Monday, 20 February 2012

महाशिवरात्रि का रंग और भंग

छोटी उम्र में मुझे शिवरात्रि का कई दिन पहले से इंतजार रहता था। इस दिन सुबह मैं ब्रत रखता था, दोपहर बाद जब भूख लगती तो कुछ भी खाकर तोड़ दिया करता था। शाम को मेरी माताजी तरह-तरह के पकवान बनाती थी। इसलिए मुझे यह त्योहार ज्यादा पसंद रहा। तब ब्रत टुटने पर दुख भी होता, लेकिन साथ ही मन में यह भी विचार आता है भगवान शिव दयालु हैं। सभी को माफ कर देते हैं। सच ही तो है भगवान शिव काफी दयालु हैं। देहरादून में टपकेश्वर मंदिर से तो उनकी दयालुता की कहानी ही जुड़ी है। यहां  उनमें वात्सल्य का रूप भी देखा गया। जब बालक अश्वथामा को भूख लगी, तो उसने शिव की आराधना की। तब जिस गुफा में अश्वथामा बालक तपस्या कर रहे थे, भगवन शिव ने वहां दध की धार टपका दी। आज वहां से दूध तो नहीं टपकता है, लेकिन पानी जरूर टपकता है। कलयुग में दूध ने पानी का रंग ले लिया और शिव के प्रसाद ने भांग का। दयालुता के साथ ही भगवान शिव का खौफ भी रहता था। उनका रोद्र रूप रिषीकेश स्थित वीर भद्रेश्वर मंदिर की कहानी से जुड़ा है। जब राजा दक्ष ने यज्ञ किया तो शिव के गण वीरभद्र ने यज्ञ को तहस नहस कर दिया।
अब देखो शिवजी कितने दयालु हैं, तभी तो आजकल भक्त उनकी दयालुता से त्योहारों को भी जोड़ने लगे हैं। गलती करो, सब माफ कर देंगे। नशेड़ी तो वैसे हर त्योहार में नशे का बहाना बनाते हैं। होली में जब तक पी नहीं लें, तो खेलने का मजा नहीं आता है। कोई परिचित की शादी हो तो दो पैग के बाद ही नाचने के लिए पैर उठते हैं। गम में तो पूछो नहीं, वहां गम मिटाने के लिए पैग लगाने पड़ जाते हैं। अब महाशिव रात्रि के त्योहार में शिव का प्रसाद भांग जब तक न गटका जाए, तब तक त्योहार का औचित्य ही कहां रहा। भगवान शिव ने तो दुनियां को बचाने के लिए हलाहल (विष) गटककर अपने कंठ में रोक लिया। तभी से उन्हें नीलकंठ कहा जाता है, लेकिन मेरे शिव भक्त भाई किसे बचाने के लिए भांग का सेवन कर रहे हैं, यह आज तक मुझे समझ नहीं आया। सभी त्योहारों का मकसद आपसी सामांजस्य, भाईचारा बढ़ाने का ही होता है। शायद यही आपसी सामंजस्य है कि भंग गटककर सभी एक समान नजर आने लगते हैं। खैर अपनी-अपनी सोच है। इसमें कोई दूसरा हस्तक्षेप नहीं कर सकता, लेकिन इतना जरूर है कि वहां तक अपने रंग में रंगों, जहां तक किसी दूसरे को परेशानी न हो। तभी त्योहार मनाने का मकसद सार्थक होगा।
                                                                                                                 भानु बंगवाल

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