Saturday, 28 December 2013

जमाना बदलने से पहले खुद बदलो......

बाते साल को अलविदा और नए साल का स्वागत। पिछली दुख भरी बातों को भूलकर नई उमंग व तरंग के  साथ नए साल का हर दिन बिताने का संकल्प। कुछ नया करने,  कुछ नया जानने, कुछ नया दिखाने का प्रयास। कल की बात जो पुरानी हो चुकी है, उसे छोड़कर नई उमंग के संचार के साथ खून में नया बदलाव। कुछ ऐसा ही संकल्प  लेने के विचार मन में घर कर रहे हैं कि चलो इस बार भी कुछ नया किया जाए। इन नई बातों का संकल्प लेने के लिए क्या किसी तामझाम की जरूरत है। नए साल का स्वागत क्या दारू, मुर्गा की पार्टी के साथ हो, जैसा कि अधिकांश मित्र योजना बना रहे हैं। या फिर पूरे जनवरी माह में ही नए साल के उल्लास में डूबा जाए। या फिर घर में टेलीविजन देखकर बीते साल को अलविदा कहा जाए और नए साल का स्वागत किया जाए। इस दौरान बच्चों के साथ मूंगफली और रेवड़ी चबाने का आनंद लिया जाए।साथ ही नए साल में कुछ नया करने का संकल्प लिया जाए। या फिर अगले दिन फर्श में फैले मूंगफली के छिलकों को झाड़ू से समेटते हुए सारे संकल्प छिलकों की तरह डस्टबीन में डाल दिए जाएं। फिर यह लक्ष्य रखे जाएं कि इस बार नहीं तो क्या हु्आ अगली बार से ही कुछ नया किया जाएगा। फिर एक साल का इंतजार किया जाए।
हर साल हम कहते हैं कि इस साल कुछ ज्यादा ही हो रहा है। पिछली बातों से नई बातों की तुलना करते हैं। चाहे वह कोई भी गतिविधि हो, मौसम का मिजाज हो, या किसी व्यक्ति विशेष की आदत हो। पिछली बातों से नई की तुलना करना व्यक्ति की आदत है। हम यह देखते हैं कि नए साल का स्वागत जैसे हो रहा है, वैसे पहले कभी नहीं देखा गया। रात को दारू पीने के बाद सड़क पर हुड़दंग मचाते युवक व युवतियां। मोटे पेट वालों के घर में पार्टियां, जिसमें बाप-बेटा साथ-साथ बैठकर पैग चढ़ा रहे हैं। कुछ ऐसे ही अंदाज में नए साल का स्वागत किया जा रहा है। यदि मैं फ्लैशबैक में जाऊं तो पहले भी नए साल का स्वागत होता था। दारू पीने वाले शायद पीते होंगे, लेकिन उनका किसी को पता नहीं चलता था।
देहरादून की राजपुर रोड पर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में मेरा बचपन कटा था। वहां पिताजी नौकरी करते थे। सन 1973 में जब मैं करीब सात साल का था, तो उस बार भी 31 दिसंबर के कार्यक्रम का मुझे बेसब्री से इंतजार था। उस जमाने में कर्मचारी पचास पैसे या फिर एक रुपये चंदा एकत्र करते थे। जमा पैसों की रेबड़ी व मूंगफली मंगाई जाती थी। साथ ही चाय बनाने का इंतजाम किया जाता था। कुछ लकड़ी खरीदी जाती। एक छोटे से मैदान में शाम आठ बजे लकड़ी जमा कर आग जलाई जाती। उसके चारों तरफ दरी में लोग बैठते। एक किनारे खुले आसमान के नीचे छोटा सा स्टेज बनता। शायद अब जिसे ओपन स्टेज कहा जाता है। स्थानीय लोग संगीत, नृत्य का आयोजन करते। तबले की धुन, हारमोनियम के सुर के साथ ही मोहल्ले के उभरते कलाकार अपनी कला प्रदर्शित करते। कुछ युवक सलवार व साड़ी पहनकर लड़की बनकर नृत्य करते। तब सीधे लड़कियों का नृत्य काफी कम ही नजर आता था। लड़कियों को घर की देहरी में  ही कैद करके रखा जाता। वे स्कूल भी जाती, लेकिन शायद ही किसी को सार्वजनिक तौर पर नृत्य का मौका मिलता हो। शादी के मौके पर ही लड़कियां लेडीज संगीत पर ही डांस करती, वो भी महिलाओं के बीच में। फिर भी मुझे 31 दिसंबर का कार्यक्रम काफी अच्छा लगता। फिर समय में बदलाव आया और कुछ लोग इस दिन के कार्यक्रम में शराब की रंगत में नजर आने लगे। जो पीते नहीं थे, वे कार्यक्रम में जाने के साथ ही चंदा देने से कतराने लगे। उन्हें लगता कि उनके चंदे की रकम से ही पीने वाले दारू का खर्च उठा रहे हैं। पुराने साल के कार्यक्रम से नए की तुलना होने लगी। कुछ नया न दिखने पर लोग इससे विमुख होने लगे। धीरे-धीरे टेलीविजन ने देहरादून में भी पैंठ बनानी शुरू कर दी। 31 दिसंबर को दूरदर्शन पर फिर वही हंगामा नाम से कार्यक्रम आने लगा और स्थानीय कलाकारों के स्टेज गायब हो गए। घर में टेलीविजन था नहीं, ऐसे में मैं भी तब दो साल 31 दिसंबर की रात टेलीविजन देखने अपने पिताजी के एक मामाजी यानी मेरे बुडाजी के घर गया। उनका घर हमारे घर से दो किलोमीटर दूर था। सो रात को सोने का कार्यक्रम भी उनके (बुडाजी के) घर होता।
हर बार 31 दिसंबर की रात को हम नए साल का स्वागत तो अपने-अपने अंदाज से करते हैं, लेकिन हम ऐसा क्यों कर रहे ये हमें पता भी नहीं होता। होना यह चाहिए कि हम नए साल में अपनी एक कमजोरी को छोड़ने का संकल्प लें। तभी हमारे लिए नया साल नई उम्मीदों वाला होगा। इस बार नए साल से पहले पूरे देश में एक नई बातें देखने को मिली। आम लोगों के बीच से उपजे आंदोलन की परिणीति के रूप में दिल्ली में आम पार्टी की सरकार बनी। इससे लोगों को उम्मीद भी है्ं। पार्टी से जुड़ा हर व्यक्ति सिर पर टोपी लगाकर देश में भ्रष्टाचार उखाड़ने की बात कर रहा है। टोली पहनो या ना पहनों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि खादी पहनने से कोई महात्मा गांधी नहीं बन जाता। भ्रष्टाचार के लिए किसी दूसरे पर लगाम लगाने से पहले खुद में ही बदलाव लाना होगा, कि हम गलत रास्ते पर नहीं चलें। हमें सही व गलत का ज्ञान हो। हमें ही यह तय करना होगा कि क्या सही है या फिर क्या गलत।  यदि हम खुद को बदलने का संकल्प लेंगे तो निश्चित ही यह तानाबाना बदलेगा। फिर जमाना बदलने में भी देर नहीं लगेगी।
भानु बंगवाल

Saturday, 21 December 2013

कहीं शार्टकट न बन जाए लॉंगकट....

बुजुर्ग लोग सही फरमाते हैं कि जो रास्ता पहले से नहीं देखा, उस पर नहीं चलना चाहिए। कई बार शार्टकट के लिए अपनाए जाने वाले रास्ते ही मुसीबत बन जाते हैं। फिर सवाल यह उठता है कि जब तक नया रास्ता नहीं देखेंगे तो उसके बारे में हमें क्या पता चलेगा। वो व्यक्ति ही क्या जो प्रयोगवादी न हो। प्रयोग करने से ही सही व गलत का पता चलता है। प्रयोग जरूर करें, लेकिन समय व परिस्थिति के अनुरूप। साथ ही यह ध्यान भी रखना जरूरी है कि हमारा प्रयोग कितना व्यवहारवादी साबित होगा।
वैसे तो प्रयोग ही आविष्कार की जननी है। बचपन में मुझे अन्य बच्चों से हटकर कुछ नया करने का बड़ा शौक था। मैं हर उपकरण, खिलौने व मशीन को काफी बारीकी से देखता और यह जानने की कोशिश करता कि यह कैसे काम कर रहा है। तब मैं जूते की पॉलिश की खाली डब्बी, पुराने सेल (बेटरी), खराब टार्च समेत काफी कबाड़ एकत्रित करके रखता। एक बार मैने डालडे (घी) के दो डब्बों को तारकोल से ट्रेननुमा जोड़कर उसमें पॉलिस की डब्बी के पहिये बनाऐ। आगे वाले डब्बे को आधा पानी से भरा और पीछे वाले में कबाड़ डालकर आग जलाने की कोशिश। मेरी कल्पना थी कि जब अगले डिब्बे का पानी खोलेगा, तो भाप बनकर निकलेगा। इस भाप का करनेक्शन पहियों के पास किया गया। ताकि तेजी से निकली हवा से वे घुमेंगे। हाय रे बचपन का दिमाग। डब्बे गर्म होने पर सारे तारकोल के जोड़ खुल गए। मेरी कल्पना की ट्रेन कई टुकड़ों में बिखर गई। खराब सेल को दोबारा रिचार्ज करने के लिए एक दिन मैं सेल को पानी में उबाल रहा था। चूल्हे की आंच धीमी हुई तो मैं पांच लीटर के जेरीकन से चूल्हे में डीजल डालने लगा। तभी धमाका हु्आ और मेरे हाथ से जेरीकन छूट गया। मुझे लगा कि मेरा हाथ टूट गया। मुझे गर्मी का अहसास होने लगा। तभी नजर गई तो देखा कि मेरी पेंट दोनों जांच के पास से धूं-धूं कर जल रही है। मैं इधर-उधर भागा तो लपटें और तेज हो गई जो सिर तक पहुंच रही थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरी मौत सामने खड़ी थी। तभी मुझे पानी के नल के नीचे एक आधा भरा बड़ा ड्रम नजर आया। मैं किसी तरह उसमें घुसा तब जाकर आग बुझी। यहां यह बताना चाहूंगा कि जब जेरीकन धमाके से फटा तो उसका ऊपरी हिस्सा चिर गया। पकड़ हल्की होने के कारण यह मेरे हाथ से छिटका, लेकिन सीधा ही जमीन पर गिरा। कुछ डीजल जो मेरी पेंट में गिरा आग से वही जलने लगा था। जब तक आग तेज होती, मैंने उसे बुझा दिया, लेकिन यह खौफ मुझे कई साल तक कचौटता रहा। लड़कपन में भी मेरे प्रयोग बंद नहीं हुए। बारबर (नाई) की दुकान में हेयर ड्रायर आया तो मुझे भी बाल सेट करना का शौक चढ़ा। तब दो रुपये में बालों में ड्रायर लग जाता था। गर्म हवा को बालों के संपर्क में लाने पर बालों को कभी भी घुमाया जा सकता है। यह पता चलते ही मैने प्रेशर कूकर की भाप से बालों को सेट करने की विधि निकाली और दो रुपये बचाए। जब भी चावल पकते और सीटी आती तो मैं कंघी लेकर कूकर से सट जाता। भाप का संपर्क बालों से कर उन्हें सेट करने का प्रयास करता। एक दिन कूकर की सीटी  नहीं बजी। सेफ्टीवाल भी मजबूत निकला। नतीजन कूकर का ढक्कन ही उड़ गया। वह छत से टकराकर नीचे गिरा। छत पर चावल चिपक गए। क्रिया की प्रतिक्रया के स्वरूप जितनी तेजी से ढक्कन ऊपर गया उतना ही बल कूकर में नीचे की तरफ लगा। इससे गैस का चूल्हा पिचक गया। जिस टेबल में गैस का चूल्हा रखा था वह भी क्रेक हो गई। यहां मेरी किस्मत ने साथ दिया कि मुझे कुछ नहीं हुआ।
मुझे सहारनपुर में नौकरी के दौरान मेरठ बुलाया गया। वहां मुझे नया स्कूटर खरीद कर दिया गया। मैं मेरठ से सहारनपुर स्कूटर से आ रहा था। देववंद के पास मैने सहारनपुर के लिए एक ग्रामीण से रास्ता पूछा। वह भी शार्टकट रास्ता बता गया। रास्ते मे एक बरसाती नदी से होकर गुजरना था। नदी में पानी नहीं था, लेकिन रेत में फिसलन थी। बीच नदी में मेरा स्कूटर धंस गया। रात का समय था, ऐसे में उस बीराने में कोई मददगार तक नहीं मिला। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। किसी तरह पैदल उतरकर मैं पूरी ताकत से स्कूटर को आगे सरका रहा था। करीब आधे घंटे में मैं स्कूटर को किनारे पहुंचाने में कामयाब हुआ। इसके कुछ दिन बाद एक दिन रेलवे क्रासिंग पर गेट बंद था। मेरे साथी ने कहा कि बगल से शार्टकट है। आगे पटरियां हैं। वहां से रास्ता पार कर लेंगे। मैं भी शार्टकट अपनाते हुए चल दिया। पटरी एक नहीं करीब सात-आठ थी। उन्हें पार करने में दोनों को पापड़ बेलने पड़ गए। स्कूटर के पहियें पटरी पर फंस रहे थे। साथी ईंट लगाता तब हम पटरी पर चढा़कर आगे बढ़ते। गनीमत थी कि इस बीच कोई ट्रेन नहीं आई। मैने साथी को पहले ही कह दिया था कि यदि दूर से ट्रेन दिखी तो स्कूटर छो़ड़कर सुरक्षित स्थान पर खड़े हो जाएंगे।
वैसे शार्टकट के फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं। छोटे लालच में हम बड़ा नुकसान कर बैठते हैं। व्यक्ति के जीवन में शार्टकट के मौके अक्सर मिलते हैं। नौकरी पाने के लिए रिश्वत का शार्टकट, किसी लाइन में खड़े होने से पहले जान पहचान या रुतबे का फायदा उठाकर लिया गया शार्टकट, सड़क पार करने के लिए चौराहे तक पहुंचे बगैर डिवाइडर से निकलने का शार्टकट, पैसे कमाने के लिए अपनाया गया शार्टकट। ऐसे शार्टकट से फायदे की उम्मीद काफी कम होती है। शार्टकट से पैसे कमाने वाले अक्सर जेल की सलाखों में रहते हैं। एक मित्र का कहना था है उसी रास्ते से जाओ जहां से सभी जाते हैं और वह सुरक्षित हो। चाहे वह कुछ लंबा जरूर हो। प्रयोग जरूर करो, लेकिन पहले उसके हर पहलू पर विचार भी करो। तभी मंजिल आसान होगी।
भानु बंगवाल 

Monday, 16 December 2013

चिल्लर....

वैसे तो अब चिल्लर की जरूरत कभी-कभार ही पड़ती है। जब लोग मंदिर जाते हैं तो भगवान को चिल्लर चढ़ाने से नहीं चूकते। हालांकि भले ही जुए में लाखों रुपये दांव पर लगा दें। मंदिर में चढ़ाने के लिए ऐसे लोग खुले पैसे ही तलाशते हैं। क्योंकि भगवान कुछ नहीं बोलते, ऐसे में उन्हें चिल्लर चढ़ाने में हर्ज ही क्या है। वहीं उसके उलट भिखारी को यदि एक का सिक्का दे दो, तो पलटकर वह कुछ न कुछ ताना जरूर मार देता है। भिखारी भी पांच या दस का नोट ले रहे हैं। चिल्लर की उन्हें भी जरूरत नहीं। छोटे बच्चे तो चिल्लर की तरफ देखते ही नहीं। उन्हें भी करारा दस, पचास या सो का नोट चाहिए। मुझे अपना बचपन याद है। मोहल्ले में कई दृष्टिहीन रहते थे। मैं उनके छोटे-छोटे काम को हमेशा तत्पर रहता। वे दुकान से मुझसे समान मंगाते। दस या बीस पैसे बचते तो मुझे ही दे देते। मैं भी लालच में उनकी सेवा को हमेशा तत्पर रहता। कभी कभार साल में एक दो बार हमारे एक दूर के चाचा देहरादून आते तो हमारे यहां भी जरूर आते। उनका नाम सोमदत्त था और वह मुजफ्फरनगर रहते थे। जब भी वह वापस लौटते तो मुझे दो के नोट की गड्डी से एक करारा नोट निकालकर देते। वही नोट मुझे ऐसा लगता कि कई दिन मेरी मौज बन जाएगी। आज दो रुपये यदि मैं अपने बच्चों को दूं तो वे पलटकर यही जवाब देंगे कि इसका क्या आएगा। चिप्स का पैकेट भी दस रुपये से कम नहीं है।
मुझे चिल्लर की जरूरत सिर्फ बिलों की अदायगी के लिए पड़ती है। टेलीफोन, बिजली, पानी के बिल के साथ ही नगर निगम का जब भी हाऊस टैक्स देना होता है तो चिल्लर की जरूरत जरूर पड़ती है। इन सरकारी डिपार्टमेंट वालों को चिल्लर से ना जाने क्या मोह है। किसी भी बिल में ऐसी रकम नहीं होती कि सीधे दस, पचास या सौ के नोट से काम चल सके। पांच, सात, आठ रुपये खुले चाहिए होते हैं। क्योंकि यदि चिल्लर नहीं हुई तो काउंटर में बैठा व्यक्ति खुले नहीं है कहकर वापस रकम नहीं नहीं लोटाता। बिल के पीछे बचे दो, तीन रुपये लिख देता है। अब दो-तीन रुपये के लेने लिए दोबारा कौन जाएगा। यह भी गारंटी नहीं कि अगले दिन उसी व्यक्ति की काउंटर में ड्यूटी हो। मेरे जैसे हर व्यक्ति से वह दो-दो रुपये बचाकर अपनी चाय-पानी का खर्च जरूर निकाल लेता है। भिखारी भी जिस चिल्लर को नहीं लेता, वे उसे वापस नहीं करते और यही चाहते हैं कि पैसे जमा कराने वाला चिल्लर वापस न मांगे।
नगर निगम से हाउस टैक्स का बिल आया। बिल की आदायगी के लिए मुझे 88 रुपये खुले चाहिए थे। मैं खुले पैसे के लिए सुबह-सुबह मोहल्ले के लाला के पास गया। लाला की लंबाई कुछ कम है, ऐसे में सभी मोहल्ले वालों ने उसका नाम गट्टू लाला रखा है। मैं लाला के पास गया और संकोच करते हुए मैने पांच सौ रुपये के खुले मांगे। मैने कहा कि ऐसे नोट देना, जिससे मैं नगर निगम में खुले 88 रुपये जमा करा सकूं। लाला ने सौ के चार नोट दिए और दो पचास के। साथ ही बोला कि नगर निगम में आपको खुले पैसों की परेशानी नहीं होगी। वहां कैश काउंटर में बैठने वाला व्यक्ति काफी ईमानदार है। वह व्यक्ति का एक रुपये तक नहीं रखता। उसके पास हमेशा खुले पैसे होते हैं। मैने कहा यदि नहीं हुए तो उसे भी परेशानी होगी और मुझे भी। मैने घर में बच्चों की गुल्लक टटोली और उससे 38 रुपये का जुगाड़ किया। अब मेरे पास बिल के खुले पैसे थे, ऐसे में मुझे कोई टेंशन नहीं थी।
दस बजे निर्धारित समय पर मैं निगम पहुंच गया, लेकिन वहां कर्मचारी कुर्सी पर नहीं दिखे। सभी सुबह की ठंड को दूर करने के लिए धूप सेंकने में मशगूल थे। करीब पौन घंटे बाद कर्मचारी कुर्सी पर बैठे। मुझसे पहले दो-तीन लोगों का नंबर था। कैश काउंटर में बैठा व्यक्ति मुझे वैसा ही मिला, जैसा कि लाला ने बताया था। सुबह-सुबह उसके पास भी ज्यादा खुले नोट नहीं थे। लोग बड़े नोट लेकर आए थे। वह अपनी पैंट की जेब, पर्स, तिजोरी सभी को टटोलकर लोगों को चिल्लर लौटा रहा था। मेरा जब नंबर आया तो उसने कहा कि खुले पैसे हों तो अच्छा रहेगा। मैने उसे सौ के पांच नौट के साथ ही खुले 88 रुपये दिए। वह खुश हो गया। उसने कहा कि अब कुछ और लोगों को भी वह चिल्लर लौटा सकेगा।
भानु बंगवाल  

Monday, 9 December 2013

हमदर्द की परीक्षा....

उन दिनों गजेंद्र बुरे दौर से गुजर रहा था। वह जो भी काम करता उसमें उसे घाटा होता। कड़ी मेहनत के बावजूद भी असफलता मिलने को वह अपनी किस्मत को ही दोष दे रहा था। फिर भी वह निरंतर मेहनत कर आने वाले दिनों को बेहतर देखने के सपने बुन रहा था। गजेंद्र को यह पता है कि हर दिन हर व्यक्ति किसी न किसी परीक्षा के दौर से गुजरता है। वह इसमें सफल होने का प्रयास करता है। इस कार्य में मेहनत ही सबसे ज्यादा रंग लाती है। फिर भी कई बार किस्मत भी धोखा देती है। इससे उसे विचलित नहीं होना चाहिए।
वह यह भी जानता है कि अच्छे दिनों में उसकी मदद को सभी आगे आने को तत्पर रहते हैं, लेकिन यदि किसी को पता चल जाए कि वह संकट में है तो सभी मददगार भी पैर पीछे खींच लेते हैं। सचमुच कितनी स्वार्थी है ये दुनियां। ऐसे वक्त में तो अपने सगे भाई ने भी साथ नहीं दिया। फिर दूसरों से क्या उम्मीद वह कर सकता है। उस भाई ने जिसे पांव में खड़ा करने का बीड़ा गजेंद्र ने उठाया था। आज वह अच्छी आमदानी कर रहा है। वह बच्चों के साथ सुखी है, लेकिन गजेंद्र के सामने वह मदद की बजाय अपना दुखड़ा सुनाने लग जाता है।
करीब 17 साल हो गए जब गजेंद्र सहारनपुर के एक गांव से देहरादून में काम की तलाश में आया था। तब उसकी पत्नी, दो साल की बेटी व करीब छह माह का बेटा भी साथ थे। किराए का मकान लिया और सुबह-सुबह उठकर घर-घर जाकर दूध की सप्लाई करने लगा। दूध का काम में उसे फायदा मिला। काम बढ़ता गया और उसने एक छोटी सी डेयरी भी खोल दी। गजेंद्र की किस्मत साथ दे रही थी। उसने अपने छोटे भाई प्रमोद को भी अपने पास बुला लिया। प्रमोद तब 12 वीं कर चुका था। उसने कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज जाने से पहले वह भी गजेंद्र की तरह सुबह उठकर साइकिल से दूध बेचने जाता। कॉलेज से लौटने के बाद दुकान में भी नियमित रूप से बैठता। काम लगातार बढ़ रहा था। गजेंद्र ने अपने लिए मकान खरीद लिया। कारोबार को देखने के लिए परिवार व नातेदार के युवाओं को अपने पास गांव से बुला लिया। इन युवाओं को वह दूध के कारोबार से जोड़ता गया। साथ ही उन्हें कॉलेज भी भेजा। युवा पढ़ाई के साथ ही गजेंद्र का कारोबार बढ़ा रहे थे, साथ ही वे अपना जेब खर्च भी निकाल रहे थे। फिर गजेंद्र ने अपने भाई प्रमोद की शादी कराई और उसे एक नई दुकान खोलकर दे दी। प्रमोद ने भी एक पाश कालोनी में दूध व पनीर की डेयरी खोली, जो खूब चल पड़ी। गजेंद्र ने अपने भाई प्रमोद के बाद अपने चचेरे भाइयों, पत्नी के भाई (साले) को भी अलग-अलग दुकानें खोलकर दी। साथ ही सभी की शादी कराकर उनका परिवार भी बसा दिया। उसका अपना काम भी ठीकठाक चल रहा था। जो भी युवा उसके साथ बिजनेस में जुड़ता वह बाद में एक दुकान का मालिक हो जाता। हां इतना जरूर है कि गजेंद्र ने पहली दुकान अपनी बेटी रूपा के नाम से खोली थी। उसके साथ जुड़ने वाले हर युवा को जब भी वह दुकान खोलता, उसका नाम बेटी रूपा के नाम से रूपा डेयरी जरूर रखता।
गजेंद्र का भाई हर महीने में एक लाख से ज्यादा का मुनाफा कमा रहा है। भाई ने एक करोड़ से अधिक राशि खर्च कर आलीशान कोठी बनाई। नया मकान बनाने पर बिजेंद्र की जमा पूंजी खत्म हो गई। एक दिन उसे किसी काम के लिए दस हजार रुपये की जरूरत पड़ी तो भाई ने आर्थिक तंगी बताकर उससे पल्ला झाड़ दिया। यहीं गजेंद्र का दिल टूट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने तो अपने भाई के साथ ही दूसरों को भी अपने पांव में खड़ा होना सिखाया। जरूरत पड़ने पर उसके भाई ने मामूली रकम देने से उसे मना क्यों कर दिया। इस परीक्षा में उसका भाई तो फेल हो गया, लेकिन बिजेंद्र को लगा कि परीक्षा में वह स्वयं फेल हुआ है। वह अपने भाई को दूसरों की मदद का सिद्धांत व्यवहारिक रूप से नहीं सिखा सका। उसकी मदद को उसके पास पहले काम कर चुके युवा् आगे आए। पत्नी ने भी ही दुकान में बैठने का बीड़ा उठाया। युवा हो चुके बेटा भी पिता का कारोबार संभालने में जुट गया। गजेंद्र जानता है कि मुसीबत का यह दौर क्षणिक है। जल्द ही उसके दिन फिर से बहुरने वाले हैं। हां मुसीबत में उसे यह ज्ञान जरूर हो गया कि कौन उसका सच्चा हमदर्द है।
भानु बंगवाल  

Tuesday, 3 December 2013

प्यार बांटते चलो....

छुट्टी का दिन था। दोपहर को रोहित पड़ोस के घर में अपने दोस्त रजत के साथ खेलने  गया था। कुछ ही देर में वह वापस घर लौट आया। उसका मूड़ कुछ उखड़ा था। जैसे ही वह गेट खोलकर घर में पहुंचा प्रकाश ने पूछा बेटे क्या हुआ। तुम इतनी जल्दी कैसे वापस आ गए। इस पर रोहित फूट पड़ा और कहने लगा- पापा अब मैं दोबारा रजत के घर नहीं जाऊंगा। उनके घर में सब गंदे हैं। वे सब मुझे परेशान करते हैं। यही नहीं रजत के पापा ने मुझे थप्पड़ भी मारा। आप भी जाकर रजत को थप्पड़ मारो।
अपने पांच वर्षीय बेटे का रोना सुनकर कीचन से रीतू भी कमरे में आ गई और रोहित को छाती से लगाती हुई चिल्लाने लगी- कितना बेरहम है वो गंजा, जिसने मेरे फूल से बेटे को मारा। वह भुनभुनाते हुए पड़ोसी सुरेंद्र को सबक सिखाने के लिए घर से बाहर जाने को हुई, तभी प्रकाश ने टोका- क्यों जा रही है, कुछ फायदा नहीं। बच्चों के झगड़े में बड़े नहीं लड़ा करते।
यहां तो बड़े ने बच्चे को मारा है- रीतू बोली
कोई गलती की होगी, बगैर गलती के कोई नहीं मार सकता। तुम्हारा लाडला भी कम शैतान तो नहीं है।
-फिर तुम ही जाकर पूछो कि रोहित ने ऐसा क्या किया, जो उसे थप्पड़ मारा।
प्रकाश बोला- पूछ लेंगे पहले गुस्से पर तो काबू पाओ। मेरी बात साफ तौर पर सुन लो कि कोई झगड़ा करने नहीं जाएगा। फिर प्रकाश ने रोहित को डांटा- स्कूल का होमवर्क नहीं किया। पहले होमवर्क करो, तब जाकर खेलो। इस पर रोहित होमवर्क करने में जुट गया और प्रकाश की पत्नी रीतू कीचन में चली गई।
करीब आधे घंटे बाद पड़ोसी सुरेंद्र प्रकाश के घर आया। उसने आते ही कहा- शर्मा जी रोहित कहां है।
-क्या काम पड़ गया बच्चे से- प्रकाश बोला
-उसने शिकायत नहीं की क्या, मैं तो सोच रहा था कि आप लड़ने आओगे। आप तो आए नहीं- सुरेंद्र बोला
-लड़ लेंगे। लड़ने के लिए काफी वक्त है। मामला घुमाओ नहीं बताओ क्या हु्आ भाई।
-यार रोहित पहले मेरे कंधे में बैठ कर खेल रहा था। फिर सिर पर तबला बजाने लगा। मैने समझाया तो बोला कि गंजे के सिर का तबला ही बजाया जाता है। वह समझाने पर भी नहीं मान रहा था। मैने उसे हल्का थप्पड़ मारा तो वह धमकी देता हु्आ गया कि-पापा से तुम्हें पिटवाऊंगा। मेरे पापा जूडो-कराटे जानते हैं।
-यह सुनकर प्रकाश को हंसी आ गई। यार बच्चों की बात का बुरा मानकर यदि हम आपस में लड़ते रहेंगे तो एक दिन ऐसा आएगा कि हम दोनों में से एक को मकान छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा। यदि झगड़े की ऐसी ही आदत रही तो क्या गारंटी है कि दूसरी जगह जाने के बाद भी पड़ोसियों से विवाद की नौबत न आए। विवाद का कोई अंत नहीं है। अपनी ऊर्जा को नेक काम के लिए संभालकर रखना ही सभी के लिए बेहतर है।
सुरेंद्र बोला- खैर यार यदि तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं दोनों हाथ जोड़कर माफी मांगता हूं।
-इसमें माफी की क्या बात है। यदि मेरे साथ भी रोहित ऐसा व्यवहार करता तो मैं भी उसे सजा जरूर देता। वह होमवर्क कर रहा है। आपके घर जैसे पहले खेलने जाता था, वैसे ही आज भी जाएगा। बाकि आपकी मर्जी है। यह कहकर प्रकाश चुप हो गया।
सुरेंद्र ने समीप ही खड़े रोहित को गोद में उठा लिया और उसे पुचकारते हुए अपने साथ घर ले गया। सुरेंद्र के घर रोहित के मस्ती करने की आवाज प्रकाश को सुनाई दे रही थी। रजत व अन्य बच्चों के साथ वह खेल रहा था। मासूम यह भी भूल चुका था कि वह इसी घर से कुछ देर पहले रोते हुए गया था। सब कुछ सामान्य हो गया।
प्रकाश घर में बैठा-बैठा सोच रहा था कि उसने उत्तेजना में आकर कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिससे उसे बाद में पछताना पड़ता। वह अतीत की यादों में गोते लगाने लगा। एक घने मोहल्ले में उसका बचपन कटा था। वहां टीन की छत व भीतर से लकड़ी की सिलिंग के मकानों की लंबी लाइनें हु्आ करती थी। मकान के नाम पर एक परिवार के पास दो या एक कमरे होते थे। बरामदे की छत के नीचे बची जगह को लोगों ने खुद ही दीवार से कवर कर रसोई का रूप दिया था। सबके दरबाजे एक ही तरफ को खुलते थे। पीछे की तरफ खिड़की थी। रसोई की दीवार इतनी ऊंची थी कि उसके ऊपर से झांका जाए तो पड़ोसी की रसोई में होने वाली हर हलचल का पता चल जाए कि आज वहां क्या बन रहा है। कुछ ने दीवार व छत के बीच टाट लगाकर पर्दा डाल रखा था। एक लेन में करीब 15 कमरे थे। वहां प्रकाश के पिता के पास दो कमरे थे। बगल के कमरे में एक तरफ पड़ोसी आकाश, वहीं दूसरी बगल में एक दृष्टिहीन युवक सुमेर थापा रहता था।
प्रकाश का जन्म भी इसी घर में हु्आ था। पिता सरकारी कार्यालय में थे। पहले वे दूसरी जगह रहते थे। आफिस करीब होने के कारण वे देहरादून के इस मोहल्ले में किराए के मकान में शिफ्ट हो गए थे। तब बीस फुट लंबे व दस फुट चौड़े एक कमरे का किराया बामुश्किल सात रुपये था। प्रकाश से बड़ी चार बहने व एक भाई और थे। आकाश के दो बेटे थे। उनमे छोटा प्रकाश के बड़े भाई की हमउम्र का था। प्रकाश के घर में सबसे बड़ी दो बहने थी, फिर उसका भाई फिर दो बहन। इसके बाद सबसे छोटा प्रकाश था। प्रकाश के पिता को सभी शर्माजी कहते थे। जब से प्रकाश ने होश संभाला उसे यही बताया गया कि आकाश के घर कभी मत जाना। इस पर भी वह ना जाने क्यों बगल की दीवार फांदकर उनके घर जाने की चाह रखता था।
आकाश की पत्नी का नाम शांति था, पर वह अशांत थी। अलसुबह उठते ही नित्यकृम से निवृत्त होकर वह सार्वजनिक नल पर पहुंचती। वहां लोग पहले से पानी की बाल्टियां लेकर अपने नंबर का इंतजार कर रहे होते। नल टपकना शुरू होता, तो लोग नंबर से पानी भरते। शांति का जब नंबर आता तो वह पहले नल की टूंटी को रगड़कर धोती, तब पानी भरती।
बात-बात पर शांति और प्रकाश की मां का झगड़ा होता। कई बार तो आकाश व शर्मा जी भी औरतों के विवाद में कूद जाते। एक दूसरे को जब तक खूब न सुना लेते तब तक वे शांत नहीं होते। दोनों घरों में एक तरह से तलवारें खींची थी। जैसे-जैसे प्रकाश व उसके भाई बहन बड़े होते गए, उन्हें इस झगड़े से नफरत होने लगी। पता ही नहीं चला कि कब शांति के दूसरे बेटे राजा व प्रकाश के बड़े भाई राजेश के बीच दोस्ती हो गई। दोनों घर से ऐसे निकलते कि एक दूसरे की तरफ देखते ही नहीं। आगे जाकर दोनों साथ हो जाते और साथ-साथ स्कूल जाते। साथ-साथ खेलते, लेकिन अपनी माताओं के डर से घर में ऐसा व्यवहार करते कि जैसे वे आपस में कभी बात ही नहीं करते।
समय बीतता गया और दोनों परिवारों के बच्चे एक दूसरे के निकट आते गए, लेकिन महिलाओं का झगड़ा बंद नहीं हुआ। झगड़े की वजह अक्सर शांति तलाश लेती थी। दीपावली आई तो प्रकाश ने पटाखे फोडे। फटने के बाद एक बम का अंगारा शांति के घर के समीप गिरा, तो इस पर ही झगड़ा। होली में पिचकारी की धार शांति के घर के आगे गली पर गिरी तो झगड़ा। बरसात में नाली का पानी ओवरफ्लो होकर शांतिं के घर की तरफ गया तो झगड़ा। नाली प्रकाश के घर के सामने से होते हुए  शांति व आगे के घरों के लिए बनी थी। उसे ऐतराज था कि प्रकाश के घर से नाली का एक बूंद भी पानी न आए। बरसात में गली में ऊंचाई वाले स्थान से बहकर आने वाले  बरसाती पानी को भी बंधा लगाकर वह रोकने का प्रयास करती।
बच्चों ने जब किशोर व युवावस्था में कदम रखा तो उन्होंने आपस में लड़ना छोड़ दिया। वे शांति की गैरहाजिरी में एक दूसरे से खूब बातें करते। कई बार तो शांति के बेटों ने प्रकाश की मां को समझाने का प्रयास किया कि -मौसीजी हमारी मां कि बातों पर ध्यान न दिया करो। उसे झगड़े के सिवाय कुछ नहीं आता।
शांति ने बड़े बेटे की शादी की, लेकिन पड़ोस में शर्मा परिवार को न्योता नहीं दिया। बहू आई उसे भी पड़ोसियों से बात न करने की हिदायत दी। हां वह बहू से कभी भी नहीं झगड़ती थी, लेकिन बहू ने भी सास की हिदायत नहीं मानी। दोनों परिवारों के सदस्य शांति की अनुपस्थिति में आपस में बात करते। कई बार एक-दूसरे की मदद भी करते। छिपकर यह मिलना-जुलना तब तक रहा, जब तक शांति की मौत नहीं हो गई।
भानु बंगवाल