Saturday, 10 March 2012

साइकिलः सपना हुआ साकार (2)

जब करीब छह साल का था। तब बड़े भाई को साइकिल मिली और चोरी भी हो गई। इसके बाद घर में दोबारा साइकिल की मांग करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। इस घटना के करीब छह साल गुजर गए और मैं करीब 12 साल का था। मैने डरते-डरते अपने पिता से साइकिल की जिद की। मैने कहा कि साइकिल होने से घर का काम भी हो जाएगा और मैं उससे स्कूल भी जाया करूंगा। मेरे पिताजी ने शर्त रखी कि पहले साइकिल चलाना सीख लो, तब दिलाउंगा। बस क्या था, जो कोई भी मेहमान घर में आता, मैं उसकी साइकिल उड़ा लेता। चलाने की कोशिश करता। इस काम में मुझसे बड़ी बहन भी मदद करती। यह क्रम काफी समय तक चला, लेकिन मैं करेंची (बगैर गद्दी में बैठकर चलाना) तक नही सीख पाया। फिर पचास पैसे घंटे के हिसाब से किराए में भी साइकिल ली। इससे बस इतना सीखा कि ढलान वाली सड़क पर मेरी बहन मुझे किसी तरह गद्दी में बैठा कर साइकिल पर धक्का दे देती थी। साइकिल ढलान पर लुढ़कती। मैं हेंडिल पकड़कर बैलेंस संभालता। उतरते हुए ब्रेक लगाता। उतरना आता नहीं था, सो धड़ाम से गिर जाता।
एक दिन पिताजी ने मुझे सड़क पर साइकिल पर बैठे देख लिया। मुझे ढंग से चलानी नहीं आती थी। ढलान पर जा रहा था। पैडल तक नहीं मार पाता था। उनकी नजरों में जब मैं पड़ा तो सीधा आगे निकल गया।  उनकी नजर से ओझल होने के बाद आगे जब साइकिल रोकी, तो फिर से मैं बुरी तरह गिर गया था। शायद पिताजी ने यही सोचा कि मुझे साइकिल चलानी आ गई। जुलाई का महीना था। तब देहारादून में कई दिन की लगातार बारिश होती थी। एक दिन पिताजी मुझे साइकिल दिलाने दर्शन लाल चौक तक ले गए। तीन सौ छह रुपये आफिस से ऋण लिया था। साधारण साइकिल का रंग पसंद किया। चार घंटे लगे खरीदने में। तब दुकान में आर्डर देने के बाद रिम में स्पोक लगाने, फ्रेम में पहिये जोड़ने, चेन लगाने, हैंडल फिट करने आदि सारा काम किया जाता था। इस काम में तीन से चार घंटे लगते थे। यानि साइकिल खरीदने में भी चार घंटे का इंतजार।
जब दुकान गए तब दोपहर के 12 बज रहे थे। जब साइकिल मिली तब शाम के चार बज गए। दोपहर में चटख धूप थी। शाम को बारिश पड़ने लगी। साइकिल खरीदने के बाद पिताजी ने कहा कि वह बस से घर जाएंगे। मुझे साइकिल लेकर उन्होने किनारे-किनारे चलाने को कहा। वह बस अड्डे की तरफ चले गए। दुकान से हमारा घर राजपुर रोड पर चार किलोमीटर से अधिक दूर था। कई स्थानों पर खड़ी चढ़ाई भी थी। मैं पैदल-पैदल साइकिल लेकर चलने लगा। बारिश तेज हो गई। साइकिल खरीदने का मेरा उत्साह कम होने लगा। एक किलोमीटर तक चलने के बाद मेरी हिम्मत जवाब देने लगी। साइकिल का हैंडल किसी भारी बोझ का प्रतीत होने लगा। कई बार मुझे खुद पर रोना भी आया। साथ ही इंद्रदेव को भी कोसता रहा। किसी तरह घर पहुंचा। थकान से बुरा हाल था। घर में नई साइकिल देखकर सभी भाई बहन खुश थे। इस साइकिल के घऱ पहुंचने के बाद मेरा साइकिल का सपना साकार हुआ। इसी से मेरे तीसरे नंबर की बहिन और मैं साइकिल चलाना भी सीखे। इस साइकिल ने मेरा काफी समय तक साथ दिया। साथ ही मेरे कंधों पर एक बड़ी जिम्मेदारी भी आ गई। वह थी घर का सारा सामान बाजार से लाने की। जो बचपन में आई और आज तक जारी है।    (जारी)

                                                                                                          भानु बंगवाल

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