Monday, 22 October 2012

सब कुछ छोटा तो बड़ा क्या.....

शादियों का सीजन चल रहा है, तो घर में शादी के कार्ड के ढेर भी लग रहे हैं। जिस तरह महंगाई निरंतर बढ़ रही है, उसी तरह शादी के आमंत्रण भी बढ़ रहे हैं और बजट भी गडबड़ा रहा है। रविवार की सुबह मेरी नजर एक कार्ड पर पड़ी। यह कार्ड हमारे गांव के किसी सज्जन के बेटे की शादी का था। सज्जन भी सालो से सपरिवार देहरादून रह रहे हैं। या यूं कहें कि जब से नौकरी लगी होगी, तब से यहीं बस गए। गांव में तो उनका खुशी के समारोह या फिर दुख के मौके पर ही मेरी तरह आना जाना होता है। मेरी पत्नी व बच्चों ने सिर्फ एक बार भी अपना गांव देखा है। यह मौका भी चाचाजी की तेहरवीं का था। शहर से जब भी कोई परिचित देहरादून या आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने आता है और यदि मेरे पास समय होता है तो मैं भी उनके साथ जरूर जाता हूं। ऐसा कभी कभार ही हो पाता है। एक बार दशहरे के मौके पर मेरा भांजा दिल्ली से देहरादून आया। उसने मुझे साथ लेकर मसूरी घूमने की इच्छा जताई। इत्फाकन उस दिन मेरी छुट्टी थी। मैं भी चल दिया। स्कूटर से दोनों मामा-भांजे मसूरी व आसपास के गांवों में घूमे। पहाड़ों में पगडंडी वाले छोटे खेत देखकर वह नहीं चौंका, लेकिन जब उसने उन खेतों में छोटे-छोटे हल के साथ जोते गए छोटे-छोटे बैलों की जोड़ी देखी, तो उसका चौंकना स्वाभाविक था। मैने उसे समझाया का पहाड़ की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहां हल, बैल, गाय, सांड सभी छोटे होते हैं। मैने कहा कि ऐसे मवेशी को पहाड़ी गाय या पहाड़ी सांड कहना अनुचित नहीं होगा। आसपास घूमने के बाद हम मसूरी के मुख्य बाजार में आ गए। पिक्चर पैलेस की तरफ से दशहरे व रामलीला के उत्सव की शोभायात्रा निकल रही थी। छोटे -छोटे वाहनों पर झांकियां सजाई गई थी। शाभायात्रा को देखने के लिए काभी भीड़ थी। हम किताबघर की तरफ को चले। पहले वहां रावण दहन होना था, फिर पिक्चर पैकेज के पास मैदान में दूसरा रावण दहन होना था।
किताबघर के पास गांधी चौक पहुंचकर हमें भीड़ में कहीं रावण का पुतला नहीं दिखाई दिया। कारण यह था कि भीड़ में पुतला हमें नजर नहीं आ रहा था। मेरा भांजा मुझसे लंबा था। इस पर वह बोला मामा यहां तो पहाड़ी मवेशी की तरह पहाड़ी रावण है। यानी रावण का पुतला भी काफी छोटा है। इसलिए वह भीड़ में नजर नहीं आ रहा। मैं कुछ पीछे हटा और तब ऊंचाई वाले स्थान से पुतले को देखने का प्रयास किया तो देखा कि चौक के पास प्रतिकात्मक स्वरूप काफी छोटा पुतला खड़ा गया था। आसपास होटल व दुकानें थी। उनकी फ्रंट साइड पर शीशे लगे थे। ऐसे में रावण के भीतर हल्की आवाज वाले छोटे पटाखे भरे हुए थे, जिससे रावण दहन के दौरान आसपास के भवनों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। संक्षिप्त रावण दहरन हुआ उसी में ही लोगों ने आनंद उठया।
बात शादी से शुरू हुई, बीच में दशहरा व रावण आ गया। चलो फिर से शादी की बात पर ही चलते हैं। शादी के कार्ड में हमें सपरिवार बारात का निमंत्रण था। रविवार की दोपहर दो बजे देहरादून से बारात टिहरी जनपद के चंबा कस्बे से सटे एक गांव में जानी थी। छुट्टी के कारण मेरे बड़े बेटे व्योम (14 वर्ष) ने भी बारात में जाने की इच्छा जाहिर की। उसका कहना था कि उसने ढंग से गढ़वाल नहीं देखा है। मैने उसे समझाया पहाड़ में गाय, हल, बैल, खेत सभी छोटे होते हैं। घर भी छोटे व दुकान भी छोटी, सड़को पर बस भी छोटी होती है। उसके दिमाग में यही बैठ गया। जिस घर से बारात चलनी थी, वहां मैं बेटे के साथ समय से आधा घंटा पहले ठीक डेढ़ बजे पहुंच गया। जब ढाई बजे तक भी मुझे बारात चलने की कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आई, तो खाली बैठे-बैठे बेचैनी होने लगी। तभी मैने महसूस किया कि दुल्हा तो कहीं नजर नहीं आ रहा है। इस पर मैने एक व्यक्ति से पूछा, तो उसने बताया कि दूल्हा तो वीडीओ की परीक्षा देने गया है। दो बजे पेपर समाप्त हो गया होगा। अब आता ही होगा। करीब पौने तीन बजे दुल्हा पेपर देकर घर पहुंचा। तब तैयारी शुरू हुई और पांच बजे जाकर बारात रवाना हुई।  
जब चंबा पहुंचे, उस समय रात के आठ बज चुके थे। ऐसे में अंधेरे में शहर का नजारा ले  नहीं सके। जब बस से उतरे तो पहाड़ का पारंपरिक वाद्य ढोल, दमऊ, मशकबीन वाले खड़े थे। हमारे पहुंचते ही उन्होंने धुन छेड़ दी। शहर की तरह बैंड बाजे नहीं थे। जो बैंड वाले थे, उनके पास भी ढोल व झुनझुने थे। बैड-बाजा की जगह एक व्यक्ति के कंधे में लगी बैल्ट के सहारे छोटा सा कैसियो हारमोनियम टंगा था। साथ ही एक 12 वोल्ट की छोटी बैटरी भी उसने कंधे से लटकाई हुई थी। उस बैटरी के करंट से कैसियो को बजा रहा था। साथ ही उसमें आवाज को बढ़ाने के लिए छोटा या भौंपू (हॉर्न या लाउडस्पीकर) जुड़ा हुआ था। इस वीराने में वाद्य यंत्रों की आवाज भी एक सीमित दायरे में गूंज रही थी। सड़क से काफी गहराई में संकरी पगडंडियों से चलकर बारात आगे बढ़नी थी। इसलिए शादी में शहर की तरह तामझाम घोड़ा, बग्गी आदि कुछ नहीं था, क्योंकि वह वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के चलते ये संभव नहीं था। पहाड़ में संकरी पगडंडियों में बारात ढलान की तरफ उतर रही थी। दूल्हे को छोटी सी  पालकी (डोली) में बैठा गया। वह भी पलाथी मारकर बैठा। डोली को कंधे में चार लोगों ने उठा रखा था। कई जगह रास्ते की चौड़ाई एक या सवा फुट ही थी। ऐसे में बाराती भी छोटे-छोटे सधे कदम से दायें-बायें की बजाय आगे पीछे होकर डांस  कर रहे थे। जहां बारात पहुंची वहां छोटे से खेत में छोटा सा पंडाल। पंडाल में आगे छोटा सा गेट। पंडाल के नीचे बैठने के लिए कम स्थान घेरने वाली छोटी-छोटी प्लास्टिक की कुर्सियां। दूल्हे के बैठने के लिए छोटा का स्टेज, उस पर छोटी की वैडिंग कुर्सी। छोटा सा वीडियो कैमरा लेकर विवाह समारोह की मूवी बना रहे युवक के हाथ में छोटी सी फ्लेश लाइट। एक छोटी सी छत पर अलग से लगा पंडाल। वहां छोटी-छोटी टेबलों में खानपान की व्यवस्था। भोजन में भी सीमित वस्तुएं। सचमुच शहरों के आडंबर से दूर एक अनौखा अनुभव रहा मेरा इस विवाह समारोह में। मेरा बैटा मेरे से पूछने लगा कि पापा यहां रह चीज छोटी-छोटी है। बड़ा क्या है। मैने उसे बताया कि यहां बड़ा है यहां के लोगों की सादगी, उनका दिल। तभी तो मेहमान नवाजी के लिए लड़की वालों ने सीमित संसाधनों में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। बाघिन सी सर्दी वाले इस छोटे से शहर में मेहमनों के सोने के लिए भी छोटे से होटल में सोने का प्रबंध भी किया गया था।
भानु बंगवाल 

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