बात उस समय की है, जब उत्तराखंड आंदोलन चरम पर था। आंदोलनकारी हर दिन आंदोलन की रणनीति बनाते और जनसैलाब सड़कों पर उतरता। वह दौर ऐसा था जब लोगों ने राज्य आंदोलन में अपनी सारी ताकत झोंकी हुई थी। महिलाओं व युवकों का सारा समय आंदोलन पर निकलता। वहीं, कई युवाओं ने सरकारी नौकरी तक दांव पर लगा दी। कुछ ने तो छोड़ भी दी थी। इस दौर पर ऐसे भी लोग थे, जिनका आंदोलन से कोई सरोकार नहीं था। ऐसे भी थे, जो आंदोलन के नाम पर रकम उगाने से भी पीछे नहीं रहे। कई तो ऐसे थे, जो आंदोलनकारियों के बीच घुसकर फोटो खिंचवाते। अखबारों की कटिंग व फोटो विदेशों में रह रहे उत्तराखंड के लोगों को भेजते और उनसे आंदोलन में सहयोग के रूप में चंदा मांगते। तो कई युवा ऐसे थे, जिन्होंने अपने घर की पंजी-पूंजी इस दौरान खर्च पर लगा दी। रैली निकालनी है, तो पेट्रोल भी चाहिए। ऐसे में कई युवा अपने साथियों की मदद करते। तब एक जुनून व मकसद था अलग राज्य का सपना। तब किसी ने सोचा तक नहीं था कि राज्य बनने के बाद बंदरबांट का दौर भी आएगा। सभी उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोकर आंदोलन कर रहे थे।
इस दौरान फिल्म नगरी मुंबई से भी डिब्बाबंद फिल्म बनाने वाले एक फिल्म निर्माता ने उत्तराखंड की तरफ रुख किया। उन्होंने समाचार पत्रों में फिल्म के लिए कलाकारों की आवश्यकता का विज्ञापन दिया। जिस दिन विज्ञापन छपा, उस दिन मैं और मेरे मित्र देवेंद्र खाली थे। समझ नहीं आ रहा था कि अखबार के लिए क्या स्टोरी बनाएं। ऐसे में देवेंद्र की नजर विज्ञापन पर गई। दोनों की चर्चा हुई कि कोई युवाओं को ठगने के लिए आ पहुंचा। अमूमन ऐसे लोग फिल्म में रोल के नाम पर युवाओं से रकम ऐंठते, दिखावे के लिए शूटिंग करते। फिर चले जाते। देवेंद्र ने डायरेक्ट के दिए नंबर पर फोन किया। उसने यह नहीं बताया कि वह पत्रकार है। उसने अपने भाई के लिए रोल देने का आग्रह किया। डायरेक्टर ने भाई को साथ लाने को कहा। इस पर देवेंद्र का छोटा भाई बनकर मैं और देवेंद्र गुरु रोड स्थित बताए पते पर गए। वहां खंडहरनुमा पुरानी हवेली में डायरेक्ट खरे ने अपना कार्यालय बनाया हुआ था। बाहर एक लड़की स्टूल पर बैठी थी। वह शायद रिशेप्निस्ट थी। उसने हमें बाहर रखी बैंच पर बैठने को कहा। भीतर गई और फिर वह वापस आई। उसने बताया कि हमें डायरेक्टर बुला रहे हैं।
भीतर कमरे की दीवारों पर फिल्म के पोस्टर चस्पा थे। ऐसा लग रहा था कि हम किसी सिनेमा हाल की गैलरी में पहुंच गए। मेज पर टेबल लैंप, फिल्मी पत्रिका आदि रखी थी। पूरा माहौल फिल्मी बनाने की कोशिश की गई थी। मेरे मित्र ने डायरेक्टर को बताया कि छोटा भाई भानु कलाकार है। फिल्म में काम करना चाहता है। इस पर डायरेक्टर ने पूछा पहले कभी काम किया। मैने न में उत्तर दिया। साथ ही बताया कि नुक्कड़ नाटक किया करता था। उसने मुझसे कुछ सवाल पूछे फिर एक कागज में कुछ लाइन लिखी और उसे दो मिनट में याद करके अभिनय के साथ सुनाने को कहा। डायलाग की लाइन यह थी- महाराज की जय हो, दुधवा नरेश पधार रहे हैं। मैने याद किया और जोर की आवाज में डायलाग बोल दिया। इस पर डायरेक्टर साहब झल्ला गए, बोले इतनी जोर से क्यों बोला। मैने कहा कि मैं एक छोटा सिपाही हूं। राजा के नजदीक नहीं जा पाउंगा। दूर से धीरे बोलूंगा तो उसे सुनाई नहीं देगा। इस पर डायरेक्टर महोदय चिढ़ गए। बोले ये बता डायरेक्टर तू है या मैं।
खैर हमने उनसे पैसों की बात की। कहा कि चाहे कितनी रकम ले लो, लेकिन रोल दे दो। उनकी भी आंखे चमकने लगी। तभी उनके पास एक स्थानीय व्यक्ति और आकर बैठ गया। उसने डायरेक्टर महोदय को बताया कि दोनों पत्रकार हैं। फिर डायरेक्टर ने स्पष्ट किया कि फिल्म उनके लिए बिजनेस है। इसे बनाने के लिए वह अपनी जेब का पैसा नहीं लगा सकते। कोई भी बिजनेसमैन अपना पैसा लगाकर बिजनेस नहीं करता। पैसा कलाकारों से ही लेंगे। यदि फिल्म चली, तो कलाकार आगे बढ़ेगा। नहीं चली, तो वह दूसरी बनाएंगे। उन्होंने बताया कि वह उत्तरा नाम की लड़की के जीवन पर फिल्म बना रहे हैं। जो उत्तराखंड में रहती है। फिल्म की नाम उन्होंने- उत्तरा का आंचल रखा है। खैर हमें वह कुछ स्पष्टवादी लगा। हम वहां से चले गए।
इस घटना के करीब तीन माह बीत गए। डायरेक्टर महोदय ने कलाकार आदि का चयन कर लिया। वह कभी कभार फोन करके फिल्म में काम करने को मुझे बुलाते। तब मैं उनसे मना करता। मैंने उन्हें समझाया कि उनके बारे में जानने के लिए कलाकार बनकर पहुंचा था। एक दिन शूटिंग भी शुरू हुई। डायरेक्टर महोदय ने सोचा कि कचहरी में आंदोलनकारी रहते हैं, क्यों न आंदोलन का सीन भी फिल्म में जोड़ा जाए। तामझाम लेकर पहुंच गए कचहरी। आंदोलनकारी युवा वहां शहीद स्मारक स्थल पर जमा रहते थे। उन्हें एकत्र कर डायरेक्टर महोदय ने नारे लगाने को कहा। नारे उन्होंने फिल्म के मुताबिक लिखे थे। जब भी डायरेक्टर महोदय कैमरा स्टार्ट करते- आंदोलनकारी उनके लिखे नारों के बजाय वह नारे लगाने लगते, जो अक्सर हर दिन उनकी जुंवा पर रहते थे। इस पर वह झल्ला गए। वह चिल्लाए-पैकअप। फिर तामझाम समेटकर चले गए। उसके बाद न कभी वह देहरादून नहीं दिखे और न कभी उनकी निर्देशित फिल्म-उत्तरा का आंचल ही, रिलीज हुई। उन्होंने कितनों को ठगा और कितनो का भविष्य बनाया, यह कोई नहीं जानता।
भानु बंगवाल
इस दौरान फिल्म नगरी मुंबई से भी डिब्बाबंद फिल्म बनाने वाले एक फिल्म निर्माता ने उत्तराखंड की तरफ रुख किया। उन्होंने समाचार पत्रों में फिल्म के लिए कलाकारों की आवश्यकता का विज्ञापन दिया। जिस दिन विज्ञापन छपा, उस दिन मैं और मेरे मित्र देवेंद्र खाली थे। समझ नहीं आ रहा था कि अखबार के लिए क्या स्टोरी बनाएं। ऐसे में देवेंद्र की नजर विज्ञापन पर गई। दोनों की चर्चा हुई कि कोई युवाओं को ठगने के लिए आ पहुंचा। अमूमन ऐसे लोग फिल्म में रोल के नाम पर युवाओं से रकम ऐंठते, दिखावे के लिए शूटिंग करते। फिर चले जाते। देवेंद्र ने डायरेक्ट के दिए नंबर पर फोन किया। उसने यह नहीं बताया कि वह पत्रकार है। उसने अपने भाई के लिए रोल देने का आग्रह किया। डायरेक्टर ने भाई को साथ लाने को कहा। इस पर देवेंद्र का छोटा भाई बनकर मैं और देवेंद्र गुरु रोड स्थित बताए पते पर गए। वहां खंडहरनुमा पुरानी हवेली में डायरेक्ट खरे ने अपना कार्यालय बनाया हुआ था। बाहर एक लड़की स्टूल पर बैठी थी। वह शायद रिशेप्निस्ट थी। उसने हमें बाहर रखी बैंच पर बैठने को कहा। भीतर गई और फिर वह वापस आई। उसने बताया कि हमें डायरेक्टर बुला रहे हैं।
भीतर कमरे की दीवारों पर फिल्म के पोस्टर चस्पा थे। ऐसा लग रहा था कि हम किसी सिनेमा हाल की गैलरी में पहुंच गए। मेज पर टेबल लैंप, फिल्मी पत्रिका आदि रखी थी। पूरा माहौल फिल्मी बनाने की कोशिश की गई थी। मेरे मित्र ने डायरेक्टर को बताया कि छोटा भाई भानु कलाकार है। फिल्म में काम करना चाहता है। इस पर डायरेक्टर ने पूछा पहले कभी काम किया। मैने न में उत्तर दिया। साथ ही बताया कि नुक्कड़ नाटक किया करता था। उसने मुझसे कुछ सवाल पूछे फिर एक कागज में कुछ लाइन लिखी और उसे दो मिनट में याद करके अभिनय के साथ सुनाने को कहा। डायलाग की लाइन यह थी- महाराज की जय हो, दुधवा नरेश पधार रहे हैं। मैने याद किया और जोर की आवाज में डायलाग बोल दिया। इस पर डायरेक्टर साहब झल्ला गए, बोले इतनी जोर से क्यों बोला। मैने कहा कि मैं एक छोटा सिपाही हूं। राजा के नजदीक नहीं जा पाउंगा। दूर से धीरे बोलूंगा तो उसे सुनाई नहीं देगा। इस पर डायरेक्टर महोदय चिढ़ गए। बोले ये बता डायरेक्टर तू है या मैं।
खैर हमने उनसे पैसों की बात की। कहा कि चाहे कितनी रकम ले लो, लेकिन रोल दे दो। उनकी भी आंखे चमकने लगी। तभी उनके पास एक स्थानीय व्यक्ति और आकर बैठ गया। उसने डायरेक्टर महोदय को बताया कि दोनों पत्रकार हैं। फिर डायरेक्टर ने स्पष्ट किया कि फिल्म उनके लिए बिजनेस है। इसे बनाने के लिए वह अपनी जेब का पैसा नहीं लगा सकते। कोई भी बिजनेसमैन अपना पैसा लगाकर बिजनेस नहीं करता। पैसा कलाकारों से ही लेंगे। यदि फिल्म चली, तो कलाकार आगे बढ़ेगा। नहीं चली, तो वह दूसरी बनाएंगे। उन्होंने बताया कि वह उत्तरा नाम की लड़की के जीवन पर फिल्म बना रहे हैं। जो उत्तराखंड में रहती है। फिल्म की नाम उन्होंने- उत्तरा का आंचल रखा है। खैर हमें वह कुछ स्पष्टवादी लगा। हम वहां से चले गए।
इस घटना के करीब तीन माह बीत गए। डायरेक्टर महोदय ने कलाकार आदि का चयन कर लिया। वह कभी कभार फोन करके फिल्म में काम करने को मुझे बुलाते। तब मैं उनसे मना करता। मैंने उन्हें समझाया कि उनके बारे में जानने के लिए कलाकार बनकर पहुंचा था। एक दिन शूटिंग भी शुरू हुई। डायरेक्टर महोदय ने सोचा कि कचहरी में आंदोलनकारी रहते हैं, क्यों न आंदोलन का सीन भी फिल्म में जोड़ा जाए। तामझाम लेकर पहुंच गए कचहरी। आंदोलनकारी युवा वहां शहीद स्मारक स्थल पर जमा रहते थे। उन्हें एकत्र कर डायरेक्टर महोदय ने नारे लगाने को कहा। नारे उन्होंने फिल्म के मुताबिक लिखे थे। जब भी डायरेक्टर महोदय कैमरा स्टार्ट करते- आंदोलनकारी उनके लिखे नारों के बजाय वह नारे लगाने लगते, जो अक्सर हर दिन उनकी जुंवा पर रहते थे। इस पर वह झल्ला गए। वह चिल्लाए-पैकअप। फिर तामझाम समेटकर चले गए। उसके बाद न कभी वह देहरादून नहीं दिखे और न कभी उनकी निर्देशित फिल्म-उत्तरा का आंचल ही, रिलीज हुई। उन्होंने कितनों को ठगा और कितनो का भविष्य बनाया, यह कोई नहीं जानता।
भानु बंगवाल
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