कोई भी काम अच्छा या बुरा तब ही होता है, जब उस पर किसी की प्रतिक्रया न हो जाए। इसके बगैर वह हमेशा अधूरा ही रहता है। महिला फेशन करे और कोई तारीफ नहीं करे, तो फेशन अधूरा। मेहनत से खाना बनाओ और खाने वाला तारीफ न करे तो मेहनत अधूरी। कवि, लेखक, रचनाकार के लिए उसकी रचना तब तक अधूरी रहती है, जब तक कोई उसे सुन या पढ़ न ले। रचना लिखना आसान है, लेकिन उसे किसी को सुनना या पढ़ाना अपने हाथ में नहीं रहता है। ऐसे में कई रचनाकार अपनी रचनाओं को सुनाने के लिए तरह-तरह के टोटके करते हैं। इस बार मैं ऐसे ही रचनाकार का जिक्र कर रहा हूं।
वर्ष, 1994 के दौरान मैं धर्मनगरी रिषीकेश में था। वहां एक दुकानदार बाबू थे। उनकी पडोसी दुकानदार से काफी तनातनी चलती थी। मसलन, बाबू ने आटे की चक्की खोली तो पडो़सी ने भी चक्की खोल दी। बाबू की दुकान में जब ग्राहक की भीड़ लगती, तो पड़ोसी चक्की में मिर्च पिसने लगता। साथ ही पंखा भी चला देता। ऐसे में मिर्च उड़ती और बाबू की दुकान के ग्राहक इससे परेशान होते। बाबू भी कम नहीं थे, वह पड़ोसी की करतूत पर रचना लिखते और ग्राहकों को सुनाने लगते।
पड़ोसी से दुश्मनी ने बाबू को कवि बना दिया। वह हर दिन उसके खिलाफ एक नई रचना गढ़ने लगा। धीरे-धीरे रचना में धार भी आने लगी, लेकिन ग्राहक रचना सुनने के मूढ़ में नहीं रहते थे। इसका बाबू को अहसास हुआ, तो उन्होंने एक पत्रकार को अपनी कविता सुनाने के लिए चुना। साथ ही उसे कविता सुनने व प्रतिक्रया देने की एवज में हर माह एक निर्धारित राशि देने का वादा भी किया। उन दिनों पत्रकार महोदय भी खाली चल रहे थे। सो उन्होंने बाबू की कविताएं सुनने को हामी भर दी। अब हर दिन पत्रकार महोदय बाबू के घर जाते और कविता सुनते। साथ ही वाहवाही करना भी नहीं भूलते।
यह क्रम कई दिनों तक चला। एक दिन पत्रकार महोदय ने बाबू के घर जाने में असहमति जताई। उन्होंने कहा कि हर दिन मैं आपके घर आ रहा हूं। जमाना खराब है, लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं। इसका समस्या का तोड़ भी बाबू के पास था। उन्होंने कहा कि मेरी बेटी को तुम ट्यूशन पढ़ा दो। उसकी पढ़ाई भी हो जाएगी और तुम मेरी कविता भी सुन लिया करना। यह तरीका पत्रकार महोदय को भी अच्छा लगा और शुरू कर दिया बाबू की बेटी को पढ़ाना। पढ़ाना क्या था, बस दिखावा। बेटी को जैसे ही पत्रकार महोदय पढ़ाना शुरू करते, तभी बाबू भी आ धमकते और बेटी को खेलने के लिए बाहर भेज देते। फिर शुरू होता कविता का सिलसिला।
हर रोज लगातार एक घंटे कविताएं सुनते-सुनते पत्रकार महोदय भी थक गए। वह मैरे पर आए और उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई। उनका कहना था कि किसी तरह मेरा पीछा कविताओं से छुड़वा दो। खैर पत्रकार महोदय ने किसी तरह बाबू से पीछा छुड़ा लिया, वहीं बाबू ने शुरू की नए श्रोता की तलाश। इस तलाश में जब भी कोई उनके परिचय में आता, तो वह यही कहते- बस मेरी कविता सुन लो.......
भानु बंगवाल
वर्ष, 1994 के दौरान मैं धर्मनगरी रिषीकेश में था। वहां एक दुकानदार बाबू थे। उनकी पडोसी दुकानदार से काफी तनातनी चलती थी। मसलन, बाबू ने आटे की चक्की खोली तो पडो़सी ने भी चक्की खोल दी। बाबू की दुकान में जब ग्राहक की भीड़ लगती, तो पड़ोसी चक्की में मिर्च पिसने लगता। साथ ही पंखा भी चला देता। ऐसे में मिर्च उड़ती और बाबू की दुकान के ग्राहक इससे परेशान होते। बाबू भी कम नहीं थे, वह पड़ोसी की करतूत पर रचना लिखते और ग्राहकों को सुनाने लगते।
पड़ोसी से दुश्मनी ने बाबू को कवि बना दिया। वह हर दिन उसके खिलाफ एक नई रचना गढ़ने लगा। धीरे-धीरे रचना में धार भी आने लगी, लेकिन ग्राहक रचना सुनने के मूढ़ में नहीं रहते थे। इसका बाबू को अहसास हुआ, तो उन्होंने एक पत्रकार को अपनी कविता सुनाने के लिए चुना। साथ ही उसे कविता सुनने व प्रतिक्रया देने की एवज में हर माह एक निर्धारित राशि देने का वादा भी किया। उन दिनों पत्रकार महोदय भी खाली चल रहे थे। सो उन्होंने बाबू की कविताएं सुनने को हामी भर दी। अब हर दिन पत्रकार महोदय बाबू के घर जाते और कविता सुनते। साथ ही वाहवाही करना भी नहीं भूलते।
यह क्रम कई दिनों तक चला। एक दिन पत्रकार महोदय ने बाबू के घर जाने में असहमति जताई। उन्होंने कहा कि हर दिन मैं आपके घर आ रहा हूं। जमाना खराब है, लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं। इसका समस्या का तोड़ भी बाबू के पास था। उन्होंने कहा कि मेरी बेटी को तुम ट्यूशन पढ़ा दो। उसकी पढ़ाई भी हो जाएगी और तुम मेरी कविता भी सुन लिया करना। यह तरीका पत्रकार महोदय को भी अच्छा लगा और शुरू कर दिया बाबू की बेटी को पढ़ाना। पढ़ाना क्या था, बस दिखावा। बेटी को जैसे ही पत्रकार महोदय पढ़ाना शुरू करते, तभी बाबू भी आ धमकते और बेटी को खेलने के लिए बाहर भेज देते। फिर शुरू होता कविता का सिलसिला।
हर रोज लगातार एक घंटे कविताएं सुनते-सुनते पत्रकार महोदय भी थक गए। वह मैरे पर आए और उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई। उनका कहना था कि किसी तरह मेरा पीछा कविताओं से छुड़वा दो। खैर पत्रकार महोदय ने किसी तरह बाबू से पीछा छुड़ा लिया, वहीं बाबू ने शुरू की नए श्रोता की तलाश। इस तलाश में जब भी कोई उनके परिचय में आता, तो वह यही कहते- बस मेरी कविता सुन लो.......
भानु बंगवाल
आजकल कहां हैं बाबू दुकानदार
ReplyDeletesearching u for kaveeta
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