Tuesday, 14 February 2012

चारपाई.....

अब तो चारपाई यानि खाट देखने को भी नहीं मिलती। करीब पच्चीस साल पहले तक देहरादून में घर-घर में चारपाई नजर आती थी। तब दीवान व फोल्डिंग पलंग का प्रचलन कम था। पलंग होते थे, वो भी कपड़े की निवाड़ वाले। हां, बान से बुनी चारपाई जरूर हर घर में होती थी। चारपाई बच्चों के खेलने का भी साधन थी। यदि खड़ी कर दी तो बच्चे उसके पाए पर लटककर करतब दिखाने की कोशिश करते। दस साल तक के बच्चे बिछी चारपाई के नीचे छिपते और खेलते थे। इसके नीचे बच्चे एकत्र होकर घर-घर खेलने में घंटों मशगूल रहते।
हमारे घर के पास एक लालाजी रहते थे। पेशे से वह दुकानदार नहीं थे, बल्कि सरकारी दफ्तर में चौकीदार थे। इसके बावजूद  उन्हें लोग लाला क्यों कहते हैं यह, मैं आज तक नहीं समझ पाया। इतना जरूर है कि उन्होंने भैंसे भी पाली हुई थी। जब ड्यूटी पर नहीं रहते, तब उनका समय जंगल में भैस के लिए चारा-पत्ती लाने में बीतता। इस दौरान जंगल से पके आम, अमरूद या अन्य सीजनल फल भी वह लेकर घर पहुंचते। ऐसे में लालाजी के बेटे के साथ आस पड़ोस के बच्चे हमेशा चिपके रहते कि खाने को उनके यहां फल जरूर मिलेंगे। करीब पैंतीस साल पुरानी बात है। लालाजी की तीन बेटियों में एकलौता बेटा भोला की स्कूल से शिकायत आ रही थी कि वह पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा है। इस पर एक दिन भोला को पढ़ाई के लिए बैठाकर  लालाजी जंगल में घास लेने चले गए। भोला दिखावे के लिए कछ देर पढ़ता रहा, लेकिन लालाजी के घर से जाते ही बच्चों को एकत्र कर घर में खेलने लगा। उस दिन लालाजी जल्दी ही जंगल से वापस आ गए। चारा भैंस के आगे डालने के बाद वह जंगल से लाए पके अमरूद का थैला लेकर कमरे में दाखिल हुए। वहां भोला उन्हें नजर नहीं आया। इस पर उन्होंने आवाज दी, लेकिन भोला डर के मारे चुपचाप रहा। उससे साथ पड़ोस की एक लड़की समेत दो तीन और बच्चे थे। सभी चुपचाप रहे। लालाजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने चारपाई के नीचे झांका और भोला को देखते ही आगबबूला हो गए। गुस्सा काबू न होने पर उन्होंने भोला पर पके अमरूद बरसाने शुरू कर दिए। बच्चे घबराहट में एक-एक कर भागने लगे। पड़ोस की लड़की जो शायद उस समय आठ साल की रही होगी, अपनी फ्राक के पल्लू में अमरूद समेटने लगी। जब काफी अमरूद उसकी फ्राक में जमा हो गए। तब जाकर ही वह वहां से भागी। जो बच्चे उक्त घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे, उसी लड़की ने सभी को पूरी घटना का विवरण सुनाया। साथ ही लालाजी के घर से जो अमरूद वह लाई, उसे बच्चों को भी खिलाया।

                                                                                                                  भानु बंगवाल

1 comment:

  1. मुझे भी याद है दादाजी की वो चारपाई। चारपाई क्‍या, झूला कहें तो गलत नहीं होगा। बस दादाजी चारपाई के बीचों-बीच बैठे हुक्‍का पीके रहते। मै छोटा था, चारपाई पर बैठने को कोशिश करता तो वहीं लुढक जाता, तब दादाजी ही मुझे संभालते। रात को मैं दादाजी के साथ उसी चारपाई पर सोया करता।

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