बारह साल की उम्र में जब मुझे साइकिल मिली तो मुझ पर घर के छोटे-छोटे काम की जिम्मेदारी भी आ गई। तब राजपुर रोड स्थित हमारे घर से पलटन बाजार चार किलोमीटर से अधिक की दूरी पर था। घर की जरूरत का हर छोटा व बड़ा सामान वहीं से लाते थे। मोहल्ले की दुकान से शायद ही कभी सामान खरीदा गया हो। राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान क्षेत्र में रहने के कारण वहां के दृष्टिहीन भी अक्सर मुझसे बाजार से सामान मंगवाते। कई बार तो मैं ऐसे लोगों को अपनी साइकिल में बैठाकर बाजार ले जाता। समय बीतता गया। मैं जवान होता गया और मेरी साइकिल बूढ़ी होती गई। साथ ही पिताजी भी सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो गए। साइकिल का रंग रोगन कई स्थानों से उखड़ गया। साइकिल जंग खाने लगी। उसके कई पार्ट घिसने लगे। फ्रेम चटक गया। सो वेल्डिंग का टांका लगाना पड़ा। अब इस साइकिल को चलाने में मुझे मजा कम व थकान ज्यादा लगती थी। वर्ष 88 के करीब मैं निजी ठेकेदार के साथ काम करने लगा। इसके लिए मुझे घर से एक तरफ करीब आठ से दस किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था। नई साइकिल की आवश्यकता पढ़ने लगी। उस समय महिने में करीब सात सौ रुपये मिल जाते थे। इसमें से दो सो रुपये खुद पर व पांच सौ रुपये घर की जरूरतों पर खर्च करता था। एक दिन मेरी माताजी ने ही मुझसे कहा कि नई साइकिल क्यों नहीं लेता। इस पर मैने नए डिजाइन वाले हैंडिल की साइकिल खरीदी, जो करीब साढ़े सात सौ रुपये में आई। मेहनत की कमाई की साइकिल। सचमुच इसे खरीदने में इतनी खुशी हुई, जो मुझे पहली साइकिल मिलने पर भी नहीं हुई थी।
उन दिनों ठेकेदार का बिल्डिंगों में पुताई व रंगाई का काम चल रहा था। मेरा काम सुपरविजन का था। एक पेंटर ने मुझसे साइकिल मांगी। उसका नाम जोगिंदर था। उस दिन जोगिंदर के पास साइकिल नहीं थी और उसे दो किलोमीटर की दूरी से पेंट के डिब्बे लाने थे। अक्सर साइकिल देने से मना करने की आदत मेरी थी, लेकिन मैने उस दिन उसे मना नहीं किया। करीब एक घंटे के भीतर वह पेंट लेकर आ गया। तब मैने साइकिल का मुआयना नहीं किया। शाम को घर जाकर देखा तो साइकिल में जगह-जगह हरा पेंट लगा है, जो सूख कर पक्का हो गया। इस पर मुझे काफी गुस्सा आया। मेरी नई साइकिल की सुंदरता पर कई दाग लग चुके थे। अगले दिन मैने जोगिंदर को काफी डांट भी लगाई। उसने रंग छुड़ाने का प्रयास भी किया। पर कैरियर व पिछले मरगार्ड से रंग नहीं उतर सका।
हमारे घर में एक कमरा ऐसा था, जिसकी छत नहीं डाल सके थे। इसलिए मैने उस पर टिन की चादरें डाली हुई थी। उस कमरे पर दरवाजा भी नहीं था। उसमें बड़े भाई की मोपेड व मेरी साइकिल रहती थी। साथ ही उस कमरे का इस्तेमाल स्टोर की तरह किया जा रहा था। उन दिनों बरसात के दिन थे। तेज बारिश होने पर टिन की छत से ऐसी आवाज निकलती थी, मानो कहीं फायरिंग हो रही हो। हल्की बारिश में मधुर संगीत का अहसास होता था। घर के भीतर ही बाहर छत की आवाज से बारिश का पता चल जाता था। बारिश का फायदा उठाकर ही एक रात घर से चोर मेरी साइकिल ले उड़ा। सुबह उठने पर जब साइकिल गायब देखी, तभी चोरी का पता चला।
साइकिल चोरी का दुख काफी हुआ। दोबारा मिलने की उम्मीद इसलिए नहीं रही कि बड़े भाई की साइकिल भी चोरी के बाद दोबारा नहीं मिली। घर में डांट इसलिए नहीं पड़ी कि मैने ताला लगाया था। चाबी मेरे पास ही थी, नहीं तो चाबी ताले में ही फंसी रहती थी। यह जानते हुए भी कि साइकिल नहीं मिलेगी, फिर भी पुलिस थाने में रिपोर्ट भी लिखाई। करीब एक सप्ताह बीत गया। एक दिन जोगिंदर मुझे मिला। वह दूसरे ठेकेदार के पास काम कर रहा था। उसके पास मेरी साइकिल भी थी। उसने मुझे बताया कि मेरी साइकिल को चुराने के बाद एक चोर ने उनके गांव में किसी व्यक्ति को सौ रुपये में मेरी साइकिल बेची थी, जिसे रंग लगा होने की वजह से जोगिंदर ने पहचान लिया। साथ ही सौ रुपये देकर उसने साइकिल वापस ले ली। मैने जोगिंदर को सौ रुपये अदा किए। वापस साइकिल पाकर मैं खुश था। मैने सोचा कि यदि साइकिल पेंट से गंदी नहीं होती, तो शायद जोगिंदर भी उसे पहचान नहीं पाता। तब मुझे पेंट लगने की घटना पर जोगिंदर को डांटने का भी अफसोस हुआ।
भानु बंगवाल
उन दिनों ठेकेदार का बिल्डिंगों में पुताई व रंगाई का काम चल रहा था। मेरा काम सुपरविजन का था। एक पेंटर ने मुझसे साइकिल मांगी। उसका नाम जोगिंदर था। उस दिन जोगिंदर के पास साइकिल नहीं थी और उसे दो किलोमीटर की दूरी से पेंट के डिब्बे लाने थे। अक्सर साइकिल देने से मना करने की आदत मेरी थी, लेकिन मैने उस दिन उसे मना नहीं किया। करीब एक घंटे के भीतर वह पेंट लेकर आ गया। तब मैने साइकिल का मुआयना नहीं किया। शाम को घर जाकर देखा तो साइकिल में जगह-जगह हरा पेंट लगा है, जो सूख कर पक्का हो गया। इस पर मुझे काफी गुस्सा आया। मेरी नई साइकिल की सुंदरता पर कई दाग लग चुके थे। अगले दिन मैने जोगिंदर को काफी डांट भी लगाई। उसने रंग छुड़ाने का प्रयास भी किया। पर कैरियर व पिछले मरगार्ड से रंग नहीं उतर सका।
हमारे घर में एक कमरा ऐसा था, जिसकी छत नहीं डाल सके थे। इसलिए मैने उस पर टिन की चादरें डाली हुई थी। उस कमरे पर दरवाजा भी नहीं था। उसमें बड़े भाई की मोपेड व मेरी साइकिल रहती थी। साथ ही उस कमरे का इस्तेमाल स्टोर की तरह किया जा रहा था। उन दिनों बरसात के दिन थे। तेज बारिश होने पर टिन की छत से ऐसी आवाज निकलती थी, मानो कहीं फायरिंग हो रही हो। हल्की बारिश में मधुर संगीत का अहसास होता था। घर के भीतर ही बाहर छत की आवाज से बारिश का पता चल जाता था। बारिश का फायदा उठाकर ही एक रात घर से चोर मेरी साइकिल ले उड़ा। सुबह उठने पर जब साइकिल गायब देखी, तभी चोरी का पता चला।
साइकिल चोरी का दुख काफी हुआ। दोबारा मिलने की उम्मीद इसलिए नहीं रही कि बड़े भाई की साइकिल भी चोरी के बाद दोबारा नहीं मिली। घर में डांट इसलिए नहीं पड़ी कि मैने ताला लगाया था। चाबी मेरे पास ही थी, नहीं तो चाबी ताले में ही फंसी रहती थी। यह जानते हुए भी कि साइकिल नहीं मिलेगी, फिर भी पुलिस थाने में रिपोर्ट भी लिखाई। करीब एक सप्ताह बीत गया। एक दिन जोगिंदर मुझे मिला। वह दूसरे ठेकेदार के पास काम कर रहा था। उसके पास मेरी साइकिल भी थी। उसने मुझे बताया कि मेरी साइकिल को चुराने के बाद एक चोर ने उनके गांव में किसी व्यक्ति को सौ रुपये में मेरी साइकिल बेची थी, जिसे रंग लगा होने की वजह से जोगिंदर ने पहचान लिया। साथ ही सौ रुपये देकर उसने साइकिल वापस ले ली। मैने जोगिंदर को सौ रुपये अदा किए। वापस साइकिल पाकर मैं खुश था। मैने सोचा कि यदि साइकिल पेंट से गंदी नहीं होती, तो शायद जोगिंदर भी उसे पहचान नहीं पाता। तब मुझे पेंट लगने की घटना पर जोगिंदर को डांटने का भी अफसोस हुआ।
भानु बंगवाल
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। साइकिल का नया-नया शौक। कई-कई किमी साइकिल में ही तय कर देते। यहां तक कि कई बार स्कूल से बंक मार साइकिल पर बैठ घूमने चले जाते। एक दिन साइकिल चाचाजी लेकर गए। चाचा तो वापस आए, लेकिन साइकिल गायब। चाचा से नई साइकिल दिलाने की जिद की, लेकिन पापा ने डांट दिया, जिस कारण नई साइकिल नहीं मिल पाई। आज भले ही मेरे पास बाइक है, लेकिन वो साइकिल आज भी मेरी यादों में है।
ReplyDeleteअद्भुत अहसास की अनुभूति हुई होगी मित्रवर ....जिसने दांत खायी वही साइकिल वापसी का माध्यम बना ..अजब संयोग !!! सुन्दर बयानी ..
ReplyDeleteGreat that means " jo hota hai accha ke liye hota hai"
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