Sunday, 25 March 2012

सत्ता की धमक, बदले अंदाज

सच ही कहा जाता है कि सत्ता की धमक में नेताजी का अंदाज बदल जाता है। पहले तक लोगों के आगे वोट के लिए गिड़गिड़ाते फिरते थे, अब तो उनके आगे गिड़गिड़ाने वालों की कतार लगने लगी है। नेताजी हैं कि पैर जमीन पर पड़ते नहीं सातवें आसामन में उड़ते रहते हैं। हरएक के दुखदर्द को दूर करने का फार्मूला भी उनके पास रहता है। साथ ही रहता है झूठ का पुलिंदा।
एक नेताजी जब से विधायक बने। प्रशंसकों से उनका पीछा नहीं छूट रहा। पहले तो उन्हें अच्छा लगा, लेकिन रात के 12  बजे बधाई का क्या तुक है। ऐसे फोन से वह परेशान होने लगे। ऐसी काल से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने ज्यादा समय अपना फोन बंद रखना ही उचित रखा। अपने इस्तेमाल के लिए दूसरा नंबर ले लिया।
पहले नगर निगम के सभासद थे। फिर विधायक बने। संगी साथी पीछे छूट गए। एक पुराना दोस्त सभासद ही हैं, लेकिन वह भी विधायक से कम नहीं। विधायक की तरह सभासद महाशय भी लोगों को आश्वासन का पुलिंदा बांटते फिर रहे हैं। यदि काम हो  गया तो श्रेय सभासद को जाएगा, यदि नहीं हुआ तो यह कहकर टाल दिया कोशिश की थी। क्या करूं बात बिगड़ गई।
एक चिपकू रामजी किसी काम से सभासद महोदय के पास गए। सभासद ने कहा काम हो जाएगा। बस मुझे याद दिलाते रहना। विधायक तो मेरा साथी है। वह भी मदद करेगा। सभासद कुछ  ज्यादा ही बोल गए। चिपकू राम जी ने सभासद को काम की याद दिलाना अपना पहला कर्तव्य समझा। सुबह उठते ही सभासद को फोन, दोपहर को फोन, शाम को फोन। सभासद परेशान हुए और कभी मीटिंग में हूं। कभी और कुछ बहाना बनाकर फोन काट देते। एक दिन तो हद हो गई। सभासद को जैसे ही फोन की काल आई, वह मौके पर साथियों से बोले सभी सत्य है कहना। फिर काल रिसीव की और धीरे से बोले कोई मर गया। मैं शव यात्रा में हूं। साथ ही बोलने लगे राम-राम सत्य है। यह सुनकर उनके साथी भी यही बोलते रहे राम-राम सत्य है। सत बोलो गत.....।

                                                                                                    भानु बंगवाल

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