पहली अप्रैल, यानि हंसी-खुशी व मजाक का दिन। इस दिन अक्सर कोई सच भी कहे तो पहली बार यही लगता है कि वह मूर्ख बना रहा है। ऐसे में मैं तो सुबह से ही सतर्क रहता हूं, लेकिन इस सतर्कता को दिन भर बरकरार रखना काफी मुश्किल होता है। एकआध बार तो व्यक्ति अप्रैल फूल बन ही जाता है। अप्रैल फूल मनाने के तरीके में मुझे कोई बादलाव नहीं दिखा। यह दिन ठीक उसी तरह मनाया जा रहा है, जैसे पहले मैं बचपन में देखता था। अप्रैल के महीने में कलियां खिलकर फूलों में बदल जाती हैं। फूलों से पेड़ पौधे लकदक हो जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कोयल की कूक भी सुबह-सुबह कुछ ज्यादा ही सुनाई देने लगती है। प्रकृति अपनी मनोरम छटा बिखेरती है। इस महीने में कभी तेज गर्मी तो कभी अचानक बारिश हो जाती है। मुझे याद है कि देहरादून में वर्ष 1983 में 14 अप्रैल को सुबह आसमान साफ था और दोपहर बाद तेज बारिश होने लगी। इस दिन मेरी दूसरे नंबर की बहिन की शादी थी। तब तीन दिन तक बारिश होती रही। इतनी ठंड पड़ी कि दिल्ली व अन्य स्थानों से आए मेहमानों के लिए बक्से से स्वैटर निकालनी पड़ी। कई तो स्वैटर साथ ही ले गए। कुछ ने बाद में लौटा भी दी, लेकिन कुछ लौटाने के लिए दौबारा घर नहीं आए। यानि प्रकृति भी इस महीने में मस्ती के मूड में आ जाती है। शायद इसीलिए एक अंग्रेज साहित्यकार ने इस महीने को श्रृगांर से लदी सनकी स्त्री की संज्ञा दी।
जब में करीब दस साल का था। तब कुछ बच्चों ने मोहल्ले के माली को मिलकर अप्रैल फूल बनाया। एक पार्सल माली को दिया। उसे कहा गया कि डाकिया उसके लिए दे गया है। पार्सल खोलना ही माली के लिए टेढ़ी खीर था। पार्सल बड़ा था। पैकिंग के भीतर दूसरी पैकिंग। इस तरह कई पैकिंग फाड़ने के बाद उसे भीतर से ईंट का टुकड़ा मिला। इसके बाद महंगू नाम का वह माली सभी बच्चों के पीछे ईंट लेकर दौडा। माली के इस व्यवहार से मुझे उसके साथ किए गए मजाक पर काफी पछतावा होता रहा। खैर जब जवान हुआ तो मेरे मित्र ने हमें अप्रैल फूल बना दिया। उसका नाम रतिनाथ योगेश्वर था। वह इलाहबाद से देहरादून नौकरी को आया था। रंगकर्मी व साहित्यकार रतिनाथ मेरे साथ दृष्टि संस्था में था। तब हम नुक्कड़ नाटक किया करते थे। वर्ष 1987 में रतिनाथ ने सभी साथियों को कहा कि वह शादी कर रहा है। पहली अप्रैल को शादी में उसने अपने घर रायपुर बुलाया। सभी ने सोचा कि वह अप्रैल फूल बना रहा है। इसलिए उसकी शादी में कोई नहीं गया। उसने कोर्ट मैरिज की थी और कार्ड भी नहीं बांटे थे।
मेरे लिए पहली अप्रैल का दिन, मजाक का दिन नहीं, बल्कि जिंदगी में परिवर्तन का दिन बनकर आया। मैं एक पत्र में काम कर रहा था। बार-बार मुझे तबादला कर कभी ऋषिकेश, कभी खुर्जा तो कभी सहानपुर भेज दिया जाता। मैं संपादक महोदय से परमानेंट करने की गुहार लगाता। वह कहते पहले मेहनत कर, फिर देखेंगे। मैं सहारनपुर में था। 28 मार्च 96 को संपादक महोदय का फोन आया और उन्होंने अचानक मुझे मिलने के लिए कहा। उनकी आबाज से मैं यही सोच रहा था कि फिर तबादले की मार पड़ने वाली है। मैने निश्चय कर लिया था कि यदि इस बार भी तबादला किया गया तो मैं नौकरी से त्यागपत्र दे दूंगा। पहली अप्रैल को संपादक महोदय से मिलने चला गया। पूर्वाह्न करीब 11 बजे संपादक महोदय अपनी सीट पर बैठे। दिन भर इंतजार के बाद भी उन्होंने अपने पास नहीं बुलाया। मुझे खीज चढ़ रही थी। मन ही मन अपनी किस्मत को कोस रहा था। शाम करीब पांच बजे संपादक महोदय ने मुझे बुलाया और साथ में एकाउंटेंट को भी। मुझे लगा कि अब मेरा हिसाब-किताब करके बाहर का रास्ता दिखाने वाले हैं। फिर संपादक महोदय ने एकाउंटेंट से कहा कि एक नया स्कूटर भानु को कल ही खरीदकर दे दो। साथ ही मुझे परमानेंट करने की घोषणा की। आज संपादक महोदय इस दुनियां में नहीं हैं, लेकिन वर्ष 96 की पहली अप्रैल मुझे हमेशा याद रहेगी।
भानु बंगवाल
जब में करीब दस साल का था। तब कुछ बच्चों ने मोहल्ले के माली को मिलकर अप्रैल फूल बनाया। एक पार्सल माली को दिया। उसे कहा गया कि डाकिया उसके लिए दे गया है। पार्सल खोलना ही माली के लिए टेढ़ी खीर था। पार्सल बड़ा था। पैकिंग के भीतर दूसरी पैकिंग। इस तरह कई पैकिंग फाड़ने के बाद उसे भीतर से ईंट का टुकड़ा मिला। इसके बाद महंगू नाम का वह माली सभी बच्चों के पीछे ईंट लेकर दौडा। माली के इस व्यवहार से मुझे उसके साथ किए गए मजाक पर काफी पछतावा होता रहा। खैर जब जवान हुआ तो मेरे मित्र ने हमें अप्रैल फूल बना दिया। उसका नाम रतिनाथ योगेश्वर था। वह इलाहबाद से देहरादून नौकरी को आया था। रंगकर्मी व साहित्यकार रतिनाथ मेरे साथ दृष्टि संस्था में था। तब हम नुक्कड़ नाटक किया करते थे। वर्ष 1987 में रतिनाथ ने सभी साथियों को कहा कि वह शादी कर रहा है। पहली अप्रैल को शादी में उसने अपने घर रायपुर बुलाया। सभी ने सोचा कि वह अप्रैल फूल बना रहा है। इसलिए उसकी शादी में कोई नहीं गया। उसने कोर्ट मैरिज की थी और कार्ड भी नहीं बांटे थे।
मेरे लिए पहली अप्रैल का दिन, मजाक का दिन नहीं, बल्कि जिंदगी में परिवर्तन का दिन बनकर आया। मैं एक पत्र में काम कर रहा था। बार-बार मुझे तबादला कर कभी ऋषिकेश, कभी खुर्जा तो कभी सहानपुर भेज दिया जाता। मैं संपादक महोदय से परमानेंट करने की गुहार लगाता। वह कहते पहले मेहनत कर, फिर देखेंगे। मैं सहारनपुर में था। 28 मार्च 96 को संपादक महोदय का फोन आया और उन्होंने अचानक मुझे मिलने के लिए कहा। उनकी आबाज से मैं यही सोच रहा था कि फिर तबादले की मार पड़ने वाली है। मैने निश्चय कर लिया था कि यदि इस बार भी तबादला किया गया तो मैं नौकरी से त्यागपत्र दे दूंगा। पहली अप्रैल को संपादक महोदय से मिलने चला गया। पूर्वाह्न करीब 11 बजे संपादक महोदय अपनी सीट पर बैठे। दिन भर इंतजार के बाद भी उन्होंने अपने पास नहीं बुलाया। मुझे खीज चढ़ रही थी। मन ही मन अपनी किस्मत को कोस रहा था। शाम करीब पांच बजे संपादक महोदय ने मुझे बुलाया और साथ में एकाउंटेंट को भी। मुझे लगा कि अब मेरा हिसाब-किताब करके बाहर का रास्ता दिखाने वाले हैं। फिर संपादक महोदय ने एकाउंटेंट से कहा कि एक नया स्कूटर भानु को कल ही खरीदकर दे दो। साथ ही मुझे परमानेंट करने की घोषणा की। आज संपादक महोदय इस दुनियां में नहीं हैं, लेकिन वर्ष 96 की पहली अप्रैल मुझे हमेशा याद रहेगी।
भानु बंगवाल
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