जीते जागते सोचो तो ख्वाब। नींद में देखो तो सपना। सच ही है कि ख्वाब में व्यक्ति का अपना जोर भी चलता है, लेकिन सपने में नहीं। ख्वाब देखकर उसे साकार करने की भी व्यक्ति चेष्टा करता है। व्यक्ति ख्वाब अपनी चाहत का ही देखता है। पर सपना तो कुछ भी हो सकता है। बचपन से मैं ख्बाव भी देखता रहा और सपने भी। ख्वाब में कई बार तो कल्पना करते व्यक्ति बड़बड़ता भी है। ऐसे मौके पर उसे देखने वाला दूसरा व्यक्ति सिरफिरा समझने की भूल कर सकता है। सपने में भी कई बार व्यक्ति बड़बड़ता है। उसे सिरफिरा नहीं समझा जाता।
सपने भी कमाल के होते हैं। संयोगवश कई बार सपनों का लिंक हकीकत से भी जुड़ जाता है। एक दिन मैंने सपने में गोली चलने की आवाज सुनी। फिर देखा कि दो व्यक्ति एक व्यक्ति को इस तरह से उठाकर ले जा रहे हैं, जैसे उसके नीचे कुर्सी हो। यह व्यक्ति ठाकुर था, जो एक कर्मचारी नेता है। उसे सभी ठाकुर साहब कहते हैं। सपने देखा कि उसे गोली लगी थी। कपड़े खून से सने थे। मां की आबाज के साथ सुबह सपना भी टूटा और नींद भी खुली। सपने को मैं भूल गया। दोपहर समाचार तलाशने कलक्ट्रेट गया तो ठाकुर साहब नजर आए। उनके हाथ में दो नाली बंदूक थी। मैने इससे पहले ठाकुर साहब को बंदूक के साथ नहीं देखा था। सपना देखा तो उनके पास जाकर पूछ ही लिया। तब उन्होंने बताया कि बंदूक का लाइसेंस रिन्यूअल कराने कचहरी आया हूं। मैने इसे संयोग ही माना। इसी तरह एक बार सपने में किताब पढ़ते हुए पन्नों के बीच बड़ा सा मोर का पंख मिला। बचपन में अक्सर हम मोर पंख को किताब में रखते थे। तब बच्चे कहते थे कि ऐसा करने में विद्या आती है। सुबह उठकर जब ऑफिस जाने लगा तो सड़क पर मोरपंख से बनी झाड़ू बेचता एक व्यक्ति नजर आया। सपना याद आते ही मैने भी उससे एक छोटी सी झाड़ू खरीदी। इन सपनों का रहस्य मैं आज तक नहीं जान पाया।
मार्च माह बीतने को है। गरमियां शुरू होने को है। इन दिनों पेड़ों में फूल खिल रहे हैं। जंगल व बगीचों में इनसे छनकर आने वाली हवा भी एक मिठास का अहसास कराती है। रात को नींद भी गहरी आती है। साथ ही आते हैं सपने। सपनों में मैं अक्सर उस समय के देहरादून को देखता हूं, जब मैं छोटा था। वही, टिन की छत का किराए का मकान। घर के आसपास घना जंगल। आम, लीची व अमरूद के बगीचे। खाली व सूनी सड़कें। कभी कभार मोटर कार का नजर आना। सडक किनारे हरियाली, फलों से लदे पेड आदि।
गरमियों में अंतिम दिन की परीक्षा समाप्त होने के बाद हमारा बगीचों में जाकर छोटे-छोटे आम को तोड़ना। बगीचे के रखवाले का डंडा लेकर पीछे पड़ना। फिर दौड़ लगाकर बच्चों का भागना। आज शहर भी वही है। हरे-भरे जंगल की खूबसूरती को कंक्रीट से जंगलों ने लील लिया। बच्चों को बगीचे दिखाने के लिए मुझे कई किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। आज के बच्चों को शायद ही ऐसे सपने आते होंगे। क्योंकि उन्होंने वो सब नहीं देखा। वे तो कंप्यूटर गेम के सपने देखते हैं, उसमें लड़ते हैं और बड़बड़ाते हैं।
भानु बंगवाल
सपने भी कमाल के होते हैं। संयोगवश कई बार सपनों का लिंक हकीकत से भी जुड़ जाता है। एक दिन मैंने सपने में गोली चलने की आवाज सुनी। फिर देखा कि दो व्यक्ति एक व्यक्ति को इस तरह से उठाकर ले जा रहे हैं, जैसे उसके नीचे कुर्सी हो। यह व्यक्ति ठाकुर था, जो एक कर्मचारी नेता है। उसे सभी ठाकुर साहब कहते हैं। सपने देखा कि उसे गोली लगी थी। कपड़े खून से सने थे। मां की आबाज के साथ सुबह सपना भी टूटा और नींद भी खुली। सपने को मैं भूल गया। दोपहर समाचार तलाशने कलक्ट्रेट गया तो ठाकुर साहब नजर आए। उनके हाथ में दो नाली बंदूक थी। मैने इससे पहले ठाकुर साहब को बंदूक के साथ नहीं देखा था। सपना देखा तो उनके पास जाकर पूछ ही लिया। तब उन्होंने बताया कि बंदूक का लाइसेंस रिन्यूअल कराने कचहरी आया हूं। मैने इसे संयोग ही माना। इसी तरह एक बार सपने में किताब पढ़ते हुए पन्नों के बीच बड़ा सा मोर का पंख मिला। बचपन में अक्सर हम मोर पंख को किताब में रखते थे। तब बच्चे कहते थे कि ऐसा करने में विद्या आती है। सुबह उठकर जब ऑफिस जाने लगा तो सड़क पर मोरपंख से बनी झाड़ू बेचता एक व्यक्ति नजर आया। सपना याद आते ही मैने भी उससे एक छोटी सी झाड़ू खरीदी। इन सपनों का रहस्य मैं आज तक नहीं जान पाया।
मार्च माह बीतने को है। गरमियां शुरू होने को है। इन दिनों पेड़ों में फूल खिल रहे हैं। जंगल व बगीचों में इनसे छनकर आने वाली हवा भी एक मिठास का अहसास कराती है। रात को नींद भी गहरी आती है। साथ ही आते हैं सपने। सपनों में मैं अक्सर उस समय के देहरादून को देखता हूं, जब मैं छोटा था। वही, टिन की छत का किराए का मकान। घर के आसपास घना जंगल। आम, लीची व अमरूद के बगीचे। खाली व सूनी सड़कें। कभी कभार मोटर कार का नजर आना। सडक किनारे हरियाली, फलों से लदे पेड आदि।
गरमियों में अंतिम दिन की परीक्षा समाप्त होने के बाद हमारा बगीचों में जाकर छोटे-छोटे आम को तोड़ना। बगीचे के रखवाले का डंडा लेकर पीछे पड़ना। फिर दौड़ लगाकर बच्चों का भागना। आज शहर भी वही है। हरे-भरे जंगल की खूबसूरती को कंक्रीट से जंगलों ने लील लिया। बच्चों को बगीचे दिखाने के लिए मुझे कई किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। आज के बच्चों को शायद ही ऐसे सपने आते होंगे। क्योंकि उन्होंने वो सब नहीं देखा। वे तो कंप्यूटर गेम के सपने देखते हैं, उसमें लड़ते हैं और बड़बड़ाते हैं।
भानु बंगवाल
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