Saturday, 28 December 2013

जमाना बदलने से पहले खुद बदलो......

बाते साल को अलविदा और नए साल का स्वागत। पिछली दुख भरी बातों को भूलकर नई उमंग व तरंग के  साथ नए साल का हर दिन बिताने का संकल्प। कुछ नया करने,  कुछ नया जानने, कुछ नया दिखाने का प्रयास। कल की बात जो पुरानी हो चुकी है, उसे छोड़कर नई उमंग के संचार के साथ खून में नया बदलाव। कुछ ऐसा ही संकल्प  लेने के विचार मन में घर कर रहे हैं कि चलो इस बार भी कुछ नया किया जाए। इन नई बातों का संकल्प लेने के लिए क्या किसी तामझाम की जरूरत है। नए साल का स्वागत क्या दारू, मुर्गा की पार्टी के साथ हो, जैसा कि अधिकांश मित्र योजना बना रहे हैं। या फिर पूरे जनवरी माह में ही नए साल के उल्लास में डूबा जाए। या फिर घर में टेलीविजन देखकर बीते साल को अलविदा कहा जाए और नए साल का स्वागत किया जाए। इस दौरान बच्चों के साथ मूंगफली और रेवड़ी चबाने का आनंद लिया जाए।साथ ही नए साल में कुछ नया करने का संकल्प लिया जाए। या फिर अगले दिन फर्श में फैले मूंगफली के छिलकों को झाड़ू से समेटते हुए सारे संकल्प छिलकों की तरह डस्टबीन में डाल दिए जाएं। फिर यह लक्ष्य रखे जाएं कि इस बार नहीं तो क्या हु्आ अगली बार से ही कुछ नया किया जाएगा। फिर एक साल का इंतजार किया जाए।
हर साल हम कहते हैं कि इस साल कुछ ज्यादा ही हो रहा है। पिछली बातों से नई बातों की तुलना करते हैं। चाहे वह कोई भी गतिविधि हो, मौसम का मिजाज हो, या किसी व्यक्ति विशेष की आदत हो। पिछली बातों से नई की तुलना करना व्यक्ति की आदत है। हम यह देखते हैं कि नए साल का स्वागत जैसे हो रहा है, वैसे पहले कभी नहीं देखा गया। रात को दारू पीने के बाद सड़क पर हुड़दंग मचाते युवक व युवतियां। मोटे पेट वालों के घर में पार्टियां, जिसमें बाप-बेटा साथ-साथ बैठकर पैग चढ़ा रहे हैं। कुछ ऐसे ही अंदाज में नए साल का स्वागत किया जा रहा है। यदि मैं फ्लैशबैक में जाऊं तो पहले भी नए साल का स्वागत होता था। दारू पीने वाले शायद पीते होंगे, लेकिन उनका किसी को पता नहीं चलता था।
देहरादून की राजपुर रोड पर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में मेरा बचपन कटा था। वहां पिताजी नौकरी करते थे। सन 1973 में जब मैं करीब सात साल का था, तो उस बार भी 31 दिसंबर के कार्यक्रम का मुझे बेसब्री से इंतजार था। उस जमाने में कर्मचारी पचास पैसे या फिर एक रुपये चंदा एकत्र करते थे। जमा पैसों की रेबड़ी व मूंगफली मंगाई जाती थी। साथ ही चाय बनाने का इंतजाम किया जाता था। कुछ लकड़ी खरीदी जाती। एक छोटे से मैदान में शाम आठ बजे लकड़ी जमा कर आग जलाई जाती। उसके चारों तरफ दरी में लोग बैठते। एक किनारे खुले आसमान के नीचे छोटा सा स्टेज बनता। शायद अब जिसे ओपन स्टेज कहा जाता है। स्थानीय लोग संगीत, नृत्य का आयोजन करते। तबले की धुन, हारमोनियम के सुर के साथ ही मोहल्ले के उभरते कलाकार अपनी कला प्रदर्शित करते। कुछ युवक सलवार व साड़ी पहनकर लड़की बनकर नृत्य करते। तब सीधे लड़कियों का नृत्य काफी कम ही नजर आता था। लड़कियों को घर की देहरी में  ही कैद करके रखा जाता। वे स्कूल भी जाती, लेकिन शायद ही किसी को सार्वजनिक तौर पर नृत्य का मौका मिलता हो। शादी के मौके पर ही लड़कियां लेडीज संगीत पर ही डांस करती, वो भी महिलाओं के बीच में। फिर भी मुझे 31 दिसंबर का कार्यक्रम काफी अच्छा लगता। फिर समय में बदलाव आया और कुछ लोग इस दिन के कार्यक्रम में शराब की रंगत में नजर आने लगे। जो पीते नहीं थे, वे कार्यक्रम में जाने के साथ ही चंदा देने से कतराने लगे। उन्हें लगता कि उनके चंदे की रकम से ही पीने वाले दारू का खर्च उठा रहे हैं। पुराने साल के कार्यक्रम से नए की तुलना होने लगी। कुछ नया न दिखने पर लोग इससे विमुख होने लगे। धीरे-धीरे टेलीविजन ने देहरादून में भी पैंठ बनानी शुरू कर दी। 31 दिसंबर को दूरदर्शन पर फिर वही हंगामा नाम से कार्यक्रम आने लगा और स्थानीय कलाकारों के स्टेज गायब हो गए। घर में टेलीविजन था नहीं, ऐसे में मैं भी तब दो साल 31 दिसंबर की रात टेलीविजन देखने अपने पिताजी के एक मामाजी यानी मेरे बुडाजी के घर गया। उनका घर हमारे घर से दो किलोमीटर दूर था। सो रात को सोने का कार्यक्रम भी उनके (बुडाजी के) घर होता।
हर बार 31 दिसंबर की रात को हम नए साल का स्वागत तो अपने-अपने अंदाज से करते हैं, लेकिन हम ऐसा क्यों कर रहे ये हमें पता भी नहीं होता। होना यह चाहिए कि हम नए साल में अपनी एक कमजोरी को छोड़ने का संकल्प लें। तभी हमारे लिए नया साल नई उम्मीदों वाला होगा। इस बार नए साल से पहले पूरे देश में एक नई बातें देखने को मिली। आम लोगों के बीच से उपजे आंदोलन की परिणीति के रूप में दिल्ली में आम पार्टी की सरकार बनी। इससे लोगों को उम्मीद भी है्ं। पार्टी से जुड़ा हर व्यक्ति सिर पर टोपी लगाकर देश में भ्रष्टाचार उखाड़ने की बात कर रहा है। टोली पहनो या ना पहनों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि खादी पहनने से कोई महात्मा गांधी नहीं बन जाता। भ्रष्टाचार के लिए किसी दूसरे पर लगाम लगाने से पहले खुद में ही बदलाव लाना होगा, कि हम गलत रास्ते पर नहीं चलें। हमें सही व गलत का ज्ञान हो। हमें ही यह तय करना होगा कि क्या सही है या फिर क्या गलत।  यदि हम खुद को बदलने का संकल्प लेंगे तो निश्चित ही यह तानाबाना बदलेगा। फिर जमाना बदलने में भी देर नहीं लगेगी।
भानु बंगवाल

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