Friday, 9 November 2012

ऐसी दीपावली देख भगवान राम भी रो देंगे

14 साल के वनवास के बाद भगवान राम के वापस अयोध्या लौटने पर दीपावली के त्योहार की शुरूआत हुई और सदियों से यह परंपरा निभाई जा रही है। दीपावली यानी खुशियों का त्योहार, सुख समृद्धि का प्रतीक। इन दिनों धान की फसल से खेत लहलहा रहे होते हैं। किसान फसल काटने की तैयारी करेगा। गरमी चली गई और सर्दी ने दस्तक दे दी। ऋतु परिवर्तन के साथ ही हृदय परिवर्तन का मौका त्योहार के माध्यम से आया। उस त्योहार को हम मना रहे हैं,  जिस त्योहार का हमने स्वरूप ही बिगाड़ दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों को याद करने के लिए हम त्योहार तो मना रहे हैं, लेकिन इस त्योहार का जो स्वरूप हमने बना दिया, यदि राम जिंदा होते तो वह भी इस त्योहार को देखकर रोने लगते।
मेरी नजर में राम अन्य राजाओं की भांति एक राजा थे, लेकिन उनके अच्छे गुण ने उन्हें देवता या भगवान की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया। उनके दौर में आजकल की ही तरह तीन किस्म के लोग इस समाज में थे। उनमें से एक वे थे, जो साधारण मनुष्य थे। ऐसे लोगों में राजा व भिखारी दोनों ही शामिल थे। दूसरी किस्म के लोग वे थे, जो संगठित थे, ताकतवर थे, लेकिन लुटेरे थे। ये लोग कभी किसी राजा को लूटते या फिर किसी किसान की फसल, व्यापारी का धन इत्यादि लूटकर ले जाते। किसी को लूटने के लिए वे संगठित होकर हमला करते थे। ऐसे लोगों को राक्षसी प्रवृति का कहा गया। या फिर राक्षस कहा जाता था। तीसरे किस्म के लोग वे थे, जो राम की तरह थे। राम ने इस धरती को ऐसे राक्षसों से मुक्ति का बीड़ा उठाया। बाल अवस्था में उन्होंने ऋषियों को राक्षसों के अत्याचार से मुक्त कराया। बाद में जब उन्हें 14 साल के वनवास में भेजा गया तो उन्होंने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर लोगों को राक्षसों के अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए संगठित किया। राक्षसों से लड़ने वाले राम की तरह के लोगों को तब दैवीय प्रवृति का कहा जाता था। तब विज्ञान था। इसका उपयोग राक्षस करते तो कहा जाता कि उनके पास मयावी शक्ति है। राक्षसों से लड़ने वाला व्यक्ति यदि विज्ञान का सहारा लेता तो उसे दैवीय शक्ति का माना जाता। तब मीडिया के लोगों को नारद कहा जाता। वह देवीय प्रवृति व राक्षसी प्रवृति दोनों के लिए ही प्रचार का काम करता था। आज जनमानस तक जब कोई घटना नारद के माध्यम से पहुंचती तो वह काफी बड़ा चढ़ाकर पहुंचती। एक गांव से दूसरे गांव के लोगों को राक्षसों से खिलाफ संगठित करना राम का उद्देश्य था। भोले-भाले ग्रामीण आदिवासियों को उन्होंने रावण के खिलाफ जागरूक किया और एक फौज बनाई। इन ग्रामीणों को ही बंदर कहा जाता था। क्योंकि वे काफी पिछड़े हुए थे।
जब राम ने इस धरती से राक्षसी प्रवृति के लोगों का सफाया किया तो वह अपने घर लौटे। उनके लौटने पर अयोध्या में खुशी मनाई गई। घर-घर में लोगों ने दीप जलाकर दीपावली मनाई। दीपावली यानी दीपक से घर रोशन करने का त्योहार। यानी राम के अच्छे गुणों को ग्रहण कर अपने मन के भीतर के बुराइयों के अंधकार को भगाकर हम अच्छे गुणों से मन को रोशन करें। राम की तरह दूसरों की भलाई करें। अत्याचार के खिलाफ लोगों को लड़ना सिखाएं। यही कुछ होना चाहिए था इस त्योहार में। इसके विपरीत हमने आज यह त्योहार विकृत बना दिया है। भगवान राम तो वनवास के दौरान जंगल में रहे, लेकिन वर्तमान में तो हम इस दीपावली के त्योहार की आड़ पर्यावरण को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। जब पर्यावरण ही सुरक्षित नहीं रहेगा तो जंगल भी कैसे बचे रहेंगे। भगवान राम तो पर्यावरण प्रेमी थे। उनके भाई भरत भी पर्यावरण के प्रति सचेत थे। राम के वनवास जाने के बाद उनके भाई भरत उन्हें वापस बुलाने के लिए घर से वन की तरफ चल पड़ते हैं। उनके साथ प्रजा भी चल पड़ती है। साथ में सैनिक भी चलते हैं। रास्ते में हर गांव, घर पड़ने पर भरत को जो भी मिलता वह राम का पता पूछते हैं। एक स्थान पर किसी ऋषि का आश्रम पड़ता है। कुछ दूरी पर वह प्रजा व सैनिकों को रोक कर खुद ही आश्रम तक जाते हैं। ऋषि से भगवान राम का पता पूछने के बाद भरत वापस लौटते हुए बड़ी विनम्रता से ऋषि से पूछते हैं कि उनके व उनके साथियों के आश्रम तक आने में यदि क्षेत्र के पशु-पक्षी, वृक्ष, लताओं को कोई नुकसान पहुंचा हो तो वह स्वयं इसकी भरपाई के लिए तैयार हैं। तब भी कितना ख्याल था भरत को पर्यावरण का। उन्होंने प्रजा को आश्रम से दूर इसलिए रखा कि कहीं प्रजा के आश्रम क्षेत्र में जाने से पेड़, पौधों को कोई नुकसान न हो।
ऐसा ही किस्सा महाभारतकाल में मिलता है। द्रोपती ने भीम को लकड़ी लाने को कहा तो वह निकट ही एक पेड़ की डाल को काटने को तैयार हो गए। इस पर युधिष्टर ने भीम को टोका। उन्होंने कहा कि जिस पेड़ की छाया से शीतलता मिलती है, उस पर कुल्हाड़ी मत चलाओ। यदि लकड़ी चाहिए तो सूखी डाल काटो।
अब वर्तमान में जो दीपावली मनाई जा रही है, उस पर नजर डालो। एक छोटे से शहर में एक करोड़ से अधिक की राशि को हम आतिशबाजी में फूंक देते हैं। साथ ही हवा को विषैला भी बना रहे हैं। इस राशि से शहर के एक मोहल्ले की कायापलट हो सकती है। सुख-समृद्धि व खुशहाली के इस त्योहार को कुछ लोग कर्ज लेकर मना रहे हैं कि शायद लक्ष्मी कृपा बरसाएगी। कई दीपवली से कुछ दिन पहले से ही जुए की चौकड़ी में जमने लगते हैं। यह दौर दीपावली के बाद त्योहार की खुमारी उताने तक चलेगा। यदि दीपावली के मनाने के अंदाज के प्रति हम अभी से जागरूक नहीं हुए तो हम पर्यावरण को इतना विषैला बना देंगे कि इसकी भरपाई भी जल्द नहीं होने वाली। साथ ही आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। एक समाचार पत्र में एक ज्योतिष के विचार पढ़ रहा था कि दीपावली के दिन झाड़ू जरूर खरीदें। सच ही तो कहा था उसने। इस त्योहार को मनाने से पहले घर की साफ सफाई, रंग रोगन इत्यादि भी किया जाने का प्रचलन है। घर साफ सुथरा रहेगा तो मन भी प्रसन्न रहेगा। मेरा कहना है कि आप भी झाड़ू मारो। यह झाड़ू अपने मन में बैठी बुराइयों पर फेरना होगा, जिससे हम ऐसी दीपावली मनाएं, जो फिजूलखर्ची की बजाय साफ सुथरी हो। पर्यावरण स्वच्छ रहेगा तो तन व मन दोनों ही शुद्ध, व मजबूत रहेंगे। साथ ही आप सभी को इस संकल्प के साथ दीपावली की शुभकामनाएं कि इस बार कुछ अलग हटके दीपावली मनाएंगे। अपने भीतर की कम से कम एक बुराई को छोडऩे का संकल्प लेंगे और इसे पूरा कर दिखाएंगे।
भानु बंगवाल

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