Tuesday, 7 February 2012

आग लगी हमरी झुपड़िया में

तब मैं आठवीं में पढ़ता था।  खेत और जंगल से हमारा घर घिरा था। किराये के घर के पिछली तरफ तीन छोटे-छोटे कमरों में तीन किराएदार रहते थे। सामने की तरफ हमारा एक और कमरा था। उसके समीप एक मुस्लिम परिवार व दो अन्य हिंदू परिवार रहते थे। हमारे पास एक काफी बड़ा करीब तीस फुट लंबा और 15 फुट चौड़ा कमरा था। इसकी छत टिन की थी। इसकी पिछली दीवार से सटे तीन कमरे थे, जो अन्य लोगों के पास किराए में थे। कोई भी घर में जरा सी आवाज करे तो वह सभी को सुनाई देती थी।
कई बार घर से ही जोर-जोर की आवाज में पड़ोसियों के  साथ आपसी बातचीत भी हो जाती थी। हमारे घर के पिछली तरफ के हिस्से में सावित्री नाम की एक वृद्धा रहती थी। उसकी शादी एक दष्टिहीन से हुई थी। बच्चे नहीं होने पर उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया और सावित्री पति से अलग हो गई। इस स्वाभिमानी महिला ने दुख के समय सहायता के लिए अपने पति की तरफ कभी मुंह नहीं ताका। कोठियों में बर्तन मांजकर, झाड़ू- पोछा लगाकर ही वह अपना गुजारा करती थी। उसने एक बकरी भी पाली हुई थी।  बुढ़ापे में भी वह हमेशा खुश रहती थी। बच्चों को प्यार करती थी। घर जाने पर बच्चों के लिए कुछ न कुछ निकालकर वह उन्हें खिलाती भी थी।
सुबह उठते ही सावित्री सार्वजनिक नल से पानी भरती। चाय नाश्ता तैयार करती। साथ ही हर रोज गीत गाती- भरी है पाप की गठरी, जिसे वासुदेव ने पटकी। या यूं कहें कि सावित्री के गीतों से ही आस पड़ोस के लोगों की नींद खुलती थी।
सभी लोगों ने घर के आसपास खाली जमीन को सब्जी उगाने के उपयोग में लाया हुआ था। मुस्लिम परिवार में जमशेद आलम घर का मुखिया था। उनके बड़े बेटे जुनैद के नाम से ही घर के अन्य लोगों की पहचान थी। यानि जुनैद की मां, जुनैद के पापा आदि। जून का महिना था। मैं बड़े कमरे के सामने वाले दूसरे कमरे में दिन के समय सोया हुआ था। तभी मेरी माताजी ने मुझे उठाया, जल्दी उठ चारों और आग लग गई है।
मैं  बिस्तर से  उठा और बाहर की तरफ दौड़ा हुआ आया। तब तक जंगल से आग भड़कती हुई घर के निकट तक पहुंच गई। इस पर मैं फायर ब्रिगेड बुलाने को फोन करने के लिए निकट ही पिताजी के आफिस की तरफ दौड़ा। जब वापस आया तो नजारा काफी भयावह था। मौके पर जमा हुए लोगों की मदद से हमारे व आस पड़ोस के घर का सामान बाहर निकाल लिया गया था। मेरी बड़ी बहनों ने समझा कि हमारी माताजी आग की चपेट में आ गई है। रो-रोकर उनका बुरा हाल था। माताजी के सामने आने पर भी वह इस पर रोती रही, कि यदि कुछ हो जाता तो क्या होता। जुनैद की मां को घर की चिंता नहीं, बल्कि घर के पिछवाड़े में बाड़े की चिंता थी, जिसमें उसने सब्जियां उगाई हुई थी। फायर ब्रिगेड से आग बुझने पर वह बाड़ा बचने पर खुश थी।
इस अग्निकांड में सावित्री सिर्फ अपने साथ अपनी बकरी को ही बचा पाई। उसके घर का सारा सामान राख हो  गया। सामान क्या था। एक चारपाई, एक संदूक जिसमें कुछ रुपये व कपड़े। कुछ बर्तन। हरएक की आंख नम थी, लेकिन सावित्री की हिम्मत गजब की थी। वह भीतर से चाहे टूट चुकी हो, लेकिन बहार से पहाड़ जैसी नजर आ रही थी। उसने इस आग से हुए नुकसान को काफी हल्के में लिया। न कोई सरकारी सहायता की उसे दरकार थी और न ही किसी की मदद की। आग बुझने के बाद घुएं की कालीख पुते घर में सभी ने सामान वापस रखा। सावित्री के पास वापस रखने के लिए एक मात्र बकरी थी। उसे ही वह कमरे में ले गई। आस पड़ोस के लोगों ने उसे बिस्तर जरूर दे दिया। अगले दिन सुबह हुई और सावित्री फिर से गुनगुनाने लगी। इस बार उसके गाने के बोल बदल गए। तब से वह हमेशा यही गाती-आग लगी हमरी झुपड़िया में।
                                                                                                                        भानु बंगवाल

3 comments:

  1. यही तो जिंदगी है, आना-जाना लगा रहता है। न जाने का दुख और न ही आने की खुशी। वैसे भी मेरा मानना है कि ऊपर वाला कभी गलत नहीं करता।

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  2. जिन्दगी के उतार चढाव का एक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है आपने

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