गंगा की अविरलता व निर्मलता को बरकरार रखना राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसे डंडे के जोर पर कुछ समय तक कायम रख सकते हैं, लेकिन जब तक जनजागरुकता के माध्यम से लोगो का मन परिवर्तित नहीं किया जाता, तब तक गंगा की निर्मलता की कल्पना बेमानी होगी। यह सच है कि उत्तराखंड में गंगा प्रदूषित नहीं है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक गंगा निर्मलता के साथ बहती है। इसके बाद ही गंगा की दुर्दशा शुरू होती है। जो हरिद्वार के बाद गंगासागर तक मैली होती चली गई। आज जरूरत है कानपुर से लेकर कलकत्ता तक गंगा किनारे बसे शहरों में कारखानों से निकलने वाले दूषित जल का ट्रीटमेंट। वहां जरूरत है भगीरथ के आंदोलन की। इसके विपरीत गंगा की शुद्धता को लेकर जब भी चिंता सताती है तो इस कलयुग के भगीरथों के आंदोलन का केंद्र बिंदु उत्तराखंड हो जाता है। चाहे इनमें प्रो. जीडी अग्रवाल हों या फिर भाजपा नेत्री उमा भारती। यह मुद्दा राष्ट्रीय है। उत्तराखंड राज्य किशोर अवस्था में है और ऐसे में बार-बार उत्तराखंड में आंदोलन होने से यहां कानून व्यवस्था एक बड़ी समस्या हो जाती है। साथ ही यहां का विकास प्रभावित होना भी लाजमी है।
उत्तराखंड का दो तिहाई भाग जंगलों में है। एक तिहाई भाग पर यहां लोग रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। यहां गंगा-यमुना सहित इसकी सहायक नदियों से समूचे मैदानी भाग को सिंचाई के लिए पानी मिल रहा है। साथ ही यहां की शुद्ध हवा का लाभ भी समूचे देश को मिल रहा है।
यहां के विकास की बात करें तो जल विद्युत परियोजनाएं ही एकमात्र संसाधान हैं, जिससे उत्तराखंड में स्मृद्धि आने के साथ ही देश भर को पर्याप्त बिजली दी जा सकती है। भगीरथों को इसमें भी परेशानी होती रहती है। गंगा का निरंतरता व निर्मलता की चिंता तो सही है। इसे बरकरार रखते हुए परियोजनाओं में बदलाव लाया जा सकता है, लेकिन उसे बंद कराना सही नहीं है। गंगा की चिंता करने वाले उत्तरकाशी जनपद के तीन बड़े हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को बंद कराकर खुश हैं। इनमें मनेरी भाली परियोजना में पंद्रह फीसदी, लोहारी नागपाला में पचास फीसदी काम हो चुका था। भैरवघाटी परियोजना प्रस्तावित थी। इन परियोजनाओं के बंद होने से करीब दस से 12 हजार लोग परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रभावित हुए। साथ ही कई के रोजगार के सपने भी धूमिल हुए। कई ग्रामीण अपनी जमीन से भी गए और घर से भी। अब उनके दुख दर्द को देखने व सुनने की किसी को फुर्सत नहीं। ऐसे लोगों की याद भगीरथों को क्यों नहीं आती। उत्तरकाशी के कई गांवों में बिजली पहुंचने का सपना भी साकार नहीं हो सका। उत्तरकाशी में ही जखोल, औसला व हर्षिल समेत तमाम ऐसे गांव हैं जहां के लोगों ने तो आज तक बिजली ही नहीं देखी। देखेंगे भी कैसे। जहां अंग्रेज चांद पर ठोकर मारकर आ गया, वहीं मेरे देश में बिल्लियां ही रास्ता काटती रहती हैं।
भानु बंगवाल
उत्तराखंड का दो तिहाई भाग जंगलों में है। एक तिहाई भाग पर यहां लोग रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। यहां गंगा-यमुना सहित इसकी सहायक नदियों से समूचे मैदानी भाग को सिंचाई के लिए पानी मिल रहा है। साथ ही यहां की शुद्ध हवा का लाभ भी समूचे देश को मिल रहा है।
यहां के विकास की बात करें तो जल विद्युत परियोजनाएं ही एकमात्र संसाधान हैं, जिससे उत्तराखंड में स्मृद्धि आने के साथ ही देश भर को पर्याप्त बिजली दी जा सकती है। भगीरथों को इसमें भी परेशानी होती रहती है। गंगा का निरंतरता व निर्मलता की चिंता तो सही है। इसे बरकरार रखते हुए परियोजनाओं में बदलाव लाया जा सकता है, लेकिन उसे बंद कराना सही नहीं है। गंगा की चिंता करने वाले उत्तरकाशी जनपद के तीन बड़े हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को बंद कराकर खुश हैं। इनमें मनेरी भाली परियोजना में पंद्रह फीसदी, लोहारी नागपाला में पचास फीसदी काम हो चुका था। भैरवघाटी परियोजना प्रस्तावित थी। इन परियोजनाओं के बंद होने से करीब दस से 12 हजार लोग परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रभावित हुए। साथ ही कई के रोजगार के सपने भी धूमिल हुए। कई ग्रामीण अपनी जमीन से भी गए और घर से भी। अब उनके दुख दर्द को देखने व सुनने की किसी को फुर्सत नहीं। ऐसे लोगों की याद भगीरथों को क्यों नहीं आती। उत्तरकाशी के कई गांवों में बिजली पहुंचने का सपना भी साकार नहीं हो सका। उत्तरकाशी में ही जखोल, औसला व हर्षिल समेत तमाम ऐसे गांव हैं जहां के लोगों ने तो आज तक बिजली ही नहीं देखी। देखेंगे भी कैसे। जहां अंग्रेज चांद पर ठोकर मारकर आ गया, वहीं मेरे देश में बिल्लियां ही रास्ता काटती रहती हैं।
भानु बंगवाल
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