Monday, 31 December 2012

Goodbye twelve...

अलविदा बारह, नए संकल्प का सहारा.... 
वर्ष, 2012 को अलविदा कहने के साथ ही नए साल का स्वागत। बीते साल में यदि नजर दौड़ाएं तो इस साल को आंदोलन का साल कहने में मुझे कोई परहेज नहीं है। कभी बाबा रामदेव का आंदोलन, तो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्ना हजारे का आंदोलन। इन आंदोलन में पूरे देश की जनता का आंदोलन में कूदना। लगा कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा। एक आशा जरूर बंधी, लेकिन सब कुछ पहले की तरह ही नजर आया। न तो विभागों का सिस्टम बदला और न ही हमारी मानसिकता। जो इस भ्रष्टाचारी सिस्टम की आदि हो गई है। जब काम होता नहीं तो हम भी शार्टकट का रास्ता अपनाते हैं और उसी रास्ते चल पड़ते हैं, जिसके खिलाफ हम सड़कों पर उतरे थे। साल के अंत में दिल्ली में गैंगरैप की एक विभत्स घटना से तो मानो पूरे देश को ही उद्वेलित कर दिया। गैंगरैप की घटना कोई नई बात नहीं थी, लेकिन वहशियों ने जिस तरह से दरिंदगी को अंजाम दिया वह हरएक को व्यथित करने वाली थी। फिर लोग सड़कों पर उतरे और पहले आरोपियों की गिरफ्तारी, फिर गिरफ्तार होने पर फांसी की सजा की मांग जोर पकड़ने लगी। आरोपियों का क्या सजा मिलेगी, यह तो भविष्य के गर्त में छिपा है। सजा चाहे कितनी भी कड़ी क्यों न हो, लेकिन एक बात यह भी तय है कि ऐसी घटनाओं पर तब तक अंकुश नहीं लग पाएगा, जब तक समाज का नजरिया नहीं बदलेगा। चाहे वो भ्रटाचार के मुद्दे पर हो या फिर महिला के सम्मान का मुद्दा हो।
दिल्ली गैंगरैप की घटना के बाद लोग उद्वेलित हुए। समाज के हर वर्ग के लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन क्या समस्या का हल निकला। लोगों के आंदोलन करने के दौरान भी महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाएं कम नहीं हुई। उत्तराखंड के श्रीनगर में तो शाम को कैंडिल मार्च निकला और उसके बाद ही युवती से छेड़छाड़ का मामला प्रकाश में आया। हालांकि महिलाओं ने ऐसे युवकों की पिटाई कर उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया। साथ ही यह भी मनन का विषय है कि महिला के प्रति सम्मान की जो बात हम बचपन से ही बच्चों को सिखाते हैं, क्या ये उन दरिंदों के माता-पिता ने उन्हें नहीं सिखाई। सच तो यह है कि आज एकल परिवार में माता-पिता इतने व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें अपने बच्चों पर नजर रखने की फुर्सत तक नहीं है। पिता का बेटे के साथ बैठकर शराब पीना फैशन सा बन गया है। बेटी के आज भी देरी से घर आने पर हो सकता है उसे बड़े भाई के साथ ही माता-पिता के सवालों का जवाब देना पड़ सकता हो। लेकिन, इसके ठीक उलट बेटे पर तो कोई अंकुश नहीं रहता कि वह कहां जाता है और क्या कर रहा है। मेरी एक मित्र जितेंद्र अंथवाल से आज ही फोन से बात हो रही थी। उसने बताया कि उम्र के तीसरे पड़ाव में भी आज भी उनकी माताजी देरी से घर आने पर दस सवाल पूछने लगती है। माता-पिता का ये भय कहां है आज की युवा पीढ़ी को। साथ ही गुरु का डर भी नहीं रहा है। प्राथमिक स्तर की शिक्षा से ही आज नैतिक शिक्षा की जरूरत है। स्कूल के साथ ही ऐसी शिक्षा माता-पिता या अभिभावकों को भी बच्चों को देनी होगी। तभी हम समाज में बदलाव की बात को अमलीजामा पहना सकेंगे।
दामिनी की चिता जली और पूरे देश में वहिशयों के खिलाफ एक मशाल जली। शोक संवेंदना वालों का तांता लग गया। ऐसे लोगों में फिल्मी हस्तियां भी पीछे नहीं रही। सेलिब्रेटी के बढ़चढ़कर बयान आए। मानों की महिला उत्पीड़न की चिंता उन्हें ही है। यदि वास्तव में वे इतने गंभीर हैं तो उन्हें भी नए साल में ये संकल्प लेना चाहिए कि भविष्य में वे ऐसी फिल्मों से परहेज करेंगे जो विभत्स हो और समाज को बुराई की तरफ धकेलने के लिए प्रेरित करती हो। समाज को क्या शिक्षा दे रही हैं ये फिल्मी हस्तियां। ये तो हत्या या अन्य वातदात के तरीके सिखा रहे हैं। ऐसी ही एक फिल्म देखकर हरिद्वार में 12 वीं के छात्र ने पांचवी की छात्रा की हत्या करने के बाद उसके घर अपहरण का फोन किया और फिरौती मांगी।
नए साल की पूर्व संध्या पर उत्तराखंड में कई संगठनों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम निरस्त कर दिए। यानी सादगी से नए साल का स्वागत किया गया। इस स्वागत के बीच हमें बदलाव का संकल्प भी लेना चाहिए। यदि हम बच्चे हैं तो हमें संकल्प लेना होगा कि बड़ों को समझे और उनका सम्मान करें। इसके उलट यदि हम बड़े हैं तो हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम बच्चों को यह समझाएं कि क्या गलत है और क्या सही। यदि हम बदलाव की शुरुआत अपने घर से ही करेंगे तो इस समाज में भी इसका असर जरूर पड़ेगा।  
भानु बंगवाल

Saturday, 29 December 2012

Change (story) ....

परिवर्तन (कहानी)....
दुकान का साइनबोर्ड जंग खा चुका था, जो दुकान की हालत को बयां कर रहा था। दुकान को देखकर ऐसा लगता था कि आजकल ही इसमें ताले लग जाएंगे। क्योंकि दुकान में न तो ग्राहक ही आते थे और न ही भीतर बैठे व्यक्ति में उत्साह ही नजर आता था। फिर भी आजकल करते-करते कई साल बीत गए। दुकान में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। जो फर्क पड़ रहा था वो था साइनबोर्ड। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे। साइनबोर्ड के अक्षर धुंधले पड़ रहे थे। जिन्हें दुकान स्वामी ने साइनबोर्ड में कभी अपने ही हाथ से बड़ी लगन से लिखा था। पहले स्वास्थिक का चिह्न था। उसके बाद लिखा था दर्जी प्रेमचंद। अब तो ये अक्षर भी मात्र धब्बे से नजर आते, जो दुकान के पुरानेपन की याद दिलाते रहते।
बाजार में एक बड़े से कमरे की दुकान, जो पूरी खाली थी। उसके भीतर फर्श पर बैठने के लिए एक टाट-पट्टी बिछी थी। तिहरे किए गए एक अलग टाट को बिछाकर आसन बनाया गया था। इस आसन पर रखी थी एक सिलाई मशीन। आसन पर बैठा करीब 50 वर्षीय प्रेमचंद धीमी रफ्तार से सिलाई मशीन चला रहा था। कुछ साल पहले तक प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार काफी तेज थी। उसके हुनर की चर्चा दूर-दूर तक थी। दूर-दूर से लोग उसके पास कपड़े सिलाने आते। वह भी सस्ते में कपड़े सिलकर देता। दुनियां की रफ्तार बढ़ रही थी और प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार धीमी होती जा रही थी। उसके पास पुराने ग्राहक ही कभी-कभार आते। नई पीढ़ी को शायद उसके हुनर पर विश्वास नहीं था। प्रेमचंद की बगल में लकड़ी की एक संदूकची रखी थी। इसमें वह सिलने के लिए आए कपड़े रखता था। साथ ही इस संदूक का प्रयोग ग्राहक को बैठाने के लिए करता था। दीवार की खूंटियों पर कुछ सिले कपड़े टंगे थे। दीवारों में करीब बीस साल से रंग रोगन तक नहीं हुआ था। ऐसे में दुकान से सीलन की बदबू भी आती थी। 
शरीर से दुबला, सांवला रंग, झुर्रियों वाला चेहरा, गंजा सिर। सामने के तीन दांत टूटे होने के कारण प्रेमचंद का उच्चारण भी स्पष्ट नहीं था। उसकी छोटी-छोटी काली आंखों में हमेशा उदासी के बादल छाए रहते। फिर भी वह काफी नम्र व्यवहार का था। अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित प्रेमचंद कड़ी मेहनत करते-करते पचास साल में ही सत्तर का नजर आने लगा। यह सब उसके सच्चे व कड़े परिश्रम का वह कड़ुवा फल था, जिसने उसे उम्र से पहले ही बूढ़ा बना दिया। जहां तक प्रेमचंद को याद है कि उसने न तो कभी किसी का बुरा किया और न ही किसी से झगड़ा। बचपन से ही उसे ऐसे कामों के लिए फुर्सत तक नहीं मिली। जब वह पंद्रह साल का था और शादी का मतलब तक नहीं जानता था तब उसकी शादी करा दी गई। आठवीं तक ही पढ़ पाया और उसे इस पुश्तैनी धंधे में लगा दिया गया। पिता की मौत के बाद दुकान की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई। वह अन्य दर्जी से कम कीमत में कपड़े सिलता और पत्नी व अपना पेट भरने लायक कमा लेता।
प्रेमचंद की पत्नी सुक्की ने जब जुड़वां बेटों को जन्म दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह खुशी कुछ साल तक ही रही। जब बेटे चार साल के हुए तो सुक्की का स्वर्गवास हो गया। अब प्रेमचंद पर पिता के साथ ही माता की जिम्मेदारी भी आ गई, जो उसने बखूबी निभाई। उसे परिवार व रिश्तेदारों ने सलाह दी कि दूसरी शादी कर ले, लेकिन उसने अपने बेटों राघव व नंदू की खातिर ऐसा करने से मना कर दिया।
प्रेमचंद की इच्छा थी कि वह अपने बेटों को अच्छी शिक्षा देने के बाद इसी पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ाएगा। समय से उसने बेटों का अच्छे स्कूल में दाखिला कराया। उसने दिनरात खूब मेहनत की। बेटों ने बीए कर लिया तो प्रेमचंद ने उनसे दुकान संभालने को कहा। इस पर राघव ने कहा कि पढ़-लिखने के बाद अब वह वह कपड़े सिलने का काम नहीं करेगा। यही जवाब नंदू का भी था। दोनों ने कहा कि वे कहीं नौकरी करेंगे। दुकान में तो यह भी भरोसा नहीं रहता है कि ग्राहक आएगा या नहीं। अगर पढ़े -लिखे न होते तो यह काम कर लेते, लेकिन अब संभव नहीं है। यदि उनके दोस्त उन्हें कपड़े सिलते देखेंगे तो वह कैसे उनका सामना करेंगे।
राघव न नंदू दोनों ही नौकरी की तलाश कर रहे थे, लेकिन सफलता नहीं मिल रही थी। मिलती भी कैसे। होशियार जरूर थे, लेकिन सिफारिश उनके पास नहीं थी। सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत देने मे भी वे असमर्थ थे।
दुकान में बैठे प्रेमचंद को यही चिंता सताती कि बेटों का क्या होगा। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि आज जो हो जाए, लेकिन वह घर जाकर बेटों को समझाएगा और दोनों को दुकान पर बैठने को राजी करेगा। यदि वे नहीं माने तो उन्हें घर से निकाल देगा। मन में  दृढ़ निश्चय कर दो घंटे पहले ही वह दुकान बंद कर घर चला गया। अपना फैसला सुनाने की प्रेमचंद को उतावली हो रही थी। उसने घर की तरफ दौड़ लगा दी। उसे भय था कि कहीं उसके मन में उठे विचार देर होने पर छू मंतर न हो जाएं। उसका मकसद बेटों को खुशहाल देखना था। साथ ही उसे दुख हो रहा था कि उसने बेटों को ज्यादा क्यों पढ़ाया। नई युवा पीढ़ी तो पुश्तैनी धंधे को ही बेवकूफी का काम मान रही है। उसे तरस आ रहा था इस संकीर्ण मानसिकता पर। आजकल युवा पीढ़ी किसी फैक्ट्री या आफिस में दूसरे की गुलामी कर अपने को बड़ा समझती है, जबकि अपने ही घर के काम को घटिया करार देती है। घर के दरवाजे पर ताला लटका देखते ही प्रेमचंद दुखी हो गया। उसने कांपते हाथों से ताला खोला। देर तक बेटों का इंतजार करता रहा। समय काटने के लिए चाय बनाकर पी। फिर चारपाई में निढाल होकर लेट गया।
रात करीब नौ बजे राघव ने उसे जगाया-पिताजी खाना खा लो। नौ बज गए हैं नंदू ने कहा। साथ ही पूछा आज आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या। प्रेमचंद दोनों बेटों को घूर रहा था। साथ ही यह अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि उस समय दिन के नौ बजे हैं या रात के। खाना खाने के बाद उसने दोनों बेटों को समीप बुलाया। वह समझाने के लहजे में बोला-देखो बेटा तुम दोनों को दुकान का काम नापसंद है। मैने भी कभी दोनों से इस काम की जबरदस्ती नहीं की। मैं समझता था कि दोनों पढ़े लिखे हो। कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी। रोज इतना संघर्ष के बाद भी तु्म्हें कोई सफलता नहीं मिलते देख मुझे लगता है कि दोनों को पढ़ा-लिखा कर मैने गलती की। यदि बचपन से ही दोनों को दर्जी के काम में लगाता तो आज तुम दुकान संभाल रहे होते। ये बात मैं भी मानता हूं कि जीवन भर इस दुकान में बैठने के बाद भी मैने सिर्फ पेट की आग बुझाने के अलावा कुछ नहीं कमाया। जबकि मेरी दुकान में उत्तम किस्म की सिलाई होती है। सिलाई की दर भी सस्ती है। फिर भी ग्राहक कम आते हैं। मुझे चिंता इस बात की है कि मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा। मेरी सलाह है कि नौकरी को तलाशते रहो साथ ही दुकान का काम भी सीखते रहो। यदि नौकरी मिल जाए तो बेशक दुकान का काम छोड़ देना।
राघव व नंदू बड़ी गंभीरता से प्रेमचंद के उपदेश सुन रहे थे। उन्हें प्रेमचंद एक तपस्वी नजर आ रहा था। जो अपने तप से अर्जित ज्ञान के अमृत की वर्षा उन पर कर रहा था। सुझाव दोनों भाइयों को पसंद आया। फिर तय हुआ कि एक दिन राघव
दुकान में बैठकर काम सिखेगा और नंदू नौकरी की तलाश में जाएगा। दूसरे दिन नंदू सिखेगा तो राघव काम की तलाश करेगा। सीखने का क्रम आरंभ हुआ। जैसे-जैसे सीखने की एक सीढ़ी को वे पार करते, वैसे-वैसे उनकी सीखने की ललक बढ़ती जाती। पुरानी पीढ़ी का हुनर और आधुनिक स्टाइल के बीच तालमेल बैठाते हुए वे कपड़े तैयार कर रहे थे। काम के प्रति उनका प्यार बढ़ता गया और नौकरी की तलाश कम होती चली गई। वे सप्ताह में एक बार नौकरी की तलाश में निकलते। बाद में उन्होंने तलाश ही बंद कर दी और प्रतिदिन नियमित दुकान पर बैठने लगे। इसका असर यह हुआ कि कुछ ग्राहक भी बढ़े और दो नई सिलाई मशीन भी खरीद ली गई। अब राघव व नंदू कपड़े सिलते और प्रेमचंद तुरपाई, काज, बटन आदि का काम करता।
जब कुछ पैसे बचने लगे तो प्रेमचंद ने कहा कि अब वह दोनों भाइयों का घर बसाने के लिए लड़की तलाशनी शुरू करेगा। इस पर राघव व नंदू ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी दुकान को बेहतर बनाना है। इसके लिए दुकान में नया रंग रोगन करने के साथ ही फर्नीचर आदि खरीदना होगा। कुछ राशि उधार लेकर दुकान को नए रंग-रूप में सजाया गया। चमचमाता साइनबोर्ड लगाया गया। उस पर लिखा गया-प्रेमचंद फैशन डिजाइनर। इधर नया साइनबोर्ड लगा और प्रेमचंद की दुकान के दिन ही बहुरने लगे। ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही दुकान की सजावट भी बढ़ाई जाने लगी। तीन मशीन से छह हुई और फिर दस। नए कारीगर रखे गए। कारीगर काम करते और बेटों को ग्राहक से जूझने में ही सारा समय लग जाता। प्रेमचंद हैरान था कि जितने ग्राहक उसकी दुकान में पहले एक महीने में आते थे, उससे कहीं ज्यादा एक ही दिन में आते हैं। अब उसके यहां सिलाई की दर भी दूसरों से ज्यादा थी। इसका रहस्य भी वह जान गया था जो चमक-दमक, रंग-रोगन व साइन बोर्ड में छिपा था। जैसे -जैसे साइनबोर्ड का आकार बढ़ता, उसके साथ ही दुकान का विस्तार भी होता। केवल एक चीज घट रही थी। वो थी प्रेमचंद की मानसिकता। उसे पुराने प्रेमचंद से नफरत होने लगी। उसके भीतर से सच्चाई, शालिनता, ईमानदारी, करुणा की बजाय चपलता, फरेब चापलूसी ने जन्म ले लिया। इसका उपयोग वह काउंटर में बैठा हुआ ग्राहकों से बातचीत में करता। साथ ही उन कारीगरो से उसका व्यवहार काफी कठोर रहता, जो कड़ी मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी बामुश्किल जुटा पाते थे। प्रेमचंद को उनमें पुराने प्रेमचंद की छवि दिखाई देती थी। इसलिए वह उनसे घृणा करता था कि कहीं वे भी आज का प्रेमचंद न बन जाए।
भानु बंगवाल     

Friday, 28 December 2012

Signboard (poem)

साइनबोर्ड (कविता) 
सड़क के दोनों ओर
लगे थे दो साइनबोर्ड
एक पर लिखा था
रुकिए, देखिए और जाइए
मैं रुका, मैने देखा
और चलने लगा
तभी देखा दूसरे साइनबोर्ड पर
लिखा था
व्यर्थ में समय न गवांइए

Tuesday, 25 December 2012

Wedding sweets and budget of Hinjdon

शादी के लड्डू और हिंजड़ों का बजट
कहावत है कि शादी के लड्डू को जो खाए वह भी पछताए और जो न खाए वो भी पछताए। फिर भी ये शादी के लड्डू हैं बड़े की मजेदार। शादी करने वाले से लेकर कराने वालों के साथ ही विवाह समारोह में शामिल होने वालों में इसके लिए खासा उत्साह होता है। परिवार में किसी शादी के लिए तो महिलाएं व बच्चे तो पहले से ही योजना बनाने लगते हैं। लेडिज संगीत, मंगल स्नान, बारात, रिसेप्शन में किस रंग की साड़ी, लहंगा या सूट पहना जाए। इसके लिए पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती है। बच्चे भी माता-पिता से अपनी पसंद के कपड़ों के लिए जिद करते हैं। अक्सर ऐसे मौकों पर मेरी पत्नी व बच्चों की जब फरमाइश पूरी होती है, तो मेरा नंबर आते ही बजट समाप्त हो जाता है। ऐसे में पुराने कपड़ों पर ही प्रेस मारकर काम चला लेता हूं। सर्दियों में जब भी शादी होती है, तब मेरी शादी के वक्त के वो तीन सूट ही काम आते हैं, जिनके बाद मैं आज तक सूट सिलाने का साहस नहीं कर सका।
मेरी बहन केंद्रीय संस्थान में सरकारी नौकरी पर है। जीजा भी आबकारी विभाग में है। उनका एक ही बेटा है, जिसकी शादी तय हो रखी है और उसकी तैयारी में वे मशगूल हैं। जब भी बहन मिलती है, या फिर फोन से बात होती है, तो आजकल उसका बात का टोपिक भी शादी का ही होता है। मुझसे वह बारात में लोगों की सूची, खाने का  मैन्यू आदि पर चर्चा करती रहती है। लगभग सब फाइनल हो चुका है। एक माह बाद फरवरी में बारात दिल्ली जानी है। ऐसी ही चर्चा के दौरान मैने बहन को सतर्क किया कि सब चीजों का अनुमानित बजट बना लिया होगा, लेकिन बजट में कम से कम पांच से दस हजार रुपये शादी के बाद के लिए बचाकर रखना। अचानक किसी दिन हिंजड़े आएंगे और बधाई के लिए ठुमके मारने लगेंगे। उनके साथ बार्गेनिंग करना भी हरएक के बस की बात नहीं। चाहे कोई पुलिसवाला हो, नेता हो या फिर पत्रकार। वे किसी की नहीं सुनते। कई बार तो लोग शादी के दौरान ही सब कुछ खर्च कर जाते हैं। जब हिंजड़ों की बारी आती है तो कुछ भी पल्ले में कुछ बचा नहीं रहता। ऐसे में घर में ड्रामा होना निश्चित होता है। बहन ने बड़ी सरलता से कहा कि उनकी चिंता नहीं है। कितना लेंगे, दस या पंद्रह हजार। वो मैने बजट में शामिल कर रखा है। उसके लिए कितना आसान था यह बजट। कई तो इस बात से ही घबराते हैं कि इस तीसरी कौम को कहां से पैसा देंगे।
सच कहो तो इस दुनियां में मैं भी किसी से यदि डरता हूं तो वे हिंजड़े ही हैं। कभी किसी जमाने में किन्नरों को राजा लोग गुप्तचर के रूप में इस्तेमाल करते थे। आज तो उनकी जासूसी हर गली व मोहल्लों में है। मेरे पड़ोस में एक बेचारा छोटी मोटी नौकरी करता था। साथ में उसकी पत्नी भी थी। पहला बच्चा जब लड़का हुआ तो कई दिन तक उन्होंने बच्चे के कपड़े छत में इसलिए नहीं सुखाए कि किसी को यह पता नहीं चल सके कि घर में छोटा बचा हुआ है। करीब आठ हजार वेतन में मकान किराया व अन्य खर्च के बाद एक पैसा उसके पास नहीं बचता। वह आधा वेतन हिंजड़ों को नहीं देना चाहता था। ऐसे में वह सुबह घर से भाग जाता। शाम को देर से घर आता। यह छुपनछुपाई ज्यादा दिन नहीं चल सकी। मोहल्ले के धोबी, नाई, मालन, कामवाली बाई सभी तो इन हिंजड़ों के सूचना तंत्र हैं। एक दिन उन्होंने पड़ोसी को पकड़ ही लिया और शुरू कर दिए उसके घर में ठुमके लगाने। कुछ पड़ोसियों ने बचाव किया और बार्गेनिंग हुई। तब तरस खाकर वे इक्कतीस सौ रुपये में माने।
पहले तो लड़की की शादी, बेटी के पैदा होने पर हिंजड़े नहीं आते थे, लेकिन अब तो शादी हो या फिर बच्चा हो, नया मकान बनाया हो तो हिंजड़ों का बजट जरूर रखना चाहिए। ना जाने कब आ धमकें। कई बार तो एक पार्टी से छुटकारा मिलता है तो दूसरी आ धमकती है। उनका अपना एरिया का झगड़ा होता है, लेकिन पिसता वो व्यक्ति है, जिसके घर वे आते हैं। करीब 14 साल पहले की बात है। उन दिनों मैं सहानपुर था। एकदिन मैं समाचार पत्र के आफिस में बैठा समाचार लिख रहा था कि पीछे से आवाज आई कि मेरी विज्ञप्ति भी छाप दे। मैने पीछे देखे बगैर कह दिया कि विज्ञप्ति टेबल में रख दो देख लूंगा। इस पर विज्ञप्ति लाने वाला बोला कि मेरे सामने ही समाचार लिख। तब ही जाऊंगी। आवाज मर्दाना, लेकिन खुद को जनाना बताने वाले शक्स को देखने के लिए मैने गर्दन पीछे घुमाई। वह मेरे सिर के पास तक पहुंच गया था। उसे देखते ही मेरे बदन में झुरझुरी सी उठ गई। वह सलवार-कमीज पहने हुए एक हिंजड़ा था। उसने मुझे देखते ही अपने लहजे में अजीब सा मुंह  बनाया और आंखों से इशारा किया। उसे देखते ही मैं डर गया। मैने उससे पीछा छुड़ाने के लिए विज्ञप्ति ले ली, लेकिन वह जिद में अड़ा रहा कि उसका समाचार उसके सामने ही बनाकर भेजा जाए। वह किसी दूसरे हिंजड़े की शिकायत लेकर आया था। उसका कहना था कि वे असली हिंजड़े नहीं हैं। नकली हिंगड़ों का गिरोह मोहल्लों में जाकर बधाई मांगता है। ऐसे नकली से लोगों को बचना चाहिए। इस दिन से मुझे एक बात समझ में आई कि उनमें भी असली व नकली की लड़ाई है। किसी तरह उसे आफिस से चलता कर मैने हिंजड़ों की लड़ाई पर एक रोचक समाचार भी लिखा और समाचारपत्र में प्रकाशित भी हुआ।
उन्हीं दिनों मेरी पत्नी ने बेटे को जन्म दिया। जब वह गर्भवती थी तभी हर महीने के वेतन से मैंने कुछ पैसे डिलीवरी के नाम से बचाने शुरू कर दिए थे। साथ ही हिंजड़ों के लिए तब पांच सौ रुपये भी अलग से रखे। सरकारी अस्पताल में नार्मल डिलीवरी के कारण बजट नहीं बिगड़ा। बच्चा होने के बाद पत्नी मायके पर ही थी। एक दिन वहां दो हिंजड़े पहुंच गए। उन्हें समझाया कि यह लड़की का मायका है। जब वह पति के घर जाएगी वहीं जाना, लेकिन वे नहीं माने और पत्नी से पांच सौ रुपये और साड़ी लेकर ही घर से टले। अक्सर नवजात शिशु को पीलिया हो जाता है। मेरे बेटे को भी पीलिया की शिकायत पर डाक्टर ने उसे सुबह व शाम की धूप दिखाने की सलाह दी। एक सुबह मैं घर की खिड़की के पास बैठा धूप दिखा रहा था,तभी कमरे में करीब पांच-छह हिंजड़ों की टोली आ गई। उन्हें समझाया गया कि दो दिन पहले ही हिंजड़े आए थे और बधाई लेकर चले गए। इस पर टोली की मुखिया बिगड़ गई और कहने लगी कि पहले वालों को भले ही तुमने पांच सौ रुपये दिए, लेकिन मैं तो इक्यावन सौ रुपये लेकर ही जाऊंगी। वह जोर से ताली पीट रही थी और बच्चा रो रहा था साथ ही मैने मन में हथौड़े चल रहे थे। मैने उन्हें डांटा तो वे एक साथ कपड़े उतारने का उपक्रम करने लगे। तभी मुझे कुछ दिन पूर्व आफिस में आए हिंजड़े की बात याद आई। मैने उनसे कहा कि यदि कपड़े उतारने हों तो उतार लो। आज असली व नकली का भी फैसला हो जाएगा। फिर तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा। दो-दो बार किस बात की बधाई दी जाए। उन्हें मैं घर के गेट के बाहर तक ले आया। अचानक एक मुझे डराने लगा कि पहले अपने गुरु को लाउंगी और तूझे पहनाऊंगी सलवार, घुमाऊंगी गली-गली।
मैं थाने में जाकर उनकी रिपोर्ट कराने को बाहर निकला। उनका मुझसे लड़ने का भी अंदाज कुछ निराला था। तब तक उनमें से एक मुझसे कहने लगा कि-चल थाने, चल थाने। जितनी बार वह चल थाने कहता साथ ही मेरे पेट पर भी हथेली से धकियाता। मैं उसके वार से बचने को एक कदम पीछे होता और वह फिर कहता चल थाने। जितनी बार वह चल थाने कहता उतनी बार उसका सहयोगी ढोलक पर थाप भी देता। आसपड़ोस के लोग छतों से तमाशा देख रहे थे। तभी एक महिला ने साहस कर बोला कि जब एक बार ये बधाई दे चुके हैं तो दोबारा किस बात की। खैर किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाया गया, लेकिन मैने दूसरी बार बधाई के नाम पर अपने वेतन का करीब छठा हिस्सा उन्हें नहीं दिया। वे अपने गुरु व पहली बार बधाई ले गए हिजड़े को साथ लाने की बात कहकर गए, जो उसके बाद फिर दोबारा नहीं आए।
भानु बंगवाल         

Wednesday, 19 December 2012

Rape and truth of punishmeint

बलात्कार और सजा का सच......
दिल्ली में रविवार की रात एक फिजियोथेरेपिस्ट के साथ चलती बस में सामूहिक दुष्कर्म को लेकर पूरे देश में सड़क से लेकर संसद तक भूचाल सा आ गया। लोग सड़कों पर उतरे और दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी की सजा की मांग करने लगे। बलात्कार के मामले में कड़ी सजा पर बहस छिड़ गई। साथ ही यह आवश्यकता भी जताई जाने लगी कि ऐसे मामले फास्ट ट्रेक कोर्ट में सुने जाएं और जल्द ही दोषियों को सजा मिले। बलात्कार के खिलाफ पूरे देश भर में आवाज उठना अच्छी बात है। यह इस मुद्दे पर लोगों की एकजुटता को भी प्रदर्शित करता है। साथ ही यह भी सोचनीय प्रश्न है कि राजधानी दिल्ली जैसे स्थान पर ही कोई घटना होने पर ही इतना बबाल क्यों मचता है। मुझे याद है कि करीब पैंतीस साल पहले दिल्ली में चौपड़ा दंपती के बच्चों संजय व गीता के अपहरण के बाद उनकी हत्या करने के मामले में भी इसी तरह पूरे देश भर में आवाज उठी थी। इस मामले में दो कार चोर रंगा व बिल्ला को पुलिस ने गिरफ्तार किया और बहुत जल्द सुनवाई होने के बाद ही दोनों को फांसी भी हो गई थी। ये मामले दिल्ली के थे, तो राजधानी में बैठे सांसदों ने भी इन्हें गंभीरता से लिया। इसके विपरीत हर साल देश भर के विभिन्न इलाकों में हर रोज बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं। कई मामलों में तो लोक लाज से भय से आरोपियों के खिलाफ आवाज तक ही नहीं उठती और शिकार युवतियों की चींख हलक से बाहर तक नहीं निकलती। ऐसा नहीं है कि ऐसे मामले इन दिनों ही ज्यादा हो रहे हैं। ये तो सदियों से होते आ रहे हैं और ऐसे मामलों के आरोपियों को सजा दिलाने का साहस हर कोई नहीं कर पाता। ऐसा ही एक मामला करीब पैंतीस साल पहले देहरादून में हुआ, जिसमें बलात्कार की शिकार युवती की चींख उसके मन में ही घुंट कर रह गई। इस बात का गवाह सारे मोहल्ले को सांप सुंघ गया और आरोपी की शिकायत पुलिस थाने तक भी नहीं पहुंची।
करीब पैंतीस साल पहले देहरादून में दो गिरोह के बीच गैंगवार चल रही थी। शाम को कहीं न कहीं गोलीकांड देहरादून में आम बात हो गई थी। देहरादून में मसूरी की तलहटी से निकलने वाली एक बरसाती नदी से सटे एक मोहल्ले में ऐसे ही एक गिरोह का गुंडा रहता था। इस गुंडे की खासियत थी कि वह मोहल्ले के लोगों से उलझता नहीं था। फिर भी मोहल्ले में लोग उससे डरते थे और सामने से दिखाई देने पर रास्ता बदल देते। इसी मोहल्ले में एक ट्रक ड्राइवर डेनी रहता था। डेनी की पत्नी के बारे में कहा जाता था कि या तो वह मर गई थी या फिर किसी के साथ भाग गई थी। उसकी एक बूढ़ी मां थी और एक बेटी बेबो थी जो जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी।
बेबो करीब 16 साल की हुई तो वह गुंडे की दादागिरी से काफी प्रभावित होने लगी। दुकानदार के सामने उसका नाम लेकर कई बार वह बाजार से मुफ्त सामान भी ले आती। बेबो की आसपड़ोस के लोग समझाते, लेकिन उसकी समझ में किसी की बात नहीं आ रही थी। पैंतीस साल पहले ही बिहार के भागलपुर क्षेत्र में पुलिस ने कुछ लोगो को डकैती के आरोप में पकड़ा था। ऐसे लोगों के चेहरे में तेजाब डाल दिया गया। इनमें से कई की नेत्र ज्योति भी चली गई थी। ऐसे ही कुछ दृष्टिहीनों को पुनर्वास के लिए देहरादून के राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में प्रशिक्षण को भेजा गया। जो क्रूर डकैत कहलाते थे, वे अन्य दृष्टिहीनों के साथ प्रशिक्षण ले रहे थे। बोलचाल में वह इतने शालिन थे कि कोई यह कह ही नहीं सकता था कि उनका इतिहास हत्या व डकैती का रहा होगा। हां दृष्टिहीन होने के बावजूद सभी कद-काठी से लंबे चौड़े व फुर्तीले थे।
एक शाम मोहल्ले के गुंडे को ना जाने क्या सूझी। पहले उसने अपने दोस्तों के साथ एक मैदान में शराब पी और जब अंधेरा गहरा गया तो चल दिया डेनी के घर। बेबो घर में थी। उसे घसीटता हुआ गुंडा अपने साथ ले गया। डेनी ने गुंडे के पांव पकड़े और गिड़गिड़ाया, वह रोया,  लोगों से मदद को चिल्लाया। इसके विपरीत मोहल्ले के लोगो को मानो सांप सूंघा हुआ था। गुंडा बेबो को एकांत में जंगल की तरफ ले गया, जहां उसके साथी पहले से इंतजार कर रहे थे। बेचारा डेनी मदद के लिए इधर-उधर भागा और उस बैरिक तक पहुंच गया, जिसमें भागलपुर से आए करीब पांच डकैत रह रहे थे। उसने डकैतों को अपना हाल सुनाया और मदद मांगी। इस पर एक डकैत ने उसे सलाह दी की पुलिस थाने चला जाए। इस पर डेनी ने कहा कि यदि वह ऐसा करेगा तो गुंडा उसे और उसकी बेटी को जान से मार देगा। बस मेरी बेटी को गुंडे की चुंगल से छुड़ा दो। जब तक डकैत बेबो को बचाने मौके पर पहुंचे तब तक काफी देर हो चुकी थी। कुछ गुंडों की दरिंदगी का शिकार बनी इस युवती को उन लोगों ने छुड़ाया, जिनकी पहचान डकैत की थी। इस घटना के अगले दिन डेनी अपनी बेटी व मां के साथ घर छोडकर कहीं और चला गया। इसके बाद से उसे और उसकी बेटी को आज तक मैने भी नहीं देखा।
भानु बंगवाल       

Saturday, 15 December 2012

Truth of the Operation

आपरेशन का सच.....
शुक्रवार के दिन टिहरी जनपद के कीर्तिनगर में आयोजित किए गए परिवार नियोजन के एक शिविर में महिला की आपरेशन के बाद तबीयत बिगड़ी और वह बेहोश हो गई। अफरा-तफरी में परिजन महिला को श्रीनगर गढ़वाल के बेस चिकित्सालय ले गए, जहां चिकित्सक भी महिला को बचा नहीं सके। इस मामले में चिकित्सकों ने तुर्रा मारा कि महिला की मौत घबराहट से हुई। इस समाचार ने सभी को चौंकाया कि नसबंदी के एक छोटे से आपरेशन पर भी क्या किसी को जान से हाथ धोना पड़ सकता है। ऐसी नौबत आने के लिए क्या इसे चिकित्सकों की लापरवाही नहीं कहा जाएगा। इस मामले में महिला के पति ने चिकित्सकों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए थाने में रिपोर्ट भी लिखाई और पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने के साथ ही पोस्टमार्टम कराकर अपने फर्ज की इतिश्री भी कर दी।
इस घटना से सवाल उठता है कि यदि परिवार नियोजन के मामलों में ऐसी लापरवाही बरती जाने लगी तो आने वाले दिनों में लोग इस सबसे आसान तरीके को अपनाने में भी घबराएंगे। ऐसे में बढ़ती जनसंख्या पर अंकुश लागना भी संभव नहीं हो सकेगा। एक यह भी सच है कि परिवार नियोजन के आपरेशन कराने में अक्सर महिलाओं को ही आगे किया जाता है। इसकी तस्दीक सरकारी आंकडे़ भी करते हैं कि ऐसे आपरेशन कराने वालों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या ज्यादा है। पुरुष तो हर मामले में महिला को ही आगे कर देता है। महिला का जीवन ही ऐसा है कि पुरुष प्रधान समाज में जनसंख्या नियंत्रण में भी उसके कंधे पर ही जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। ऐसे मामले में या तो काफी जागरूक पुरुष ही आगे आते हैं या फिर मजबूरी में।
एक बार मुझे किसी रिश्तेदार का फोन आया। उन्होंने मुझसे कहा कि उनकी बहन का दामाद देहरादन में रहता है। पहले उसकी एक बेटी आपरेशन से हुई। वह चलने लायक भी नहीं हुई कि दूसरी बेटी ने भी आपरेशन से जन्म दिया। चिकित्सकों ने स्पष्ट कह दिया कि यदि फिर औलाद हुई तो मां की जान जा सकती है। बहन की बेटी दो बच्चों की मां तो बन गई, लेकिन काफी कमजोर है। ऐसे में परिवार नियोजन के लिए उसका आपरेशन तो करा नहीं सकते, लेकिन उसके पति का आपरेशन कराना है। परिचित ने मुझे बताया कि काफी समझाने के बाद दामाद आपरेशन के लिए राजी तो हो गया, लेकिन उसे लेकर तुम्हें अस्पताल जाना होगा। यानी परिचित ने अपनी बहन के दामाद के आपरेशन की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी।
मैं बंटू नाम के इस युवक के घर पहुंचा। उसकी उम्र करीब 27 साल रही होगी। बंटू के साथ ही के उसके माता व पिता से मैं पहली बार मिला। उन्होंने भी मुझसे यही कहा कि बेटा तू ही इसे अस्पातल ले जाकर आपरेशन करा। नहीं तो हमारी बहू मुसीबत में पढ़ जाएगी।
बंटू को मैं देहरादून के सरकारी अस्पताल ले गया। कागजी कार्यावाही पूरी की गई। आपरेशन के नाम से ही बंटू कांप रहा था। उसे आपरेशन कक्ष में कंपाउंडर ले गया। करीब दो मिनट बाद दरवाजा खुला और चिकित्सक बाहर आया। उसने मुझसे कहा कि इस युवक का आपरेशन करना मुश्किल है। यह तो घबराहट में कांप रहा है। ऐसी स्थिति में इसका आपरेशन करना संभव नहीं है। चिकित्सक ने मुझसे कहा कि पहले इसे मानसिक रूप से मजबूत करो। इसके भीतर का डर हटाओ तभी आपरेशन कर पाऊंगा। इस पर मैं आपरेशन कक्ष में गया उसे मैं जितना समझा सकता था समझाया। कहा- अपने बच्चों का भविष्य सोच। पत्नी को देख यदि उसे कुछ हो गया तो तेरा और बच्चों का क्या होगा। उसे बताया गया कि ऐसा आपरेशन काफी छोटा होता है। इससे कोई खतरा नहीं होता। बंटू मानसिक रूप से कुछ मजबूत हुआ और आपरेशन के लिए तैयार हो गया और मैं कक्ष से बाहर आ गया।
भीतर बंटू व चिकित्सक था और मैं बाहर इंतजार कर रहा था। बाहर सरकारी चिकित्सालय की एक नर्स भी खड़ी थी। जो कुछ समय पहले मुझे बंटू को समझाते हुए देख रही थी। नर्स को अपना रिकार्ड बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन के केस लाने होते थे। वह परेशान थी कि उसे कोई केस नहीं मिल रहा। उसे मैं काम का नजर आया। वह मेरे पीछे पढ़ गई कि मुझे भी ऐसे केस लाकर दो। उस नर्स की बातें सुनकर मैं बोर हो रहा था। उसने अपनी कार्यप्रणाली से लेकर अब तक कराए गए आपरेशनों की संख्या तक मुझे गिना दी। मैने उसे आश्वासन दिया कि जब भी कोई ऐसा मामला मेरी नजर में आएगा उसे आपके पास ही भेजूंगा।
कुछ देर बाद आपरेशन कक्ष का दरवाजा खुला और बंटू खुद चलकर बाहर आया। उसके हाथ में कुछ गोलियां भी थीं। वह मुझसे कुछ नहीं बोला। मैने पूछा आपरेशन हो गया। इस पर उसने हां में सिर हिलाया। तब मैने उसे कहा कि उसे घर छोड़ आता हूं। कुछ मानसिक रूप से कमजोर होने के बावजूद बंटू बोला कि आपरेशन कराने के पैसे मिलते हैं। पैसे लेकर ही घर जाऊंगा। इस पर हम चिकित्सक की रिपोर्ट लेकर अस्पताल के कार्यालय में बाबू के पास गए। वहां कागजी खानापूर्ति के बाद बंटू को एक सौ का नोट थमाया गया। बंटू को मैने स्कूटर से घर छोड़ दिया। जब मैं वापस जाने लगा तो वह मुझपर बरसने लगा। उसे यही गुस्सा था कि मैने उसका आपरेशन क्यों कराया। वह मेरी शक्ल तक देखना नहीं चाहता था, जबकि उसके घर में सभी खुश थे। मैं चुपचाप उसके घर से बाहर निकल गया। इस घटना के करीब पंद्रह साल हो चुके हैं। उसके बाद से मैने उसे नहीं देखा, लेकिन इतना पता है कि उसकी बेटियां जवान हो गई हैं और परिवार खुशहाल है।
भानु बंगवाल

Wednesday, 12 December 2012

Torch ....

मशाल....
पहाड़ों ने भी ओढ़ ली
बर्फ की चादर
चुपचाप देखते रहे
हम तमाशा
चारों ओर चित्कार के खिलाफ
सी लिए होंठ
चुप्पी तोड़ने की कोशिश में
टूटकर बिखर रहा सच
बिखरा हुआ क्या तोड़ेगा
सन्नाटा
एक लहर उठी, मची हलचल
टूटने लगी चुप्पी
मचने लगा शोर
बंधने लगी मुट्ठियां
जलने लगी मशाल
फिर शुरू हुई
मशाल को बुझाने की कोशिश
यात्राएं तेज हुईं, यज्ञ हुए और महामंत्र
पढ़े जाने लगे
फिर भी ये आग कम नहीं हुई
कम होती भी कैसे
मशालची अपनी झोपड़ियों को जलाकर
बना रहे थे मशाल
भूखे पेट से निकलने लगा
रोटी की मांग के नारों का शोर
एक दिन ये मशाल
जला कर राख कर देगी
चुप्पी का पाठ पढ़ाने वालों को
और रचेगी एक नए समाज को
ये मशाल।
भानु बंगवाल

Monday, 10 December 2012

How this Dry strike ....

ये कैसी सूखी हड़ताल....
देर रात को दफ्तर से घर पहुंचने के बाद सुबह जल्द बिस्तर से उठने का मन नहीं करता। इसके बावजूद जल्द इसलिए उठना पड़ता है कि बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे होते हैं। मंगलवार की सुबह तो छोटे बेटे ने मुझे उठाया और कहा कि स्कूल का समय हो रहा है। आटो अंकल नहीं आएंगे। उनकी हड़ताल है। आपको ही मुझे स्कूल छोड़ना और वापस लाना होगा। ऐसे में बिस्तर छोड़ते ही मैं कपड़ने बदलने में लग गया। खिड़की से बाहर झांका तो देखा कि बाहर कोहरा छाया हुआ है। आसमान में कुछ बादल भी थे। यानी सूर्यदेव भी हड़ताल पर चले गए।
बात-बात पर हड़ताल करने में तो हम भारतवासी महान हैं। राजनीतिक दल हों या फिर सामाजिक संगठन। आएदिन सड़कों पर उतरकर सरकार के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं। जनता के हक की लड़ाई लड़ने वाले ये लोग जब सड़कों पर उतरते हैं, तो शायद सरकार को तो कोई फर्क पड़े न पड़े, लेकिन आमजन जरूर परेशान हो जाता है। उत्तराखंड में तो राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ने के बाद यहां के लोग धरने, प्रदर्शन व आंदोलन में माहिर हो गए हैं। बात-बात पर जुलूस व प्रदर्शन के लिए सचमुच यहां के लोगों को आलस तक नहीं आता। गांधीवादी तरीके से आंदोलन तो करते हैं, साथ ही सरकार, मंत्री या फिर किसी भी नेता का पुतला फूंकने में भी देरी नहीं लगाते। यदि प्रदर्शन के दौरान मीडिया वाले नजर आ जाएं, तो कैमरे में नजर आने के लिए ऐसी होड़ मचती है कि कई बार घंटों तक रास्ता जाम भी कर दिया जाता है।
निजी परिवहन की हड़ताल से मैं खुश इसलिए था कि सड़क पर वाहनों का जमावड़ा नजर नहीं आएगा। चलो एक दिन सड़कों पर कुछ प्रदूषण तो कम होगा। देहरादून की सड़कों पर भले ही निजी बसें, टैक्सी, ऑटो आदि नहीं चले, लेकिन वाहन भी कम नहीं थे। लोग अपने संसाधनों से ही बच्चों को स्कूल छोड़ रहे थे। खुद दफ्तर को निकल रहे थे। ऐसे में सड़क पर अन्य दिनों की भांति चहल-पहल जरूर थी, लेकिन ज्यादा भीड़  नहीं थी। सड़कें कुछ चौड़ी नजर आ रही थी। साथ ही सड़कों पर जाम नहीं लग रहा था। कई लोग पैदल ही अपने गंतव्य को जा रहे थे। कई स्कूलों ने तो छुट्टी ही घोषित कर दी। कई स्कूल खुले और अभिभावकों की स्कूलों तक दौड़ लगी। स्कूलों में बच्चे भी कम पहुंचे, वहीं सरकारी दफ्तरों व स्कूलों में तो कर्मियों को देरी से आने का बहाना ही मिल गया। कई तो कड़ाके की ठंड में घर से बाहर ही नहीं निकले। बहाना ये था कि अपना संसाधन है नहीं। दस से बीस किलोमीटर दूरी तक काम में कैसे पहुंचते।
इस हड़ताल से उदासीराम काफी मायूस थे। उन्हें यही दुख सता रहा था कि सिर्फ सवारी वाहनों की ही हड़ताल क्यों हुई। ट्रांसपोर्ट कंपनियों, एसोसिएशन आदि ने इस बार अपनी सेवाएं बंद रखने का ऐलान किया हुआ था। यानी प्राइवेट टैक्सी, बस व अन्य सवारी वाहनों का चक्का जाम था। इस आंदोलन से सरकारी संस्थान, शिक्षण संस्थाओं, बाजार को मुक्त रखा गया। कई बार तो जब चक्का जाम होता था तो उसे प्रभावी बनाने के लिए व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ ही शिक्षण संस्थाओं, सरकारी व निजी दफ्तरों को बंद करने का भी ऐलान कर दिया जाता था। ऐसे में तो उदासीराम जी की मौज आ जाती थी। उनका दफ्तर शहर से कुछ दूरी पर था। इस पर जब कभी आंदोलनकारी उनके दफ्तर को बंद कराने नहीं पहुंचते, तो वह स्वयं उनके पास जाते और यह सूचना देते कि एक दफ्तर वहां चल रहा है। ऐसे में आंदोलनकारी दफ्तर बंद कराने पहुंचते। दफ्तर के आगे नारेबाजी करते और फिर कर्मचारी बाहर निकलते और दफ्तर बंद हो जाता। सभी कर्मी घर चले जाते। आसमान से बूंदाबांदी शुरू हो गई और वह हड़ताल करने वालों को ही कोस रहे थे कि इस बार कैसी सूखी हड़ताल कर दी।
भानु बंगवाल

Saturday, 8 December 2012

Hopes for happines during sadness

दुख की घड़ी में सुख की आस....
दुख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। इंसान की जिंदगी में इनके आने-जाने का क्रम लगा रहता है। कई बार जब सुख की बारी आती है, तो उसका क्रम चलता रहता है। फिर ऐसा लगता है कि ये दुनियां काफी खूबसूरत है। इसके विपरीत जब दुखों की झड़ी लगती है, तो व्यक्ति निराश होने लगता है। ऐसे में धारा के विपरीत जो तैरना जानते हैं, वे दुख को रोक तो नहीं सकता है, लेकिन उसका डटकर मुकाबला कर प्रभाव को कुछ कम जरूर कर देते हैं। वैसे तो सुख व दुख किसी व्यक्ति के लिए निजी हो सकते हैं,  लेकिन उसका प्रभाव आसपास के परिवेश के लोगों पर भी पड़ता है। ऐसे में सुख व दुख के भागीदारी उसे भोगने वाले व्यक्ति के संबंधी व पहचान वाले भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से  बनते हैं। यानी एक व्यक्ति दुखी हुआ तो उसके घर परिवार के सदस्यों से साथ ही ऑफिस तक के साथियों पर इसका असर पड़ता है।
एक ऑफिस के एक केबिन में करीब आठ लोग एकसाथ बैठकर कार्य निपटाते आ  रहे थे। यदि किसी साथी का अवकाश होता तो दूसरे साथियों पर उसके कार्य की जिम्मेदारी आ जाती। बड़े मजे से काम चल रहा था। आपसी समन्वय कर सभी ऑफिस का काम निपटाते थे। एक दिन बगल के तीन व्यक्तियों वाले दूसरे छोटे केबिन का एक साथी दुर्घटना में घायल हो गया और उसकी टांग टूट गई। तो वहां की सारी जिम्मेदारी बाकी बचे दो साथियों पर आ गई। कुछ दिन बाद एक साथी और नौकरी छोड़कर चला गया। ऐसे में दूसरा केबिन खाली होने लगा तो बड़े केबिन से एक साथी को वहां की दोहरी जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। खींचतान कर दोनों केबिन का काम फिर पटरी पर आ गया। घायल व्यक्ति के बदले नई भर्ती नहीं की जा सकती थी। क्योंकि जब वह ठीक होकर आता तो फिर से उसे अपना कार्य संभालना था। ऐसे में आठ व्यक्तियों वाले केबिन से ही कार्य में मदद दी जा रही थी।
समय भी तेजी से करवट बदलता है। इस बड़े केबिन में जैसे कोई ग्रहण लग गया। केबिन के कुछ साथियों को दुख ने घेरना शुरू कर दिया। एक दिन बारू नाम का व्यक्ति को घर से दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसकी करीब 83 साल की माता जी की चीख उसे सुनाई दी, जो घर के बरामदे में जमीन पर लेटी थी। बारू दौड़कर अपनी माताजी के पास गया और उसे उठाने का प्रयास किया। उसकी माताजी अपना शरीर सीधा तक नहीं कर पा रही थी। कार से माताजी को अस्पताल पहुंचाया गया। पता चला कि रीड़ की हड्डियां टूट गई हैं। करीब पंद्रह दिन अस्पताल में रखने के बाद चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। कहा कि अब घर ले जाकर उनकी बिस्तर पर ही सेवा करो। करीब पंद्रह दिन बाद बारू ने फिर से ऑफिस आना शुरू किया। अब बारू पर हर सुबह उठकर पत्नी के साथ माताजी का बिस्तर साफ करना, नहलाना, बिस्तर पर ही उनके कपड़े बदलना आदि कार्य की जिम्मेदारी आ पड़ी। बारू भी बेटा धर्म निभा रहा था। जितने दिन बारू ऑफिस नहीं आया, उतने दिन उसके कार्य की जिम्मेदारी भी केबिन के साथियों ने आपस में बांट ली थी। करीब तीन माह बीते कि तभी एक दिन केबिन के दूसरे साथी भगवान को पिथोरागढ़ जनपद स्थित उनके गांव से सूचना आई कि उनके पिताजी का स्वास्थ्य काफी खराब है। इस पर भगवान को देहरादून से अपने घर पहुंचने में दो दिन लगे। केबिन के साथियों ने आपसी छुट्टियां केंसिल कर व्यवस्था को बनाए रखा। पिथोरागढ़ में अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टरों ने भगवान सिंह के पिता के कई टेस्ट करा दिए। फिर दिल्ली के लिए रैफर कर दिया। दिल्ली जाने पर पता चला कि केंसर से उसके पिता के फेफड़े संक्रमित हो चुके हैं। केंसर भी आखरी चरण में पहुंच गया। इस पर बेटे ने पिता का दिल्ली में इलाज शुरू कराया। बेटे को यह पता था कि पिता ज्यादा दिन तक नहीं रहेंगे, लेकिन जीवन के अंतिम छणों में उन्हें कोई पीड़ा न हो, इसलिए वह कर्ज लेकर बेटे का धर्म निभा रहा था। भगवान को आठ से दस दिन के अंतराल में पिता को कीमोथेरेपी के लिए दिल्ली ले जाना पड़ता था। वह रात को काम निपटाकर दिल्ली रवाना होता। अगले दिन पिता को कीमोथेरेपी से दवा चढ़ाता और उसी रात को वापस देहरादन चल पड़ता। ऐसे में उसे एक या दो दिन की ही छुट्टी लेनी पड़ती। इस बीच कई बार ऐसी स्थिति हो जाती कि केबिन में कर्मियों की संख्या पांच तक रह जाती। ऐसे में कई को अपने रिश्तेदारों की शादी तक में जाने का प्लान केंसिल करना पड़ा।
भगवान के दुख भी यहीं कम नहीं हुए। एक सुबह जब वह उठा तो देखा कि घर के बरामदे से उसकी मोटर साइकिल गायब है। रात को कोई चोर उसकी मोटर साइकिल ले उड़ा। एक तो कंगाली और ऊपर से आटा गीला। यही कुछ हाल भगवान का था। फिर भी उसके माथे पर कोई शिकन नहीं रहती। ऑफिस में वह घर के दर्द भूल जाता और बड़ी तन्मयता से आपना कार्य निपटाता। दुख-ही दुख से भरे इस केबिन में एक साथी गोल्डी को शुभ समाचार मिला। यह समाचार था कि उसे  केंद्रीय संस्थान में नौकरी मिल गई। इस साथी के सुख से समाचार के साथ अन्य साथी खुश तो हुए, लेकिन सभी को एक चिंता यह भी सताने लगी कि इसके जाने के बाद केबिन का कार्य छितर-बितर हो जाएगा।
सच्चाई यह है कि कितनी भी बारिश हो, आंधी चले, तूफान आए, लेकिन सड़कों पर वाहन दौड़ते हैं। रेल चलती है, डाकिया पत्र लेकर लोगों केघर जाता है। समाचार पत्र छपते हैं। कोई भी आवश्यक कार्य नहीं रुकता। हां कुछ देर जरूर हो जाती है। गोल्डी के बदले नया साथी केबिन में मिल गया। साथ ही एक अन्य नए युवक को ट्रायल के तौर पर रख लिया गया। दूसरे केबिन में दुर्घटना में घायल साथी ने भी नौकरी छोड़ दी। वहीं भगवान के पिताजी का निधन हो गया। वह क्रियाक्रम संस्कार निपटाने के लिए पंद्रह दिन के लिए गांव चला गया। इसी बीच एक अन्य साथी भी तीन दिन के लिए किसी रिश्तेदार की शादी में दिल्ली चला गया। दो साथी पहले से कम थे कि अचानक बारू की मांताजी ने भी दम तोड़ दिया। गोविंद व भगवान के साथ ही गोल्डी ने ऑफिस जाना बंद कर दिया। एक साथी विवाह समारोह में शामिल होने के लिए दिल्ली गया था। ऐसे में चार पुराने व दो नए साथियों पर केबिन की जिम्मेदारी आ पड़ी। सभी इस आस में काम कर रहे थे कि दुख के बाद सुख जरूर आएगा। पहले विवाह से लौटकर साथी आएगा, फिर भगवान की वापसी होगी और फिर बारू केबिन में लौटेगा। इसके बाद स्थिति सामान्य हो जाएगी। इसीआस में वे कर्मी भी आगे की अपनी छुट्टी की योजना भी मन ही मन में बना रहे हैं, जो लगातार काफी समय से बगैर छुट्टी से कार्य कर रहे हैं।
भानु बंगवाल

Thursday, 6 December 2012

What is this kind of love ....

ये कैसा प्यार....
सफलता व विफलता दोनों ही इंसान के जीवन में आती रहती है। कहावत है कि बार-बार प्रयास करने के बाद इंसान कठिन से कठिन कार्य को भी सफल बना लेता है। ऐसे में व्यक्ति को प्रयास नहीं हारने चाहिए। इसके विपरीत सामाजिक परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि बार-बार व्यक्ति प्रयास में हारता रहता है, लेकिन उसकी हार में भी एक जीत होती है। ऐसा ज्यादातर प्रेम के मामलों में देखा गया है। कई बार प्रेमी हारकर भी जीत जाता है। यानी वह खुद तो मायूस हो जाता है, लेकिन दूसरों का दिल जीत लेता है।
 मानव नाम के युवक की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। करीब तीन साल पहले वह हरिद्वार स्थित एक संस्थान में जनसंचार में स्नातकोत्तर का छात्र था। घर यूपी के किसी जिले में था और पढ़ने हरिद्वार आया हुआ था। खुद के लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर वह पढाई कर रहा था। साथ ही साथियों  को भी यही सुझाव देता कि उन्हें भी क्या करना चाहिए। या यूं कहिए कि मानव एक प्रतिभाशाली छात्र था, जो परीक्षा में भी पूरी यूनिवर्सिटी में टापर रहा। पढ़ाई के साथ ही वह नौकरी भी तलाशता रहा और पढ़ाई पूरी करते-करते एक संस्थान में उसे कामचलाऊ नौकरी भी मिल गई।
पढ़ाई के दौरान ही मानव की एक छात्रा से काफी निकटता बढ़ी। शुरुआत में वे अच्छे दोस्त रहे। धीरे-धीरे दोस्ती प्यार में बदल गई। फिर दोनों साथ जीने व मरने की कसम खाने लगे और एक दूसरे के घर भी जाने लगे। मानव का घर यूपी में बरेली के निकट था और प्रिया नाम की उसकी मित्र छात्रा उत्तराखंड के उधमसिंह नगर की रहने वाली थी। मानव ने छात्रा को अपनी ही तरह मेहनती बनाने का हर संभव प्रयास किया। युवती भी दिल्ली में नौकरी लग गई। दोनों की मित्रता तक तो मामला सही था, लेकिन युवती के परिजन मित्रता को रिश्ते में बदलने को तैयार नहीं थे। उनकी निकटता के बीच जाति की दीवार मजबूती से खड़ी हो गई।
दोनों ही अपने परिजनों का मान रखते थे। दोनों ने ही अपने-अपने परिजनों को समझाने का प्रयास किया। इसमें मानव के परिजन तो मान गए, लेकिन युवती की मां राजी नहीं हुई। दोनों के मन में घर से भागने का विचार भी आया। उनके मित्रों ने भी कुछ इसी तरह के सुझाव भी दिए। इसके बावजूद लेकिन दोनों ने कुछ भी गलत न करने का निर्णय लिया, जिससे उनके परिजनों मान मर्यादा को ठेस लगे। बात आगे बढ़ रही थी और युवती के परिजनों की चिंता भी विकराल होती जा रही थी। ऐसे में प्रिया के घरवालों ने उसका रिश्ता किसी दूसरे से तय कर दिया। वह भी  नौकरी छोड़कर अपने घर चली गई।
हर संभव प्रयास के बावजूद प्रिया की मां दोनों का रिश्ता करने को तैयार नहीं हुई और न ही मानव व प्रिया एक दूसरे को भूलने को तैयार नहीं हुए। एक दिन सुबह के समय मानव को प्रिया की मां का फोन आया कि प्रिया ने जहर खा लिया है। तू जल्द हमारे घर चला आ। मानव तो अपनी सुध-बुध खो बैठा। न चाय पी और न ही नाश्ता किया। तैयार हुआ और बस पकड़कर प्रिया के घर को रवाना हो गया। रास्ते में वह तरह-तरह की कल्पानाएं भी कर रहा था कि कहीं उसको निपटाने का प्लान तो नहीं बनाया गया है। फिर उसके मन में यह सकारात्मक विचार आता कि युवती की मां उसे कहेगी कि अब हमारे बस की बात नहीं है। तुम्हारे प्यार की जीत हुई। तू ही मेरी बेटी से विवाह कर ले। कुछ इसी तरह की कल्पानाओं के ताने-बाने बुनता हुआ वह युवती के घर चला गया। हां किसी अनहोनी या विवाद की स्थिति से निपटने के लिए वह अकेला नहीं गया।
प्रिया के घर पहुंचने पर उसकी माता ने मानव के भीतर की इंसानियत को जगाया। उसे जाति-पाति का पाठ पढ़ाया। दो जातियों के बीच की दीवार का मतलब समझाया। फिर अपना आंचल फैलाकर उसके सामने रख दिया और कहा कि मेरी बेटी को समझा और हमे भूल जा। तू ही मेरी बेटी को समझा सकता है। वह हमारे कहने में नहीं है, लेकिन तेरा कहना जरूर मानेगी। नहीं तो एक साथ कई परिवार बर्बाद हो जाएंगे। मानव के आगे खाई थी और पीछे कुंआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे या क्या न करे। फिर उसने प्रिया से कुछ देर बात की। इसके बाद वह हमेशा-हमेशा के लिए प्रिया से नाता तोड़ कर वापस घर को चल दिया। वहीं, प्रिया के परिजन उसकी कहीं और शादी की तैयारियों में जुट गए।फिर एक दिन ऐसा आया कि मानव को यूनिवर्सिटी से टॉपर का सम्मान दिया रहा था और दूसरी तरफ प्रिया की डोली उठ रही थी।  
भानु बंगवाल  

Friday, 30 November 2012

Raja Mahendra Pratap government in Kabul was created

काबुल में बनाई थी राजा महेंद्र प्रताप ने सरकार (एक दिसंबर पर जन्मदिवस पर विशेष)
ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ अफगानिस्तान में सामानांतर सरकार की घोषणा करने वाले राजा महेंद्र प्रताप का दून घाटी से खास रिश्ता रहा। गोरों से लड़ने के लिए देहरादून में अपने परिजनों व जायदाद को छोड़कर अफगानिस्तान में आजाद हिंद सरकार की घोषणा करने वाला यह दिलेर राजा बाद में कई क्रांतिकारियों की प्रेरणा का स्रोत बना। यही नहीं, निर्वासित सरकार के इस निर्माता का देहरादून और एक दिसंबर से खास रिश्ता भी रहा है ।
राजा महेंद्र प्रताप के जीवनकाल में एक दिसंबर का खासा महत्व रहा है। एक दिसंबर, 1914 को हाड कंपाने वाली सर्दी की रात को वह राजपुर रोड (देहरादून) स्थित अपनी कोठी में पत्नी व दो बच्चों को सोता छोड़कर जर्मनी चले गए थे। इसके ठीक एक साल बाद राजा महेंद्र प्रताप ने एक दिसंबर 1915 में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ अफगानिस्तान में आजाद हिंद सरकार की घोषणा की। इस सरकार के वह राष्ट्रपति बने तथा भोपाल (मध्यप्रदेश) निवासी मौलाना बरकत उल्ला प्रधानमंत्री बने। करीब छह हजार क्रांतिकारियों को मंत्रीमंडल में शामिल किया गया। अंग्रेजों से लड़ने के लिए उन्होंने जर्मनी और तुर्की के सहयोग से 10 हजार व्यक्तियों की फौज भी खड़ी कर दी।
मथुरा जनपद के वृंदावन के समीप एक छोटी सी रियासत मुरसान में एक दिसंबर 1886 को राजा महेंद्र प्रताप का जन्म हुआ। उनके पिता घनश्याम सिंह का साहित्य के प्रति काफी रुझान था। अलीगढ़ के सरकारी हाईस्कूल में शिक्षा के बाद राजा महेंद्र प्रताप ने सर सैयद के एमएओ कॉलेज में दाखिला लिया। बाद में यह कॉलेज मुस्लिम यूनिवर्सिटी ऑफ अलीगढ़ में तब्दील हो गया था। बीए की शिक्षा के बाद राजा महेंद्र प्रताप समाज सेवा के कार्यों में लग गए। सामाजिक जागरण की दृष्टि से उन्होंने एक दलित के साथ भोजन किया और दलित व्यक्ति को ही प्रेम धर्म मंदिर का पुजारी बनाया। 1909 में उन्होंने वृंदावन स्थित अपने महल में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। बाबू संपूर्णानंद इस महाविद्यालय के पहले शिक्षक रहे, जो बाद में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व राजस्थान के राज्यपाल भी रहे।
राजा महेंद्र प्रताप के बारे में कुछ भी लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि करीब 13 साल पहले मेरी मुलाकात ऐसे व्यक्तित्व से हुई जो देहरादून के इंदिरानगर में रह रहे थे और तब उनकी उम्र करीब 86 साल थी। उनका नाम था हाफिज अकबर खान। वह राजा महेंद्र प्रताप के मिशन व प्रेम धर्म के मुख्य ग्रंथी भी रहे। उन्होंने ही मुझे इस महान व्यक्तित्व के जीवन से परिचित कराया।
उन्होंने बताया कि देहरादून छोड़कर जर्मनी पहुंचे राजा महेंद्र प्रताप ने भारत को अंगरेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए जर्मीनी व तुर्की में क्रांतिकारी लोगों को एकत्र करना शुरू किया। उस समय पहला विश्व युद्ध चल रहा था। यूरोप में जर्मनी व तुर्की एक साथ मिलकर लड़ रहे थे। अफगानिस्तान के बादशाह हबीबुल्ला खां के सहयोग से वहां की राजधानी काबुल में क्रांतिकारियों का जमावड़ा बढ़ने लगा। एक दिसंबर 1915 को वहीं भारत की पहली निर्वासित सरकार (आजाद हिंद सरकार) की स्थापना की गई। इस सरकार की फौज को जर्मनी व तुर्की ने हथियार देने का वादा किया। तैयारी थी कि पेशावर के रास्ते अविभाजित भारत में प्रवेश किया जाए। जर्मनी के बादशाह केसर विलियम के माध्यम से राजा महेंद्र प्रताप ने अंगरेजों से लड़ने के लिए भारत के राजा महाराजाओं व जमींदारों को पत्र भिजवाए।
रेशमी रुमाल षडयंत्र के नाम से प्रचलित इस अभियान के तहत रुमाल में संदेश लिखकर उसे कोट से स्तर पर सिल लिया जाता था। इस तरह संदेश लिखे कोट भारत व आसपास के देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए भेजे जाने लगे, लेकिन नेपाल नरेश को भेजा गया संदेश वाला कोट अंगरेजों के हाथ पड़ गया। इस पर राजा महेंद्र प्रताप के इस मामले में सीधा हाथ होने का खुलासा हुआ। इस पर अंगरेजों ने हिंदुस्तान में राजा महेंद्र प्रताप की सारी संपत्ति कुर्क कर ली और उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया। उनकी जायदाद को कब्जाने के लिए बाकायदा एक्ट बनाया गया, जिसका बाद में भी दुरुपयोग होता रहा।
आजाद हिंद सरकार की फौज को हथियारों की आमद रोकने के लिए अंगरेजों ने ईरान में फौज लगा दी। पहले विश्व युद्ध में जर्मनी व तुर्की की हार के बाद आजाद हिंद सरकार की फौज का अभियान छिन्न-भिन्न हो गया। बाद में राजा महेंद्र प्रताप के पद चिह्नों पर चलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने विदेशी धरती पर आजाद हिंद फौज का गठन किया। पांच साल अफगानिस्तान में बिताने के बाद राजा महेंद्र प्रताप ने जापान के नारे- एशिया, एशिया के लोगों का है, से प्रभावित होकर जापान में एक बड़ी कांफ्रेंस में हिस्सा भी लिया। 1927 में जब जापान ने चीन के मंचुरिया पर हमला किया तो वह जापान के अभियान से अलग हो गए। 1929 में उन्होंने बर्लिन में मासिक पत्रिका द वल्र्ड फेडरेशन भी निकाली। करीब 32 साल विदेशों में जीवन व्यतीत करने के बाद राजा महेंद्र प्रताप 1946 में भारत लौट आए। इससे पहले उनकी पत्नी की 1924 में मृत्यु हो चुकी थी। बंटवारे के दौरान वह देश के विभिन्न हिस्सों में दौड़भाग कर बंटरारे के खिलाफ लोगों को समझाने का प्रयास करते रहे। समाजसेवा के क्षेत्र में उन्होंने देहरादून और हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया। 29 अप्रैल 1979 में उनकी मृत्यु हो गई। हरियाणा के यमुनानगर स्थित श्री कालेश्वर महादेव मठ में हर साल एक दिसंबर को राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन मनाया जाता है। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आजादी के लिए उन्होंने अपने घर, परिवार का जो त्याग किया, वह सभी के लिए प्रेरणादायी है। ऐसी महान आत्मा को मेरा शत-शत नमन।
शांति के जज्बे ने अकबर को बनाया शिवानंद
इसे राजा महेंद्र प्रताप की संगती का असर ही कहेंगे कि अकबर खान दो धर्मों के बीच तालमेल बैठाने में कामयाब रहे। प्रेम, शांति व सच्चाई के के मार्ग पर चलने के जज्बे ने हाफिज अकबर खान को स्वामी शिवानंद बना दिया। वह राम-रहीम की माला साथ-साथ जपते रहे। जीवन के किसी भी क्षण उन्होंने दो धर्मो के बीच दीवार महसूस नहीं की। अकबर खान सरकारी सेवा में 1931 में एमईएस देहरादून में नियुक्त हुए। पहले कांग्रेसी विचारधारा को मानने लगे। फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य रहे। फिर उन्होंने यह दल भी छोड़ दिया। उन्हें सभी दल एक से ही लगने लगे थे, जो आम आदमी की लड़ाई की बात तो करते, लेकिन चापलूस प्रवृति के ही नजर आते। राजा महेंद्र प्रताप से उनकी पहली मुलाकात एक नवंबर 1946 को हुई। इस मुलाकात ने उनके जीवन में नया मोड़ ला दिया। वह राजा की मासिक पत्रिका में अनुवादक के रूप में कार्य करने लगे। साथ ही राजा ने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। करीब 26 साल राजा की संगत में रहने के बाद उनकी विचारधारा ही बदल गई और समाज सेवा के क्षेत्र में जुड़ गए। कालेश्वर महादेव मठ से वह इतने प्रभावित हुए कि स्वामी महानंद से सन्यास की दीक्षा लेकर वह अकबर खान से स्वामी शिवानंद बन गए। इस मठ में वह कई साल तक मुख्य पुजारी भी रहे। राजा महेंद्र प्रताप के अनुयायियों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन्होंने समाजसेवा को ही अपना धर्म माना।
भानु बंगवाल

Thursday, 29 November 2012

मोह खाकी का....

जीवन भर खाकी पहनो और उसमें दाग न लगे, ऐसा संयोग काफी कम लोगों के ही साथ संभव होता है। कई तो बेचारे ईमानदार होते हैं, लेकिन अपने बेईमान साथियों की गलतियों का उन्हें भी शिकार होना पड़ जाता है। ये पुलिस की नौकरी भी ऐसी है, जो करता है उसके परिचित, रिश्तेदार सभी उसके बारे में यही सोचते हैं कि ऊपरी आमदानी से वह काफी कमा लेता होगा। ऐसे व्यक्ति का जब रिश्ता होता है तो लड़की वाले भी वेतन के साथ ऊपरी आमदानी मान कर चलते हैं। भले ही दूसरों को कोई नसीहत देता है, लेकिन अपने मामले में ऐसी नसीहत को भूल जाता है। इसके बावजूद कई अधिकारी ऐसे रहे जो जीवन भर ईनामदारी का दायित्व निभाते रहे। ऐसे ही एक अधिकारी थे, जो कई सालों तक होमगार्ड के कमांडेट के साथ ही नागरिक सुरक्षा के अधिकारी का दायित्व निभाते रहे।
इस व्यक्तित्व की खासीयत थी कि वह सरकारी गाड़ी का उपयोग भी आफिस के काम के लिए ही करते थे। निजी काम के लिए वह आफिस की गाड़ी पर नहीं बैठते। स्टाफ में हर व्यक्ति को वह ईमानदारी व अनुशासन का पाठ पढ़ाते थे। घर पहुंचने पर जब वह गाड़ी वापस भेजते तो कितना किलोमीटर तक चली, यह भी अपनी डायरी में नोट कर लेते। इसके पीछे उनकी मंशा यह रहती कि कहीं ड्राइवर गाड़ी का दुरुपयोग न करे।
होमगार्ड एक स्वयंसेवी संस्था है। इसमें तैनात जवान पहले सरकारी नौकरी वाले भी होते थे। जो नौकरी के साथ होमगार्ड के रूप में योगदान देते थे। जब ड्यूटी लगती, इसका उन्हें कुछ मेहनताना भी मिल जाता था। अब इस सेवा में भी काफी परिवर्तन आ गया। होमगार्ड को दैनिक मजदूरी के रूप में नियमित कार्य मिल रहा है। उत्तराखंड में तो ट्रैफिक व्यवस्था को सुचारु बनाने के लिए होमगार्ड के युवक व युवतियों को मुख्य चौराहों में तैनात किया जाने लगा है। ऐसे ही एक होमगार्ड था नदीम। नदीम कुछ ज्यादा ही शातिर था। उसकी ड्यूटी जिस चौराहे पर होती, वह वहां पर तैनात अन्य पुलिस वालों का खासमखास हो जाता। यही नहीं, वह वाहन चालकों की गलतियां पकड़ता। उन्हें रोकता और उनसे वसूली करता। नदीम को देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि वह होमगार्ड का स्वयंसेवक है। सिर पर वह टोपी नहीं लगाता था, क्योंकि टीपी के रंग से यह पता चल जाता कि वह होमगार्ड का जवान है। कंधे पर लगे होमगार्ड के बैच किसी को नजर नहीं आएं, इस पर वह सर्दियों में खाकी जैकेट पहनता। वहीं, गरमियों में बैच को उलटा कर देता।
नदीम पुलिस के लिए वसूली करता था। इस पर वह पुलिस का भी चहेता बनता चला गया और उसकी तैनाती चौराहे से थाने में हो गई। थाने में तो जो भी थानेदार आया, नदीम उसका खासमखास बना। अधिकारियों पर अपनी धाक जमाने की कमाल की कला थी उसमें। अधिकांश थानेदार उसका उपयोग अपनी जीप चलाने में चालक के रूप में करते।
समय के साथ नदीम ने तालमेल बैठाया और चतुराई से इतना कमाया कि वह पकड़ा भी नहीं गया। फिर उसने ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ा और जीत भी गया। उसके दोनों हाथों में लड्डू आ गए। दो तरफा कमाई कब तक चलती। इसकी शिकायत अधिकारियों से हुई कि एक व्यक्ति दो पदों पर रहकर दोहरी जिम्मेदारी निभा रहा है। इस पर नदीम को होमगार्ड से हटा दिया गया और जांच बैठा दी गई। नदीम भी काफी पहुंचवाला था। उसने दोबारा वर्दी पहनने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। उसकी अर्जी के साथ सिफारिश के पत्रों का भी चट्टा लगने लगा। विधायक, मंत्री से लेकर कई अधिकारी उसके पक्ष में सिफारिश कर चुके थे। हर अधिकारी की टेबल से उसकी अर्जी उसे दोबारा होमगार्ड में रखने की प्रबल संस्तुति के साथ आगे बढ़ रही थी। अंत में उत्तराखंड पुलिस महानिदेशक कार्यालय में उसकी अर्जी पहुंची। यह अर्जी ईमानदार कमांडेंट के पास जैसे ही गई, उन्होंने सभी नेता, मंत्री व अधिकारियों की सिफारिश को दरकिनार कर अर्जी को ही निरस्त कर दिया। प्रधान होने के बावजूद नदीम होमगार्ड की वर्दी को दोबारा पहनने की जुगत में लगा है। इसके लिए उसकी कोशिश जारी है।....
भानु बंगवाल      

Wednesday, 28 November 2012

कुलटा-5 (अंतिम ) .. बच्चों का बंटवारा (सच्ची घटना पर आधारित) (जारी से आगे)

रेलगाड़ी के डब्बे की तरह मकानों की लाइन। सभी घर एक दूसरे से जुड़े हुए। करीब चालीस साल पहले किसी कालोनी में मकान कुछ इसी तरह के होते थे। यही नहीं तब यदि कोई जमीन का टुकड़ा खरीदकर मकान भी बनाता था तो कमरे भी लाइन के रूप में ही खड़े करता था। जैसे अब सड़क किनारे दुकानों की पंक्ति होती है। शुरूआत में अलग-बगल दो कमरे खड़े किए। जैसे-जैसे पैसा आता गया, तो कमरों की संख्या बढ़ने लगती। इस तरह जब कई कमरों का वाला मकान हो जाता था तो वह रेलगाड़ी की तरह ही नजर आता। तब सलीके से जो मकान होते, उसे कोठी कहा जाता। ऐसी कोठियां शहर में प्रतिष्ठित व नामी सेठों की होती थी।
दूहरादून में एक सरकारी कालोनी में रह रहे बट्टू के उसकी पड़ोस की महिला विदूषी  से अवैध संबंध रहे, जो कई साल तक चले। विदूषी और बट्टू के घर के कमरे रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए थे। बट्टू के कमरा शिफ्ट करने के बाद उसके पुराने कमरे में एक कलाकार का परिवार आया। इस कमरे का ही दोष था कि कलाकार की पत्नी भी कुलटा हो गई। यदि दाएं से मकान में नंबर डाले जाएं तो पहले नंबर पर बट्टू का कमरा था। दूसरे पर विदूषी का। तीसरे नंबर के मकान में एक पंडितजी रहते थे। पंडितजी के दो कमरे के मकान में एक कमरे की खिड़की पर लगी लोहे की एक सलाख (सरिया) गायब थी। इस सरिया के गायब होने के पीछे भी एक कहानी थी। यानी एक नंबर से लेकर तीन नंबर के मकान में रहने वालों में कोई न कोई कभी न कभी रासलीला का पात्र रहा। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि कुलटा की कहानी लगातार के तीन मकानों के इर्दगिर्द ही घूमती रही। इस कहानी की नींव करीब पैंतालिस साल पहले पड़ गई थी। इस कहानी से न तो बट्टू ने ही सबक लिया, न ही विदूषी ने और न ही कलाकार की पत्नी रामी ने। सभी जाने-अनजाने में कुलटा के पात्र बनते चले गए।
जब मैं छोटा था तो पंडितजी वाले मकान की गायब एक सरिया को देखकर मेरे मन में यही सवाल उठता कि इस सरिया को किसने तोड़ा। मजबूत खिड़की की मजबूत सरिया का गायब होना भी आसान नहीं था। मेरे पिताजी काफी मुंहफट इंसान थे। जब मैं करीब आठ साल का था तो एक बार मैने उनसे ही यह सवाल किया कि पंडितजी के घर की सरिया क्यों गायब है। इस पर उन्होंने मुझे टाल दिया। कहा अभी तू छोटा है। अच्छा ब बुरा नहीं समझता है। यह रहस्य तब का है, जब तू पैदा भी नहीं हुआ था। जब कुछ और बड़ा हो जाएगा, तब तूझे बता दूंगा। करीब दो साल बाद फिर मैने अपना सवाल पिताजी से दोहराया। इस पर उन्होंने मुझे जो कहानी सुनाई वह इस प्रकार थी।
पंडितजी से पहले उस मकान में जंगी नाम का एक व्यक्ति रहता था। जब उस मकान में जंगी आया तो उसके दो बेटे थे। तब संस्थान में संस्थान का अपना धोबी, नाई, टेलर व मोची होता था। जंगी मोची का काम करता था। जंगी की पत्नी शोभिनी बड़ी खूबसूरत थी। जंगीं के घर उसके एक मित्र गज्जू का आना जाना था। गज्जू कुंवारा था। वह भी काफी सुंदर व बलिष्ठ युवक था और वह किसी दूसरे संस्थान में टैक्निकल कर्मचारी था। जंगी व गज्जू की घनिष्ठता लगातार बढ़ रही थी। सरकारी क्वार्टर में आने के बाद जंगी की पत्नी के दो बच्चे और हुए। जंगी जैसे ही ऑफिस को जाता तो पीछे से गज्जू उसके घर पहुंचे जाता। संदेह होने पर एक दिन जंगी अचानक ऐसे समय घर पहुंचे गया, जिसकी उम्मीद न तो गज्जू को थी और न ही शोभिनी को। घर के दरवाजे बंद थे। जंगी ने द्वार खटखटाया। भीतर गज्जू था। यह पता चलते ही जंगी ने बाहर से कुंडा लगाकर गज्जू को बंद कर दिया। जंगी ने होहल्ला मचाकर मोहल्ले के लोगों को एकत्र किया। भीतर गज्जू के साथ जंगी की पत्नी बंद थी। जब काफी लोग एकत्र हो गए, तो सभी ने दरवाजे को खोलने के लिए आवाज दी। काफी देर बाद जंगी की पत्नी ने दरवाजा खोला। वह ऐसी सूरत बनाकर बाहर आई, जैसे गहरी नींद से उठी हो। जंगी के हाथ में डंडा था। उसने कमरे के भीतर जाकर गज्जू को खोजने के लिए कोना-कोना छान मारा, लेकिन गज्जू नहीं मिला। मिलता भी कैसे। वह तो मकान के पीछे की तरफ बनी खिड़की की एक सरिया तोड़कर भाग गया था।
इस घटना के बाद जंगी अपनी पत्नी शोभनी को साथ रखने को तैयार नहीं हुआ। उसने कुछ परिचित और मोहल्ले के लोगों को एकत्र कर पंचायत बुलाई। साथ ही गज्जू को भी बुलाया गया। फैसले के अनुरूप गज्जू पत्नी के तौर पर शोभिनी को अपने पास रखने को राजी हो गया। वह तो पहले से ही यही चाह रहा था। शोभिनी भी गज्जू के साथ रहने पर खुश थी, लेकिन उसने गज्जू के घर जाने से पहले एक बंटवारे की शर्त रख दी। यह बंटवारा था बच्चों का। शोभिनी का कहना था कि दो बड़े बेटों का बाप जंगी है और उनके बाद के बेटे गज्जू के हैं। ये बंटवारा भी हो गया। दोनों ही अपने-अपने परिवार के साथ खुश थे। नए पति के यहां शोभिनी के तीन बच्चे और हुए। आज इस दुनियां में न तो जंगी है और न ही शोभिनी। हां दोनों के नाती-पोते जरूर हैं, जो वर्षों पूर्व के हुए इस बंटवारे से शायद अनजान हैं। वहीं रेलगाड़ी के डिब्बे जैसे मकानों के कमरा नंबर एक में प्रकाश का परिवार रह रहा है। उसकी मौत के बाद बेटे को सरकारी नौकरी मिल गई थी। कमरा नंबर दो में रहने वाले लालजी ने भी सेवानिवृत्ति के बाद अपना मकान बना लिया था। उसकी भी मौत हो गई है। हां उसकी पत्नी विदूषी जरूर जिंदा है, जो बुढ़ापे में बीमार रहती है। उनके सरकारी मकान में भी रेल के मुसाफिर की तरह दूसरे कर्मचारी का परिवार रह रहा है। बट्टू भी सेवानिवृत हो गया और उसने भी अपना मकान बना लिया। सैंटी के पुत्र के साथ वह खुश है, जो अब युवा हो चुका है। जंगी वाले मकान में रहने वाले पंडितजी भी सेवानिवृत हो चुके हैं। वह भी नया मकान बनाकर कहीं दूसरे स्थान पर बस गए थे। वह भी इस दुनियां में नहीं रहे। सिर्फ दिखाई देती है पंडितजी के मकान की वो खिड़की, जिसकी सरिया आज भी गायब है। (समाप्त)
भानु बंगवाल  

Sunday, 25 November 2012

कुलटा-4.असर घर का, कलाकार की मौत (सच्ची घटना पर आधारित कहानी)

कहावत है कि जैसा करोगे संग, वैसा चढ़ेगा रंग। यानी व्यक्ति पर संगति का भी असर पड़ता है। अच्छे व्यक्तियों के बीच में यदि कोई बुरा व्यक्ति पहुंच जाए तो उसका व्यवहार भी अच्छों की तरह ही होने लगता है। वहीं, इसके विपरीत बुरे लोगो के साथ रहने पर अच्छा व्यक्ति भी बुरों की तरह व्यवहार करने लगता है। ये तो रही व्यक्तियों  की बात। लेकिन, किसी घर में शिफ्ट होने वाले परिवार के किसी सदस्य का व्यवहार यदि ऐसा हो जाए जो उस मकान में रहने वाले पहले व्यक्तियों की तरह हो। तो इसे क्या कहा जाएगा। अंधविश्वासी तो इसे कई किवदंतियों से जोड़ देंगे, लेकिन अन्य  लोग इसे संयोग या महज इत्तेफाक की संज्ञा देंगे। ऐसा ही कुछ उस घर में घटा, जिसमें बट्टू रहता था।
बट्टू का चरित्र अच्छा नहीं था। अपनी पत्नी को छोड़कर वह दूसरी महिलाओं की तरफ भागता रहा और उनसे प्रेम संबंध बनाता रहा। बट्टू का प्रोमशन हो गया। इस पर उसे दो कमरों का सरकारी मकान छोड़ना पड़ा। बट्टू तीन कमरे के फ्लैट में शिफ्ट हो गया। उसके पुराने घर को एक दूसरे कर्मचारी प्रकाश को दे दिया गया। इस कर्मचारी को पूरे मोहल्ले में हर व्यक्ति पसंद करता था। यह कर्मचारी एक कारपेंटर था, जो हास्य कलाकार भी था। सामने वाले की हूबहू आवाज निकालकर नकल करना प्रकाश की खासियत थी। करीब तीस-पैंतीस साल पहले छोटे-छोटे हास्य चुटकिले बनाकर उसे ऐक्टिंग के साथ पेश करने वाले इस कलाकार को लोग विवाह समारोह में भी बुलाते थे। समारोह में वह बारातियों के साथ ही घरातियों का भी मनोरंजन करता। साथ ही अपने लिखे गीतों की प्रस्तुति भी देता। जब यह कलाकार किसी मंच में चढ़ जाता तो सुनने वाले कभी यह नहीं चाहते कि वह जल्द मंच से उतरे। लोग फरमाइश करते और कलाकार भी कभी निराश नहीं करता।
इस कलाकार पर हमउम्र की युवतियां भी फिदा होती थी, लेकिन वह चरित्र के मामले में बट्टू जैसा नहीं था। उसका लक्ष्य तो सिर्फ लोगों को हंसाना था।  पहले कलाकार किराये के मकान में रह रहा था। उसके दो बेटे व एक बेटी थी। पत्नी घरेलू महिला थी, जो ज्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं थी। यह कलाकार अफसरों का भी चहेता था। आफिस का कोई समारोह होता तो वही उसमें चार चांद लगाता। नई-नई कहानियां गढ़कर अफसरों की नकल तक उतार देता, लेकिन जिसकी भी नकल उतारता वह भी बुरा नहीं मानता।
सब कुछ ठीकठाक चल रहा था। बट्टू के पुराने मकान में शिफ्ट होने के बाद  प्रकाश की पत्नी रामी ने पति से कहा कि मोहल्ले में कई लोगों ने गाय व भैंस पाल रखी हैं। हम भी क्यों न पालें। बच्चों की स्कूल की फीस व घर के राशन का कुछ खर्च दूध बेचने से होने वाली आमदानी से निकल जाएंगा। प्रकाश ने पत्नी को एक शर्त में गाय पालने की अनुमति दे दी कि इस काम में वह हाथ नहीं लगाएगा। वह गाय खरीदने के पैसे दे देगा, लेकिन चारा, पत्ती, दाना, भूसा आदि लाने व गाय को खिलाने का काम रामी खुद करेगी। दूध भी वही निकालेगी और बेचेगी भी वही। रामी खुश थी और एक जर्सी नस्ल की बछिया खरीद ली गई। दो-तीन साल मेहनत के बाद बछिया गाय बनी। दूध बेचा और कुछएक साल में प्रकाश की पत्नी के पास दो तीन गाय और हो गई।
कलाकार प्रकाश अधिकांश शाम को किसी समारोह में जाता और देर रात को घर लौटता। हां कुछ दारू भी पिए होता। घर में क्या चल रहा है, यह देखने की उसे फुर्सत भी नहीं होती। चारा लेने हर दिन जंगल जाते-जाते इस कलाकार की पत्नी एक व्यक्ति को दिल दे बैठी। वह व्यक्ति एक सरकारी संस्थान में मिस्त्री था, जिसका अपना भरा पूरा परिवार था। पहले दोनों बाहर चोरी-छिपे मिलते थे, जब दोनों का प्रेम जगजाहिर होने लगा तो उनकी शर्म भी जाती रही। बेचारा कलाकार प्रकाश इन सब बातों से अनजान था। एक बार किसी ने उसे इशारों में यह बताने का प्रयास किया कि उसके घर में क्या चल रहा है। इस पर कलाकार उससे ही लड़ने लगा। इससे बाद से उसका अक्सर पत्नी से झगड़ा भी होने लगा। एक शाम घर से प्रकाश यह कहकर निकला कि वह किसी कार्यक्रम में भाग लेने शहर से बाहर जा रहा है। वह दो दिन बाद लौटेगा। बाहर जाने की बात प्रकाश ने पत्नी से झूठ कही थी। रात करीब 12 बजे वह अचानक घर पहुंच गया और सुबह गोशाला में उसका शव पड़ा मिला। प्रकाश की मौत को महज दुर्घटना करार दिया गया। यह कहा गया कि शराब के नशे मे वह गोशाला में घुस गया। वहां गाय की ठोकर से गिर गया होगा। पूरी रात वहीं गिरा रहा और बार-बार गाय के खुर तले रौंदता रहा। इस मामले में पुलिस आई और उसने भी दुर्घटना की मोहर लगा दी। उधर, मोहल्ले के  लोग इसे दुर्घटना मानने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि प्रकाश मवेशियों के काम में हाथ तक नहीं बंटाता था। ऐसे में वह गोशाला में क्या करने गया, लेकिन कोई भी व्यक्ति इस मामले में पुलिस से शिकायत करने को आगे नहीं आया। यह चर्चा कई साल तक रही कि एक कलाकार को कुलटा ने प्रेमी के साथ मिलकर मार डाला।  (जारी) 
भानु बंगवाल

Saturday, 24 November 2012

कुलटा-3. ये कैसा प्रयाश्चित..(सच्ची घटना पर आधारित)

कोई व्यक्ति जब खुद गलत राह में होता है, तो वह दूसरों को ऐसे मार्ग पर न चलने के लिए समझाने की स्थिति में भी नहीं होता। वह समझाने का हक खो चुका होता है। शराबी व्यक्ति नहीं चाहेगा कि उसका बेटा शराबी बने। यदि बेटा पिता की तरह शराब पीने लगे तो पिता की स्थिति उसे समझाने की नहीं रहती। इसी तरह चरित्रवान व्यक्ति ही अपने बेटे को अच्छे चरित्र की नसीहत दे सकता है। पूरी जिंदगी दूसरी महिलाओं के साथ प्रेम प्रसंग में गुजारने वाला बट्टू अपने साथ रह रहे दो बेटों की तरफ ध्यान नहीं दे पाया। हालांकि वह परिवार में काफी सख्त था। बच्चे उससे डरते थे, लेकिन बच्चों को वह वो संस्कार नहीं दे सका, जिसकी अपेक्षा एक पिता अपने बच्चों से करता है। इसके बाद पिता के समक्ष सिर्फ प्रयाश्चित करने के अलावा कुछ नहीं बचा रहता।
बेटी के मामले में बट्टू किस्मत का इतना धनी जरूर रहा कि बेटी गुणवान थी। उसका उसने विवाह भी करा दिया। सबसे बड़ा बेटा सैंटी कुछ पिता के नक्शेकदम पर ही चल रहा था। उसका पढ़ाई में मन नहीं लगता। दिन भर वह आवारागिर्दी में रहता। तीन बार दसवीं क्लास में ही फेल हो गया। उसकी एक आदत और खराब हो गई कि वह आसपड़ोस के बच्चों के घर जब जाता, तो वहां से कुछ सामान व पैसे चोरी करने में भी पीछे नहीं रहता। ऐसे में कई बार उसकी चोरी पकड़ी भी गई और लोगों ने इसकी शिकायत बट्टू से भी की। सैंटी शक्ल व सूरत से काफी सुंदर था। पिता की तरह वह भी लड़कियों की तरफ भागता और उसकी कुछ प्रेमिकाएं भी थी। सबसे छोटा बेटा बुद्धि का कुछ  कमजोर था। कमजोर बुद्धि का होने के पीछे एक कारण यह भी था कि वह भांग खाने लगा था। शुरू में बट्टू को इसका पता नहीं चला पाया। भांग के नशे में रहने के कारण छोटे बेटे की बुद्धि मंद पड़ने लगी। वह भी आठवीं के बाद पढ़ाई नहीं कर पाया।
बीड़ी, सिगरेट,शराब व लड़कियों का साथ। यही सब सैंटी की आदत पड़ती जा रही थी। बड़े बेटे की बिगड़ती आदत को देख बट्टू ने उसे सुधारने का काफी प्रयास किया, पर कोई असर नहीं पड़ा। जब कोई उपाय नहीं सूझा तो बट्टू ने बड़े बेटे को देहरादून से बाहर भेजने का मन बना लिया। बट्टू का छोटा भाई मुंबई में रहता था। उसने उसी के पास यह सोचकर अपने बेटे को भेजा कि शायद अपने चाचा के पास जाकर सैंटी में सुधार हो जाएगा। सैंटी मायानगरी मुंबई गया और वहां किसी फैक्ट्री में नौकरी करने लगा। कुछ साल तक सैंटी ने बड़ी लगन व मेहनत से काम किया। अपना खर्च निकालने के बाद वह कुछ बचे पैसे अपनी मां को भी भेजता। इस पर बट्टू खुश था कि चलो बड़ा बेटा अपने पांव पर खड़ा हो गया है।
मुंबई में करीब तीन साल शांति से गुजारने के बाद सैंटी के जीवन में एक तूफान आया, जिसने बट्टू को भी परेशान कर दिया। वहां भी युवतियों से दोस्ती करने की आदत सैंटी की नहीं गई। अक्सर वह किसी युवती से दोस्ती करते समय यही कहता कि वह उसी से शादी करेगा। एक दूसरे संप्रदाय की युवती से उसकी दोस्ती हुई और इतने आगे बढ़ी कि फिर पीछे लौटना उसके लिए मुश्किल हो गया। दोनों के परिजन इस रिश्ते को तैयार नहीं थे। फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम करने वालों के मामले में होता है। सैंटी लड़की को लेकर घर से भाग गया। लड़की का पिता पुलिस में था, जो काफी कड़क था। उसने दोनों को तलाश किया और पकड़ लिया। सैंटी को कुछ दिन हवालात में रखा गया। फिर दोनों की शादी करा दी गई।
जीवन भर अपनी सुंदर पत्नी को छोड़कर दूसरी महिलाओं के पीछे भागने वाले बट्टू का बेटा जब पिता से एक कदम आगे बढ़ा तो बट्टू परेशान हो उठा। उसने अपने बेटे से नाता तोड़ दिया। बट्टू ने सैंटी को स्पष्ट कह दिया कि वह उसके घर कभी न आए। यदि कभी आया भी तो उसे पहले अपनी पत्नी को छोड़ना होगा। सैंटी के तीन बच्चे हुए। मायानगरी मुंबई में रहने वाला सैंटी एक दिन अचानक देहरादून अपने पिता के घर पहुंचा। साथ में वह करीब पांच साल के बड़े बेटे को लेकर आया था। सैंटी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यह बट्टू भी जानता था कि तीन बच्चों के साथ उसका मुंबई में गुजारा मुश्किल है। फिर भी वह कुछ नहीं बोला। सैंटी का बेटा अपने दादा बट्टू व दादी से काफी घुलमिल गया था। बट्टू ने बच्चे को बाजार से नए कपड़े आदि दिलाए। वह भी दादा के पास ही रहता, बातें करता, उसके साथ ही घूमने-फिरने जाता और दादा के साथ ही सोता। एक सप्ताह के लिए घर आया सैंटी जब वापस जाने लगा तो तब तक सैंटी का बेटा देहरादून के माहोल में पूरी तरह रचबस चुका था। जाते समय वह चिल्लाने लगा कि मैं दादाजी के पास रहूंगा। इस पर बट्टू ने सैंटी से कहा कि मुझे तूझसे और तेरी पत्नी से कोई नाता नहीं रखना। मैने तेरा लालन-पालन ठीक से नहीं किया, लेकिन अब इसका प्रयाश्चित करने जा रहा हूं। तू अपना बड़ा बेटा मुझे दे दे। मैं इसे पालपोसकर बड़ा आदमी बनाउंगा। इस पर सैंटी अपने बेटे को बट्टू के पास छोड़कर विदा हो गया, जो करीब दस साल से दोबारा वापस नहीं आया। (जारी....)
भानु बंगवाल  

Thursday, 22 November 2012

कुलटा-2-ये कैसा मित्रता धर्म, (सच्ची घटना पर आधारित)

एक कहावत है कि प्रेम में व्यक्ति अंधा हो जाता  है। उसे अच्छा व बुरा कुछ भी नहीं दिखाई देता। प्रेमपाश में फंसा व्यक्ति सिर्फ अपने ही बारे में सोचता है। या यूं कहें कि वो स्वार्थी हो जाता है। वह प्रेम की राह के कांटे साफ करता है। ऐसे कांटे को हटाने के लिए कई बार तो व्यक्ति गलत कदम तक उठाता है। शादीशुदा और बाल बच्चों वाले व्यक्ति जब ऐसे जाल में फंसते हैं, तो वे खुद बर्बाद होने के साथ ही अपने परिवार को भी कहीं का नहीं छोड़ते। ऐसे जाल से निकलना भी उनके लिए आसान नहीं होता। ऐसा व्यक्ति बेशर्म हो जाता है। उसकी करनी परिवार के सदस्यों को ही भुगतनी पड़ती  है। कहा जाता है कि हमारे अच्छे व बुरे कर्मों का फल यहीं मिलता है, लेकिन बट्टू जैसे कई लोग ऐसे हैं, जिन्हें उनकी करनी की सजा नहीं मिल पाई।
पड़ोस की अपने से ज्यादा उम्र की महिला के प्रेम में फंसा तीन बच्चों का बाप बट्टू के साथ ही कुछ अलग नहीं था। जब महिला विदूषी का पति लालजी उसका परिवार बर्बाद करने वाले बट्टू को बार-बार टोकने लगा तो बट्टू ने उसे ही ठिकाने लगाने का मन बना लिया। एकांत पुलिया में वह लालजी से टकराया।  बट्टू ने लालजी पर हमला किया और मरा जानकार पुलिया से नीचे फेंकने लगा। तभी कुछ व्यक्तियों की आवाज सुनकर वह भाग निकला। लालजी अर्द्ध बेहोशी में था। साथ ही वह ऐसा उपक्रम कर रहा था कि बट्टू उसे मरा समझे। बट्टू के भागने पर लालजी किसी तरह उठा। प्राण निकलने को हो रहे थे, लेकिन भैंस के प्रति मोहमाया को भी नहीं त्याग सका। उसके कपड़े खून से रंग चुके थे। इसके बावजूद उसने चारे का गट्ठा उठाया और साइकिल के कैरियर में रखा। फिर रोते-रोते घर पहुंचा। घर पहुंचते ही बच्चों के सामने गिरकर बेहोश हो गया। घर में चीख पुकार मच गई। लालजी को अस्पताल पहुंचाया गया। जहां कुछ दिन बाद उसे होश आया। पुलिस बयान लेने पहुंची, लेकिन लालजी ने यह नहीं बताया कि उसकी यह दशा बट्टू ने की। लालजी को डर व शर्म दोनों थी। उसे लगा कि वह मरने वाला है। यदि वह बट्टू का नाम लेता है तो उसकी पत्नी भी जेल जाएगी। ऐसे में उसके बच्चों का क्या होगा। बच्चों ने लालजी की खूब सेवा की और वह ठीक होकर घर पहुंच गया। धीरे-धीरे मोहल्ले के लोगों को यह भी पता चल गया कि लालजी पर हमला किसने किया था। बट्टू की पत्नी तक गांव में जब यह बात पहुंची तो वह बेटी के साथ गांव छोड़कर देहरादून आ गई। बेटी जवान थी और देहरादून में ही बीए में दाखिला दिला दिया गया। इतना सब कुछ होने के बाद भी बट्टू व विदूषी के बीच प्रेम प्रसंग कम नहीं हुआ। बट्टू की पत्नी ने पति को सुधारने के लिए तांत्रिकों का भी सहारा लिया, लेकिन कोई बात नहीं बनी। बट्टू की पत्नी अक्सर महिलाओं के बीच जाकर अपना दुखड़ा रोती। इस पर उसे सहानुभूति के अलावा कुछ नहीं मिलता। धीरे-धीरे बट्टू की पत्नी की मित्रता सती नाम की महिला से बढ़ने लगी। उसे लगा कि सती ही उसके दुखः को समझती है। सती के दो बेटे व एक बेटी थी। बड़ा बेटा दसवीं में, दूसरा आठवीं में और बेटी छठी क्लास में पढ़ रही थी। पति फौज में था, जो साल मे एक दो बार ही छुट्टियां लेकर घर आता था। परिवार संपन्न था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था।
एक दिन सती ने बट्टू की पत्नी को वचन दे दिया कि वह बट्टू का विदूषी से पीछा छुड़वा देगी। कैसे छुड़ाएगी इसका उस समय शायद सती के पास भी जवाब नहीं था। सती व बट्टू की पत्नी की मित्रता इतनी बढ़ रही थी कि दोनों को एक दूसरे के घर का मीनू तक पता होता कि वहां भोजन में क्या बन रहा है। यही नहीं जब खाना बनता तो पकी दाल व सब्जी से भरी कटोरियों का परस्पर आदान प्रदान भी होता। बट्टू की पत्नी सीधी-साधी महिला थी, लेकिन सती कुछ ज्यादा ही चालाक थी। बट्टू के घर हर दिन जाने से वह घर से सभी सदस्यों से घुलमिल गई। धीरे-धीरे वह बट्टू से भी खुलकर बातें करने लगी। फिर बट्टू के व्यवहार में भी परिवर्तन आया और उसने विदूषी से दूरी बनानी शुरू कर दी। एक दिन ऐसा भी आया कि बट्टू का विदूषी से मिलना जुलना बिलकुल बंद हो गया। इसके विपरीत उसकी सती से ऐसी निकटता बढ़ी जैसे पहले विदूषी से थी। सच ही तो था कि सती ने बट्टू से विदूषी का पीछा छुड़ा दिया, लेकिन इसके बाद भी बट्टू की पत्नी खुश नहीं थी। वह बट्टू से सती का पीछा छुड़ाने की जुगत में लगी रहती और अपना दुखड़ा महिलाओं को सुनाती रहती।  (जारी.....)
भानु बंगवाल              

Tuesday, 20 November 2012

कुलटा-1 (सच्ची घटना पर आधारित कहानी)

मसूरी के पहाड़ की तलहटी से निकलती रिस्पना नदी। इस नदी के पानी से पूरे देहरादून के मैदानी क्षेत्र में सिंचाई के लिए किसी राजा ने नहर बनवाई। धीरे-धीरे नहर के किनारे मोहल्ले व बस्तियां बसने लगी। ऐसे ही एक खूबसूरत मोहल्ले में रहती थी विदूषी। विदूषी एक सरकारी संस्थान में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की पत्नी थी। उसकी तीन बेटियों के बाद एक बेटा था। विदूषी के पति को लालजी कहते थे, हालांकि उसका नाम कुछ और था। लालजी ने तीन-चार भैंस भी पाल रखी थी। इसके दूध से भी अच्छी खासी आमदानी हो जाती थी। घर का खर्च बड़े मजे में चल रहा था। विदूषी सिर्फ रसोई का काम संभालती। उसमें भी उसकी बेटियां मदद करती। लालजी नौकरी के अलावा जब घर में रहता तो भैंस के दाना, चारा आदि से ही जूझता रहता।
विदूषी का चरित्र कुछ संदिग्ध था। पड़ोस के एक व्यक्ति बट्टू के साथ उसकी खिचड़ी पक रही थी। बट्टू विदूषी से करीब सात-आठ साल छोटा था। उसके दो बेटे व एक बेटी थी। दोनों बेटे उसके पास ही रहते थे और पत्नी बेटी के साथ गांव रह रही थी। बट्टू क्लास थ्री टेक्निकल कर्मचारी था, जो अपने काम में दक्ष था। विदूषी की बड़ी बेटी की शादी हो गई, लेकिन उसके चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं आया।
अक्सर पति लालजी से उसका विवाद होता रहता। एक दिन लालजी ने गुस्से में उसे घर से निकाल दिया। बट्टू ने भी उसकी मदद नहीं की। इस पर विदूषी एक कर्मचारी कुंवर साहब के घर जाकर पति से उत्पीड़न की मनगणंत कहानी सुनाने लगी। इस पर कर्मचारी की पत्नी को दया आ गई। उसने कहा कि आज रात मेरे घर रह लो। कल तक लालजी का गुस्सा कम हो जाएगा, फिर अपने घर चले जाना। विदूषी वहां एक दिन रही, फिर दो दिन बीते, फिर तीन दिन, लेकिन वह वापस जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस पर कुंवर साहब की पत्नी ने विदूषी को अपने घर जाने को कहा। इस पर विदूषी ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। वह बोली अब मैं इस घर से नहीं जाऊंगी। जो तेरा पति है वो मेरा भी है। मैं यहीं रहूंगी, यदि तूझे साथ नहीं रहना तो इस घर से निकल  जा। यह सुनकर कुंवर साहब की पत्नी सन्न रह गई। उसने पति कुंवर से हस्तक्षेप करने को कहा, लेकिन दो महिलाओं के झगड़े पर वह मौन हो गए।
कुंवर की पत्नी भला कैसे अपने पति को हाथ से जाने देती। उसने मोहल्ले की महिलाओं को आपबीती सुनाई। महिलाओं ने उसका साथ दिया और घर पहुंचकर विदूषी को बाहर निकाला। उसकी महिलाओं ने पिटाई की और कुंवर के घर से भगा दिया। गनीमत थी कि विदूषी कुंवर के घर से चली गई। इसके बाद कुंवर के व्यक्तित्व में परिवर्तन आया। इस घटना के करीब बीस  साल बाद कुंवर को किसी अच्छे कार्यों के लिए पदमश्री से भी सम्मानित किया गया। यदि तब विदूषी के मामले का पटाक्षेप नहीं होता, तो शायद वह पदश्री के हकदार भी नहीं रहते। कुछ इस तरह का था विदूषी का चरित्र, जबकि रूप, रंग व आदत से उसमें कोई ऐसा आकर्षण नहीं था कि जिसे खूबसूरत महिला कहा जा सके।
समय तेजी से बीत रहा था। विदूषी की बड़ी बेटी की शादी काफी पहले हो चुकी थी। अन्य दो बेटियां भी जवान हो रही थी। इसके बावजूद विदूषी का बट्टू से प्रेम प्रसंग कम नहीं हुआ। इसका असर दोनों के घर पर पड़ रहा था। विदूषी के दूसरे नंबर की बेटी भी बिगड़ने लगी, लेकिन खुद गलत होने पर विदूषी ने उसे समझाने का हक भी खो दिया। यदि वह बेटी को गेंदी नाम से युवक के साथ जाने पर टोकती तो बेटी भी उलटे मां से सवाल करती कि वह बट्टू के साथ क्यों घूमती है। बुढ़ापे की दहलीज पर कदम रख रहे लालजी ने सब्र भी खो दिया। जैसे ही बट्टू घर से निकलता लालजी उसे ताने देने लगता। इसने ही मेरी जिंदगी और मेरे परिवार को बर्बाद कर दिया है। आखिर ये क्या चाहता है। इस दौरान बट्टू चुपचाप आगे बढ़ जाता। खुद गलत होने पर उसके भीतर प्रतिरोध की ताकत तक नहीं थी। मोहल्ले के लोग भी चुपचाप सुनकर तमाशा देखते। इस पर भी न बट्टू को शर्म थी और न ही विदूषी को। एक दिन लालजी जंगल में भैंस के लिए चारा लेने गया था। जैसे ही चारा बांधकर उसने साइकिल पर रखा, तो सामने बट्टू को खड़ा पाया। बट्टू के इरादे कुछ और थे, जिसे भांप कर लालजी थर-थर कांपने लगा। बट्टू की मुट्ठी में पंच (पंजे के रूप में लोहे का हथियार) फंसा था। उसने सिर्फ इतना कहा कि लालजी तूने मुझे काफी जलील किया है। मैं आज तेरा हिसाब-किताब बराबर कर दूंगा। यह कहते ही उसने लालजी के चेहरे पर ताबड़तोड़ प्रहार कर दिए। तीन चार प्रहार में लालजी जमीन में गिर गया। उसे मरा समझकर बट्टू उसे घसीट कर ऐसे वीरान पुलिया पर ले गया, जिससे पूरे दिन भर में दो से तीन व्यक्ति ही गुजरते थे। लालजी को पुलिया से नीचे फेंकने को जैसे ही बट्टू तैयार हुआ, तभी उसे कुछ व्यक्तियों की आवाज सुनाई दी। जो शायद उसी तरफ आ रहे थे। इस पर बट्टू लालजी को वहीं छोड़कर भाग निकला और अपने घर पहुंच गया। (जारी)
भानु बंगवाल

Monday, 19 November 2012

जुगाड़ की ये जिंदगी......

ये जुगाड़ को अपनाने वालों का भी अलग अंदाज होता है। वे हर समस्या का कोई न कोई तोड़ निकालकर कुछ समय के लिए जुगाड़ कर ही देते हैं। शाम के समय अक्सर पीने वाले भी पीने के लिए कोई न कोई जुगाड़ तलाश ही लेते हैं। बिजली, पानी,  टेलीफोन के बिल जमा कराने हों या फिर रेलवे के आरक्षण की लाइन हो, जुगाड़बाज यहां भी कोई न कोई जुगाड़ तलाशते हैं, जिससे उनका काम जल्द हो जाए। कलक्ट्रेट स्थित एक दफ्तर में एक दिन मैं गया तो वहां बाबू हिसाब-किताब कर रहा था। वह मेरा परिचित था। वह हिसाब किताब में काफी तल्लीन था, तो मैने पूछा क्या कोई बड़ा काम आ गया है। इस पर वह बोला कि हम कुछ कर्मियों ने एक एसोसिएशन बनाई है। इसका नाम डीडीए रखा है। रिश्वत में मिली राशि से एसोसिएशन चल रही है। उसका ही हिसाब किताब कर रहा हूं। मेरी समझ में कुछ नहीं आया, तो मैने उस बाबू से पूछा कि ये डीडीए क्या है। उस पर वह तपाक से बोला। इतना भी नहीं समझ पा रहे हो। डीडीए यानी डेली ड्रंकन एसोसिएशन। दफ्तर का काम निपटाने के बाद एसोसिएशन सक्रिय होती है। चंदा मिलाकर उसका खर्च सदस्य उठाते हैं। उसी का हिसाब-किताब जोड़ने में लगा हूं। उसकी बात सुनकर मुझे फकीरा की याद आ गई और मैं अतीत में खोने लगा।
फकीरा एक संस्थान में हेड कलर्क था। तब मैं काफी छोटा था और मुझे यह पता था कि मोहल्ले में दो व्यक्ति काफी पियक्कड़ थे। इनमें से एक था मंगलू नाई, जो हर शाम कमाई को शराब की बोतल में उड़ा देता था। वह लड़खड़ाता, झूमता और गालियां बकता हुआ घर पहुंचता। बीबी व बच्चों पर भी अत्याचार करता। दूसरा पियक्कड़ संस्थान में फकीरा था। नाम शायद कुछ और था, लेकिन लोग उसे फकीरा ही कहते थे। फकीरा ने भी कुछ लोगों का ग्रुप बनाया था। शाम ढलते ही उनकी चौकड़ी पीने के लिए बैठ जाती। एक रात फकीरा ने कुछ साथियों के साथ शराब पी और लघुशंका के लिए समीप की झाड़ियों की तरफ गया। मित्र मंडली समीप ही खड़ी थी। फकीरा वापस आया तो उसकी गर्दन टेढ़ी हो चुकी थी। गर्दन नीचे को झुकी थी और वह परेशान था। संस्थान के डॉक्टर के घर मित्र मंडली फकीरा को लेकर गई। बताया कि लघुशंका के बाद से ही फकीरा की गर्दन टेढ़ी हो गई है। डॉक्टर ने परीक्षण के लिए कोट- पैंट उतारने को कहा। जब फकीरा कोट उतारने लगा तो डॉक्टर को मर्ज समझ आ गया। नशे में फकीरा ने पेंट का बटन कोट के काज में लगा दिया था। इससे खिंचाव होने पर गर्दन टेढ़ी हो गई। 
वर्ष 77 में इंदिरा गांधी की सरकार चली गई और जनता पार्टी सत्ता में आई। तब देहरादून यूपी राज्य में था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने नशाबंदी लागू कर दी। यूपी की प्रदेश सरकार ने भी इसे लागू कर दिया, लेकिन समीपवर्ती राज्य हिमाचल ने इसे लागू नहीं किया। शराबबंदी के दौरान अवैध शराब की कालाबाजारी भी खूब हुई और लोग पकड़े भी जाते। उन दिनों संस्थान के कर्मचारी साल में एक बार आपसी चंदा एकत्र कर पिकनिक मनाने कहीं बाहर जाते थे। दारू मिल नहीं रही थी। एसे में फकीरा व उसके साथियों में छटपटाहट लाजमी थी। जुगाड़बाज फकीरा ने पिकनिक का कार्यक्रम अपने हाथ लिया और हिमाचल के शहर पांवटा साहिब की पिकनिक तय कर दी। मेरे पिताजी को यह नहीं पता था कि इस बार पांवटा की पिकनिक के पीछे क्या राज है। अक्सर वे मुझे भी अपने साथ पिकनिक ले जाते थे। जब पांवटा को बस चली तो मैं भी उनके साथ था। उस समय मूसलाधार बारिश हो रही थी। तब बरसाती नदियों में पुल नहीं होते थे। ऐसे कई रपटे रास्ते में पड़े, जहां पानी काफी ज्यादा था। पानी उतरने का इंतजार भी कई स्थानों पर करना पड़ा। कई स्थानों पर ग्रामीण जुगाड़ से बस पार करा रहे थे। पैसा देने पर एक आदमी पानी में आगे चलता और उसके पीछे बस। उसे पता होता कहां पानी कम है। खैर किसी तरह यमुना नदी का पुल पार कर हम हिमाचल प्रदेश पहुंच गए। पांवटा में जिस धर्मशाला में हम ठहरे वहां के कमरों से नदी और पुल का नजारा साफ दिख रहा था। नदी के उस पार देहरादून जनपद की सीमा वाला क्षेत्र था। जहां फसल लहलहा रही थी। लोगों के पक्के मकान व झोपड़ियां भी पानी से काफी दूर नजर आ रही थी। नदी के पानी में वन विभाग के ठेकेदारों ने लकड़ी के स्लीपर छो़ड़े हुए थे। ट्रक की बजाय वे जुगाड़ से लकड़ियों को गणतव्य तक पहुंचाते थे। स्लीपर में पहचान के लिए नंबर लिखे होते और जगादरी या फिर किसी अन्य शहर में उन्हें पानी से बाहर निकाल लिया जाता था।
दारूबाज कर्मियों ने पांवटा पहुंचते ही छककर शराब पी। मैं पिताजी के साथ कुछ देर बाजार तक घूमा और फिर धर्मशाला पहुंचकर दूर के गांवों को निहारने लगा। तभी मेरा ध्यान गया कि, जो गांव पानी से करीब एक किलोमीटर दूर थे, धीरे-धीरे पानी उन तक पहुंचने लगा। बारिश लगातार बढ़ रही थी। लगने लगा कि यमुना का पुल भी डूब जाएगा। देखते-देखते देखते सारे  खेत नदी के पानी में समा चुके थे। पानी में डूबे मकानों से कुछ पुरुष सिर पर रखे टोकरे में सामान लेकर सुरक्षित स्थान की तरफ ले जा रहे थे। ये सिलसिला पूरी रात भर चला। रात को मुझे नींद भी नहीं आई। मैं उस काली बरसात को देखकर डर चुका था। जिसने कई घरों की रात काली कर दी थी। खैर बाढ़ प्रभावित लोगों ने भी जुगाड़ का सहारा लिया और सुरक्षित स्थान पर चले गए। सुबह चर्चा होने लगी कि देहरादून किस रूट से वापस लौटा जाए। जगादरी, यमुनानगर व सहारनपुर का रूट लंबा था, लेकिन सुरक्षित माना जा रहा था। वहीं सीधे पुल पार कर देहरादून पहुंचने के लिए रास्ते के रपटों में पानी का खतरा था। दारूबाज लंबे रास्ते से जाने को तैयार नहीं थे। क्योंकि वे पांवटा में कई दिनों की दारू का कोटा खरीद चुके थे। उन्हें डर था कि दूसरे लंबे रास्ते में  ज्यादा स्थानों पर तलाशी होगी। ऐसे में कहीं उनकी दारू न पकड़ी जाए। इस घटना के कई साल बाद मुझे पांवटा जाने का मौका मिला। सबसे पहले मैने उन्हीं गांवों की तरफ देखा, जिन्हें मै अपनी आंखों से डूबता देख चुका था। गांवों को निहारने पर फिर वही नजारा नजर आया, जो पहली बार देखा था। लहलहाते खेत मानो ये रह रहे थे कि यहां कभी कुछ भी नहीं हुआ। हां जहां पहले मैने झोपड़ियां देखी थी, वहां तब पक्के मकान बन चुके थे।तब मेरे साथ न पिताजी थे और न ही फकीरा। दोनों ही इस दुनियां से विदा हो चुके थे। सिर्फ मेरे साथ थी पुरानी यादें। 
भानु बंगवाल   

Thursday, 15 November 2012

अफसर के अगाड़ी, घोडे़ के पिछाड़ी....

कहावत है कि किसी को अफसर के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी नहीं जाना चाहिए। दोनों ही कई बार खतरनाक साबित होते हैं। इसलिए व्यक्ति को बस अपने काम से ही मतलब रखना चाहिए। इसके बावजूद ये दिल है कि मानता ही नहीं। जानबूझकर कई बार व्यक्ति अफसर का चहेता बनने का प्रयास करता है। इस प्रयास में वह सफल भी  हो जाता है। यदि काबलियत होती है तो सिक्का चल पड़ता है। नहीं तो ज्यादा दिन उसकी चापलूसी नहीं चल पाती। जिस तरह घोड़े के पिछाड़ी जाने पर पता नहीं रहता कि घोड़ा कब बिदक जाए और लात जमा दे। ठीक उसी तरह अफसर के बार-बार पास जाने पर कब फजीहत हो जाए, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। अपने जीवन में मैने कई ऐसे लोगों को देखा जो बॉस के खासमखास कहलाते थे, लेकिन बाद में पता भी नहीं चला कि कब बॉस ने उन्हें पटखनी दे दी। पहले ऊंचाई पर बैठाया और फिर धक्का दे दिया।
करीब बीस साल पहले की बात है। तब स्थानीय समाचार पत्रों की काफी तूती बोलती थी। ऐसे ही एक समाचार पत्र के मालिकान में तीन भाई पार्टनर थे। एक भाई दूसरे राज्य में बैठकर समाचार पत्र की व्यवस्था संभाल रहा था, तो दूसरा भाई समाचार पत्र मुख्यालय में ही व्यवस्था देख रहा था। तीसरा भाई जो सबसे बड़ा था, वह विदेश में रहता और करीब छह माह में एक चक्कर लगाकर आमदानी का हिसाब किताब करता।
एक बार की बात है। रात को अचानक बिजली चली गई। जेनरेटर स्टार्ट किया तो वह भी तेल समाप्त होने पर बंद हो गया। समाचार पत्र के मालिक प्रेस परिसर में ही बने मकान में रहते थे। बीच वाला भाई आया और जेनरेटर स्टार्ट न होने पर एक कर्मचारी पर आग बबूला होने लगा। कर्मचारी ने बताया कि तेल डालना है। टार्च  नहीं मिल रही है। इस पर पूरी प्रेस में टार्च की खोज होने लगी। गेट पर गार्ड के पास भी टार्च नहीं मिली। तभी एक प्रूफ रीडर बीच में आ गया। उसे कर साहब के  नाम से पुकारते थे। उसने कहा कि कमाल है कि किसी के पास टार्च नहीं है। उनकी स्कूटर की डिग्गी में हमेशा टार्च रहती है। किस वक्त कहां इसकी जरूरत पड़ जाए। ऐसे में वह हमेशा अपने पास टार्च रखते हैं। कर साहब टार्च लेकर आए और जेनरेटर पर तेल डलवाकर स्टार्ट करा दिया। करीब बीस मिनट तक चले इस ड्रामे ने कर साहब को वाकई में साहब बना दिया। पत्र मालिक ने कर को कुशाग्र बुद्धि का बताते हुए घोषणा कर दी कि आज से वह समाचार पत्र के मैनेजर हैं। बस मैनेजर बनते ही कर साहब की बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई। वह एक दुकान के लाला की तरह हर रिपोर्टर से हिसाब-किताब मांगने लगे। तब उस समय वह समाचार पत्र छह पेज का छपता था। उसमें कुल पैंतीस से चालीस समाचार ही लग पाते थे। पत्र में करीब छह-सात संवाददाता शहर के थे। कर साहब ने फरमान सुना दिया कि हर संवाददाता करीब 25 समाचार लाएगा और लिखकर देगा। यह फरमान अव्यवहारिक था। यदि हर संवाददाता 25 समाचार देता तो समाचार पत्र को भी काफी मोटा प्रकाशित करना पड़ता। पर जिद के आगे सभी संवाददाता मजबूर थे। फिर सभी संवाददाताओं ने कर की जिद का तोड़ तलाश लिया। एक-दो ढंग के समाचार लिखने के बाद किसी कार्यक्रम की रिपोर्टिंग को तोड़-तोड़ कर लिखना शुरू कर दिया। छोटी-छोटी चार दुर्घटनाओं को एक साथ समाहित करने की बजाय अलग-अलग लिखने लगे। हालांकि सभी समाचार प्रकाशित नहीं हो पा रहे थे और बच जाते। वहीं कर अपना मूल काम प्रूफरीडिंग पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रहा था। समाचार पत्र के पार्टनर भाइयों में एक दिन विदेश में रहने वाला भाई आ गया। उसने समाचार पत्र का अवलोकन किया तो काफी गलती मिली। प्रूफ रीडर को बुलाया तो कर साहब उनके समक्ष पहुंचे। गलती के बारे में जब पूछा तो कर साहब ने बताया कि वह रिपोर्टरों पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे। इसलिए सही तरीक प्रूफ रीडिंग में समय नहीं दे पाए और गलती चली गई। इस पर अखबार स्वामी ने उसी समय कर साहब को पत्र से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
भानु बंगवाल  

Tuesday, 13 November 2012

लो मन गई, मिलावट की दीपावली....

चाहे कितना भी हम पर्यावरण का पाठ बच्चों को पढा़ लें, लेकिन वे कहां मानने वाले। हां इतना जरूर है कि इस दीपावली में उन्होंने अन्य साल की अपेक्षा कुछ कम ही आतिशबाजी छोड़ी। इसे देखकर मुझे संतोष जरूर हुआ। हर बार की तरह इस बार भी दिखावे की दीपावली आई और दिखावा कर चली गई। इस दिखावे में हमने हर शहर में करोड़ों रुपयों पर यूं ही आग लगा दी। ये आग ऐसी लगी कि इसका असर कई दिन तक अब लोगों की सेहत में पड़ने वाला है। यही नहीं मेरे शहर देहरादून में तो कुछ प्रकृति ने भी ऐसा इंसाफ लोगों के साथ किया है कि जिस क्षेत्र में जितनी ज्यादी आतिशबाजी हुई, वहां का वातावरण भी ज्यादा दिनों तक दूषित रहेगा। जहां कम हुई, वहां इसका असर कम ही रहेगा।
देहरादून एक घाटी है। यानी कि चारों तरफ पहाड़ से घिरा एक शहर। यहां का मौसम भी कुछ अजीबोगरीब है। हर मोहल्ले व क्षेत्र का तामपान एक सा नहीं रहता। बरसाती नदी के किनारे बसे इलाको में कुछ तापमान रहता है, तो दूसरे इलाकों में कुछ। बारिश के दौरान कहीं बारिश हो रही होती है, तो कहीं चटख धूप निकली रहती है। तेज हवा भी कभी कभार ही चलती है। ऐसे में जिस क्षेत्र में जितना वायु प्रदूषण को नुकसान पहुंचा होगा, वहां आगे भी लोगों की सेहत को उतना ही खतरा बना रहेगा। क्योंकि वहां की प्रदूषित आबोहवा वहीं तक ज्यादा दिन तक लोगों को परेशान करेगी। फिर यह मिलावटी त्योहार में हवा ही क्या, खानपान से लेकर हर चीज में खतरा पैदा कर गया।
यहां मैं मिलावटी शब्द का प्योग इसलिए कर रहा हूं कि वैसे तो हर वस्तु में मिलावट अब आम बात हो गई है, लेकिन दीपावली के त्योहार में मिलावट कुछ जरूरत से ज्यादा हो रही है। आसपड़ोस के बच्चों ने दीपावली की रात आतिशबाजी के दौरान जो भी राकेट छोडे़, वो सीधे आसमान में जाने की बजाय आसपास के घरों में ही घुसे। ऐसे में हर बच्चे के मुंह से यही निकल रहा था कि राकेट में मसाला मिलावटी है। मेरे एक मित्र डॉ. बृजमोहन शर्मा जल, वायु के प्रदूषण के साथ ही खाद्य पदार्थों में मिलावट के प्रति लोगों को जागरूक करते रहते हैं। मैने उनसे बात की तो उन्होंने कहा कि पूरी दीपावली ही मिलावटी हो गई है। हम जो पूजा सामग्री इस्तेमाल कर रहे हैं, उसमें रोली भी मिलावटी है। कायदे से हल्दी में चूने का पानी मिलाकर रोली बन जाती है। हल्दी में चूने का पानी मिलाओ और वह लाल न हो तो समझो कि हल्दी में मिलावट है। बाजार में जो रोली मिल रही है, उसमें कैमिकल पड़ा है। इसी तरह चंदन की खुश्बू मिवावटी, धूप व अगरबत्ती मिलावटी। धूप में जड़ी-बूटियों की बजाय घटिया पेट्रोलियम उत्पाद की मिलावट है। सरसों का तेल मिलावटी, हींग में आटे की मिलावट, काली मिर्च में पपीते का बीज, जीरा में गाजर के बीज की मिलावट हो रही है। दालों व सब्जियों में रंगों की मिलावट, मिल्क प्रोडक्ट में कैमिकल व घटिया सामग्री की मिलावट हो रही है। यहां तक मेवे इतने पुराने बिक रहे हैं कि उसमें से पोष्टिक तत्व आयल ही गायब है। फिर ऐसी चीजें खाकर सेहत को फायदा तो नहीं मिलेगा, लेकिन नुकसान जरूर होगा।
रही बात आतिशबाजी की। सोडियम नाइट्रेट, सल्फर, जिंक, कैल्मियम, बेरेनियम आदि की घटिया व मिलावटी क्वालिटी इसमें प्रयोग की जा रही हैं। ऐसे में आतिशबाजी भी सही तरीके से नहीं जलती। जो अधफूंका कूड़ा बचता है, वह बाद में मिट्टी व पानी में मिलेगा। इससे भी जल व जमीन में प्रदूषण होगा। यह तो रही प्रदूषण की बात। दीपावली में एक दूसरे को बधाई देने में भी लोग कोई देरी नहीं दिखाते। दिल में भले ही किसी के प्रति कुछ और हो, लेकिन दिखावे में वहां भी मिलावट रहती है। फिर कामना की जाती है कि भगवान हमें सुख,शांति, समृद्धि दे। मेरा मानना है कि यदि हम सुख, समृद्धि के लिए सही कर्म (यानी मेहन) नहीं करेंगे तो वह अपने आप नहीं आने वाली। और यदि इसके लिए मिलावटी (शार्ट कट रास्ता) अपनाते हुए कर्म करेंगे तो उसके फल में भी मिलावट ही होगी। फिर इसके लिए हम किसे दोष देंगे।
भानु बंगवाल

Sunday, 11 November 2012

संभलकर रहना, कब पड़ जाए धप्पा...

बचपन मैं मुझे छुपनछुपाई का खेल काफी अच्छा लगता था। क्योंकि इस खेल में यदि साथी मिल जाएं तो कोई तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती थी। कहीं भी छिपने की जरा आड़ मिल जाए तो इस खेल में मजा भी काफी आता था। इस खेल में एक बच्चा डेन बनता है, जो अन्य छिपे साथियों तलाशता है। नजर पड़ने पर उन्हें आइसपाइस कहता है। छिपने वाले साथी डेन को दोबारा से परेशान करने के लिए उसकी फीट पर थपकी देने का प्रयास करते हैं। थपकी के साथ ही धप्पा बोला जाता है। यदि डेन के आइसपाइस बोलने से पहले उसे धप्पा पड़ जाए तो दोबारा से उसे डेन बनना पड़ता है। यदि वह धप्पे से बच गया तो पहली बार वह जिसे आइसपाइस बोलता है, उसे डेन बनना पड़ता था।
इसी खेल में मुझे एक कहानी याद आ गई। एक वृद्ध दंपती घर में अकेले बैठे बोर होने लगे तो वे बचपन की बाते करने लगे। आदतन बूढ़ा व्यक्ति बच्चों  की तरह ही हो जाता है। वह हर चीज में नखरे करने लगता है। इस दंपती ने जब बचपन की यादें ताजा की तो उन्हें शरारत सूझी। इस पर उन्होंने सुनसान पड़े घर में आइसपाइस खेलने का मन बनाया। बेटे व बेटी बाहर रहत थे। घर में कोई नहीं था, सो उन्होंने आइसपाइस खेलना शुरू किया। पहले छिपने की बारी बुढ़िया की आई। वृद्ध ने उसे खोज कर आइसपास बोल दिया। फिर बुढ़िया डेन बनी और वृद्ध व्यक्ति छिप गया। बुढ़िया ने अपने पति को खोजने-खोजते घर का कोना-कोना छान मारा, लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। घड़ी की सुईं घूम रही थी और बूढ़ा मिल नहीं रहा था। साथ ही बुढ़िया की चिंता बढ़ रही थी। वह बोली अब दोपहर का खाने का वक्त हो गया है। जहां कहीं भी छिपे हो बाहर निकल जाओ। बूढ़ा तब भी नहीं आया। इस पर बुढ़िया को गुस्सा आने लगा। वह हार मानने से साथ ही चेतावनी देने लगी कि यदि वह बाहर नहीं निकला तो वह दूसरे शहर में रह रहे अपने बड़े बेटे के पास चली जाएगी। इस पर भी बूढ़ा बाहर नहीं आया। बुढ़िया का पारा लगातार चढ़ रहा था। उसने आटो मंगवाया और उसमें अपना कपड़ों का बड़ा संदूक रखा। संदूक मे पहले से ही कपड़े रखे थे। इसलिए उसे खोलकर भी नहीं देखा। पति को अंतिम चेतावनी देने के साथ ही वह आटो में बैठी। फिर ट्रेन पकड़ी और पहुंच गई बड़े बेटे के घर। वहां जाकर बेटे व बहू भी चौंके की अचानक माताजी कैसे आ गई। इस पर बुढिया ने सफाई दी कि कई दिनों से मिलने का मन हो रहा था, इसलिए चली आई। उन्होंने कहा कि पिताजी को क्यों नहीं लाई। इस पर उसने कहा कि उन्हें जरूरी काम था। वह बाद में आ जाएंगे। सास के नहाने धोने के लिए बहू ने पानी गरम किया। नहाने से पहले बुढ़िया ने कपड़ों के लिए संदूक खोला। तभी संदूक के भीतर छिपा बुड्ढा तपाक से बोला धप्पा.........।
ये तो थी एक कहानी, जिससे सुनकर हम हंस सकते हैं या फिर दूसरों को सुनाकर मनोरंजन कर सकते हैं। आज मैं देखता हूं कि व्यक्ति जीवन में भी आइसपाइस खेल रहा है। वह अपनी गलतियों को छिपाने का प्रयास करता है। यदि पकड़ा जाए तो पीछे से धप्पा बोलने वाले भी कई हैं। युवा होते ही बेटा माता-पिता से आइसपाइस खेलने लगता है। कर्मचारी अपने बॉस से, नेता जनता से, सरकार प्रजा से यानी हर कोई किसी न किसी से आइसपासइस खेल रहा है। व्यक्ति कितना भी झूठ व फरेब का आइसपाइस खेले, लेकिन एक दिन धप्पा पड़ना निश्चित है। तभी तो देश में कई नेताओं के घोटाले उजागर हो रहे हैं। धप्पा बोलने वाले केजरीवाल जैसे लोग आगे आ रहे हैं। यही नहीं अब तो धप्पा कब और कहां पड़ जाए इसका भी अंदाजा व्यक्ति को नहीं रहता। मेरा एक भांजा दिल्ली में रहता है। वह वहीं किसी कंपनी में नौकरी करता है। रहने के लिए उसके साथ दो अन्य रूम पार्टनर हैं। इनमें से एक तो उसका मौसेरा भाई है। भांजे का हाल ही में रिश्ता तय हुआ। लड़की भी दिल्ली में रहती है। कुछ दिन पहले की बात है कि भांजे का जन्मदिन आया। रूम पार्टनर साथियों ने जन्मदिन की पूर्व संध्या पर उसे पार्टी देने को कहा। उसने पार्टी दी, लेकिन गनीमत यह थी कि किसी ने शराब की डिमांड नहीं की और न ही पी। शायद वे तीनों शराब से दूर ही रहते हैं। या फिर यदि पीते हैं तो अपने बड़े बुजुर्गों से आइसपाइस खेल रहे हैं। मौज मस्ती के बाद रात करीब 12 बजे केक काटकर सभी बिस्तर पर सौने की तैयारी करने लगे। घर की घंटी बजी। इतनी रात कौन आया, पहले सभी शंकित हो गए। फिर बर्डडे ब्वॉय ने दरबाजा खोला, तो सामने देखकर वह चौंक गया। वहां धप्पा मारने के लिए वह लड़की खड़ी थी, जिससे उसकी शादी होने वाली है। जो अपने भाइयों के साथ उसके लिए केक लेकर आई थी। 
भानु बंगवाल

Friday, 9 November 2012

ऐसी दीपावली देख भगवान राम भी रो देंगे

14 साल के वनवास के बाद भगवान राम के वापस अयोध्या लौटने पर दीपावली के त्योहार की शुरूआत हुई और सदियों से यह परंपरा निभाई जा रही है। दीपावली यानी खुशियों का त्योहार, सुख समृद्धि का प्रतीक। इन दिनों धान की फसल से खेत लहलहा रहे होते हैं। किसान फसल काटने की तैयारी करेगा। गरमी चली गई और सर्दी ने दस्तक दे दी। ऋतु परिवर्तन के साथ ही हृदय परिवर्तन का मौका त्योहार के माध्यम से आया। उस त्योहार को हम मना रहे हैं,  जिस त्योहार का हमने स्वरूप ही बिगाड़ दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों को याद करने के लिए हम त्योहार तो मना रहे हैं, लेकिन इस त्योहार का जो स्वरूप हमने बना दिया, यदि राम जिंदा होते तो वह भी इस त्योहार को देखकर रोने लगते।
मेरी नजर में राम अन्य राजाओं की भांति एक राजा थे, लेकिन उनके अच्छे गुण ने उन्हें देवता या भगवान की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया। उनके दौर में आजकल की ही तरह तीन किस्म के लोग इस समाज में थे। उनमें से एक वे थे, जो साधारण मनुष्य थे। ऐसे लोगों में राजा व भिखारी दोनों ही शामिल थे। दूसरी किस्म के लोग वे थे, जो संगठित थे, ताकतवर थे, लेकिन लुटेरे थे। ये लोग कभी किसी राजा को लूटते या फिर किसी किसान की फसल, व्यापारी का धन इत्यादि लूटकर ले जाते। किसी को लूटने के लिए वे संगठित होकर हमला करते थे। ऐसे लोगों को राक्षसी प्रवृति का कहा गया। या फिर राक्षस कहा जाता था। तीसरे किस्म के लोग वे थे, जो राम की तरह थे। राम ने इस धरती को ऐसे राक्षसों से मुक्ति का बीड़ा उठाया। बाल अवस्था में उन्होंने ऋषियों को राक्षसों के अत्याचार से मुक्त कराया। बाद में जब उन्हें 14 साल के वनवास में भेजा गया तो उन्होंने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर लोगों को राक्षसों के अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए संगठित किया। राक्षसों से लड़ने वाले राम की तरह के लोगों को तब दैवीय प्रवृति का कहा जाता था। तब विज्ञान था। इसका उपयोग राक्षस करते तो कहा जाता कि उनके पास मयावी शक्ति है। राक्षसों से लड़ने वाला व्यक्ति यदि विज्ञान का सहारा लेता तो उसे दैवीय शक्ति का माना जाता। तब मीडिया के लोगों को नारद कहा जाता। वह देवीय प्रवृति व राक्षसी प्रवृति दोनों के लिए ही प्रचार का काम करता था। आज जनमानस तक जब कोई घटना नारद के माध्यम से पहुंचती तो वह काफी बड़ा चढ़ाकर पहुंचती। एक गांव से दूसरे गांव के लोगों को राक्षसों से खिलाफ संगठित करना राम का उद्देश्य था। भोले-भाले ग्रामीण आदिवासियों को उन्होंने रावण के खिलाफ जागरूक किया और एक फौज बनाई। इन ग्रामीणों को ही बंदर कहा जाता था। क्योंकि वे काफी पिछड़े हुए थे।
जब राम ने इस धरती से राक्षसी प्रवृति के लोगों का सफाया किया तो वह अपने घर लौटे। उनके लौटने पर अयोध्या में खुशी मनाई गई। घर-घर में लोगों ने दीप जलाकर दीपावली मनाई। दीपावली यानी दीपक से घर रोशन करने का त्योहार। यानी राम के अच्छे गुणों को ग्रहण कर अपने मन के भीतर के बुराइयों के अंधकार को भगाकर हम अच्छे गुणों से मन को रोशन करें। राम की तरह दूसरों की भलाई करें। अत्याचार के खिलाफ लोगों को लड़ना सिखाएं। यही कुछ होना चाहिए था इस त्योहार में। इसके विपरीत हमने आज यह त्योहार विकृत बना दिया है। भगवान राम तो वनवास के दौरान जंगल में रहे, लेकिन वर्तमान में तो हम इस दीपावली के त्योहार की आड़ पर्यावरण को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। जब पर्यावरण ही सुरक्षित नहीं रहेगा तो जंगल भी कैसे बचे रहेंगे। भगवान राम तो पर्यावरण प्रेमी थे। उनके भाई भरत भी पर्यावरण के प्रति सचेत थे। राम के वनवास जाने के बाद उनके भाई भरत उन्हें वापस बुलाने के लिए घर से वन की तरफ चल पड़ते हैं। उनके साथ प्रजा भी चल पड़ती है। साथ में सैनिक भी चलते हैं। रास्ते में हर गांव, घर पड़ने पर भरत को जो भी मिलता वह राम का पता पूछते हैं। एक स्थान पर किसी ऋषि का आश्रम पड़ता है। कुछ दूरी पर वह प्रजा व सैनिकों को रोक कर खुद ही आश्रम तक जाते हैं। ऋषि से भगवान राम का पता पूछने के बाद भरत वापस लौटते हुए बड़ी विनम्रता से ऋषि से पूछते हैं कि उनके व उनके साथियों के आश्रम तक आने में यदि क्षेत्र के पशु-पक्षी, वृक्ष, लताओं को कोई नुकसान पहुंचा हो तो वह स्वयं इसकी भरपाई के लिए तैयार हैं। तब भी कितना ख्याल था भरत को पर्यावरण का। उन्होंने प्रजा को आश्रम से दूर इसलिए रखा कि कहीं प्रजा के आश्रम क्षेत्र में जाने से पेड़, पौधों को कोई नुकसान न हो।
ऐसा ही किस्सा महाभारतकाल में मिलता है। द्रोपती ने भीम को लकड़ी लाने को कहा तो वह निकट ही एक पेड़ की डाल को काटने को तैयार हो गए। इस पर युधिष्टर ने भीम को टोका। उन्होंने कहा कि जिस पेड़ की छाया से शीतलता मिलती है, उस पर कुल्हाड़ी मत चलाओ। यदि लकड़ी चाहिए तो सूखी डाल काटो।
अब वर्तमान में जो दीपावली मनाई जा रही है, उस पर नजर डालो। एक छोटे से शहर में एक करोड़ से अधिक की राशि को हम आतिशबाजी में फूंक देते हैं। साथ ही हवा को विषैला भी बना रहे हैं। इस राशि से शहर के एक मोहल्ले की कायापलट हो सकती है। सुख-समृद्धि व खुशहाली के इस त्योहार को कुछ लोग कर्ज लेकर मना रहे हैं कि शायद लक्ष्मी कृपा बरसाएगी। कई दीपवली से कुछ दिन पहले से ही जुए की चौकड़ी में जमने लगते हैं। यह दौर दीपावली के बाद त्योहार की खुमारी उताने तक चलेगा। यदि दीपावली के मनाने के अंदाज के प्रति हम अभी से जागरूक नहीं हुए तो हम पर्यावरण को इतना विषैला बना देंगे कि इसकी भरपाई भी जल्द नहीं होने वाली। साथ ही आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। एक समाचार पत्र में एक ज्योतिष के विचार पढ़ रहा था कि दीपावली के दिन झाड़ू जरूर खरीदें। सच ही तो कहा था उसने। इस त्योहार को मनाने से पहले घर की साफ सफाई, रंग रोगन इत्यादि भी किया जाने का प्रचलन है। घर साफ सुथरा रहेगा तो मन भी प्रसन्न रहेगा। मेरा कहना है कि आप भी झाड़ू मारो। यह झाड़ू अपने मन में बैठी बुराइयों पर फेरना होगा, जिससे हम ऐसी दीपावली मनाएं, जो फिजूलखर्ची की बजाय साफ सुथरी हो। पर्यावरण स्वच्छ रहेगा तो तन व मन दोनों ही शुद्ध, व मजबूत रहेंगे। साथ ही आप सभी को इस संकल्प के साथ दीपावली की शुभकामनाएं कि इस बार कुछ अलग हटके दीपावली मनाएंगे। अपने भीतर की कम से कम एक बुराई को छोडऩे का संकल्प लेंगे और इसे पूरा कर दिखाएंगे।
भानु बंगवाल

Tuesday, 6 November 2012

अच्छाई से प्रेरणा और बुराई से सबक...

हालांकि सभी रिती, रिवाज व त्योहार समाज में सौहार्द का संदेश देते हैं और उन्हें मनाने का मकसद भी सदैव अच्छा ही रहता है। इसके बावजूद वर्तमान में कई त्योहारों का स्वरूप विभत्स होता जा रहा है। उसके ऐसे रूप को अपनाने वाले त्योहार की आड़ ले रहे हैं। ऐसे रूप में शराब का चलन तो है, लेकिन धन की देवी लक्ष्मी की पूजा वाले त्योहार को मनाने के लिए कई लक्ष्मी की कामना में जुए में भी डूब जाते हैं। धन व संपन्नता के प्रतीक दीपावली पर्व की तैयारी भले ही कोई पहले से न करे, लेकिन जुआरी जरूर करते हैं। वे दीपावली से कई दिन पहले से ही जुआ शुरू कर देते हैं और कई तो दीपावली आते-आते काफी कुछ हार चुके होते हैं। सच ही कहा गया कि जुआ, कभी किसी का ना हुआ। इसके बावजूद दांव लगाने वाला हर व्यक्ति यही सोचकर दांव लगाता है कि उसकी ही जीत निश्चित है। इतिहास गवाह है कि जुआ ही व्यक्ति की परेशानी का कारण बनता है। महाभारत काल में पांडव जुए में सब कुछ हार गए थे। यहां तक कि युधिष्ठर ने तो पत्नी द्रोपती को ही दांव में लगा दिया था। इसीलिए कहा गया कि अच्छाई से व्यक्ति को प्रेरणा लेनी चाहिए और बुराई से सबक।
फिर दीपावली आ रही है। हर शहर में लाखों करोड़ों रुपये आतिशबाजी पर फूंक दिए जाएंगे। साथ ही पर्यावरण भी प्रदूषित होगा। इसे रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन समाज में जागरूकता लाकर कुछ कम जरूर किया जा सकता है। जिस राशि को हम आतिशबाजी में फूंक देते हैं, उससे एक वक्त की रोटी खाने वाले कई घरों में दो वक्त का भोजन बन सकता है। कई शहरों की सड़कें चकाचक हो सकती हैं। इस फिजूलखर्ची को रोकने के लिए बच्चों को समझाना होगा और युवाओं को आगे आना होगा।
फिर भी मैं यही कहूंगा कि पटाखे फूंकने के लिए हर व्यक्ति एक बजट फिक्स करता है। यह खर्च भी साल में एक बार ही होता है, लेकिन जुआ व शराब में होने वाले खर्च की कोई सीमा नहीं होती और न ही बजट फिक्स होता है। इससे जब कोई बर्बाद होना शुरू होता है, तो जल्द संभल नहीं पाता और वही हाल होता है, जो शर्मा जी का हुआ।
दृष्टिहीन थे शर्माजी। जो एक सरकारी संस्थान में अच्छे पद में कार्यरत थे। दृष्टिहीनता के बावजूद शर्माजी का कपड़े पहनने का अंदाज काफी गजब का था। उनकी पेंट व शर्ट ऐसी लगती, जैसे सीधे शो रूम से लेकर पहनी हो। पुराने कपड़े भी उनके नए की तरह चमकते थे। हालांकि घर में पत्नी सामान्य थी और देख सकती थी, लेकिन वे अपने कपड़ों में खुद ही प्रेस करते। साथ ही जूतों को पालिश कर वह ऐसे चमकाते कि हमेशा नए दिखते। बातचीत में काफी शालिन शर्मा जी में दो  अवगुण पैदा हुए और वे उसके घेरे में फंसते चले गए। ये अवगुण थे जुआ और शराब। सामान्य लोगों के साथ वह जब जुआ खेलते, तो ऐसे ताश का इस्तेमाल होता, जिसमें ब्रेल लिपी से भी नंबर लिखे हों। बेचारे शर्मा जी को क्या पता था कि दूसरे लोग आपस में मिल जाते और उन्हें जुए में हार का सामना करना पड़ता। हर बार जीत की उम्मीद में वह ज्यादा से ज्यादा रकम दांव में लगा देते। एक दीपावली  में तो उन्होंने पूरा वेतन और बोनस की रकम ही दांव पर लगाई और हार गए। बड़े बुजुर्गों ने समझाया, लेकिन शर्माजी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। शराब के भी आदि होते जा रहे थे। पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। दो बेटे थे, वे भी काफी छोटे। लोग समझाते कि आपको कुछ हो गया तो पत्नी और बच्चों का क्या होगा। फिर एक दिन शर्माजी ने बिस्तर पकड़ा और दोबारा नहीं उठ सके। शर्माजी के निधन के बाद आस-पड़ोस व संस्थान के लोगों को यही चिंता हुई कि उनकी पत्नी और बच्चों को क्या होगा। शर्माजी की पत्नी को मृतक आश्रित के नाते चतुर्थ श्रेणी में नौकरी मिल गई। जितना वेतन पहले शर्माजी को मिलता था, उससे आधा भी पत्नी  को नहीं मिलता था, लेकिन उस राशि में बरकत जरूर थी। किसी तरह उनकी पत्नी ने बच्चों को पढ़ाया और दोनों बेटे आज उच्च पदों पर नौकरी कर रहे हैं। जब भी मैं शर्माजी की पत्नी को देखता हूं, तो यही सोचता हूं कि यदि शर्माजी सरकारी नौकरी पर नहीं होते, तो तब उनकी पत्नी व बच्चों का क्या होता। क्या तब भी उनकी पत्नी बच्चों का समुचित लालन-पालन कर पाती।
भानु बंगवाल

Sunday, 4 November 2012

चारदीवारी लांघी तो घुटने लगा दम...

व्यक्ति कई साल से जिस परिवेश में रहता है, उसे वही अच्छा लगने लगता है। दूसरे परिवेश में वह खुद को ढाल नहीं पाता। हालांकि दूसरे परिवेश की दुनियां दूर से उसे अच्छी लगती हो, लेकिन वह जब उसमें जाता है, तो ज्यादा दिन नहीं टिक पाता। कुछएक लोग ही ऐसे होते हैं जो समय व परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने में सक्षम होते हैं। अन्यथा व्यक्ति को जहां की आदत पड़ जाए, वह उससे मुक्ति नहीं पा सकता। यह आदत अच्छी और बुरी दोनों हो सकती है। वर्षों से पड़ी आदत से व्यक्ति मजबूर हो जाता है। बुरे को बुरे का साथ ही अच्छा लगता है और अच्छा व्यक्ति समाज में अपनी तरह के व्यक्तियों की तलाश करता है।
घर, पति व प्रेमी से ठुकराई महिलाओं की कहानी के लिए एक बार मैने नारी निकेतन जाने का निर्णय लिया। वहां जाने से पहले मैने जिलाधिकारी का अनुमति पत्र लिया और यूपी के एक नारी निकेतन (महिला संप्रेक्षण गृह) में गया। वहां जाकर अधीक्षिका ने मुझे सभी संवासिनियों से मिलाया और मैने उनसे अलग-अलग बात कर उनके जीवन के बारे में यह जानने का प्रयास किया कि वे किन परिस्थितियों में नारी निकेतन पहुंची। अमूमन सभी की कहानी करीब एक सी थी। कोई नाबालिक होने पर प्रेमी के साथ भागी। पकड़े जाने पर जब वह घरवालों के साथ रहने को तैयार नहीं हुई तो उसे वहां पहुंचा दिया गया। कुछ युवतियां ऐसी थी, जिन्हें प्रेमी, परिवार, या पति ने ही ठुकरा दिया था। कई ऐसी भी युवतियां मिली, जो अपनी कहानी सही नहीं बता रही थी। ऐसी युवतियां परिवार से बिछुड़ने की बात दोहरा रही थी। ऐसी युवतियों में अमूमन सभी कहीं मेले या फिर सफर के दौरान ट्रेन छुटने के कारण परिजनों से बिछुड़ने की बात दोहराती। मुझे उनकी बातों का विश्वास नहीं हुआ था, लेकिन मैने यह नहीं कहा कि वे मुझसे झूठ कह रही हैं। वह जो बताना चाहती थी, उस पर मैं क्या कर सकता था। इसके बावजूद सभी की इच्छा नारी निकेतन की चारदीवारी से बाहर निकलकर खुली हवा में सांस लेने की थी। सभी की आंखों में सुंदर भविष्य के सपने थे। पर सपने कैसे साकार होंगे, यह किसी को पता नहीं था। हां पढ़ लिखकर ही कहीं मंजिल मिल जाए, इसी उम्मीद में कई पढ़ाई कर रही थी।
भले ही युवतियों ने परिवार से बिछड़ने की बात बस व ट्रेन से छूटकर बिछड़ने की कही, लेकिन अब मैं महसूस करता हूं कि वे सच ही कह रही थी। घर, परिवार की गाड़ी में हर इंसान सफर करता है। इस भीड़ में जो अलग से सफर करता है, परिवार के अन्य सदस्यों के साथ तालमेल नहीं बैठाता, तो उसका बिछड़ना निश्चित है। ऐसों को पहले परिवार के बड़े बुजुर्ग समझाने का प्रयास करते हैं, लेकिन जब बार-बार भी समझाने से जवानी के जोश में डूबे युवाओं व युवितयों को समझ नहीं आता तो वे परिवार से बिछुड़ जाते हैं। तब न उन्हें परिवार के प्रति मोहमाया रहती है और न ही परिवार के सदस्यों को उनके प्रति।
मेरे नारी निकेतन जाने के कुछ माह बाद की बात है। नारी निकेतन की चारदीवारी में कैद 18 साल से ज्यादा उम्र की युवतियों का घर बसाने के लिए एक समाजिक संस्था ने पहल की। कुछ युवा आगे आए। प्रशासन की तरफ से उनका युवतियों से परिचय कराया गया। जोड़े बनाए गए और एक निश्चित दिवस पर सामूहिक विवाह कराकर ऐसी आठ युवतियों का घर बसा दिया गया। ऐसी शादी देखना भी मेरे लिए एक विचित्र अनुभव था। साथ ही यह खुशी भी हो रही थी कि चलो इन अभागियों को सहारा मिल गया। इस बात के करीब छह माह बाद मैं नारी निकेतन किसी समाचार के सिलसिले में गया। वहां जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि संवासनियों में कुछ चेहरे वे भी नजर आए, जिनकी छह माह पहले शादी करा दी गई थी। पता चला कि शादी के बाद सिर्फ तीन की ही अपने पति से बनी। बाकी जब परेशान हुई तो वापस नारी निकेतन भाग आई। नारी निकेतन में कई सालों तक रहने के बाद बाहरी दुनियां को देखकर वे डर गई। उनके लिए तो बाहर की खुली हवा ही घुटन भरी थी। तब मुझे पता चला कि उनका पति से तलाक का मुकदमा भी शुरू हो चुका था।
भानु बंगवाल

Friday, 2 November 2012

भविष्य का पाखंड और हकीकत का सामना

वैसे तो मैं भूतकाल से सबक लेकर वर्तमान को ही बेहतर बनाने का प्रयास करता हूं। भविष्य को लेकर चिंतित होना मुझे फिजूल की बात लगती है। फिर भी कई बार व्यक्ति भविष्य को लेकर शंकित रहते हैं। मेरा मानना है कि यदि वर्तमान में कड़ी मेहनत की जाए, तो भविष्य भी ठीक ही रहता है। यदि अच्छे भविष्य के लिए हम हाथ  पर हाथ धरे बैठ जाएं, तो उसका कोई फायदा नहीं है। भविष्य किसी ने नहीं देखा। यह अच्छा व बुरा कुछ भी हो सकता है। इसलिए बर्तमान में ही बेहतर जीवन जीने का हर संभव प्रयास होना चाहिए। यदि हम किसी फल को पाने की इच्छा रखते हैं तो उस फल तक पहुंचने का प्रयास करना होगा। फल हमारे पास स्वयं चला नहीं आएगा। उसके लिए हमें कर्म करना होगा। यही कर्म ही हमें अपने जीवन में सफल व असफल बनाते हैं। कई बार संयोग से ठीकठाक मेहनत करने के बाद भी परिणाम अपेक्षित नहीं आता। ऐसे स्थिति में हम दोबारा प्रयास करने की बजाय अंधविश्वास की तरफ भागते हैं। जो कि गलत रास्ता है और न ही उससे कोई समाधान है। व्यक्ति को भविष्य की हकीकत के सामने को हमेशा तैयार रहना चाहिए। यह कुछ भी हो सकती है। इसे लेकर जो डर गया या शंकित रहा, वह कभी खुश नहीं रह सकता। यही जीवन की सच्चाई है।
भविष्य को लेकर लोग इतने शंकित होते हैं कि इसे जानने के लिए ज्योतिष व ओझाओं का सहारा लेते हैं। ज्योतिष को अपना ही भविष्य नहीं पता होता, तो वह दूसरे का क्या बताएगा। हां व्यक्ति के वर्तमान व भूतकाल के संदर्भ में कुछ बातें जरूर वह ऐसी कहता है, जो अमूमन सभी के जीवन में फिट बैठती हैं। ऐसे में व्यक्ति का विश्वास ऐसे ज्योतिष पर बनता है और ज्योतिष की दुकान का बिजनेस भी बढ़ता जाता है। किसी ज्योतिष के पास जाओगे तो वह यही कहेगा कि आप दिल के अच्छे हो, किसी का बुरा नहीं करते, जिसका भी भला किया, उसने आपका बुरा ही सोचा। एक बार आप बीमारी या दुर्घटना से मरते-मरते बचे। आपका कोई अपना ही है, जो बुरा कर रहा है। उससे सतर्क रहना। इस तरह की बातें ज्योतिष या बाबाओं के मुंह से सुनकर हर कोई यह समझने लगता है कि यह तो मेरे बारे में काफी जानता है। क्योंकि व्यक्ति एक बार नहीं, बल्कि कई बार बीमार होता है। कई बार वह दुर्घटना से बचता है। कितना भी बुरा इंसान हो, कभी न कभी वह भी अच्छे कर्म करता है। ऐसे में इन बाबाओं की चल पड़ती है।
वर्ष 97 की बात है। तब मेरी शादी हो चुकी थी। मैं दीपावली के मौके पर अपने घर देहरादून आया था। मेरा एक मित्र ज्योतिषों पर काफी विश्वास करता था। उसने बताया कि एक पहुंचे ज्योतिष किसी के घर आए हैं। कुछ खास लोगों के हाथ व जन्मपत्री देख रहे हैं। मेरे साथ तू भी चल। मैने उसे ऐसी फिजूल की बातों से दूर रहने की सलाह दी, लेकिन वह नहीं माना। मुझे कहने कहा  कि जब तू भी ज्योतिष से मिलेगा तो अपनेआप उस पर विश्वास होने लगेगा। मैं मित्र के साथ उस घर में चला गया जहां ज्योतिष ने अपने चेलों के साथ डेरा जमाया हुआ था। दो कमरों में बाहर वाले कक्ष में ज्योतिष के चेले बैठे थे। यानी इस दुकान में आने वाले हर ग्राहक की टोह पहले चेले ले रहे थे। पहले वही हाथ व जन्मपत्री देख रहे थे। लोगों से घुलमिलकर बातें कर रहे थे। यानी व्यक्ति की पूरी जीवनी बांच रहे थे। मेरे मित्र ने सलाह दी की तू भी अपने बारे में पूछ। मैं क्या पूछता मुझे तो कोई समस्या ही नजर नहीं आ रही थी। मैने अपना हाथ एक चेले को दिखाया। वह बोला क्या समस्या है। मैने कहा कोई नहीं। फिर उसने कहा कि शादी हो गई। मैने हां में जवाब दिया। इस पर वह बोला तेरी पत्नी काफी तेज है। उससे सतर्क रहना। मैने कहा कि मेरा विवाह हुए पांच माह से अधिक समय बीत गया है। अभी तक कोई विवाद नहीं हुआ, फिर उस पर शंका क्यों करूं। वह बोला अभी नहीं हुआ तो हो जाएगा। मेरा मन वहीं खट्टा हो गया। फिर ज्योतिष के पास दूसरे कमरे में जाना था। जहां वह अकेले में एक-एक कर भक्तों का हाथ देख रहा था। मैं भीतर नहीं गया और अपने घर को लौट गया। मुझे चेले की बात अजीब लगी और न ही मैने उस पर विश्वास किया। यदि विश्वास करता तो उसकी बात सच साबित हो जाती और पत्नी से विवाद जरूर होने लगता।
इस बात के करीब दस माह हो चुके थे। तब मेरा तबादला सहारनपुर से देहरादून हो गया। मैं एक समाचार पत्र में कार्यरत था। एक दिन मेरे नाम एक ऐसे ही ज्योतिष की पत्रकार वार्ता लगी। ज्योतिष टच थैरेपी से भविष्य बांचने का दावा कर रहा था। उसने बताया कि किसी व्यक्ति को छूकर वह उसका भूत, वर्तमान व भविष्य सभी बता सकता है। मैने कहा महाराज मेरा भी कल्याण कर दो। उसने कहा कि समस्या क्या है। मैने कहा कि मेरी शादी नहीं हो रही है। जहां भी रिश्ता होता है मैं अपने बारे में सच-सच बता देता हूं। ऐसे में रिश्ता टूट जाता है। इस पर ज्योतिष ने मेरी हथेली पकड़ी। फिर अपने हाथ से दबाव देना शुरू किया। वह कांप रहा था। उसने मेरा नाम पूछा। मैने बता किया। इस पर वह बोला कि भानु तेरी शादी अक्टूबर में हर हाल में होगी। तू भी मुझे याद रखेगा। मैं मंन-ही-मंन मुस्करा रहा था, पर बोला कुछ नहीं। पत्रकार वार्ता निपटने के बाद ज्योतिष के चेले ने मुझसे कहा कि आप अक्टूबर को दावत में बुलाओगे। तब मैने जवाब दिया कि यदि आप यूं ही मिलते रहे और संभव हुआ तो दो अक्टूबर को जरूर बुलाउंगा। चेले ने पूछा उस दिन क्या विवाह की तारीख निकली है। मैने कहा कि विवाह की तो नहीं, पर मेरे बेटे का उस दिन जन्मदिन है। ..........
भानु बंगवाल