तब टेलीविजन का नाम सुना जरूर था, लेकिन देखा नहीं था। मैं तीसरी कक्षा में था और मुझे मां के साथ दिल्ली जाने का मौका मिला। बड़ी बहन दिल्ली में सरकारी नौकरी पर थी। गांव के एक मामाजी के घर पर रह रही थी। उसने मां को दिल्ली बुलाया। घर में सबसे छोटा होने के नाते मुझे साथ जाने का मौका मिला। दिल्ली जाते समय रास्ते भर छह घंटे के सफर में मैं टेलीविजन की ही कल्पना करता रहा। कैसा होता है छोटा का बक्सा। बाइसकोप की तरह होगा, लेकिन बाइसकोप में तो पोस्टर लिपटे होते हैं। फोटो दिखती है,जो चलती नहीं। इसमें कैसा नजर आएगा आदमी।
घर में बड़ी बहिनों ने समझा दिया कि दिल्ली जा रहे हो, पता याद रखना। वहां भीड़ होगी। कहीं ऐसा न हो कि आइएसबीटी पहुंचते ही भीड़ में दीदी को न देख सको। ऐसे में उनके घर का पता याद होना जरूरी है। मुझे पता याद हो गया। ठीस उसी तरह जैसे किसी पाठ को याद करना जरूरी होता है। एफ-1953 नेताजी नगर।
दिल्ली पहुंचे, लेकिन बस अड्डे में न दीदी दिखी और न ही मामाजी। कैसे दिखते। मामाजी अपना रुतबा दिखाने को पुलिस की वर्दी में हमें लेने पहुंचे। भीड़ और बर्दी में उन्हें न तो मां ही पहचान सकी और न ही वो हमें पहचान पाए। इस पर मां एक कोने पर बैठी रोने लगी। तभी एक सज्जन व्यक्ति हमारे पास आया और माताजी से गढ़वाली में पूछने लगा कि बहन क्यों रो रही है। माताजी ने आपबीती सुनाई कि दिल्ली में कोई हमें लेने नहीं पहुंचा। इस पर उसने पता पूछा। घबराहट के चलते मैं भी पता भूलने लगा। दिमाघ में जोर दिया तो काफी देर बाद याद आया। इस पर उस सज्जन ने हमें एक बस में बैठा दिया। साथ ही हमारी समस्या ड्राइवर को बता दी। नेताजी नगर में ड्राइवर ने बस रोकी और हमें आटो में बिठवाया। तब कितना समय था लोगों के पास मानवता के लिए। यह अहसास मुझे अब होता है। आटो वाले ने भी घर तक जाने के एक रुपये तीस पैसे मांगे। वो राशि न कम थी और न ही ज्यादा।
खैर किसी तरह घर पहुंचे। देखा दीदी हमें लेने को स्टेशन जाने के लिए तैयार हो रही है। मामाजी वापस खाली हाथ लौट आए थे।
शाम हो चुकी थी। रविवार का दिन था। सो मैने टेलीविजन देखने की इच्छा जताई। इस पर दीदी मुझे पड़ोस में किसी के घर छोड़ गई। वहां टेलीविजन में पिक्चर शुरू हुई-आदमी। पिक्चर क्या थी, मुझे समझ तक नहीं आई। मैं तो इस कल्पना में ही खोया रहा कि देहरादून पहुंचकर सबसे पहले टेलीविजन के बारे में किसे बताउंगा। पहले बड़ी बहनों को। अगले दिन स्कूल में सपहाठियों को।
दिल्ली से देहरादून आने पर मुझे कुछ दिन तक अपने शहर की सड़कें खाली और संकरी नजर आई। धीरे-धीरे में दिल्ली को भूल देहरादून के माहौल में अभ्यस्त हो गया। कुछ साल बाद कबीर 1975 के दौर में मसूरी में टीवी टावर लगने से देहरादुन में भी टेलीविजन आया। पैसे वाले लोग इसे खरीदने लगे और बच्चे इस जुगत में रहते कि रविवार को फिल्म, बुधवार को चित्रहार देखने को किसके घर में धावा बोला जाए।
हमारे मौहल्ले में सबसे पहले पिल्ले बाबू के घर टेलीविजन आया। उन्होंने इस शान को दिखाने के लिए सभी के लिए घर के दरवाजे खोल दिए। बस क्या था रविवार को उनके घर लोग जमने लगे। किसी चीज की हद होती है। अच्छाई भी कई बार नुकसानदायक होती है। पिल्ले जी के यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। बच्चे टेलीविजन देखने के बाद जब घर जाते तो मुंगफली के छिक्कल दरी में ही छोड़ जाते। उनके लिए समस्या यह हो गई कि जैसे टीवी आन करो, बच्चे धड़ाधड़ घर में घुसते और दरी में बैठ जाते। जब तक टीवी बंद न हो जाए, मजाल है कोई वापस जाने का नाम ले।
अब पिल्ले जी ने टेलीविजन छिपा के देखना शुरू किया। मसलन जब बच्चे आते तो वह कहते कि आज उनकी तबीयत खराब है। जब भीड़ निराश होकर वापस जाती, तभी टीवी आन होता। फिर भी एक्के-दुक्के तब पता नहीं कहां से सुंघकर उनके घर आ ही जाते।
पिल्ले जी के इस व्यवहार को दूसरे बाबू ने घमंडी करार दिया। कहने लगे कि टेलीविजन देखने से किसी का क्या घिसता है। सो गुस्से में वह भी अपने घर ले आए। जब उनके यहां भी दर्शकों ने अति कर दी, तो वह भी पिल्लेजी के नक्शेकदम पर उतर आए। सो देखादेखी मोहल्ले में टेलीविजन लोगों के घर आने लगे। दर्शक भी एक घर से दूसरे घर शिफ्ट होने लगे।
छह भाई बहन में मैं सबसे छोटा था। बड़ी बहिन दिल्ली में थी। वहीं उसकी शादी भी कराई गई। दूसरी बहन का देहरादून में ही ससुराल था और वह भी सरकारी नौकरी में थी। इसके बाद बड़ा भाई, फिर दो बहन और मैं थे। वर्ष 1980 के बाद एशियाड से पहले रंगीन टेलीविजन का दौर शुरू हो गया। यही नहीं सरकारी कालोनियों में एक हाल में लोगों के लिए टेलीविजन रखने की परंपरा भी शुरू हुई। राष्ट्रीय दष्टिबाधितार्थ संस्थान में बाकायदा शविवार, रविवार की फिल्मों के लिए हाल में दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ जुटती थी। हम भी वहीं टेलीविजन का आनंद उठाते थे।
मैरे पिताजी फिल्मों से चिढ़ते थे। उनका कहना था कि इसमें प्रेम प्रसंग के अलावा कुछ नहीं नहीं। जिसको देखो वह प्यार कर रहा है। यथार्थ में यह नहीं चलता। हां समाचार जरूर देखो और सुनो, वो किसी न किसी दिन जीवन में काम जरूर आते हैं। हमारे घर में बिजली नहीं थी, सो टेलीविजन की कल्पना करना भी हमारे लिए दूर के ढोल थे। एक बार मैरी तीसरे नंबर बहन दिल्ली गई। वहां उसने अपनी सहेली के घर छोटा पोर्टेबल टेलीविजन देखा। सहेली के घर बिजली नहीं थी। उसने बताया कि इसे बैटरी से चलाते हैं। दिल्ली से बहन ने घर आकर हमसे यह चर्चा की। तब सभी भाई बहन ट्यूशन पढ़ाकर जेब खर्च निकालते थे। माताजी ने गाय पाली हुई थी। दूध बेचकर घर का कुछ खर्च उससे भी चलता था। पिताजी का वेतन सीमित था। उससे सिर्फ खाना ही खाया जा सकता था। करीब 1986 की बात रही होगी। तब हम भाई बहनों से सलाह बनाई कि आपस में चंदा मिलाकर टेलीविजन खऱीदा जाए। इस सलाह से बड़े भाई को भी दूर रखा। पिताजी को बताना ही नहीं था। वर्ना फिजूलखर्ची कहकर वह हमारी मंशा पर पानी डाल देते। खैर सभी ने कुछ न कुछ मिलाया। माताजी ने साढ़े बारह सौ के टेलीविजन के लिए छह सौ रुपये दिए। बेटरी भी छह सौ रुपये की आई। बाकी रकम दो बहनों और मैने मिलाकर पूरी की और ले आए टेलीविजन।
उस समय हमने भी टेलीविजन देखने को बच्चे और युवाओं के लिए घर के दरवाजे खोल दिए। हम भाई बहनों का कमरा अलग था। पिताजी जहां रहते थे. वहां का हमारे कमरे से फासला भी साठ- सत्तर मीटर का रहा होगा। सो उन्हें टेलीविजन के बारे में खबर न हो, इसका भी पूरा ध्यान रखा गया। टेलीविजन को चारपाई के नीचे छिपाया गया। जब देखना होता, तभी पोर्टेबल टीबी को मेज में रखकर बैटरी से जोड़ा जाता। हमें डर था कि कहीं पिताजी टेलीविजन देखेंगे तो बिगड़ जाएंगे।
पिताजी दिन में आफिस की लाइब्रेरी में अमूमन हर समाचार पत्र बारीकी से पढ़ते थे। घर आकर वह ट्रांजिस्टर में मात्र समाचार ही सुनते थे। चाहे समचार उर्दू के क्यों न हों। घर में टेलीविजन आया, यह उनसे कितने दिन छिपाते। आखिर एक दिन जब आधी पिक्चर निकल गई, तब पिताजी हमारे कमरे में घुसे। हम भाई बहनों को मानों सांप ही सूंघ गया। आस पड़ोस के बच्चों की भीड़ भी चुपचाप बैठी रही। तभी पिताजी ने कहा कि समाचार का समय होने वाला है। टेलीविजन बंद मत करना। यह सुनकर सभी को सुखद अहसास हुआ कि उन्हें टेलीविजन लाने से कोई नाराजगी नहीं है। रिटायर्ड होने पर पिताजी ने नया घर खरीदा। मैने नया टेलीविजन, लेकिन पिताजी उस पुराने टेलीविजन पर ही समाचार देखते सुनते रहे। सुबह उठते ही वह टेलीविजन के आगे बैठ जाते। यह क्रम तब तक चला, जब तक उनकी मत्यु नहीं हो गई। मैने भी पुरानी यादों को संजोने के लिए अपने सबसे पहले टेलीविजन को आज तक संभालकर रखा है।
भानु बंगवाल
घर में बड़ी बहिनों ने समझा दिया कि दिल्ली जा रहे हो, पता याद रखना। वहां भीड़ होगी। कहीं ऐसा न हो कि आइएसबीटी पहुंचते ही भीड़ में दीदी को न देख सको। ऐसे में उनके घर का पता याद होना जरूरी है। मुझे पता याद हो गया। ठीस उसी तरह जैसे किसी पाठ को याद करना जरूरी होता है। एफ-1953 नेताजी नगर।
दिल्ली पहुंचे, लेकिन बस अड्डे में न दीदी दिखी और न ही मामाजी। कैसे दिखते। मामाजी अपना रुतबा दिखाने को पुलिस की वर्दी में हमें लेने पहुंचे। भीड़ और बर्दी में उन्हें न तो मां ही पहचान सकी और न ही वो हमें पहचान पाए। इस पर मां एक कोने पर बैठी रोने लगी। तभी एक सज्जन व्यक्ति हमारे पास आया और माताजी से गढ़वाली में पूछने लगा कि बहन क्यों रो रही है। माताजी ने आपबीती सुनाई कि दिल्ली में कोई हमें लेने नहीं पहुंचा। इस पर उसने पता पूछा। घबराहट के चलते मैं भी पता भूलने लगा। दिमाघ में जोर दिया तो काफी देर बाद याद आया। इस पर उस सज्जन ने हमें एक बस में बैठा दिया। साथ ही हमारी समस्या ड्राइवर को बता दी। नेताजी नगर में ड्राइवर ने बस रोकी और हमें आटो में बिठवाया। तब कितना समय था लोगों के पास मानवता के लिए। यह अहसास मुझे अब होता है। आटो वाले ने भी घर तक जाने के एक रुपये तीस पैसे मांगे। वो राशि न कम थी और न ही ज्यादा।
खैर किसी तरह घर पहुंचे। देखा दीदी हमें लेने को स्टेशन जाने के लिए तैयार हो रही है। मामाजी वापस खाली हाथ लौट आए थे।
शाम हो चुकी थी। रविवार का दिन था। सो मैने टेलीविजन देखने की इच्छा जताई। इस पर दीदी मुझे पड़ोस में किसी के घर छोड़ गई। वहां टेलीविजन में पिक्चर शुरू हुई-आदमी। पिक्चर क्या थी, मुझे समझ तक नहीं आई। मैं तो इस कल्पना में ही खोया रहा कि देहरादून पहुंचकर सबसे पहले टेलीविजन के बारे में किसे बताउंगा। पहले बड़ी बहनों को। अगले दिन स्कूल में सपहाठियों को।
दिल्ली से देहरादून आने पर मुझे कुछ दिन तक अपने शहर की सड़कें खाली और संकरी नजर आई। धीरे-धीरे में दिल्ली को भूल देहरादून के माहौल में अभ्यस्त हो गया। कुछ साल बाद कबीर 1975 के दौर में मसूरी में टीवी टावर लगने से देहरादुन में भी टेलीविजन आया। पैसे वाले लोग इसे खरीदने लगे और बच्चे इस जुगत में रहते कि रविवार को फिल्म, बुधवार को चित्रहार देखने को किसके घर में धावा बोला जाए।
हमारे मौहल्ले में सबसे पहले पिल्ले बाबू के घर टेलीविजन आया। उन्होंने इस शान को दिखाने के लिए सभी के लिए घर के दरवाजे खोल दिए। बस क्या था रविवार को उनके घर लोग जमने लगे। किसी चीज की हद होती है। अच्छाई भी कई बार नुकसानदायक होती है। पिल्ले जी के यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। बच्चे टेलीविजन देखने के बाद जब घर जाते तो मुंगफली के छिक्कल दरी में ही छोड़ जाते। उनके लिए समस्या यह हो गई कि जैसे टीवी आन करो, बच्चे धड़ाधड़ घर में घुसते और दरी में बैठ जाते। जब तक टीवी बंद न हो जाए, मजाल है कोई वापस जाने का नाम ले।
अब पिल्ले जी ने टेलीविजन छिपा के देखना शुरू किया। मसलन जब बच्चे आते तो वह कहते कि आज उनकी तबीयत खराब है। जब भीड़ निराश होकर वापस जाती, तभी टीवी आन होता। फिर भी एक्के-दुक्के तब पता नहीं कहां से सुंघकर उनके घर आ ही जाते।
पिल्ले जी के इस व्यवहार को दूसरे बाबू ने घमंडी करार दिया। कहने लगे कि टेलीविजन देखने से किसी का क्या घिसता है। सो गुस्से में वह भी अपने घर ले आए। जब उनके यहां भी दर्शकों ने अति कर दी, तो वह भी पिल्लेजी के नक्शेकदम पर उतर आए। सो देखादेखी मोहल्ले में टेलीविजन लोगों के घर आने लगे। दर्शक भी एक घर से दूसरे घर शिफ्ट होने लगे।
छह भाई बहन में मैं सबसे छोटा था। बड़ी बहिन दिल्ली में थी। वहीं उसकी शादी भी कराई गई। दूसरी बहन का देहरादून में ही ससुराल था और वह भी सरकारी नौकरी में थी। इसके बाद बड़ा भाई, फिर दो बहन और मैं थे। वर्ष 1980 के बाद एशियाड से पहले रंगीन टेलीविजन का दौर शुरू हो गया। यही नहीं सरकारी कालोनियों में एक हाल में लोगों के लिए टेलीविजन रखने की परंपरा भी शुरू हुई। राष्ट्रीय दष्टिबाधितार्थ संस्थान में बाकायदा शविवार, रविवार की फिल्मों के लिए हाल में दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ जुटती थी। हम भी वहीं टेलीविजन का आनंद उठाते थे।
मैरे पिताजी फिल्मों से चिढ़ते थे। उनका कहना था कि इसमें प्रेम प्रसंग के अलावा कुछ नहीं नहीं। जिसको देखो वह प्यार कर रहा है। यथार्थ में यह नहीं चलता। हां समाचार जरूर देखो और सुनो, वो किसी न किसी दिन जीवन में काम जरूर आते हैं। हमारे घर में बिजली नहीं थी, सो टेलीविजन की कल्पना करना भी हमारे लिए दूर के ढोल थे। एक बार मैरी तीसरे नंबर बहन दिल्ली गई। वहां उसने अपनी सहेली के घर छोटा पोर्टेबल टेलीविजन देखा। सहेली के घर बिजली नहीं थी। उसने बताया कि इसे बैटरी से चलाते हैं। दिल्ली से बहन ने घर आकर हमसे यह चर्चा की। तब सभी भाई बहन ट्यूशन पढ़ाकर जेब खर्च निकालते थे। माताजी ने गाय पाली हुई थी। दूध बेचकर घर का कुछ खर्च उससे भी चलता था। पिताजी का वेतन सीमित था। उससे सिर्फ खाना ही खाया जा सकता था। करीब 1986 की बात रही होगी। तब हम भाई बहनों से सलाह बनाई कि आपस में चंदा मिलाकर टेलीविजन खऱीदा जाए। इस सलाह से बड़े भाई को भी दूर रखा। पिताजी को बताना ही नहीं था। वर्ना फिजूलखर्ची कहकर वह हमारी मंशा पर पानी डाल देते। खैर सभी ने कुछ न कुछ मिलाया। माताजी ने साढ़े बारह सौ के टेलीविजन के लिए छह सौ रुपये दिए। बेटरी भी छह सौ रुपये की आई। बाकी रकम दो बहनों और मैने मिलाकर पूरी की और ले आए टेलीविजन।
उस समय हमने भी टेलीविजन देखने को बच्चे और युवाओं के लिए घर के दरवाजे खोल दिए। हम भाई बहनों का कमरा अलग था। पिताजी जहां रहते थे. वहां का हमारे कमरे से फासला भी साठ- सत्तर मीटर का रहा होगा। सो उन्हें टेलीविजन के बारे में खबर न हो, इसका भी पूरा ध्यान रखा गया। टेलीविजन को चारपाई के नीचे छिपाया गया। जब देखना होता, तभी पोर्टेबल टीबी को मेज में रखकर बैटरी से जोड़ा जाता। हमें डर था कि कहीं पिताजी टेलीविजन देखेंगे तो बिगड़ जाएंगे।
पिताजी दिन में आफिस की लाइब्रेरी में अमूमन हर समाचार पत्र बारीकी से पढ़ते थे। घर आकर वह ट्रांजिस्टर में मात्र समाचार ही सुनते थे। चाहे समचार उर्दू के क्यों न हों। घर में टेलीविजन आया, यह उनसे कितने दिन छिपाते। आखिर एक दिन जब आधी पिक्चर निकल गई, तब पिताजी हमारे कमरे में घुसे। हम भाई बहनों को मानों सांप ही सूंघ गया। आस पड़ोस के बच्चों की भीड़ भी चुपचाप बैठी रही। तभी पिताजी ने कहा कि समाचार का समय होने वाला है। टेलीविजन बंद मत करना। यह सुनकर सभी को सुखद अहसास हुआ कि उन्हें टेलीविजन लाने से कोई नाराजगी नहीं है। रिटायर्ड होने पर पिताजी ने नया घर खरीदा। मैने नया टेलीविजन, लेकिन पिताजी उस पुराने टेलीविजन पर ही समाचार देखते सुनते रहे। सुबह उठते ही वह टेलीविजन के आगे बैठ जाते। यह क्रम तब तक चला, जब तक उनकी मत्यु नहीं हो गई। मैने भी पुरानी यादों को संजोने के लिए अपने सबसे पहले टेलीविजन को आज तक संभालकर रखा है।
भानु बंगवाल
हम लोग गोपेश्वर में रहते थे। अस्सी का दौर था, टेलीविजन तो था लेकिन उन्हीं लोगों के घरों में, जो समाज में बडे लोग कहे जाते हैं। दुर्भाग्य से ऐसे ही एक बडे के घर में हमारा भी आना-जाना था। उन्हीं दिनों देश में रामायण का क्रेज था तो हम सिर्फ रामायण देखने करीब तीन किमी दूर उन बडे व्यक्ति के घर जाते और रामायण देख्ा वापस घर लौट आते। आज घर में दो-दो एलसीडी हैं, लेकिन उसमें वह बात नहीं जो उस दौर में हुआ करती थी।
ReplyDeleteहमारे गाँव मे जब 1986-1987 मे टीवी आया,तो हम पास की कॉलोनी मे लोगो के घर खिड़की की दरारो से टीवी देखा करते थे. रामायण,महाभारत,चित्र हार, मूक बधिर समाचार,कृषि दर्शन,सिग्मा-कुछ टेली फिल्म सब एक सपना सा थी.
ReplyDeleteएक हमर बड़ा परिवार - पीपलकोटि एक छोटा सा कस्बा--सिर्फ़ मेरे पिता कमाने वाले...तमाम जद्दो जहद के बाद एक ब्लॅक and वाइट टीवी घर मे- 1989 मे आया,पर केबल वाले ने कहा तुम्हारे गहर तक तार बहुत लग रही है,3000 रुपये का connection होगा ओर प्रति महीने 50 रुपये---ये हमारे लिए बहुत मुस्किल था- टीवी टॉवेर गोपेश्वर मे था - 2 साल झिलमिल टीवी देखा.
आख़िर गर्मियो की छुट्टियो मे यात्रा सीज़न मे- पान की दुकान खोलकर - 2800 रुपये मे डिश अंटाइना खरीदा,पुराने केबल टीवी वाले से फुल competition ओर अपने सहित 28 पारिवार को सस्ते फीस पर टीवी दिखाया-कंट्रोल रूम बनाने के लिए मे ओर मेरे भानजे- जो आजकल भूटान मे सीनियर जियालजिस्ट है, ने खुद 145 बाग कॉंक्रीट कूटे, रेत,पत्थर का ढ़ूलन किया ओर हमारे मिस्त्री सोहन लाल जी ओर पिताजी के साथ मिलकर 10 x 12 का कंट्रोल रूम बना डाला---अब केबल के पैसे से बीएस सी पढ़ने डी बी एस कॉलेज आ गये. टी वी चलता रहा,केबल अब बंद हो गया- डी टी एच जो आ गया है-भानु भैसाब आपने पुराने दिन याद करवा दिए.