शांत स्वभाव के थे। उन्हें कभी किसी ने गुस्से में नहीं देखा। जब मैं सातवीं कक्षा में था, तो एक दिन मौसाजी हमारे घर आए। आपसी बातचीत में मैने मौसाजी से कहा कि सबसे आसान काम पंडिताई का है। इसमें मेहनत भी नहीं है, और किताब पढ़कर हर कोई यह काम कर सकता है। मेरे इस कथन को सुनकर वह कुछ नहीं बोले। सिर्फ मुस्कराते रहे। कुछ देर बाद उनके हाथ में संस्कृत की एक किताब अभिज्ञान शाकुंतलम थी। किताब भी मेरी बहिन की बीए की थी। मौसाजी ने मुझे बुलाया और एक पन्ना खोलकर उसमें लिखे श्लोक पढ़ने को कहा। संस्कृत में कमजोर होने के कारण मैं श्लोक का उच्चारण ठीक से नहीं कर सका। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि जब किसी के बारे में ज्ञान न हो तो उस पर टिप्पणी नहीं करते। साथ ही वह किताब से श्लोक पढ़कर उसका अर्थ भी समझाने लगे। तब मुझे असहास हुआ कि जिस काम को मैं आसान समझता था, वह काफी कठिन था। एक पुरोहित का काम भी किसी तप से  कम नहीं था। नौकरी-पेशे वाला तो आफिस से छुट्टी होते ही घर पहुंच जाता है, लेकिन पंडित जी तो कई बार इस शहर से दूसरे शहर विवाह, भागवत कथा आदि संपन्न कराने के में व्यस्त रहते हैं। किसी कर्मकांड के दौरान वह कई घंटों तक पलाथी मारकर बैठे रहते  हैं। यजमान थक जाता है,  लेकिन पंडित जी भी थके हैं, इसका आभास किसी को नहीं रहता। घर से कई-कई दिनों तक बाहर। पत्नी व बच्चों से दूर रहकर जो कर्मकांड वह करते हैं, वही उनकी मेहनत है। उनका ज्ञान ही उनकी पूंजी। इसी के बल पर  उनका घर परिवार चलता है। 
                                                                                                                        भानु बंगवाल 

Wednesday, 8 February 2012

मेरी कविता सुन लो.....

कोई भी काम अच्छा या  बुरा तब ही होता है, जब उस पर किसी की प्रतिक्रया न हो जाए। इसके बगैर वह हमेशा अधूरा ही रहता है। महिला फेशन  करे और कोई तारीफ नहीं करे, तो फेशन अधूरा। मेहनत से खाना बनाओ और खाने वाला तारीफ न करे तो मेहनत अधूरी। कवि, लेखक, रचनाकार के लिए उसकी रचना तब तक अधूरी रहती है, जब तक कोई उसे सुन या पढ़ न ले। रचना लिखना आसान है, लेकिन उसे किसी को सुनना या पढ़ाना अपने हाथ में नहीं रहता है। ऐसे में कई रचनाकार अपनी रचनाओं को सुनाने के लिए तरह-तरह के टोटके करते हैं। इस बार मैं ऐसे ही रचनाकार का जिक्र कर रहा हूं।
वर्ष, 1994 के दौरान मैं धर्मनगरी रिषीकेश में था। वहां एक दुकानदार बाबू थे। उनकी पडोसी दुकानदार से काफी तनातनी चलती थी। मसलन, बाबू ने आटे की चक्की खोली तो पडो़सी ने भी चक्की खोल दी। बाबू की दुकान में जब ग्राहक की भीड़ लगती, तो पड़ोसी चक्की में मिर्च  पिसने लगता। साथ ही पंखा भी चला देता। ऐसे में मिर्च उड़ती और बाबू की दुकान के ग्राहक इससे परेशान होते। बाबू भी कम नहीं थे, वह पड़ोसी की करतूत पर रचना लिखते और ग्राहकों को सुनाने लगते।
पड़ोसी से दुश्मनी ने बाबू को कवि बना दिया। वह हर दिन उसके  खिलाफ एक नई रचना गढ़ने लगा। धीरे-धीरे रचना में धार भी आने लगी, लेकिन ग्राहक रचना सुनने के मूढ़ में नहीं रहते थे। इसका बाबू को अहसास हुआ, तो उन्होंने एक पत्रकार को अपनी कविता सुनाने के लिए चुना। साथ ही उसे कविता सुनने व प्रतिक्रया देने की एवज में हर माह एक निर्धारित राशि देने का वादा भी किया। उन दिनों पत्रकार महोदय भी खाली चल रहे थे। सो उन्होंने बाबू की कविताएं सुनने को हामी भर दी। अब हर दिन पत्रकार महोदय बाबू के घर जाते और कविता सुनते। साथ ही वाहवाही करना भी नहीं भूलते।
यह क्रम कई दिनों तक चला। एक दिन पत्रकार महोदय ने बाबू के घर जाने में असहमति जताई। उन्होंने कहा कि हर दिन मैं आपके घर आ रहा हूं। जमाना खराब है, लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं। इसका समस्या का तोड़ भी बाबू के पास था। उन्होंने कहा कि मेरी बेटी को तुम ट्यूशन पढ़ा दो। उसकी पढ़ाई भी हो जाएगी और तुम मेरी कविता भी सुन लिया करना। यह तरीका पत्रकार महोदय को भी अच्छा लगा और शुरू कर दिया बाबू की बेटी को पढ़ाना। पढ़ाना क्या था, बस दिखावा। बेटी को जैसे ही पत्रकार महोदय पढ़ाना शुरू करते, तभी बाबू भी आ धमकते और बेटी को खेलने के लिए बाहर भेज देते। फिर शुरू होता कविता का सिलसिला।
हर रोज लगातार एक घंटे कविताएं सुनते-सुनते पत्रकार महोदय भी थक गए। वह मैरे पर आए और उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई। उनका कहना था कि किसी तरह मेरा पीछा कविताओं से छुड़वा दो। खैर पत्रकार महोदय ने किसी तरह बाबू से पीछा छुड़ा लिया, वहीं बाबू ने शुरू की नए श्रोता की तलाश। इस तलाश में जब भी कोई उनके परिचय में आता, तो वह यही कहते- बस मेरी कविता सुन लो.......

                                                                                                                      भानु बंगवाल

Tuesday, 7 February 2012

आग लगी हमरी झुपड़िया में

तब मैं आठवीं में पढ़ता था।  खेत और जंगल से हमारा घर घिरा था। किराये के घर के पिछली तरफ तीन छोटे-छोटे कमरों में तीन किराएदार रहते थे। सामने की तरफ हमारा एक और कमरा था। उसके समीप एक मुस्लिम परिवार व दो अन्य हिंदू परिवार रहते थे। हमारे पास एक काफी बड़ा करीब तीस फुट लंबा और 15 फुट चौड़ा कमरा था। इसकी छत टिन की थी। इसकी पिछली दीवार से सटे तीन कमरे थे, जो अन्य लोगों के पास किराए में थे। कोई भी घर में जरा सी आवाज करे तो वह सभी को सुनाई देती थी।
कई बार घर से ही जोर-जोर की आवाज में पड़ोसियों के  साथ आपसी बातचीत भी हो जाती थी। हमारे घर के पिछली तरफ के हिस्से में सावित्री नाम की एक वृद्धा रहती थी। उसकी शादी एक दष्टिहीन से हुई थी। बच्चे नहीं होने पर उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया और सावित्री पति से अलग हो गई। इस स्वाभिमानी महिला ने दुख के समय सहायता के लिए अपने पति की तरफ कभी मुंह नहीं ताका। कोठियों में बर्तन मांजकर, झाड़ू- पोछा लगाकर ही वह अपना गुजारा करती थी। उसने एक बकरी भी पाली हुई थी।  बुढ़ापे में भी वह हमेशा खुश रहती थी। बच्चों को प्यार करती थी। घर जाने पर बच्चों के लिए कुछ न कुछ निकालकर वह उन्हें खिलाती भी थी।
सुबह उठते ही सावित्री सार्वजनिक नल से पानी भरती। चाय नाश्ता तैयार करती। साथ ही हर रोज गीत गाती- भरी है पाप की गठरी, जिसे वासुदेव ने पटकी। या यूं कहें कि सावित्री के गीतों से ही आस पड़ोस के लोगों की नींद खुलती थी।
सभी लोगों ने घर के आसपास खाली जमीन को सब्जी उगाने के उपयोग में लाया हुआ था। मुस्लिम परिवार में जमशेद आलम घर का मुखिया था। उनके बड़े बेटे जुनैद के नाम से ही घर के अन्य लोगों की पहचान थी। यानि जुनैद की मां, जुनैद के पापा आदि। जून का महिना था। मैं बड़े कमरे के सामने वाले दूसरे कमरे में दिन के समय सोया हुआ था। तभी मेरी माताजी ने मुझे उठाया, जल्दी उठ चारों और आग लग गई है।
मैं  बिस्तर से  उठा और बाहर की तरफ दौड़ा हुआ आया। तब तक जंगल से आग भड़कती हुई घर के निकट तक पहुंच गई। इस पर मैं फायर ब्रिगेड बुलाने को फोन करने के लिए निकट ही पिताजी के आफिस की तरफ दौड़ा। जब वापस आया तो नजारा काफी भयावह था। मौके पर जमा हुए लोगों की मदद से हमारे व आस पड़ोस के घर का सामान बाहर निकाल लिया गया था। मेरी बड़ी बहनों ने समझा कि हमारी माताजी आग की चपेट में आ गई है। रो-रोकर उनका बुरा हाल था। माताजी के सामने आने पर भी वह इस पर रोती रही, कि यदि कुछ हो जाता तो क्या होता। जुनैद की मां को घर की चिंता नहीं, बल्कि घर के पिछवाड़े में बाड़े की चिंता थी, जिसमें उसने सब्जियां उगाई हुई थी। फायर ब्रिगेड से आग बुझने पर वह बाड़ा बचने पर खुश थी।
इस अग्निकांड में सावित्री सिर्फ अपने साथ अपनी बकरी को ही बचा पाई। उसके घर का सारा सामान राख हो  गया। सामान क्या था। एक चारपाई, एक संदूक जिसमें कुछ रुपये व कपड़े। कुछ बर्तन। हरएक की आंख नम थी, लेकिन सावित्री की हिम्मत गजब की थी। वह भीतर से चाहे टूट चुकी हो, लेकिन बहार से पहाड़ जैसी नजर आ रही थी। उसने इस आग से हुए नुकसान को काफी हल्के में लिया। न कोई सरकारी सहायता की उसे दरकार थी और न ही किसी की मदद की। आग बुझने के बाद घुएं की कालीख पुते घर में सभी ने सामान वापस रखा। सावित्री के पास वापस रखने के लिए एक मात्र बकरी थी। उसे ही वह कमरे में ले गई। आस पड़ोस के लोगों ने उसे बिस्तर जरूर दे दिया। अगले दिन सुबह हुई और सावित्री फिर से गुनगुनाने लगी। इस बार उसके गाने के बोल बदल गए। तब से वह हमेशा यही गाती-आग लगी हमरी झुपड़िया में।
                                                                                                                        भानु बंगवाल

Monday, 6 February 2012

मजार....

बचपन से सुना था कि धोबीघाट के निकट बनी मजार पर मत जाना। अगर जाओ तो ज्यादा देर मत ठहरना। वहां हाथ जोड़ना और आगे बढ़ चलना। वहां आसपास कहीं भी लघुशंका बिलकुल मत करना। यदि की तो सैय्यद बाबा कभी माफ नहीं करेंगे। ऐसा ही डर मैरे साथ ही मोहल्ले के सभी  बच्चों के मन में बैठा रखा था। बच्चे क्या बड़ों के मन में भी उस स्थान के प्रति डर बैठा हुआ था। ये डब कब से बैठाया गया और क्यूं बैठाया गया, यह कोई नहीं जानता था।
देहरादून के राजपुर रोड स्थित राष्ट्रीय दष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर में थी यह मजार। करीब तीस साल पहले मजार लैंटाना की झाडि़यों से घिरी हुई थी। मजार आम के पेड़ के नीचे बनी हुई थी। इसके निकट से पगडंडियों वाला रास्ता जाता था। यह कच्चा रास्ता भी दोनों ओर से झाड़ियों से घिरा था। मजार के कुछ  निकट एक कत्रिम धोबीघाट था। रात के सन्नाटे में यह जगह काफी भयावाह नजर आती थी। झाडि़यों के बीच एक्का-दुक्का छोटे पेड़ो पर दूर से जब कोई रोशनी चमकती, तो किसी व्यक्ति के खड़े होने का भ्रम फैलाती  थी। कमजोर दिल वाले इसे भूत समझकर दौड़ लगा देते।
सैय्यद बाबा के बारे में कई किवदंती भी थी। कोई कहता कि वह रात के बारह बजे सफेद घोड़े में बैठकर सफेद कपड़ों में मजार के आसपास भ्रमण करते हुए देखे जाते हैं। उस जमाने के दादा माने जाने वाले व्यिक्त की नाम रामू  था, जो हमारे मोहल्ले में ही रहा करता था। अस्सी के दशक में गैंगवार के दिनों में अक्सर पुलिस उसे  गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया करती थी। लोग बताते थे कि रामू  को भी सैय्यद बाबा के कहर का सामना करना पड़ा। जब मैं छोटा था तो मैने रामू  भाई से पूछा कि क्या आपने सैय्यद बाबा को देखा है। तब उन्होंने बताया कि एक  बार मजार के निकट लघुशंका करने पर उनकी तबीयत बिगड़ गई। उनके पिताजी ने झाड़फूंक कर उन्हें बचाया। मजार क्षेत्र के आसपास ज्यादा देर रुकने का डर। यह डर शायद सदियों से चला आ रहा था। इस डर से रामू  की तबीयत बिगड़ी या फिर कुछ और कारण रहा। जो कुछ भी हो, लेकिन लोग उस स्थान को पवित्र मानते थे। साथ ही वहां का डर हर एक के मन में था।
समय गुजरता गया,लेकिन मजार क्षेत्र  का  रहस्य बरकरार रहा। एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में होने के कारण में एक शहर से दूसरे शहर में तबादलों की मार झेल रहा था। करीब तीन साल सहारनपुर में रहने के बाद वर्ष 1999 में मैं वापस देहरादून आया। पता चला कि जहां मजार थी, उसके निकट से राजपुर रोड को कैनाल रोड से जोड़ने के लिए सड़क बनाई जा  रही है। इसके लिए मजार के निकट मजदूर खुदाई कर रहे थे। खुदाई के दौरान मजदूरों को जमीन में दबी एक छोटी हंडिया मिली। इसे निकाला गया, तो इसमें सिक्के भरे हुए थे। आसपास के बच्चों और कुछ लोगों ने सिक्के अपनी जेब में भर लिए। मुझे इसका पता तो मैने समाचार लिखा कि खुदाई में सिक्के मिले। सिक्कों  को देख  इतिहासकारों के मुताबिक बताया गया कि सिक्के समुद्रगुप्त के काल के हैं, तो कोई इसे दूसरे युग से जोड़कर देख रहा था। खैर जो भी हो समाचार प्रकाशित होने पर प्रशासन हरकत में आया और सारे सिक्के जब्त कर लिए गए। बचपन से मैं जिस सवाल की तलाश कर रहा था, सिक्के मिलने की घटना ने उसका उत्तर दे दिया। यानि सदियों पहले जिसने भी अपनी संपत्ति हंडिया में रखकर जमीन में छिपाई, उसी ने मजार बनाकर वहां लोगों के मन में भय भी बैठा दिया। यह भय वर्षों से लोगों के मन में बरकरार है। 
                                                                                                                               भानु बंगवाल

टेलीविजन

तब टेलीविजन का नाम सुना जरूर था, लेकिन देखा नहीं था। मैं तीसरी कक्षा में था और मुझे मां के साथ दिल्ली जाने का मौका मिला। बड़ी बहन दिल्ली में सरकारी नौकरी पर थी। गांव के एक मामाजी के घर पर रह रही थी। उसने मां को दिल्ली बुलाया। घर में सबसे छोटा होने के नाते मुझे साथ जाने का मौका मिला। दिल्ली जाते समय रास्ते भर छह घंटे के सफर में मैं टेलीविजन की ही कल्पना करता रहा। कैसा होता है छोटा का बक्सा। बाइसकोप की तरह होगा, लेकिन बाइसकोप में तो पोस्टर लिपटे होते हैं। फोटो दिखती है,जो चलती नहीं। इसमें कैसा नजर आएगा आदमी।
घर में बड़ी बहिनों ने समझा दिया कि दिल्ली जा रहे हो, पता याद रखना। वहां भीड़ होगी। कहीं ऐसा न हो कि आइएसबीटी पहुंचते ही भीड़ में दीदी को न देख सको। ऐसे में उनके घर का पता याद होना जरूरी है। मुझे पता याद हो गया। ठीस उसी तरह जैसे किसी पाठ को याद करना जरूरी होता है। एफ-1953 नेताजी नगर।
दिल्ली पहुंचे, लेकिन बस अड्डे में न दीदी दिखी और न ही मामाजी। कैसे दिखते। मामाजी अपना रुतबा दिखाने को पुलिस की वर्दी में हमें लेने पहुंचे। भीड़ और  बर्दी में उन्हें न तो मां ही पहचान सकी और न ही वो हमें पहचान पाए। इस पर मां एक कोने पर बैठी रोने लगी। तभी एक सज्जन व्यक्ति हमारे पास आया और माताजी से गढ़वाली में पूछने लगा कि बहन क्यों रो रही है। माताजी ने आपबीती सुनाई कि दिल्ली में कोई हमें लेने नहीं पहुंचा। इस पर उसने पता पूछा। घबराहट के चलते मैं भी पता भूलने लगा। दिमाघ में जोर दिया तो काफी देर बाद याद आया। इस पर उस सज्जन ने हमें एक बस में बैठा दिया। साथ ही हमारी समस्या ड्राइवर को बता दी। नेताजी नगर में ड्राइवर ने बस रोकी और हमें आटो में बिठवाया। तब कितना समय था लोगों के पास मानवता के लिए। यह अहसास मुझे अब होता है। आटो वाले ने भी घर तक जाने के एक रुपये तीस पैसे मांगे। वो राशि न कम थी और न ही ज्यादा।
खैर किसी तरह घर पहुंचे। देखा दीदी हमें लेने को स्टेशन जाने के लिए तैयार हो रही है। मामाजी वापस खाली हाथ लौट आए थे।
शाम हो चुकी थी। रविवार का दिन था। सो मैने टेलीविजन देखने की इच्छा जताई। इस पर दीदी मुझे पड़ोस में किसी के घर छोड़ गई। वहां टेलीविजन में पिक्चर शुरू हुई-आदमी। पिक्चर क्या थी, मुझे समझ तक नहीं आई। मैं तो इस कल्पना में ही खोया रहा कि देहरादून पहुंचकर सबसे पहले टेलीविजन के बारे में किसे बताउंगा। पहले बड़ी बहनों को। अगले दिन स्कूल में सपहाठियों को।
दिल्ली से देहरादून आने पर मुझे कुछ दिन तक अपने शहर की सड़कें खाली और संकरी नजर आई।  धीरे-धीरे में दिल्ली को भूल देहरादून के माहौल में अभ्यस्त हो गया। कुछ साल बाद कबीर 1975 के दौर में मसूरी में टीवी टावर लगने से देहरादुन में भी टेलीविजन आया। पैसे वाले लोग इसे खरीदने लगे और बच्चे इस जुगत में रहते कि रविवार को फिल्म, बुधवार को चित्रहार देखने को किसके घर में धावा बोला जाए।
हमारे मौहल्ले में सबसे पहले पिल्ले बाबू के घर टेलीविजन आया। उन्होंने इस शान को दिखाने के लिए सभी के लिए घर के दरवाजे खोल दिए। बस क्या था रविवार को उनके घर लोग जमने लगे। किसी चीज की हद होती है। अच्छाई भी कई बार नुकसानदायक होती है। पिल्ले जी के यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। बच्चे टेलीविजन देखने के बाद जब घर जाते तो मुंगफली के छिक्कल दरी में ही छोड़ जाते। उनके लिए समस्या यह हो गई कि जैसे टीवी आन करो, बच्चे धड़ाधड़ घर में घुसते और दरी में बैठ जाते। जब तक टीवी बंद न हो जाए, मजाल है कोई वापस जाने का नाम ले।
अब पिल्ले जी ने टेलीविजन छिपा के देखना शुरू किया। मसलन जब बच्चे आते तो वह कहते कि आज उनकी तबीयत खराब है। जब भीड़ निराश होकर वापस जाती, तभी टीवी आन होता। फिर भी एक्के-दुक्के तब पता नहीं कहां से सुंघकर उनके घर आ ही जाते।
पिल्ले जी के इस व्यवहार को दूसरे बाबू ने घमंडी करार दिया। कहने लगे कि टेलीविजन देखने से किसी का क्या घिसता है। सो गुस्से में वह भी अपने घर ले आए। जब उनके यहां भी दर्शकों ने अति कर दी, तो वह भी पिल्लेजी के नक्शेकदम पर उतर आए। सो देखादेखी मोहल्ले में टेलीविजन लोगों के घर आने लगे। दर्शक भी एक घर से दूसरे घर शिफ्ट होने लगे।
छह भाई बहन में मैं सबसे छोटा था। बड़ी बहिन दिल्ली में थी। वहीं उसकी शादी भी कराई गई। दूसरी बहन का देहरादून में ही ससुराल था और वह भी सरकारी नौकरी में थी। इसके बाद बड़ा भाई, फिर दो बहन और मैं थे। वर्ष 1980 के बाद एशियाड से पहले रंगीन टेलीविजन का दौर शुरू हो गया। यही नहीं सरकारी कालोनियों में एक हाल में लोगों के लिए टेलीविजन रखने की परंपरा भी शुरू हुई। राष्ट्रीय दष्टिबाधितार्थ संस्थान में बाकायदा शविवार, रविवार की फिल्मों के लिए हाल में दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ जुटती थी। हम भी वहीं टेलीविजन का आनंद उठाते थे।
मैरे पिताजी फिल्मों से चिढ़ते थे। उनका कहना था कि इसमें प्रेम प्रसंग के अलावा कुछ नहीं नहीं। जिसको देखो वह प्यार कर रहा है। यथार्थ में यह नहीं चलता। हां समाचार जरूर देखो और सुनो, वो किसी न किसी दिन जीवन में काम जरूर आते हैं। हमारे घर में बिजली नहीं थी, सो टेलीविजन की कल्पना करना भी हमारे लिए दूर के ढोल थे। एक बार मैरी तीसरे नंबर बहन दिल्ली गई। वहां उसने अपनी सहेली के घर छोटा पोर्टेबल टेलीविजन देखा। सहेली के घर बिजली नहीं थी। उसने बताया कि इसे बैटरी से चलाते हैं। दिल्ली से बहन ने घर आकर हमसे यह चर्चा की। तब सभी भाई बहन ट्यूशन पढ़ाकर जेब खर्च निकालते थे। माताजी ने गाय पाली हुई थी। दूध बेचकर घर का कुछ खर्च उससे भी चलता था। पिताजी का वेतन सीमित था। उससे सिर्फ खाना ही खाया जा सकता था। करीब 1986 की बात रही होगी। तब हम भाई बहनों से सलाह बनाई कि आपस में चंदा मिलाकर टेलीविजन खऱीदा जाए। इस सलाह से बड़े भाई को भी दूर रखा। पिताजी को बताना ही नहीं था। वर्ना फिजूलखर्ची कहकर वह हमारी मंशा पर पानी डाल देते। खैर सभी ने कुछ न कुछ मिलाया। माताजी ने साढ़े बारह सौ के टेलीविजन के लिए छह सौ रुपये दिए। बेटरी भी छह सौ रुपये की आई। बाकी रकम दो बहनों और मैने मिलाकर पूरी की और ले आए टेलीविजन।
उस समय हमने भी टेलीविजन देखने को बच्चे और युवाओं के लिए घर के दरवाजे खोल दिए। हम भाई बहनों का कमरा अलग था। पिताजी जहां रहते थे. वहां का हमारे कमरे से फासला भी साठ- सत्तर मीटर का रहा होगा। सो उन्हें टेलीविजन के बारे में खबर न हो, इसका भी पूरा ध्यान रखा गया। टेलीविजन को चारपाई के नीचे छिपाया गया। जब देखना होता, तभी पोर्टेबल टीबी को मेज में रखकर बैटरी से जोड़ा जाता। हमें डर था कि कहीं पिताजी टेलीविजन देखेंगे तो बिगड़ जाएंगे।
पिताजी दिन में आफिस की लाइब्रेरी में अमूमन हर समाचार पत्र बारीकी से पढ़ते थे। घर आकर वह ट्रांजिस्टर में मात्र समाचार ही सुनते थे। चाहे समचार उर्दू के क्यों न हों। घर में टेलीविजन आया, यह उनसे कितने दिन छिपाते। आखिर एक दिन जब आधी पिक्चर निकल गई, तब पिताजी हमारे कमरे में घुसे। हम भाई बहनों को मानों सांप ही सूंघ गया। आस पड़ोस के बच्चों की भीड़ भी चुपचाप बैठी रही। तभी पिताजी ने कहा कि समाचार का समय होने वाला है। टेलीविजन बंद मत करना। यह सुनकर सभी को सुखद अहसास हुआ कि उन्हें टेलीविजन लाने से कोई नाराजगी नहीं है। रिटायर्ड होने पर पिताजी ने नया घर खरीदा। मैने नया टेलीविजन, लेकिन पिताजी उस पुराने टेलीविजन पर ही समाचार देखते सुनते रहे। सुबह उठते ही वह टेलीविजन के आगे बैठ जाते। यह क्रम तब तक चला, जब तक उनकी मत्यु नहीं हो गई। मैने भी पुरानी यादों को संजोने के लिए अपने सबसे पहले टेलीविजन को आज तक संभालकर रखा है।  
                                                                                                             
                                                                                                            भानु बंगवाल

Saturday, 4 February 2012

संभलकर गाता हूं गाना

सुबह से शाम तक हमारे इर्दगिर्द छोटी व बड़ी घटनाएं घटती रहती है। बड़ी घटनाएं ज्यादा चर्चा में आती हैं और वह समाचार भी बन जाती हैं, लेकिन कई बार छोटी-छोटी बातों पर हम गौर नहीं करते। ऐसी घटनाएं हम अपने तक ही सिमित रखते हैं। या कभी कभार दोस्तों से उन पर चर्चा कर लेते हैं। कई बार घटनाओं को बताने का हमारा अंदाज कुछ ज्यादा रोचक  होता है, ऐसे में वे घटनाएं अक्सर हमारी चर्चा व उदाहरणों में आती है। हम ऐसी घटनाओं से कई बार नया भी सीखते हैं और इनके अच्छे बुरे परीणामों का आंकलन भी करते हैं। अपने नए ब्लॉग की शुरूआत भी मैं ऐसी घटनाओं से करूंगा, जिसमें मैरे जीवन के अनुभव शामिल रहेंगे। इसीलिए इस ब्लॉग का नाम अनुभव दिया गया है।
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संभलकर गाता हूं गाना
जीवन में इंसान सभी  कुछ सीखने की चाहत रखता है, लेकिन सीखने की क्षमता सीमित ही रहती है। कुछ चीजें जल्दी   सीख जाता है और कुछ को सीखने में  पूरी मेहनत ही क्यों न कर लो, फिर भी सफलता नहीं मिलती है। मैरे साथ भी  संगीत को लेकर कुछ ऐसा ही है। गला फटा बांस के समान होने के कारण इससे सुर नहीं निकलते हैं। बचपन में पिताजी के हारमोनियम को बजाना सीख नहीं पाया, लेकिन उसे तोड़ जरूर दिया। नाटकों में भी संगीत पक्ष कमजोर होने पर साथियों से अलग ही मेरी आवाज आती थी। सो मैं चुप रहने पर ही अपनी भलाई समझता था।
एक दो गानों को छोड़कर शायद ही कोई गाना मुझे याद हो पाया। आस पड़ोस के साथ ही तमाम  मैरे मौहल्ले के लोग मैरे पिताजी को पंडित जी कहकर पुकारते थे। उनका आदर भी काफी था। उन्हें कब कोई चिड़ा रहा इसका अहसास भी उन्हें नहीं हो पाया। बपचन की बात है मौहल्ले का सफाईकर्मी सुबह- सुबह जोर जोर से गाने के लहजे में बोला- पंडित जी।  मैरे पिताजी ने कहा- हां जी। वो झट  से गाना आगे गाने लगा। मैरे मरने के बाद, इतना कष्ट उठा लेना।
उसे सुनकर तब मैरे मन में एक बात जरूर घर कर गई कि गाना गाते समय यह ध्यान देना चाहिए कि कहीं इससे किसी को चोट तो नहीं पहुंचेगी। गाने की जब मैरे मन में ललक उठती है तो आधा-अधूरा गाना बेसुरे स्वर में घर में ही गाता हूं। एक दिन में गाने लगा- हमरा एक पड़ोसी है,  नाम जिसका जोशी है। ---तभी याद आया कि पड़ोसी बाकई में जोशी है। वो सुनेगा तो मुझसे खार खा बैठेगा। मै चुप हो गया,लेकिन शायद जोशीजी ने मेरा बेसुरा गाना सुन लिया और कई दिन तक मुझसे मुंह मोड़कर रखा।
बगल में मेरी भतीजी की नानी का घर है। उनक नाम मीरा है। आवाज भी कई बार एक दूसरे घर तक चली जाती है। अक्सर बाथरूम में गुनगुनाते हुए मैं घर में मै ऐसे गानों से परहेज ही करता हूं, जिसमें मीरा शब्द आए। सुबह-सुबह कई बार मन गुनगुनाने लगता है-ऐसी लागी लगन,मीरा हो गई मगन। इस गुनगुनाहट का वाल्यूम हल्का ही रखना मेरे लिए जरूरी है।
एक बार तो हद हो गई। मैं एक पुराना गीत- लौटा दे कोई, फिर वही मौसम एक बार। को गुनगुनाने का प्रयास कर रहा था। सुर का ज्ञान न होने से मैं बार-बार लय में आने के लिए लौटा दे, लौटा दे, --- बोल रहा था। तभी मैरी पत्नी पानी से भरा  लोटा लेकर आ गई और मुझे थमा दिया। शायद उसने सोचा कि लोटे में पानी मांगा गया है।
                                                                                                                                 भानु बंगवाल