परिवर्तन (कहानी)....
दुकान का साइनबोर्ड जंग खा चुका था, जो दुकान की हालत को बयां कर रहा था। दुकान को देखकर ऐसा लगता था कि आजकल ही इसमें ताले लग जाएंगे। क्योंकि दुकान में न तो ग्राहक ही आते थे और न ही भीतर बैठे व्यक्ति में उत्साह ही नजर आता था। फिर भी आजकल करते-करते कई साल बीत गए। दुकान में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। जो फर्क पड़ रहा था वो था साइनबोर्ड। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे। साइनबोर्ड के अक्षर धुंधले पड़ रहे थे। जिन्हें दुकान स्वामी ने साइनबोर्ड में कभी अपने ही हाथ से बड़ी लगन से लिखा था। पहले स्वास्थिक का चिह्न था। उसके बाद लिखा था दर्जी प्रेमचंद। अब तो ये अक्षर भी मात्र धब्बे से नजर आते, जो दुकान के पुरानेपन की याद दिलाते रहते।
बाजार में एक बड़े से कमरे की दुकान, जो पूरी खाली थी। उसके भीतर फर्श पर बैठने के लिए एक टाट-पट्टी बिछी थी। तिहरे किए गए एक अलग टाट को बिछाकर आसन बनाया गया था। इस आसन पर रखी थी एक सिलाई मशीन। आसन पर बैठा करीब 50 वर्षीय प्रेमचंद धीमी रफ्तार से सिलाई मशीन चला रहा था। कुछ साल पहले तक प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार काफी तेज थी। उसके हुनर की चर्चा दूर-दूर तक थी। दूर-दूर से लोग उसके पास कपड़े सिलाने आते। वह भी सस्ते में कपड़े सिलकर देता। दुनियां की रफ्तार बढ़ रही थी और प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार धीमी होती जा रही थी। उसके पास पुराने ग्राहक ही कभी-कभार आते। नई पीढ़ी को शायद उसके हुनर पर विश्वास नहीं था। प्रेमचंद की बगल में लकड़ी की एक संदूकची रखी थी। इसमें वह सिलने के लिए आए कपड़े रखता था। साथ ही इस संदूक का प्रयोग ग्राहक को बैठाने के लिए करता था। दीवार की खूंटियों पर कुछ सिले कपड़े टंगे थे। दीवारों में करीब बीस साल से रंग रोगन तक नहीं हुआ था। ऐसे में दुकान से सीलन की बदबू भी आती थी।
शरीर से दुबला, सांवला रंग, झुर्रियों वाला चेहरा, गंजा सिर। सामने के तीन दांत टूटे होने के कारण प्रेमचंद का उच्चारण भी स्पष्ट नहीं था। उसकी छोटी-छोटी काली आंखों में हमेशा उदासी के बादल छाए रहते। फिर भी वह काफी नम्र व्यवहार का था। अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित प्रेमचंद कड़ी मेहनत करते-करते पचास साल में ही सत्तर का नजर आने लगा। यह सब उसके सच्चे व कड़े परिश्रम का वह कड़ुवा फल था, जिसने उसे उम्र से पहले ही बूढ़ा बना दिया। जहां तक प्रेमचंद को याद है कि उसने न तो कभी किसी का बुरा किया और न ही किसी से झगड़ा। बचपन से ही उसे ऐसे कामों के लिए फुर्सत तक नहीं मिली। जब वह पंद्रह साल का था और शादी का मतलब तक नहीं जानता था तब उसकी शादी करा दी गई। आठवीं तक ही पढ़ पाया और उसे इस पुश्तैनी धंधे में लगा दिया गया। पिता की मौत के बाद दुकान की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई। वह अन्य दर्जी से कम कीमत में कपड़े सिलता और पत्नी व अपना पेट भरने लायक कमा लेता।
प्रेमचंद की पत्नी सुक्की ने जब जुड़वां बेटों को जन्म दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह खुशी कुछ साल तक ही रही। जब बेटे चार साल के हुए तो सुक्की का स्वर्गवास हो गया। अब प्रेमचंद पर पिता के साथ ही माता की जिम्मेदारी भी आ गई, जो उसने बखूबी निभाई। उसे परिवार व रिश्तेदारों ने सलाह दी कि दूसरी शादी कर ले, लेकिन उसने अपने बेटों राघव व नंदू की खातिर ऐसा करने से मना कर दिया।
प्रेमचंद की इच्छा थी कि वह अपने बेटों को अच्छी शिक्षा देने के बाद इसी पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ाएगा। समय से उसने बेटों का अच्छे स्कूल में दाखिला कराया। उसने दिनरात खूब मेहनत की। बेटों ने बीए कर लिया तो प्रेमचंद ने उनसे दुकान संभालने को कहा। इस पर राघव ने कहा कि पढ़-लिखने के बाद अब वह वह कपड़े सिलने का काम नहीं करेगा। यही जवाब नंदू का भी था। दोनों ने कहा कि वे कहीं नौकरी करेंगे। दुकान में तो यह भी भरोसा नहीं रहता है कि ग्राहक आएगा या नहीं। अगर पढ़े -लिखे न होते तो यह काम कर लेते, लेकिन अब संभव नहीं है। यदि उनके दोस्त उन्हें कपड़े सिलते देखेंगे तो वह कैसे उनका सामना करेंगे।
राघव न नंदू दोनों ही नौकरी की तलाश कर रहे थे, लेकिन सफलता नहीं मिल रही थी। मिलती भी कैसे। होशियार जरूर थे, लेकिन सिफारिश उनके पास नहीं थी। सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत देने मे भी वे असमर्थ थे।
दुकान में बैठे प्रेमचंद को यही चिंता सताती कि बेटों का क्या होगा। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि आज जो हो जाए, लेकिन वह घर जाकर बेटों को समझाएगा और दोनों को दुकान पर बैठने को राजी करेगा। यदि वे नहीं माने तो उन्हें घर से निकाल देगा। मन में दृढ़ निश्चय कर दो घंटे पहले ही वह दुकान बंद कर घर चला गया। अपना फैसला सुनाने की प्रेमचंद को उतावली हो रही थी। उसने घर की तरफ दौड़ लगा दी। उसे भय था कि कहीं उसके मन में उठे विचार देर होने पर छू मंतर न हो जाएं। उसका मकसद बेटों को खुशहाल देखना था। साथ ही उसे दुख हो रहा था कि उसने बेटों को ज्यादा क्यों पढ़ाया। नई युवा पीढ़ी तो पुश्तैनी धंधे को ही बेवकूफी का काम मान रही है। उसे तरस आ रहा था इस संकीर्ण मानसिकता पर। आजकल युवा पीढ़ी किसी फैक्ट्री या आफिस में दूसरे की गुलामी कर अपने को बड़ा समझती है, जबकि अपने ही घर के काम को घटिया करार देती है। घर के दरवाजे पर ताला लटका देखते ही प्रेमचंद दुखी हो गया। उसने कांपते हाथों से ताला खोला। देर तक बेटों का इंतजार करता रहा। समय काटने के लिए चाय बनाकर पी। फिर चारपाई में निढाल होकर लेट गया।
रात करीब नौ बजे राघव ने उसे जगाया-पिताजी खाना खा लो। नौ बज गए हैं नंदू ने कहा। साथ ही पूछा आज आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या। प्रेमचंद दोनों बेटों को घूर रहा था। साथ ही यह अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि उस समय दिन के नौ बजे हैं या रात के। खाना खाने के बाद उसने दोनों बेटों को समीप बुलाया। वह समझाने के लहजे में बोला-देखो बेटा तुम दोनों को दुकान का काम नापसंद है। मैने भी कभी दोनों से इस काम की जबरदस्ती नहीं की। मैं समझता था कि दोनों पढ़े लिखे हो। कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी। रोज इतना संघर्ष के बाद भी तु्म्हें कोई सफलता नहीं मिलते देख मुझे लगता है कि दोनों को पढ़ा-लिखा कर मैने गलती की। यदि बचपन से ही दोनों को दर्जी के काम में लगाता तो आज तुम दुकान संभाल रहे होते। ये बात मैं भी मानता हूं कि जीवन भर इस दुकान में बैठने के बाद भी मैने सिर्फ पेट की आग बुझाने के अलावा कुछ नहीं कमाया। जबकि मेरी दुकान में उत्तम किस्म की सिलाई होती है। सिलाई की दर भी सस्ती है। फिर भी ग्राहक कम आते हैं। मुझे चिंता इस बात की है कि मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा। मेरी सलाह है कि नौकरी को तलाशते रहो साथ ही दुकान का काम भी सीखते रहो। यदि नौकरी मिल जाए तो बेशक दुकान का काम छोड़ देना।
राघव व नंदू बड़ी गंभीरता से प्रेमचंद के उपदेश सुन रहे थे। उन्हें प्रेमचंद एक तपस्वी नजर आ रहा था। जो अपने तप से अर्जित ज्ञान के अमृत की वर्षा उन पर कर रहा था। सुझाव दोनों भाइयों को पसंद आया। फिर तय हुआ कि एक दिन राघव
दुकान में बैठकर काम सिखेगा और नंदू नौकरी की तलाश में जाएगा। दूसरे दिन नंदू सिखेगा तो राघव काम की तलाश करेगा। सीखने का क्रम आरंभ हुआ। जैसे-जैसे सीखने की एक सीढ़ी को वे पार करते, वैसे-वैसे उनकी सीखने की ललक बढ़ती जाती। पुरानी पीढ़ी का हुनर और आधुनिक स्टाइल के बीच तालमेल बैठाते हुए वे कपड़े तैयार कर रहे थे। काम के प्रति उनका प्यार बढ़ता गया और नौकरी की तलाश कम होती चली गई। वे सप्ताह में एक बार नौकरी की तलाश में निकलते। बाद में उन्होंने तलाश ही बंद कर दी और प्रतिदिन नियमित दुकान पर बैठने लगे। इसका असर यह हुआ कि कुछ ग्राहक भी बढ़े और दो नई सिलाई मशीन भी खरीद ली गई। अब राघव व नंदू कपड़े सिलते और प्रेमचंद तुरपाई, काज, बटन आदि का काम करता।
जब कुछ पैसे बचने लगे तो प्रेमचंद ने कहा कि अब वह दोनों भाइयों का घर बसाने के लिए लड़की तलाशनी शुरू करेगा। इस पर राघव व नंदू ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी दुकान को बेहतर बनाना है। इसके लिए दुकान में नया रंग रोगन करने के साथ ही फर्नीचर आदि खरीदना होगा। कुछ राशि उधार लेकर दुकान को नए रंग-रूप में सजाया गया। चमचमाता साइनबोर्ड लगाया गया। उस पर लिखा गया-प्रेमचंद फैशन डिजाइनर। इधर नया साइनबोर्ड लगा और प्रेमचंद की दुकान के दिन ही बहुरने लगे। ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही दुकान की सजावट भी बढ़ाई जाने लगी। तीन मशीन से छह हुई और फिर दस। नए कारीगर रखे गए। कारीगर काम करते और बेटों को ग्राहक से जूझने में ही सारा समय लग जाता। प्रेमचंद हैरान था कि जितने ग्राहक उसकी दुकान में पहले एक महीने में आते थे, उससे कहीं ज्यादा एक ही दिन में आते हैं। अब उसके यहां सिलाई की दर भी दूसरों से ज्यादा थी। इसका रहस्य भी वह जान गया था जो चमक-दमक, रंग-रोगन व साइन बोर्ड में छिपा था। जैसे -जैसे साइनबोर्ड का आकार बढ़ता, उसके साथ ही दुकान का विस्तार भी होता। केवल एक चीज घट रही थी। वो थी प्रेमचंद की मानसिकता। उसे पुराने प्रेमचंद से नफरत होने लगी। उसके भीतर से सच्चाई, शालिनता, ईमानदारी, करुणा की बजाय चपलता, फरेब चापलूसी ने जन्म ले लिया। इसका उपयोग वह काउंटर में बैठा हुआ ग्राहकों से बातचीत में करता। साथ ही उन कारीगरो से उसका व्यवहार काफी कठोर रहता, जो कड़ी मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी बामुश्किल जुटा पाते थे। प्रेमचंद को उनमें पुराने प्रेमचंद की छवि दिखाई देती थी। इसलिए वह उनसे घृणा करता था कि कहीं वे भी आज का प्रेमचंद न बन जाए।
भानु बंगवाल
दुकान का साइनबोर्ड जंग खा चुका था, जो दुकान की हालत को बयां कर रहा था। दुकान को देखकर ऐसा लगता था कि आजकल ही इसमें ताले लग जाएंगे। क्योंकि दुकान में न तो ग्राहक ही आते थे और न ही भीतर बैठे व्यक्ति में उत्साह ही नजर आता था। फिर भी आजकल करते-करते कई साल बीत गए। दुकान में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। जो फर्क पड़ रहा था वो था साइनबोर्ड। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे। साइनबोर्ड के अक्षर धुंधले पड़ रहे थे। जिन्हें दुकान स्वामी ने साइनबोर्ड में कभी अपने ही हाथ से बड़ी लगन से लिखा था। पहले स्वास्थिक का चिह्न था। उसके बाद लिखा था दर्जी प्रेमचंद। अब तो ये अक्षर भी मात्र धब्बे से नजर आते, जो दुकान के पुरानेपन की याद दिलाते रहते।
बाजार में एक बड़े से कमरे की दुकान, जो पूरी खाली थी। उसके भीतर फर्श पर बैठने के लिए एक टाट-पट्टी बिछी थी। तिहरे किए गए एक अलग टाट को बिछाकर आसन बनाया गया था। इस आसन पर रखी थी एक सिलाई मशीन। आसन पर बैठा करीब 50 वर्षीय प्रेमचंद धीमी रफ्तार से सिलाई मशीन चला रहा था। कुछ साल पहले तक प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार काफी तेज थी। उसके हुनर की चर्चा दूर-दूर तक थी। दूर-दूर से लोग उसके पास कपड़े सिलाने आते। वह भी सस्ते में कपड़े सिलकर देता। दुनियां की रफ्तार बढ़ रही थी और प्रेमचंद की मशीन की रफ्तार धीमी होती जा रही थी। उसके पास पुराने ग्राहक ही कभी-कभार आते। नई पीढ़ी को शायद उसके हुनर पर विश्वास नहीं था। प्रेमचंद की बगल में लकड़ी की एक संदूकची रखी थी। इसमें वह सिलने के लिए आए कपड़े रखता था। साथ ही इस संदूक का प्रयोग ग्राहक को बैठाने के लिए करता था। दीवार की खूंटियों पर कुछ सिले कपड़े टंगे थे। दीवारों में करीब बीस साल से रंग रोगन तक नहीं हुआ था। ऐसे में दुकान से सीलन की बदबू भी आती थी।
शरीर से दुबला, सांवला रंग, झुर्रियों वाला चेहरा, गंजा सिर। सामने के तीन दांत टूटे होने के कारण प्रेमचंद का उच्चारण भी स्पष्ट नहीं था। उसकी छोटी-छोटी काली आंखों में हमेशा उदासी के बादल छाए रहते। फिर भी वह काफी नम्र व्यवहार का था। अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित प्रेमचंद कड़ी मेहनत करते-करते पचास साल में ही सत्तर का नजर आने लगा। यह सब उसके सच्चे व कड़े परिश्रम का वह कड़ुवा फल था, जिसने उसे उम्र से पहले ही बूढ़ा बना दिया। जहां तक प्रेमचंद को याद है कि उसने न तो कभी किसी का बुरा किया और न ही किसी से झगड़ा। बचपन से ही उसे ऐसे कामों के लिए फुर्सत तक नहीं मिली। जब वह पंद्रह साल का था और शादी का मतलब तक नहीं जानता था तब उसकी शादी करा दी गई। आठवीं तक ही पढ़ पाया और उसे इस पुश्तैनी धंधे में लगा दिया गया। पिता की मौत के बाद दुकान की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई। वह अन्य दर्जी से कम कीमत में कपड़े सिलता और पत्नी व अपना पेट भरने लायक कमा लेता।
प्रेमचंद की पत्नी सुक्की ने जब जुड़वां बेटों को जन्म दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह खुशी कुछ साल तक ही रही। जब बेटे चार साल के हुए तो सुक्की का स्वर्गवास हो गया। अब प्रेमचंद पर पिता के साथ ही माता की जिम्मेदारी भी आ गई, जो उसने बखूबी निभाई। उसे परिवार व रिश्तेदारों ने सलाह दी कि दूसरी शादी कर ले, लेकिन उसने अपने बेटों राघव व नंदू की खातिर ऐसा करने से मना कर दिया।
प्रेमचंद की इच्छा थी कि वह अपने बेटों को अच्छी शिक्षा देने के बाद इसी पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ाएगा। समय से उसने बेटों का अच्छे स्कूल में दाखिला कराया। उसने दिनरात खूब मेहनत की। बेटों ने बीए कर लिया तो प्रेमचंद ने उनसे दुकान संभालने को कहा। इस पर राघव ने कहा कि पढ़-लिखने के बाद अब वह वह कपड़े सिलने का काम नहीं करेगा। यही जवाब नंदू का भी था। दोनों ने कहा कि वे कहीं नौकरी करेंगे। दुकान में तो यह भी भरोसा नहीं रहता है कि ग्राहक आएगा या नहीं। अगर पढ़े -लिखे न होते तो यह काम कर लेते, लेकिन अब संभव नहीं है। यदि उनके दोस्त उन्हें कपड़े सिलते देखेंगे तो वह कैसे उनका सामना करेंगे।
राघव न नंदू दोनों ही नौकरी की तलाश कर रहे थे, लेकिन सफलता नहीं मिल रही थी। मिलती भी कैसे। होशियार जरूर थे, लेकिन सिफारिश उनके पास नहीं थी। सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत देने मे भी वे असमर्थ थे।
दुकान में बैठे प्रेमचंद को यही चिंता सताती कि बेटों का क्या होगा। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि आज जो हो जाए, लेकिन वह घर जाकर बेटों को समझाएगा और दोनों को दुकान पर बैठने को राजी करेगा। यदि वे नहीं माने तो उन्हें घर से निकाल देगा। मन में दृढ़ निश्चय कर दो घंटे पहले ही वह दुकान बंद कर घर चला गया। अपना फैसला सुनाने की प्रेमचंद को उतावली हो रही थी। उसने घर की तरफ दौड़ लगा दी। उसे भय था कि कहीं उसके मन में उठे विचार देर होने पर छू मंतर न हो जाएं। उसका मकसद बेटों को खुशहाल देखना था। साथ ही उसे दुख हो रहा था कि उसने बेटों को ज्यादा क्यों पढ़ाया। नई युवा पीढ़ी तो पुश्तैनी धंधे को ही बेवकूफी का काम मान रही है। उसे तरस आ रहा था इस संकीर्ण मानसिकता पर। आजकल युवा पीढ़ी किसी फैक्ट्री या आफिस में दूसरे की गुलामी कर अपने को बड़ा समझती है, जबकि अपने ही घर के काम को घटिया करार देती है। घर के दरवाजे पर ताला लटका देखते ही प्रेमचंद दुखी हो गया। उसने कांपते हाथों से ताला खोला। देर तक बेटों का इंतजार करता रहा। समय काटने के लिए चाय बनाकर पी। फिर चारपाई में निढाल होकर लेट गया।
रात करीब नौ बजे राघव ने उसे जगाया-पिताजी खाना खा लो। नौ बज गए हैं नंदू ने कहा। साथ ही पूछा आज आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या। प्रेमचंद दोनों बेटों को घूर रहा था। साथ ही यह अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि उस समय दिन के नौ बजे हैं या रात के। खाना खाने के बाद उसने दोनों बेटों को समीप बुलाया। वह समझाने के लहजे में बोला-देखो बेटा तुम दोनों को दुकान का काम नापसंद है। मैने भी कभी दोनों से इस काम की जबरदस्ती नहीं की। मैं समझता था कि दोनों पढ़े लिखे हो। कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी। रोज इतना संघर्ष के बाद भी तु्म्हें कोई सफलता नहीं मिलते देख मुझे लगता है कि दोनों को पढ़ा-लिखा कर मैने गलती की। यदि बचपन से ही दोनों को दर्जी के काम में लगाता तो आज तुम दुकान संभाल रहे होते। ये बात मैं भी मानता हूं कि जीवन भर इस दुकान में बैठने के बाद भी मैने सिर्फ पेट की आग बुझाने के अलावा कुछ नहीं कमाया। जबकि मेरी दुकान में उत्तम किस्म की सिलाई होती है। सिलाई की दर भी सस्ती है। फिर भी ग्राहक कम आते हैं। मुझे चिंता इस बात की है कि मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा। मेरी सलाह है कि नौकरी को तलाशते रहो साथ ही दुकान का काम भी सीखते रहो। यदि नौकरी मिल जाए तो बेशक दुकान का काम छोड़ देना।
राघव व नंदू बड़ी गंभीरता से प्रेमचंद के उपदेश सुन रहे थे। उन्हें प्रेमचंद एक तपस्वी नजर आ रहा था। जो अपने तप से अर्जित ज्ञान के अमृत की वर्षा उन पर कर रहा था। सुझाव दोनों भाइयों को पसंद आया। फिर तय हुआ कि एक दिन राघव
दुकान में बैठकर काम सिखेगा और नंदू नौकरी की तलाश में जाएगा। दूसरे दिन नंदू सिखेगा तो राघव काम की तलाश करेगा। सीखने का क्रम आरंभ हुआ। जैसे-जैसे सीखने की एक सीढ़ी को वे पार करते, वैसे-वैसे उनकी सीखने की ललक बढ़ती जाती। पुरानी पीढ़ी का हुनर और आधुनिक स्टाइल के बीच तालमेल बैठाते हुए वे कपड़े तैयार कर रहे थे। काम के प्रति उनका प्यार बढ़ता गया और नौकरी की तलाश कम होती चली गई। वे सप्ताह में एक बार नौकरी की तलाश में निकलते। बाद में उन्होंने तलाश ही बंद कर दी और प्रतिदिन नियमित दुकान पर बैठने लगे। इसका असर यह हुआ कि कुछ ग्राहक भी बढ़े और दो नई सिलाई मशीन भी खरीद ली गई। अब राघव व नंदू कपड़े सिलते और प्रेमचंद तुरपाई, काज, बटन आदि का काम करता।
जब कुछ पैसे बचने लगे तो प्रेमचंद ने कहा कि अब वह दोनों भाइयों का घर बसाने के लिए लड़की तलाशनी शुरू करेगा। इस पर राघव व नंदू ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी दुकान को बेहतर बनाना है। इसके लिए दुकान में नया रंग रोगन करने के साथ ही फर्नीचर आदि खरीदना होगा। कुछ राशि उधार लेकर दुकान को नए रंग-रूप में सजाया गया। चमचमाता साइनबोर्ड लगाया गया। उस पर लिखा गया-प्रेमचंद फैशन डिजाइनर। इधर नया साइनबोर्ड लगा और प्रेमचंद की दुकान के दिन ही बहुरने लगे। ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही दुकान की सजावट भी बढ़ाई जाने लगी। तीन मशीन से छह हुई और फिर दस। नए कारीगर रखे गए। कारीगर काम करते और बेटों को ग्राहक से जूझने में ही सारा समय लग जाता। प्रेमचंद हैरान था कि जितने ग्राहक उसकी दुकान में पहले एक महीने में आते थे, उससे कहीं ज्यादा एक ही दिन में आते हैं। अब उसके यहां सिलाई की दर भी दूसरों से ज्यादा थी। इसका रहस्य भी वह जान गया था जो चमक-दमक, रंग-रोगन व साइन बोर्ड में छिपा था। जैसे -जैसे साइनबोर्ड का आकार बढ़ता, उसके साथ ही दुकान का विस्तार भी होता। केवल एक चीज घट रही थी। वो थी प्रेमचंद की मानसिकता। उसे पुराने प्रेमचंद से नफरत होने लगी। उसके भीतर से सच्चाई, शालिनता, ईमानदारी, करुणा की बजाय चपलता, फरेब चापलूसी ने जन्म ले लिया। इसका उपयोग वह काउंटर में बैठा हुआ ग्राहकों से बातचीत में करता। साथ ही उन कारीगरो से उसका व्यवहार काफी कठोर रहता, जो कड़ी मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी बामुश्किल जुटा पाते थे। प्रेमचंद को उनमें पुराने प्रेमचंद की छवि दिखाई देती थी। इसलिए वह उनसे घृणा करता था कि कहीं वे भी आज का प्रेमचंद न बन जाए।
भानु बंगवाल
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