Wednesday, 31 October 2012

करवाचौथः कड़वा अनुभव का सुखद अहसास

करवाचौथ के व्रत का महिलाओं को बेसब्री से इंतजार रहता है। इस दिन के लिए खास कपड़े व आभूषण पहनने का प्रचलन है। पूरा श्रंगार कर महिलाएं देवी का रूप धारण करती हैं। यही नहीं उस दिन पति की भी पूछ होती है। मेरा तो मानना है कि यह त्योहार साल में एक बार न आए, बल्कि हर दिन मनाया जाए। भले ही त्योहार मनाने का तरीका ब्रत रखना न हो, लेकिन इस दिन की तरह सुबह अच्छी हो, दोपहर ठीक रहे और शाम भी अच्छी। एक दूसरे को चिढा़ने वाले काम न हों। एक दूसरे की भावनाओं को तव्वजो दी जाए। एक दूसरे के काम में हाथ बंटाया जाए। यदि ऐसा हर दिन हो तो शायद इन ब्रत या त्योहारों की जरूरत ही न पड़े।
खैर शादी के बाद से ही मेरी पत्नी भी करवाचौथ का ब्रत रखती है। मुझे इस दिन कुछ खास नजर नहीं आता। क्योंकि मेरी दिनचर्या इस दिन भी उसी तरह रहती है, जैसी हर दिन की होती। हां सिर्फ एक अंतर जरूर रहता है कि मेरी पत्नी इस दिन जब ब्रत खोलती है तो मेरे साथ में खाना खाती है। अन्य दिनों में मैं जब घर पहुंचता हूं, तो अक्सर वह सो चुकी होती है। काम ही ऐसा है कि रात साढ़े दस या 11 बजे के बाद ही काम निपटता है। घर पहुंचते-पहुंचते कई बार तो तारीख भी बदल जाती है। कई बार यह करवाचौथ के दिन भी हो चुका है। जब शादी हुई तो पत्नी इंतजार करती और भूखी रहती थी। फिर मैने समझाया कि वह खाना खा लिया करे। फिर भी नहीं मानी। जब मेरी माताजी ने भी उसे टोका कि कब तक इंतजार में भूखी रहेगी, तब उसने मुझसे पहले खाना खाना शुरू किया। धीरे-धीरे यह उसकी आदत में शुमार हो गया। रात को घर देर से पहुंचने पर, जब वह सोई होती है तो मैं खुद ही अपना खाना गरम करके खा लेता हूं। यदि जागी रहती है तो वही परोसती है। फिर छुट्टी के दिन या फिर त्योहार के दिन हम एकसाथ बैठकर ही खाना खाते हैं।
तब मेरी शादी के करीब चार साल हो चुके थे। तब मेरा एक ही बेटा था। जो करीब तीन साल का था। इत्तेफाक से करवाचौथ के दिन मेरी छुट्टी थी। ऐसे में पत्नी काफी उत्साहित थी। उसने दोपहर को आस-पडो़स की महिलाओं को एकत्र कर घर में ही कहानी सुनने व पूजा आदि के लिए बुलाया। आदतन मैं छुट्टी के दिन घर के पैंडिंग कामकाज निपटाता हूं। घर की सफाई, बाजार से सामान लाना, बिजली, पानी की फिटिंग में यदि कोई खराबी है तो उसे दूर करना, छोटे-छोटे ऐसे कामों को मैं खुद ही निपटाता हूं। महिने की शुरूआत थी। घर का राशन खत्म हो रहा था। ऐसे में जब दोपहर को कथा निपटी तो मैने पत्नी से कहा कि घर का राशन ले आते हैं। फिर एक सप्ताह बाद समय मिलेगा। शायद तब तक राशन समाप्त हो चुका होगा।
इस पर हमने दाल, चावल, चीनी आदि की लिस्ट बनाई और देहरादून के मोती बाजार स्थित उस दुकान की तरफ चल दिए, जहां से हम महीने का राशन लेते थे। स्कूटर में सामान काफी आ जाता था। पीछे पत्नी बैठकर कुछ थेलों में रखे सामान को पकड़ लेती थी। बेटा भी साथ चलने की जिद कर रहा था। इस पर उसे भी स्कूटर में आगे खड़ा कर मैं पत्नी को लेकर दुकान तक पहुंच गया। उस दिन करवाचौध होने के कारण दुकान तक जाने में हमें पापड़ बेलने पड़ गए। बाजार में हर सड़क पर भीड़ थी। जगह-जगह जाम लगा था। सड़क पर मेहंदी ही मेंहदी की खुश्बू आ रही थी। जमीन पर बैठे मेंहदी लगाने वालों के इर्दगिर्द महिलाओं की भीड़ थी। चूड़ी की दुकानों के आगे तो ऐसी मारामारी हो रही थी कि जैसे मुफ्त में चूड़ियां बंट रही हों।     
 लालाजी की दुकान से सामान लिया। इसमें काफी सामान स्कूटर की डिग्गी व आगे की टोकरी में रख दिया। एक बड़ा थैला पकड़कर पत्नी पीछे बैठ गई। 25 किलो का चावल का कट्टा मैने स्कूटर में आगे के फर्श पर फंसा दिया। बेटे को पीछे ही बैठाया और स्कूटर को ट्रक के अंदाज में सामान से ठूंसकर हम घर की तरफ को चल दिए। दुकान से करीब सौ कदम आगे चूड़ियों की दुकानें थी। वहीं पर सबसे बड़ा जाम लगा हुआ था। यह जाम करीब पचास मीटर के दायरे तक था। इस दूरी को पार करने में हमें पौन घंटा लग गया। तब तक शाम होने लगी थी। भीड़ लगातार बढ़ रही थी। हम दोनों पछता रहे थे कि आज के दिन क्यों बाजार आए। हमें धक्के लग रहे थे। स्कूटर चलने की बजाय लुड़क रहा था। किसी तरह हम घर पहुंचे। घर में जाकर लिस्ट से सामान का मिलान किया, लेकिन चावल का कट्टा गायब था। वो शायद कहीं भीड़ में गिर गया था। फिर इस उम्मीद में कि कहीं सड़क पर कट्टा पड़ा मिल जाए, मैं उसी रास्ते से वापस लाला की दुकान तक पहुंचा, जिस रास्ते से घर आया था। मेरा प्रयास विफल रहा। दुकान में लालाजी को मैने चावल का कट्टा गिरने की बात बताई। फिर दोबारा से 25 किलो चावल तोलने को कहा। लालाजी ने चावल तोले, मैने पैसे दिए, लेकिन उन्होंने प्रति किलोग्राम चावल का रेट पहले से एक रुपये कम लगाया। इस रेट पर वह तब तक मुझे चावल देते रहे, जब तक मेरे नुकसान की भरपाई नहीं हो गई।
भानु बंगवाल

Sunday, 28 October 2012

क्या करें कि ना करें....

बढ़ती महंगाई पर एक गाना मुझे अक्सर याद आता है। यह गाना है- क्या करें कि ना करें, ये कैसी मुश्किल हाय। सच ही तो है कि सुरसा की तरह मुंह फैला रही इस महंगाई में तो मुझे हर सुबह से लेकर शाम तक यही गाना याद आता रहता है। बच्चों की लंबाई बड़ रही है, लेकिन मुझे खुशी होने की बजाय महंगाई में यही चिंता सताती रहती है कि उनके सारे कपड़े छोटे होते जा रहे हैं। कैसे चलेगी ये जिंदगानी। इसी चिंता में मुझ जैसे आम आदमी का हर दिन बीतता है।
छुट्टी के दिन घर में लोग आराम फरमाते हैं, लेकिन मेरी सुबह का काफी समय बच्चों की सर्दी की स्कूल की ड्रेस आलमारी से निकालने में ही व्यतीत हो गया। बड़ा बेटा नवीं क्लास में है। उसकी लंबाई एक साल में इतनी बड़ी कि मुझसे भी लंबा हो गया। उसके घर से लेकर बाजार जाने वाले सारे कपड़े छोटे पड़ गए। छोटे पड़ने वाले इन कपड़ों में सर्दी की स्कूल ड्रेस भी शामिल थी। मैने स्कूल ड्रेस में शर्ट, कोट, स्वैटर में यह गुंजाईश तलाशी कि नीचे से खोलकर उन्हें कुछ लंबा कर दिया जाए। मेरा यह प्रयास भी विफल रहा। बेटे की लंबाई इतनी बड़ चुकी थी कि तीन ईंच तक कोई भी चीज लंबी नहीं हो सकती थी। एकसाथ उसके लिए सारे कपड़े लेने का मेरे पास बजट नहीं था। ऐसे में मैने अपनी कुछ जैकिट व शर्ट जो टाइट थी उसे पहने को दी। ताकी वह घर में तो काम चला सके। फिर पत्नी व बच्चों को लेकर चल दिया उसके लिए स्कूल के कपड़े लेने। रास्ते में ख्याल आया कि आजकल देहरादून में विरासत नाम से ट्रेड फेयर चल रहा है। बच्चों को वहां ले जाऊंगा तो वे खुश हो जाएंगे। बजट सीमित था, तय हुआ कि वहां कोई खरीददारी नहीं करेंगे। मेले से बाहर पार्किंग में मोटर साइकिल खड़ी की। पार्किंग वाले को दस का नोट दिया तो वह बोला कि नोट फटा है। मैने उसे सौ का नोट पकड़ा दिया। तभी उसने कहा कि दस का दे दो सौ के खुले नहीं है। वह बातों में मुझे उलझा रहा था। उसने रसीद तक नहीं दी। मैने रसीद मांगी तो उसने कहा कि मोटर साइकिल का पेट्रोल ऑफ कर दो। मैने पेट्रोल ऑफ किया, तो वह तब तक बच्चों को पर्ची पकड़ाकर आगे निकल चुका था। उसने मुझे सो रुपये वापस नहीं किए थे और दस रुपये भी ले गया। मुझे इसका ख्याल आया तो पार्किंग में खड़े तीन-चार युवाओं में उसे पहचानना भी मुश्किल होने लगा। सभी एक ही सूरत के नजर आ रहे थे। फिर भी मैं अंदाजे से एक युवक के पास गया और उससे सौ रुपये मांगे। पहले वह बोला मैने दे दिए। जब मैने उससे कहा कब दिए, बातों में उलझाकर तुम गायब हो गए, तब अपने हाथ में रखे नोटों के बीच मेरा सौ का नोट तलाशने लगा। उसे जो नोट मैने दिया था वह फोल्ड हो रखा था। उसे वह पहचान भी गया। यह तो गनीमत थी कि उसने वापस कर दिया और मेरा सौ का नोट जाते-जाते बचा। मेरा आधा मूड वहीं खराब होने लगा। फिर भी मैं मेले में गया। वहां घूमते ही हर स्टाल पर लालच आ रहा था। चीनी मिट्टी के सजावटी आयटम के आगे मेरा दस वर्षीय बेटा अक्सर खड़ा हो जाता और मेरी सांसे अटक जाती। मुझे यही डर सताता कि कहीं कोई वस्तु उसके धक्के से टूट न जाए। फिर कुछ खरीदो नहीं, लेकिन टूट-फूट के पैसे जरूर भरो। लकड़ी की आयटम तीन हजार से तीन लाख के बीच थी। मैं लकड़ी की सस्ती चीज तलाश रहा था, वो मिल भी गई। वो थी नींबू निचोड़ने वाली वस्तु। मुझे पता नहीं उसे क्या कहते हैं। जूस की दुकानों में दिखती है। बीस रुपये की कीमत वाली यह वस्तु मेले में सबसे सस्ती थी। जब महंगाई हमें निचोड़ रही हो, तो हम सिर्फ नींबू तो निचोड़ सकते हैं। वहां तो खाने की भी कोई आयटम बीस रुपये की नहीं थी। तभी पत्नी बेड शीट देखने लगी। फिर उसका मन रखने के लिए मुझे खरीदनी पड़ी। तभी हमें अहसास हुआ कि हम घर से निकले तो बेटे की स्कूल ड्रेस को थे। कहीं ऐसा न हो कि सारी जेब यहीं खाली हो जाए और ड्रेस लेना छूट जाए। ड्रेस तो जरूरी है। उसके बगैर बेटे को स्कूल के गेट के भीतर एंट्री तक नहीं मिलेगी। मन मसोसकर हम बाजार को चल दिए। मेले में तब तक सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो चुके थे। संगीत की सुर लहरियों के बीच कलाकार नृत्य कर रहे थे। मंच पर बताया गया कि कार्यक्रम में भोजपुरी गायक मनोज तिवारी अपने जलवें बिखेरेंगे। इसके विपरीत मेरी आंखों के आगे कलाकार की बजाय स्कूल ड्रेस पहने बच्चे नाच रहे थे। ऐसे में मैने मेला परिसर से बाहर निकलने में ही भलाई समझी। पार्किंग में पहुंचकर मुझे यह सुखद अहसास हुआ कि आज भी मेरी मोटरसाइकिल अपनी जगह सलामत खड़ी है। नहीं तो मैं यह गाना गाने की स्थिति में भी नहीं रहता कि क्या करें कि ना करें।.......
भानु बंगवाल

Saturday, 27 October 2012

शादी का हुल्लड़ और मैमसाब की गाली....

शादियों का सीजन आया और निपट भी गया। यदि अपने परिवार की शादी न हो तो पता ही नहीं चलता कि कब शादी आई और कब निपट गई। महंगाई की मार भले ही आम आदमी पर पड़ती नजर आ रही है, लेकिन शादी में अभी ज्यादा दिखाई नहीं देती। फिर भी विवाह सामारोह फटाफट क्रिकेट की भांति होने लगे हैं। इसका कारण लोग शादी में भले ही पैसे खर्च करने में कंजूसी नहीं बरतते हैं, लेकिन उनके पास समय की कमी जरूर हो गई है। तभी तो शादी से कई दिन पहले की परंपराएं अब सिर्फ नाम की रह गई हैं।
दुखः व सुख के आयोजन व परंपराओं का एक फायदा तो यह भी नजर आता है कि इस बहाने वर्षों के बाद कई लोगों से मुलाकात हो जाती है। वर्ना कई बार तो किसी के बारे में यह भी पता नहीं होता कि वह कहां और किस हाल में होगा। शादी का आयोजन तो है ही ऐसा कि इसमें पुराने लोगों से मुलाकात ताजा हो जाती है, साथ ही नए संबंध बनते हैं व नए लोगों से पहचान भी होती है। वर्षों पहले और वर्तमान की शादियों में तुलना करें तो काफी अंतर नजर आएगा। पहले शादी के मौके पर कई दिनों से घर में उत्सव का माहौल रहता था। घर में कई दिन से महिलाओं की ढोलकी बजने लगती थी। समारोह में पूरा मोहल्ला कामकाज में जुट जाता था। तब खानपान की वस्तुएं सीमित होती थी। आजकल शादी के मौके पर सिर्फ एक दिन पहले लेडिज संगीत के नाम पर परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है। इसमें भी महिलाएं कम गाती हैं और डीजे ज्यादा बजता है। खानपान की वस्तुओं की लिस्ट लंबी होती जा रही है। आधा खाना तो बेकार होने पर समारोह निपटने के अगले दिन फेंका ही जाता है। अब संगीत के नाम पर डीजे बजता है या फिर आर्केस्ट्रा का आयोजन होता है। फिर भी आजकल वो मजा नहीं रहा, जो करीब तीस या चालीस साल पहले शादियों में नजर आता था। बारातियों को चिढ़ाना, उनको चिढ़ाने वाले गाने गाना। कितना भी चिढ़ा लो, लेकिन बरातियों का बुरा न मानना सभी कुछ तो था तब। अब ऐसी कम ही शादी नजर आती हैं, जहां बाराती चिढ़ाने लायक बचे हों। कई बार तो दुल्हे से लेकर पूरी बारात नशे में धुत्त नजर आती है। ऐसे में लड़की पक्ष वालों की चिंता यही रहती है कि कहीं कोई विवाद न हो। किसी तरह दोनों तरफ के मेहमान जल्द खाना खाकर अपने घर चले जाए।
चलिए मैं आपको एक टाइम मशीन में बैठाकर करीब पैंतीस साल पहले की एक शादी में ले चलता हूं। देहरादून में मेरी बड़ी बहन की शादी थी। पिताजी ने अपनी क्षमता के अनुसार कार्ड बांटे। लोगों को बुलाया। मोहल्ले के लोग हर छोटी-बड़ी मदद को तैयार थे। सबसे पहले पिताजी को चिंता थी कि चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी कहां से आएगी। निकट की राष्ट्रपति आशिया में रह रहे सेना के जवान ने एक सूखा पेड़ को काटने की अनुमति दे दी। पेड़ से लकड़ी काटने के लिए कहीं से मजदूर नहीं बुलाए गए। मोहल्ले के युवाओं ने ये काम खुद ही किया। घर में लकड़ियों का ढेर लग गया। करीब एक सप्ताह से मोहल्ले की युवतियां व महिलाएं घर में जुटने लगी। जो दिन भर मिठाई, मठरी व अन्य सामग्री बनाने में मदद करती थी। शाम को महिलाएं ढोलकी  बजाकर शादी के उत्सव को मजेदार बना रही थी। इसमें ज्यादातर वे गाने ही गाए जाते थे, जो सास व बहू की तरकार और आपसी खींचतान वाले होते थे। समीप ही राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान था। वहां के प्रशिक्षु दृष्टिहीन संगीत में दक्ष थे। इनमें से कुछ को बारात वाले दिन का आमंत्रण देने के साथ ही यह जिम्मेदारी भी सौंपी गई थी कि बारात आने के बाद वे ढोलक, हारमोनियम आदि के साथ संगीत की सुर लहरियां छेड़कर बारात का मनोरंजन करेंगे।
घर में हर दिन होने वाले लेडिज संगीत में दो चरित्र ऐसे भी थे, जो उन दिनों सबके आकर्षण का केंद्र थे। इनमें एक दृष्टिहीन महिला थी, जिसे बहादुर की पत्नी के नाम से जाना जाता था। वह हर शाम लेडिज संगीत में शामिल होती। गाने गाती और ज्यादा उत्साहित होने पर अपने स्थान पर खड़े होकर नाचने लगती। उसके नृत्य को हम तब भालू डांस कहते थे, क्योंकि वह एक ही स्थान पर कूदती थी। जिसे देखकर खूब हंसी छूटती।
दूसरी थी मैमसाब। नाम था मैमसाब, लेकिन गरीब ईसाई महिला थी। पति दृष्टिहीन था, लेकिन दृष्टि के लिहाज से खुद सामान्य थी और देख सकती थी। एक पांव उसका कमजोर था। इसलिए या तो पैर घिसड़कर चलती या फिर लचकाकर चलती थी। मैमसाब को मैने कभी चप्पल पहने नहीं देखा। नंगे पांव ही वह चलती थी। दिमाग से कुछ कमजोर जरूर थी। आवाज कड़क थी, लेकिन कुछ तोतलापन था। मैमसाब का रंग गौरा था। उसके पति का नाम गोरेलाल था, लेकिन रंग गाढ़ा काला था। वह दृष्टि बाधितार्थ संस्थान में कपड़ा बुनने की खड्डी चलाता था। जब औलाद नहीं हुई तो मैमसाब ने उसकी दूसरी शादी करा दी। दूसरी पत्नी हरना दृष्टिहीन थी और घर में ही रहती थी। भले ही नाम मैमसाब था, लेकिन उसका हाल हरना व गोलेराल की नौकरानी का हो गया। दोनों का खाना बनाना। घर की अन्य सुविधाएं जुटाना सभी कुछ उसका काम था। हरना घर में ही बैठी रहती और कुछ नहीं करती। ये अलग बात है कि हरना से भी गोरेलाल की संतान नहीं हुई।
मैमसाब दिल की साफ थी। अच्छा बुरा जानती थी। लोग भड़काते कि हरना से भी काम कराया कर, लेकिन वह भड़काने वालों को भी करारा जवाब देती। शादी से कुछ दिन पहले से ही मैमसाब घर आ रही थी। गाना गा नहीं सकती थी तो ताली ही पीटकर मनोरंजन करती। शादी वाले दिन बारात आई। टैंट के नीचे बाराती बैठे थे। तभी किसी को याद आया कि बारातियों को तंग करने वाले गाने नहीं गाए जा रहे हैं। किसी व्यक्ति ने कहा कि महिलाएं कहां हैं, बारात आ गई है और अभी तक बारातियों को गाली नहीं दी गई। तब गाली से तात्पर्य उन गानों से होता था जो बारितियों को छेड़ने के लिए गाए जाते थे।
जैसे- थोड़ा खाइयो रे बाराती, थोड़ा खाइयो रे, 
पेट फट जाएगा, डॉक्टर नहीं आएगा
मैमसाब ने सुना कि गाली देने का वक्त आ गया है और कोई गाली नहीं दे रहा है। पहुंच गई सीधे टैंट से पीछे और शुरू हो गई-साले, हराम, कूत्ते, बाराती.........। तभी एक महिला ने सुना और मेमसाब की गलती का अहसास होने पर वह दौड़ते हुए  मेमसाब के पास गई। बाराती ऐसी अनोखी गाली न सुने इसलिए उसने मैमसाब का मुंह दबा दिया। आज इस दुनियां में न गोरेलाल है और न ही हरना और मैमसाब। साथ ही उस तरह की शादी भी नहीं दिखाई देती, जिसके आयोजन में पूरा मोहल्ला कई दिनों से जुट जाता था। बची हैं तो सिर्फ तब की यादें।....हां इतना जरूर है कि मैमसाब का धर्म आज पढ़े-लिखे, समझदार, सूट-कोट में शामिल वे बाराती निभाते नजर आते हैं, जो शराब के नशे में चूर रहते हैं।...... 
भानु बंगवाल
            

Thursday, 25 October 2012

जन्मदिनः अनोखा गिफ्ट, रहो फिट......

अपने जन्मदिन को लेकर किसी को कई दिन से इंतजार रहता है, वहीं जन्मदिन में शामिल होने वालों को भी इस दिन का इंतजार रहता है। कई भाई तो ऐसे हैं कि जिन्हें न तो अपना ही जन्मदिन याद रहता है और न ही वे दूसरों का याद रखते हैं। इस दुनियां में अलग-अलग तरह के लोग हैं। कोई जन्मदिन मनाता है तो कोई चुपचाप से जन्मदिन वाला दिन काट लेता है।
मेरे ऑफिस में एक मित्र कवि भी हैं। वह जब किसी से बात कर रहे होते हैं तो उनका पता ही नहीं चलता कि वे कहां शब्दों की मार कर रहे हैं। जिस पर उनका इशारा रहता है कई बार तो वह भी नहीं समझ पाता कि उसके संदर्भ में बात कही गई है। कुछ दिन पहले तक वह रात को घर जाते समय आवारा कुत्तों से परेशान थे। रास्ते में एक जगह ऐसी पड़ती थी कि वहां कुत्ते उनका इंतजार करते रहते थे। जैसे ही मित्र उधर से गुजरते कुत्ते भी काफी दूर तक उनकी मोटर सायकिल का पीछा करते। एक दिन मित्र काफी खुश दिखाई दिए। मैने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि अब कुत्तों ने तंग करना बंद कर दिया है। वे मुझे पहचानने लगे हैं। ये बात उन्होंने ऐसे मौके पर कही, जिस समय आफिस में उनकी खिंचाई होती थी। अब उन्होंने कहां इशारा किया वही जाने। एकदिन मित्र देरी से ऑफिस पहुंचे। उनके माथे पर टीका लगा था। जब साथियों ने कारण पूछा तो पहले वह बात को  घुमाते रहे। फिर उन्होंने सच बता ही दिया कि आज मेरा जन्मदिन है। आनन-फानन मित्र को गिफ्ट का प्रबंध किया जाने लगा। एक कुछ खुरापाती सहयोगियों की चौकड़ी बैठी। उसमें यह तय किया जा रहा था कि कवि मित्र को जन्मदिन में क्या गिफ्ट दिया जाए। किसी ने पैन-डायरी का सुझाव दिया तो किसी ने कहा कि यह प्रचलन पुराना हो गया है। कुछ ऐसा गिफ्ट दिया जाना चाहिए, जिसका वह ज्यादा से ज्यादा दिन तक हर रोज उपयोग कर सकें। ऐसी क्या चीज हो सकती है। इसके लिए मित्र की दैनिक दिनचर्या को टटोला गया। रात को आफिस से देर से जाने के कारण देर से सोते हैं और सुबह देर से उठते हैं। जब उठते हैं तब मार्निंग वॉक का समय भी नहीं रहता। सूरज चढ़ जाता है। ऐसे में नहाने-धोने के बाद चाय नाश्ता लेकर सीधे ऑफिस दौड़ते हैं। यही तो है एक पत्रकार की जिंदगी। चलना तो होता नहीं, ऐसे में पेट भी बाहर निकलने लगता है। ऊपर से मित्र का यह 47 वां जन्मदिन था। खुरापातियों की चौकड़ी ने गिफ्ट तय कर लिया और बाजार से ले आए। मित्र को गिफ्ट दिया गया। उन्होंने उसे उसी समय खोल दिया। गिफ्ट देखकर वह हैरान थे। शायद उन्हें गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन बोले कुछ नहीं। गिफ्ट था ही ऐसा। सेहत को फिट रखने के लिए कूदने के लिए रस्सी (स्कीपिंग रोप), पहनने के लिए सपोटर (लंगोट) उनके गिफ्ट पैक में निकले। गिफ्ट मिला तो मित्र ने भी मिठाई की बजाय सभी को नमक के रूप में ढोकला खिलाया। जन्मदिन बीत गया तीन दिन-चार दिन बाद मित्र कुछ फुर्तीले नजर आने लगे। उन्होंने बताया कि भले ही मजाक में मित्रों ने उन्हें गिफ्ट दिया, लेकिन उनके लिए वह उपयोगी साबित हो रहा है। उठते ही वह रस्सी कूद रहे हैं। इसका असर उनकी सेहत पर भी दिखने लगा। वह तहेदिन से ऐसाअनोखा गिफ्ट देने वालों का धन्यबाद करते हैं।
भानु बंगवाल   

Monday, 22 October 2012

सब कुछ छोटा तो बड़ा क्या.....

शादियों का सीजन चल रहा है, तो घर में शादी के कार्ड के ढेर भी लग रहे हैं। जिस तरह महंगाई निरंतर बढ़ रही है, उसी तरह शादी के आमंत्रण भी बढ़ रहे हैं और बजट भी गडबड़ा रहा है। रविवार की सुबह मेरी नजर एक कार्ड पर पड़ी। यह कार्ड हमारे गांव के किसी सज्जन के बेटे की शादी का था। सज्जन भी सालो से सपरिवार देहरादून रह रहे हैं। या यूं कहें कि जब से नौकरी लगी होगी, तब से यहीं बस गए। गांव में तो उनका खुशी के समारोह या फिर दुख के मौके पर ही मेरी तरह आना जाना होता है। मेरी पत्नी व बच्चों ने सिर्फ एक बार भी अपना गांव देखा है। यह मौका भी चाचाजी की तेहरवीं का था। शहर से जब भी कोई परिचित देहरादून या आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने आता है और यदि मेरे पास समय होता है तो मैं भी उनके साथ जरूर जाता हूं। ऐसा कभी कभार ही हो पाता है। एक बार दशहरे के मौके पर मेरा भांजा दिल्ली से देहरादून आया। उसने मुझे साथ लेकर मसूरी घूमने की इच्छा जताई। इत्फाकन उस दिन मेरी छुट्टी थी। मैं भी चल दिया। स्कूटर से दोनों मामा-भांजे मसूरी व आसपास के गांवों में घूमे। पहाड़ों में पगडंडी वाले छोटे खेत देखकर वह नहीं चौंका, लेकिन जब उसने उन खेतों में छोटे-छोटे हल के साथ जोते गए छोटे-छोटे बैलों की जोड़ी देखी, तो उसका चौंकना स्वाभाविक था। मैने उसे समझाया का पहाड़ की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहां हल, बैल, गाय, सांड सभी छोटे होते हैं। मैने कहा कि ऐसे मवेशी को पहाड़ी गाय या पहाड़ी सांड कहना अनुचित नहीं होगा। आसपास घूमने के बाद हम मसूरी के मुख्य बाजार में आ गए। पिक्चर पैलेस की तरफ से दशहरे व रामलीला के उत्सव की शोभायात्रा निकल रही थी। छोटे -छोटे वाहनों पर झांकियां सजाई गई थी। शाभायात्रा को देखने के लिए काभी भीड़ थी। हम किताबघर की तरफ को चले। पहले वहां रावण दहन होना था, फिर पिक्चर पैकेज के पास मैदान में दूसरा रावण दहन होना था।
किताबघर के पास गांधी चौक पहुंचकर हमें भीड़ में कहीं रावण का पुतला नहीं दिखाई दिया। कारण यह था कि भीड़ में पुतला हमें नजर नहीं आ रहा था। मेरा भांजा मुझसे लंबा था। इस पर वह बोला मामा यहां तो पहाड़ी मवेशी की तरह पहाड़ी रावण है। यानी रावण का पुतला भी काफी छोटा है। इसलिए वह भीड़ में नजर नहीं आ रहा। मैं कुछ पीछे हटा और तब ऊंचाई वाले स्थान से पुतले को देखने का प्रयास किया तो देखा कि चौक के पास प्रतिकात्मक स्वरूप काफी छोटा पुतला खड़ा गया था। आसपास होटल व दुकानें थी। उनकी फ्रंट साइड पर शीशे लगे थे। ऐसे में रावण के भीतर हल्की आवाज वाले छोटे पटाखे भरे हुए थे, जिससे रावण दहन के दौरान आसपास के भवनों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। संक्षिप्त रावण दहरन हुआ उसी में ही लोगों ने आनंद उठया।
बात शादी से शुरू हुई, बीच में दशहरा व रावण आ गया। चलो फिर से शादी की बात पर ही चलते हैं। शादी के कार्ड में हमें सपरिवार बारात का निमंत्रण था। रविवार की दोपहर दो बजे देहरादून से बारात टिहरी जनपद के चंबा कस्बे से सटे एक गांव में जानी थी। छुट्टी के कारण मेरे बड़े बेटे व्योम (14 वर्ष) ने भी बारात में जाने की इच्छा जाहिर की। उसका कहना था कि उसने ढंग से गढ़वाल नहीं देखा है। मैने उसे समझाया पहाड़ में गाय, हल, बैल, खेत सभी छोटे होते हैं। घर भी छोटे व दुकान भी छोटी, सड़को पर बस भी छोटी होती है। उसके दिमाग में यही बैठ गया। जिस घर से बारात चलनी थी, वहां मैं बेटे के साथ समय से आधा घंटा पहले ठीक डेढ़ बजे पहुंच गया। जब ढाई बजे तक भी मुझे बारात चलने की कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आई, तो खाली बैठे-बैठे बेचैनी होने लगी। तभी मैने महसूस किया कि दुल्हा तो कहीं नजर नहीं आ रहा है। इस पर मैने एक व्यक्ति से पूछा, तो उसने बताया कि दूल्हा तो वीडीओ की परीक्षा देने गया है। दो बजे पेपर समाप्त हो गया होगा। अब आता ही होगा। करीब पौने तीन बजे दुल्हा पेपर देकर घर पहुंचा। तब तैयारी शुरू हुई और पांच बजे जाकर बारात रवाना हुई।  
जब चंबा पहुंचे, उस समय रात के आठ बज चुके थे। ऐसे में अंधेरे में शहर का नजारा ले  नहीं सके। जब बस से उतरे तो पहाड़ का पारंपरिक वाद्य ढोल, दमऊ, मशकबीन वाले खड़े थे। हमारे पहुंचते ही उन्होंने धुन छेड़ दी। शहर की तरह बैंड बाजे नहीं थे। जो बैंड वाले थे, उनके पास भी ढोल व झुनझुने थे। बैड-बाजा की जगह एक व्यक्ति के कंधे में लगी बैल्ट के सहारे छोटा सा कैसियो हारमोनियम टंगा था। साथ ही एक 12 वोल्ट की छोटी बैटरी भी उसने कंधे से लटकाई हुई थी। उस बैटरी के करंट से कैसियो को बजा रहा था। साथ ही उसमें आवाज को बढ़ाने के लिए छोटा या भौंपू (हॉर्न या लाउडस्पीकर) जुड़ा हुआ था। इस वीराने में वाद्य यंत्रों की आवाज भी एक सीमित दायरे में गूंज रही थी। सड़क से काफी गहराई में संकरी पगडंडियों से चलकर बारात आगे बढ़नी थी। इसलिए शादी में शहर की तरह तामझाम घोड़ा, बग्गी आदि कुछ नहीं था, क्योंकि वह वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के चलते ये संभव नहीं था। पहाड़ में संकरी पगडंडियों में बारात ढलान की तरफ उतर रही थी। दूल्हे को छोटी सी  पालकी (डोली) में बैठा गया। वह भी पलाथी मारकर बैठा। डोली को कंधे में चार लोगों ने उठा रखा था। कई जगह रास्ते की चौड़ाई एक या सवा फुट ही थी। ऐसे में बाराती भी छोटे-छोटे सधे कदम से दायें-बायें की बजाय आगे पीछे होकर डांस  कर रहे थे। जहां बारात पहुंची वहां छोटे से खेत में छोटा सा पंडाल। पंडाल में आगे छोटा सा गेट। पंडाल के नीचे बैठने के लिए कम स्थान घेरने वाली छोटी-छोटी प्लास्टिक की कुर्सियां। दूल्हे के बैठने के लिए छोटा का स्टेज, उस पर छोटी की वैडिंग कुर्सी। छोटा सा वीडियो कैमरा लेकर विवाह समारोह की मूवी बना रहे युवक के हाथ में छोटी सी फ्लेश लाइट। एक छोटी सी छत पर अलग से लगा पंडाल। वहां छोटी-छोटी टेबलों में खानपान की व्यवस्था। भोजन में भी सीमित वस्तुएं। सचमुच शहरों के आडंबर से दूर एक अनौखा अनुभव रहा मेरा इस विवाह समारोह में। मेरा बैटा मेरे से पूछने लगा कि पापा यहां रह चीज छोटी-छोटी है। बड़ा क्या है। मैने उसे बताया कि यहां बड़ा है यहां के लोगों की सादगी, उनका दिल। तभी तो मेहमान नवाजी के लिए लड़की वालों ने सीमित संसाधनों में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। बाघिन सी सर्दी वाले इस छोटे से शहर में मेहमनों के सोने के लिए भी छोटे से होटल में सोने का प्रबंध भी किया गया था।
भानु बंगवाल 

Wednesday, 17 October 2012

पंडितजी कहिन....

पितृ विसर्जन की सुबह सात बजे पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक पंडित गोदियाल जी घर पहुंच गए। हर साल पिताजी का श्राद्ध अमावस्या के दिन पड़ता है। मैं अलसुबह ही तर्पण आदि के कार्य को निपटाने के बाद ड्यूटी पर रवाना हो जाता हूं। इस बार आखरी श्राद्ध के दिन अमावस्या पड़ी। पंडितजी आए, उन्होंने तर्पण कराते समय मुझसे व मेरे भाई से विभिन्न मुद्राओं में बैठाकर पूजा की। पितरों को याद करवाया। पूजा के बहाने हमारी कसरत हो गई। कभी घुटनों के बल बैठो, कभी पलाथी मारकर। कभी पूर्व दिशा, तो कभी पश्चिम। यानि शारीरिक कसरत व पितरों को याद करके मानसिक कसरत दोनों हो हो गई। पूजा करीब पौन घंटे में निपट गई। फिर पंडित जी ने सवाल किया कि आपकी लोकसभा कौन सी है। मैने बताया कि टिहरी है। हाल ही में इसमें उपचुनाव हुए थे, जहां कांग्रेस के कब्जे वाली इस सीट पर भी महंगाई का असर रहा। कांग्रेस हारी और भाजपा जीत गई। पंडितजी बोले कौन से भाजपा भी कुछ नया कर लेगी। सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। पहले ये बताओ कि आपका गांव किस लोकसभा में पड़ता है।
मुझे पंडितजी के सवाल समझ नहीं आ रहे थे। वह बार-बार मेरी लोकसभा क्यों पूछ रहे हैं। मैने उन्हें बताया कि मेरा गांव पौड़ी लोकसभा में पड़ता, भले ही गांव टिहरी जनपद में है। इस पर पंडितजी ने कहा कि आगामी लोकसभा की वोटर लिस्ट में अपना व परिवार के वोटरों का नाम गांव से ही दर्ज कराना। मैने कारण पूछा तो वह हंसने लगे। पंडितजी से सुबह-सुबह लोकसभा व चुनाव की बात सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा था। उनका पंडिताई का कारोबार काफी फैला हुआ है। दो से तीन मोबाइल फोन साथ लेकर चलते हैं। यजमान अब किसी भी कर्मकांड के लिए फोन से ही संपर्क करते हैं। सुबह से लेकर शाम तक यजमानों के घर ही दौड़ते हैं। ज्यादा व्यस्तता में वह हर घर तक नही पहुंच पाते हैं, तो यह काम उनके चेले भी करते हैं। उनके चेलों की लंबी सूची है। यानी एक घर में पंडितजी व दूसरे घरों में चेले। चेले भी उनके परिवार के लोग हैं। जिन्हें उन्होंने ब्रह्मावृति के जरिये रोजगार दे रखा है। पंडितजी पढ़े लिखे हैं, ज्ञानी हैं, क्योंकि वह कई धार्मिक पुस्तक भी लिख चुके हैं। दक्षिणा दो तो कम होने पर भी वह नाक भौं नहीं सिकोड़ते हैं। इसलिए वह लालची भी नहीं हैं। 
मैने मामूली दक्षिणा दी। यजमान के घर भोजन वह करते नहीं। किस-किस के घर करेंगे, क्योंकि एक दिन में वह दस से पाचस घर में जो दौड़ लगाते हैं। ऐसे में मैने एक परिवार में एक दिन के हिसाब से बनने वाले भोजन के लिए आटा, दाल,चावल, मसाले, घी, तेल आदि समस्त सामग्री दान में दी। साथ ही पंडितजी को एक कमीज पैंट व पंडिताइन के लिए साड़ी भी दी। ये तो श्रद्धा है। किसी व्यक्ति को ही भगवान मानकर मैं उसे दान देने पर विश्वास रखता हूं। मेरे जैसे लोगों की दक्षिणा पर ही उसका घर चलता है। जब मौका होता है, तो वह कमाई भी खूब करते हैं, कई बार उन्हें खाली भी बैठना पड़ता है।
दक्षिणा देते समय पंडितजी बोले- इस बार दक्षिणा में राशि मत दो। मैं यही चाहूंगा  कि आप अपने गांव में जाकर वहां की मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराओ। यही मेरी दक्षिणा होगी। पंडितजी की रहस्यमयी बातें मेरी समझ से बाहर थी। मैं अज्ञानी उनके ज्ञान को समझने का प्रयास कर रहा था। मैने कहा कि पहली मत बुझाओ और साफ-साफ बताओ कि क्या माजरा है। तभी मैं आपकी बातों पर विचार करूंगा। इस दौरान पंडितजी को यजमानों के मोबाइल फोन भी आ रहे थे। वह उनके यहां अपने चेलों को भेजने का प्रबंध भी फोन से ही कर रहे थे। पंडितजी बोले कि मैने वर्ष 2014 का लोकसभा का चुनाव लड़ने का निर्णय किया है। पौड़ी सीट से चुनाव लड़ना है और अभी से तैयारी में जुटा हूं। पंडितजी के मुख से चुनाव की बात सुनकर मेरे पैर के नीचे से धरती खिसकने लगी। मैने कहा कि ये राजनीति तो भ्रष्ट लोगों के लिए है। आप तो सीधे-साधे व्यक्ति हो। चुनाव लड़ना आसान नहीं है। अंटी में काली कमाई का पैसा होना चाहिए। कम से कम एक करोड़ हों तो लोकसभा चुनाव लड़ने की सोचो। नहीं तो दूर दराज के गांव में मतदाताओं को यह भी पता नहीं चलेगा कि आप भी चुनाव मैदान में हो। पंडितजी बोले मैं बगैर पैसे के लड़ के दिखाऊंगा। आज राजनीतिक दलों के लोग भ्रष्टाचार में फंसते जा रहे हैं। जनता उनसे नफरत करने लगी है। अरविंद केजरीवाल जैसे लोग नेताओं की कलई खोल रहे हैं। ऐसे में जनता को ईमानदार व्यक्ति ही चाहिए। यदि इसी तरह पोल खुलती रही, तो ईमानदार व्यक्ति आने वाले समय में ढूंढे नहीं मिलेगा। मैने कभी भ्रष्टाचार नहीं किया। मेरी यजमानों में अच्छी साख है। वही मुझे चुनाव भी जिताएंगे।
मैने पंडितजी को समझाने का प्रयास किया कि राजनीति ऐसा दलदल है कि इसमें ईमानदार व्यक्ति डूब जाता है। भ्रष्टाचारी ही इसमें तैरना जानता है। ये आपके बस की बात नहीं। मैने उत्तराखंड में पिछले लोकसभा चुनाव का उदाहरण दिया। तब चमोली की एक विधानसभा से पंडितजी भी खड़े हुए थे। पहले यजमानों से उन्हे ताड़ के पेड़ पर चढ़ाया, जब वोट देने की बात आई, तो नीचे गिरा दिया। मैने बताया कि रही बात भ्रष्टाचार की। जतना भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने पर मजा लेती है। चर्चा करती है, लेकिन जब वोट की बारी आती है तो फिर वही लोग जीत जाते हैं, जिन्हें पांच साल तक हम गाली देते आते हैं। यदि ऐसा न होता तो चारा घोटाले के आरोपी आज राजनीति में कहीं दिखाई नहीं देते, जेल में बंद होने वाले राजा भैया जेल मेंत्री नहीं बनते। इसी तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं।
पंडितजी को तो लोकसभा की राह आसान लग रही थी। उन्होंने कहा कि मैं बहस में नहीं पड़ना चाहता। मैने जो कहा वो करो। तभी मेरे भाई ने सवाल किया कि किस दल से चुनाव लड़ोगे। आपको कौन सा दल टिकट देगा। इस पर पंडितजी बोले, दलों को तो लोगों ने परख लिया। मैं तो अपने बूते निर्दलीय लड़ूंगा। जीत जाऊंगा तो मंत्री बनने के भी चांस हैं। पंडितजी की बातों से मुझे यही लगा कि आज जिस  कदर भ्रष्टारार के माले सामने आ रहे हैं, उससे आम व्यक्ति त्रस्त हो गया है। उसे किसी पर अब विश्वास नहीं रहा कि वह देश का भला कर सकेगा। यही दशा आम आदमी की भी है और पंडितजी की भी। वह खुद पर ही विश्वास जता कर आगे आना चाहते हैं। पंडितजी तो चले गए, लेकिन मैं यही सोचता रह गया कि जैसी कल्पाना वह कर रहे हैं, काश वह सच साबित होती।
भानु बंगवाल  

Monday, 15 October 2012

जैसा बोया, वही कट रहा...

मित्र बनाने की कला भी हरएक के पास नहीं होती। कई लोग मित्र बनाते हैं, तो उसमें उनका कहीं न कहीं स्वार्थ जुड़ा होता है। इसके उलट कई ऐसे होते हैं जो निस्वार्थ भाव से मित्र बनाते चले जाते हैं और उनकी मित्रों की सूची भी काफी लंबी होती है। जरूरी नहीं कि ऐसे लोग ऊंचे पद, प्रतिष्ठा वाले ही हो सकते हैं। एक साधारण व्यक्ति भी अपने व्यवहार से संबंध कमाता चला जाता है। ऐसे व्यक्तियों को न तो दौलत का ही लालच होता है और न ही उनका कोई स्वार्थ इसमें जुड़ा होता है। उनके लिए तो उनकी पूंजी ही समाज में कमाए गए उनके संबंध ही होती है। जो किसी सेठ, नेता या धर्म गुरु के पास भी नहीं होती, जिनके पीछे भीड़ चलती है।
ऐसे ही एक लक्ष्मण नाम के व्यक्तित्व से मैं परिचित हूं, जिसे मैं बचपन से ही जानता हूं। उसे लोग लच्छू के नाम से पुकारते हैं। मुझसे करीब दस साल बड़ा लच्छू छोटे से ही घर के कामकाज में अपनी माता का हाथ बंटाता था। उसका व्यवहार अन्य लड़कों से अलग था। एक भाई उससे बड़ा था, फिर दो बहने, फिर एक और भाई। बच्चे मैदान में खेल रहे होते तो लच्छू घर में खाना पकाने, गाय व भैंसों का चारा जंगल से लाने आदि काम में व्यक्त रहता। खाली समय में उसके हाथ में ऊन का गोला व सलाइयां भी होती। वह परिवार के किसी सदस्य या आस-पडो़स के किसी व्यक्ति के लिए स्वैचर बुन रहा होता। यानी जो काम महिलाएं करती थी, उसमें भी वह दक्ष था। इसलिए बच्चे उसे लच्छू दीदी कहकर भी चिढ़ाते थे।
लच्छू अपने से छोटे व बड़ों सभी की इज्जत करता था। हमारे मोहल्ले के साथ ही दूसरे मोहल्ले के लोगों में भी वह जाना पहचाना चेहरा था। जो उसके दिल में होता, वही जुबां पर रहता। इससे उसे हरएक पसंद करता था। क्योंकि वह जिस घर में जाता, उस घर के किसी सदस्य को काम करते देखकर उसके काम में हाथ बंटाने लगता। महिलाएं तो उसे काफी पसंद करती थी। यहां तक उससे अपने घर परिवार के दुख तक बयां कर देती। या यूं कहें कि वह दुख व सुख में सभी का साथी था। परिवार में अन्य भाई बहन की पढ़ाई तो ठीक चली, लेकिन लच्छू की पढ़ाई ज्यादा नहीं चल सकी। खाली समय में लच्छू लोगों के घर जाता, लोगों की कुशलता पूछता, लोगों के छोटे बड़े काम करता, यही था उसका जीवन जीने का तरीका।
जब लच्छू बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता को यह चिंता सताने लगी कि वह क्या करेगा, कैसे अपने पांव खड़ा होगा। अभी माता पिता के सहारे अपना पेट पाल रहा है, बाद में वह क्या करेगा। क्या गाय व भैंस पालकर उसके जीवन की गाड़ी चल जाएगी। इस चिंता को भी लच्छू ने दूर कर दिया। घर-घर में उसका जाना था। एक चिकित्सक की पत्नी ने उसे सरकारी अस्पताल में वार्ड ब्वाय की नौकरी दिला दी और वह अपने पैर पर भी खड़ा हो गया।
नौकरी के बावजूद भी उसने गो सेवा नहीं छोड़ी। साथ ही विवाह भी नहीं किया। अपने बड़े भाई की एक बेटी का खर्च उठाने का उसने संकल्प लिया, जिसे वह निभा भी रहा है। मैने आज तक लच्छू को शराब, बीड़ी का सेवन करते नही देखा और न ही किसी से झगड़ा करते। हाल ही में एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ी तो अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां चिकित्सकों ने बताया कि उसे दिल का दौरा पड़ा है। जिसे लच्छू के बीमार होने की सूचना मिली, वही अस्पताल में देखने दौड़ा चला आया। उसे देखने वालो का अस्पताल में तांता लगा रहा। जब अस्पताल से छुट्टी मिली तो उसके घर पर लोगों का तांता लगा है। शायद किसी नेता के बीमार होने पर भी इतने लोग उसके हालचाल पूछने नहीं आते होंगे, जितने लच्छू के लिए दुआ मांगने वाले थे। मैने लच्छू के छोटे भाई से पूछा कि लच्छू के बीमार है और अभी उसे आराम की सलाह दी गई है, ऐसे में उसकी गाय का क्या हुआ। इस पर उसके भाई का जवाब था कि लच्छू ने जो संबंध लोगों से बनाए हैं, उसका फायदा अब मिल रहा है। मोहल्ले में जिन लोगों के पास अपनी गाय है, वे लच्छू की गाय के लिए भी चारा लाकर दे रहे हैं। ऐसा करीब दो माह से चल रहा है। ऐसे में गाय के चारे पानी की कोई कमी नहीं है। सही तो कहा गया कि जैसे बोओगे, वैसा ही काटोगे।
भानु बंगवाल

Saturday, 13 October 2012

आदर्श की अग्निपरीक्षा

व्यक्ति को उत्तम जीवन जीने के लिए आदर्शवादी बनने की प्रेरणा बचपन से ही दी जाती है। अभिभावक हों या फिर गुरु। सभी ऐसे उदाहरण व कहानी सुनाते हैं, जिससे सुनने वाला प्रेरित हो और आदर्शवादी जीवन जीने के लिए हर संभव प्रयास करे। बताया जाता है कि बुरा मत सोचो, बुरा मत बोलो, दूसरों का बुरा मत करो, बुरा मत देखो, हर समय अच्छा ही सोचो, तो अच्छा होगा। ये आदर्श राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के थे। उनके विचार थे, जिनसे प्रेरणा लेने की हर कोई बात कहता है। स्वामी दयानंद हों या फिर स्वामी विवेकानंद। पत्रकार मदन मोहन मालवीय हों या फिर भारतेंदु हरिशचंद्र। या फिर वे राजनेता जो घर का सुख चैन छोड़कर देश की आजादी के आंदोलन में कूद गए। उनका एकमात्र लक्ष्य देश को आजाद कराना था। आजादी के बाद लक्ष्य देश का विकास हो गया। समाज से अशिक्षा, कुरितियों को दूर करना ही ऐसी महान विभूतियों का आदर्श था। इन आदर्शों की ही हम बात करते हैं। किसी को सही राह में चलने के लिए ऐसे ही उदाहरण दिए जाते हैं। समय के साथ वे पात्र बदलते रहते हैं, जिनके उदाहरण दिए जाते हैं। प्रयास यही होता है कि ताजा उदाहरण देकर ही किसी को आगे बढ़ने की शिक्षा दी जाए। वर्तमान में ऐसे उदाहरण अब दिन के उजाले में चिराग लेकर तलाशने निकलो तो भी खोजने मुश्किल हो जाएं।
समाज को सूचना देना, शिक्षित करना, मनोरंजन करना आदि उद्देश्यों को लेकर शुरू हुई पत्रकारिता भी अब व्यवसाय बन चुकी है। ऐसे में इस विधा को आदर्श का नाम देना बेमानी होगा। आदर्श का पाठ पढ़ाने वाला शायद ही कोई पत्रकार अपने बच्चों को पत्रकार बनने के लिए प्रेरित करता हो। शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। गुरुजन भी व्यावसायिक होते जा रहे हैं।  फिर क्या समाज का आदर्श जनसेवक हैं। जनसेवक तो जनता की सेवा से ज्यादा अपना पेट मोटा करने में लगे हैं। साथ ही अब विवादों में घिरे रहना उनकी आदत में शामिल हो गया। तभी तो उनकी जुबां से निकले शब्दों के तीर हर किसी को आहत करने वाले होते हैं। जो कहने से पहले यह तक नहीं सोचते कि वे क्या कह रहे हैं और उसका असर क्या पड़ेगा।
ऐसे ही आदर्शवादी व्यक्ति के आदर्श पर चलने वाली एक महिला की कहानी मैने गढ़ी है। जिसे बचपन से ही यह शिक्षा दी जाने लगी कि उसकी सीमाएं क्या हैं। घर की देहरी लांघना उसके लिए आसान नहीं है। किसी दूसरे पुरुष या अजबनी से घुलमिलकर बात करना उसे प्रतिबंधित है। पढ़ाई के साथ घर का कामकाज निपटना ही उसका कर्तव्य है। उसके भाई भले ही दिन भर मटरगश्ती करें, लेकिन वह शालिनता से रहे। वह पराया धन है। दूसरे घर में जाना है। वहां जाकर सास-ससुर की सेवा करना है। पति ही उसका परमेश्वर है। इन बातों को तो उसे सिखाया गया, लेकिन यह नहीं बताया गया कि पति के आदर्शों को ही उसे अपना आदर्श मानना है या नहीं। विवाह के बाद महिला ने पत्नी की बजाय धर्म पत्नी बनने का प्रयास किया। पत का अर्थ गिरना होता है। ऐसे में सिर्फ पत्नी बनकर रहना उसने पसंद नहीं किया। उसकी नजर में पत्नी तो वह है जो पतन की राह पर चले। इसके उलट धर्म पत्नी वह है जो धर्म की राह दिखाए। ऐसे में वह पति को पतन की राह से धर्म की राह पर ले जाने के लिए एक आदर्श धर्मपत्नी बनी। पति के आदर्श तो झूठ, फरेब, बेईमानी व लालच थे। पति नशेड़ी था। पत्नी पति को हर समय एक आदर्शवादी बनने के लिए प्रेरित करती थी। उसे बुराइयों से दूर रहने को कहती और झगड़ा हो जाता। झगड़ा पति से शुरू होता और पत्नी सहन करती। मायके वालों ने पहले ही कह दिया था कि पति ही तेरा परमेश्वर है। उसके साथ ही जीवन निभाना है। एक दिन महिला हिम्मत हार बैठी। समय के साथ तालमेल बिठाते-बिठाते उसे यह अहसास तक नहीं हुआ कि वह अपने पति के आदर्शों पर ही चलने लगी है। उसकी शाम पार्टियों में व्यतीत होने लगी। कभी-कभार जुआ व शराब का दौर भी चल जाता। पति को भी इस पर ऐतराज नहीं था। वह तो एक बड़े नेता थे, जो अपने आदर्शों का बखान कर चुनाव जीतते थे और मंत्री भी बन जाते थे।
एक दिन नेताजी ने एक सम्मेलन में कह दिया कि नई-नई जीत और नई-नई शादी का अलग ही महत्व है। जिस तरह समय से साथ जीत पुरानी पड़ती है, उसी तरह बीवी भी पुरानी होती जाती है और उसमें वह मजा नहीं रह जाता है। नेताजी के बयान पर हो-हल्ला मचा। उन्होंने सफाई भी दी कि कवि सम्मेलन में परिस्थितियों के तकाजे में एक ठहाके पर उन्होंने यह बात कही। इसका गलत अर्थ लगाया गया। वह महिलाओं का सम्मान करते हैं।
बात यहां तक सीमित नहीं रही। पति के आदर्श पर चलने वाली महिला की सहेलियों ने जब उससे इस संबंध में पूछा तो उसका भी जवाब कुछ अलग नहीं रहा। महिला बोली इसमें क्या गलत है। पुराने पति में भी तो वह मजा नहीं रहता। बाद में महिला ने भी कहा कि उसने तो बस ठहाके में यह बात कही है। इसका गलत अर्थ नहीं लगाना चाहिए। वह तो पुरुषों का सम्मान करती है। वह पुरुष को उपभोग की वस्तु नहीं मानती। महिला के मुख से निकले शब्दों के तीर और सफाई ने तो भूचाल खड़ा कर दिया। उसे यह अहसास तक नहीं था कि पति के आदर्शों पर चलते ही उसने जो बात कही और सफाई दी, वह पूरे जीवन उसका पीछा नहीं छोड़ेगी। हर रोज पति से विवाद होने लगा। परिवार व समाज में उसे शक की निगाह से देखा जाने लगा। पति अपने बच्चों को भी शक की दृष्टि से देखने लगा। उनकी शक्ल का खुद से मिलान करने लगा। फिर भी तसल्ली नहीं हुई और उसकी पत्नी की अग्निपरीक्षा का मन बना लिया। ये अग्नि परीक्षा होती ही महिलाओं के लिए है। त्रेता युग में राम ने सीता की क्या अग्नि परीक्षा ली, तब से तो यह चलन ही शुरू हो गया। पुरुषों में तो एक अपवादस्वरूप उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री ही इस परीक्षा से गुजरे और फंस भी गए। महिलाओं को तो हर कदम में ऐसी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। फिर नेताजी की पत्नी कहां बच पाती। पति की जुबां से शब्द निकले तो सिर्फ आलोचना हुई। पत्नी की जुबां से निकले शब्दों ने तो नेताजी को आहत कर दिया। फिर उन्होंने पत्नी की अग्नि परीक्षा कराई। वह यह जानने के लिए डीएनए टेस्ट था कि उनकी औलाद के क्या वह ही वास्तविक पिता हैं या कोई और।....................
नोट-इस ब्लाग की कहानी एक काल्पनिक है। जो कोयला मंत्री के बयान पर आधारित है। इसमें मैने यही बताने का प्रयास किया कि यदि कोई महिला मंत्री की तरह मजाक में कोई व्यंग्य करती तो उसकी क्या दशा होती। यदि किसी को इससे ठेस पहुंचे तो क्षमा प्रार्थी हूं। .....भानु बंगवाल  

Monday, 8 October 2012

मोहब्बत की रामलीला...

एक समय ऐसा था, जब पितृ पक्ष में रामलीला की तैयारी चल रही होती थी। गांव, शहर व मोहल्लों में रामलीला कमेटियों के अंतर्गत इन दिनों रामलीला की रिर्हलसल शुरू हो जाती थी। नवरात्र शुरू होते ही रामलीला भी शुरू होती और दशहरे के आसपास रामलीलाओं का समापन होता। रामलीलाएं आज भी हो रही हैं, लेकिन इनके पंडाल सिमटते जा रहे हैं। इनकी संख्या भी गिनती भर की रह गई है। बचपन में मुझे रामलीला खूब भाती थी। क्योंकि तब टेलीविजन होते नहीं थे। सिनेमा बामुश्किल से छह माह या साल में एक बार ही देखा जाता था। ऐसे में रामलीला के पात्र ही लोगों का आदर्श होते थे। फिल्म के हीरो के बाद रामलीला के पात्रों की भी काफी धाक होती थी। या यूं कहें कि राम व लक्ष्मण की भूमिका निभाने वालों पर युवतियां जान छिड़कती थी। कहते हैं कि व्यक्ति जैसा करता है, सोचता है, वैसा ही बन जाता है। लेकिन, रामलीला के पात्रों के लिए यह अवधारणा मुझे उलट बैठती नजर आई। रामलीला के राम व लक्ष्मण के पात्र आदर्श पुरुषों का चरित्र को निभाने के बाद भी अपने चरित्र में जरा सा बदलाव नहीं ला सके। आम युवाओं की तरह  उनकी आदतें रही। ऐसे में जब मैं बड़ा होने लगा तो मुझे रामलीला कला व संस्कृति को आगे बढ़ाने का ही माध्यम लगी। इसके माध्यम से दी जा रही शिक्षा व समाज में बदलाव की अपेक्षा मुझे बेमानी नजर आने लगी। क्योंकि साल भर हम अच्छा वर्ताव न करें और दिन विशेष पर ही अच्छे बनने की कोशिश करें तो इसका ज्यादा असर नजर नहीं आता है।
उस वक्त रामलीला के कुछ पात्र ऐसे थे, जिनकी डिमांड कई रामलीलाओं में थी। उन्हें एक कमेटी की रामलीला में अभिनय करने के बाद दूसरे गांव की रामलीला में भी अभिनय करना पड़ता था। ऐसे में जब एक स्थान पर चल रही रामलीला का समापन होता तब ही दूसरी रामलीला की शुरूआत होती। अच्छे पात्रों को मेहनताना भी मिलता था।
जब में 12 वीं में पढ़ता था, उस समय देहरादून की एक रामलीला में लक्ष्मण की भूमिका निभाने वाले युवक पर युवतियां काफी आकर्षित होती थी। इस युवक को कई नाम से पुकारा जाता था, लेकिन मुझे उसका एक नाम आज भी याद है । वह नाम था मोहब्बत। युवक हिंदू था, उस पर एक नाबालिक किशोरी फिदा हो गई। वह नवीं में पढ़ती थी। उसकी माता का देहांत हो चुका था। पिता सरकारी नौकरी में थे। उसका बड़ा भाई मेरा मित्र था, जो मुझसे एक साल बड़ा था। भाई तो समझदार था, लेकिन घर में मां न होने के कारण युवती को अच्छा-बुरा समझाने वाला कोई नहीं था। मोहल्ले की महिलाओं की टोली के साथ युवती भी रामलीला देखने जाती। मोहब्बत को यह अहसास हो गया कि युवती उसकी तरफ आकर्षित हो रही है। ऐसे में उसने युवती के घर के आसपास चक्कर लगाने शुरू कर दिए। वह किसी पेड़ या झाड़ी की ओंट से युवती को देखता रहता। दशहरा निपट गया था और बच्चे दीपावाली का इंतजार कर रहे थे। कभी कभार आतिशबाजी भी करते। एक दिन युवती छोटे भाई ने राकेट छोड़ा। यह राकेट घर के निकट झाड़ी की ओंट में छिपे मोहब्बत की आंख में जा लगा। मोहब्बत के परिजनों ने उसे एक नर्सिंग होम में भर्ती कराया। जितने दिन वह अस्पताल में रहा,  उतने दिन युवती स्कूल से घर जाते समय उसे देखने जरूर जाती। साथ ही घर से उसे खाना बनाकर भी ले जाती। दोनों का प्यार पींगे मार रहा था। मोहब्बत को अस्पताल से छुट्टी मिली, लेकिन उसकी एक आंख डॉक्टर भी नहीं बचा पाए।
मोहब्बत अक्सर युवती के घर उस समय ही मिलने जाता, जब उसका बड़ा भाई यानी मेरा मित्र और उसके पिता घर पर नहीं होते। मुझे जब दोनों के बीच प्रेम प्रसंग की बात पता चली तो मैं संकट में पड़ गया कि इसे मित्र को बताऊं या ना बताऊं। फिर मैने मित्र को बताने का निश्चय किया। मैने मित्र को उतना ही बताया, जितना मुझे पता था। अपनी बहन के बारे में मुझसे सुनने के बाद मित्र मेरे से भी चिढ़ गया। उसने मुझसे मिलना जुलना बंद कर दिया। एक दिन मित्र को अपने घर मोहब्बत नजर आया। उसने उसे डांट कर भगा दिया। तभी उसे मेरी बातों पर विश्वास हुआ। उसने अपनी बहन को डांटा, डराया, धमकाया, लेकिन उस पर कोई असर नहीं पड़ा। वह एक दिन अपने कपड़े लेकर घर से भाग गई। हुआ वही, जो अमूमन ऐसे मामलों में होता है। पुलिस में रिपोर्ट कराई गई। मोहब्बत गिरफ्तार हो गया। अदालत में जब बयान का समय आया तो युवती भाई व पिता की ओर से रटाए गए सारे डायलॉग भूल गई। वह मोहब्बत से चिपटकर रोने लगी। उसने यहां तक कह दिया कि जब वह बालिग हो जाएगी, मोहब्त से ही शादी करेगी।
इस प्रेम कहानी का अंत सुखद व दुखद दोनों ही रहे। युवती के भाई व पिता को कुछ लोगों ने समझाया तो वे मान गए। मोहब्बत से उसका विवाह रचा दिया गया। विवाह के पश्चात युवती को कुछ दिनों तक तो ससुराल वालों ने खुश रखा, फिर उस पर अत्याचार होने लगे। मोहब्बत भी हमेशा शराब में डूबा रहता। छोटी उम्र में विवाह। फिर चार बच्चों की मां। इस पर युवती के चेहरे में जल्द ही झुर्रियां पड़ गई। एक दिन वह बाजार में मुझे मिली तो पहले मैं उसे पहचान नहीं सका। उसने ही पहचाना और पैर छुए, फिर परिचय दिया। फिर पुरानी याद आते ही मेरी आंखों के आगे रामलीला के दृश्य नाचने लगे। उसकी हालत देखकर मैं यह भी पूछने का भी साहस तक नहीं कर सका कि कैसी हो। .......
भानु बंगवाल   

Saturday, 6 October 2012

बेईमानी की पाठशाला....

मैं पिछले कई दिनों से देख रहा था कि मांगेराम उदास चल रहे हैं। पहले की तरह वह किसी से ज्यादा नहीं बोलते और न ही समाचार पत्र पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया ही देते। मुझे यह बात काफी अटपटी लग रही थी। जो मांगेराम हर छोटी-बड़ी बात पर बहस का पिटारा खोल देते थे, उनका चुप रहना काफी अजीबोगरीब स्थिति थी। मुझे वह मिले तो मैने उन्हें काफी कुरेदा लेकिन वह चुप्पी का कारण नहीं बता पाए। सिर्फ इतना ही बोले कि यार कहीं ऐसा ट्रेनिंग सेंटर नहीं है, जहां झूठ बोलना व चापलूसी करनी सिखाई जाती हो। मांगेराम जी के मुख से ऐसी बात सुनकर मैं हैरत में पड़ गया। मैने कहा कि आज तुम्हें क्या हो गया है। जो व्यक्ति हमेशा आदर्श की बात करता है, उसे अब चापलूसी व झूठ की जरूरत क्यों पड़ गई। इस पर उनका जवाब था कि अब ईमानदारी से गुजारा नहीं चलता। हर दिन महंगाई बढ़ रही है। लोग एक-दूसरे का गलाकाट कर आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में ईमानदारी की अब आवश्यकता तक नहीं रह गई है। यदि मैंने भी कहीं से बेईमानी का सबक पढ़ा होता तो आज नमक, तेल, गैस सिलेंडर, आटा, चावल के दाम याद करने की जरूरत नहीं पढ़ती।
मैने कहा कि ऐसी कई पाठशालाएं हैं, जहां अभी भी बेईमानी व चापलूसी का पाठ सीखने जा सकते हो। ये पाठशालाएं हैं राजनीतिक दल। किसी दल की सदस्यता ले लो। कर्मठ कार्यकर्ता बन जाओ और देखो हर गुण में आप निपुण हो जाओगे। छोटे दल में जाओगे, तो छोटी बेईमानी सीखोगे, बड़े दल में जाओगे तो बड़ी बेईमानी में महारथ हो जाओगे। साथ ही बिजनेसमैन भी बन जाओगे। क्योंकि राजनीति देश सेवा तो रही नहीं, यह तो एक बिजनेस हो गया है। आज से बीस-तीस साल पुराने विधायकों को देख लो। इनमें कई बेचारे जब इस दुनियां से विदा हुए, तो उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं थी। अब आजकल के नेताओं को देखो राजनीति में आते ही उनकी जेब लगातार भारी होने लगती है। न तो उन्हें नमक, तेल का भाव याद रखना पड़ता है और न ही कोई चिंता रहती है।
मेरे सुझाव पर मांगेराम जी बोले। इस सुझाव पर मैं भी पहले मनन कर चुका हूं, लेकिन नतीजा शून्य नजर आता है। अब मेरी जेब भी इतनी पक्की नहीं है कि वहां अपने पांव जमा लूं। मैने कहा कि राजनीति का जेब से क्या संबंध है। वहां तो समय देना है। झूठ बोलना है और लोगों की सेवा करनी है। इस सेवा के बदले कमीशमन के रूप में मेवा मिलेगा। सारे दुख हमेशा के लिए दूर हो जाएंगे। मांगेराम जी बोले की राजनीति तो सबसे बड़ा बिजनेस बन गई है। इसमें अब हमारे जैसे लोगों की क्या औकात है। हर माह एक न एक घोटाले की खबर पूरे देश में फैलती है। पहले लोग ऐसी खबरों से चौंका करते थे, लेकिन अब यह सामान्य बात नजर आने लगी है। तभी तो सोनिया के दामाद वाड्रा के मालामाल के समचार ने भी उन्हें नहीं चौंकाया।
वह बोले कि राजनीति करने में पहले जैब से पैसे बहाने पड़ते हैं। तन, मन से किसी दल की सेवा करने से काम नहीं चलता, जब तक धन से सेवा न की जाए। हां इस बिजनेस में पैसे लगाने के बाद यदि स्थापित हो गए तो बाद में वसूली हो जाएगी। फिर आपके साथ ही रिश्तेदार भी मालामाल होने लगेंगे। यदि राजनीति में स्थापित नहीं हुए तो सारी पूंजी भी डूब जाएगी। मैने कहा कि मांगेराम जी आपकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। इन दिनों उत्तराखंड में टिहरी लोकसभा के उपचुनाव को लेकर मामला गरम है। एक बड़ी रानीतिक पार्टी में पिछले छह माह से देहरादून शहर अध्यक्ष का पद रिक्त चल रहा है। मौका अच्छा है। आप ईमानदार हैं। पार्टी ज्वाइन करो। हो सकता है कि आपको शहर अध्यक्ष का पद मिल जाएगा और आपकी राजनीतिक पारी की शानदार शुरूआत भी हो जाएगी।
मांगेराम जी बोले कि इस पर भी मैने विचार किया। पर वहां तो कई लोचा हैं। हर पार्टी की तरह इस पार्टी को भी कर्मठ, ईमानदार के साथ ही जेब से भारी अध्यक्ष चाहिए। पहले एक पनीरवाला शहर अध्यक्ष था। वह कई साल तक रहा। बड़े नेताओं की प्रैस कांफ्रेंस का खर्च, हर दूसरे दिन विपक्षी दलों के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों की चाय व पानी, बाहर से आने वाले नेताओं के रहने व खाने की व्यवस्था भी तो पनीरवाले को ही अपनी जेब से करनी पड़ती थी। जेब से पैसा लगाया और उसका बिजनेस बड़ा। शराब के व्यवसाय में भी उसकी पत्ती चलने लगी। उसके बाद दूसरा अध्यक्ष बना। वह भी हर माह करीब पचास हजार रुपये अपनी जेब से लगा रहा था। एक दिन बड़े नेताओं की आवाभगत सही ढंग से नहीं हुई तो अध्यक्ष की कुर्सी चली गई। अब इस राष्ट्रीय दल को कमाई करने वाले अध्यक्ष की तलाश है। मेरी जेब खाली है, ऐसे में मेरी आवश्यकता न तो किसी दल को है और न ही किसी व्यक्ति को। मांगे राम जी की बातें सुनने के बाद मैं यही कह सका कि बेईमानी आपसे होगी नहीं, ऐसे में ईमानदार बनकर ही संतोष करो। क्योंकि यह समय ऐसा है कि हरएक खुद को ईमानदार व दूसरे को बेईमान बताता है। जब तक बेईमानी का मौका नहीं मिलता तो ईमानदार बनकर ही रहो। हो सकता है इससे आपको आत्मीय संतुष्टी जरूर मिलेगी। 
भानु बंगवाल