काबुल में बनाई थी राजा महेंद्र प्रताप ने सरकार (एक दिसंबर पर जन्मदिवस पर विशेष)
ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ अफगानिस्तान में सामानांतर सरकार की घोषणा करने वाले राजा महेंद्र प्रताप का दून घाटी से खास रिश्ता रहा। गोरों से लड़ने के लिए देहरादून में अपने परिजनों व जायदाद को छोड़कर अफगानिस्तान में आजाद हिंद सरकार की घोषणा करने वाला यह दिलेर राजा बाद में कई क्रांतिकारियों की प्रेरणा का स्रोत बना। यही नहीं, निर्वासित सरकार के इस निर्माता का देहरादून और एक दिसंबर से खास रिश्ता भी रहा है ।
राजा महेंद्र प्रताप के जीवनकाल में एक दिसंबर का खासा महत्व रहा है। एक दिसंबर, 1914 को हाड कंपाने वाली सर्दी की रात को वह राजपुर रोड (देहरादून) स्थित अपनी कोठी में पत्नी व दो बच्चों को सोता छोड़कर जर्मनी चले गए थे। इसके ठीक एक साल बाद राजा महेंद्र प्रताप ने एक दिसंबर 1915 में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ अफगानिस्तान में आजाद हिंद सरकार की घोषणा की। इस सरकार के वह राष्ट्रपति बने तथा भोपाल (मध्यप्रदेश) निवासी मौलाना बरकत उल्ला प्रधानमंत्री बने। करीब छह हजार क्रांतिकारियों को मंत्रीमंडल में शामिल किया गया। अंग्रेजों से लड़ने के लिए उन्होंने जर्मनी और तुर्की के सहयोग से 10 हजार व्यक्तियों की फौज भी खड़ी कर दी।
मथुरा जनपद के वृंदावन के समीप एक छोटी सी रियासत मुरसान में एक दिसंबर 1886 को राजा महेंद्र प्रताप का जन्म हुआ। उनके पिता घनश्याम सिंह का साहित्य के प्रति काफी रुझान था। अलीगढ़ के सरकारी हाईस्कूल में शिक्षा के बाद राजा महेंद्र प्रताप ने सर सैयद के एमएओ कॉलेज में दाखिला लिया। बाद में यह कॉलेज मुस्लिम यूनिवर्सिटी ऑफ अलीगढ़ में तब्दील हो गया था। बीए की शिक्षा के बाद राजा महेंद्र प्रताप समाज सेवा के कार्यों में लग गए। सामाजिक जागरण की दृष्टि से उन्होंने एक दलित के साथ भोजन किया और दलित व्यक्ति को ही प्रेम धर्म मंदिर का पुजारी बनाया। 1909 में उन्होंने वृंदावन स्थित अपने महल में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। बाबू संपूर्णानंद इस महाविद्यालय के पहले शिक्षक रहे, जो बाद में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व राजस्थान के राज्यपाल भी रहे।
राजा महेंद्र प्रताप के बारे में कुछ भी लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि करीब 13 साल पहले मेरी मुलाकात ऐसे व्यक्तित्व से हुई जो देहरादून के इंदिरानगर में रह रहे थे और तब उनकी उम्र करीब 86 साल थी। उनका नाम था हाफिज अकबर खान। वह राजा महेंद्र प्रताप के मिशन व प्रेम धर्म के मुख्य ग्रंथी भी रहे। उन्होंने ही मुझे इस महान व्यक्तित्व के जीवन से परिचित कराया।
उन्होंने बताया कि देहरादून छोड़कर जर्मनी पहुंचे राजा महेंद्र प्रताप ने भारत को अंगरेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए जर्मीनी व तुर्की में क्रांतिकारी लोगों को एकत्र करना शुरू किया। उस समय पहला विश्व युद्ध चल रहा था। यूरोप में जर्मनी व तुर्की एक साथ मिलकर लड़ रहे थे। अफगानिस्तान के बादशाह हबीबुल्ला खां के सहयोग से वहां की राजधानी काबुल में क्रांतिकारियों का जमावड़ा बढ़ने लगा। एक दिसंबर 1915 को वहीं भारत की पहली निर्वासित सरकार (आजाद हिंद सरकार) की स्थापना की गई। इस सरकार की फौज को जर्मनी व तुर्की ने हथियार देने का वादा किया। तैयारी थी कि पेशावर के रास्ते अविभाजित भारत में प्रवेश किया जाए। जर्मनी के बादशाह केसर विलियम के माध्यम से राजा महेंद्र प्रताप ने अंगरेजों से लड़ने के लिए भारत के राजा महाराजाओं व जमींदारों को पत्र भिजवाए।
रेशमी रुमाल षडयंत्र के नाम से प्रचलित इस अभियान के तहत रुमाल में संदेश लिखकर उसे कोट से स्तर पर सिल लिया जाता था। इस तरह संदेश लिखे कोट भारत व आसपास के देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए भेजे जाने लगे, लेकिन नेपाल नरेश को भेजा गया संदेश वाला कोट अंगरेजों के हाथ पड़ गया। इस पर राजा महेंद्र प्रताप के इस मामले में सीधा हाथ होने का खुलासा हुआ। इस पर अंगरेजों ने हिंदुस्तान में राजा महेंद्र प्रताप की सारी संपत्ति कुर्क कर ली और उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया। उनकी जायदाद को कब्जाने के लिए बाकायदा एक्ट बनाया गया, जिसका बाद में भी दुरुपयोग होता रहा।
आजाद हिंद सरकार की फौज को हथियारों की आमद रोकने के लिए अंगरेजों ने ईरान में फौज लगा दी। पहले विश्व युद्ध में जर्मनी व तुर्की की हार के बाद आजाद हिंद सरकार की फौज का अभियान छिन्न-भिन्न हो गया। बाद में राजा महेंद्र प्रताप के पद चिह्नों पर चलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने विदेशी धरती पर आजाद हिंद फौज का गठन किया। पांच साल अफगानिस्तान में बिताने के बाद राजा महेंद्र प्रताप ने जापान के नारे- एशिया, एशिया के लोगों का है, से प्रभावित होकर जापान में एक बड़ी कांफ्रेंस में हिस्सा भी लिया। 1927 में जब जापान ने चीन के मंचुरिया पर हमला किया तो वह जापान के अभियान से अलग हो गए। 1929 में उन्होंने बर्लिन में मासिक पत्रिका द वल्र्ड फेडरेशन भी निकाली। करीब 32 साल विदेशों में जीवन व्यतीत करने के बाद राजा महेंद्र प्रताप 1946 में भारत लौट आए। इससे पहले उनकी पत्नी की 1924 में मृत्यु हो चुकी थी। बंटवारे के दौरान वह देश के विभिन्न हिस्सों में दौड़भाग कर बंटरारे के खिलाफ लोगों को समझाने का प्रयास करते रहे। समाजसेवा के क्षेत्र में उन्होंने देहरादून और हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया। 29 अप्रैल 1979 में उनकी मृत्यु हो गई। हरियाणा के यमुनानगर स्थित श्री कालेश्वर महादेव मठ में हर साल एक दिसंबर को राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन मनाया जाता है। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आजादी के लिए उन्होंने अपने घर, परिवार का जो त्याग किया, वह सभी के लिए प्रेरणादायी है। ऐसी महान आत्मा को मेरा शत-शत नमन।
शांति के जज्बे ने अकबर को बनाया शिवानंद
इसे राजा महेंद्र प्रताप की संगती का असर ही कहेंगे कि अकबर खान दो धर्मों के बीच तालमेल बैठाने में कामयाब रहे। प्रेम, शांति व सच्चाई के के मार्ग पर चलने के जज्बे ने हाफिज अकबर खान को स्वामी शिवानंद बना दिया। वह राम-रहीम की माला साथ-साथ जपते रहे। जीवन के किसी भी क्षण उन्होंने दो धर्मो के बीच दीवार महसूस नहीं की। अकबर खान सरकारी सेवा में 1931 में एमईएस देहरादून में नियुक्त हुए। पहले कांग्रेसी विचारधारा को मानने लगे। फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य रहे। फिर उन्होंने यह दल भी छोड़ दिया। उन्हें सभी दल एक से ही लगने लगे थे, जो आम आदमी की लड़ाई की बात तो करते, लेकिन चापलूस प्रवृति के ही नजर आते। राजा महेंद्र प्रताप से उनकी पहली मुलाकात एक नवंबर 1946 को हुई। इस मुलाकात ने उनके जीवन में नया मोड़ ला दिया। वह राजा की मासिक पत्रिका में अनुवादक के रूप में कार्य करने लगे। साथ ही राजा ने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। करीब 26 साल राजा की संगत में रहने के बाद उनकी विचारधारा ही बदल गई और समाज सेवा के क्षेत्र में जुड़ गए। कालेश्वर महादेव मठ से वह इतने प्रभावित हुए कि स्वामी महानंद से सन्यास की दीक्षा लेकर वह अकबर खान से स्वामी शिवानंद बन गए। इस मठ में वह कई साल तक मुख्य पुजारी भी रहे। राजा महेंद्र प्रताप के अनुयायियों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन्होंने समाजसेवा को ही अपना धर्म माना।
भानु बंगवाल
ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ अफगानिस्तान में सामानांतर सरकार की घोषणा करने वाले राजा महेंद्र प्रताप का दून घाटी से खास रिश्ता रहा। गोरों से लड़ने के लिए देहरादून में अपने परिजनों व जायदाद को छोड़कर अफगानिस्तान में आजाद हिंद सरकार की घोषणा करने वाला यह दिलेर राजा बाद में कई क्रांतिकारियों की प्रेरणा का स्रोत बना। यही नहीं, निर्वासित सरकार के इस निर्माता का देहरादून और एक दिसंबर से खास रिश्ता भी रहा है ।
राजा महेंद्र प्रताप के जीवनकाल में एक दिसंबर का खासा महत्व रहा है। एक दिसंबर, 1914 को हाड कंपाने वाली सर्दी की रात को वह राजपुर रोड (देहरादून) स्थित अपनी कोठी में पत्नी व दो बच्चों को सोता छोड़कर जर्मनी चले गए थे। इसके ठीक एक साल बाद राजा महेंद्र प्रताप ने एक दिसंबर 1915 में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ अफगानिस्तान में आजाद हिंद सरकार की घोषणा की। इस सरकार के वह राष्ट्रपति बने तथा भोपाल (मध्यप्रदेश) निवासी मौलाना बरकत उल्ला प्रधानमंत्री बने। करीब छह हजार क्रांतिकारियों को मंत्रीमंडल में शामिल किया गया। अंग्रेजों से लड़ने के लिए उन्होंने जर्मनी और तुर्की के सहयोग से 10 हजार व्यक्तियों की फौज भी खड़ी कर दी।
मथुरा जनपद के वृंदावन के समीप एक छोटी सी रियासत मुरसान में एक दिसंबर 1886 को राजा महेंद्र प्रताप का जन्म हुआ। उनके पिता घनश्याम सिंह का साहित्य के प्रति काफी रुझान था। अलीगढ़ के सरकारी हाईस्कूल में शिक्षा के बाद राजा महेंद्र प्रताप ने सर सैयद के एमएओ कॉलेज में दाखिला लिया। बाद में यह कॉलेज मुस्लिम यूनिवर्सिटी ऑफ अलीगढ़ में तब्दील हो गया था। बीए की शिक्षा के बाद राजा महेंद्र प्रताप समाज सेवा के कार्यों में लग गए। सामाजिक जागरण की दृष्टि से उन्होंने एक दलित के साथ भोजन किया और दलित व्यक्ति को ही प्रेम धर्म मंदिर का पुजारी बनाया। 1909 में उन्होंने वृंदावन स्थित अपने महल में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। बाबू संपूर्णानंद इस महाविद्यालय के पहले शिक्षक रहे, जो बाद में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व राजस्थान के राज्यपाल भी रहे।
राजा महेंद्र प्रताप के बारे में कुछ भी लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि करीब 13 साल पहले मेरी मुलाकात ऐसे व्यक्तित्व से हुई जो देहरादून के इंदिरानगर में रह रहे थे और तब उनकी उम्र करीब 86 साल थी। उनका नाम था हाफिज अकबर खान। वह राजा महेंद्र प्रताप के मिशन व प्रेम धर्म के मुख्य ग्रंथी भी रहे। उन्होंने ही मुझे इस महान व्यक्तित्व के जीवन से परिचित कराया।
उन्होंने बताया कि देहरादून छोड़कर जर्मनी पहुंचे राजा महेंद्र प्रताप ने भारत को अंगरेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए जर्मीनी व तुर्की में क्रांतिकारी लोगों को एकत्र करना शुरू किया। उस समय पहला विश्व युद्ध चल रहा था। यूरोप में जर्मनी व तुर्की एक साथ मिलकर लड़ रहे थे। अफगानिस्तान के बादशाह हबीबुल्ला खां के सहयोग से वहां की राजधानी काबुल में क्रांतिकारियों का जमावड़ा बढ़ने लगा। एक दिसंबर 1915 को वहीं भारत की पहली निर्वासित सरकार (आजाद हिंद सरकार) की स्थापना की गई। इस सरकार की फौज को जर्मनी व तुर्की ने हथियार देने का वादा किया। तैयारी थी कि पेशावर के रास्ते अविभाजित भारत में प्रवेश किया जाए। जर्मनी के बादशाह केसर विलियम के माध्यम से राजा महेंद्र प्रताप ने अंगरेजों से लड़ने के लिए भारत के राजा महाराजाओं व जमींदारों को पत्र भिजवाए।
रेशमी रुमाल षडयंत्र के नाम से प्रचलित इस अभियान के तहत रुमाल में संदेश लिखकर उसे कोट से स्तर पर सिल लिया जाता था। इस तरह संदेश लिखे कोट भारत व आसपास के देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए भेजे जाने लगे, लेकिन नेपाल नरेश को भेजा गया संदेश वाला कोट अंगरेजों के हाथ पड़ गया। इस पर राजा महेंद्र प्रताप के इस मामले में सीधा हाथ होने का खुलासा हुआ। इस पर अंगरेजों ने हिंदुस्तान में राजा महेंद्र प्रताप की सारी संपत्ति कुर्क कर ली और उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया। उनकी जायदाद को कब्जाने के लिए बाकायदा एक्ट बनाया गया, जिसका बाद में भी दुरुपयोग होता रहा।
आजाद हिंद सरकार की फौज को हथियारों की आमद रोकने के लिए अंगरेजों ने ईरान में फौज लगा दी। पहले विश्व युद्ध में जर्मनी व तुर्की की हार के बाद आजाद हिंद सरकार की फौज का अभियान छिन्न-भिन्न हो गया। बाद में राजा महेंद्र प्रताप के पद चिह्नों पर चलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने विदेशी धरती पर आजाद हिंद फौज का गठन किया। पांच साल अफगानिस्तान में बिताने के बाद राजा महेंद्र प्रताप ने जापान के नारे- एशिया, एशिया के लोगों का है, से प्रभावित होकर जापान में एक बड़ी कांफ्रेंस में हिस्सा भी लिया। 1927 में जब जापान ने चीन के मंचुरिया पर हमला किया तो वह जापान के अभियान से अलग हो गए। 1929 में उन्होंने बर्लिन में मासिक पत्रिका द वल्र्ड फेडरेशन भी निकाली। करीब 32 साल विदेशों में जीवन व्यतीत करने के बाद राजा महेंद्र प्रताप 1946 में भारत लौट आए। इससे पहले उनकी पत्नी की 1924 में मृत्यु हो चुकी थी। बंटवारे के दौरान वह देश के विभिन्न हिस्सों में दौड़भाग कर बंटरारे के खिलाफ लोगों को समझाने का प्रयास करते रहे। समाजसेवा के क्षेत्र में उन्होंने देहरादून और हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया। 29 अप्रैल 1979 में उनकी मृत्यु हो गई। हरियाणा के यमुनानगर स्थित श्री कालेश्वर महादेव मठ में हर साल एक दिसंबर को राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन मनाया जाता है। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आजादी के लिए उन्होंने अपने घर, परिवार का जो त्याग किया, वह सभी के लिए प्रेरणादायी है। ऐसी महान आत्मा को मेरा शत-शत नमन।
शांति के जज्बे ने अकबर को बनाया शिवानंद
इसे राजा महेंद्र प्रताप की संगती का असर ही कहेंगे कि अकबर खान दो धर्मों के बीच तालमेल बैठाने में कामयाब रहे। प्रेम, शांति व सच्चाई के के मार्ग पर चलने के जज्बे ने हाफिज अकबर खान को स्वामी शिवानंद बना दिया। वह राम-रहीम की माला साथ-साथ जपते रहे। जीवन के किसी भी क्षण उन्होंने दो धर्मो के बीच दीवार महसूस नहीं की। अकबर खान सरकारी सेवा में 1931 में एमईएस देहरादून में नियुक्त हुए। पहले कांग्रेसी विचारधारा को मानने लगे। फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य रहे। फिर उन्होंने यह दल भी छोड़ दिया। उन्हें सभी दल एक से ही लगने लगे थे, जो आम आदमी की लड़ाई की बात तो करते, लेकिन चापलूस प्रवृति के ही नजर आते। राजा महेंद्र प्रताप से उनकी पहली मुलाकात एक नवंबर 1946 को हुई। इस मुलाकात ने उनके जीवन में नया मोड़ ला दिया। वह राजा की मासिक पत्रिका में अनुवादक के रूप में कार्य करने लगे। साथ ही राजा ने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। करीब 26 साल राजा की संगत में रहने के बाद उनकी विचारधारा ही बदल गई और समाज सेवा के क्षेत्र में जुड़ गए। कालेश्वर महादेव मठ से वह इतने प्रभावित हुए कि स्वामी महानंद से सन्यास की दीक्षा लेकर वह अकबर खान से स्वामी शिवानंद बन गए। इस मठ में वह कई साल तक मुख्य पुजारी भी रहे। राजा महेंद्र प्रताप के अनुयायियों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन्होंने समाजसेवा को ही अपना धर्म माना।
भानु बंगवाल
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