नशा कोई भी हो, इसकी अति अच्छी नहीं होती है। एक दिन यह व्यक्ति को बर्बाद करके ही छोड़ता है। शरीर का नाश तो होता ही है। साथ ही दिमाग भी सुन्न होने लगता है। नशा करने वाले की अंतरआत्मा उसे भीतर से समझाने का प्रयास भी करती है कि अब हद हो गई, लेकिन इसकी गिरफ्त में फंसे नशेड़ी की आत्मशक्ति कमजोर पड़ जाती है। फिर वह नशा करता है। कल छोड़ने का संकल्प लेता है और वह कल कभी नहीं आता। नशा छोड़ना चाहने वालों के लिए सबसे सरल सूत्र यह है कि वह हर सुबह यह संकल्प लें कि आज का दिन नशे से दूर रहकर काटेंगे। यदि नशा करेंगे तो कल। फिर उनका कल से कभी सामना नहीं होगा। हर दिन आज रहेगा और वह नशे से दूर रहेंगे। यही फार्मूला मैने भी अपनाया और अब नशे की इच्छा भी नहीं होती। हर सुबह ताजगी से होती है और रात को नींद भी आती है।
वैसे शुरूआती दौर में नशा डराता भी है। तभी किसी को अक्ल आ जाए तो शायद वह नशे से तौबा कर ले। बात वर्ष 1994 की है। मेरा देहरादून से ऱिषीकेश तबादला हुआ। तब रिषीकेश में मेरे कई मित्र पहले से थे। वे भी मेरी तरह विभिन्न समाचार पत्रों से जुड़े थे। मेरे एक मित्र शर्मा जी को मेरे रिषीकेश आने पर इतनी खुशी हुई कि वह हर रोज मुझे अपने घर में दावत का निमंत्रण देते और मैं टालता रहता। एक दिन वह जिद में ही उतर आए और जब मेरा कामकाज निपट गया तो अपने घर ले गए। घर में उनकी बहने, माताजी आदि थे। साथ ही उस दिन उनके दो अन्य मित्र भी आए हुए थे, जिन्हें मैं पहले से नहीं जानता था। मित्र ने एक कमरे में डबल बैड पर पुराना अखबार बिछाया। उसके ऊपर कटे फल, सलाद, नमकीन आदि की प्लेटें सजाई। एक प्लेट में पनीर भी था। साथ ही कांच के चार गिलास में शराब के पैग बनाए और चियर्स किया। एक पैग हलक से उतरते ही शर्मा जी के अन्य दो मित्र की आवाज भी निकलने लगी। इससे पहले वे चुप बैठे हुए थे। बात छिड़ते-छिड़ते एक स्वामीजी पर जा पहंची। स्वामी की तस्वीर शर्माजी के पीछे दीवार पर लगी थी। बात करते-करते शर्माजी ने गरदन घुमाकर स्वामी जी की तस्वीर को निहारा। फिर पलटकर हमारी तरफ मुंह किया। उनकी आवाज लड़ख़ाने लगी। तब तक तो शराब पीने की शुरूआत थी। एक पैग में ही शर्माजी को क्या हो गया, यह समझ नहीं आ रहा था। बात इतने में भी नहीं रुकी। उनके हाथ-पैर अकड़ने लगे। वह बिस्तर पर ही पसर गए। मैं व उनके अन्य मित्र घबरा गए कि कहीं शराब जहरीली तो नहीं है। फटाफट बिस्तर पर सजी प्लेटें व शराब की बोतल हटाई गई। इतने में शर्माजी बुरी तरह छटपटाने लगे। उनके मुंह से झाग निकलने लगा। मैंने आवाज देकर उनकी माता व बहनों को बुलाया, लेकिन किसी के समझ नहीं आया क्या हुआ। इसी बीच पड़ोस की एक महिला भी आ गई। शर्माजी की हालत देखकर वह चीखने लगी। महिलाएं कहने लगी कि उसे देवी आ रही है। तभी शर्मा जी को कुछ होश सा आने लगा और वह उस महिला को वहां से भागने को कहने लगे। महिला चीख रही थी और गुस्से में शर्माजी महिला पर चीखने लगे। खैर मैं और शर्माजी के दो अन्य मित्र डरे हुए थे कि कहीं उन्हें कुछ न हो जाए। इसके कुछ देर बाद जब शर्माजी की हालत स्थिर होने लगी, तो मैंने उनके घरवालों को सलाह दी कि अस्पताल ले जाकर उन्हें डाक्टर को दिखाएं। शर्माजी को डाक्टर के पास ले जाया गया और मैं अपने कमरे की तरफ रवाना हुआ। उस रात मैं खाने से भी मोहताज हो गया। तब होटल में खाना खाया करता था। देर रात होने के कारण होटल भी बंद हो गए थे। दावत तो गई, लेकिन उस रात की घटना से शराब ने भविष्य के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी। ये घंटी तब शायद मुझे सुनाई नहीं दी, लेकिन आज उस घंटी को मैं हमेशा महसूस करता हूं।
भानु बंगवाल
वैसे शुरूआती दौर में नशा डराता भी है। तभी किसी को अक्ल आ जाए तो शायद वह नशे से तौबा कर ले। बात वर्ष 1994 की है। मेरा देहरादून से ऱिषीकेश तबादला हुआ। तब रिषीकेश में मेरे कई मित्र पहले से थे। वे भी मेरी तरह विभिन्न समाचार पत्रों से जुड़े थे। मेरे एक मित्र शर्मा जी को मेरे रिषीकेश आने पर इतनी खुशी हुई कि वह हर रोज मुझे अपने घर में दावत का निमंत्रण देते और मैं टालता रहता। एक दिन वह जिद में ही उतर आए और जब मेरा कामकाज निपट गया तो अपने घर ले गए। घर में उनकी बहने, माताजी आदि थे। साथ ही उस दिन उनके दो अन्य मित्र भी आए हुए थे, जिन्हें मैं पहले से नहीं जानता था। मित्र ने एक कमरे में डबल बैड पर पुराना अखबार बिछाया। उसके ऊपर कटे फल, सलाद, नमकीन आदि की प्लेटें सजाई। एक प्लेट में पनीर भी था। साथ ही कांच के चार गिलास में शराब के पैग बनाए और चियर्स किया। एक पैग हलक से उतरते ही शर्मा जी के अन्य दो मित्र की आवाज भी निकलने लगी। इससे पहले वे चुप बैठे हुए थे। बात छिड़ते-छिड़ते एक स्वामीजी पर जा पहंची। स्वामी की तस्वीर शर्माजी के पीछे दीवार पर लगी थी। बात करते-करते शर्माजी ने गरदन घुमाकर स्वामी जी की तस्वीर को निहारा। फिर पलटकर हमारी तरफ मुंह किया। उनकी आवाज लड़ख़ाने लगी। तब तक तो शराब पीने की शुरूआत थी। एक पैग में ही शर्माजी को क्या हो गया, यह समझ नहीं आ रहा था। बात इतने में भी नहीं रुकी। उनके हाथ-पैर अकड़ने लगे। वह बिस्तर पर ही पसर गए। मैं व उनके अन्य मित्र घबरा गए कि कहीं शराब जहरीली तो नहीं है। फटाफट बिस्तर पर सजी प्लेटें व शराब की बोतल हटाई गई। इतने में शर्माजी बुरी तरह छटपटाने लगे। उनके मुंह से झाग निकलने लगा। मैंने आवाज देकर उनकी माता व बहनों को बुलाया, लेकिन किसी के समझ नहीं आया क्या हुआ। इसी बीच पड़ोस की एक महिला भी आ गई। शर्माजी की हालत देखकर वह चीखने लगी। महिलाएं कहने लगी कि उसे देवी आ रही है। तभी शर्मा जी को कुछ होश सा आने लगा और वह उस महिला को वहां से भागने को कहने लगे। महिला चीख रही थी और गुस्से में शर्माजी महिला पर चीखने लगे। खैर मैं और शर्माजी के दो अन्य मित्र डरे हुए थे कि कहीं उन्हें कुछ न हो जाए। इसके कुछ देर बाद जब शर्माजी की हालत स्थिर होने लगी, तो मैंने उनके घरवालों को सलाह दी कि अस्पताल ले जाकर उन्हें डाक्टर को दिखाएं। शर्माजी को डाक्टर के पास ले जाया गया और मैं अपने कमरे की तरफ रवाना हुआ। उस रात मैं खाने से भी मोहताज हो गया। तब होटल में खाना खाया करता था। देर रात होने के कारण होटल भी बंद हो गए थे। दावत तो गई, लेकिन उस रात की घटना से शराब ने भविष्य के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी। ये घंटी तब शायद मुझे सुनाई नहीं दी, लेकिन आज उस घंटी को मैं हमेशा महसूस करता हूं।
भानु बंगवाल
सही कहा सर, ऊपर वाला जो भी करता है, अच्छे के लिए ही करता है।
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