अमूमन रविवार की सुबह टीवी ऑन कर पत्नी गाने लगा देती है। सुबह की नींद डीवीडी से चलाए गए फिल्म पहचान के गाने से खुली। गाना था- बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं। इस गाने पर ही मैं मनन करने लगा कि आज यह गीत कितना सार्थक है। लगा कि यह सही तो है कि इस जीवन में सुकून से रहने के लिए यदि इंसान दूसरे का आदर करे, सम्मान करे, परोपकार की भावना को जीवन का मूल मंत्र बना दे तो सचमुच यह दुनियां कितनी खूबसूरत बन जाएगी। कहीं जातिवाद, तो कहीं धर्म का आबंडर, कहीं क्षेत्रवाद, ऊंच-नीच की भावना, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब की खाई। ऐसे में आदमी से प्यार करने का अपराध आदमी करता है या फिर यह सिर्फ गाने तक ही सीमित है। हर जगह लोग लड़ रहे हैं। असम जल रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। यही चारो तरफ नजर आता है। क्या इंसानियत इस देश व दुनियां से खत्म हो गई है। हर व्यक्ति स्वार्थी होता जा रहा है। क्या हर तरफ अराजकता है, तो फिर ये दुनियां कैसे चल रही है। क्योंकि सिक्के के दो पहलू होते हैं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हम नाकारात्मक सोचते हैं तो नकारात्मक ही देखते हैं। उस दूसरे पहलू को हम नजरअंदाज कर देते हैं, जिसकी आज ज्यादा से ज्यादा आवश्यकता है। जो दूसरों के लिए प्रेरक है। सच्चे आनंद की अनुभूति व खुशहाल जीवन का सही मूलमंत्र भी वही है। यह पक्ष है आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं।
बुरा तलाशने चलोगे तो पूरी दुनियां ही बुरी नजर आएगी। हमएक दूसरे को कोसेंगे, लेकिन अच्छाई को देखने की फुर्सत नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे समुद्र के किनारे खड़े होने से लगता है कि सारी दुनियां में समुद्र है। दूर-दूर तक लहलहाते खेतों को निहारने पर पूरी दुनियां में खेत, पहाड़ों में जाने पर पहाड़ ही नजर आते हैं। यदि अच्छाई तलाशो तो छोटे-छोटे शहर व गांव में हमें अच्छाई ही नजर आने लगेगी। तब लगेगा कि दुनियां काफी खूबसूरत है। इसमें कई रंग भरे हैं। आज जरूरत है अच्छे रंगों को बढ़ावा व बुरे दिखने वाले रंगों को नजरअंदाज करने की।
यदि एक सिरे से अच्छाई खोजो तो इसकी कहीं कमी नहीं है। शुरूआत मैं देवभूमि उत्तराखंड से ही करने की कोशिश कर रहा हूं। हिमालय से आने वाली बयार सदियों से भाईचारे का संदेश दे रही है। तकरीबन सवा सौ साल पहले हिंदुओं के विश्वप्रसिद्ध धाम बदरीनाथ में प्रतिदिन होने वाली आरती नंदप्रयाग के बदरुदीन ने लिखी थी। यहां तो हिंदू-मुस्लिम का कोई भेदभाव नजर नहीं आता। चमोली ही जिले में यदि बदरीनाथ की आरती एक अपवाद हो सकती है, लेकिन सिखों के पवित्रस्थल हेमकुंट साहिब के बारे में क्या कहेंगे। वहां के प्रथम ग्रंथी भ्यूंडार गांव के नत्था सिंह रहे। आज भले ही नत्था सिंह इस दुनियां में नहीं हैं, लेकिन उनका नाम इस पवित्र स्थल से जुड़ना एक मिसाल बनी हुई है। जनकवि जहूर आलम के गीत की ये पंक्तियां (मिसाल लेकर चलो और मशाल लेकर चलो, सवाल जिंदा हैं जो वो सवाल लेकर चलो) उत्तराखंड में कितनी सार्थक बैठती हैं।
अब चमोली के कर्णप्रयाग क्षेत्र के काल्दा भैरव मंदिर को ही देखें, तो पता चलता है कि यहां का पुजारी दलित समुदाय से ताल्लुक रखता है। रुद्रप्रयाग जनपद के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के अंतर्गत बेड़ूबगड़ व डांगी नाम के दो गांव ऐसे हैं, जहां के लोग सांप्रदायिक सदभाव की मशाल को वर्षों से रोशन कर रहे हैं। इन गांवों में जहां ईद के मौके पर हिंदुओं में भी उत्साह रहता है, वहीं होली व दीपावली का त्योहार मुसलमान भी मनाते हैं। बात त्योहार मनाने व बधाई देने तक ही सीमित नहीं है। यहां देश प्रेम की भावना भी लोगों में कूट-कूट कर भरी है। देश की सीमाओं पर मोर्चा संभालते हुए शहीद होने वालों में उत्तराखंड के जवानो की संख्या भी कम नहीं है। सीमांत गांव नीती में तो 15 अगस्त को आजादी का पर्व त्योहार की रूप में मनाया जाता है। इसमें हर घर के बच्चे से लेकर बूढ़े शामिल होते हैं। हाल ही में जोशीमठ में सांप्रदायिक सदभाव की मशाल को आगे बढ़ाने का उदाहरण सामने आया। ईद के दिन भारी बारिश के कारण मैदान पानी से लबालब था। इस पर मुस्लिम समुदाय के लोग चिंता में थे कि नमाज कैसे पढ़ी जाए। उनकी चिंता को दूर करने के लिए स्थानीय गुरुद्वारे के प्रबंधक बूटा सिंह आगे आए और उन्हें नमाज पढ़ने के लिए गुरुद्वारे में आमंत्रित किया। यहां नमाज पढ़ना भी एक मिसाल बन गई।
क्या देवभूमि की बयार ही ऐसी है कि यहां आने वाले व्यक्ति का हृदय ही परिवर्तित हो जाता है। वर्ष 1990 में जब मैं हेमकुंट साहिब की यात्रा के लिए खड़ी चढ़ाई चढ़ रहा था, तो कई बार लगता कि सांस उखड़ जाएगी। ऐसे में वापस लौट रहे सिख यात्री हौंसला बंधाते। कुछएक ने तो मुझे गुलूकोज़ या टॉफी भी दी। तब मुझे ऐसा प्रेम व सदभाव काफी उत्साहजनक व आनंदित करने वाला लगा। यही नहीं गुरुसिक्खी में पगड़ी को पवित्र माना गया है। 30 मई 2012 का वाक्या है, जब जोशीमठ के समीप पीपलकोटी के कौडिया में एक टबेरा वाहन खाई से लुढ़कता हुआ अलकनंदा नदी में जा गिरा। इस दुर्घटना में दो लोग मौके पर ही मर गए। दो अलकनंदा के तेज बहाव में बह गए। सात घायल खाई में गिरे पड़े थे। स्थानीय लोग घायलों को निकालने के लिए घरो से दौड़ पड़े। खाई में उतरने के लिए रस्से की जरूरत थी। ऐसे में हेमकुंट जाने व वहां से लौट रहे सिख तीर्थ यात्रियों ने अपनी पगड़ियां खोल दी। उन्हें आपस में बांधकर रस्सा तैयार किया गया और घायलों को खाई से बाहर निकाला गया। यदि उस समय सिख यात्री समय पर मदद नहीं करते तो शायद मरने वालों की संख्या ज्यादा होती।
इन उदाहरणों को देख मेरे मन में सवाल उठता है कि क्या एक क्षेत्र विशेष में पहुंचकर या फिर कभी कभार ही हमारा मन अच्छाई की तरफ क्यों प्रेरित होता है। अच्छाई तो हमारे भीतर है। इसका इस्तेमाल हम विपदा पढ़ने पर ही क्यों करते हैं। मेरा तो मानना है कि धर्म वही है, जो दूरे धर्म का आदर करे। क्यो नहीं हम बारिश होने पर जन्माष्टमी मस्जिद, गुरुद्वारा व गिरजाघरों में मनाते। आज हम बुराई को ही उजागर कर रहे हैं और बुराई को ही फैला रहे हैं। अच्छाइयां दब रही हैं। यदि अच्छाई को बढ़ाएंगे तो समाज में अच्छाई ही फैलेगी। तब किसी को अचरज नहीं होगा कि मंदिर या गुरुद्वारे में भी नमाज पढ़ी गई। समाज को नई रोशनी दिखाने का काम मुझसे (यानी कि आम आदमी) अकेले से नहीं हो सकता। इस काम में आप भी साथ आइए। अरे जरा सी हलचल तो करके देखिए। फिर देखिए आज नहीं तो कल, हम होंगे कामयबा। .........
भानु बंगवाल
बुरा तलाशने चलोगे तो पूरी दुनियां ही बुरी नजर आएगी। हमएक दूसरे को कोसेंगे, लेकिन अच्छाई को देखने की फुर्सत नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे समुद्र के किनारे खड़े होने से लगता है कि सारी दुनियां में समुद्र है। दूर-दूर तक लहलहाते खेतों को निहारने पर पूरी दुनियां में खेत, पहाड़ों में जाने पर पहाड़ ही नजर आते हैं। यदि अच्छाई तलाशो तो छोटे-छोटे शहर व गांव में हमें अच्छाई ही नजर आने लगेगी। तब लगेगा कि दुनियां काफी खूबसूरत है। इसमें कई रंग भरे हैं। आज जरूरत है अच्छे रंगों को बढ़ावा व बुरे दिखने वाले रंगों को नजरअंदाज करने की।
यदि एक सिरे से अच्छाई खोजो तो इसकी कहीं कमी नहीं है। शुरूआत मैं देवभूमि उत्तराखंड से ही करने की कोशिश कर रहा हूं। हिमालय से आने वाली बयार सदियों से भाईचारे का संदेश दे रही है। तकरीबन सवा सौ साल पहले हिंदुओं के विश्वप्रसिद्ध धाम बदरीनाथ में प्रतिदिन होने वाली आरती नंदप्रयाग के बदरुदीन ने लिखी थी। यहां तो हिंदू-मुस्लिम का कोई भेदभाव नजर नहीं आता। चमोली ही जिले में यदि बदरीनाथ की आरती एक अपवाद हो सकती है, लेकिन सिखों के पवित्रस्थल हेमकुंट साहिब के बारे में क्या कहेंगे। वहां के प्रथम ग्रंथी भ्यूंडार गांव के नत्था सिंह रहे। आज भले ही नत्था सिंह इस दुनियां में नहीं हैं, लेकिन उनका नाम इस पवित्र स्थल से जुड़ना एक मिसाल बनी हुई है। जनकवि जहूर आलम के गीत की ये पंक्तियां (मिसाल लेकर चलो और मशाल लेकर चलो, सवाल जिंदा हैं जो वो सवाल लेकर चलो) उत्तराखंड में कितनी सार्थक बैठती हैं।
अब चमोली के कर्णप्रयाग क्षेत्र के काल्दा भैरव मंदिर को ही देखें, तो पता चलता है कि यहां का पुजारी दलित समुदाय से ताल्लुक रखता है। रुद्रप्रयाग जनपद के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के अंतर्गत बेड़ूबगड़ व डांगी नाम के दो गांव ऐसे हैं, जहां के लोग सांप्रदायिक सदभाव की मशाल को वर्षों से रोशन कर रहे हैं। इन गांवों में जहां ईद के मौके पर हिंदुओं में भी उत्साह रहता है, वहीं होली व दीपावली का त्योहार मुसलमान भी मनाते हैं। बात त्योहार मनाने व बधाई देने तक ही सीमित नहीं है। यहां देश प्रेम की भावना भी लोगों में कूट-कूट कर भरी है। देश की सीमाओं पर मोर्चा संभालते हुए शहीद होने वालों में उत्तराखंड के जवानो की संख्या भी कम नहीं है। सीमांत गांव नीती में तो 15 अगस्त को आजादी का पर्व त्योहार की रूप में मनाया जाता है। इसमें हर घर के बच्चे से लेकर बूढ़े शामिल होते हैं। हाल ही में जोशीमठ में सांप्रदायिक सदभाव की मशाल को आगे बढ़ाने का उदाहरण सामने आया। ईद के दिन भारी बारिश के कारण मैदान पानी से लबालब था। इस पर मुस्लिम समुदाय के लोग चिंता में थे कि नमाज कैसे पढ़ी जाए। उनकी चिंता को दूर करने के लिए स्थानीय गुरुद्वारे के प्रबंधक बूटा सिंह आगे आए और उन्हें नमाज पढ़ने के लिए गुरुद्वारे में आमंत्रित किया। यहां नमाज पढ़ना भी एक मिसाल बन गई।
क्या देवभूमि की बयार ही ऐसी है कि यहां आने वाले व्यक्ति का हृदय ही परिवर्तित हो जाता है। वर्ष 1990 में जब मैं हेमकुंट साहिब की यात्रा के लिए खड़ी चढ़ाई चढ़ रहा था, तो कई बार लगता कि सांस उखड़ जाएगी। ऐसे में वापस लौट रहे सिख यात्री हौंसला बंधाते। कुछएक ने तो मुझे गुलूकोज़ या टॉफी भी दी। तब मुझे ऐसा प्रेम व सदभाव काफी उत्साहजनक व आनंदित करने वाला लगा। यही नहीं गुरुसिक्खी में पगड़ी को पवित्र माना गया है। 30 मई 2012 का वाक्या है, जब जोशीमठ के समीप पीपलकोटी के कौडिया में एक टबेरा वाहन खाई से लुढ़कता हुआ अलकनंदा नदी में जा गिरा। इस दुर्घटना में दो लोग मौके पर ही मर गए। दो अलकनंदा के तेज बहाव में बह गए। सात घायल खाई में गिरे पड़े थे। स्थानीय लोग घायलों को निकालने के लिए घरो से दौड़ पड़े। खाई में उतरने के लिए रस्से की जरूरत थी। ऐसे में हेमकुंट जाने व वहां से लौट रहे सिख तीर्थ यात्रियों ने अपनी पगड़ियां खोल दी। उन्हें आपस में बांधकर रस्सा तैयार किया गया और घायलों को खाई से बाहर निकाला गया। यदि उस समय सिख यात्री समय पर मदद नहीं करते तो शायद मरने वालों की संख्या ज्यादा होती।
इन उदाहरणों को देख मेरे मन में सवाल उठता है कि क्या एक क्षेत्र विशेष में पहुंचकर या फिर कभी कभार ही हमारा मन अच्छाई की तरफ क्यों प्रेरित होता है। अच्छाई तो हमारे भीतर है। इसका इस्तेमाल हम विपदा पढ़ने पर ही क्यों करते हैं। मेरा तो मानना है कि धर्म वही है, जो दूरे धर्म का आदर करे। क्यो नहीं हम बारिश होने पर जन्माष्टमी मस्जिद, गुरुद्वारा व गिरजाघरों में मनाते। आज हम बुराई को ही उजागर कर रहे हैं और बुराई को ही फैला रहे हैं। अच्छाइयां दब रही हैं। यदि अच्छाई को बढ़ाएंगे तो समाज में अच्छाई ही फैलेगी। तब किसी को अचरज नहीं होगा कि मंदिर या गुरुद्वारे में भी नमाज पढ़ी गई। समाज को नई रोशनी दिखाने का काम मुझसे (यानी कि आम आदमी) अकेले से नहीं हो सकता। इस काम में आप भी साथ आइए। अरे जरा सी हलचल तो करके देखिए। फिर देखिए आज नहीं तो कल, हम होंगे कामयबा। .........
भानु बंगवाल
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