Saturday, 31 March 2012

मजाक नहीं, जिंदगी में नया मोड़

पहली अप्रैल,  यानि हंसी-खुशी व मजाक का दिन। इस दिन अक्सर कोई सच भी कहे तो पहली बार यही लगता है कि वह मूर्ख बना रहा है। ऐसे में मैं तो सुबह से ही सतर्क रहता हूं, लेकिन इस सतर्कता को दिन भर बरकरार रखना काफी मुश्किल होता है। एकआध बार तो व्यक्ति अप्रैल फूल बन ही जाता है। अप्रैल फूल मनाने के तरीके में मुझे कोई बादलाव नहीं दिखा। यह दिन ठीक उसी तरह मनाया जा रहा है, जैसे पहले मैं बचपन में देखता था। अप्रैल के महीने में कलियां खिलकर फूलों में बदल जाती हैं। फूलों से पेड़ पौधे लकदक हो जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कोयल की कूक भी सुबह-सुबह कुछ ज्यादा ही सुनाई देने लगती है।  प्रकृति अपनी मनोरम छटा बिखेरती है। इस महीने में कभी तेज गर्मी तो कभी अचानक बारिश हो जाती है। मुझे याद है कि देहरादून में वर्ष 1983 में 14 अप्रैल को सुबह आसमान साफ था और दोपहर बाद तेज बारिश होने लगी। इस दिन मेरी दूसरे नंबर की बहिन की शादी थी। तब तीन दिन तक बारिश होती रही। इतनी ठंड पड़ी कि दिल्ली व अन्य स्थानों से आए मेहमानों के लिए बक्से से स्वैटर निकालनी पड़ी। कई तो स्वैटर साथ ही ले गए। कुछ ने बाद में लौटा भी दी, लेकिन कुछ लौटाने के लिए दौबारा घर नहीं आए। यानि प्रकृति भी इस महीने में मस्ती के मूड में आ जाती है। शायद इसीलिए एक अंग्रेज साहित्यकार ने इस महीने को श्रृगांर से लदी सनकी स्त्री की संज्ञा दी।
जब में करीब दस साल का था। तब कुछ बच्चों ने मोहल्ले के माली को मिलकर अप्रैल फूल बनाया। एक पार्सल माली को दिया। उसे कहा गया कि डाकिया उसके लिए दे गया है। पार्सल खोलना ही माली के लिए टेढ़ी खीर था। पार्सल बड़ा था। पैकिंग के भीतर दूसरी पैकिंग। इस तरह कई पैकिंग फाड़ने के बाद उसे भीतर से ईंट का टुकड़ा मिला। इसके बाद महंगू नाम का वह माली सभी बच्चों के पीछे ईंट लेकर दौडा। माली के इस व्यवहार से मुझे उसके साथ किए गए मजाक पर काफी पछतावा होता रहा। खैर जब जवान हुआ तो मेरे मित्र ने हमें अप्रैल फूल बना दिया। उसका नाम रतिनाथ योगेश्वर था। वह इलाहबाद से देहरादून नौकरी को आया था। रंगकर्मी व साहित्यकार रतिनाथ मेरे साथ दृष्टि संस्था में था। तब हम नुक्कड़ नाटक किया करते थे। वर्ष 1987 में रतिनाथ ने सभी साथियों को कहा कि वह शादी कर रहा है। पहली अप्रैल को शादी में उसने अपने घर रायपुर बुलाया। सभी ने सोचा कि वह अप्रैल फूल बना रहा है। इसलिए उसकी शादी में कोई नहीं गया। उसने कोर्ट मैरिज की  थी और कार्ड भी नहीं बांटे थे।
मेरे लिए पहली अप्रैल का दिन, मजाक का दिन नहीं, बल्कि जिंदगी में परिवर्तन का दिन बनकर आया। मैं एक पत्र में काम कर रहा था। बार-बार मुझे तबादला कर कभी ऋषिकेश, कभी खुर्जा तो कभी सहानपुर भेज दिया जाता। मैं संपादक महोदय से परमानेंट करने की गुहार लगाता। वह कहते पहले मेहनत कर, फिर देखेंगे। मैं सहारनपुर में था। 28 मार्च 96 को संपादक महोदय का फोन आया और उन्होंने अचानक मुझे मिलने के लिए कहा। उनकी आबाज से मैं यही सोच रहा था कि फिर तबादले की मार पड़ने वाली है। मैने निश्चय कर लिया था कि यदि इस बार भी तबादला किया गया तो मैं नौकरी से त्यागपत्र दे दूंगा। पहली अप्रैल को संपादक महोदय से मिलने चला गया। पूर्वाह्न करीब 11 बजे संपादक महोदय अपनी सीट पर बैठे। दिन भर इंतजार के बाद भी उन्होंने अपने पास नहीं बुलाया। मुझे खीज चढ़ रही थी। मन ही मन अपनी किस्मत को कोस रहा था। शाम करीब पांच बजे संपादक महोदय ने मुझे बुलाया और साथ में एकाउंटेंट को भी। मुझे लगा कि अब मेरा हिसाब-किताब करके बाहर का रास्ता दिखाने वाले हैं। फिर संपादक महोदय ने एकाउंटेंट से कहा कि एक नया स्कूटर भानु को कल ही खरीदकर दे दो। साथ ही मुझे परमानेंट करने की घोषणा की। आज संपादक महोदय इस दुनियां में नहीं हैं, लेकिन वर्ष 96 की पहली अप्रैल मुझे हमेशा याद रहेगी।
                                                                                                              भानु बंगवाल

Wednesday, 28 March 2012

कानूनी दांव पेंच, शातिराना अंदाज

कई बार झगड़े का कोई बड़ा कारण नहीं होता और न चाहते हुए विवाद हो जाता है। विवाद इतना बढ़ता है कि न्यायालय तक पहुंच जाता है। न्यायालय तक विवाद पहुंचने पर अक्सर मामले लंबे खींचते हैं, ऐसे में दोनों पक्ष ही परेशान रहते हैं। माना जाता है कि सच और झूठ की इस लड़ाई में सच की ही जीत होती है, लेकिन यह हर बार संभव नहीं है। अक्सर कानूनी दांव पेंच के खिलाड़ी साफ बच निकलते हैं और दूसरा पक्ष खुद को ठगा सा महसूस करता है। इस जंग में दांव पेंच के बीच कानून ही कराह उठता है।
बात कई साल पहले की है। मैं घर से आफिस को मोटरसाइकिल से निकला। रास्ते में एक मकान के आगे कार खड़ी थी। बगल में एक नर्सिंग होम भी था। कार से पूरा रास्ता अवरुद्ध हो रखा था। इससे सड़क के दोनों तरफ वाहनों की कतार लगने लगी। कार के भीतर बैठे लोगों से सड़क पर खड़े कुछ लोग बात कर रहे थे। मैं भी अन्य लोगों की तरह वहां पर रुका और कुछ देर इंतजार किया। फिर कार से एक व्यक्ति उतरा और बाहर खड़े लोगों ने बात करने लगा। करीब दो-तीन मिनट होने पर मैने टोका कि कार आगे करके बात कर लो। रास्ता क्यों रोका हुआ है। इस पर मौके पर खड़े उनके एक साथी को गुस्सा आ गया और वह मुझे धमकाने लगा। जब मैने पूछा कि मैने क्या गलत कहा तो कार में सवार व्यक्तियों के साथ ही सड़क पर खड़े लोगों ने मुझ पर हमला कर दिया। वे मुझ पर ऐसे लात-घूंसे बरसा रहे थे, जैसे कि मैं कोई अपराधी हूं। काफी देर मारपीट करने पर ही उन्हें चैन आया। मुझसे रहा नहीं गया। मैने मारपीट का कारण पूछा। इस  पर हमलावरों से एक ने मुझे बताया कि नर्सिंग होम में भर्ती एक बच्चे की मौत हो गई। उसे ही कार में लेकर जा रहे थे।
मैं मौके पर कुछ नहीं बोला। मुझे बच्चे की मौत की घटना पता नहीं थी। साथ ही यह दुख भी हुआ कि यदि मौत का पता होता तो मैं कार हटाने को नहीं टोकता। काफी देर तक मनन करने के बाद मैने तय किया कि गलती दूसरे पक्ष की है, जिन्होंने कानून हाथ में लिया और हमला किया। मारपीट करने वालों को मैं जानता नहीं था। इसलिए मैने कार नंबर के आधार पर थाने में रिपोर्ट लिखाई। पुलिस ने जांच में मारपीट करने वालों के नामों का खुलासा किया और यह मुकदमा न्यायालय तक पहुंचा। न्यायालय में तारिख पर तारिख लगने से मैं खुद भी परेशान हो गया। मुकदमा लिखने के करीब दो साल बाद मेरे बयान का नंबर आया। जज ने मुझे पूरा घटनाक्रम सुनाने को कहा। इसके बाद न्यायालय में ही मुझे हमला करने वालों को पहचानने को कहा गया। मैने अपने चारों तरफ गर्दन घुमाई, लेकिन मुझे कोई हमलावर नजर नहीं आया। हमला करने वालों में दो-तीन की शक्ल मैं भूला नहीं था, लेकिन न्यायालय में मैं किसी को नहीं पहचान सका। खैर संदेह के आधार पर सभी आरोपी बरी हो गए।
बाद में मुझे पता चला कि कानूनी दांव पेंच में दूसरा पक्ष काफी शातिर निकला। जब पुलिस मारपीट की विवेचना कर रही थी तो दूसरे पक्ष ने हमलावरों में उनके नाम लिखवा दिए, जो घटना वाले दिन मौके पर मौजूद ही नहीं थे। उन सभी ने न्यायालय से जमानत भी करा ली थी। जब न्यायालय में मुझे हमलावरों की शिनाख्त (पहचान) करनी थी, तो असली हमलावर वहां थे ही नहीं। उनकी जगह दूसरे खड़े थे और उन्हीं के नाम पुलिस विवेचना में हमलावरों के रूप में दर्ज थे।

                                                                                            भानु बंगवाल

Monday, 26 March 2012

रास्ते वही, मंजिल वही, पर.......

बचपन में जब भी देहरादून से पिताजी के साथ मसूरी जाता, तो पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। तब शहनशाही आश्रम से करीब सात किलोमीटर लंबी खड़ी चढ़ाई व पगडंडियों वाले रास्ते से होकर मसूरी जाना पड़ता था। घुमावदार रास्तों से गुजरती बस से पिताजी की तबीयत खराब हो जाती थी। इसलिए वह पैदल ही मसूरी जाते थे। मसूरी में मेरे ताऊजी व बुआजी रहते थे। पिताजी के रिश्ते के भाई को हम ताऊजी कहते थे। उनकी पत्नी को हमें ताई कहना था, लेकिन वह पिताजी से अपने मायके का रिश्ता जोड़कर उन्हें भाई ही कहती थी। ऐसे में हमारा इस परिवार के साथ अजीबोगरीब रिश्ता था। पर दोनों परिवारों में थी बडी आत्मीयता। दोपहर को मसूरी का पैदल सफर शुरू होता, जो करीब तीन से चार घंटे में पूरा होता। मसूरी जाते-जाते शाम हो जाती। ताऊजी का परिवार लंढौर में रहता था। दूर से ही बुआजी हमें मसूरी की  तरफ आते देखती और भगोने में पानी गर्म करने को चढ़ा देती। शाम को थककर हम मसूरी पहुंचते तो बुआजी गर्म पानी में नमक डालकर पैरों की सिकाई करने को कहती। कुछ देर गर्म पानी से भरी परात में पांव डालने के बाद थकान छू मंतर हो जाती थी।
अक्सर मैं मसूरी के पैदल रास्ते को याद करता रहता हूं। पहली बार करीब पैंतीस साल पहले छोटी उम्र में पैदल मसूरी गया था। फिर कई बार गया, लेकिन आखरी बार पैदल रास्ते से मसूरी गए मुझे पच्चीस साल हो गए थे। पहले में मसूरी में गर्मी की छुट्टियां बिताता था। बुआजी के बेटे की एकत्र की हुई कहानी की किताबें पढ़ता। छोटी बेटी पुष्पा से झगड़ा भी करता। समय बदला। बुआजी की बेटियों की शादी हो गई। बेटा इस दुनियां में नहीं रहा। ताऊजी का काफी साल पहले ही स्वर्गवास हो चुका था। बुआजी भी मसूरी ज्यादा नहीं रहती है। दूसरों की थकान मिटाने वाली बुआ अब थक चुकी है। अब वह अक्सर किसी बेटी या दूसरे बेटे के घर रहती हैं।
मैने अपने बच्चों से मसूरी के पैदल रास्ते का जिक्र किया, तो वे भी पीछे पड़ गए कि पैदल मसूरी ले चलो। इन दिनों गर्मियों में नोएडा से मेरा 15 वर्षीय भांजा भी देहरादून आ रखा है। पुरानी यादों को ताजा करने के लिए भांजा, भतीजा व दोनों बेटों को साथ लेकर मैं मसूरी को रवाना हो गया। घर से शहनशाही आश्रम के लिए हमने बस पकड़ी और फिर पैदल मार्ग से मसूरी के लिए शुरू की गई ट्रेकिंग।
बच्चों के लिए तो मसूरी का पैदल सफर काफी रोमांचकारी था। शुरूआत में काफी तेजी से चल रहे थे, बाद में मेरे छोटे बेटे (साढ़े नौ साल) की चाल हल्की पड़ने लगी। पर बच्चों में किसी ने यह नहीं दर्शाया का वे थक रहे हैं। खैर मसूरी पहुंचे। घूमे-फिरे, बच्चों ने मौज मस्ती की। वापस टैक्सी पकड़कर घर आ गए। इस यात्रा में मुझे पहले जैसा आनंद नहीं आया। रास्ते वही थे। मंजिल भी वही थी। मैं व बच्चे काफी थक गए थे। थकना लाजमी था,  लेकिन मुझे न तो वहां बुआ मिली और न ही थकान दूर करने के लिए गर्म पानी से भरी परात।

                                                                                              भानु बंगवाल

Sunday, 25 March 2012

पलायन की मार, मौत का इंतजार

इस गांव में अब तो चिड़ियों ने भी चहचहाना छोड़ दिया। पहले कभी चिड़ियों की चहचहाट से सुबह होती थी और शाम को बच्चों की चिल्लाहट व शोरगुल अक्सर सुनाई देता था। आज न तो सुबह चिड़ियों की चहचहाट सुबह का अहसास कराती है और न ही बच्चों का शोर ही सुनाई देता है। चिड़ियां कहां से आएंगी। एक-एक कर युवा शहर में नौकरी को चले गए। साथ ले गए अपना परिवार। गांव में शहरों जैसी शिक्षा नहीं है, ऐसे में बच्चे साथ ले गए। बच्चों को संभालने वाला कोई साथ होना चाहिए, इसलिए पत्नी भी पति के साथ ही चली गई। क्या बचा गांव में बुजुर्ग महिला व पुरुष। या फिर देखभाल के अभाव में बंजर खेत। खेत बंजर होने से चिड़ियों ने भी अपना घोंसला कहीं ऐसे गांव में बना डाला, जहां उन्हें दाना चुगने के लिए आबाद खेत चाहिए।
गांव में सुबह कब होती है और शाम कब। इसका अहसास बूढ़े दंपतियों के घरों में चूल्हे से उठने वाले धुएं से होता है। सुबह से ही गांव में पसरने वाला सन्नाटा, जो शायद कभी-कभार बूढ़ों के आपस में बात करने के दौरान ही टूटता है। ऐसी है टिहरी जनपद के अंतर्गत पड़ने वाले मेरे गांव गुरछौली की कहानी। मेरे गांव की ही नहीं, बल्कि ऐसी कहानी उन सभी गांवों की है, जो पलायन की मार झेल चुके हैं।
मेरे गांव में ठाकुर व पंडित परिवारों के मकान हैं। इनमें लगभग सभी परिवार शहर में शिफ्ट हो चुके हैं। सिर्फ वही बुजुर्ग गांव में रह गए हैं, जिन्हें अपनी पैतृक जमीन से मोह है। ऐसे में वे गांव छोड़ने की कल्पना तक नहीं करते हैं। भले ही उनके बच्चे शहरों में अच्छी पोजीशन में हैं और वे साथ रहने का आग्रह करते हैं। हां इतना जरूर है कि गांव में दलित बस्ती में हमेशा रौनक रहती है। वहां अभी पलायन शुरू नहीं हुआ। वहीं, गांव के भीतर अब देखभाल के अभाव में लोगो के पुश्तैनी मकान भी दरकने लगे हैं। साल में एक दो चक्कर लगाने से क्या मकान बचा रह सकता है। किशन चाचा का मकान तो धराशायी हो गया। वहीं तुंगेश्वर चाचा के कमरे भी गिरने की कगार पर हैं।
कई साल पहले मेरा अपने गांव में जाना हुआ था। मौका था मेरे चाचा की बरसी का। अब तो शादी भी शहरों में होने लगी। ऐसे में गांव आने-जाने का कारण ही नहीं बचा। चाचा गांव में ही रहे। उनके बेटे दिल्ली में शिफ्ट हैं, लेकिन वह भी गांव का मोह नहीं छोड़ सके। चाचा की बरसी में गांव में जैसे मेला लग गया। चाचा के सभी बेटे, उनकी बेटियों के साथ ही हमारा परिवार,सभी नातेदार व रिश्तेदार आदि सभी गांव पहुंचे। मेरी पत्नी व बेटों ने भी पहली बार ही गांव देखा। गांव में भीड़ जुटने से ठंडे पड़ चुके चूल्हों में फिर से आंच लौट आई। देर रात तक बच्चों के शोरगुल से गांव में वर्षों से पसरा सन्नाटा कुछ दिन के लिए जरूर टूटा।
गांव में कुछ दिनों के लिए लौटी चहल-पहल से वहां वर्षों से रह रहे बुजुर्ग भी खुश थे। एक बूढ़ी दादी मुझसे बातचीत में कहने लगी कि सभी ने घरबार छो़ड़ दिया है। बच्चे गांव में नहीं रहते। गांव सूना हो गया। शादियां भी गांव में नहीं होती। ऐसे में सिर्फ किसी के मरने के बाद ही गांव में भीड़ जुटती है। ऐसे दिन का भी अब बुजुर्गों को इंतजार रहता है। जब एक बुजुर्ग मरता है, तब अन्य बूढ़े यह कहते हैं कि अब किसका नंबर आएगा और फिर से गांव में चहल-पहल बढ़ेगी।
                                                                                     भानु बंगवाल

सत्ता की धमक, बदले अंदाज

सच ही कहा जाता है कि सत्ता की धमक में नेताजी का अंदाज बदल जाता है। पहले तक लोगों के आगे वोट के लिए गिड़गिड़ाते फिरते थे, अब तो उनके आगे गिड़गिड़ाने वालों की कतार लगने लगी है। नेताजी हैं कि पैर जमीन पर पड़ते नहीं सातवें आसामन में उड़ते रहते हैं। हरएक के दुखदर्द को दूर करने का फार्मूला भी उनके पास रहता है। साथ ही रहता है झूठ का पुलिंदा।
एक नेताजी जब से विधायक बने। प्रशंसकों से उनका पीछा नहीं छूट रहा। पहले तो उन्हें अच्छा लगा, लेकिन रात के 12  बजे बधाई का क्या तुक है। ऐसे फोन से वह परेशान होने लगे। ऐसी काल से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने ज्यादा समय अपना फोन बंद रखना ही उचित रखा। अपने इस्तेमाल के लिए दूसरा नंबर ले लिया।
पहले नगर निगम के सभासद थे। फिर विधायक बने। संगी साथी पीछे छूट गए। एक पुराना दोस्त सभासद ही हैं, लेकिन वह भी विधायक से कम नहीं। विधायक की तरह सभासद महाशय भी लोगों को आश्वासन का पुलिंदा बांटते फिर रहे हैं। यदि काम हो  गया तो श्रेय सभासद को जाएगा, यदि नहीं हुआ तो यह कहकर टाल दिया कोशिश की थी। क्या करूं बात बिगड़ गई।
एक चिपकू रामजी किसी काम से सभासद महोदय के पास गए। सभासद ने कहा काम हो जाएगा। बस मुझे याद दिलाते रहना। विधायक तो मेरा साथी है। वह भी मदद करेगा। सभासद कुछ  ज्यादा ही बोल गए। चिपकू राम जी ने सभासद को काम की याद दिलाना अपना पहला कर्तव्य समझा। सुबह उठते ही सभासद को फोन, दोपहर को फोन, शाम को फोन। सभासद परेशान हुए और कभी मीटिंग में हूं। कभी और कुछ बहाना बनाकर फोन काट देते। एक दिन तो हद हो गई। सभासद को जैसे ही फोन की काल आई, वह मौके पर साथियों से बोले सभी सत्य है कहना। फिर काल रिसीव की और धीरे से बोले कोई मर गया। मैं शव यात्रा में हूं। साथ ही बोलने लगे राम-राम सत्य है। यह सुनकर उनके साथी भी यही बोलते रहे राम-राम सत्य है। सत बोलो गत.....।

                                                                                                    भानु बंगवाल

Saturday, 24 March 2012

गंगाः यहां तो बिल्लियां ही रास्ता...

गंगा की अविरलता व निर्मलता को बरकरार रखना राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसे डंडे के जोर पर कुछ समय तक कायम रख सकते हैं, लेकिन जब तक जनजागरुकता के माध्यम से लोगो का मन परिवर्तित नहीं किया जाता, तब तक गंगा की निर्मलता की कल्पना बेमानी होगी। यह सच है कि उत्तराखंड में गंगा प्रदूषित नहीं है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक गंगा निर्मलता के साथ बहती है। इसके बाद ही गंगा की दुर्दशा शुरू होती है। जो हरिद्वार के बाद गंगासागर तक मैली होती चली गई। आज जरूरत है कानपुर से लेकर कलकत्ता तक गंगा किनारे बसे शहरों में कारखानों से निकलने वाले दूषित जल का ट्रीटमेंट। वहां जरूरत है भगीरथ के आंदोलन की। इसके विपरीत गंगा की शुद्धता को लेकर जब भी चिंता सताती है तो इस कलयुग के भगीरथों के आंदोलन का केंद्र बिंदु उत्तराखंड हो जाता है। चाहे इनमें प्रो. जीडी अग्रवाल हों या फिर भाजपा नेत्री उमा भारती। यह मुद्दा राष्ट्रीय है। उत्तराखंड राज्य किशोर अवस्था में है और ऐसे में बार-बार उत्तराखंड में आंदोलन होने से यहां कानून व्यवस्था एक बड़ी समस्या हो जाती है। साथ ही यहां का विकास प्रभावित होना भी लाजमी है।
उत्तराखंड का दो तिहाई भाग जंगलों में है। एक तिहाई भाग पर यहां लोग रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। यहां गंगा-यमुना सहित इसकी सहायक नदियों से समूचे मैदानी भाग को सिंचाई के लिए पानी मिल रहा है। साथ ही यहां की शुद्ध हवा का लाभ भी समूचे देश को मिल रहा है।
यहां के विकास की बात करें तो जल विद्युत परियोजनाएं ही एकमात्र संसाधान हैं, जिससे उत्तराखंड में स्मृद्धि आने के साथ ही देश भर को पर्याप्त बिजली दी जा सकती है। भगीरथों को इसमें भी परेशानी होती रहती है। गंगा का निरंतरता व निर्मलता की चिंता तो सही है। इसे बरकरार रखते हुए परियोजनाओं में बदलाव लाया जा सकता है, लेकिन उसे बंद कराना सही नहीं है। गंगा की चिंता करने वाले उत्तरकाशी जनपद के तीन बड़े हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को बंद कराकर खुश हैं। इनमें मनेरी भाली परियोजना में पंद्रह फीसदी, लोहारी नागपाला में पचास फीसदी काम हो चुका था। भैरवघाटी परियोजना प्रस्तावित थी। इन परियोजनाओं के बंद होने से करीब दस से 12 हजार लोग परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रभावित हुए। साथ ही कई के रोजगार के सपने भी धूमिल हुए। कई ग्रामीण अपनी जमीन से भी गए और घर से भी। अब उनके दुख दर्द को देखने व सुनने की किसी को फुर्सत नहीं। ऐसे लोगों की याद भगीरथों को क्यों नहीं आती। उत्तरकाशी के कई गांवों में बिजली पहुंचने का सपना भी साकार नहीं हो सका। उत्तरकाशी में ही जखोल, औसला व हर्षिल समेत तमाम ऐसे गांव हैं जहां के लोगों ने तो आज तक बिजली ही नहीं देखी। देखेंगे भी कैसे। जहां अंग्रेज चांद पर ठोकर मारकर आ गया, वहीं मेरे देश में बिल्लियां ही रास्ता काटती रहती हैं।
                                                                                                          भानु बंगवाल

Friday, 23 March 2012

ठाकुर का सपना.....

जीते जागते सोचो तो ख्वाब। नींद में देखो तो सपना। सच ही है कि ख्वाब में व्यक्ति का अपना जोर भी चलता है, लेकिन सपने में नहीं। ख्वाब देखकर उसे साकार करने की भी व्यक्ति चेष्टा करता है। व्यक्ति ख्वाब अपनी चाहत का ही देखता है। पर सपना तो कुछ भी हो सकता है। बचपन से मैं ख्बाव भी देखता रहा और सपने भी। ख्वाब में कई बार तो कल्पना करते व्यक्ति बड़बड़ता भी है। ऐसे मौके पर उसे देखने वाला दूसरा व्यक्ति सिरफिरा समझने की भूल कर सकता है। सपने में भी कई बार व्यक्ति बड़बड़ता है। उसे सिरफिरा नहीं समझा जाता।
सपने भी कमाल के होते हैं। संयोगवश कई बार सपनों का लिंक हकीकत से भी जुड़ जाता है। एक दिन मैंने सपने में गोली चलने की आवाज सुनी। फिर देखा कि दो व्यक्ति एक व्यक्ति को इस तरह से उठाकर ले जा रहे हैं, जैसे उसके नीचे कुर्सी हो। यह व्यक्ति ठाकुर था, जो एक कर्मचारी नेता है। उसे सभी ठाकुर साहब कहते हैं। सपने देखा कि उसे गोली लगी थी। कपड़े खून से सने थे। मां की आबाज के साथ सुबह सपना भी टूटा और नींद भी खुली। सपने को मैं भूल गया। दोपहर समाचार तलाशने कलक्ट्रेट गया तो ठाकुर साहब नजर आए। उनके हाथ में दो नाली बंदूक थी। मैने इससे पहले ठाकुर साहब को बंदूक के साथ नहीं देखा था। सपना देखा तो उनके पास जाकर पूछ ही लिया। तब उन्होंने बताया कि बंदूक का लाइसेंस रिन्यूअल कराने कचहरी आया हूं। मैने इसे संयोग ही माना। इसी तरह एक बार सपने में किताब पढ़ते हुए पन्नों के बीच बड़ा सा मोर का पंख मिला। बचपन में अक्सर हम मोर पंख को किताब में रखते थे। तब बच्चे कहते थे कि ऐसा करने में विद्या आती है। सुबह उठकर जब ऑफिस जाने लगा तो सड़क पर मोरपंख से बनी झाड़ू बेचता एक व्यक्ति नजर आया। सपना याद आते ही मैने भी उससे एक छोटी सी झाड़ू खरीदी। इन सपनों का रहस्य मैं आज तक नहीं जान पाया।
मार्च माह बीतने को है। गरमियां शुरू होने को है। इन दिनों पेड़ों में फूल खिल रहे हैं। जंगल व बगीचों में इनसे छनकर आने वाली हवा भी एक मिठास का अहसास कराती है। रात को नींद भी गहरी आती है। साथ ही आते हैं सपने। सपनों में मैं अक्सर उस समय के देहरादून को देखता हूं, जब मैं छोटा था। वही, टिन की छत का किराए का मकान। घर के आसपास घना जंगल। आम, लीची व अमरूद के बगीचे। खाली व सूनी सड़कें। कभी कभार मोटर कार का नजर आना। सडक किनारे हरियाली, फलों से लदे पेड आदि। 
गरमियों में अंतिम दिन की परीक्षा समाप्त होने के बाद हमारा बगीचों में जाकर छोटे-छोटे आम को तोड़ना। बगीचे के रखवाले का डंडा लेकर पीछे पड़ना। फिर दौड़ लगाकर बच्चों का भागना। आज शहर भी वही है। हरे-भरे जंगल की खूबसूरती को कंक्रीट से जंगलों ने लील लिया। बच्चों को बगीचे दिखाने के लिए मुझे कई किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। आज के बच्चों को शायद ही ऐसे सपने आते होंगे। क्योंकि उन्होंने वो सब नहीं देखा। वे तो कंप्यूटर गेम के सपने देखते हैं, उसमें लड़ते हैं और बड़बड़ाते हैं।
                                                                                                    भानु बंगवाल

Thursday, 22 March 2012

उम्मीद की लाश......

इस जीवन की कड़वी सच्चाई मौत भी है। जब एक बार कोई इस धरती पर आता है, तो उसका जाना भी तय है। विधि के इस विधान को कोई नहीं टाल सकता। किसी की मौत होने पर कई बार विश्वास नहीं होता और लाश में जीवन की उम्मीद की जाने लगती है। कई बार ऐसी उम्मीद सिरफिरे लोग भी जगाते हैं। तब होता है लाश से खिलवाड़ का खेल। ऐसा ही खिलवाड़ में एक बार देख चुका हूं। जब लाश में जीवन की उम्मीद को लेकर एक तांत्रिक सारी रात खेल करता रहा और लोग तमाशबीन बने रहे।

बात करीब वर्ष, 1995 की है। ऋषिकेश के श्यामपुर क्षेत्र में एक आठ साल के बच्चे को सांप ने काट लिया। डॉक्टर के पास ले जाने की बजाय परिजन उसे इधर-उधर झाड़फूंक के लिए ले जाते रहे और बच्चे पर जहर का असर बढ़ता चला गया। आखिर वही हुआ, जो होना था। लापरवाही व अंधविश्वास के चलते बच्चे की मौत हो गई। इस उम्मीद में कि कहीं बच्चा दोबारा जिंदा हो जाए, पत्थरों से बांधकर गंगा में उसकी जल समाधी दे दी गई।
परिवार व आस-पडो़स के लोग बच्चे को गंगा में जल समाधी देकर घर लौटे ही थे। तभी एक तांत्रिक उनके घर पहुंचा और दावा करने लगा कि वह बच्चे को जिंदा कर देगा। लाश के जिंदा होने की उम्मीद पर अंधविश्वासी लोगों को विश्वास होना लाजमी था। सो गंगा से शव को बाहर निकाला गया। घर के आंगन में शव रखा गया। तांत्रिक ने बच्चे के सिर के कुछ बाल उस्तरे से साफ कराए। सिर पर ब्लेड से चीरा दिया गया और वहां एक कौड़ी चिपकाई गई।
लाश के चारों तरफ जमीन पर एक गोला खींचा गया। तांत्रिक ने सभी को गोले से दूर रहने की हिदायद दी। वह मंत्र पढ़ रहा था। मौके पर भीड़ जमा हो रही थी। यह क्रम शाम करीब छह बजे से शुरू हुआ। समाचार पत्र से जुड़े होने के कारण मैं भी मौके पर पहुंचा। तांत्रिक का कहना था कि बच्चे को डसने वाला सांप आएगा और बच्चे से शरीर पर फैला जहर को चुसेगा। फिर बच्चा जिंदा हो जाएगा। रात बढ़ती गई। मुझे भी उत्सुकता थी। खाना-पीना तक भूल गया। कहीं खाना खाने जाऊं और यदि उसी समय सांप आ जाए, तो मैं देखने से वंचित रह जाता। हालांकि मुझे इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई दोबारा जिंदा हो सकता है। फिर भी अंधविश्वासियों से कई कहानी सुनी थी। पूरी रात गुजर गई। तब जनता ने तांत्रिक को घेर लिया। उसने हाथ खड़े कर दिए। इस पर उसकी पिटाई भी हुई। बाद में मैं यही सोचता रहा कि यदि समय पर परिजन चिकित्सक के पास बच्चे को ले जाते तो शायद यह नौबत नहीं आती। न ही परिजन व आसपड़ोस के लोग आंगन में उम्मीद की लाश से चमत्कार का इंतजार करते।
                                                                                                        भानु बंगवाल

Wednesday, 21 March 2012

लीला की चिट्ठी....

लीला की  चिट्ठी...
सच कहो तो मन की  भावनाओं को शब्दों में बयां करना मैं लीला से ही सीखा। उस लीला से जो अंगूठा छाप होने के बावजूद मुझे पढ़ना और लिखना सीखा गई। आज भी मेरे जेहन में उसकी याद ताजा है। पतली-दुबली कदकाठी, सांवली सूरत। तीखे नैन नक्श, खनकती आबाज व शालीनता की देवी थी लीला। हमारे मोहल्ले में उसका मकान था। वह धोबन थी और उसका पति मेवालाल फौज में था। साल में कुछएक दिन छुट्टी पर आने के बाद मेवालाल ड्यूटी पर चला जाता था। यह करीब पैंतीस साल पहले की बात है। तब फोन का जमाना नहीं था। चिट्ठी से ही एक-दूसरे के हालचाल का पता चलता था।
मैं जब चौथी कक्षा में था, तब से ही लीला मुझसे अपने पति के लिए चिट्ठी लिखवाती थी। जवाब आने पर मुझसे ही चिट्ठी पढ़वाया करती थी। उसे मोहल्ले के बच्चे लीला भाभी कहते थे। उसकी चिट्ठी लिखते और पढ़ते ही मुझे भी शब्द ज्ञान होने लगा और मैं भी  धारा प्रवाह पढ़ना व लिखना सीख रहा था। यानि लीला ही मेरी गुरु थी। लिखने के तीन दिन बाद ही चिट्ठी मेबालाल को मिल जाती थी। उसका जवाब आता, फिर मेवालाल को चिट्ठी लिखवाती। यानि सप्ताह में एक बार मैं लीला की चिट्ठी पढ़ता और लिखता था। उसकी देखादेखी कई अन्य महिलाएं भी मुझसे चिट्ठी लिखवाने लगी, लेकिन वह कभी-कभार ही मेरे घर आती थी।
लीला का चिट्ठी लिखाना व पढ़ाना नियमित था। उसमें दुखः- सुख, मौसम का हाल, आस- पड़ोस की घटनाएं, सभी का जिक्र रहता था। जैसे- फलां महिला की  पांचवी बार भी लड़की पैदा हुई। फलां की लड़की उसके साथ भाग गई। साथ ही बच्चों के भविष्य की चिंता। भविष्य के कार्यों को करने की साप्ताहिक, मासिक कार्ययोजना आदि। इनमें यह तक होता था कि दीवार का चूना उधड़ रहा है, अब सफेदी कराउंगी।
आर्थिक कमी व गरीबी से जूझते लीला व मेवालाल चिट्ठी में एक-दूसरे का साहस बढ़ाने का काम भी करते थे। जब मेवालाल बीमार हुआ तो उसने ठीक होने के बाद ही इसका जिक्र किया। तब उसने बताया कि वह इतना कमजोर हो गया था, कि कमर में बंधी तगड़ी तक ढीली पड़ गई थी। फिर चिंता न करना, अब पहले जैसा हूं आदि का उल्लेख कर उसने लीला की चिंता को दूर करने का प्रयास भी किया।
समय बदला। चिट्ठी का स्थान मोबाइल फोन ने ले लिया। लेटर बॉक्स का उपयोग प्रतियोगिताओं व अन्य पत्रों को के लिए होने लगा। अब वह अंगूठा छाप लीला भी  नहीं रही और न रही लीला की चिट्ठी।
                                                                                                                    भानु बंगवाल

Monday, 19 March 2012

आखिर दौषी कौन....

मुसीबत कभी बता कर नहीं आती। यह आती है और चली जाती है। मुसीबत से कई बार व्यक्ति आसानी से बच जाता है, तो कई बार यह पीछा नहीं छोड़ती। कभी तो अपनी गलती भी नहीं हो और व्यक्ति मुसीबत में फंस जाता है। दूसरों को देखने में लगता है कि कहीं हमारी ही गलती होगी। करीब बीस साल पहले देहरादून की बात है। एक शाम मैं अपने दोस्त के साथ स्कूटर पर बैठकर घंटाघर से राजपुर रोड स्थित घर की तरफ जा रहा था। पुलिस चौकी धारा के निकट स्कूटर पर पीछे से कार ने टक्कर मारी। अचानक लगी टक्कर से मैं संतुलन खो बैठा और उछलकर स्कूटर समेत जा गिरा। स्कूटर की स्पीड कम थी, लेकिन टक्कर काफी तेज। मैं और मेरे दोस्त के स्कूटर समेत गिरने के दौरान इसकी चपेट में एक बुजुर्ग व्यक्ति भी आ गए। मौके पर भीड़ जमा हो गई। बुजुर्ग व्यक्ति ने मुझे दोषी मानते हुए स्कूटर पकड़ लिया। वह जोर-जोर से हाय-हाय कर रहा था। मैरे दोस्त ने हमें टक्कर मारने वाली कार को रोका। उसे एक महिला चला रही थी। महिला का कहना था कि मैने तुम्हें टक्कर मारी और तुम्हें चोट नहीं आई। तुम्हारी टक्कर से बुजुर्ग व्यक्ति के चोट आई। ऐसे में खुद ही मामला निपटाओ। मैने बुजुर्ग व्यक्ति से पूछा बाबा कहां-कहां चोट आई। आपको अस्पताल लेकर चलता हूं। इस पर वह और जोर-जोर से चिल्लाने लगा- हाय मैं मर गया। उसकी हर हाय-हाय के साथ मेरी घबराहट बढ़ रही थी। माथे पर पसीना आने लगा और मैं कांप रहा था, कि कहीं बुजुर्ग को कुछ न हो जाए।
 किसी ने सुझाव दिया कि बुजुर्ग की शायद टांग टूट गई है। तुम दोनो (मैं व कार वाली लड़की) को उसके इलाज के लिए कुछ खर्चा पानी दे देना चाहिए। मैं रकम देने की बजाय अस्पताल में उसका इलाज कराने के पक्ष  में था। इस बीच पुलिस भी आ गई। तमाशबीन लोगों की भीड़ में मेरे कई परिचित भी मिल गए। इससे मुझमें साहस भी आ गया। पुलिस ने सभी को चौकी में चलने को कहा। महिला चौकी जाने से परहेज कर रही थी, लेकिन बाद में वह भी तैयार हो गई। निकट ही चौकी थी। जो बुजुर्ग टांग टूटने को लेकर कुछ देर पहले तक दहाड़े मार रहा था, वह कुछ कदम लड़खड़ाकर चलने के बाद सामान्य रूप से चलने लगा। यही नहीं, चौकी जाने की बजाय वह रास्ते से ही खिसक गया। अब चौकी में कार वाली लड़की और मैं ही पहुंचे। मेरा कोई नुकसान नहीं था। इसलिए मुझे उससे कोई लेना-देना नहीं था। मैने उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया। इस घटना को लेकर मेरे मन में अक्सर यही विचार आता है कि..आखिर इसमें दोष किसका था। उस लड़की का जो ब्रेक नहीं लगा पाई और मेरे स्कूटर में टक्कर मार दी। या मेरा कि गिरते समय मेरा स्कूटर बुजुर्ग से क्यों टकराया। या फिर वह बुजुर्ग, जो सही सलामत टांग को टूटना बताकर काफी देर तक डामा रचता रहा।
                                                                                           भानु बंगवाल

Sunday, 18 March 2012

शटअप, यू डॉंट नो, आई एम....

दफ्तर से देर रात को घर आने या देर रात को दफ्तर जाने वालों के लिए हर सड़क व गली में एक मुसीबत खड़ी रहती है। दिन के समय तो ऐसी मुसीबत कहीं गायब रहकर नींद फरमा रही होती है, लेकिन रात को तो मस्ती के ही मूड में आ जाती है। दूर से नजर आया कोई व्यक्ति या वाहन। मुसीबत पहले से ही तैयार रहती है। कई बार अकेले या फिर झुंड के रूप में कुत्ते आने-जाने वालों को डराने को तैयार रहते हैं। यदि एक बार कोई किसी कुत्ते या उनके झुंड़ से डर गए, तो यह कुत्तों के लिए हर रात का खेल हो जाता है। यदि किसी कुत्ते को आपने धमका दिया, तो अक्सर वहां दोबारा कुत्ते आपको नहीं डराएंगे। भले ही अन्य लोगों का उनके कोपभाजन बनने का सिलसिला चलता रहेगा। देर रात के समय आफिस से घर जाने के दौरान मैं भी उन स्थानों पर सतर्क रहता हूं, जहां अक्सर कुत्ते राहगीरों को डराने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसे स्थानों पर मैं हमले से पहले ही मोटरसाइकिल धीमी कर कुत्तों पर ही हमला करने का नाटक करता हूं। ऐसे में वे दूर भाग जाते हैं।
ऐसी ही एक घटना मुझे याद है। देहरादून में एक मित्र के घर दावत में कई पत्रकार साथी आमंत्रित थे। अमूमन पत्रकार साथियों में कई की अपना परिचय देने में नाम के साथ समाचार पत्र का नाम बोलने की आदत होती है। जानकारी के लिए किसी विभाग में फोन मिलाने के बाद जब दूसरी तरफ से फोन उठता है, तो वह अपने नाम के साथ अखबार का नाम बोलकर परिचय देते हैं। जैसे-हेलो मैं (अपना नाम, फिर अखबार का नाम) से बोल रहा हूं। देहरादून के नेशविला रोड स्थित मित्र के घर पार्टी समाप्त होने में रात के 12 बज गए। उस मोहल्ले के कुत्ते भी किसी को पहचानते नहीं थे। रात के समय घर से बाहर निकलते दस-बारह व्यक्ति को देखकर तो कुत्तों की मौज बन आई। उन्होंने चारों तरफ से सभी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। एक-एक कर सभी घर जाने व कुत्तों की नजर से बचने का रास्ता तलाश कर रहे थे। हमारे बीच एक मित्र की मोटर साइकिल के पास ही कई कुत्ते खड़े थे। उनकी मजबूरी ही कुत्तों के निकट जाकर मोटर साइकिल तक पहुंचने की थी। उन्होंने कुत्तों को पुचकारा, लेकिन वे नहीं माने। फिर डराने का प्रयास किया, कुत्ते और खतरनाक मूड में आ गए। इस पर मित्र जोर से झल्लाकर बोले- शटअप, यू डांट नो, आईएम-- (अपना नाम फिर अखबार का नाम)। मित्र का इतना बोलना था कि उनके निकट भौंक रहा कुत्ता अचनाक वहां से भाग निकला। उसे देख सभी कुत्ते नो दो ग्यारह हो गए और मैदान साफ। यह घटना आज भी देहरादून में पत्रकारों के बीच चर्चा का विषय रहती है। उस मित्र की चर्चा के दौरान यह भी जुड़ जाता है- शटअप, यू डॉंट नो, आई एम....
                                                                                                           भानु बंगवाल


Saturday, 17 March 2012

छोटा कंफ्यूजन, लंबी कसरत

कभी-कभी सुनने में, तो कभी किसी बात को समझने में कंफ्यूजन हो जाता है। यह हर किसी के साथ होता है। इसी कंफ्यूजन के चलते कई बार करना कुछ होता है और व्यक्ति कर कुछ और जाता है। इसी कंफ्यूजन में एक कहानी है कि एक व्यक्ति अपनी धुन में हमेशा खोये रहते थे। जब कहीं जाते तो इतनी जल्दी कि कहीं ट्रेन न छूट जाए। वह अपनी ही बात सुनाया करते थे। दूसरों की सुनने को तैयार नहीं रहते। एक बार एक व्यक्ति उन्हें रास्ते में मिला। उसने महाशय से पूछा क्या हाल हैं। कंफ्यूज रहने वाले महाशय ने जवाब दिया कि बैंगन ले जा रहा हूं। इस पर व्यक्ति ने पूछा बच्चे ठीकठाक हैं। महाशय ने जवाब दिया शाम को भर्ता बना कर खाउंगा। यानि जल्दबाजी में सुनने पर कंफ्यूजन।
 कई साल पहले की बात है। उन दिनों मेरे मित्र नवीन थलेड़ी मेरठ से निकलने वाले एक समाचार पत्र में थे। उनका तबादला देहरादून से मेरठ के लिए किया गया। वहां कुछ माह रहने के बाद फिर से उनका तबादला सहारनपुर कर दिया गया। मेरठ में पैकिंग कर उनके सामान को समाचार पत्र सप्लाई करने वाली गाड़ी में रखवा दिया गया। चालक को समझा दिया गया कि यह सामान थलेड़ी का है, इसे सहारनपुर में उतारना है। सहारनपुर में थलेड़ी अपने सामान का इंतजार करते रहे, लेकिन सामान नहीं पहुंचा। इस पर उन्होंने मेरठ कार्यालय में संपर्क साधकर वस्तुस्थिति जाननी चाही। पता चला कि सामान गाड़ी से भेज दिया गया था। इसके बाद चालक को तलाशा गया। चालक ने बताया कि उसने तलहेड़ी में अखबार के बंडलों के साथ सामान उतार दिया। तब अखबार के बंडल सड़क किनारे ही उतार दिया करते थे। तलहेड़ी सहारनपुर जिले के अंतर्गत ही आता है, लेकिन जिला मुख्यालय से उस स्थान की दूरी करीब 25 किलोमीटर है। ऐसे में सड़क पर लावारिस हालत में चालक सामान छोड़कर चला गया। खैर उसे नाम व स्थान का कंफ्यूजन था। उसने थलेड़ी के नाम को स्थान का नाम तलहेड़ी समझा। गनीमत रही कि सामान किसी दूसरे ने सड़क से नहीं उठाया और सही सलामत मिल गया।
                                                                                                            भानु बंगवाल

इत्तेफाक, संयोग या कुछ और....4

कई बार जीवन में ऐसी घटनाएं घटती हैं और मुसीबत आ जाती है। लगता है कि यह मुसीबत बड़ी बनेगी, लेकिन  जल्द ही दूर भी हो जाती है। इसे इत्तेफाक, संयोग माना जाए, या फिर कुछ और। खैर मुसीबत में कई बार दिमाग को भी कुछ नहीं सूझता है। इससे बाहर निकलना भी टेढ़ी खीर के समान होता है।
 कुछ साल पहले मेरी पत्नी ने वैष्णो देवी की यात्रा का प्लान बनाया। देहरादून से हमारा परिवार व सहारनपुर से उसके मायके के लोगों में मेरी सास, सास की बहन का परिवार व बच्चे आदि साथ थे। सहारनपुर से जब ट्रेन पर बैठे तो छोटे बच्चे सोने के बजाय उधम मचा रहे थे। उन्हें मैं समझा रहा था कि यात्रा में थकोगे। इसलिए पहले नींद पूरी कर लोग। बच्चे नहीं माने। देरी से सोये और उन्हें जल्दी उठना पड़ा। जम्बू पहुंचने के बाद कटड़ा तक बस का सफर। इस बीच रास्ते में एक स्थान पर बस रोकी। कुछ लोग खाने-पीने को उतरे और कुछ बैठ रह गए। हैडब्रेक न लगाने के कारण बस खाई की तरफ लुढ़कने लगी। हमारे साथ  के कई बस में ही थे। तभी एक ने फुर्ती से बस का स्टेरिंग सभांलकर उसे रोका। कटड़ा से आगे 14 किलोमीटर की पैदल दूरी। इस लंबे सफर में बच्चों की रफ्तार तेज थी। साथ ही पचास से ज्यादा उम्र के लोगों के कारण जब कुछ बच्चे आगे निकल जाते, तो सड़क किनारे बैठकर सभी का इंतजार करना पड़ रहा था।
सुबह दस बजे से चलना शुरू हुए और अंधेरा होने पर सांजी छत तक पहुंचे। वहां सभी की हिम्मत जवाब दे रही थी। कुछ ने सुझाव दिया कि यहां कुछ घंटे के आराम के बाद आगे बढ़ना चाहिए। मुझे आगे की यात्रा का अनुमान नहीं था। मैंने लगातार चलने की जिद्द की। मेरा तर्क था कि रुकने के बाद पांव जाम हो जाएंगे ऐसे में बच्चों का पैदल चलना मुश्किल हो जाएगा। तब मेरा बड़ा बेटा साढ़े दस साल व छोटा साढ़े छह साल का था। छोटे बेटे को नींद आ रही थी। उसे खाने की चीजें देकर मैं पैदल चलने को प्रेरित भी कर रहा था। आराम किए बगैर ही हम आगे चलते गए। मैने सभी बच्चों को बड़ों के मोबाइल नंबर भी याद कराए थे। बिछुड़ने की स्थिति में वह किसी से मदद लेकर हमें फोन कर सकते थे।
रात करीब नौ बजे वैष्णो देवी मंदिर भवन परिसर पहुंच गए। वहां सड़क पर तिल धरने की जगह नहीं थी। जिसे जहां स्थान मिला वह वहीं पसरा हुआ था। दुकानों, होटलों व धर्मशालाओं के बरामदे पर छत पर लोग आराम कर दर्शन का नंबर आने का इंतजार कर रहे थे। इस स्थान पर मोबाइल के सिग्नल भी गायब थे। ऐसे में किसी के बिछड़ने पर उसे तलाश करना भी मुश्किल भरा था। एक दुकान के बरामदे को हमने भी अपना अडडा बना लिया। बच्चे जमीन पर ही पसर गए। रात करीब ढाई बजे दर्शन करने के लिए लाइन में लगने का नंबर आया। छोटा बेटा गहरी नींद में था। उसे परिचय की एक महिला के पास छोड़ दिया गया। सभी बड़े बच्चों को नींद से उठाकर दर्शन के लिए गए। सुबह सूरज की किरणें जब निकली, तभी दर्शन हो सके। दर्शन के बाद तय हुआ कि वापसी के लिए तीन-चार किलोमीटर दूर चलकर सांजी छत पर आराम किया जाएगा। थकान के चलते बच्चे फिर से जमीन पर ही पसरे हुए थे। उन्हें नींद से उठाया गया और चलने को कहा गया। छोटा बेटा मेरी गोद में था, जो नींद में था। बड़ा बेटा नींद में ही मेरा हाथ पकड़कर चल रहा था। जहां से लाइन लगती है, वहां बेटे का हाथ मुझसे छूट गया। भीड़ काफी थी। धक्कामुक्की भी हो रही थी। मैं खुले स्थान पर गया और छोटे बेटे को वहां खड़ा किया। साथ ही लाउडस्पीकर से एनांउस कराया कि वह जहां हो, पूछताछ केंद्र पर आ जाए। एनाउंस करने वाले का उच्चारण ऐसा था कि मेरे ही समझ नहीं आ रहा था। तो बेटे को शायद ही समझ आता। मोबाइल ठप थे। पत्नी व साथ के अन्य लोग पीछे रह गए थे । तभी पत्नी के मौसाजी दिखे। उन्हें मैने बेटे के बिछड़ने के बारे बताया। बेटा समझदार था। घर का पता जानता था, लेकिन परेशानी लंबी खींचती। यही चिंता मुझे सता रही थी। इसी बीच सूचना मिली कि बेटा मिल गया। मेरी पत्नी को बेटे के बिछड़ने के बारे में नहीं बताया गया था। लंबी लाइन में लगने के बाद वह टायलेट को गई। वहीं एक खिड़की से उसे बड़ा बेटा दिखाई दिया। जो एक खाई की तरफ जा रहा था। शायद वह नींद में था। उसे देख पत्नी डर गई और बाहर निकलकर उस दिशा की तरफ भागी। तब तक खाई से पहले रैंलिंग का सहारा लेकर बेटा खड़ा हो गया। उसे पत्नी ने पकड़ा और अपने साथ खींच कर ले गई। बेटे से पूछा तो उसने बताया कि नींद में कुछ देर चलने के बाद जब वह खाई के पास पहुंचा, तभी उसे बिछड़ने का एहसास हुआ। तेजी से घटी इस घटना को इत्तेफाक कहा जाए या संयोग, या फिर खोना और अचानक मिलने को आस्था का चमत्कार कहा जाए। या फिर कुछ और...... 
                                                                                                                    भानु बंगवाल

Friday, 16 March 2012

रास्ता भटका बच्चा, पर कमाल का-3

बच्चों को छोटे से ही घर का पता याद कराना आजकल हर माता पिता के लिए आवश्यक हो गया है। मेरे बचपन में तो सड़कें खाली होती थी। बाजार भी खाली होते थे। भीड़ तो मेले व त्योहारों के मौकों पर ही दिखती थी। तब मोहल्ले के लोग भी एक-दूसरे को जानते थे। ऐसे में बच्चे खोने व बिछड़ने की संभावना काफी कम रहती थी। फिर भी हम स्कूल से सीधे घर पहुंचे, इसलिए बच्चों को माता-पिता तेलकढ़े का भय दिखाकर रखते थे। कहा जाता था कि तेलकढ़ा बच्चों को शीशा दिखाता है। बच्चे उसकी तरफ सम्मोहित होते हैं और पीछे-पीछे चल देते हैं। ऐसे में बच्चे स्कूल जाने व आने के दौरान समूह बनाकर चलते थे।
अब तेलकढ़े का स्थान अपहरणकर्ताओं ने ले लिया । बच्चे भी माता पिता की नजर में रहते हैं। छोटे बच्चों को स्कूल भी निगरानी पर ही भेजा जाता है। साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से बच्चों को माता-पिता घर का पता जरूर याद कराते हैं।
मेरे बड़े भाई का परिवार शिमला रहा करता था। उनके बच्चों के स्कूल की छुट्टियां सर्दी में होती थी, तो वे देहरादून में हमारे यहां आ जाते थे। तब भाई की बड़ी बेटी करीब साढ़े सात साल व बेटा सार्थक छह साल का था। एक शाम मेरी माताजी घर से कुछ दूर दूध लेने डेयरी में गई हुई थी। अक्सर उसके पीछे मेरा बेटा व्योम (तब करीब साढ़े पांच साल) भी चला जाता था। उस दिन काफी सर्दी थी। बारिश हो रही थी। दादी के पीछे व्योम व सार्थक दोनों ही चले गए। अंधेरा होने लगा था। मेरी माताजी ने दोनों बच्चों को घर लौटने को कहा। इस पर दोनों ने गलियों पर दौड़ लगा दी। व्योम तो घर पहुंच गया, लेकिन सार्थक का कहीं पता नहीं चला।
गलियों  में सार्थक रास्ता भटक गया। काफी देर हो गई। उसे घर के सभी लोग तलाशने लगे। आस-पड़ोस के लोग भी उसे खोजने में मदद करने लगे। मुझे भी मोबाइल से सूचना दी गई। मैं भी निकट की पुलिस चौकी व थाने में सूचना देने पहुंचा। शाम के छह बजे सार्थक गायब हुआ और रात के आठ बज गए। शिमला में रहने के कारण उसे वहीं का पता याद था। ऐसे में घर के सभी लोगों का परेशान होना लाजमी था। उस समय बारिश भी हो रही थी। सभी इस चिंता में भी थे कि भीगकर कहीं वह बीमार न हो जाए। उसकी तलाश में इधर-उधर भटकने के  दौरान  मेरी माताजी को एक पुलिस कर्मी की साइकिल में बैठा सार्थक नजर आ गया।
मिलने पर सार्थक ने बताया कि रास्ता भटक कर वह काफी दूर पहुंच गया था। जब रास्ता नहीं मिला तो वह रोया भी। उसे एक पुलिस कर्मी दिखाई दिया। उसके पास जाकर उसने बताया कि वह खो गया है। इस पर पुलिसकर्मी ने उसे खाने को चाकलेट भी दी। साथ ही केले भी खिलाए। वह उसे साइकिल में बैठाकर घर चौकी ले जा रहा था कि तभी दादी दिखाई दे गई।
                                                                                                                 भानु बंगवाल

Wednesday, 14 March 2012

बच्चा खोया, पर नहीं रोया-2

भीड़भाड़ में माता-पिता से बिछड़ने पर अमूमन छोटे बच्चे रोना धोना शुरू कर देते हैं। उनका रोने का क्रम काफी देर तक चलता है। छोटे बच्चों की पहली पाठशाला ही उसके माता-पिता होते हैं, जिनके संरक्षण में वह चलना, बोलना आदि सीखता है। मां के पास ज्यादा रहने के कारण बच्चा हर विपत्ती में वह अपनी मां को ही याद करता है। यह आदत उसकी बड़े होने के बाद भी पड़ जाती है। ऐसे में जब बच्चा खोता है, तो वह रोते हुए सबसे पहले अपनी मां को ही याद  करता है।
एक वाक्या ऐसा हुआ कि अपनी माता से बच्चा बिछड़ तो गया, लेकिन उसे बिछड़ने का काफी देर तक अहसास तक नहीं हो पाया। हो सकता है उसे पता चला हो, लेकिन वह रोते नहीं दिखाई दिया। बात तब की है जब  मेरे छोटे बेटे की उम्र करीब ढाई साल थी। एक दिन मेरी पत्नी और भाभी बच्चों को लेकर देहरादून स्थित परेड मैदान में लगे मेले में गए। जब मैं छोटा था, तब मेले के नाम पर देहरादून में दो मेले लगा करते थे। एक होली के पांचवे दिन झंडे का मेला और दूसरा रामनवमी के बाद राजपुर मेला। राजपुर मेला झंडे के मेले के बाद लगता था। यानि झंडे का मेला ही राजपुर शिफ्ट हो जाता था। दोनों ही मेले में काफी भीड़ होती थी, जो आज भी लगता है और भीड़ होती है।
समय में बदलाव आया। पूंजीवादी संस्कृति हावी होती चली गई। उत्पाद बेचने के लिए मेलों का आयोजन सबसे सुलभ साधन बन गया। साथ ही मनोरंजन हो जाए, तो बच्चे भी आकर्षित होंगे। बच्चे जहां जाने की जिद करेंगे वहां माता-पिता भी जाएंगे। मेले में मेरी पत्नी व भाभी गए थे। मैं तो ड्यूटी में था। तभी रात करीब आठ बजे मोबाइल में पत्नी की काल आई कि आर्यन (मेरा छोटा बेटा) कहीं गुम हो गया। सुनकर मैं घबरा गया। पत्नी और ज्यादा न घबराए इसलिए उसे समझाते हुए कहा कि मिल जाएगा। आसपास खोजते रहो। खैर मैं भी मोटर साइकिल उठाकर मौके पर पहुंचा। मेरी पत्नी व भाभी के साथ ही अन्य बच्चे आर्यन को खोज रहे थे। उसके बिछड़ने के करीब दो घंटे हो चुके थे। तभी एक बड़े झूले की एक तरफ अंधेरे कोने में वह खड़ा मिल गया। वह बड़ी तल्लीनता से झूले का घूमना देख रहा था। आर्यन को देख हमने राहत की सांस ली। उसके मिलने के बाद भी स्वभाव के अनुरूप भाभी व पत्नी रो रही थी। तब उनका कहना था कि यदि नहीं मिलता तो क्या होता। दोनों को समझाकर मैने चुप कराया। उधर, आर्यन न तो रोता दिखाई दिया और न ही घबराया हुआ। तब शायद उसे अपने खोने का अहसास ही नहीं हो पाया था।
                                                                                                         भानु बंगवाल

Tuesday, 13 March 2012

बिछड़ा बच्चा.... 1

जब दसवीं में पढ़ता था, तब अंग्रेजी की किताब में एक कहानी पढ़ी थी, द लॉस्ट चाइल्ड। कहानी का सार यह था कि एक बच्चा मेले में तरह-तरह की वस्तुओं से आकर्षित होता है। हरएक को खरीदने की जिद करता है। माता पिता उसे नहीं दिलाते। भीड़ में वह बिछड़ जाता है और रोने लगता है।  एक व्यक्ति उसे गोद में उठाता है। बच्चे को वही चीजें देने का प्रयास करता है, जो वह पहले अपने माता पिता से मांग रहा था। इसके बावजूद बच्चा किसी भी वस्तु  की तरफ आकर्षित नहीं होता और निरंतर रोता रहता है। क्योंकि उस समय उसकी सबसे बड़ी जरूरत उसके माता पिता थे।
ये थी एक कहानी, जो शायद लेखक ने उस समय की किसी घटना को देखकर ही लिखी होगी। ऐसी घटना से अक्सर हर माता पिता को दो चार होना पड़ता है। इसके विपरीत कई बार खोने के अहसास होने के बाद भी बच्चे मस्त रहते हैं। रोना धोना छोड़कर विपरीत परिस्थतियों का धेर्य से सामना करते हैं। बात करीब तीस साल पहले की है। मेरी बड़ी बहन दिल्ली में रहती थी। गरमियों की छुट्टी में उनकी बेटी देहरादून में हमारे यहां रहती थी। ऐसे में उसे नाना-नानी से ज्यादा लगाव था। छुट्टी के बाद वापस दिल्ली जाते समय बड़ी बहन सफर में साथ के लिए मेरे से बड़ी बहन को ले गई। दिल्ली में एक सप्ताह रहकर उसे वापस लौटना था।
एक दिन दोनों बहन व मेरी भांजी सरोजनी नगर मार्केट गए। वहां किसी दुकान के भीतर बड़ी बहन गई। दूसरी बहन व भांजी बाहर खड़े रहे। उस दिन मार्केट में भीड़ थी। अचानक बहन की नजरों से भांजी  गायब हो गई। वह करीब चार साल की थी। दोनों बहनों ने उसे तलाशा, लेकिन वह नहीं मिली। काफी देर हो गई। दोनों का रो-रोकर बुरा हाल था। साथ ही सोच रहे थे कि बच्ची का भी रोकर बुरा हाल होगा। जब वह नहीं मिली तो पुलिस को सूचना देना ही उचित समझा गया। सूचना देने जा रहे थे कि वह एक व्यक्ति की गोद में दिखाई दी। साथ ही वह आइसक्रीम भी खा रही थी। उक्त व्यक्ति ने बताया कि जब बच्ची उसे मिली कुछ घबराई हुई जरूर दिखी। उसने पता पूछा। वह दिल्ली के बजाय देहरादून का पता बता रही थी। कुछ ही देर में वह उससे ऐसी बातें करने लगी कि जैसे पहले से जानती हो। उसी ने दूर से अपनी मौसी को देख लिया और पास जाने को कहा।  
                                                                                                                        भानु बंगवाल

Monday, 12 March 2012

टेलीफोनः रांग नंबर

अल सुबह टेलीफोन की घंटी न ही बजे तो अच्छा है। मैं सुबह के समय टेलीफोन रिसीव करने से भी घबराता हूं। कहीं कोई दुखद घटना की सूचना न मिल जाए। सुबह के समय ज्यादातर फोने ऐसे ही आते हैं। खैर नियती को जो मंजूर हो वह होकर रहता है। उससे किसी तरह बचा नहीं जा सकता। साथ ही गलत नंबर डायल करने वालों से तो अक्सर सभी परेशान रहते हैं। रांग नंबर भिड़ने पर जब बताओ की उन्होंने गलत नंबर मिला दिया, तब भी कई बार दूसरी तरफ से बात करने वाला यह मानने को तैयार नहीं रहता है कि उसने गलत नंबर मिलाया।  मेरे घर के फोन के नंबर में  2040 है। अक्सर कई बार मेरे को 4020 नंबर वाले महाशय के लिए किया गया फोन आ जाता है। जल्दबाजी में लोग 4020 की जगह 2040 मिला देते हैं। मोबाइल फोन पर तो ऐसी समस्या ज्यादा ही है। मेरे एक मित्र देहरादून में अपना समाचार पत्र निकालते हैं। उनके और मेरे मोबाइल नंबर में सिर्फ एक नंबर का फर्क है। अक्सर उनके लिए फोन मेरे नंबर पर आ जाते हैं। इसी तरह मेरे लिए आने वाली कॉल कई बार उनके पास भी चली जाती होगी।
रांग नंबर लगाकर फोन आना तो चलो जल्दबाजी की भूल है,  लेकिन कई बार इसी नंबरों की गलतफहमी में लोगों को नुकसान भी झेलना पड़ जाता है। मुझे एक दिन मोबाइल में किसी सज्जन का फोन आया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैने अपना मोबाइल का बिल जमा कर दिया। मैं उस समय किसी काम में व्यस्त था। मन ही मन झुंझला रहा था कि अनजान व्यक्ति से बात करने वाला किस तरह के सवाल पूछ रहा है। मैने हां में जवाब दिया। इस पर सज्जन ने फिर पूछा कि कितने का बिल था। कब जमा किया। मुझे और झुंझलाहट हुई, लेकिन मैने सज्जन व्यक्ति पर खीज नहीं उतारी। शालीनता से उन्हें सभी जानकारी दी। मैं सोच रहा था कि किसी फर्जी कंपनी का प्रतिनिधि होगा, जो धीरे-धीरे मुझे लालच देकर अपने जाल में फंसा रहा है। ऐसी कॉल पर ईनाम के लालच में तो अक्सर लोग पड़ जाते हैं। फिर बड़ी राशि तक गंवां देते हैं। उक्त सज्जन ने बताया कि उनके और मेरे नंबर में सिर्फ एक नंबर का फर्क है। उन्होंने अपना पता भी बताया। बाद में झेंपते-झेंपते बताया कि उनके नौकर ने गलतफहमी में उनकी बजाय मेरे नंबर पर मोबाइल का बिल जमा कर दिया। मैने सज्जन से कहा कि बिल की रसीद दिखा कर मुझसे बिल की राशि ले जा सकते हो। वह सज्जन मुझसे मिले। उनसे परिचय हुआ। तब पता चला कि उनके पिताजी को मैं कई साल पहले से जानता हूं। खैर इस घटना के कई साल हो गए। इस गलतफहमी की वजह से उनका मुझसे परिचय हुआ और अब वह मेरे अच्छे मित्रों में एक हैं। 
                                                                                                             भानु बंगवाल

Sunday, 11 March 2012

साइकिलः अपनी कमाई की

बारह साल की उम्र में जब मुझे साइकिल मिली तो मुझ पर घर के छोटे-छोटे काम की जिम्मेदारी भी आ गई। तब राजपुर रोड स्थित हमारे घर से पलटन बाजार चार किलोमीटर से अधिक की दूरी पर था। घर की जरूरत का हर छोटा व बड़ा सामान वहीं से लाते थे। मोहल्ले की दुकान से शायद ही कभी सामान खरीदा गया हो। राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान क्षेत्र में रहने के कारण वहां के दृष्टिहीन भी अक्सर मुझसे बाजार से सामान मंगवाते। कई बार तो मैं ऐसे लोगों को अपनी साइकिल में बैठाकर बाजार ले जाता। समय बीतता गया। मैं जवान होता गया और मेरी साइकिल बूढ़ी होती गई। साथ ही पिताजी भी सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो गए। साइकिल का रंग रोगन कई स्थानों से उखड़ गया। साइकिल जंग खाने लगी। उसके कई पार्ट घिसने लगे। फ्रेम चटक गया। सो वेल्डिंग का टांका लगाना पड़ा। अब इस साइकिल को चलाने में मुझे मजा कम व थकान ज्यादा लगती थी। वर्ष 88 के करीब मैं निजी ठेकेदार के साथ काम करने लगा। इसके लिए मुझे घर से एक तरफ करीब आठ से दस किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था। नई साइकिल की आवश्यकता पढ़ने लगी। उस समय महिने में करीब सात सौ रुपये मिल जाते थे। इसमें से दो सो रुपये खुद पर व पांच सौ रुपये घर की जरूरतों पर खर्च करता था। एक दिन मेरी माताजी ने ही मुझसे कहा कि नई साइकिल क्यों नहीं लेता। इस पर मैने नए डिजाइन वाले हैंडिल की साइकिल खरीदी, जो करीब साढ़े सात सौ रुपये में आई। मेहनत की कमाई की साइकिल। सचमुच इसे खरीदने में इतनी खुशी हुई, जो मुझे पहली साइकिल मिलने पर भी नहीं हुई थी।
उन दिनों ठेकेदार का बिल्डिंगों में पुताई व रंगाई का काम चल रहा था। मेरा काम सुपरविजन का था। एक पेंटर ने मुझसे साइकिल मांगी। उसका नाम जोगिंदर था।  उस दिन जोगिंदर के पास साइकिल नहीं थी और उसे दो किलोमीटर की दूरी से पेंट के डिब्बे लाने थे। अक्सर साइकिल देने से मना करने की आदत मेरी थी, लेकिन मैने उस दिन उसे मना नहीं किया। करीब एक घंटे के भीतर वह पेंट लेकर आ गया। तब मैने साइकिल का मुआयना नहीं किया। शाम को घर जाकर देखा तो साइकिल में जगह-जगह हरा पेंट लगा है, जो सूख कर पक्का हो गया। इस पर मुझे काफी गुस्सा आया। मेरी नई साइकिल की सुंदरता पर कई दाग लग चुके थे। अगले दिन मैने जोगिंदर को काफी डांट भी लगाई। उसने रंग छुड़ाने का प्रयास भी किया। पर कैरियर व पिछले मरगार्ड से रंग नहीं उतर सका।
हमारे घर में एक कमरा ऐसा था, जिसकी छत नहीं डाल सके थे। इसलिए मैने उस पर टिन की चादरें डाली हुई थी। उस कमरे पर दरवाजा भी नहीं था। उसमें बड़े भाई की मोपेड व मेरी साइकिल रहती थी। साथ ही उस कमरे का इस्तेमाल स्टोर की तरह किया जा रहा था। उन दिनों बरसात के दिन थे।  तेज बारिश होने पर टिन की छत से ऐसी आवाज निकलती थी, मानो कहीं फायरिंग हो रही हो। हल्की बारिश में मधुर संगीत का अहसास होता था। घर के भीतर ही बाहर छत की आवाज से बारिश का पता चल जाता था। बारिश का फायदा उठाकर ही एक रात घर से चोर मेरी साइकिल ले उड़ा। सुबह उठने पर जब साइकिल गायब देखी, तभी चोरी का पता चला।
साइकिल चोरी का दुख काफी हुआ। दोबारा मिलने की उम्मीद इसलिए नहीं रही कि बड़े भाई की साइकिल भी चोरी के बाद दोबारा नहीं मिली। घर में डांट इसलिए नहीं पड़ी कि मैने ताला लगाया था। चाबी मेरे पास ही थी, नहीं तो चाबी ताले में ही फंसी रहती थी। यह जानते हुए भी कि साइकिल नहीं मिलेगी, फिर भी पुलिस थाने में रिपोर्ट भी लिखाई। करीब एक सप्ताह बीत गया। एक दिन जोगिंदर मुझे मिला। वह दूसरे ठेकेदार के पास काम कर रहा था। उसके पास मेरी साइकिल भी थी। उसने मुझे बताया कि मेरी साइकिल को चुराने के बाद एक चोर ने उनके गांव में किसी व्यक्ति को सौ रुपये में मेरी साइकिल बेची थी, जिसे रंग लगा होने की वजह से जोगिंदर ने पहचान लिया। साथ ही सौ रुपये देकर उसने साइकिल वापस ले ली। मैने जोगिंदर को सौ रुपये अदा किए। वापस साइकिल पाकर मैं खुश था। मैने सोचा कि यदि साइकिल पेंट से गंदी नहीं होती, तो शायद जोगिंदर भी उसे पहचान नहीं पाता। तब मुझे पेंट लगने की घटना पर जोगिंदर को डांटने का भी अफसोस हुआ। 
                                                                                                        भानु बंगवाल

Saturday, 10 March 2012

साइकिलः सपना हुआ साकार (2)

जब करीब छह साल का था। तब बड़े भाई को साइकिल मिली और चोरी भी हो गई। इसके बाद घर में दोबारा साइकिल की मांग करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। इस घटना के करीब छह साल गुजर गए और मैं करीब 12 साल का था। मैने डरते-डरते अपने पिता से साइकिल की जिद की। मैने कहा कि साइकिल होने से घर का काम भी हो जाएगा और मैं उससे स्कूल भी जाया करूंगा। मेरे पिताजी ने शर्त रखी कि पहले साइकिल चलाना सीख लो, तब दिलाउंगा। बस क्या था, जो कोई भी मेहमान घर में आता, मैं उसकी साइकिल उड़ा लेता। चलाने की कोशिश करता। इस काम में मुझसे बड़ी बहन भी मदद करती। यह क्रम काफी समय तक चला, लेकिन मैं करेंची (बगैर गद्दी में बैठकर चलाना) तक नही सीख पाया। फिर पचास पैसे घंटे के हिसाब से किराए में भी साइकिल ली। इससे बस इतना सीखा कि ढलान वाली सड़क पर मेरी बहन मुझे किसी तरह गद्दी में बैठा कर साइकिल पर धक्का दे देती थी। साइकिल ढलान पर लुढ़कती। मैं हेंडिल पकड़कर बैलेंस संभालता। उतरते हुए ब्रेक लगाता। उतरना आता नहीं था, सो धड़ाम से गिर जाता।
एक दिन पिताजी ने मुझे सड़क पर साइकिल पर बैठे देख लिया। मुझे ढंग से चलानी नहीं आती थी। ढलान पर जा रहा था। पैडल तक नहीं मार पाता था। उनकी नजरों में जब मैं पड़ा तो सीधा आगे निकल गया।  उनकी नजर से ओझल होने के बाद आगे जब साइकिल रोकी, तो फिर से मैं बुरी तरह गिर गया था। शायद पिताजी ने यही सोचा कि मुझे साइकिल चलानी आ गई। जुलाई का महीना था। तब देहारादून में कई दिन की लगातार बारिश होती थी। एक दिन पिताजी मुझे साइकिल दिलाने दर्शन लाल चौक तक ले गए। तीन सौ छह रुपये आफिस से ऋण लिया था। साधारण साइकिल का रंग पसंद किया। चार घंटे लगे खरीदने में। तब दुकान में आर्डर देने के बाद रिम में स्पोक लगाने, फ्रेम में पहिये जोड़ने, चेन लगाने, हैंडल फिट करने आदि सारा काम किया जाता था। इस काम में तीन से चार घंटे लगते थे। यानि साइकिल खरीदने में भी चार घंटे का इंतजार।
जब दुकान गए तब दोपहर के 12 बज रहे थे। जब साइकिल मिली तब शाम के चार बज गए। दोपहर में चटख धूप थी। शाम को बारिश पड़ने लगी। साइकिल खरीदने के बाद पिताजी ने कहा कि वह बस से घर जाएंगे। मुझे साइकिल लेकर उन्होने किनारे-किनारे चलाने को कहा। वह बस अड्डे की तरफ चले गए। दुकान से हमारा घर राजपुर रोड पर चार किलोमीटर से अधिक दूर था। कई स्थानों पर खड़ी चढ़ाई भी थी। मैं पैदल-पैदल साइकिल लेकर चलने लगा। बारिश तेज हो गई। साइकिल खरीदने का मेरा उत्साह कम होने लगा। एक किलोमीटर तक चलने के बाद मेरी हिम्मत जवाब देने लगी। साइकिल का हैंडल किसी भारी बोझ का प्रतीत होने लगा। कई बार मुझे खुद पर रोना भी आया। साथ ही इंद्रदेव को भी कोसता रहा। किसी तरह घर पहुंचा। थकान से बुरा हाल था। घर में नई साइकिल देखकर सभी भाई बहन खुश थे। इस साइकिल के घऱ पहुंचने के बाद मेरा साइकिल का सपना साकार हुआ। इसी से मेरे तीसरे नंबर की बहिन और मैं साइकिल चलाना भी सीखे। इस साइकिल ने मेरा काफी समय तक साथ दिया। साथ ही मेरे कंधों पर एक बड़ी जिम्मेदारी भी आ गई। वह थी घर का सारा सामान बाजार से लाने की। जो बचपन में आई और आज तक जारी है।    (जारी)

                                                                                                          भानु बंगवाल

Friday, 9 March 2012

साइकिल का सपना 1

करीब चालीस साल पहले देहरादून की मुख्य सड़क राजपुर रोड सुनसान रहती थी। इस सड़क पर साइकिल ही नजर आती थी। स्कूटर व कार तो कभी-कभार ही सड़क पर दिखते। हां एक-एक घंटे के अंतराल में सिटी बस जरूर नजर आती थी। जो घंटाघर से राजपुर के लिए चलती थी। शहर के लोगों के लिए आवाजाही का बस ही सबसे सुलभ साधन हुआ करता था। आटो पर बैठना हरएक के बूते की बात नहीं थी। तब साइकिल भी हरएक के घर नहीं होती थी। साइकिल खरीदने वाले को नगर पालिका से उसका लाइसेंस भी बनाना पड़ता था। कितना अंतर आ गया तब और अब में। अब छोटे बच्चे दो से तीन साल में ही साइकिल बदल नई की डिमांड कर देते हैं। उस समय साइकिल खरीदना भी ऐसा था, जैसे आज लोग घर बनाने का सपना देखते हैं।
मैं करीब पांच साल का था। साइकिल चला नहीं सकता था, लेकिन यह जरूर चाहता था कि हमारे घर भी साइकिल हो। जिसे मेरा बड़ा भाई चलाए और मैं पीछे बैठूं। घर का सामान लाने के लिए करीब चार किलोमीटर दूर पल्टन बाजार तक जाना पड़ता था। साइकिल रहती तो बड़ा भाई इसमें ही लादकर राशन ला सकता था। इसी जरूरत को महसूस करते हुए पिताजी ने आफिस से साइकिल के लिए ऋण लिया और घर में आ गई नई साइकिल। घर में सब खुश थे। भाई ने चलानी भी सीख ली। साथ ही उस पर घर के सामान लाने की जिम्मेदारी भी पड़ गई। मैं सुबह उठकर कपड़ा लेकर साइकिल को साफ करता कि कहीं गंदी न रहे। अपनी उम्र के आस पड़ोस के बच्चों को साइकिल छूने से भी मै मना करता। साथ ही सबसे कहता कि जब कुछ और बड़ा हो जाउंगा तब चलाउंगा।
घर में साइकिल आए छह माह बीत गए। एक दिन बड़ा भाई किसी काम से गांव के एक व्यक्ति के साथ बाजार तक गया। देर रात को दोनों घर लोटे तो उनके पास साइकिल नहीं थी। पता चला कि बाजार में एक दुकान के बाहर से साइकिल चोरी हो गई। बस क्या था पिताजी का गुस्सा सातवें आसमान पर। भाई को काफी डांट लगी। घर में सब भाई बहन ऐसे रो रहे थे, जैसे कोई सगा बिछड़ गया। बड़े होकर साइकिल चलाने का मेरा सपना भी टूट बिखर रहा था। इसके बाद से हर दिन रास्ते में आती-जाती साइकिल को मैं ध्यान से देखता कि कहीं हमारी साइकिल दिख जाए। साइकिल चोरी होने का सदमा हमें कई साल तक रहा। इसके बाद घर में दोबारा साइकिल आने का मुझे पूरे छह साल तक इंतजार करना पड़ा। दूसरी बार  पिताजी ने मेरे लिए आफिस से ऋण लेकर तीन सौ रुपये में साइकिल खरीदी थी।

                                                                                                            भानु बंगवाल

Thursday, 8 March 2012

आई और गई होली, पर बोतल नहीं खोली

होली के त्योहार का बच्चों के साथ हर उम्र के लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता है। बच्चों को मौज मस्ती का। युवाओं को अपने मित्र को रंगने का। प्रेमी व प्रेमिका को एक दूसरे के गुलाल रगड़ने का। बूढ़ों को बच्चों की मस्ती को देखने का। अब तो होली का त्योहार जो रूप लेने लगा, उसमें शराब का चलन तो प्रमुख हो गया। कई लोगों की तो शराब हलक से उतारने की शुरूआत होली से ही होती है। होली बीतने के बाद वह दूसरी होली का इंतजार करने लगते हैं।
शराब है ही ऐसी चीज, जो इंतजार कराती है। किसी मित्र की शादी हो तो कई को इसलिए इंतजार रहता है कि उस दिन जमकर पिएंगे और नाचेंगे। हर शाम को पीने के आदी रहने वालों का तो दिन भर किसी काम में मन तक नहीं लगता। उन्हें तो सिर्फ दिन ढलने का इंतजार इसलिए रहता है। रात कब हो और वे दोस्तों की मंडली में बैठकर पैग दर पैग उडा़एं। ऐसा ही इंतजार अक्सर युवाओं को रहने लगा है। होली में शराब के नशे में हुड़दंग भी ज्यादा होते हैं। हांलाकि हर नशा बुरा है। चाहे वह भांग व तंबाकू का क्यों न हो, लेकिन समाज में सबसे ज्यादा बुरा नशा शराब को ही करार दिया गया। क्योंकि यह किसी ने नहीं सुना होगा कि भांग व तंबाकू के नशे में व्यक्ति ने झगड़ा किया या किसी की बहू व बेटी को छेड़ा। शराब के नशे के बाद हुड़दंग की खबरें ही ज्यादा रहती हैं।
होली का मुझे भी इंतजार रहता था। दोस्तों के साथ मौज मस्ती का। इस दिन मैं घर पर नहीं रहता था। मेरी शराब की शुरूआत ही युवावस्था में होली के दिन से ही हुई थी। यह लत बढ़ती गई। बाद में हर शाम ढलने का इंतजार रहने लगा। शुरूआत में फ्री की पिलाने वाले खूब मिले। बाद में जब लत पड़ी तो जेब ढीली करने में भी संकोच नहीं होने लगा।
शराब छोड़ना चाहता था, पर छुटती नहीं थी। यार दोस्त समझाते तो बुरा लगता। मन में सोचता कि मुझे तो सीख दे रहे हैं, खुद अमल क्यों नहीं करते। एक समय ऐसा आया कि शराब पीने पर नशा होना भी बंद हो गया। या यूं कहिए कि मैं शराब की गिरफ्त में आ गया। करीब तीन साल पहले की होली थी। उस दिन सुबह शराब की बोतल निकालकर मैने खुद के लिए पैग बनाए। एक पैग पिया कि मन ने कहा कि इस होली से ही क्यों न शराब छोड़ दी जाए। बस बोतल उठाई और शराब को नाली में उड़ेल दिया। किसी के घर होली खेलने नहीं गया। खुद को कमरे में बंद कर लिया। कई बार बैचेनी बढ़ी, लेकिन खुद पर काबू पाने की कोशिश करता रहा। होली गई। एक-एक दिन शराब के बगैर काटने का अभ्यास करने लगा। शुरूआत में दिक्कत आई, लेकिन कब महीना, बीता और साल। बाद में इसका पता तक नहीं चला। इस दौरान कई शादियां आई। त्योहार मनाए। शराब से दूर रहा। होली आई, तो पता चला कि नशा छोड़ने का मजा ही कुछ और है। नशे के कारण समाज में प्रतिष्ठा खराब होने में एक पल नहीं लगता, लेकिन इसी प्रतिष्ठा को बनाने में कई साल लग जाते हैं। शराबी के साथ तो सिर्फ शराबी ही होली खेलना पसंद करता है। नशा न करने वाले के साथ तो हर एक मौजमस्ती करते हैं। इस बार भी होली आई। कई मित्रों के घर गया, कई बोतल खोलने को तैयार दिखे। मैने मना किया तो यही कहा गया कि शराब नहीं तो बीयर ही पी लो। मेरा तर्क था कि नशा तो नशा है चाहे वह भांग का क्यों न हो। कई ने आश्चर्य भी किया। कुछ ने थोड़ी जोर जबरदस्ती भी की, लेकिन सिर्फ मेरी चली। अब मैं गर्व से कह सकता हूं-होली आई और गई होली, पर बोतल नहीं खोली।

                                                                                                    भानु बंगवाल

याद आती है वह लड़की....

दुर्घटना का कारण एक नहीं होता। कई बार लापरवाही से होती है, तो कई बार अनजाने में। कई बार तो किसी की कोई गलती भी नहीं होती, बस अचनाक दुर्घटना हो जाती है। ऐसे में इसका अंजाम भी कई बार काफी खतरनाक हो जाता है। मसलन आपकी गाड़ी से कोई टकरा गया और यदि आपकी गलती न भी हो। तब भी दुर्घटना के बाद मौके पर जमा होने वाली भीड़ उसे ही गलत ठहराती है, जिसका वाहन हो। यदि दो वाहनों में कार व स्कूट की टक्कर हो तो लोग स्कूटर सवार का पक्ष लेने लगते हैं। दुर्घटना में चोटिल व्यक्ति को इलाज के लिए अस्पताल पहुंचाने में तो शायद ही कोई मदद करे, लेकिन दुर्घटना के आरोपी की पिटाई करने में भी प्रत्यक्षदर्शी पीछे नहीं रहते। ऐसे में कोई भीड़ के कोप से बच जाए, तो उसे किस्मतवाला ही कहा जाएगा।
एक बार मेरे साथ भी ऐसी ही घटना घटी। मैं स्कूटर पर देहरादून से सहारनपुर जा रहा था। बिहारीगढ़ के निकट जैसे ही मैं पहुंचा, तो वहां कुछ बस व वाहन सड़क किनारे खड़े थे। एक रुकी बस से आगे मैं बढ़ा ही था कि अचानक सामने एक करीब 13 साल की लड़की स्कूटर से टकरा गई। घबराहट के मारे मैं ब्रेक भी नहीं लगा पाया और वह काफी दूर तक स्कूटर से घिसड़ती चली गई। किसी तरह मैने ब्रेक लगाए और स्कूटर को स्टैंड में खड़ा किया। मौके पर भीड़ भी जमा हो गई। मैने सोचा कि भीड़ कहीं हमला न कर दे, इस पर मैने हेलमेट भी नहीं उतारा। मैं लड़की के पास गया और उसका हालचाल जानने लगा। मैने मौजूद लोगों से पता करना चाहा कि उसके साथ कौन है। मैं किसी अस्पताल में उसका चेकअप कराने के पक्ष में था। तभी एक व्यक्ति वहां पहुंचा और गुस्से में लड़की का हाथ खींचकर ले गया। वह इतना बोला कि बस खड़ी है, जल्दी चल। उसे न अपनी बेटी के चोट लगने की चिंता थी और न ही मेरे से कोई मतलब था। उसे तो सिर्फ वहां जाने की जल्दी थी, जहां की बस के इंतजार में वह परिवार समेत सड़क किनारे खड़ा था। शायद वही उस लड़की का बाप था। उनका पूरा परिवार बस में बैठा और कुछ देर बाद बस भी मेरी आंखों से ओझल हो गई। मैं खुश था कि पब्लिक के कोप से मैं बच गया, लेकिन मुझे उस दिन सिर्फ एक मलाल था कि कहीं लड़की को ज्यादा चोट तो नहीं आई। उसका क्या हुआ होगा। यही बात मुझे आज तक कचोटती है और हमेशा कचोटती रहेगी।
                                                                                                            भानु बंगवाल 

Monday, 5 March 2012

हमको पहले से पता था जी।

अब से चौबीस घंटे बाद उत्तराखंड में विधानसभा के चुनाव के नतीजे आने शुरू हो जाएंगे। कौन जीतेगा या कौन हारेगा। यह तो समय ही बताएगा, लेकिन कई लोग तो ऐसे हैं जिनको पहले से ही मालूम है कि परिणाम क्या होगा। ऐसे लोग अंतरयामी होते हैं। उन्हें बात का पहले से पता होता है। किसकी सरकार बनने वाली है, वह पहले से जानते हैं। न जाने उन्हें कहां से पता चल जाता है कि खामोश रहने वाले मतदाता ने किसे वोट दिया। जो जीत रहा है तो क्यों जीत रहा है। हारने वाला क्यों हार रहा है। ऐसा नहीं है कि इन अंतरयामी लोगों का गणित गलत न हो। यदि हो भी जाए, तब भी उनका तुर्रा यह रहेगा कि उन्हें यह पता था। अपनी बात को सही ठहराने के लिए वह काफी गुंजाइश छोड़ कर रखते हैं। उनके आगे एक्जिट पोल भी गलत हो जाता है। चाय की दुकान हो या गली के नुक्कड़। सभी स्थानों पर ऐसे अंतर्यामी चौपाल जमाए नजर आ जाएंगे। आज तो हद हो गई। एक महाशय ने तो चर्चा की जंग में कई की जमानत ही जब्त करा दी। कमाल का नजरिया था उनका। देहरादून में बैठकर रुद्रप्रयाग के नतीजे निकाल रहे थे। उनकी पिटारे में तो न जाने कितने नेताओं का भाग्य छिपा था। अब जब नतीजे आएंगे और महाशय की बात उलट हो जाएगी, तब भी वह यही कहेंगे। हमको पहले से पता था जी।
                                                                                                                        भानु बंगवाल

Friday, 2 March 2012

नाम पर क्या रखा है.....

नाम कुछ और काम कुछ। कई बार तो ऐसे लोग होते हैं जो नाम के विपरीत काम करते हैं। वहीं, कई ऐसे होते हैं जो नाम के अनुरूप स्वभाव वाले होते हैं। माता पिता कुछ सोच समझकर औलाद का नाम रखते हैं और बाद में कई बार बच्चों को अपना नाम ही अच्छा नहीं लगता। ऐसे में वे अपना नाम तक बदल डालते हैं।
नाम बदलने पर भी कई खुश नहीं हो पाते। इस पर कई कहानियां भी हैं। जैसे छेदी लाल अपने नाम से परेशान हो उठा और नाम बदलने का उसने इरादा कर लिया। हिंदू धर्म में पंडित जी ने कहा कि नामकरण संस्कार एक बार होता है। ऐसे में वह नाम नहीं बदल सकते। नाम तो बदलना ही था। भले ही धर्म परिवर्तन क्यों न करना पड़े। इस पर छेदीलाल मुसलमान बन गया और मौलवी ने उसका नाम सुराख अली रख दिया। इस पर भी लोगों ने उसे चिढ़ाया। इस पर वह फिर नाम बदलने मौलवी के पास गया। मौलवी ने कहा कि अब वह दूसरा धर्म अपनाकर ही नाम बदल सकता है। ऐसे में वह ईसाई बन गया। पादरी ने उसका नाम मिस्टर होल रख दिया। छेदी लाल को लोगों ने फिर चिढ़ाया कि नाम बदलने से भी उससे पिछला नाम ही लिपट रहा है। ऐसे में वह दोबारा पंडितजी  के पास गया और बोला अब तो हिंदू बनाकर मेरा नाम बदल दो, लेकिन छेदीलाल मत रखना। पंडितजी ने फिर संस्कार किए और उसका नाम छलनी प्रसाद रख दिया।
ये तो है कहानी, लेकिन कई बार नाम के कारण अजीबोगरीब बात हो जाती है। बात है उत्तराखंड आंदोलन की। तब सड़कों पर आंदोलनकारी निकलते थे। पत्रकार भी उनके पीछे- पीछे दौड़ते थे। अक्सर बंद का आह्वान होने पर देहरादून में महिलाएं ही बंद की कमान संभालती थी। एक करीब सत्तर वर्षीय महिला को मैं काफी पहले से जानता था। वह हाथीबड़कला क्षेत्र में मुझे आंदोलनकारी महिलाओं के साथ दिखती थी। उसे मैं राणा आंटी के रूप में जानता था। नाम मुझे भी नहीं पता था। हर बार आंदोलन से संबंधित समाचारों में राणा आंटी का नाम समाचार पत्र में छपने से छूट जाता था। वह मुझसे खफा भी रहती थी। एक दिन मैने उनसे पूछा आंटी अपना नाम बताओ, मैं आज जरूर अखबार में लिखूंगा। उन्होंने बताया श्रीमती राणा। मैने आंटी से कहा कि समाचार पत्रों में सर नेम नहीं चलता। अपना पूरा नाम बताओ- इस पर उन्होंने फिर वही दोहराया श्रीमती राणा। मैने कहा कि आंटी पूरा नाम बताओ- जैसे कमला राणा, बिमला राणा, या आपका जो नाम हो वह। इस पर वह मुझसे झुंझला गई। और बोली भानु मेरा नाम ही श्रीमती है, तो फिर कहां से और कुछ जोड़ूं। लिखना है तो लिख- श्रीमती राणा।

                                                                                                      भानु बंगवाल