बच्चों को छोटे से ही घर का पता याद कराना आजकल हर माता पिता के लिए आवश्यक हो गया है। मेरे बचपन में तो सड़कें खाली होती थी। बाजार भी खाली होते थे। भीड़ तो मेले व त्योहारों के मौकों पर ही दिखती थी। तब मोहल्ले के लोग भी एक-दूसरे को जानते थे। ऐसे में बच्चे खोने व बिछड़ने की संभावना काफी कम रहती थी। फिर भी हम स्कूल से सीधे घर पहुंचे, इसलिए बच्चों को माता-पिता तेलकढ़े का भय दिखाकर रखते थे। कहा जाता था कि तेलकढ़ा बच्चों को शीशा दिखाता है। बच्चे उसकी तरफ सम्मोहित होते हैं और पीछे-पीछे चल देते हैं। ऐसे में बच्चे स्कूल जाने व आने के दौरान समूह बनाकर चलते थे।
अब तेलकढ़े का स्थान अपहरणकर्ताओं ने ले लिया । बच्चे भी माता पिता की नजर में रहते हैं। छोटे बच्चों को स्कूल भी निगरानी पर ही भेजा जाता है। साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से बच्चों को माता-पिता घर का पता जरूर याद कराते हैं।
मेरे बड़े भाई का परिवार शिमला रहा करता था। उनके बच्चों के स्कूल की छुट्टियां सर्दी में होती थी, तो वे देहरादून में हमारे यहां आ जाते थे। तब भाई की बड़ी बेटी करीब साढ़े सात साल व बेटा सार्थक छह साल का था। एक शाम मेरी माताजी घर से कुछ दूर दूध लेने डेयरी में गई हुई थी। अक्सर उसके पीछे मेरा बेटा व्योम (तब करीब साढ़े पांच साल) भी चला जाता था। उस दिन काफी सर्दी थी। बारिश हो रही थी। दादी के पीछे व्योम व सार्थक दोनों ही चले गए। अंधेरा होने लगा था। मेरी माताजी ने दोनों बच्चों को घर लौटने को कहा। इस पर दोनों ने गलियों पर दौड़ लगा दी। व्योम तो घर पहुंच गया, लेकिन सार्थक का कहीं पता नहीं चला।
गलियों में सार्थक रास्ता भटक गया। काफी देर हो गई। उसे घर के सभी लोग तलाशने लगे। आस-पड़ोस के लोग भी उसे खोजने में मदद करने लगे। मुझे भी मोबाइल से सूचना दी गई। मैं भी निकट की पुलिस चौकी व थाने में सूचना देने पहुंचा। शाम के छह बजे सार्थक गायब हुआ और रात के आठ बज गए। शिमला में रहने के कारण उसे वहीं का पता याद था। ऐसे में घर के सभी लोगों का परेशान होना लाजमी था। उस समय बारिश भी हो रही थी। सभी इस चिंता में भी थे कि भीगकर कहीं वह बीमार न हो जाए। उसकी तलाश में इधर-उधर भटकने के दौरान मेरी माताजी को एक पुलिस कर्मी की साइकिल में बैठा सार्थक नजर आ गया।
मिलने पर सार्थक ने बताया कि रास्ता भटक कर वह काफी दूर पहुंच गया था। जब रास्ता नहीं मिला तो वह रोया भी। उसे एक पुलिस कर्मी दिखाई दिया। उसके पास जाकर उसने बताया कि वह खो गया है। इस पर पुलिसकर्मी ने उसे खाने को चाकलेट भी दी। साथ ही केले भी खिलाए। वह उसे साइकिल में बैठाकर घर चौकी ले जा रहा था कि तभी दादी दिखाई दे गई।
भानु बंगवाल
अब तेलकढ़े का स्थान अपहरणकर्ताओं ने ले लिया । बच्चे भी माता पिता की नजर में रहते हैं। छोटे बच्चों को स्कूल भी निगरानी पर ही भेजा जाता है। साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से बच्चों को माता-पिता घर का पता जरूर याद कराते हैं।
मेरे बड़े भाई का परिवार शिमला रहा करता था। उनके बच्चों के स्कूल की छुट्टियां सर्दी में होती थी, तो वे देहरादून में हमारे यहां आ जाते थे। तब भाई की बड़ी बेटी करीब साढ़े सात साल व बेटा सार्थक छह साल का था। एक शाम मेरी माताजी घर से कुछ दूर दूध लेने डेयरी में गई हुई थी। अक्सर उसके पीछे मेरा बेटा व्योम (तब करीब साढ़े पांच साल) भी चला जाता था। उस दिन काफी सर्दी थी। बारिश हो रही थी। दादी के पीछे व्योम व सार्थक दोनों ही चले गए। अंधेरा होने लगा था। मेरी माताजी ने दोनों बच्चों को घर लौटने को कहा। इस पर दोनों ने गलियों पर दौड़ लगा दी। व्योम तो घर पहुंच गया, लेकिन सार्थक का कहीं पता नहीं चला।
गलियों में सार्थक रास्ता भटक गया। काफी देर हो गई। उसे घर के सभी लोग तलाशने लगे। आस-पड़ोस के लोग भी उसे खोजने में मदद करने लगे। मुझे भी मोबाइल से सूचना दी गई। मैं भी निकट की पुलिस चौकी व थाने में सूचना देने पहुंचा। शाम के छह बजे सार्थक गायब हुआ और रात के आठ बज गए। शिमला में रहने के कारण उसे वहीं का पता याद था। ऐसे में घर के सभी लोगों का परेशान होना लाजमी था। उस समय बारिश भी हो रही थी। सभी इस चिंता में भी थे कि भीगकर कहीं वह बीमार न हो जाए। उसकी तलाश में इधर-उधर भटकने के दौरान मेरी माताजी को एक पुलिस कर्मी की साइकिल में बैठा सार्थक नजर आ गया।
मिलने पर सार्थक ने बताया कि रास्ता भटक कर वह काफी दूर पहुंच गया था। जब रास्ता नहीं मिला तो वह रोया भी। उसे एक पुलिस कर्मी दिखाई दिया। उसके पास जाकर उसने बताया कि वह खो गया है। इस पर पुलिसकर्मी ने उसे खाने को चाकलेट भी दी। साथ ही केले भी खिलाए। वह उसे साइकिल में बैठाकर घर चौकी ले जा रहा था कि तभी दादी दिखाई दे गई।
भानु बंगवाल
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