मित्र बनाने की कला भी हरएक के पास नहीं होती। कई लोग मित्र बनाते हैं, तो उसमें उनका कहीं न कहीं स्वार्थ जुड़ा होता है। इसके उलट कई ऐसे होते हैं जो निस्वार्थ भाव से मित्र बनाते चले जाते हैं और उनकी मित्रों की सूची भी काफी लंबी होती है। जरूरी नहीं कि ऐसे लोग ऊंचे पद, प्रतिष्ठा वाले ही हो सकते हैं। एक साधारण व्यक्ति भी अपने व्यवहार से संबंध कमाता चला जाता है। ऐसे व्यक्तियों को न तो दौलत का ही लालच होता है और न ही उनका कोई स्वार्थ इसमें जुड़ा होता है। उनके लिए तो उनकी पूंजी ही समाज में कमाए गए उनके संबंध ही होती है। जो किसी सेठ, नेता या धर्म गुरु के पास भी नहीं होती, जिनके पीछे भीड़ चलती है।
ऐसे ही एक लक्ष्मण नाम के व्यक्तित्व से मैं परिचित हूं, जिसे मैं बचपन से ही जानता हूं। उसे लोग लच्छू के नाम से पुकारते हैं। मुझसे करीब दस साल बड़ा लच्छू छोटे से ही घर के कामकाज में अपनी माता का हाथ बंटाता था। उसका व्यवहार अन्य लड़कों से अलग था। एक भाई उससे बड़ा था, फिर दो बहने, फिर एक और भाई। बच्चे मैदान में खेल रहे होते तो लच्छू घर में खाना पकाने, गाय व भैंसों का चारा जंगल से लाने आदि काम में व्यक्त रहता। खाली समय में उसके हाथ में ऊन का गोला व सलाइयां भी होती। वह परिवार के किसी सदस्य या आस-पडो़स के किसी व्यक्ति के लिए स्वैचर बुन रहा होता। यानी जो काम महिलाएं करती थी, उसमें भी वह दक्ष था। इसलिए बच्चे उसे लच्छू दीदी कहकर भी चिढ़ाते थे।
लच्छू अपने से छोटे व बड़ों सभी की इज्जत करता था। हमारे मोहल्ले के साथ ही दूसरे मोहल्ले के लोगों में भी वह जाना पहचाना चेहरा था। जो उसके दिल में होता, वही जुबां पर रहता। इससे उसे हरएक पसंद करता था। क्योंकि वह जिस घर में जाता, उस घर के किसी सदस्य को काम करते देखकर उसके काम में हाथ बंटाने लगता। महिलाएं तो उसे काफी पसंद करती थी। यहां तक उससे अपने घर परिवार के दुख तक बयां कर देती। या यूं कहें कि वह दुख व सुख में सभी का साथी था। परिवार में अन्य भाई बहन की पढ़ाई तो ठीक चली, लेकिन लच्छू की पढ़ाई ज्यादा नहीं चल सकी। खाली समय में लच्छू लोगों के घर जाता, लोगों की कुशलता पूछता, लोगों के छोटे बड़े काम करता, यही था उसका जीवन जीने का तरीका।
जब लच्छू बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता को यह चिंता सताने लगी कि वह क्या करेगा, कैसे अपने पांव खड़ा होगा। अभी माता पिता के सहारे अपना पेट पाल रहा है, बाद में वह क्या करेगा। क्या गाय व भैंस पालकर उसके जीवन की गाड़ी चल जाएगी। इस चिंता को भी लच्छू ने दूर कर दिया। घर-घर में उसका जाना था। एक चिकित्सक की पत्नी ने उसे सरकारी अस्पताल में वार्ड ब्वाय की नौकरी दिला दी और वह अपने पैर पर भी खड़ा हो गया।
नौकरी के बावजूद भी उसने गो सेवा नहीं छोड़ी। साथ ही विवाह भी नहीं किया। अपने बड़े भाई की एक बेटी का खर्च उठाने का उसने संकल्प लिया, जिसे वह निभा भी रहा है। मैने आज तक लच्छू को शराब, बीड़ी का सेवन करते नही देखा और न ही किसी से झगड़ा करते। हाल ही में एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ी तो अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां चिकित्सकों ने बताया कि उसे दिल का दौरा पड़ा है। जिसे लच्छू के बीमार होने की सूचना मिली, वही अस्पताल में देखने दौड़ा चला आया। उसे देखने वालो का अस्पताल में तांता लगा रहा। जब अस्पताल से छुट्टी मिली तो उसके घर पर लोगों का तांता लगा है। शायद किसी नेता के बीमार होने पर भी इतने लोग उसके हालचाल पूछने नहीं आते होंगे, जितने लच्छू के लिए दुआ मांगने वाले थे। मैने लच्छू के छोटे भाई से पूछा कि लच्छू के बीमार है और अभी उसे आराम की सलाह दी गई है, ऐसे में उसकी गाय का क्या हुआ। इस पर उसके भाई का जवाब था कि लच्छू ने जो संबंध लोगों से बनाए हैं, उसका फायदा अब मिल रहा है। मोहल्ले में जिन लोगों के पास अपनी गाय है, वे लच्छू की गाय के लिए भी चारा लाकर दे रहे हैं। ऐसा करीब दो माह से चल रहा है। ऐसे में गाय के चारे पानी की कोई कमी नहीं है। सही तो कहा गया कि जैसे बोओगे, वैसा ही काटोगे।
भानु बंगवाल
ऐसे ही एक लक्ष्मण नाम के व्यक्तित्व से मैं परिचित हूं, जिसे मैं बचपन से ही जानता हूं। उसे लोग लच्छू के नाम से पुकारते हैं। मुझसे करीब दस साल बड़ा लच्छू छोटे से ही घर के कामकाज में अपनी माता का हाथ बंटाता था। उसका व्यवहार अन्य लड़कों से अलग था। एक भाई उससे बड़ा था, फिर दो बहने, फिर एक और भाई। बच्चे मैदान में खेल रहे होते तो लच्छू घर में खाना पकाने, गाय व भैंसों का चारा जंगल से लाने आदि काम में व्यक्त रहता। खाली समय में उसके हाथ में ऊन का गोला व सलाइयां भी होती। वह परिवार के किसी सदस्य या आस-पडो़स के किसी व्यक्ति के लिए स्वैचर बुन रहा होता। यानी जो काम महिलाएं करती थी, उसमें भी वह दक्ष था। इसलिए बच्चे उसे लच्छू दीदी कहकर भी चिढ़ाते थे।
लच्छू अपने से छोटे व बड़ों सभी की इज्जत करता था। हमारे मोहल्ले के साथ ही दूसरे मोहल्ले के लोगों में भी वह जाना पहचाना चेहरा था। जो उसके दिल में होता, वही जुबां पर रहता। इससे उसे हरएक पसंद करता था। क्योंकि वह जिस घर में जाता, उस घर के किसी सदस्य को काम करते देखकर उसके काम में हाथ बंटाने लगता। महिलाएं तो उसे काफी पसंद करती थी। यहां तक उससे अपने घर परिवार के दुख तक बयां कर देती। या यूं कहें कि वह दुख व सुख में सभी का साथी था। परिवार में अन्य भाई बहन की पढ़ाई तो ठीक चली, लेकिन लच्छू की पढ़ाई ज्यादा नहीं चल सकी। खाली समय में लच्छू लोगों के घर जाता, लोगों की कुशलता पूछता, लोगों के छोटे बड़े काम करता, यही था उसका जीवन जीने का तरीका।
जब लच्छू बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता को यह चिंता सताने लगी कि वह क्या करेगा, कैसे अपने पांव खड़ा होगा। अभी माता पिता के सहारे अपना पेट पाल रहा है, बाद में वह क्या करेगा। क्या गाय व भैंस पालकर उसके जीवन की गाड़ी चल जाएगी। इस चिंता को भी लच्छू ने दूर कर दिया। घर-घर में उसका जाना था। एक चिकित्सक की पत्नी ने उसे सरकारी अस्पताल में वार्ड ब्वाय की नौकरी दिला दी और वह अपने पैर पर भी खड़ा हो गया।
नौकरी के बावजूद भी उसने गो सेवा नहीं छोड़ी। साथ ही विवाह भी नहीं किया। अपने बड़े भाई की एक बेटी का खर्च उठाने का उसने संकल्प लिया, जिसे वह निभा भी रहा है। मैने आज तक लच्छू को शराब, बीड़ी का सेवन करते नही देखा और न ही किसी से झगड़ा करते। हाल ही में एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ी तो अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां चिकित्सकों ने बताया कि उसे दिल का दौरा पड़ा है। जिसे लच्छू के बीमार होने की सूचना मिली, वही अस्पताल में देखने दौड़ा चला आया। उसे देखने वालो का अस्पताल में तांता लगा रहा। जब अस्पताल से छुट्टी मिली तो उसके घर पर लोगों का तांता लगा है। शायद किसी नेता के बीमार होने पर भी इतने लोग उसके हालचाल पूछने नहीं आते होंगे, जितने लच्छू के लिए दुआ मांगने वाले थे। मैने लच्छू के छोटे भाई से पूछा कि लच्छू के बीमार है और अभी उसे आराम की सलाह दी गई है, ऐसे में उसकी गाय का क्या हुआ। इस पर उसके भाई का जवाब था कि लच्छू ने जो संबंध लोगों से बनाए हैं, उसका फायदा अब मिल रहा है। मोहल्ले में जिन लोगों के पास अपनी गाय है, वे लच्छू की गाय के लिए भी चारा लाकर दे रहे हैं। ऐसा करीब दो माह से चल रहा है। ऐसे में गाय के चारे पानी की कोई कमी नहीं है। सही तो कहा गया कि जैसे बोओगे, वैसा ही काटोगे।
भानु बंगवाल
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