हालांकि सभी रिती, रिवाज व त्योहार समाज में सौहार्द का संदेश देते हैं और उन्हें मनाने का मकसद भी सदैव अच्छा ही रहता है। इसके बावजूद वर्तमान में कई त्योहारों का स्वरूप विभत्स होता जा रहा है। उसके ऐसे रूप को अपनाने वाले त्योहार की आड़ ले रहे हैं। ऐसे रूप में शराब का चलन तो है, लेकिन धन की देवी लक्ष्मी की पूजा वाले त्योहार को मनाने के लिए कई लक्ष्मी की कामना में जुए में भी डूब जाते हैं। धन व संपन्नता के प्रतीक दीपावली पर्व की तैयारी भले ही कोई पहले से न करे, लेकिन जुआरी जरूर करते हैं। वे दीपावली से कई दिन पहले से ही जुआ शुरू कर देते हैं और कई तो दीपावली आते-आते काफी कुछ हार चुके होते हैं। सच ही कहा गया कि जुआ, कभी किसी का ना हुआ। इसके बावजूद दांव लगाने वाला हर व्यक्ति यही सोचकर दांव लगाता है कि उसकी ही जीत निश्चित है। इतिहास गवाह है कि जुआ ही व्यक्ति की परेशानी का कारण बनता है। महाभारत काल में पांडव जुए में सब कुछ हार गए थे। यहां तक कि युधिष्ठर ने तो पत्नी द्रोपती को ही दांव में लगा दिया था। इसीलिए कहा गया कि अच्छाई से व्यक्ति को प्रेरणा लेनी चाहिए और बुराई से सबक।
फिर दीपावली आ रही है। हर शहर में लाखों करोड़ों रुपये आतिशबाजी पर फूंक दिए जाएंगे। साथ ही पर्यावरण भी प्रदूषित होगा। इसे रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन समाज में जागरूकता लाकर कुछ कम जरूर किया जा सकता है। जिस राशि को हम आतिशबाजी में फूंक देते हैं, उससे एक वक्त की रोटी खाने वाले कई घरों में दो वक्त का भोजन बन सकता है। कई शहरों की सड़कें चकाचक हो सकती हैं। इस फिजूलखर्ची को रोकने के लिए बच्चों को समझाना होगा और युवाओं को आगे आना होगा।
फिर भी मैं यही कहूंगा कि पटाखे फूंकने के लिए हर व्यक्ति एक बजट फिक्स करता है। यह खर्च भी साल में एक बार ही होता है, लेकिन जुआ व शराब में होने वाले खर्च की कोई सीमा नहीं होती और न ही बजट फिक्स होता है। इससे जब कोई बर्बाद होना शुरू होता है, तो जल्द संभल नहीं पाता और वही हाल होता है, जो शर्मा जी का हुआ।
दृष्टिहीन थे शर्माजी। जो एक सरकारी संस्थान में अच्छे पद में कार्यरत थे। दृष्टिहीनता के बावजूद शर्माजी का कपड़े पहनने का अंदाज काफी गजब का था। उनकी पेंट व शर्ट ऐसी लगती, जैसे सीधे शो रूम से लेकर पहनी हो। पुराने कपड़े भी उनके नए की तरह चमकते थे। हालांकि घर में पत्नी सामान्य थी और देख सकती थी, लेकिन वे अपने कपड़ों में खुद ही प्रेस करते। साथ ही जूतों को पालिश कर वह ऐसे चमकाते कि हमेशा नए दिखते। बातचीत में काफी शालिन शर्मा जी में दो अवगुण पैदा हुए और वे उसके घेरे में फंसते चले गए। ये अवगुण थे जुआ और शराब। सामान्य लोगों के साथ वह जब जुआ खेलते, तो ऐसे ताश का इस्तेमाल होता, जिसमें ब्रेल लिपी से भी नंबर लिखे हों। बेचारे शर्मा जी को क्या पता था कि दूसरे लोग आपस में मिल जाते और उन्हें जुए में हार का सामना करना पड़ता। हर बार जीत की उम्मीद में वह ज्यादा से ज्यादा रकम दांव में लगा देते। एक दीपावली में तो उन्होंने पूरा वेतन और बोनस की रकम ही दांव पर लगाई और हार गए। बड़े बुजुर्गों ने समझाया, लेकिन शर्माजी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। शराब के भी आदि होते जा रहे थे। पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। दो बेटे थे, वे भी काफी छोटे। लोग समझाते कि आपको कुछ हो गया तो पत्नी और बच्चों का क्या होगा। फिर एक दिन शर्माजी ने बिस्तर पकड़ा और दोबारा नहीं उठ सके। शर्माजी के निधन के बाद आस-पड़ोस व संस्थान के लोगों को यही चिंता हुई कि उनकी पत्नी और बच्चों को क्या होगा। शर्माजी की पत्नी को मृतक आश्रित के नाते चतुर्थ श्रेणी में नौकरी मिल गई। जितना वेतन पहले शर्माजी को मिलता था, उससे आधा भी पत्नी को नहीं मिलता था, लेकिन उस राशि में बरकत जरूर थी। किसी तरह उनकी पत्नी ने बच्चों को पढ़ाया और दोनों बेटे आज उच्च पदों पर नौकरी कर रहे हैं। जब भी मैं शर्माजी की पत्नी को देखता हूं, तो यही सोचता हूं कि यदि शर्माजी सरकारी नौकरी पर नहीं होते, तो तब उनकी पत्नी व बच्चों का क्या होता। क्या तब भी उनकी पत्नी बच्चों का समुचित लालन-पालन कर पाती।
भानु बंगवाल
फिर दीपावली आ रही है। हर शहर में लाखों करोड़ों रुपये आतिशबाजी पर फूंक दिए जाएंगे। साथ ही पर्यावरण भी प्रदूषित होगा। इसे रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन समाज में जागरूकता लाकर कुछ कम जरूर किया जा सकता है। जिस राशि को हम आतिशबाजी में फूंक देते हैं, उससे एक वक्त की रोटी खाने वाले कई घरों में दो वक्त का भोजन बन सकता है। कई शहरों की सड़कें चकाचक हो सकती हैं। इस फिजूलखर्ची को रोकने के लिए बच्चों को समझाना होगा और युवाओं को आगे आना होगा।
फिर भी मैं यही कहूंगा कि पटाखे फूंकने के लिए हर व्यक्ति एक बजट फिक्स करता है। यह खर्च भी साल में एक बार ही होता है, लेकिन जुआ व शराब में होने वाले खर्च की कोई सीमा नहीं होती और न ही बजट फिक्स होता है। इससे जब कोई बर्बाद होना शुरू होता है, तो जल्द संभल नहीं पाता और वही हाल होता है, जो शर्मा जी का हुआ।
दृष्टिहीन थे शर्माजी। जो एक सरकारी संस्थान में अच्छे पद में कार्यरत थे। दृष्टिहीनता के बावजूद शर्माजी का कपड़े पहनने का अंदाज काफी गजब का था। उनकी पेंट व शर्ट ऐसी लगती, जैसे सीधे शो रूम से लेकर पहनी हो। पुराने कपड़े भी उनके नए की तरह चमकते थे। हालांकि घर में पत्नी सामान्य थी और देख सकती थी, लेकिन वे अपने कपड़ों में खुद ही प्रेस करते। साथ ही जूतों को पालिश कर वह ऐसे चमकाते कि हमेशा नए दिखते। बातचीत में काफी शालिन शर्मा जी में दो अवगुण पैदा हुए और वे उसके घेरे में फंसते चले गए। ये अवगुण थे जुआ और शराब। सामान्य लोगों के साथ वह जब जुआ खेलते, तो ऐसे ताश का इस्तेमाल होता, जिसमें ब्रेल लिपी से भी नंबर लिखे हों। बेचारे शर्मा जी को क्या पता था कि दूसरे लोग आपस में मिल जाते और उन्हें जुए में हार का सामना करना पड़ता। हर बार जीत की उम्मीद में वह ज्यादा से ज्यादा रकम दांव में लगा देते। एक दीपावली में तो उन्होंने पूरा वेतन और बोनस की रकम ही दांव पर लगाई और हार गए। बड़े बुजुर्गों ने समझाया, लेकिन शर्माजी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। शराब के भी आदि होते जा रहे थे। पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। दो बेटे थे, वे भी काफी छोटे। लोग समझाते कि आपको कुछ हो गया तो पत्नी और बच्चों का क्या होगा। फिर एक दिन शर्माजी ने बिस्तर पकड़ा और दोबारा नहीं उठ सके। शर्माजी के निधन के बाद आस-पड़ोस व संस्थान के लोगों को यही चिंता हुई कि उनकी पत्नी और बच्चों को क्या होगा। शर्माजी की पत्नी को मृतक आश्रित के नाते चतुर्थ श्रेणी में नौकरी मिल गई। जितना वेतन पहले शर्माजी को मिलता था, उससे आधा भी पत्नी को नहीं मिलता था, लेकिन उस राशि में बरकत जरूर थी। किसी तरह उनकी पत्नी ने बच्चों को पढ़ाया और दोनों बेटे आज उच्च पदों पर नौकरी कर रहे हैं। जब भी मैं शर्माजी की पत्नी को देखता हूं, तो यही सोचता हूं कि यदि शर्माजी सरकारी नौकरी पर नहीं होते, तो तब उनकी पत्नी व बच्चों का क्या होता। क्या तब भी उनकी पत्नी बच्चों का समुचित लालन-पालन कर पाती।
भानु बंगवाल
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