Sunday, 25 August 2013

ना थैला ना सब्जी......

बचपन में मुझे जो पसंद था, काश आज भी वही होता तो शायद मैं खुश रहता। क्योंकि तब मैं ज्यादा महत्वकांक्षी नहीं था। वैसे तो आज भी नहीं हूं, लेकिन जो मुझे तब पसंद था वह आज उतना नहीं है। तब मुझे माताजी जब भी भोजन परोसती तो मेरी पसंद व नापसंद का ख्याल रखती थी। खाने में मुझे दाल के नाम पर मात्र अरहर ही पसंद थी, जो शायद आज भी बच्चों को ज्यादा पसंद रहती हो। साथ ही अपने घर की बजाय दूसरों के घऱ की दाल ही ज्यादा अच्छी लगती थी। इसी तरह सब्जियों में मुझे मात्र आलू ही पसंद था। सब्जियों में लौकी, कद्दू, तौरी, भिंडी, बैंगन, शिमला मिर्च, गोभी, राई पालक आदि मुझे पसंद नहीं थी। आज भी शायद बच्चों को यह सब्जियां पसंद नहीं होंगी। ऐसे में जब भी मां शाम को सब्जी बनाती थी, तो मुझे तवे या छोटी कढ़ाई में आलू की सब्जी जरूर बनाती। मैं हर शाम बड़े चाव से आलू ही खाता। कई बार तो चूल्हे में मैं साबुत आलू डाल देता। जब यह आग में भुन जाता तो छिलका उतारकर बड़े चाव से खाता।
उस समय ज्यादातर लोग अपने घरों में ही सब्जी उगाते थे। किसी रिश्तेदारी व नातेदार के यहां जब भी पिताजी जाते तो उनके पास थैला जरूर रहता। वापस लौटते समय परिचित पिताजी के थैले में घर की ताजा सब्जियां जरूर रख देते।
पहले लोगों में मेलजोल कुछ ज्यादा ही था। लोग अक्सर छुट्टी के दिन किसी न किसी के घर जरूर जाते थे। फिर टेलीविजन लोगों के घर आया और रविवार को टीवी में दूरदर्शन फिल्में दिखाने लगा। तब लोग मेहमानों को ज्यादा तव्वजो देने से कतराने लगे और टीवी पर ही ध्यान केंद्रित करने लगे। ऐसे में लोगों का किसी के घर जाना कम होने लगा। अब यह मेलजोल किसी खास त्योहार, शादी आदि आयोजन पर ही नजर आता है। अब रिश्तेदार व नातेदारों को नई पीढ़ी पहचानती तक नहीं।
समय बदला, आदतें बदली, पसंद व नापसंद भी बदल गई। अब आलू मेरे लिए इतना पसंदीदा नहीं रहा कि हर दिन इसे खाया जाए। अन्य सब्जियों की कीमतें आसामान छू रही हैं। उसे खरीदने में घर का बजट बिगड़ रहा है। एकमात्र आलू ही कुछ सस्ता है तो यह हर दिन नहीं खाया जा सकता। सोचता हूं कि मुझे यह हर दिन अब क्यों पसंद नहीं है। लोगों के घरों के आसपास की जमीन बची ही नहीं। ऐसे में लोगों ने सब्जियां घर पर उगानी भी बंद कर दी है। पहले सब्जियों के लिए एक सप्ताह में सौ रुपये का बजट रहता था, वही अब बढ़कर पांच सौ से लेकर हजार रुपये तक हो गया। महिने के आखिर में जब ज्यादा बजट सब्जियां बिगाड़ रही हैं तो कई बार बच्चों की गुल्लक टलोलने की नौबत भी आ रही है। फिर जिसके घर यदि खाली जमीन है और वह उसमें सब्जी उगा रहा है, तो क्यों इस महंगाई में वह दूसरे को देगा।
हम सब्जियों की बढ़ती कीमतों को लेकर सरकार को कोसते हैं। सरकार भी हाथ पर हाथ रखकर मौन है। किसान से सस्ती दरों पर सब्जी, आलू, प्याज आदि औने-पौने भाव में खरीदकर जमाखोरों गोदामों में डंप करने लगे हैं। ऐसे जमाखोरों के खिलाफ प्रदेश सरकार या केंद्र सरकार भी कोई कार्रवाई क्यों करेगी। क्योंकि सरकार चलानेवालों को भी तो चुनावों में व्यापारियों से चंदा लेना है। नतीजा यह है कि लगातार सब्जियों का अकाल दर्शाकर दाम बढ़ रहे हैं और घर का बजट बिगड़ रहा है। बच्चों के नए कपड़े व अन्य आवश्यक सामान के बजट का पैसा सब्जियों में ही खर्च हो रहा है। कमबख्त शेयर बाजार के मानिंद सब्जियों के भाव दिन भर चढ़ते व उतरते हैं। सुबह महंगी व देर रात को सब्जी कुछ सस्ती हो जाती है। कद्दू, तोरी, लोकी, शिमला मिर्च के दाम दिल में जख्म कर रहे हैं। वहीं हरी मिर्च सौ रुपये किलो पहुंचकर इन जख्मों पर आग लगा रही है। ऐसे में जहां सब्जी के रेट बड़ रहे हैं, वहीं थाली में सब्जी का स्थान कम होकर अचार की तरह परोसा जाने लगा है।  सब्जी भी ऐसी जो दिखने में ताजा लगती है, लेकिन पकाने के बाद स्वाद कसैला निकल रहा है। प्याज को ही ले लो। आजकल ऐसा प्याज बाजार में मिल रहा है कि काटने के आधे घंटे बाद ही उसकी ताजगी खत्म हो रही है। प्याज लकड़ी की तरह सख्त हो रहा है। आखिर क्यों कोई इस प्याज में अपना बजट बर्बाद करें। सख्त हो रहे प्याज को यदि हम नहीं खाएंगे तो हमारा क्या बिगड़ेगा। फिर जमाखोर भी इसे क्यों जमा करेंगे। जिस प्रकार गांधीजी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आदोलन चलाया था, उसी प्रकार प्याज का भी बहिष्कार क्यों न किया जाए। इसे न खाने से मुंह से भी बदबू नहीं आएगी और जमाखोरों को भी इसे सस्ता करने को विवश होना पड़ेगा। प्याज न खाने से तो काम चल जाएगा। फिर अन्य सब्जियों का क्या होगा। इसके लिए दो उपाय हैं। एक उपाय यह है कि इतना पकाओ की बर्बाद न हो। दूसरा उपाय है कि गमले में कैक्टस के कांटे उगाने की बजाय सब्जियों की पौध लगाओ। यदि पांच दस गमलों में मौसमी सब्जियों की पौध लगाई गई तो शायद एक छोटे परिवार के लिए महिने में पांच दस दिन की सब्जी का जुगाड़ तो होगा। ऐसे में सब्जी का बजट कुछ कम होगा। क्योंकि अब न तो मेरे पिताजी जिंदा हैं, न ही उनका थैला मेरे पास है और न ही थैले मे सब्जी देने वाला कोई है।
भानु बंगवाल

3 comments:

  1. सुन्दर विवेचन व चिंतन ..बंगवाल जी
    शिकायत से अच्छा ..लोभ संवरण आवश्यक है

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  2. sabji to pajad main khub ugti hai. magar ab ise ugane wale yahan nahi rah gaye hain. pahad ke logon ko nepale majduron se seekh lane chahiye. pahad main jo jamen pahle upjau thee. yahan ke kamchoro ne use banjar kar diya. lekin nepali majduro ne us banjar kheti par hal chalakar use fir se upjau bana diya hai. aaj hamare kheto par sabji ugakar nepali majdur hame he wah sabji bech rahe hai. agar pahadi kamchori chodkar kam karna suru kar de. to sabjiyon ke bhade dam ka asar pahad main nahi pad sakta hai.agar har koi aapki tarah is prakar ke mude uthate rahen to isse bhi logon ke samajh badh sakti hai.

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  3. niceeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee

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