Saturday, 13 October 2012

आदर्श की अग्निपरीक्षा

व्यक्ति को उत्तम जीवन जीने के लिए आदर्शवादी बनने की प्रेरणा बचपन से ही दी जाती है। अभिभावक हों या फिर गुरु। सभी ऐसे उदाहरण व कहानी सुनाते हैं, जिससे सुनने वाला प्रेरित हो और आदर्शवादी जीवन जीने के लिए हर संभव प्रयास करे। बताया जाता है कि बुरा मत सोचो, बुरा मत बोलो, दूसरों का बुरा मत करो, बुरा मत देखो, हर समय अच्छा ही सोचो, तो अच्छा होगा। ये आदर्श राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के थे। उनके विचार थे, जिनसे प्रेरणा लेने की हर कोई बात कहता है। स्वामी दयानंद हों या फिर स्वामी विवेकानंद। पत्रकार मदन मोहन मालवीय हों या फिर भारतेंदु हरिशचंद्र। या फिर वे राजनेता जो घर का सुख चैन छोड़कर देश की आजादी के आंदोलन में कूद गए। उनका एकमात्र लक्ष्य देश को आजाद कराना था। आजादी के बाद लक्ष्य देश का विकास हो गया। समाज से अशिक्षा, कुरितियों को दूर करना ही ऐसी महान विभूतियों का आदर्श था। इन आदर्शों की ही हम बात करते हैं। किसी को सही राह में चलने के लिए ऐसे ही उदाहरण दिए जाते हैं। समय के साथ वे पात्र बदलते रहते हैं, जिनके उदाहरण दिए जाते हैं। प्रयास यही होता है कि ताजा उदाहरण देकर ही किसी को आगे बढ़ने की शिक्षा दी जाए। वर्तमान में ऐसे उदाहरण अब दिन के उजाले में चिराग लेकर तलाशने निकलो तो भी खोजने मुश्किल हो जाएं।
समाज को सूचना देना, शिक्षित करना, मनोरंजन करना आदि उद्देश्यों को लेकर शुरू हुई पत्रकारिता भी अब व्यवसाय बन चुकी है। ऐसे में इस विधा को आदर्श का नाम देना बेमानी होगा। आदर्श का पाठ पढ़ाने वाला शायद ही कोई पत्रकार अपने बच्चों को पत्रकार बनने के लिए प्रेरित करता हो। शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। गुरुजन भी व्यावसायिक होते जा रहे हैं।  फिर क्या समाज का आदर्श जनसेवक हैं। जनसेवक तो जनता की सेवा से ज्यादा अपना पेट मोटा करने में लगे हैं। साथ ही अब विवादों में घिरे रहना उनकी आदत में शामिल हो गया। तभी तो उनकी जुबां से निकले शब्दों के तीर हर किसी को आहत करने वाले होते हैं। जो कहने से पहले यह तक नहीं सोचते कि वे क्या कह रहे हैं और उसका असर क्या पड़ेगा।
ऐसे ही आदर्शवादी व्यक्ति के आदर्श पर चलने वाली एक महिला की कहानी मैने गढ़ी है। जिसे बचपन से ही यह शिक्षा दी जाने लगी कि उसकी सीमाएं क्या हैं। घर की देहरी लांघना उसके लिए आसान नहीं है। किसी दूसरे पुरुष या अजबनी से घुलमिलकर बात करना उसे प्रतिबंधित है। पढ़ाई के साथ घर का कामकाज निपटना ही उसका कर्तव्य है। उसके भाई भले ही दिन भर मटरगश्ती करें, लेकिन वह शालिनता से रहे। वह पराया धन है। दूसरे घर में जाना है। वहां जाकर सास-ससुर की सेवा करना है। पति ही उसका परमेश्वर है। इन बातों को तो उसे सिखाया गया, लेकिन यह नहीं बताया गया कि पति के आदर्शों को ही उसे अपना आदर्श मानना है या नहीं। विवाह के बाद महिला ने पत्नी की बजाय धर्म पत्नी बनने का प्रयास किया। पत का अर्थ गिरना होता है। ऐसे में सिर्फ पत्नी बनकर रहना उसने पसंद नहीं किया। उसकी नजर में पत्नी तो वह है जो पतन की राह पर चले। इसके उलट धर्म पत्नी वह है जो धर्म की राह दिखाए। ऐसे में वह पति को पतन की राह से धर्म की राह पर ले जाने के लिए एक आदर्श धर्मपत्नी बनी। पति के आदर्श तो झूठ, फरेब, बेईमानी व लालच थे। पति नशेड़ी था। पत्नी पति को हर समय एक आदर्शवादी बनने के लिए प्रेरित करती थी। उसे बुराइयों से दूर रहने को कहती और झगड़ा हो जाता। झगड़ा पति से शुरू होता और पत्नी सहन करती। मायके वालों ने पहले ही कह दिया था कि पति ही तेरा परमेश्वर है। उसके साथ ही जीवन निभाना है। एक दिन महिला हिम्मत हार बैठी। समय के साथ तालमेल बिठाते-बिठाते उसे यह अहसास तक नहीं हुआ कि वह अपने पति के आदर्शों पर ही चलने लगी है। उसकी शाम पार्टियों में व्यतीत होने लगी। कभी-कभार जुआ व शराब का दौर भी चल जाता। पति को भी इस पर ऐतराज नहीं था। वह तो एक बड़े नेता थे, जो अपने आदर्शों का बखान कर चुनाव जीतते थे और मंत्री भी बन जाते थे।
एक दिन नेताजी ने एक सम्मेलन में कह दिया कि नई-नई जीत और नई-नई शादी का अलग ही महत्व है। जिस तरह समय से साथ जीत पुरानी पड़ती है, उसी तरह बीवी भी पुरानी होती जाती है और उसमें वह मजा नहीं रह जाता है। नेताजी के बयान पर हो-हल्ला मचा। उन्होंने सफाई भी दी कि कवि सम्मेलन में परिस्थितियों के तकाजे में एक ठहाके पर उन्होंने यह बात कही। इसका गलत अर्थ लगाया गया। वह महिलाओं का सम्मान करते हैं।
बात यहां तक सीमित नहीं रही। पति के आदर्श पर चलने वाली महिला की सहेलियों ने जब उससे इस संबंध में पूछा तो उसका भी जवाब कुछ अलग नहीं रहा। महिला बोली इसमें क्या गलत है। पुराने पति में भी तो वह मजा नहीं रहता। बाद में महिला ने भी कहा कि उसने तो बस ठहाके में यह बात कही है। इसका गलत अर्थ नहीं लगाना चाहिए। वह तो पुरुषों का सम्मान करती है। वह पुरुष को उपभोग की वस्तु नहीं मानती। महिला के मुख से निकले शब्दों के तीर और सफाई ने तो भूचाल खड़ा कर दिया। उसे यह अहसास तक नहीं था कि पति के आदर्शों पर चलते ही उसने जो बात कही और सफाई दी, वह पूरे जीवन उसका पीछा नहीं छोड़ेगी। हर रोज पति से विवाद होने लगा। परिवार व समाज में उसे शक की निगाह से देखा जाने लगा। पति अपने बच्चों को भी शक की दृष्टि से देखने लगा। उनकी शक्ल का खुद से मिलान करने लगा। फिर भी तसल्ली नहीं हुई और उसकी पत्नी की अग्निपरीक्षा का मन बना लिया। ये अग्नि परीक्षा होती ही महिलाओं के लिए है। त्रेता युग में राम ने सीता की क्या अग्नि परीक्षा ली, तब से तो यह चलन ही शुरू हो गया। पुरुषों में तो एक अपवादस्वरूप उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री ही इस परीक्षा से गुजरे और फंस भी गए। महिलाओं को तो हर कदम में ऐसी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। फिर नेताजी की पत्नी कहां बच पाती। पति की जुबां से शब्द निकले तो सिर्फ आलोचना हुई। पत्नी की जुबां से निकले शब्दों ने तो नेताजी को आहत कर दिया। फिर उन्होंने पत्नी की अग्नि परीक्षा कराई। वह यह जानने के लिए डीएनए टेस्ट था कि उनकी औलाद के क्या वह ही वास्तविक पिता हैं या कोई और।....................
नोट-इस ब्लाग की कहानी एक काल्पनिक है। जो कोयला मंत्री के बयान पर आधारित है। इसमें मैने यही बताने का प्रयास किया कि यदि कोई महिला मंत्री की तरह मजाक में कोई व्यंग्य करती तो उसकी क्या दशा होती। यदि किसी को इससे ठेस पहुंचे तो क्षमा प्रार्थी हूं। .....भानु बंगवाल  

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