Monday, 26 March 2012

रास्ते वही, मंजिल वही, पर.......

बचपन में जब भी देहरादून से पिताजी के साथ मसूरी जाता, तो पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। तब शहनशाही आश्रम से करीब सात किलोमीटर लंबी खड़ी चढ़ाई व पगडंडियों वाले रास्ते से होकर मसूरी जाना पड़ता था। घुमावदार रास्तों से गुजरती बस से पिताजी की तबीयत खराब हो जाती थी। इसलिए वह पैदल ही मसूरी जाते थे। मसूरी में मेरे ताऊजी व बुआजी रहते थे। पिताजी के रिश्ते के भाई को हम ताऊजी कहते थे। उनकी पत्नी को हमें ताई कहना था, लेकिन वह पिताजी से अपने मायके का रिश्ता जोड़कर उन्हें भाई ही कहती थी। ऐसे में हमारा इस परिवार के साथ अजीबोगरीब रिश्ता था। पर दोनों परिवारों में थी बडी आत्मीयता। दोपहर को मसूरी का पैदल सफर शुरू होता, जो करीब तीन से चार घंटे में पूरा होता। मसूरी जाते-जाते शाम हो जाती। ताऊजी का परिवार लंढौर में रहता था। दूर से ही बुआजी हमें मसूरी की  तरफ आते देखती और भगोने में पानी गर्म करने को चढ़ा देती। शाम को थककर हम मसूरी पहुंचते तो बुआजी गर्म पानी में नमक डालकर पैरों की सिकाई करने को कहती। कुछ देर गर्म पानी से भरी परात में पांव डालने के बाद थकान छू मंतर हो जाती थी।
अक्सर मैं मसूरी के पैदल रास्ते को याद करता रहता हूं। पहली बार करीब पैंतीस साल पहले छोटी उम्र में पैदल मसूरी गया था। फिर कई बार गया, लेकिन आखरी बार पैदल रास्ते से मसूरी गए मुझे पच्चीस साल हो गए थे। पहले में मसूरी में गर्मी की छुट्टियां बिताता था। बुआजी के बेटे की एकत्र की हुई कहानी की किताबें पढ़ता। छोटी बेटी पुष्पा से झगड़ा भी करता। समय बदला। बुआजी की बेटियों की शादी हो गई। बेटा इस दुनियां में नहीं रहा। ताऊजी का काफी साल पहले ही स्वर्गवास हो चुका था। बुआजी भी मसूरी ज्यादा नहीं रहती है। दूसरों की थकान मिटाने वाली बुआ अब थक चुकी है। अब वह अक्सर किसी बेटी या दूसरे बेटे के घर रहती हैं।
मैने अपने बच्चों से मसूरी के पैदल रास्ते का जिक्र किया, तो वे भी पीछे पड़ गए कि पैदल मसूरी ले चलो। इन दिनों गर्मियों में नोएडा से मेरा 15 वर्षीय भांजा भी देहरादून आ रखा है। पुरानी यादों को ताजा करने के लिए भांजा, भतीजा व दोनों बेटों को साथ लेकर मैं मसूरी को रवाना हो गया। घर से शहनशाही आश्रम के लिए हमने बस पकड़ी और फिर पैदल मार्ग से मसूरी के लिए शुरू की गई ट्रेकिंग।
बच्चों के लिए तो मसूरी का पैदल सफर काफी रोमांचकारी था। शुरूआत में काफी तेजी से चल रहे थे, बाद में मेरे छोटे बेटे (साढ़े नौ साल) की चाल हल्की पड़ने लगी। पर बच्चों में किसी ने यह नहीं दर्शाया का वे थक रहे हैं। खैर मसूरी पहुंचे। घूमे-फिरे, बच्चों ने मौज मस्ती की। वापस टैक्सी पकड़कर घर आ गए। इस यात्रा में मुझे पहले जैसा आनंद नहीं आया। रास्ते वही थे। मंजिल भी वही थी। मैं व बच्चे काफी थक गए थे। थकना लाजमी था,  लेकिन मुझे न तो वहां बुआ मिली और न ही थकान दूर करने के लिए गर्म पानी से भरी परात।

                                                                                              भानु बंगवाल

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