करवाचौथ के व्रत का महिलाओं को बेसब्री से इंतजार रहता है। इस दिन के लिए खास कपड़े व आभूषण पहनने का प्रचलन है। पूरा श्रंगार कर महिलाएं देवी का रूप धारण करती हैं। यही नहीं उस दिन पति की भी पूछ होती है। मेरा तो मानना है कि यह त्योहार साल में एक बार न आए, बल्कि हर दिन मनाया जाए। भले ही त्योहार मनाने का तरीका ब्रत रखना न हो, लेकिन इस दिन की तरह सुबह अच्छी हो, दोपहर ठीक रहे और शाम भी अच्छी। एक दूसरे को चिढा़ने वाले काम न हों। एक दूसरे की भावनाओं को तव्वजो दी जाए। एक दूसरे के काम में हाथ बंटाया जाए। यदि ऐसा हर दिन हो तो शायद इन ब्रत या त्योहारों की जरूरत ही न पड़े।
खैर शादी के बाद से ही मेरी पत्नी भी करवाचौथ का ब्रत रखती है। मुझे इस दिन कुछ खास नजर नहीं आता। क्योंकि मेरी दिनचर्या इस दिन भी उसी तरह रहती है, जैसी हर दिन की होती। हां सिर्फ एक अंतर जरूर रहता है कि मेरी पत्नी इस दिन जब ब्रत खोलती है तो मेरे साथ में खाना खाती है। अन्य दिनों में मैं जब घर पहुंचता हूं, तो अक्सर वह सो चुकी होती है। काम ही ऐसा है कि रात साढ़े दस या 11 बजे के बाद ही काम निपटता है। घर पहुंचते-पहुंचते कई बार तो तारीख भी बदल जाती है। कई बार यह करवाचौथ के दिन भी हो चुका है। जब शादी हुई तो पत्नी इंतजार करती और भूखी रहती थी। फिर मैने समझाया कि वह खाना खा लिया करे। फिर भी नहीं मानी। जब मेरी माताजी ने भी उसे टोका कि कब तक इंतजार में भूखी रहेगी, तब उसने मुझसे पहले खाना खाना शुरू किया। धीरे-धीरे यह उसकी आदत में शुमार हो गया। रात को घर देर से पहुंचने पर, जब वह सोई होती है तो मैं खुद ही अपना खाना गरम करके खा लेता हूं। यदि जागी रहती है तो वही परोसती है। फिर छुट्टी के दिन या फिर त्योहार के दिन हम एकसाथ बैठकर ही खाना खाते हैं।
तब मेरी शादी के करीब चार साल हो चुके थे। तब मेरा एक ही बेटा था। जो करीब तीन साल का था। इत्तेफाक से करवाचौथ के दिन मेरी छुट्टी थी। ऐसे में पत्नी काफी उत्साहित थी। उसने दोपहर को आस-पडो़स की महिलाओं को एकत्र कर घर में ही कहानी सुनने व पूजा आदि के लिए बुलाया। आदतन मैं छुट्टी के दिन घर के पैंडिंग कामकाज निपटाता हूं। घर की सफाई, बाजार से सामान लाना, बिजली, पानी की फिटिंग में यदि कोई खराबी है तो उसे दूर करना, छोटे-छोटे ऐसे कामों को मैं खुद ही निपटाता हूं। महिने की शुरूआत थी। घर का राशन खत्म हो रहा था। ऐसे में जब दोपहर को कथा निपटी तो मैने पत्नी से कहा कि घर का राशन ले आते हैं। फिर एक सप्ताह बाद समय मिलेगा। शायद तब तक राशन समाप्त हो चुका होगा।
इस पर हमने दाल, चावल, चीनी आदि की लिस्ट बनाई और देहरादून के मोती बाजार स्थित उस दुकान की तरफ चल दिए, जहां से हम महीने का राशन लेते थे। स्कूटर में सामान काफी आ जाता था। पीछे पत्नी बैठकर कुछ थेलों में रखे सामान को पकड़ लेती थी। बेटा भी साथ चलने की जिद कर रहा था। इस पर उसे भी स्कूटर में आगे खड़ा कर मैं पत्नी को लेकर दुकान तक पहुंच गया। उस दिन करवाचौध होने के कारण दुकान तक जाने में हमें पापड़ बेलने पड़ गए। बाजार में हर सड़क पर भीड़ थी। जगह-जगह जाम लगा था। सड़क पर मेहंदी ही मेंहदी की खुश्बू आ रही थी। जमीन पर बैठे मेंहदी लगाने वालों के इर्दगिर्द महिलाओं की भीड़ थी। चूड़ी की दुकानों के आगे तो ऐसी मारामारी हो रही थी कि जैसे मुफ्त में चूड़ियां बंट रही हों।
लालाजी की दुकान से सामान लिया। इसमें काफी सामान स्कूटर की डिग्गी व आगे की टोकरी में रख दिया। एक बड़ा थैला पकड़कर पत्नी पीछे बैठ गई। 25 किलो का चावल का कट्टा मैने स्कूटर में आगे के फर्श पर फंसा दिया। बेटे को पीछे ही बैठाया और स्कूटर को ट्रक के अंदाज में सामान से ठूंसकर हम घर की तरफ को चल दिए। दुकान से करीब सौ कदम आगे चूड़ियों की दुकानें थी। वहीं पर सबसे बड़ा जाम लगा हुआ था। यह जाम करीब पचास मीटर के दायरे तक था। इस दूरी को पार करने में हमें पौन घंटा लग गया। तब तक शाम होने लगी थी। भीड़ लगातार बढ़ रही थी। हम दोनों पछता रहे थे कि आज के दिन क्यों बाजार आए। हमें धक्के लग रहे थे। स्कूटर चलने की बजाय लुड़क रहा था। किसी तरह हम घर पहुंचे। घर में जाकर लिस्ट से सामान का मिलान किया, लेकिन चावल का कट्टा गायब था। वो शायद कहीं भीड़ में गिर गया था। फिर इस उम्मीद में कि कहीं सड़क पर कट्टा पड़ा मिल जाए, मैं उसी रास्ते से वापस लाला की दुकान तक पहुंचा, जिस रास्ते से घर आया था। मेरा प्रयास विफल रहा। दुकान में लालाजी को मैने चावल का कट्टा गिरने की बात बताई। फिर दोबारा से 25 किलो चावल तोलने को कहा। लालाजी ने चावल तोले, मैने पैसे दिए, लेकिन उन्होंने प्रति किलोग्राम चावल का रेट पहले से एक रुपये कम लगाया। इस रेट पर वह तब तक मुझे चावल देते रहे, जब तक मेरे नुकसान की भरपाई नहीं हो गई।
भानु बंगवाल
खैर शादी के बाद से ही मेरी पत्नी भी करवाचौथ का ब्रत रखती है। मुझे इस दिन कुछ खास नजर नहीं आता। क्योंकि मेरी दिनचर्या इस दिन भी उसी तरह रहती है, जैसी हर दिन की होती। हां सिर्फ एक अंतर जरूर रहता है कि मेरी पत्नी इस दिन जब ब्रत खोलती है तो मेरे साथ में खाना खाती है। अन्य दिनों में मैं जब घर पहुंचता हूं, तो अक्सर वह सो चुकी होती है। काम ही ऐसा है कि रात साढ़े दस या 11 बजे के बाद ही काम निपटता है। घर पहुंचते-पहुंचते कई बार तो तारीख भी बदल जाती है। कई बार यह करवाचौथ के दिन भी हो चुका है। जब शादी हुई तो पत्नी इंतजार करती और भूखी रहती थी। फिर मैने समझाया कि वह खाना खा लिया करे। फिर भी नहीं मानी। जब मेरी माताजी ने भी उसे टोका कि कब तक इंतजार में भूखी रहेगी, तब उसने मुझसे पहले खाना खाना शुरू किया। धीरे-धीरे यह उसकी आदत में शुमार हो गया। रात को घर देर से पहुंचने पर, जब वह सोई होती है तो मैं खुद ही अपना खाना गरम करके खा लेता हूं। यदि जागी रहती है तो वही परोसती है। फिर छुट्टी के दिन या फिर त्योहार के दिन हम एकसाथ बैठकर ही खाना खाते हैं।
तब मेरी शादी के करीब चार साल हो चुके थे। तब मेरा एक ही बेटा था। जो करीब तीन साल का था। इत्तेफाक से करवाचौथ के दिन मेरी छुट्टी थी। ऐसे में पत्नी काफी उत्साहित थी। उसने दोपहर को आस-पडो़स की महिलाओं को एकत्र कर घर में ही कहानी सुनने व पूजा आदि के लिए बुलाया। आदतन मैं छुट्टी के दिन घर के पैंडिंग कामकाज निपटाता हूं। घर की सफाई, बाजार से सामान लाना, बिजली, पानी की फिटिंग में यदि कोई खराबी है तो उसे दूर करना, छोटे-छोटे ऐसे कामों को मैं खुद ही निपटाता हूं। महिने की शुरूआत थी। घर का राशन खत्म हो रहा था। ऐसे में जब दोपहर को कथा निपटी तो मैने पत्नी से कहा कि घर का राशन ले आते हैं। फिर एक सप्ताह बाद समय मिलेगा। शायद तब तक राशन समाप्त हो चुका होगा।
इस पर हमने दाल, चावल, चीनी आदि की लिस्ट बनाई और देहरादून के मोती बाजार स्थित उस दुकान की तरफ चल दिए, जहां से हम महीने का राशन लेते थे। स्कूटर में सामान काफी आ जाता था। पीछे पत्नी बैठकर कुछ थेलों में रखे सामान को पकड़ लेती थी। बेटा भी साथ चलने की जिद कर रहा था। इस पर उसे भी स्कूटर में आगे खड़ा कर मैं पत्नी को लेकर दुकान तक पहुंच गया। उस दिन करवाचौध होने के कारण दुकान तक जाने में हमें पापड़ बेलने पड़ गए। बाजार में हर सड़क पर भीड़ थी। जगह-जगह जाम लगा था। सड़क पर मेहंदी ही मेंहदी की खुश्बू आ रही थी। जमीन पर बैठे मेंहदी लगाने वालों के इर्दगिर्द महिलाओं की भीड़ थी। चूड़ी की दुकानों के आगे तो ऐसी मारामारी हो रही थी कि जैसे मुफ्त में चूड़ियां बंट रही हों।
लालाजी की दुकान से सामान लिया। इसमें काफी सामान स्कूटर की डिग्गी व आगे की टोकरी में रख दिया। एक बड़ा थैला पकड़कर पत्नी पीछे बैठ गई। 25 किलो का चावल का कट्टा मैने स्कूटर में आगे के फर्श पर फंसा दिया। बेटे को पीछे ही बैठाया और स्कूटर को ट्रक के अंदाज में सामान से ठूंसकर हम घर की तरफ को चल दिए। दुकान से करीब सौ कदम आगे चूड़ियों की दुकानें थी। वहीं पर सबसे बड़ा जाम लगा हुआ था। यह जाम करीब पचास मीटर के दायरे तक था। इस दूरी को पार करने में हमें पौन घंटा लग गया। तब तक शाम होने लगी थी। भीड़ लगातार बढ़ रही थी। हम दोनों पछता रहे थे कि आज के दिन क्यों बाजार आए। हमें धक्के लग रहे थे। स्कूटर चलने की बजाय लुड़क रहा था। किसी तरह हम घर पहुंचे। घर में जाकर लिस्ट से सामान का मिलान किया, लेकिन चावल का कट्टा गायब था। वो शायद कहीं भीड़ में गिर गया था। फिर इस उम्मीद में कि कहीं सड़क पर कट्टा पड़ा मिल जाए, मैं उसी रास्ते से वापस लाला की दुकान तक पहुंचा, जिस रास्ते से घर आया था। मेरा प्रयास विफल रहा। दुकान में लालाजी को मैने चावल का कट्टा गिरने की बात बताई। फिर दोबारा से 25 किलो चावल तोलने को कहा। लालाजी ने चावल तोले, मैने पैसे दिए, लेकिन उन्होंने प्रति किलोग्राम चावल का रेट पहले से एक रुपये कम लगाया। इस रेट पर वह तब तक मुझे चावल देते रहे, जब तक मेरे नुकसान की भरपाई नहीं हो गई।
भानु बंगवाल